- गोपाल सिंह
बाजारों में दीपावली की रौनक अपने
चरम पर है। बाजार की हर गली नुक्कड़ पर खरीददारों की भीड़ हर साल की तरह इस बार भी
लक्ष्मी जी को अपने घर के आंगन तक लाने के लिए या यूँ कहें उन्हें रिझाने के सारे
साजो सामान को खरीदने में जुटी है। एक तरफ औरतें नये बर्तनों की खरीद में दुकानदार
से भाव-ताव में मशगूल हैं तो दूसरी तरफ छठे वेतन आयोग की खुशी में बच्चों की
फरमाइश को पूरा करते सरकारी कर्मचारी। ऐसे में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऐसी मँहगी
खरीददारी तो नहीं कर सकते लेकिन हां, कईं हफ्तों की मेहनत के बाद रंगे और
साफ-सुथरे घरों में देवी-देवताओं या हीरो-हिरोईनों के कुछ नये पोस्टर तो लगा ही
सकते हैं।
जहाँ बाजार की हर दुकान पर बेतहाशा
भीड़ दीपावली की हर खुशी को अपने आंचल में समेट लेना चाह रही हो वहीं इस बाजार का
एक कोना दर्दनाक सन्नाटे का अहसास करवाता है। 60 साल की एक बुढिय़ा के साथ 15 साल
की बच्ची दीयों के बीच ऐसे बैठी है जैसे उसके घर में कोई मातम छाया हो। उनके पास
अपने बनाये दीयों,
कुल्हड़ और मटकियों के अलावा और कोई नहीं। ऐसा कोई ग्राहक
नहीं जो उससे दस दिये तो खरीद सके और इतना नहीं, तो कम से कम मोल भाव तो करने वाला आये। यह
कैसी दीपावली जिसमें दीये खरीदने वाले नहीं। जिस त्योहार का नाम ही दीप से शुरू
होता हो, जिस
त्योहार का पर्याय ही दीप हो, जिस त्योंहार में रोशनी ही दीपों से होती हो, उन्हीं
दीयों का खरीददार आज इस समाज से कहीं दूर किसी बाजार खो सा गया है।
दीयों का खरीददार आज इस समाज से कहीं दूर किसी बाजार खो सा गया है।
पिछले कुछ सालों में बाजार के एक
कोने का यह सन्नाटा शहर के हर बाजार से होता हुआ गांव के हर कुम्हार के घर तक
पहुंच गया है। जिन कुम्हारों के बनाये दीयों से हर घर में रोशनी हुआ करती थी अब
उन्हीं घरों के दीये बुझने लगे हैं। आधुनिकता के इस दौर में दीपावली जैसे त्योहार
बाजारों की भेंट इस तरह चढ़ चुके हैं कि आज इन दीये बनाने वालों को अपने चूल्हे की
रोशनी जलाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इस आधुनिकता ने न केवल इन त्योंहारों
के अर्थ को समाप्त किया है बल्कि अपने ही गांव-समाज के कारीगरों के प्रति हमें
इतना असंवेदनशील भी बना दिया है कि हम हमारे पैसों से देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों
का तो पेट भर रहे हैं लेकिन गांव के कारीगरों को भूखे मारने में हमें कोई संकोच
नहीं। हम इस देश में मनाये जाने वाले त्योहारों के पीछे की ग्रामीण या स्थानीय
अर्थव्यवस्था को तो भूल ही चुके हैं और यही कारण है कि भीड़ भरे बाजार में कुम्हार
की दुकान का कोना अब सुनसान रहने लगा है। ऐसी बात नहीं है कि लोगों ने दीपावली पर
दीये जलाना बंद कर दिया है बल्कि हाथ से बने दियों को छोड़कर मशीन से बने दियों की
दुकानों पर दिखने वाली भीड़ से आप मनुष्य के भीतर दिन-ब-दिन घुसने वाली कृत्रिमता
का अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।
पहले के समाज में इस बात पर अधिक बल
था कि गाँव के कारीगरों को अधिक से अधिक काम कैसे मिले। इसी को देखते हुए यहांँ हर
त्योहार को किसी न किसी कला से जोड़ा है जिसमें एक, दो, तीन या अनेक प्रकार की हाथ से बनी चीजों का
इस्तेमाल होता हो। आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में दशहरे पर अभी भी कुछ युवा
पूरे गाँव का चक्कर निकालते हैं और हर घर की छत पर दो-चार पत्थर फेंकते हैं ताकि
छत में इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी की कुछ खपरेल टूट जाये। इन खपरेल के टूटने पर
गाँव के कुम्हार को हर साल काम मिलना तय था। इस प्रकार से ऐसे अनेक आयोजन हर तरह
की कारीगरी और उनकी रोजी- रोटी को सुरक्षित करने के लिए किए जाते रहे हैं।
18 वीं शताब्दी तक भारत के हर गाँव
में कम से कम अठारह तरह की कारीगरी का मिलना कोई साधारण बात नहीं थी लेकिन आज
हमारे लिए यह कोई महत्व का विषय नहीं बचा।
आज कुम्हार की आवाज इस आधुनिक
चकाचौंध वाले बाजारनुमा नक्कारखाने में तूती की आवाज जरूर लगती है लेकिन उसका चाक
समय की धुरी पर चलता है। इस समय से हम इतने आगे ना निकल जाएँ कि लोग पीछे रह जाएँ।
यदि आप अपने समाज के प्रति संवेदनशील
हैं तो कृपया इस दीपावली पर हाथ से बने दीये या मिट्टी के अन्य सामान खरीदें। संभव
हो तो आप अपने मित्रों को भी इसके लिए प्रेरित करें। बहुत ज्यादा नहीं इस दीपावली
पर आप पारंपरिक मिट्टी का बस इतना ही सामान खरीदें-
छोटे दीपक- 101 (तीन दिनों के लिए)
बड़ा दीपक-1
कुल्हड़- 4
चार खानों वाले कुल्हड़- 2
आकाश दीप- 1
सजावट के लिए स्थानीय कारीगरों
द्वारा अन्य सामान भी बनाया जाता है जो स्थानीय जरूरत और कारीगरों पर निर्भर करता
है।
1 comment:
Thank you for this Article.
I buy these product at all season as per requirement and also suggest to all people.
keep it up..
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