उसकी मृत्यु हो रही थी। उसने संसार को समझ लिया था, इसलिए उसमें और रहने की घोषणा या इच्छा उसके अंदर शेष नहीं थी। उसकी साँसें मंद पड़ती जा रही थीं और बहुत ही नशीली, मधुर और आत्मीय मूर्च्छा धीरे-धीरे उसे अपने भीतर के निर्वात में खींच रही थी।
उसकी आँखें बंद थीं, चेहरे पर शांति और आनन्द की आभा फैली हुई थी।
‘इस घड़ी भी वह कितना निश्चित लग रहा है, है न?’’ किसी ने कहा, ‘‘मृत्यु के क्षण भी उसके चेहरे पर कैसी खुशी दिख रही है, है न?’’
तभी किसी ने जोरों से उसका नाम लेकर पुकारा, ‘‘देखो, जरा देखो तो.....यहाँ तुमसे मिलने कौन आया है!’’
उसके माथे पर सिलवटें पड़ीं। लगा, उसकी चेतना में कहीं कोई तकलीफदेह बेचैनी पैदा हुई। आँखें थोड़ी-सी खुली। वह थोड़ा-सा छपपटाया; मुँह खुलता-सा लगा।
अंत में, मृत्यु के समय उसका चेहरा ऐसा ही रह गया था। ■■
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