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Aug 1, 2023

उदंती.com, अगस्त - 2023


वर्ष - 16, अंक - 1
न इंतिज़ार करो इनका ऐ अज़ा-दारो

शहीद जाते हैं जन्नत को घर नहीं आते

                            – साबिर ज़फ़र

इस अंक में 

अनकहीः देशभक्ति का सबूत?  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः भारतीय सेना के उच्च नैतिक मूल्य - शशि पाधा

 शास्त्री जी की ईमानदारीः और वे नदी में कूद पड़े

 गीतः हिंद के सिपाही सा - बृज राज किशोर ‘राहगीर’

 पर्यावरणः  कहाँ गुम हो गई हमारी शस्यश्यामला धरती - रविन्द्र गिन्नौरे

दोहे: 1. आजादी, 2, सत्ता - रमेश गौतम 

आलेखः आज़ादी की जंग में यूँ कूदा पंजाब - रमेशराज

 जीवन दर्शनः सेना का सम्मान - विजय जोशी

 सॉनेटः श्रावण की शुष्कता - प्रो. विनीत मोहन औदिच्य

 आलेखः साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय - प्रमोद भार्गव

 स्वस्थ्यः मद्धिम संगीत से दर्द में राहत - स्रोत फीचर्स

 कहानीः मेरी आत्मा मेरा शरीर - विजय कुमार तिवारी

 लघुकथाः संकट और सम्पर्क - ओमा शर्मा

 कविताएँः 1. ईश्वर की खोज, 2. ऐ मजबूत दिल...  - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

 व्यंग्यः घर में पनपता चूहावाद - अखतर अली

 लघुकथाः शांति  - उदय प्रकाश

 धरोहरः प्राचीनतम गुफा नाट्यशाला रामगढ़ - उदंती फीचर्स

 प्रेरकः विनय और करुणा का पाठ - निशांत

 लघुकथाः आखिरी रास्ता - अजय पालीवाल ‘नरेश’    

 लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः एक से अधिक भाषा में रचनाएँ लिखने... - सूरज प्रकाश

 कविताएँः  1. सूरज को देना साक्ष्य,  2.  दु:ख को मुखाग्नि  - सांत्वना श्रीकांत

अनकहीः देशभक्ति का सबूत?

- डॉ.  रत्ना वर्मा

 देशभक्ति क्या है? आमतौर पर इंसान यही सोचता है कि देश की सेवा करना उसकी रक्षा करना तो सेना का काम है। तो क्या हम 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन सुबह- सुबह झंडा फहराकर और देश भक्ति गीत गाकर (आजकल तो गाते भी नहीं लोग। ) अपने अपने मोहल्ले और कॉलोनियों में लाउडस्पीकर लगाकर अपनी देशभक्ति का सबूत देते हैं और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं। जरा सोचिए, जब सेना का जवान अपनी देशभक्ति के लिए दिन रात 24 घंटे सीमा पर पहरा देते हुए हमारी रक्षा में तैनात खड़ा रहकर और खतरा होने पर अपनी जान देकर भी देश की रक्षा करता है, तो देश के नागरिक होने के नाते हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता? मेरा मानना है कि देश का प्रत्येक व्यक्ति भी हर दिन कुछ न कुछ अच्छा करके देशभक्त बन सकता है- अपने काम के प्रति ईमानदार रहकर, अपना काम समय पर पूरा करके, किसी से लड़ाई- झगड़ा न करके, पर्यावरण को बचाने के लिए पेड़ लगाकर, स्वच्छता के प्रति सचेत रहकर, किसी भूखे को खाना खिलाकर, किसी रोते चेहरे पर मुस्कान बिखेरकर...आदि- आदि। ऐसे बहुत अच्छे- अच्छे काम हैं, जिन्हें करते हुए आप अपनी देशभक्ति का सबूत दे सकते हैं। 

यह सब पढ़ कर कुछ के मन में यह विचार आ सकता है कि यह तो बच्चों को सीख देने वाली बातें हैं या उनके लिए निबंध का विषय है। जी हाँ, बात बिल्कुल यही है। पर सोचिए, हमें यह सब फिर से दोहराने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है ? सच तो यह है कि आजकल ये सब बातें सिर्फ़ किताबी या कोर्स में पढ़ाने वाली बातें बनकर रह गई हैं। इन छोटी- छोटी बातों को जीवन में ढालने की बात कहने पर सब व्यंग्य से मुस्कुरा देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं;  लेकिन इन सबको नकार देने का अंजाम आप और हम देख ही रहे हैं समाज को कितने खतरनाक परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।  

अच्छा छोड़िए इन किताबी बातों को, आप ये बताइए कि आप सुबह 10 बजे काम पर निकलते हैं और समय पर ऑफिस पहुँचने के लिए तेजी से गाड़ी भगाते हैं; पर आपको बीच में ही ट्रेफिक जाम मिलता है, आप बौखला जाते हैं और हॉर्न पर हॉर्न बजाए जाते हैं। पर क्या आपके हॉर्न बजाने से आपके लिए सब रास्ते से हट जाएँगे? नहीं न! तो सोचने वाली बात ये है कि आखिर जाम लगा क्यों? दरअसल हममें से ही कुछ लोग होते हैं, जो इस जाम का कारण बनते हैं- सड़क किनारे कहीं भी गाड़ी खड़ी करके किसी दुकान में सामान लेने चले जाते हैं, तो कभी ऑटो वाला सड़क के बीच में ही खड़ा हो जाता है और सवारी उतारने लगता है, सिटी बस अपने स्टॉप की जगह बस खड़ी न करके, जहाँ सवारी मिलती है, वहीं बस रोक देता है। सबको अपने स्थान पर पहुँचने की जल्दी रहती है, तो सारे नियम ताक पर रख कर सब आगे निकल जाना चाहते हैं भले ही जाम में घंटों फँसे रहते हैं। लेकिन जाम न लगे, इसके लिए प्रयास कोई भी नहीं करता। 

अब एक दूसरा दृश्य देखिए -आप सुबह- सुबह टहलने निकले है- पास के बगीचे में आप हरे- भरे पेड़ों के बीच स्वच्छ वातावरण में साँस लेते हुए व्यायाम करते हैं और दिन की अच्छी शुरूआत करना चाहते हैं; पर क्या सचमुच ऐसा हो पाता है?  पेड़ तो लगाए गए थे; पर उनकी सही देखभाल नहीं होने से या तो सूख गए हैं या मर चुके हैं, और तो और  चिप्स खाकर पॉलीथीन के रैपर फेंककर चारों ओर गंदगी फैलाने वालों की कमी नहीं है।  मानो ये गार्डन न होकर कबाड़खाना हो। इतना ही नहीं कुछ भक्त बगीचे में खिले रंग- बिरंगे फूलों को भी नोचकर ले जाते हैं।  जाहिर है सुबह- सुबह यह सब देखकर मन खिन्न हो ही जाएगा। 

अब आप कहेंगे इन बातों का देशभक्ति से क्या लेना देना। दरअसल समस्या तो यहीं है।  ऐसी ही छोटी- छोटी बातों से ही आपकी देशभक्ति झलकती है । जैसे हर व्यक्ति भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, सबको देश का दुश्मन मानते हैं;  लेकिन जब बात खुद पर आती है, तो  कहते हैं कि आजकल बिना रिश्वत दिए किसी भी ऑफिस में कोई काम नहीं होता। चपरासी से लेकर बाबू तक, सबको रिश्वत देते हुए अपना काम करवाना पड़ता है;  लेकिन जब इसके विरुद्ध आवाज उठाने की बारी आती है तो सब पीछे हट जाते हैं ,यह कहते हुए कि मेरे एक के विरोध करने से कौन देश का भला हो जाएगा। जाहिर है, जब कर्तव्य निभाने की बात आती है तो ट्रैफिक के सारे नियम तोड़ते हुए आगे बढ़ जाते हैं। 

कहने का तात्पर्य यही है कि अगर आप स्वयं को एक जिम्मेदार नागरिक कहते हैं, तो चाहे आप नौकरी कर रहे हों या व्यवसाय,  कुछ ऐसा काम कीजिए, जो आपके लिए और आपके देश की उन्नति में सहायक हो।  कम शब्दों में कहें तो सबसे पहले एक भारतीय होने पर गर्व महसूस कीजिए, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा का सम्मान करना सीखिए। छोटा और बड़ा हम अपने कर्मों से बनते हैं, तो ऐसे कर्म कीजिए कि देश को आप पर गर्व हो। बच्चों को ऐसी शिक्षा दीजिए कि वे देश की उन्नति में हाथ बँटा सकें। जीवन में ऐसी बहुत सी छोटी- बड़ी बातें हैं- जैसे- सब अपनी लेन पर चलेंगे, तो ट्रेफिक जाम नहीं होगा, कोई बगीचे से फूल नहीं तोड़ेगा तो फूलों की खुशबू से पूरा बगीचा महकेगा और यदि आपने कुछ पौधे रोपकर उनकी देखभाल की, तो हमारा पर्यावरण भी शुद्ध रहेगा, स्वच्छता बनाए रखेंगे, तो बीमारियों से बचेंगे। कामचोरी नहीं करेंगे, रिश्वत नहीं लेंगे, भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे, टैक्स चोरी नहीं करेंगे, तो हमारा देश उन्नत होगा और देश उन्नत होगा, तो यहाँ के रहने वाले खुशहाल होंगे। एक खुशहाल देश के लिए आप यदि ये छोटे - छोटे काम करते चले जाएँगे ,तो इससे बड़ी देश सेवा और देशभक्ति और कुछ हो ही नहीं सकती। 

आलेखः भारतीय सेना के उच्च नैतिक मूल्य

 - शशि पाधा

युद्ध और शांति दोनों पूर्णतया एक दूसरे के विपरीत दो परिस्थियाँ हैं। युद्ध शक्ति प्रदर्शन,साम्राज्य विस्तारण, शासन लोलुपता और ईर्ष्या-द्वेष की भावना का दुष्परिणाम और शान्ति परस्पर सौहार्द्र, सद्भावना और सुमति का सुफल। इतिहास साक्षी है कि जब तक धरती पर मानव अस्तित्व है युद्ध होते रहेंगे। किन्तु ऐसा युद्ध कभी भी उचित नहीं जो सम्पूर्ण मानवीय मूल्यों का विनाश कर दे। 

इस समय विश्व भर के सैनिक अत्यंत कठिन परिस्थितियों में संसार में शान्ति स्थापना हेतु बड़े साहस और वीरता के साथ विघटनकारी तत्वों से जूझ रहे हैं। वीरता का पथ विश्वशांति और सौहार्द की ओर भी जाता है । हर शांति प्रिय देश और उसकी सह्रदय जनता का एक मात्र लक्ष्य शान्ति स्थापना ही होता है। युद्ध की स्थिति में सैनिक को शत्रु पक्ष के सैनिकों से लड़ना ही है, क्योंकि यही उसका कर्म और धर्म है। लेकिन युद्ध में केवल हिंसा ही नहीं,मानवीय संवेदना का भी एक महत्त्वपूर्ण पक्ष होता है। जब शत्रु देश का सैनिक युद्ध बंदी हो जाए या घायल, असहाय अवस्था में सीमा क्षेत्र में पाया जाए तो उसकी सहायता करना, उसको चिकित्सा सहायता देना भी मानव का धर्म है।

कुछ वर्ष  पहले समाचार पत्रों में एक दिल दहलाने वाली खबर पढ़ी थी। भारत पाक सीमा के उत्तरी क्षेत्र जम्मू – कश्मीर में सीमा रक्षा में संलग्न एक पलटन के दो वीर सैनिकों की पाकिस्तान सैनिकों ने नृशंस हत्या कर दी। उस क्षेत्र में सर्दियों के दिनों में पाक सीमा की ओर से आतंकवादी छद्म वेश में भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने का प्रयत्न करते रहते हैं ताकि आतंक का वातावरण बना रहे। एक रात जब भारतीय सैनिक नियंत्रण रेखा के पास पेट्रोलिंग कर रहे थे तो नियंत्रण रेखा के नियमों का उल्लंघन करते हुए पाक सैनिकों ने घात लगाकर भारत के दो सैनिकों को घायल कर दिया। केवल इतना ही नहीं वे उन घायल सैनिकों में से एक का सर काटकर सीमा के पार ले गए तथा उनके शवों को क्षत-विक्षत करके फेंक दिया। यह पाकिस्तान की 29 बलोच रेजीमेंट के जवान थे। 

इस शर्मनाक एवं निर्मम काण्ड से सारा भारत क्षुब्ध था क्यों कि सैनिक केवल युद्ध करना नहीं, धैर्य, शालीनता और उच्च मानवीय आदर्शों का पाठ भी पढ़ता है। लेकिन पाकिस्तानी सेना का यह पक्ष बेहद कमजोर है। इसका एक कारण यह भी है कि उनकी सेना में बहुत बार छापामार आतंकियों को बिना अधिक शिक्षा के शामिल कर लिया जाता है जिनमें युद्ध की नैतिकताओं की बजाय जेहाद की गलत भावनाएँ भरी जाती हैं। 

सैनिक की संवेदना शांति से युद्ध तक असीमित विस्तार लिये होती है। जहाँ वह एक ओर जानलेवा भीषण संग्रामों के दुर्धर्ष आक्रमण में अपने साहस की कठिनतम परीक्षा से गुजरता है, दूसरी ओर घायल साथियों के प्रति करुणा की गहरी खाइयों से गिरते हुए अपने धैर्य को सँभालता है तो तीसरी ओर मृत या घायल शत्रु सैनिकों के प्रति नफरत से ऊपर उठकर मानवता के उच्चतम आदर्शों का प्रदर्शन करते हुए उनका सम्मान करता है। भारतीय सेना संवेदना के इस विस्तृत त्रिकोण पर सफलता के साथ संतुलन साधने की योग्यता रखने वाली विश्व की महानतम सेना है। 

भारतीय सेना द्वारा दुश्मन की सेना के युद्ध में पकड़े गए अथवा घायल या मृत सैनिकों के प्रति बहुत ही संवेदनात्मक व्यवहार रहा है। जो अपने आप में एक गर्व की बात है। कारगिल युद्ध के दौरान कारगिल क्षेत्र की ऊँची चोटियों पर पाक सेना के कुछ सैनिक भारतीय क्षेत्र में मृत पाए गए थे। उनके पास जो दस्तावेज पाए गये थे, उनसे पता चला कि यह पाकिस्तान की ‘नार्देर्न लाईट इन्फेंट्री‘ के जवान थे, जिन्हें आम नागरिक के कपड़े पहनाकर घुसपैठियों के रूप में कारगिल की चोटियों पर भेज दिया गया था। जब भारतीय अधिकारियों ने उनके शवों को पाकिस्तान को सौंपना चाहा तो उन्होंने उनके शव लेने से केवल इसलिए इन्कार कर दिया ताकि वे संयुक्त राष्ट्र संघ की रक्षा समिति तथा पूरे विश्व के सम्मुख यह साबित कर सकें कि उनकी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन नहीं किया है। तब मानव मूल्यों में आस्था रखने वाले हमारे सैनिकों ने पूरी इस्लामिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया था। ये भारतीय सेना के प्रशिक्षण तथा उनके हृदय में बसी हुई नैतिकता के ज्वलंत दृष्टांत हैं। 

आज की ऐसी दुखांत परिस्थितियों में मुझे इतिहास के उस पन्ने का स्मरण हो आया जहाँ युद्ध बंदी पोरस से सिकंदर ने पूछा, आप मेरे बंदी हैं, आप के साथ कैसा व्यवहार किया जाए ?” वीर पोरस ने कहा, ”जो एक वीर राजा दूसरे बंदी राजा के साथ करता है।” यह सुनकर सिकंदर को अपना सैनिक धर्म याद रहा और उसने पोरस को ना केवल रिहा कर दिया; अपितु उसकी वीरता को ध्यान में रखते हुए उसे उसका राज्य लौटा दिया। आज विडम्बना यह है कि भारत- पाक की जिस सीमा क्षेत्र में यह अमानवीय घटना हुई है, उसी क्षेत्र के कुछ ही दूर नदी के किनारे सिकंदर तथा पोरस का युद्ध भी हुआ था। तब दो शत्रुओं का परस्पर सद्भावना पूर्ण व्यवहार आने वाले युग के लिए एक उदाहरण बन गया था; लेकिन आज उसी भूमि पर इस उच्च परंपरा को अँगूठा दिखा दिया गया है।

युद्ध क्षेत्र में शत्रु पक्ष के साथ मानवता एवं सद्भावना के व्यवहार का एक अन्य उदाहरण आपके साथ साझा करना चाहूँगी। द्वितीय महायुद्ध के समय जर्मन जनरल ‘इरविन रौमेल’ जर्मन ‘अफ्रीका कोर’ का नेतृत्व कर रहे थे। इस युद्ध के समय जर्मन सेना ने शत्रु पक्ष के सैंकड़ों सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया था। अफ्रीका के जिस क्षेत्र में इन युद्ध बंदियों को रखा गया था वहाँ पीने के पानी तथा खाने के राशन की बहुत कमी हो गई थी। किसी अधिकारी के यह सुझाने के बाद कि युद्ध बंदियों की पानी तथा अन्न की सप्लाई कम कर दी जाए, जनरल रौमेल ने कड़े स्वर में कहा, “अब वे शत्रु नहीं, युद्धबंदी हैं और हमारे क्षेत्र में हैं। उनके और हमारे राशन- पानी की सप्लाई एक जैसी रहेगी।” ऐसा आदेश एक ऐसा वीर सैनिक ही दे सकता है जिसके हृदय में मानव प्रेम की भावना की अविरल धारा बह रही हो। 

युद्ध क्षेत्र में युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने की भावना प्रबल होती है। उस समय सैनिक का केवल एक ही उद्देश्य होता है कि किस प्रकार दृढ निश्चय के साथ शत्रु को नष्ट किया जाए। ऐसी प्रक्रिया में दोनों पक्षों में जान-हानि होना स्वाभाविक है। ऐसी मुठभेड़ में अगर शत्रु पक्ष का कोई सैनिक घायल हो जाए, पलटकर वार करने में अक्षम हो जाए, अथवा युद्ध बंदी हो जाए तो वहाँ मानव धर्म सर्वोपरि हो जाता है। तब वह शत्रु नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में विश्व की हर सेना को ‘जेनेवा कन्वेंशन’ के नियमों का पालन करना पड़ता है और फिर मानवता, दया तथा सौहार्द के भी कुछ अलिखित नियम होते हैं। यह बात मैं अपने सैनिक जीवन के अनेक अनुभवों के बाद पूरे अधिकार से कह सकती हूँ।

इस संदर्भ में मैं आपसे एक ऐसा दृष्टांत बाँटना चाहूँगी जो पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के बिलकुल विपरीत भारतीय सेना के नैतिक मूल्यों, भारतीय संस्कृति के आदर्शों पर प्रकाश डालता है। वर्ष 1971 के भयंकर भारत- पाक युद्ध के समय भारतीय सेना की पलटन (स्पेशल फोर्सिस की एक इकाई) जम्मू कश्मीर में छम्ब क्षेत्र में तैनात थी। वहाँ 17 दिन के भयानक युद्ध के समय हमारी पलटन तथा पाक सेना की एक पलटन की आपसी मुठभेड़ में शत्रु पक्ष के बहुत सारे सैनिक बुरी तरह घायल हो गये। परिस्थिति ऐसी थी कि वे सभी उस समय घायल अवस्था में भारतीय सीमा से लगे हुए क्षेत्र में थे जिन्हें पाकिस्तानी सेना रात के अँधियारे में वहीं छोड़कर चली गयी थी। हमारे सैनिकों ने उन सभी पाकिस्तानी घायलों को उठाकर पास के मेडिकल कैम्प तक पहुँचाया जहाँ डाक्टरों ने उनकी मरहम पट्टी करने के बाद में युद्धबंदियों के कैम्प में भेजा। 

उन घायल शत्रु सैनिकों में एक पाकिस्तानी सेना के कर्नल भी थे जिनकी अवस्था काफी गंभीर थी। उनकी मरहम पट्टी करते समय भारतीय डॉक्टरों को पता चला कि उनके शरीर को भारी मात्रा में रक्त पूर्ति की आवश्यकता थी, इसके बिना उनकी मृत्यु भी हो सकती थी। उस चिकित्सा शिविर में हमारे वीर सैनिकों ने मानव धर्म की उच्चतम मिसाल देते हुए उनके लिए अपना रक्त दान किया। ऐसे में न केवल हमारे चिकित्सा कर्मियों ने अपितु केवल एक रात पहले इन्हीं के साथ युद्ध में संलग्न सैनिकों ने रक्त दान कर के भारतीय सेना के उच्चतम आदर्शों का परिपालन किया। 

वर्ष 1971 के भारत –पाक युद्ध के उपरान्त पाक सेना के आत्म समर्पण के बाद लगभग 90,000 ( नब्बे हजार ) युद्धबंदियों को भारत में बहुत सद्भावना पूर्ण व्यवहार के साथ रखा गया था। इन्हें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई गई और ‘शिमला समझौते’ के बाद इन्हें सकुशल इनके देश भेज दिया गया। जिस देश के सैनिकों के प्रति भारत ने ऐसी संवेदनशीलता प्रकट की हो उसी देश के सैनिकों द्वारा ऐसे निर्मम व्यवहार को देखकर प्रत्येक भारतवासी का हृदय क्षोभ तथा ग्लानि से भर जाता है। 

भारतीय सेना की वीरता के उद्धरणों के साथ कई ऐसे वृत्तांत हैं जिन्हें जानकर यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे सैनिकों को युद्ध प्रशिक्षण के साथ-साथ मानव मूल्यों में दृढ़ आस्था रखने की शिक्षा भी दी जाती है। आज भारतीय सैनिकों के क्षत–विक्षत शव को देखकर मानव धर्म में विश्वास रखने वाले विश्व के प्रत्येक प्राणी के मन में दुःख, आक्रोश के साथ यह प्रश्न अवश्य उठ रहा है कि पाकिस्तान के सैनिकों को सांस्कृतिक परंपरा, मानव धर्म और मानवीय मूल्यों से किस तरह वंचित रखा गया है। 1965 के भारत पाक युद्ध के समय डेरा बाबा नानक की सीमा रेखा के पास एक भारतीय सैनिक अधिकारी के शरीर के टुकड़े–टुकड़े करके उन्हें भारतीय सीमा के अन्दर भिन्न भिन्न स्थानों पर फेंक दिया गया था। कारगिल युद्ध के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया तथा उनके अन्य साथियों के साथ पाकिस्तानी सेना ने जो अमानवीय व्यवहार किया था, उसे लेकर सौरभ कालिया के दुखी माता -पिता आज तक मानवाधिकार संस्थाओं का द्वार खटखटा रहे हैं।

अंत में मैं यही कहना चाहूँगी कि वीरता का पथ केवल संग्राम नहीं होता, सेवा, सहयोग, निर्माण, धैर्य, सेना के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं। इन उच्च मूल्यों के पीछे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक एवं दार्शनिक परंपरा ही सैनिक शिक्षा का आधार है। आज हम भारतवासियों को अपनी वीर सेना पर गर्व है किन्तु हम सब को एक जुट होकर पाकिस्तानी सेना के इस नृशंस कृत्य का अपनी वाणी से तथा लेखनी से विरोध करना चाहिए ताकि ऐसा कुकृत्य भविष्य में न हो। हमें कैप्टन सौरभ कालिया, लांस नायक हेमराज, लांस नायक सुधाकर जैसे वीर सैनिकों के साथ–साथ उन अनगिन अनाम शहीदों के बलिदान का स्मरण करते हुए यह दृढ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि जिस किसी भी परिस्थिति में हम हों, हम अपनी आवाज़ मानवाधिकार संस्थाओं तक पहुचाएँगे ताकि विश्व के सभी सैनिक वीरता का वह पथ अपना सकें जो विश्वशांति, मानवता और सौहार्द की ओर जाता है।  ■■

प्रेरकः शास्त्री जी की ईमानदारी

 और वे नदी में कूद पड़े


नाव गंगा के इस पार खड़ी है। यात्रियों से लगभग भर चुकी है। रामनगर के लिए खुलने ही वाली है, बस एक-दो सवारी चाहिए। उसी की बगल में एक नवयुवक खड़ा है। नाविक उसे पहचानता है। बोलता है - 'आ जाओ, खड़े क्यों हो, क्या रामनगर नहीं जाना है?' नवयुवक ने कहा, 'जाना है, लेकिन आज मैं तुम्हारी नाव से नहीं जा सकता।?' क्यों भैया, रोज तो इसी नाव से आते-जाते हो, आज क्या बात हो गयी? आज मेरे पास उतराई देने के लिए पैसे नहीं हैं। तुम जाओ। अरे! यह भी कोई बात हुई। आज नहीं, तो कल दे देना। नवयुवक ने सोचा, बड़ी मुश्किल से तो माँ मेरी पढ़ाई का खर्च जुटाती हैं। कल भी यदि पैसे का प्रबन्ध नहीं हुआ, तो कहाँ से दूँगा? उसने नाविक से कहा, तुम ले जाओ नौका, मैं नहीं जाने वाला। वह अपनी किताब कापियाँ एक हाथ में ऊपर उठा लेता है और छपाक नदी में कूद जाता है। नाविक देखता ही रह गया। मुख से निकला- अजीब मनमौजी लड़का है।

छप-छप करते नवयुवक गंगा नदी पार कर जाता है। रामनगर के तट पर अपनी किताबें रखकर कपड़े निचोड़ता है। भींगे कपड़े पहनकर वह घर पहुँचता है। माँ रामदुलारी इस हालत में अपने बेटे को देखकर चिंतित हो उठी।

अरे! तुम्हारे कपड़े तो भीगें हैं? जल्दी उतारो।

नवयुवक ने सारी बात बतलाते हुए कहा, तुम्ही बोलो माँ, अपनी मजबूरी मल्लाह को क्यों बतलाता? फिर वह बेचारा तो खुद गरीब आदमी है। उसकी नाव पर बिना उतराई दिए बैठना कहाँ तक उचित था? यही सोचकर मैं नाव पर नहीं चढ़ा। गंगा पार करके आया हूँ। माँ रामदुलारी ने अपने पुत्र को सीने से लगाते हुए कहा, 'बेटा, तू जरूर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।' वह नवयुवक अन्य कोई नहीं लाल बहादुर शास्त्री थे, जो देश के प्रधानमंत्री बने और 18 महीनों में ही राष्ट्र को प्रगति की राह दिखाई। ■■

गीतः हिंद के सिपाही सा

- बृज राज किशोर ‘राहगीर’

राष्ट्रभक्ति सीने में, लक्ष्यबेध है दृग में।

हिंद के सिपाही सा वीर कौन है जग में।।


चट्टानी देहों में साहस के जल-प्रपात।

आँधियाँ इरादों में, बाँहों में चक्रवात।

दामिनियाँ दौड़ रहीं शेरों की रग-रग में।

हिंद के सिपाही सा वीर कौन है जग में।।


ऊँचे हिमशिखरों पर, झुलसाते मरुथल में।

शौर्य-कथा लिखते हैं बारूदी हलचल में।

इंच-इंच सीमा को नाप रहे हैं डग में।

हिंद के सिपाही सा वीर कौन है जग में।।


काँप उठें शत्रु-हृदय, गूँजें जब युद्धघोष।

पूरा कंठस्थ इन्हें बलिदानी शब्दकोश।

ठोकर से चूर करें, बाधा जो हो पग में।

हिंद के सिपाही सा वीर कौन है जग में।।


प्राणों से अधिक प्रेम, माटी के कण-कण से।

समरांगन में उतरें महाकाल के गण से।

रणचण्डी विजयमाल लिए खड़ी है मग में।

हिंद के सिपाही सा वीर कौन है जग में।।


सम्पर्कः ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.) 250001, मोबाइल: 9412947379, ई मेल : brkishore@me.com

पर्यावरणः आजादी के बाद कहाँ गुम हो गई हमारी शस्यश्यामलां धरती

 - रविन्द्र गिन्नौरे

वन्दे मातरम्। 

सुजलाम् सुफलाम मलयजशीतलाम ।

शस्यश्यामलां मातरम् ।

शुभ्र ज्योत्स्ना-पुलकित यामिनीम, 

फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम...

 प्रकृति की नैसर्गिक छटा को चित्रित करता हमारा राष्ट्रगीत सांप्रदायिक राजनीति में घिसटकर प्रदूषित हो गया। अब इसे स्कूलों में गाए जाने पर परहेज किया जा रहा है। धरती पर प्रदूषण इतना बढ़ रहा कि हमारे पोते, पड़पोते सुजला सुफला-शस्य श्यामला का ही नहीं, शुभ्र ज्योत्स्ना का मतलब पूछ बैठेंगे! एयरकंडीशंड के फौलादी जंगल में बैठ कर तब उन्हें इसका मतलब क्या बताएँगे? क्योंकि तब तक तो भारत में ताजी हवा लेने के लिए पेशाबघरों जैसे शुद्ध वायु लेने के लिए बूथ बन चुके होंगे।

जन्मजात बच्चे रोगी-

  गर्म होती हुई धरती के मिजाज ने अहसास करा दिया है कि बदलती आबोहवा उस मोड़ तक आ पहुँची है, जहाँ हम बूढ़े नहीं होंगे याने अल्पायु में रोग घेर लेंगे। लाइलाज होते रोग उम्रदराज नहीं होने देंगे। भूख से किसी की मौत नहीं होगी। हर आदमी किसी-न-किसी बीमारी से अभिशप्त हो जाएगा। राजा और प्रजा बराबर हो जायेंगे। आम आदमी भी बड़े मजे से राजरोग का शिकार होता रहेगा। जनसंख्या घटाने के लिए सरकारी कार्यक्रमों पर खर्च होने वाली राशि बच जाएगी। जनसंख्या नियंत्रण का वृहत कार्यक्रम भी बंद करा दिया जाएगा, क्योंकि आदमी इतना निरीह हो जाएगा तो बच्चे पैदा कहाँ से कर सकेगा। अभी ही कई देशों में प्रदूषण के चलते जन्म दर गिर गई है, वहीं जन्मजात शिशु कई रोगों के साथ पैदा हो रहे हैं।

बारिश हुई तेजाबी-

विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार औद्योगिक विकास के शिखर पर पहुँच चुके देश अब अपनी बगलें झांक रहे हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दे दी है कि अब पेड़ न काटे जाएँ। जंगलों को लगे रहने दें। प्रदूषण का खरदूषण उन काले-कजरारे मेघों को भी लील गया है जो अमृतमयी वर्षा करते हैं। अब जहाँ-तहा अम्लीय वर्षा जीवन को शून्य कर रही है। उमड़ते-घुमड़ते बादल कब बरसे, इसकी आस लिए आसमान की ओर अब निहारेंगे नहीं बल्कि रिमझिम वर्षा से बचने के लिए हमें कंकरीट के जाल का सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि अब ऐसी बरसात विषैली, अम्लीय होगी। तब के लोग मेघदूत को पढ़ेंगे तो कालिदास पर हंसी आएगी कि इतना महान कवि कितना बेवकूफ था और कैसा था उसका यक्ष, जिसने ऐसे विष भरे मेघों को अपना संदेशवाहक बनाया वह भी अपनी प्रियतमा के पास संदेशा देने के लिए...।

हमारा विष भरा भोजन-

 आज का मानव भगवान शंकर का सहोदर बन गया है, जिन्होंने समुद्र मंथन से निकले विष को अपने कंठ में धारण कर लिया था। अब हम सब नीलकंठ विषपायी बन अपने कंठ में नहीं, बल्कि उदर विषपायी बन चुके हैं। हम हर रोज भोजन के साथ अनेक विषैले तत्वों को हजम कर रहे हैं। डीडीटी, एल्ड्रिन, पेस्टीसाइड्स, हर्बीसाइड्स जैसे खतरनाक विष कीड़े तो मार देते हैं और उसी का अंश हम रोज थोड़ा-थोड़ा निगल रहे हैं। तेज से तेज जहर अब खोजें जा रहे हैं। डीडीटी एडिक्ट हुए मच्छर अब दुनिया में मलेरिया का आतंक फैला रहे हैं। प्रकृति को नष्ट करते पेड़ों की हजारों प्रजातियाँ व जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ अब नहीं रहीं। ऐसी प्रजातियाँ बर्दास्त नहीं कर पाईं प्रदूषित होते बदलाव को, जैसा कि आज मनुष्य में बदलाव आया है।

पृथ्वी की छतरी में छेद-

स्माग स्मोक एँड फॉग अर्थात् धुआँ और कोहरा उस भस्मासुर की याद दिलाता है, जिसके डर से भगवान शंकर भी डरकर भागे-भागे फिरे थे। तब देवी पार्वती ने मनमोहनी रूप धारण कर उसे भस्म किया था। अब हजारों हजार भस्मासुरों ने सिर उठा लिया है। औद्योगिक विकास के पर्याय बने भस्मासुर दिन-रात उगल रहे हैं धुआं। सडक़ों पर रेंगते वाहन ऐसे भस्मासुर के ही लघु रूप है। अब कोई मनमोहिनी इन भस्मासुर को खत्म नहीं कर सकती। आखिर, इतने सारे भस्मासुरों के लिए एक मनमोहिनी तो पर्याप्त नहीं होगी। फैलता धुआँ और गहराती कालिख ने एक परत बिछा दी है।

गहराते प्रदूषण से हमारी ओजोन परत भी विदीर्ण होने लगी है। अंटार्कटिका में ओजोन की परत में छेद हो गया। इसका पता वैज्ञानिकों को 1984 में लगा। इसके साथ ही उत्तरी गोलार्ध, एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के एक बड़े भाग के ऊपर आसमान में ओजोन को विघटित करने वाले रसायनों का जमाव हो गया है। सूर्य की पराबैगनी घातक किरणें इन्हीं विदीर्ण राह से आ रही हैं, जो तेजी से चर्म रोग तो फैला रही हैं, वहीं खेती और पशुपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। सूर्य की घातक किरणों को रोकने के लिए हमारे वैज्ञानिकों के पास अंजनीपुत्र हनुमान नहीं हैं, जिसे वे आदेश देते। आज हनुमान नहीं हैं, नहीं तो वे सूर्य को लील लेते, तब तक हम ओजोन की छतरी की मरम्मत कर लेते। पराबैगनी किरणों से बचने के लिए अब हमें शुतुरमुर्ग का अनुसरण कर सिर छिपाना होगा। रेफफ्रिजरेटर, एयरकंडीशनरों और उन उत्पादों को हम छोड़ नहीं सकते, जिन्हें बनाने में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का इस्तेमाल होता है।यही गैस जिम्मेदार है, ओजोन की छतरी को विदीर्ण करने के लिए। इनका उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। नीम की छांव में बैठने की बजाए हमें गद्देदार बिस्तर ही सुकून देते हैं, जहां एयरकंडीशनर हो। मशीनी मानव को इतनी फुरसत कहाँ मिलती है कि वह पेड़ों की छांव तलाशे। अब तो ड्राइंग रूम में टीवी के ऊपर रखे गमले में प्लास्टिक का पेड़ ही हरे रंग का अहसास करा रहे हैं।

जंगल हुए वीरान-

यावत् भूमंडल धत समृगवन कानन्। 

तावत तिष्ठति मेदिन्याम् संतति: पुत्र पौत्रिकी।

वेदों के रचने वालों ने वनों के महत्त्व को बताते हुए कहा था कि "जब तक धरती वृक्षों एवं वन्य जीवों से समृद्ध वनों से सम्पन्न है, तब तक वह मनुष्यों की संतानों का पोषण करती रहेगी।" जंगलों,पहाड़ों को समृद्ध बनाने के लिए द्वापर युग में श्रीकृष्ण सबसे पहले आगे आए। गौपालक कृष्ण ने इन्द्र पूजा को नकार कर गोवर्धन पर्वत और वनों की पूजा का धार्मिक विधान बनाया। जंगल, पहाड़ों से ही जल और वायु शुद्ध होते हैं। इन्द्र के कुपित होने पर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर लोगों की रक्षा की थी। अब जगह जगह बादल फटने लगें हैं, ऐसी विभीषिका से बचाने एक कृष्ण कहाँ-कहाँ जाएँगे!

नदियाँ हुई बदहाल-

 हमारी जीवनदायिनी नदियाँ विषाक्त हो चली हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना नदी को ज़हरीला करने वाले कलियानाग का दमन किया था। अब यमुना ही क्या गंगा, कृष्णा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र सहित देश की हर नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं। अधिकांश नदियाँ मैला ढो रही है और सभ्य समाज उसमें अपना सीवेज डाल रहा है। 

श्रीकृष्ण ने ही गोवंश के महत्त्व को समझाया। गोधन दम पर भारत कभी सोने की चिडिय़ा कहलाता था। जहाँ दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। उसी देश में आज सिंथेटिक दूध बिक रहा है। दूध के नाम पर जहर भरा सफ़ेद पानी पीने के लिए विवश हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए निरापद नहीं है। हम यह जानते हैं, फिर भी उसका उपयोग कर रहे हैं।

लौटें प्रकृति की ओर-

धर्म और समाज में सन्निहित मानव प्रकृति का अविभाज्य अंग है। जहाँ सूर्य चमकता है, हवा बहती है

और नदियाँ जल देती हैं। प्रकृति की नैसर्गिक धरोहर को हमारा आधुनिक सभ्य समाज संजो नहीं पाया है। मध्यकाल में विश्नोई समाज के सैकड़ों लोगों का आत्मोसर्ग अब इतिहास के पन्ने में सिमटकर रह गया है। विश्नोई समाज  के लोगों ने पेड़ों को काटने के खिलाफ उनसे लिपट कर अपने प्राण दे दिए।  जिनकी दारूण गाथा में मानव का प्रकृति के साथ अटूट रिश्ते का संदेश निहित है। 

अब कभी कभार होने वाले समारोह और गोष्ठियों में वन, प्रकृति, जल, जंगलों को याद कर लिया जाता है, परन्तु इनका अनुसरण करके हम सब सुंदरलाल बहुगुणा क्यों नहीं बन सकते, जिन्होंने ‘चिपको आंदोलन’ से वनों को संरक्षित करने की दिशा दी। आज हालात इतने बिगड़ गये हैं कि जलवायु परिवर्तन का भयावह संकट दुनिया के सामने आ खड़ा हुआ है फिर भी हम नहीं चेते!

आज हम पर्यावरण बचाने का नाटक करते हैं, प्रतीकात्मक रैली निकालकर, सडक़ों पर प्रदर्शन कर अपनी शक्ति प्रदर्शन करते हैं। जिसके बाद शुरू होती है, बड़ी-बड़ी गोष्ठी, एयरकंडीशन हाल में बैठकर जंगलों और वन्य जीवों पर चिंता व्यक्त की जाती है।  नीलकंठ विषपायी मानव को आज जरूरत है कृष्ण का अनुसरण करने की। समाज को चाहिए कि वह विश्नोई समाज को आदर्श माने और अपनी ही लगाई बगिया में जाकर उन बचे-खुचे पेड़ों को थोड़ा सा सहेज ले तो घर ही नहीं, देश-दुनिया फिर हरी-भरी हो जाएगी। 

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ravindraginnore58@gmail.com

दोहे: 1. आजादी



  




 - रमेश गौतम 

आजादी का आज तक, कब समझे मन्तव्य। 

याद रहे अधिकार बस, भूल गए कर्तव्य।।


चक्रव्यूह कितने रची, छोड़ो कितने तीर। 

महानाट्य रचते रहे, अभिमन्यू -से वीर।।


हम हो जाएँ विहग से, आजादी आकाश। 

मिलकर भरें उड़ान फिर, तोड़े माया-पाश।।


नगर ढिंढोरा पीटते, करते जिन्दाबाद।

समझें ना जनतंत्र का, अब तक अनहद नाद।।


सुख-दुख बाँटो परस्पर, छोड़ो वाद-विवाद। 

आजादी के मूल में, है मानवतावाद।।


मिले पसीने को यहाँ, पूरा उसका दाम। 

आजादी के शेष हैं, ऐसे अभी मुकाम।।


अधिकारों को जब मिले, कर्तव्यों का चूर्ण। 

तब होगी जाकर कहीं, आजादी सम्पूर्ण।।


रखनी थी जनतंत्र की, हमें ठोस बुनियाद। 

तानाशाही के लिए, नहीं हुए आजाद।।





2. सत्ता

रहे राजसी ही सदा, सत्ता के सोपान। 

अधर बीच लटके हुए, लोकतंत्र के प्रान।।


रण-कौशल में निपुण हैं, सारे सत्ताधीश।

गठबंधन बेमेल कर, काटें जनमत-शीश।।


सब कुछ इसके हाथ में, धन वैभव अधिकार। 

बस सत्ता के पास में, होता नहीं विचार।।


जो भी आता टाँगता, बदलावों के चित्र। 

किन्तु व्यवस्था का कभी, बदला नहीं चरित्र।।


चुप्पी पर सौगात है, सच बोले तो जेल। 

सत्ता खिड़की खोलकर, देखे अपना खेल।।


दुष्कर्मों पर डालता, पर्दा विधि-विधान। 

सत्ताधारी की हनक, करती है हैरान।।


बिना भेद सबको सदा, देती रोटी दाल। 

सत्ता के जन से तभी, मिलते हैं सुरताल।।


आते हैं जो द्वार पर, लिए वोट की चाह। 

बन जाते जनतंत्र में, वे ही तानाशाह।।


सम्पर्कः रंगभूमि, 78 बी संजय नगर बरेली- 243005 (उ. प्र.)


आलेखः आजादी की जंग में यूँ कूदा पंजाब

- रमेशराज

गुलामी की जंजीरों में जकड़े हिन्दुस्तान को आजाद कराने में अपने प्राणों को संकट में डालकर लड़ने वाले रणबाँकुरों में एक तरफ जहां पं. चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, गणेश शंकर विद्यार्थी, गेंदालाल दीक्षित, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, सूर्यसेन, सुभाष चन्द्र बोस, तिलक, विपिन चन्द्र पाल, खुदीराम बोस, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पाण्डेय, बेगम हसरत महल आदि का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है, वही पंजाब की माटी ने भी ऐसे एक नहीं अनेक सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य को ढाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

देखा जाय तो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाने वालों में सिखों का नाम ही सबसे पहले आता है। भले ही सिखों के आंदोलन धार्मिक रंग लिये होते थे, किन्तु इन्हीं आयोजनों से अंग्रेजों की नींद हराम होती थी। 13 अप्रैल 1919 बैसाखी के दिन गुरु गोविंद सिंह के अमृतपान की स्मृति से जुड़ा पवित्र दिन आजादी के इतिहास में ऐसा ही धार्मिक उत्सव था। उस दिन जलियांवाला बाग में मनाये गये उत्सव के समय अंग्रेजों की गोलियों से 309 देशभक्तों को सदा-सदा के लिये विदा कर दिया। जलियाँवाला कांड के शहीदों में सर्वाधिक सिख ही थे।

उस समय ऐसा कोई राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था जिसमें सिखों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा न लिया हो। स्वदेशी, खिलाफत, बंग-भंग, भारत छोड़ो आंदोलनों के दौरान सिखों ने अपने प्राण संकट में डाले, जेलों में सड़े, तरह-तरह की यातनाएँ झेलीं।

 आजादी की लड़ाई में सिखों का योगदान सन् 1863 से शुरू होता है। सिखों ने भाई रामसिंह के नेतृत्व में ‘कूका’ आंदोलन प्रारम्भ किया। ‘कूका’ सम्प्रदाय के लोग स्वदेशी के पक्षधर थे। यह एक अर्धसैनिक संगठन था जिसमें अस्त्र-शस्त्र चलाने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती थी।

ये लोग खादी पहनते और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अंग्रेजी संस्कृति के कट्टरविरोधी इन ‘कूका’ सम्प्रदाय के लोगों ने जब अंग्रेजों की नीतियों का विरोध किया तो इनकी भिडंत गोरों की फौज से हो गयी। अंग्रेजों ने 66 कूकों को लुधियाना और 12 को मलेर कोटला में तोपों से बांधकर उड़ा दिया। इनके नेता रामसिंह को गिरफ्तार कर वर्मा भेज दिया | जहां वे अपनी मातृभूमि के लिए तड़पते हुए 1895 में स्वर्ग सिधार गये।

‘पंजाब  कॉलोनाइजेशन एक्ट- 1907’ के विरुद्ध सिखों ने जिस प्रकार प्रर्दशन किया, वह भी इतिहास में एक मिसाल है। इस आंदोलन के दौरान ही बांकेदयाल नामक क्रांतिकारी ने प्रसिद्ध पंजाबी गीत ‘पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओये’ लिखा था। इस गीत को सरदार अजीत सिंह, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानंद और बाद में सरदार भगत सिंह की टोली बड़े जोश भरे अंदाज में गाती थी। पंजाब कॉलोनाइजेशन एक्ट- 1907 के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वाले शीर्ष नेता थे सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपतराय, जिन्हें सरकार ने गिरफ्रतार कर माडले जेल में लम्बे समय तक रखा।

‘जलियाँवाला बाग’ के क्रूर हत्यारों के अफसर और ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करते समय लाठीचार्ज का आदेश  देकर लाला लाजपतराय की मौत का कारण बने सांडर्स से बदला लेने वाले ऊधम सिंह और भगत सिंह का नाम भी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।

लाला हरदयाल की प्रेरणा से सोहन सिंह भकना ने अंग्रेजों की सत्ता को नेस्तनाबूत करने के लिए ‘गदर पार्टी’ का गठन किया। गदर पार्टी के पंजाबी रणबांकुरे करतार सिंह, बलवंत सिंह, भाई भाग सिंह, भाई वतन सिंह, लाला हरदयाल, बाबा सोहन सिंह, बाबा केसर सिंह, बाबा पृथ्वी सिंह, बाबा करम सिंह, बाबा बसाखा सिंह, भाई संतोख सिंह, दलीप सिंह, मेवा सिंह जैसे अनेक सिख जाँबाजों ने अमेरिका में रहते हुये भारत माता को आजाद कराने के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध अलख जगा कर अपनी जान की बाजी लगाई। उन दिनों गदर पार्टी अमेरिका के अलावा शंघाई, हांगकांग, फिलीपींस तक फैली हुई थी। गदर पार्टी सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखती थी। शुरू में इसका नाम ‘हिन्दी एसोशिएसन’ रखा गया। बाद में यह गदर पार्टी में तब्दील हो गई। इस पार्टी ने अपने संघ का दफ्तर ‘युगांतर आश्रम’ के नाम से खोलकर ‘गदर’ नामक अखबार निकालने के लिए ‘गदर प्रेस’ की स्थापना की। ‘गदर’ अखबार ने पूरी दुनिया में अत्याचार, शोषण, साम्राज्यवाद के विरुद्ध गदर मचा दिया। इस पार्टी के अधिकांश जांबाज या तो गोलियों से भून दिये गये या फांसी पर लटका दिये गये।

गदर पार्टी से गोरी सरकार को कितना खतरा बन चुका था, इस बारे में तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओडायर लिखते हैं- ‘‘ हिन्दुस्तान में केवल तेरह हजार गोरी फौज थी जिसकी नुमाइश सारे हिन्दुस्तान में करके सरकार के रौब को कायम करने की चेष्टा की जा रही थी। ये भी बूढ़े थे। यदि ऐसी अवस्था में सैनफ्रैन्सिको से चलने वाले ‘गदर पार्टी के सिपाहियों की आवाज मुल्क तक पहुँच  जाती तो निश्चत है कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता। ’’ ■■

सम्पर्कः  15/109, ईसानगर अलीगढ़ , मो. नं, -8171455889

जीवन दर्शनः सेना का सम्मान

 - विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

सम्मान ह्रदय से उपजा वह भाव है जो शब्दों की सीमा से आगे बढ़कर हमारे व्यवहार में परिलक्षित हो। कितने दुख की बात है कि एक ओर जहाँ हमारी सेना के जवान विषम परिस्थितियों में भी रात रात भर चुस्ती के साथ चौकसी इसलिए करते हैं ताकि हम अपने घरों पर आराम से सो सकें। पर वास्तविकता तो यह है कि हमारे तन मन में उनके लिये वह सम्मान दिखाई नहीं देता, जिसके कि वह हकदार हैं बगैर किसी आशा के।
    इस मामले में सर्वोत्तम उदाहरण से हाल ही में साक्षात्कार हुआ। पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एम. एन. लखेरा की पुस्तक “ टूवर्ड्स रिसर्जेंट इंडिया ” से जिसमें उन्होंने अपने संस्मरण इस प्रकार समाहित किए हैं
    मैं इंग्लैंड आमंत्रित किया गया था उनके देश में यूरोप विजय की 50 वीं वर्षगाँठ के समारोह में सहभागिता हेतु। उद्घाटन समोराह के बाद मैं अपने चार अन्य सैन्य अधिकारियों के साथ बाहर निकला। हम सब ट्रेफिक रुकने के सिग्नल की प्रतीक्षा करने लगे ताकि सड़क पार कर सकें। मेरे साथ विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित कैप्टन उमराव सिंह भी थे एवं उस समय हम सब भारतीय सेना की वर्दी में थे।
    अचानक से एक कार सड़क पर हमारी ओर को किनारे पर आकर रुकी। उसमें से एक सज्जन उतरे तथा उमराव सिंह से अनुमति लेने की मुद्रा में हाथ बढ़ाते हुए कहा - सर क्या मैं विक्टोरिया क्रास से सम्मानित आप से हाथ मिला सकता हूँ। स्पष्ट था उन्होंने अपनी कार के शीशे से वर्दी पर सजे विक्टोरिया क्रास को देख लिया था तथा हमें सम्मान प्रदान करने हेतु कार रोककर उतरे थे।
    फिर मेरी ओर देखकर वे बोले - जनरल आप भी भारतीय सेना से ही हैं। और जब मैंने सहमति में सिर हिलाया तो उन्होंने अपना नाम बताया - माइकल हेसलटीन।
   अब हमें सहसास हुआ कि हम वहां के उप प्रधान मंत्री के सामने खड़े थे। हम अवाक रह गए। हमने उन्हें तथा ब्रिटिश सरकार को उस सौजन्य हेतु दिल से धन्यवाद दिया। उन्होंने अपनी बात जारी रखी – सर  धन्यवाद तो हमें देना चाहिए आपके देश का, आपकी सेना का, जिन्होंने प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध में विजय हेतु अपना सहयोग प्रदान किया। हम इतने कृतघ्न कैसे हो सकते हैं कि आपके देश के योगदान को भूल जाएँ।
    अचानक मैंने देखा कि सड़क पर ट्रेफिक थम गया था। मैंने उन्हे धन्यवाद देते हुए प्रस्थान की अनुमति चाही ताकि हम लोगों की असुविधा का कारण न बन सकें। उन पलों में मार्ग पर प्रतीक्षित अन्य लोग बेसब्र तो थे पर किसी ने भी हार्न तक नहीं बजाया।
    वे हमारा मंतव्य समझ गए – सर हम सब सड़क से आगे कैसे आगे गुजर सकते हैं जबकि विक्टोरिया क्रास से सम्मानित समूह सड़क के उस पर नहीं जा पायेगा।
    उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए हमने तुरंत सड़क पार की। दूसरी ओर पहुँचकर मुड़ने पर हमने देखा कि हेसलटीन अब तक हमारी सुरक्षा के लिये वहीं खड़े थे और जब हमने हाथ हिलाकर विदाई दी तभी मार्ग पर अब तक रुका ट्रेफिक फिर से आरंभ हुआ।
     यह है वह श्रद्धा और सम्मान जो वहाँ के जनमानस के मन में है। तभी लगता है यही सम्मान हमारे देश में भी, सबको तो नहीं पर कम से कम परम वीर चक्र एवं अशोक चक्र से सम्मानित सैनिकों को हमारे जन मानस द्वारा प्रदान किया ही जा सकता है और किया ही जाना चाहिये।

कभी ठंड में ठिठुर कर देख लेना
कभी तपती धूप में जलकर देख लेना
कैसे होती है हिफ़ाज़त मुल्क की
कभी सरहद पर चलकर देख लेना
                      ■■
 
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,
 मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

सॉनेटः श्रावण की शुष्कता


 





-   प्रो. विनीत मोहन औदिच्य

नैराश्य की हाला अंतस में जब प्राणों तक भर जाती है

श्रावण की शुष्कता उदासीन चंचल मन को भरमाती है

जिससे चाहा सुख अंजुरि भर उसने क्यों कर यूँ  ठुकराया

घनघोर उपेक्षा से आहत पागल मनवा ये भरपाया।


है उथल-पुथल इस जीवन में है ग्रस्त व्याधियों से ये तन

और व्यथा की सरिता में डूबा रहता है मेरा भावुक मन

भोगी मैंने पीड़ा अनंत पर मौन सदा को साध लिया

कड़वाहट को नित पी- पीकर जीवन कैसा भरपूर जिया?


हँस हँस कर जीना सीख लिया अब तो मुझको विश्रांति मिले

क्या समय कभी वो आएगा जब आशा का कोई पुष्प खिले?

कब होगा पुण्य उदय मेरा, सोया सा भाग्य मुस्काएगा ?

कोई  मेरा प्रियतम बनकर , आ मुझको गले लगाएगा ?


हो घना तमस जब चहुँ दिस में तब लगे शून्यता ही प्रियकर

किस किस का मैं प्रतिकार करूँ अब तुम्ही बता दो हे प्रियवर!

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(विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी ), ग़ज़लकार एवं सॉनेटियर, सागर, मध्यप्रदेश

आलेखः साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय

 
 - प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘हमारी संस्कृति में भूखा नहीं सोने की अवधारणा है। ‘हमारा यह पारंपरिक बोध नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एक ऐसा मूल्य रचता है, जिसका अनुभव करते हुए भक्ति कालीन कवि कबीर दास करते हैं, ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। आपहूं भूखा न रहे, साधु न भूखा जाय।‘ इस अपरिग्रहवादी चेतना का संकेत न्यायालय ने देते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि यह सुनिश्चित हो कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के तहत खाद्यान्न अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे। न्यायमूर्ति एमआर शाह और हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति तक भोजन पहुँचाना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। न्यायालय कोरोना महामारी के दौरान भारतबंदी के चलते प्रवासी श्रमिकों की कठिनाइयों से संबंधित जनहित मामले पर सुनवाई कर रहा है। अदालत ने इस मामले को स्वतः संज्ञान में लिया है। इस सिलसिले में सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज, हर्थ मंदर और जगदीप झोकर की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने दलील दी कि खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले लाभार्थियों की संज्ञा बढ़ गई है, अतएव इस परिप्रेक्ष्य में यदि कानून को प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया तो कई जरूरतमंद और पात्र लाभार्थी मुफ्त अनाज के लाभ से वंचित रह जाएँगे। सरकार का इस बावत दावा है कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में भारत में लोगों की प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि हुई है। यह वृद्धि औसतन 33.4 प्रतिशत तक है। इसलिए प्रति व्यक्ति बड़ी आमदनी के चलते बड़ी संख्या में गरीब परिवार उच्च आयवर्ग के दायरे में आ गए हैं। सरकार को यह दलील इसलिए देनी पड़ी; क्योंकि न्यायालय ने कहा था कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों तक इस योजना के लाभ को सीमित न रखा जाए। बल्कि अन्य जरूरत मंदो को भी इसमें शामिल किया जाए। 

केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत अवधि तीन महीने और बढ़ाकर पेट की भूख से जूझ रहे लोगों को 2020 से गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज हर महीने निःशुल्क दे रही है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत 81.35 करोड़ लाभार्थी हैं। कोरोना महामारी के दौरान जब काम-धंधे पूरी तरह बंद हो गए थे, तब रोज कुआँ खोदकर प्यास बुझाने वाले लोगों के लिए भोजन का संकट गहरा गया था। अतएव भारत सरकार ने गरीबों को राहत पहुँचाने की दृष्टि से पूर्व से मिल रहे सस्ते अनाज के अतिरिक्त पाँच किलो मुफ्त अनाज देने की थी, जो वर्तमान में भी जारी है। हालाँकि इस दौरान तालाबंदी पूरी तरह खोल दी गई है। नतीजतन शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएँ पटरी पर लौटने लगी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्राण फूँकने का काम धार्मिक पर्यटन ने पूरे देश में कर दिया है। ऐसे में अन्न योजना अनिश्चित आय वाले लोगों के लिए सोने में सुहागा है। 

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पूरे देश में लागू है। इस कानून के तहत देशभर के 81.35 करोड़ लोगों को 2 रुपये किलो गेहूँ और 3 रुपये किलो चावल मिलते हैं। गरीबों अथवा भूखों को मिले इस सस्ते अनाज के अधिकार को इस कानून का उज्ज्वल पक्ष माना जाता है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में देश के लोग भूखे हैं, तो यह चिंता का विषय है कि आजादी के अमृत महोत्सव में भी यह भूख क्यों बनी हुई है। अतएव संदेह होना लाजिमी है कि नीतियाँ कुछ ऐसी जरूर हैं, जो बड़ी संख्या में लोगों को रोटी के हक से वंचित बनाए रखने का काम कर रही हैं। पूंजी और संसाधनों पर अधिकार आबादी के चंद लोगों की मुट्ठी में सिमटता जा रहा है। इस लिहाज से भूख की समस्या का यह हल सम्मानजनक व स्थाई नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में अब देश के नीति-नियंताओं की कोशिशें यह होनी चाहिए कि लोग श्रम से आजीविका कमाने के उपायों से खुद जुड़ें और आगे भूख सूचकांक का जब भी नया सर्वेक्षण आए, तो उसमें भूखों की संख्या घटती दिखे? न्यायालय की यही चिंता है। 

 खाद्य सुरक्षा के तहत करीब 67 फीसदी आबादी को रियायती दर पर अनाज दिया जा रहा है। इसके दायरे में शहरों में रहने वाले 50 प्रतिशत और गांवों में रहने वाले 75 फीसदी लोग हैं। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में दिया जाता है। लोगों तक इस अनाज को पहुंचाने के लिए पीडीएस की 1,61,854 दुकानों पर इपीओएस मशीनें लगाई गई हैं, जिससे अनाज की तौल सही हो। सही लोगों को इसका लाभ मिले, इसके लिए राशन कार्डों को आधार नंबर से भी जोड़ा गया है। बावजूद पूरे देश में यह वितरण प्रणाली संदिग्ध बनी हुई है। निःशुल्क अनाज योजना के अंतर्गत एक हजार लाख टन से अधिक अनाज प्रतिमाह बाँटा जा रहा है। अब तक इस योजना पर 3.40 लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इसलिए  पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री और उद्योगपति इस अनाज को मुफ्त बांटने का विरोध कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की भी यही मंषा है। हालांकि भारत सरकार केवल गरीबों को अनाज में सब्सिडी देती हो, ऐसा नहीं है। उद्योगपतियों के भी हजारों करोड़ के कर हर साल माफ कर दिए जाते हैं। सरकारी कर्मचारियों और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के न केवल वेतन बढ़ा दिए जाते हैं, बल्कि सुविधाएँ भी बढ़ा दी जाती हैं। इसलिए वंचितों को राहत देना आवश्यक है।  

दरअसल किसी भी देष के राष्ट्र प्रमुख की प्रतिबद्धता विश्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब व वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा के प्रति होती है। लिहाजा जेनेवा में 2014 में आयोजित हुए 160 सदस्यों वाले डब्ल्यूटीओ के सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने समुचित व्यापार अनुबंध; टेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। इस करार की सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश, अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता। जबकि भारत के साथ विडंबना है कि खाद्य सुरक्षा कानून और मुफ्त अन्न योजना के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है। इस लिहाज से मोदी ने करार पर हस्ताक्षर नहीं करके यह मंशा जता दी थी कि उनकी सरकार गरीबों के हक में है। इस कानून में गरीब गर्भवती महिलाओं और स्तन पान कराने वाली माताओं तथा बच्चों के लिए अलग से पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है।

 सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अनाज की खरीद और उसके उचित भण्डारण की रहती है। अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भण्डारण की अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होता है, जो नहीं हो पा रही है। उचित व्यवस्था की कमी के चलते गोदामों में लाखों टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। यह अनाज इतनी बड़ी मात्रा में होता है कि एक साल तक 2 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता है। अनाज की यह बरबादी भण्डारों की कमी की बजाय अनाज भण्डारण में बरती जा रहीं लापरवाहियों के चलते कहीं ज्यादा होती है। देश में किसानों की मेहनत और जैविक व पारंपरिक खेती को बढ़ावा देने के उपायों के चलते कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूँ उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे, लेकिन अब मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में भी गेहूँ की रिकार्ड पैदावार हो रही है। इसमें धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, दालें और मोटे अनाज व तिलहन शामिल हैं। 2021-22 में 29 करोड़ टन अनाज की पैदावार हुई है। जिससे बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न मांग की आपूर्ति की जा सके। 

साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरूआत के साथ ही अनाज भण्डारण की समस्या भी सुरसा मुख बनती रही है। एक स्थान पर बड़ी मात्रा में भडांरण और फिर उसका संरक्षण अपने आप में एक चुनौती भरा और बड़ी धनराशि से हासिल होने वाले लक्ष्य हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की पूरे देश में एक साथ खरीद, भंडारण और फिर राज्यवार माँग के अनुसार वितरण का दायित्व भारतीय खाद्य निगम के पास है। जबकि भंडारों के निर्माण का काम केंद्रीय भण्डार निगम संभालता है। इसी तर्ज पर राज्य सरकारों के भी भण्डार निगम हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आजादी के 75 साल बाद भी बढ़ते उत्पादन के अनुपात मे केंद्र और राज्य दोनों ही स्तर पर अनाज भण्डार के मुकम्मल इतंजाम नहीं हो पाए हैं। नतीजतन हजारों टन खुले में रखा अनाज बेमौसम बारिश से सड़ जाता है, जबकि लाखों लोग रोटी की आस में टकटकी लगाए पथराई आँखों से सोते रहते हैं। 

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सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., , मो. 09425488224, 09981061100


स्वास्थ्यः मद्धिम संगीत से दर्द में राहत

 
वर्ष
1960 में दंत चिकित्सकों के एक समूह ने एक दिलचस्प अध्ययन प्रकाशित किया था: जब उन्होंने ऑपरेशन के दौरान अपने मरीज़ों के लिए संगीत बजाया, तो मरीज़ों को दर्द का कम अहसास हुआ। कुछ मरीज़ों को तो नाइट्रस ऑक्साइड (लॉफिंग गैस) या लोकल निश्चेतक देने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। अब चूहों पर हुए एक अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि यह क्यों काम करता है।

दरअसल 1960 के उपरोक्त अध्ययन के बाद से कई वैज्ञानिक मोज़ार्ट से लेकर माइकल बोल्टन तक के संगीत का निश्चेतक प्रभाव जानने के लिए अध्ययन करते रहे हैं। एक अध्ययन में पाया गया था कि फाइब्रोमाएल्जिया के मरीज़ों को उनका पसंदीदा संगीत सुनते समय कम दर्द होता था।

संगीत दर्द में क्यों राहत देता है, इसे बेहतर समझने के लिए यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल एँड क्रेनियोफेशियल रिसर्च के न्यूरोबायोलॉजिस्ट युआनयुआन लियू और उनके साथियों ने चूहों की ओर रुख किया। उन्होंने एक कमरे में कृन्तकों को दिन में 20 मिनट (कम से कम मनुष्यों के लिए) सुखद सिम्फोनिक संगीत - बाक का रेजॉइसेंस - 50 या 60 डेसिबल पर सुनाया, और पृष्ठभूमि का शोर 45 डेसिबल के आसपास था।

इन सत्रों के दौरान, शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजे में एक दर्दनाक रसायन प्रविष्ट किया। फिर, उन्होंने अलग-अलग तीव्रता से पतला तार पंजे पर चुभाया और कृन्तकों की प्रतिक्रिया देखी। शोधकर्ताओं का मानना था कि यदि वे छटपटाते, चाटते, या अपना पंजा वापस खींचते हैं, तो वे दर्द महसूस कर रहे हैं।

अध्ययन में उन्होंने पाया कि केवल धीमी आवाज़ (50 डेसिबल) पर ध्वनि ने चूहों को सुन्न कर दिया था। जब शोधकर्ताओं ने उनके सूजे हुए पंजे को तार से चुभाया, तो चूहे छटपटाए नहीं। दूसरी ओर, तेज़ आवाज़ में चूहे अधिक संवेदनशील दिखे - उन्होंने सिर्फ एक तिहाई दबाव पर ही काफी तेज़ प्रतिक्रिया दी। ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया संगीत की अनुपस्थिति में भी देखी गई।

शोधकर्ताओं ने कर्कश संगीत (रेजॉइसेंस को अप्रिय ध्वनि में बदलकर) और मिश्रित शोर के साथ भी परीक्षण किया। साइंस पत्रिका में उन्होंने बताया है कि पृष्ठभूमि के शोर से थोड़ा तेज़ बजाने पर ये सभी ध्वनियां दर्द को दबा सकती हैं। लगता है कि ध्वनि की तीव्रता ही महत्त्वपूर्ण है।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के श्रवण कॉर्टेक्स (मस्तिष्क का ध्वनि प्रसंस्करण क्षेत्र) में लाल फ्लोरोसेंट रंग प्रविष्ट किया और फिर उपरोक्त अध्ययन दोहराया। उन्होंने पाया कि संवेदनाओं के प्रसंस्करण केंद्र थैलेमस के कुछ घने क्षेत्रों में अत्यधिक फ्लोरोसेंस है, जिससे लगता है कि इस क्षेत्र और श्रवण कॉर्टेक्स के बीच की कड़ियां दर्द को दबाने में भूमिका निभाती हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में छोटे इलेक्ट्रोड लगाए और पाया कि अपेक्षाकृत मद्धिम ध्वनियों ने श्रवण कॉर्टेक्स से निकलने वाले संकेतों को कम कर दिया था। जब श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच सम्बंध को अवरुद्ध किया गया, तो चूहों को कम दर्द महसूस हुआ।

कुल मिलाकर टीम ने पाया कि मंद आवाजें श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच संकेतों को बोथरा कर देती हैं, जिससे थैलेमस में दर्द प्रसंस्करण कम होता है। यह प्रभाव चूहों को संगीत सुनाना बंद करने के दो दिन बाद तक रहता है। 

इस अध्ययन से कुछ सुराग तो मिले हैं लेकिन मनुष्यों पर अध्ययन की ज़रूरत है। लेकिन चूहों की तरह मानव मस्तिष्क में कुछ प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए संगीत बजाकर एमआरआई से उनकी थैलेमस गतिविधि पर नज़र रखना होगी।

कई लोगों को शायद लगेगा कि दर्द से राहत पाने के लिए मोज़ार्ट का संगीत सुनना चाहिए लेकिन अध्ययन से स्पष्ट है कि मंद आवाज़ में कोई भी शोर दर्द से राहत दे सकता है।

बहरहाल, मनुष्यों को राहत मिले ना मिले, लेकिन ये तरीका प्रयोगों के दौरान कृन्तकों को होने वाले दर्द को कम करने का एक सस्ता और आसान तरीका हो सकता है। चूहों पर इस तरह के प्रयोग चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)  ■■

कहानीः मेरी आत्मा मेरा शरीर

  - विजय कुमार तिवारी
मेरी आत्मा कुछ कहना चाह रही है,मैं व्यस्त हूँ और सुनने की स्थिति में नहीं हूँ। वह मौन हो गयी है। हमेशा ऐसा ही होता है। शायद ही कभी मैंने उसे सुनना चाहा हो। आश्चर्य है, तब भी मुझे छोड़कर वह नहीं जाती। उसे मुझसे प्यार है और मुझे? पता नहीं। शायद भय है,कहीं छोड़कर चली न जाए।  तब मैं रहूँगा ही नहीं और ना कोई अनुभूति रहेगी।

फिर डरता क्यों हूँ? दरअसल सारा कारोबार तभी तक है जब तक शरीर में आत्मा है। तभी तक जीवन है, तभी तक रास-रंग है, तभी तक रिश्ते-नाते हैं, तभी तक वैर और प्रेम है। फिर भी मैं अपनी आत्मा की नहीं सुनता,जबकि मुझे पता है कि उसके बिना मैं हूँ ही नहीं।

कभी-कभी उसका मुझ पर हँसना महसूस होता है। वह मुझपर मुस्कराती है, हँसती है और मेरे जीवन में भाग-दौड़ देखकर कहती है कि ठहर तो जा थोड़ी देर के लिए,आराम कर ले। उसे कभी अच्छा नहीं लगता कि मैं बेचैन रहूँ, दुखी रहूँ और भागता फिरूँ।

उसकी प्रवृत्ति मुझसे अलग है। वह हमेशा शान्त जैसे ध्यान में रहती है। कभी-कभी उसे इतना शान्त देखकर ईर्ष्या होती है और अपने पर दुख होता है। आत्मग्लानि होती है जब कुछ गलत हो जाता है। तब याद आता है कि मेरी आत्मा ने मुझसे कुछ कहना चाहा था।

दादी बताती है,"तू मर गया था जन्म लेते ही। तेरी सांसें बन्द थी। तू निर्जीव पड़ा था।"

जब तक वह जिन्दा रही मैं अक्सर पूछा करता था,"कैसे बच गया दादी?" वह एक कहानी सुना देती थी। घर में खुशी नहीं थी, जैसे मरघट की शान्ति और सभी रोने लगे थे। तेरा बाप शहर भागा और पालकी में बिठाकर डाक्टर ले आया। वह भगवान जी थे। दादी जैसे कुछ याद करते हुए ऊपर देखती और हाथ जोड़ लेती थी।

हमेशा उस भगवान जी के प्रति श्रद्धा रहती है मेरे मन में, जो डाक्टर बनकर मेरा प्राण बचाये थे। दादी ने बार-बार समझाया कि भगवान जी दिखाई नहीं देते परन्तु जब भी हम दुखी होते हैं तो बचाने आ जाते हैं। इस अनुभूति से अक्सर रोमांचित हुआ करता था कि कुछ भी होगा तो भगवान जी आ ही जायेंगे। कभी-कभी चाहता था कि मुझे कुछ हो, वो आयें और मैं उन्हें देखूँ, महसूस करूँ।

बड़ी निराशा होती जब दादी बतातीं कि मेरा बुखार भगवान जी ठीक करके चले गये। कमजोरी में भी खुश हो जाता कि भगवान जी आये थे। दादी के भगवान जी, जो अब मेरे भी हैं,कुछ भी हो सकते हैं। वे डाक्टर हो सकते हैं, साधु हो सकते हैं, बरगद का पेड़,गाय का दूध,बेल के पत्ते, नीम का काढ़ा, कालीमाई, देवी,दुर्गा, राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु,महेश,वह सब कुछ जो दिख रहा है और वह भी जो नहीं दिखता। धीरे-धीरे भगवान जी की सम्भावना का क्षेत्र विस्तृत होता गया। रोमांच तब और होता है, जब कहा जाता, मेरी दादी, मेरी माँ, मेरे पिता, मेरे गुरु और हर आदमी भगवान है।

एक बार मैं बाँस के मोटे तने को झुकाना चाहता था ताकि उसके पत्ते तोड़ लूँ,भैंस को खिलाने के लिए। बांस थोड़ा ही झुक पाया। मैं बहुत उपर लटका रह गया। न जाने क्या हुआ कि पीठ के बल जमीन पर गिर पड़ा। बेहोश हो गया। वहाँ कोई नहीं था। न जाने कितनी देर बाद होश आया। मुझे पूर्ण विश्वास था कि भगवान जी ने ही मेरी प्राण रक्षा की है।

एक बार भगवान जी रात भर मेरे साथ परेशान रहे। थोड़ा निडर तो था ही,शोध भी करता रहता था। पूर्ण विश्वास था कि मेरी आत्मा मुझे नहीं छोड़ेगी और फिर भगवान जी तो हैं ही जरूरत होने पर। धतूरा के बहुत से पौधे थे मेरी कोलवाई में और उसके सफेद खिले फूलों को दादी शंकर जी को चढ़ाया करती थीं। उसमें फल भी थे। मैंने उनके बीजों को निकाला और खा लिया।

यह मेरा कृत्य जानलेवा हो सकता था परन्तु मेरे विश्वास ने साहसी बना दिया था। ज्यों-ज्यों चेतना जाती रही, शरीर में बेचैनी बढ़ती गयी। कभी जमीन पर सो जाता, कभी दादी के साथ। लगता था-कोई मुझे बुला रहा है। मुख्य दरवाजे तक जाता परन्तु कुंडी नहीं खोल पाता था। पेट फूलने लगा जैसे गैस भरा हो। कुआँ और भुतहा बगीचा बार-बार ध्यान में आने लगा। मेरी आत्मा ने कहा था कि इसे मत खाओ। मैं नहीं माना। बेचैनी की स्थिति में महसूस हो रहा था, मुझे आत्मा की आवाज सुननी चाहिए थी।  

भगवान जी ने कुंडी खोलने नहीं दिया अन्यथा अनर्थ हो जाता। पहले खूब उल्टी हुई फिर सो गया। अगले दिन देर तक सोया रहा। सुस्ती और कमजोरी बहुत दिनों तक रही। भगवान जी रात भर जागते रहे और मुझे बचाते रहे।

भगवान जी क्या किए? मैंने महसूस किया कि वे मेरी आत्मा से जुड़ गये और चेतना को भटकने या बहकने नहीं दिया। भयंकर बेचैनी में भी मेरी आत्मा शान्त थी। भगवान कभी भी रोकने-टोकने नहीं आते और ना ही हस्तक्षेप करते हैं। हमारी आत्मा लघुतम रुप में है तो भगवान जी सर्व-व्यापक हैं।

आत्मा का सामान्यतः दर्शन नहीं होता परन्तु वह सदैव जाग्रत रहती है। किसी दिन सुबह नींद खुले, लगे मन में शान्ति और प्रसन्नता है,उस शान्ति का अनुभव कीजिए। आत्मा की उपस्थिति का आभास होगा।

जिस दिन मोटरसाइकिल दुर्घटना हुई, गाड़ी चलाते हुए मैं अपनी आत्मा के ही साथ था। साप्ताहिक यात्रा एक ओर से 153 किलोमीटर की होती थी। सोमवार को जाना और शनिवार को वापस आना। जाड़े के दिन,दिसम्बर का महीना और खूब ठंड। रविवार को ही चल पड़ता था। उस दिन भी लगभग 2 बजे दिन में निकल पड़ा क्योंकि अगली सुबह कुहरा से यात्रा  और कठिन हो जाती। कोई भीड़ नहीं थी और ना किसी तरह का व्यवधान।

थोड़ा आगे जा रहा साइकिल वाला अचानक मुड़ा परन्तु नीचे नहीं उतरा,साइकिल रोके वहीं खड़ा हो गया। शायद विचारमग्न था कि उतरे या नया उतरे। लगभग 80-85 की रफ्तार होने के कारण मेरे पास दो ही विकल्प थे-या तो उसे मारूँ या खुद को नीचे फेंक दूँ। पहले में उसके जान जाने का पूरा खतरा था, दूसरे में मुझे और गाड़ी की हानि सुनिश्चित थी। मैंने स्वयं को नीचे उतार दिया। दुर्घटना होनी ही थी, हुई। मैं बेहोश हो गया। जब होश आया,देखा कि बहुत लोग एकत्र हो गये हैं। भगवान जी दिखाई दिये, मुस्कराते हुए।

मैंने दोनों हाथों और दोनों पैरों को हिलाकर देखा। सब कुछ ठीक ही लगा। मैंने खड़ा होने की कोशिश की, खड़ा नहीं हो पाया। शायद नर्वस था। लोगों ने मदद की और सब ने भगवान को शुक्रिया कहा। मैंने महसूस किया, भगवान जी वैसे ही मुस्करा रहे हैं और मेरी आत्मा में विराजमान हो गये हैं।

किसी ने कहा कि मोटरसाइकिल बहुत टूट गई है, लेकिन चालू हो रही है। एक व्यक्ति आगे बैठकर चालू किया और मुझे पीछे बैठा लिया। हम 6-7 किलोमीटर की दूरी पर रुके ताकि किसी डाक्टर को  दिखा लिया जाए। कोई डाक्टर नहीं मिला। हमने चाय पी।

वहीं से घर में फोन करके बता दिया और चिन्ता ना करने की सलाह दी।

गाड़ी बस किसी तरह चल रही थी। शरीर भी संकेत करने लगा कि सब कुछ ठीक नहीं है। वहाँ से मैंने स्वयं चलाना शुरु किया। रफ्तार बहुत कम और पूरी सावधानी के साथ।

दाहिना हाथ थोड़ा भारी-भारी लगने लगा। जरा भी हिलने से दर्द होता था। ध्यान-साधना का अभ्यास होने के कारण मैंने स्वयं को वैसे ही रखा ताकि दर्द ना हो। विपत्ति अकेले नहीं आती, बरसात भी शुरु हो गई। मैं रुका नहीं,चलते रहा। जल्दी ही अंधेरा हो गया। आकाश में बादलों के  चलते अँधेरा गहरा था। गाड़ी की लाइट जलाया तो प्रकाश सड़क के बजाय सामने ऊपर की ओर जाने लगा। शरीर और गाड़ी दोनों जख्मी, बरसात, अँधेरा और लाइट की यह हालत।

रह-रहकर अँधेरा छा जाता और पलकें बोझिल होने लगती थी। कभी दर्द होता, कभी नहीं होता। कभी लगता कि मैं गाड़ी चला रहा हूँ और कभी लगता कि मुझे तो चेतना ही नहीं है। कभी लगता कि 2-3 फुट उपर से स्वयं को गाड़ी चलाते देख रहा हूँ और कभी लगता कि मैं ही चला रहा हूँ। ऐसा अनेक बार अनुभव हुआ। यह कोई आश्चर्य में डालने वाली नूतन अनुभूति थी।   

लगभग 75 किलोमीटर की यात्रा ऐसे ही हुई। रात बहुत हो गयी थी। अपने गन्तव्य पर पहुँचा तो स्वयं को सम्भाल नहीं पा रहा था। किसी तरह मोटर साइकिल खड़ी की।

मैंने पूरे घटनाक्रम को याद करना चाहा। अद्भुत अनुभव था। मेरी आत्मा ने मुझे नहीं छोड़ा। कभी शरीर में रहती थी, कभी उपर से मेरे साथ उड़ते हुए चलती थी। क्या मेरी मृत्यु हो जाती थी, उतनी देर के लिए? दर्द भी तो उतना नहीं था कि कहूँ कि भीतर जीवन के स्रोत बिखर गये हैं और मेरी मृत्यु हो गई है।

आत्मा कब शरीर छोड़ती है,जब शरीर रहने लायक नहीं रह जाता। उसके सारे अवयव बेकार हो जाते हैं या किसी दुर्घटना में शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है। फिर भी आत्मा वहीं मँडराती रहती है। बार-बार शरीर में प्रवेश करना चाहती है। प्राण धारण करने वाले हिस्से जब काम करना बंद कर देते हैं, तभी आत्मा लाचार होकर शरीर से अलग होती है।

मुझे खुशी हुई कि मैं मृत्यु के द्वार से लौट आया था और शरीर में जो टूटा था, वह फिर से ठीक होने योग्य था। मेरी आत्मा बहुत कम समय के लिए शरीर से अलग होती थी। मैंने महसूस किया कि वह ठीक मेरे ऊपर से समानान्तर उड़ रही है, वह भी कुछ क्षणों के लिए, शायद 4 या 5 बार। एक बार तो उसने जल्दी से मुझे सम्भाला अन्यथा एक टेम्पू से टक्कर हो जाती।

यह भी मैंने महसूस किया कि मेरी आत्मा खुश हुई, जब मैंने धूल वाले कपड़े हटा दिये। मैं अपनी आत्मा के देखने के अंदाज को पहचान गया हूँ और उसे समझने लगा हूँ।

अगले दिन एक्सरे से मालूम हुआ कि मेरी दाहिना कालर-बोन तीन टुकडों में टूटकर बँट गई है। शरीर में यही एक हड्डी है, जिसके टूटने से दर्द कम होता है और यह स्वतः जुड़ती है। मैंने कोई दर्द की दवा नहीं ली और कोई प्लास्टर भी नहीं हुआ। एक दिन के लिए भी अवकाश नहीं लिया।

खुश हुआ कि मैं बच गया,मेरी मृत्यु नहीं हुई। मेरी आत्मा खुश हुई कि उसे घर नहीं बदलना पड़ा। हम दोनों को खुश देखकर भगवान जी मुस्करा रहे थे। ■■

सम्पर्कः टाटा अरियाना हाऊसिंग, टावर-4 फ्लैट-1002, पोस्ट- महालक्ष्मी विहार-751029, भुवनेश्वर,उडीसा,भारत, मो. 9102939190

लघुकथाः संकट और संपर्क

  -  ओमा शर्मा

बात चाहे खुद से की जा रही एक विचित्र शरारत से शुरू हुई थी लेकिन थोड़ा रुककर सोचने से पता लगने लगा कि बात इतनी गई-गुजरी और महत्वहीन नहीं है जितनी ऊपर-ऊपर से लगती है।

हाँ , तो बात नव वर्ष की डायरी के उस कॉलम को भरने की थी जिसमें लिखा था, ‘व्यक्ति विशेष जिसे संकट के समय संपर्क करना हो।’ अगर दो-चार लोगों के नाम लिखने की बात होती तो शायद दिक्कत नहीं आती। वे आला अफ़सर थे। संगी-साथियों के अलावा कुछ दूसरे विभागीय मित्र उनके थे। कुछ अच्छे बिजनेस फ्रेंड्स भी थे। फिर अपने अड़ोस-पड़ोस में भी उठना-बैठना था। अनौपचारिक भी कम लोगों की आवाजाही नहीं थी उनके यहाँ।

लेकिन जब वे छंटनी करने लगे तो...नरेश चतुर्वेदी उनका पड़ोसी ही नहीं, बैचमेट भी था। लेकिन दोनों की पत्नियों में चल रही अलिखित मगर घोर अदावत और ईर्ष्या के कारण वे ठोककर नहीं कह सकते थे कि किसी विकट परिस्थिति में वह दौड़ा चला आएगा। विभाग के उसके एक भूतपूर्व बॉस की मृत्यु पर उसे साथ लेकर चलने का सुझाव जब उन्होंने दिया था तो उसने पूरी निर्ममता से अपनी अनुपलब्धता पेश कर दी थी। ‘वैसे भी जो जीते जी निहायत टुच्ची बातों पर एडवर्स टिका गया उसके यहाँ जाकर स्वांग क्या रचना।’ इस तर्क संगत तर्क ने गोया नरेश का गिरेबाँ ही उघाड़ दिया था। राजेन्द्र पडगाँवकर उनसे था तो एक-दो वर्ष कनिष्ठ, लेकिन परिवारिक उठक-बैठक उससे अच्छी थी। हाँ, चीज़ों को जाँचने  परखने का नज़रिया ज़रूर बचकाना था। सूचना मिलने पर फ़ोन पर ही पत्नी को कहेगा ‘क्या कह रही हैं आप भाभी जी...च्च च च...लेकिन गाड़ी देखकर क्यों नहीं चला रहा था...कल थोड़ी लगा ली थी क्या....अब थोड़ी देर में मुझे तो अपने साढू- साली को स्टेशन लेने जाना है....पहली बार आ रहे है....मैं उसके बाद फौरन पहुँचता  हूंँ...’

अलका प्रजापति दूसरे विभाग में थी। हम दोनों ही डैप्यूटेशन पर गृह मंत्रालय में साथ थे। बहुत निष्ठावान और विश्वसनीय महिला। मान कि धरातल पर उनके सबसे करीब। लेकिन वे जानते थे कि अपने टिंकू-पिंकू के चलते वह कुछ करना भी चाहेगी तब भी नहीं कर पाएगी... सुबह बच्चों का स्कूल, दिन भर दफ्तर, शाम को होमवर्क... कामकाजी महिलाओं का घर की चकरघिनी पर जुटे रहना उन्हें इसी कारण बहुत दकियानूसी लगता है। किसी की मदद तो कोई तब करे जब अपने जंजालों से जुदा होकर सोच पाए।

व्यावसायिक दोस्तों का तो आलम ही यह था कि लगभग हर वर्ष ही नए बनते थे। उनके पाास पड़ी फाइलों के अनुरूप। असीम श्रीवास्तव जिसे उन्होंने अपवाद समझा था, पिछली दिवाली पर संबंधित काम न होने के अभाव में कन्नी काट गया था। उनकी पूरी जमात बीसेक मिनट अस्पताल में अपनी मौजूदगी जताकर ‘कोई काम हो तो’ की औपचारिकता निभा सकती थी। इससे अधिक कुछ नहीं।

उनकी अपने क़स्बे से सैकड़ों कोस दूर तैनाती थी अतः सभी बंधु-बिरादर और रिश्तेदार पीछे छूट गए थे। दूरियाँ इतनी हो गई थी कि पहुँचता-पहुँचता एक दिन और रात बिगड़ जाता था। वे जानते थे कि हर दो-एक महीने में किसी के साथ पिक्चर देखना, जन्म दिन मनाना, खाना, खाना या पिकनिक पर घूमना एक बात है और उसे किसी निष्कपट और संकटकालीन मदद को देखना निहायत दूसरी। वे किसी को दोष नहीं दे रहे थे, मगर हकीकत यही थी कि सामाजिकता के दबाव में रात गई, बात गई। 

डायरी का वह खुला हुआ अदना सा कॉलम अब किसी हीनतायुक्त असुरक्षा को पनाह देने लगा था। कोई भी एक नाम उस विचित्र कॉलम की शर्तो पर खरा न उतर पाने पर जैसे लगातार उनके पैरों की ज़मीन खिसक रही थी। यह चोट और चुनौती उनके खालिस अहम से अधिक विश्वास पर थी। वहाँ उन्होंने लिखा, किसी को नहीं। ■■

स्वामी विवेकानंद की दो कविताएँः

 अंग्रेजी से अनुवाद  -डॉ. कुँवर दिनेश सिंह







1. ईश्वर की खोज

पहाड़ी पर, पर्वत शृंखला के ऊपर, उपत्यका में

मंदिर में, गिरजाघर में और मस्जिद में,

वेदों में, बाइबिल में, अल कुरान में

मैंने व्यर्थ ही खोजा था तुम्हें।


बीहड़ जंगल में एक बच्चे की तरह खो गया

मैं रोया और अकेला रोया,

“तुम कहाँ चले गए, मेरे ईश्वर, मेरे प्रेम?”

प्रतिध्वनि ने उत्तर दिया, “चला गया।”


और फिर दिन-रात और सालों-साल बीत गए

एक अग्नि प्रज्वलित रही मस्तिष्क में,

दिन कब रात में बदल गया, पता ही नहीं चला,

दिल दो टुकड़ों में बँटा हुआ लग रहा था।


मैं पावन गंगा के किनारे लेट गया,

खुली धूप और बारिश की संपृक्ति में;

जलते आँसुओं से मैंने धूल बिछा दी और

हाहाकार करने लगा जल की गर्जना से।


मैंने सभी पवित्र नामों को पुकारा

प्रत्येक मौसम और आस्था से जुड़े।

“मुझे राह दिखाओ, दया करो, आप सभी

महान् लोग जो लक्ष्य तक पहुँच चुके।”


आर्त्त कराहटों में बरसों बीत गए,

हर एक पल एक युग समान लगा,

मेरे रोने और कराहने के बीच एक दिन

लग रहा था कोई मुझे बुला रहा है।

एक कोमल और सुरीली आवाज़

“मेरा बेटा”, “मेरा बेटा”, उसने कहा

वह मुझे रोमांचित कर रहा था ―

मेरी आत्मा के तारों के साथ एकात्म हुआ।


मैं अपने पैरों पर खड़ा हुआ और लगा खोजने

वह आवाज़ आई थी कहाँ से;

मैंने खोजा और मुड़ा देखने के लिए

अपने इर्द-गिर्द, आगे, पीछे,

एक बार फिर ऐसा लगा कि वह बोल रही है,

वही दिव्य आवाज़ मेरे लिए।

उत्साह में मेरी आत्मा नि:शब्द-स्तब्ध थी,

सम्मोहित-सी, आनंद में निमग्न थी, मुग्ध थी।


एक कौंध ने मेरी आत्मा को आलोकित कर दिया;

मेरे अन्तर का अन्तर पूर्ण रूप से खुल गया।

हे आनंद! हे आनंद! यह मैंने क्या पा लिया!

मेरे प्रेम, मेरे प्रेम, तुम यहाँ मेरे सम्मुख हो

मेरे प्रेम, मेरे सर्वस्व, तुम यहाँ हो, तुम यहीं हो!


और मैं तुम्हें खोज रहा था ―

अनंत काल से तुम वहाँ थे

ऐश्वर्य के सिंहासन पर विराजमान!

उस दिन से, मैं जहाँ भी भ्रमण करता हूँ,

मुझे लगता है कि तुम हो पास ही विद्यमान,

पहाड़ी पर, तलाई में, ऊँचे पहाड़ पर, और घाटी में,

बहुत दूर और बहुत ऊँचे।


चाँद की कोमल रोशनी में, बेहद चमकीले सितारों में,

दिन के गौरवमय प्रकाशचक्र सूर्य में,

वह इन सब में चमकता है;  इन सब में

उसकी ही सुंदरता का प्रकाश परावर्तित है ।

राजसी भोर, पिघलती हुई साँझ,

लहराता हुआ असीम सागर,

प्रकृति की सुंदरता में, पक्षियों के गीतों में,

मैं उन सभी में देखता हूँ―यह वही है।


जब घोर विपत्ति मुझ पर आ पड़े,

हृदय शिथिल होने लगता है,

सारी प्रकृति मुझे कुचलती हुई-सी लगती है,

हर उस नियम के साथ जो अकाट्य है ।

मुझे लगता है मैं तुम्हारा मीठा स्वर सुन रहा हूँ

मेरे प्रिय, "मैं पास हूँ", "मैं पास हूँ",

मेरा दिल मज़बूत हो जाता है। तुम्हारे साथ, मेरे प्रिय,

एक हज़ार बार भी आए मृत्यु, कोई भय नहीं।

तुम माँ के आँचल में स्वनित हो;

तुम बच्चों की आँखें मीचते हो;

जब मासूम बच्चे हँसते और खेलते हैं,

मैं देख रहा हूँ तुम ही तो पास खड़े हो।


जब पवित्र मित्रता हाथ मिलाती है,

वही उनके बीच भी खड़ा है;

माँ के चुम्बन में और बच्चे की प्यारी “माँ” में

वही तो अमृत घोलता है।


तुम ही मेरे परमेश्वर थे पुरातन ऋषियों में,

सारे धर्म-पंथ तुमसे ही विकसित हैं,

वेद, बाइबल और क़ुरान, सभी एक सुर में

तुम्हारी ही स्तुति गाते हैं।


"तुम्हीं हो", "तुम्हीं हो" आत्माओं की आत्मा

जीवन की सतत प्रवहमान धारा में।

"ओ३म् तत सत् ओ३म्" तुम मेरे परमेश्वर हो,

मेरे प्रेम, मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ मैं।

2. ऐ मज़बूत दिल, 

अभी कुछ देर रुको

ऐ मज़बूत दिल, अभी कुछ देर रुको, 

जीवन-भर के जुए से अलग मत हो;


यद्यपि वर्तमान कुम्हलाया है, भविष्य अंधकारमय है।

और एक युग हो चला है जब से तुमने-मैंने शुरू किया

पहाड़ का ऊँचा-नीचा सफ़र। अबाध गति से करते

खेवन उन समुद्रों का जो दुर्लभ हैं―


तुम मेरे निकटतर होकर, मेरे स्वयं से भी अधिक―

करते हो उद्घाटित मन के आवेगों को!

तुम्हारी नब्ज मेरी नब्ज़ के साथ, लयबद्ध, तुम 

मेरे सच्चे प्रतिबिम्ब हो― कितना स्पष्ट― 

तुम मेरे विचारों का सही सुर हो,

क्या अब हम जुदा हों, अभिलेखक, कहो?


तुमसे अभिन्न मित्रता है, तुम में अक्षुण्ण विश्वास है,

क्योंकि जब बुरे विचार उठ रहे थे, चेताया तुमने ,

और हालांकि, खेद है, तुम्हारी चेतावनी को भुलाया,

फिर भी तुम बने रहे ― हमेशा अच्छे और सच्चे!

*

अनुवादक: कवि-कथाकार-समीक्षक एवं  अनुवादक (हिन्दी-अँग्रेज़ी) एसोशिएट प्रोफ़ेसर (अँग्रेज़ी)  एवं सम्पादक: हाइफ़न सम्पर्कः #3, सिसिल क्वार्टर्ज़, चौड़ा मैदान, शिमला- 171004 हिमाचल प्रदेश। ईमेल: kanwardineshsingh@gmail.com , मोबाइल: +91 94186 26090


व्यंग्यः घर में पनपता चूहावाद

  - अख़्तर अली 

पहले घर में एक ही चूहा था और वह किसी प्रकार का नुकसान भी नहीं करता था इसलिए उसके होने को नजरअंदाज कर दिया गया । घर में किसी ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया । मामले को गंभीरता से ना लेना ही गंभीर चूक साबित होती है । चूहा नुकसान नहीं कर रहा था यह हमारा भ्रम था वास्तविकता यह थी कि इस समय वह किसी बड़े नुकसान की योजना बना रहा था । घर के वे लोग जो घर-घर की जानकारी रखते थे इस चूहा नीति को समझने में पूरी तरह असफल रहे। 

तैमूर की हरकतों को जानने में सफल परिवार वाले चूहे की हरकतों को जानने में विफल रहे। हम लोग फेसबुक और व्हाट्सएप में व्यस्त रहे । हम ऑनलाइन थे और वह ऑन द वे था । चूहे ने पूरे घर पर अपने पैर पसार लिए । पहले वह रसोईघर में ही नजर आता था लेकिन अब हाँल, ड्राइंग रूम, बेडरूम, बाथरूम, स्टोर रूम हर जगह चूहे ने पहुँच बना ली थी । हद तो तब हो गई जब हम लोग बिस्तर पर लेटे रहते ठीक उसी समय चूहा हमारे तकिए के नीचे होता।

हम लोग राज्य सरकारों के दिन गिनते रहे और इधर चूहों की गिनती लगातार बढ़ती गई। चूहे एक से दो, दो से चार, और चार से आठ होते रहे और हम लोग देर रात तक गीत संगीत नृत्य और कॉमेडी शो के कार्यक्रमों में मशगूल रहे और सुबह देर तक सोते रहे । बस यही वह समय था जब चूहों ने हमारे घर को खोदना आरंभ कर दिया । हम बेखबर सोते रहे और चूहे बेखबर जागते रहे । अब इस बात पर कोई संशय नहीं था कि घर हमारा लेकिन उस पर चूहों की अघोषित सत्ता स्थापित हो चुकी थी ।

घर में पहले आश्रय लेने एक भूखा चूहा आया फिर आया चूहापन , फिर आई चूहा नीति, चूहा संस्कृति और अब चारों तरफ फैल गया है चूहावाद । नाली के कीड़े भी चूहा संस्कृति के पक्षधर हो गए इस तरह चूहों ने अपनी ताकत का विस्तार कर लिया।

पहले चूहा मुँह निकालकर इधर उधर देखता था कोई नहीं होता तभी वह आगे बढ़ता लेकिन अब उसके हौसले बुलंद हो गए हैं अब वह इधर- उधर देखता नहीं बस सरपट इधर से उधर दौड़ता भागता रहता है। पहले वह हम लोगों को देखता था अब हम लोग उसे देखते हैं । पहले हमारे घर में चूहा घुस आया था अब ऐसा लगता है हम चूहे के घर में आ गए हैं । ऐसा लगता है मानो हम लोगों ने चूहों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है । अब तो मन में यह भी शंका पैदा होने लगी कि कहीं चूहे इस घर के स्वामित्व पर अपना दावा ना पेश कर दे , हम लोग घर में इस तरह रहने लगे मानो या घर हमें चूहों से अनुदान के रूप में प्राप्त हुआ है ।

हम सब तब चौके जब चूहों ने घर में सीरियल धमाके करना शुरू कर दिया । अनाज की बोरी कुतर हमारा अन्न खा लिया, सब्जी और फल की टोकनी उलट दिया, कपड़े काट लिए , दरवाजों और अलमारियों की लकड़ी के हिस्सो को बुरादे मैं तब्दील करने लगे लगे । इस काम में उन्हें पड़ोसियों के चूहों का भी समर्थन प्राप्त होने लगा । इन्होंने बिजली के वायर को काटकर घर को अंधेरे में डूबा दिया। 

घर में आने और जाने के लिए चूहों ने गुप्त मार्ग बना लिए थे जिसे हम लोग कभी समझ नहीं पाए । हमारे घर में क्या कहां रखा है , हम कब घर में होते हैं कब नहीं होते, हम कब सोते हैं कब जागते हैं इन सब बातों की पूरी जानकारी चूहों को थी । चूहों का जबरदस्त नेटवर्क था जिसे हम कभी भेद नहीं सके । कभी- कभी घर में ऐसा चूहा भी दिख जाता था जिसे देख कर विश्वास हो जाता था कि यह इस घर का नहीं है।

चूहा मारने की दवा का इन पर कुछ असर नहीं हो रहा था और न ही ये चूहेदानी में फंस रहे थे। ये प्रशिक्षित और संगठित चूहे थे । चूहों के डर से बिल्लियां अंडर ग्राउंड हो गई थी ऐसा लगता था मानो मेरा घर बिल्ली के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित हो गया है। बिल्ली को पूरी तरह नियंत्रण में लेने के कारण अब चूहे शेर हो गए थे। 

एक जैसा काम करते- करते शायद चूहे उकता गए थे इसलिये उन्होंने कुछ बड़ा करने की योजना बनाई | अब चूहों कि नज़र धार्मिक पुस्तकों पर थी वे उसे कुतर देना चाहते थे | सुरक्षा की दृष्टि से हमने धार्मिक पुस्तकों को ऊंचाई पर रखा था , इतनी ऊँचाई पर कि हम खुद भी पढ़ने के लिये उसे निकाल नहीं पाते थे | हमारी इस लापरवाही का चूहों ने भरपूर फ़ायदा | धार्मिक पुस्तकों तक पहुँचने के लिये चूहों ने योजना बनाई कि जब तक राजनीति की पुस्तकों को धार्मिक पुस्तकों के पास नहीं लाया जायेगा धर्म की पुस्तकों पर हमला नहीं किया जा सकता | उन्होंने राजनीति की किताबों के ढेर को धकेलते- धकेलते धार्मिक पुस्तकों तक लाया, फिर उस पर चढ़ कर धार्मिक पुस्तकों तक पहुँचे और उसे पूरी तरह कुतर दिया |

हम चूहों की हर हरकत स्वीकार कर सकते थे पर यह काम नाकाबिल बर्दाश्त था | पूरे घर में तनाव था हर सदस्य चूहों के खिलाफ़ बड़ी कार्यवाही चाहता था | सब मेरी तरफ़ आशा भरी दृष्टि से देख रहे थे मैंने उन्हें धैर्य रखने को कहा और वादा किया कि चूहों के खिलाफ़ जल्द बड़ा अभियान चलाया जाएगा, दोषी चूहे बख्शे नहीं जाएँगे | ■■

सम्पर्कः निकट मेडी हेल्थ हास्पिटल, आमानाका, रायपुर ( छत्तीसगढ़ ), मो.न. 9826126781