- विजय कुमार तिवारी
मेरी आत्मा कुछ कहना चाह रही है,मैं व्यस्त हूँ और सुनने की स्थिति में नहीं हूँ। वह मौन हो गयी है। हमेशा ऐसा ही होता है। शायद ही कभी मैंने उसे सुनना चाहा हो। आश्चर्य है, तब भी मुझे छोड़कर वह नहीं जाती। उसे मुझसे प्यार है और मुझे? पता नहीं। शायद भय है,कहीं छोड़कर चली न जाए। तब मैं रहूँगा ही नहीं और ना कोई अनुभूति रहेगी।
फिर डरता क्यों हूँ? दरअसल सारा कारोबार तभी तक है जब तक शरीर में आत्मा है। तभी तक जीवन है, तभी तक रास-रंग है, तभी तक रिश्ते-नाते हैं, तभी तक वैर और प्रेम है। फिर भी मैं अपनी आत्मा की नहीं सुनता,जबकि मुझे पता है कि उसके बिना मैं हूँ ही नहीं।
कभी-कभी उसका मुझ पर हँसना महसूस होता है। वह मुझपर मुस्कराती है, हँसती है और मेरे जीवन में भाग-दौड़ देखकर कहती है कि ठहर तो जा थोड़ी देर के लिए,आराम कर ले। उसे कभी अच्छा नहीं लगता कि मैं बेचैन रहूँ, दुखी रहूँ और भागता फिरूँ।
उसकी प्रवृत्ति मुझसे अलग है। वह हमेशा शान्त जैसे ध्यान में रहती है। कभी-कभी उसे इतना शान्त देखकर ईर्ष्या होती है और अपने पर दुख होता है। आत्मग्लानि होती है जब कुछ गलत हो जाता है। तब याद आता है कि मेरी आत्मा ने मुझसे कुछ कहना चाहा था।
दादी बताती है,"तू मर गया था जन्म लेते ही। तेरी सांसें बन्द थी। तू निर्जीव पड़ा था।"
जब तक वह जिन्दा रही मैं अक्सर पूछा करता था,"कैसे बच गया दादी?" वह एक कहानी सुना देती थी। घर में खुशी नहीं थी, जैसे मरघट की शान्ति और सभी रोने लगे थे। तेरा बाप शहर भागा और पालकी में बिठाकर डाक्टर ले आया। वह भगवान जी थे। दादी जैसे कुछ याद करते हुए ऊपर देखती और हाथ जोड़ लेती थी।
हमेशा उस भगवान जी के प्रति श्रद्धा रहती है मेरे मन में, जो डाक्टर बनकर मेरा प्राण बचाये थे। दादी ने बार-बार समझाया कि भगवान जी दिखाई नहीं देते परन्तु जब भी हम दुखी होते हैं तो बचाने आ जाते हैं। इस अनुभूति से अक्सर रोमांचित हुआ करता था कि कुछ भी होगा तो भगवान जी आ ही जायेंगे। कभी-कभी चाहता था कि मुझे कुछ हो, वो आयें और मैं उन्हें देखूँ, महसूस करूँ।
बड़ी निराशा होती जब दादी बतातीं कि मेरा बुखार भगवान जी ठीक करके चले गये। कमजोरी में भी खुश हो जाता कि भगवान जी आये थे। दादी के भगवान जी, जो अब मेरे भी हैं,कुछ भी हो सकते हैं। वे डाक्टर हो सकते हैं, साधु हो सकते हैं, बरगद का पेड़,गाय का दूध,बेल के पत्ते, नीम का काढ़ा, कालीमाई, देवी,दुर्गा, राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु,महेश,वह सब कुछ जो दिख रहा है और वह भी जो नहीं दिखता। धीरे-धीरे भगवान जी की सम्भावना का क्षेत्र विस्तृत होता गया। रोमांच तब और होता है, जब कहा जाता, मेरी दादी, मेरी माँ, मेरे पिता, मेरे गुरु और हर आदमी भगवान है।
एक बार मैं बाँस के मोटे तने को झुकाना चाहता था ताकि उसके पत्ते तोड़ लूँ,भैंस को खिलाने के लिए। बांस थोड़ा ही झुक पाया। मैं बहुत उपर लटका रह गया। न जाने क्या हुआ कि पीठ के बल जमीन पर गिर पड़ा। बेहोश हो गया। वहाँ कोई नहीं था। न जाने कितनी देर बाद होश आया। मुझे पूर्ण विश्वास था कि भगवान जी ने ही मेरी प्राण रक्षा की है।
एक बार भगवान जी रात भर मेरे साथ परेशान रहे। थोड़ा निडर तो था ही,शोध भी करता रहता था। पूर्ण विश्वास था कि मेरी आत्मा मुझे नहीं छोड़ेगी और फिर भगवान जी तो हैं ही जरूरत होने पर। धतूरा के बहुत से पौधे थे मेरी कोलवाई में और उसके सफेद खिले फूलों को दादी शंकर जी को चढ़ाया करती थीं। उसमें फल भी थे। मैंने उनके बीजों को निकाला और खा लिया।
यह मेरा कृत्य जानलेवा हो सकता था परन्तु मेरे विश्वास ने साहसी बना दिया था। ज्यों-ज्यों चेतना जाती रही, शरीर में बेचैनी बढ़ती गयी। कभी जमीन पर सो जाता, कभी दादी के साथ। लगता था-कोई मुझे बुला रहा है। मुख्य दरवाजे तक जाता परन्तु कुंडी नहीं खोल पाता था। पेट फूलने लगा जैसे गैस भरा हो। कुआँ और भुतहा बगीचा बार-बार ध्यान में आने लगा। मेरी आत्मा ने कहा था कि इसे मत खाओ। मैं नहीं माना। बेचैनी की स्थिति में महसूस हो रहा था, मुझे आत्मा की आवाज सुननी चाहिए थी।
भगवान जी ने कुंडी खोलने नहीं दिया अन्यथा अनर्थ हो जाता। पहले खूब उल्टी हुई फिर सो गया। अगले दिन देर तक सोया रहा। सुस्ती और कमजोरी बहुत दिनों तक रही। भगवान जी रात भर जागते रहे और मुझे बचाते रहे।
भगवान जी क्या किए? मैंने महसूस किया कि वे मेरी आत्मा से जुड़ गये और चेतना को भटकने या बहकने नहीं दिया। भयंकर बेचैनी में भी मेरी आत्मा शान्त थी। भगवान कभी भी रोकने-टोकने नहीं आते और ना ही हस्तक्षेप करते हैं। हमारी आत्मा लघुतम रुप में है तो भगवान जी सर्व-व्यापक हैं।
आत्मा का सामान्यतः दर्शन नहीं होता परन्तु वह सदैव जाग्रत रहती है। किसी दिन सुबह नींद खुले, लगे मन में शान्ति और प्रसन्नता है,उस शान्ति का अनुभव कीजिए। आत्मा की उपस्थिति का आभास होगा।
जिस दिन मोटरसाइकिल दुर्घटना हुई, गाड़ी चलाते हुए मैं अपनी आत्मा के ही साथ था। साप्ताहिक यात्रा एक ओर से 153 किलोमीटर की होती थी। सोमवार को जाना और शनिवार को वापस आना। जाड़े के दिन,दिसम्बर का महीना और खूब ठंड। रविवार को ही चल पड़ता था। उस दिन भी लगभग 2 बजे दिन में निकल पड़ा क्योंकि अगली सुबह कुहरा से यात्रा और कठिन हो जाती। कोई भीड़ नहीं थी और ना किसी तरह का व्यवधान।
थोड़ा आगे जा रहा साइकिल वाला अचानक मुड़ा परन्तु नीचे नहीं उतरा,साइकिल रोके वहीं खड़ा हो गया। शायद विचारमग्न था कि उतरे या नया उतरे। लगभग 80-85 की रफ्तार होने के कारण मेरे पास दो ही विकल्प थे-या तो उसे मारूँ या खुद को नीचे फेंक दूँ। पहले में उसके जान जाने का पूरा खतरा था, दूसरे में मुझे और गाड़ी की हानि सुनिश्चित थी। मैंने स्वयं को नीचे उतार दिया। दुर्घटना होनी ही थी, हुई। मैं बेहोश हो गया। जब होश आया,देखा कि बहुत लोग एकत्र हो गये हैं। भगवान जी दिखाई दिये, मुस्कराते हुए।
मैंने दोनों हाथों और दोनों पैरों को हिलाकर देखा। सब कुछ ठीक ही लगा। मैंने खड़ा होने की कोशिश की, खड़ा नहीं हो पाया। शायद नर्वस था। लोगों ने मदद की और सब ने भगवान को शुक्रिया कहा। मैंने महसूस किया, भगवान जी वैसे ही मुस्करा रहे हैं और मेरी आत्मा में विराजमान हो गये हैं।
किसी ने कहा कि मोटरसाइकिल बहुत टूट गई है, लेकिन चालू हो रही है। एक व्यक्ति आगे बैठकर चालू किया और मुझे पीछे बैठा लिया। हम 6-7 किलोमीटर की दूरी पर रुके ताकि किसी डाक्टर को दिखा लिया जाए। कोई डाक्टर नहीं मिला। हमने चाय पी।
वहीं से घर में फोन करके बता दिया और चिन्ता ना करने की सलाह दी।
गाड़ी बस किसी तरह चल रही थी। शरीर भी संकेत करने लगा कि सब कुछ ठीक नहीं है। वहाँ से मैंने स्वयं चलाना शुरु किया। रफ्तार बहुत कम और पूरी सावधानी के साथ।
दाहिना हाथ थोड़ा भारी-भारी लगने लगा। जरा भी हिलने से दर्द होता था। ध्यान-साधना का अभ्यास होने के कारण मैंने स्वयं को वैसे ही रखा ताकि दर्द ना हो। विपत्ति अकेले नहीं आती, बरसात भी शुरु हो गई। मैं रुका नहीं,चलते रहा। जल्दी ही अंधेरा हो गया। आकाश में बादलों के चलते अँधेरा गहरा था। गाड़ी की लाइट जलाया तो प्रकाश सड़क के बजाय सामने ऊपर की ओर जाने लगा। शरीर और गाड़ी दोनों जख्मी, बरसात, अँधेरा और लाइट की यह हालत।
रह-रहकर अँधेरा छा जाता और पलकें बोझिल होने लगती थी। कभी दर्द होता, कभी नहीं होता। कभी लगता कि मैं गाड़ी चला रहा हूँ और कभी लगता कि मुझे तो चेतना ही नहीं है। कभी लगता कि 2-3 फुट उपर से स्वयं को गाड़ी चलाते देख रहा हूँ और कभी लगता कि मैं ही चला रहा हूँ। ऐसा अनेक बार अनुभव हुआ। यह कोई आश्चर्य में डालने वाली नूतन अनुभूति थी।
लगभग 75 किलोमीटर की यात्रा ऐसे ही हुई। रात बहुत हो गयी थी। अपने गन्तव्य पर पहुँचा तो स्वयं को सम्भाल नहीं पा रहा था। किसी तरह मोटर साइकिल खड़ी की।
मैंने पूरे घटनाक्रम को याद करना चाहा। अद्भुत अनुभव था। मेरी आत्मा ने मुझे नहीं छोड़ा। कभी शरीर में रहती थी, कभी उपर से मेरे साथ उड़ते हुए चलती थी। क्या मेरी मृत्यु हो जाती थी, उतनी देर के लिए? दर्द भी तो उतना नहीं था कि कहूँ कि भीतर जीवन के स्रोत बिखर गये हैं और मेरी मृत्यु हो गई है।
आत्मा कब शरीर छोड़ती है,जब शरीर रहने लायक नहीं रह जाता। उसके सारे अवयव बेकार हो जाते हैं या किसी दुर्घटना में शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है। फिर भी आत्मा वहीं मँडराती रहती है। बार-बार शरीर में प्रवेश करना चाहती है। प्राण धारण करने वाले हिस्से जब काम करना बंद कर देते हैं, तभी आत्मा लाचार होकर शरीर से अलग होती है।
मुझे खुशी हुई कि मैं मृत्यु के द्वार से लौट आया था और शरीर में जो टूटा था, वह फिर से ठीक होने योग्य था। मेरी आत्मा बहुत कम समय के लिए शरीर से अलग होती थी। मैंने महसूस किया कि वह ठीक मेरे ऊपर से समानान्तर उड़ रही है, वह भी कुछ क्षणों के लिए, शायद 4 या 5 बार। एक बार तो उसने जल्दी से मुझे सम्भाला अन्यथा एक टेम्पू से टक्कर हो जाती।
यह भी मैंने महसूस किया कि मेरी आत्मा खुश हुई, जब मैंने धूल वाले कपड़े हटा दिये। मैं अपनी आत्मा के देखने के अंदाज को पहचान गया हूँ और उसे समझने लगा हूँ।
अगले दिन एक्सरे से मालूम हुआ कि मेरी दाहिना कालर-बोन तीन टुकडों में टूटकर बँट गई है। शरीर में यही एक हड्डी है, जिसके टूटने से दर्द कम होता है और यह स्वतः जुड़ती है। मैंने कोई दर्द की दवा नहीं ली और कोई प्लास्टर भी नहीं हुआ। एक दिन के लिए भी अवकाश नहीं लिया।
खुश हुआ कि मैं बच गया,मेरी मृत्यु नहीं हुई। मेरी आत्मा खुश हुई कि उसे घर नहीं बदलना पड़ा। हम दोनों को खुश देखकर भगवान जी मुस्करा रहे थे। ■■
सम्पर्कः टाटा अरियाना हाऊसिंग, टावर-4 फ्लैट-1002, पोस्ट- महालक्ष्मी विहार-751029, भुवनेश्वर,उडीसा,भारत, मो. 9102939190
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