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Feb 2, 2014

उदंती.com, जनवरी-फरवरी 2014

जनवरी-फरवरी 2014

स्वास्थ्य सबसे बड़ी दौलत है। 
संतोष सबसे बड़ा खजाना है।
आत्म-विश्वास सबसे बड़ा मित्र है। 











नए साल का संकल्प

नए साल का संकल्प
नये साल में कैलेण्डर की तारीख बदलते ही हर आने वाले साल को रस्मी तौर पर निभाते चले जाना हम सबकी एक मानवीय कमज़ोरी बन गई है। बीते साल का लेखा-जोखा और नये साल की योजना बनाना ठीक है। क्या खोया, क्या पाया की तर्ज पर साल भर को पीछे मुड़कर देखना गलत नहीं है, पर इधर कुछ दशकों से बढ़ते बाजारवाद, इलेक्ट्रानिक मीडिया की आपसी प्रतिद्वंद्विता और भाग-दौड़ भरी जिंदगी के बीच एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ ने न साल के उत्सव को हमनें एक रस्मी दिन बना कर रख दिया है। पर क्या आगत का स्वागत इस तरह किया जाता है?...
आजकल लोग नव-वर्ष का स्वागत धूम- धड़ाका करते हुए पार्टी मनाकर करते हैं तो कुछ लोग टी.वी. के आगे सितारों का नाच-गाना देखकर तो कुछ किसी खूबसूरत जगह घूमने जाकर नया साल मनाते हैं। कुल मिलाकर छुट्टी मनाने का एक दिन बन गया है नये साल का पहला दिन। इसी तरह एक नया संकल्प लेना भी फैशन बन गया है इन दिनों, भले ही वह संकल्प पहले दिन ही धाराशायी होते नजर आता है।
जब हम सुबह उठते हैं तो मन में यही भाव रहता है कि आज का दिन अच्छा बीतेगा। पर क्या वास्तव में हमारे सोचे अनुसार हमारा दिन अच्छा बीतता है? हम जैसे ही अखबार का पन्ना या टीवी के चैनल बदलते हैं तो - हत्या बलात्कार लूट मार जैसी हिंसा से भरी खबरों से हमारा सामना होता है।  राजनीति की उठा -पटक, आरोप प्रत्यारोप और भ्रष्टाचार की खबरें मन को खिन्न कर देती हैं। अब ऐसे में दिन भला कैसे खुशनुमा बने? ...जब बात नये साल के पहले दिन की हो तब तो इस तरह की खबरों को नरअंदा कर देना ही ठीक लगता है, यही लगता है कि आज का दिन बगैर किसी तनाव के खुशी- खुशी बीत जाए तो आने वाला पूरा साल बेहतर गुजरेगा।
प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ ऐसा सोच लेने भर से हमारा साल अच्छा हो जाएगा? नहीं इसके लिए हमें अपनी आदतों को, अपने काम करने के तरीकों को और अपने नकारात्मक विचारों को बदलना होगा।
कुल मिलाकर यही बात समझ में आती है कि जिस तरह हम नए साल के पहले दिन कुछ अच्छा काम करने और कुछ बेहतर करते हुए किसी बुरी आदत या बुराई को छोडऩे का संकल्प लेते हैं उसी तर्ज पर अपनी पूरी दिनचर्या के जीने के ढंग को बदलना होगा। लोग सवाल तब भी उठते हैं कि सोचने और करने में बहुत अन्तर होता है। सोचना या सपने देखना बहुत आसान है उसे पूरा करना मुश्किल।
ऐसे समय में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की याद आती है ,जो हमेशा कहा करते हैं कि जीवन में तरक्की के लिए सपनों की महत्ती आवश्यकता है- छात्र, अभिभावक तथा शिक्षक सभी को सपने देखने चाहिए, सपने देखने वाला ही आगे बढ़ता है ; क्योंकि सपनों से विचार बनते हैं और विचार से क्रिया का जन्म होता है। क्रिया से व्यवहार बनता है और व्यवहार से इंसान की पहचान होती है, जैसा इंसान होगा, वैसे ही समाज और राष्ट्र का निर्माण होगा।
कुल जमा यही बात समझ में आती है कि आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें हर किसी को बेहतर इंसान बनना होगा। जिंदगी में मन का सुकून हो शांति हो और प्रसन्नता हो तभी जीवन के असली मायने है। पैसे के पीछे भागते हुए यह सब नहीं पाया जा सकता। लोग अपनी लाइन बड़ी करने की बजाय दूसरों की लाइन छोटी करने में अपना समय ज़ाया करते हैं।  काश हम सब यह समझ पाते कि अपने सपनों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी दूसरे की ओर देखने की बजाय अपने काम को पूरी मानदारी से करने में ही सबका भला है। सिर्फ दोहन न करें, कुछ सर्जन भी करें। ताकि आने वाली पीढ़ी गर्व से अपने पूर्वजों का नाम लेते हुए उनके नक्शे-कदम पर चलते हुए ,अपने सुनहरे सपनों को पूरा करते हुए आगे बढ़ते जाएँ।
प्रकृति ने हमें सोचने समझने और कुछ नया करने की जो ताकत दी है उसका सही उपयोग जिस दिन हम करने लग जाएँगे उस दिन सुख की परिभाषा ही बदल जाएगी। तो आइ क्यों न सुख की इस परिभाषा को बदलने का प्रयास करें। अपने जीवन को, अपने आस- पास को खुशहाल और खुशनुमा बनाते हुए आने वाले कल का स्वागत करें। 
सभी सुधी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएँ।

                                                                                    - डॉ. रत्ना वर्मा

नये वर्ष की पहचान

     नये वर्ष की पहचान
                                                                                                                                                         - विद्यानिवास मिश्र
 नया साल की मुबारकबादी कई बार मिलती है। दीपावली से कुछ लोगों का नया हिसाब किताब शुरू होता है, तब बधाई मिलती है। 1 जनवरी की बधाई मिलती है और युगादि, वर्षादि, गुड़ी पड़िवा, नव संवत्सर की बधाई चैत्र शुक्ल प्रतिपादा को मिलती है और बसंत में ही मेष संक्रान्ति पर वैशाखी की बधाई और बांग्ला वर्ष की बधाई मिलती है। कैसे पहचाने नया वर्ष कौन है? कुछ नये वर्ष प्रादेशिक माने जाते हैं, कुछ धार्मिक माने जाते है, कुछ सेक्यूलर माने जाते हैं कुछ व्यावसायिक माने जाते हैं, कुछ निपट गँवारू और कुछ राजनैतिक माने जाते हैं। नये वर्ष के साथ जुडऩा काफी जोखिम का काम हो गया है। क्या कैलेंडर या पंचांग की तिथि ही प्रमाण है, क्या ब्रह्माण्ड या सौर जगत में नया मोड़ प्रमाण नहीं है, पहले तो जैसा कि नाम से ही प्रकट है दिसम्बर भी दसवाँ महीना था, मार्च ही पहला महीना हुआ करता होगा, दो महीनों के नाम राजनीति ने बदल डाले। भारतीय महीनों के नाम तो चन्द्रमा जिस महीने की पूर्णिमा के दिन जिस नक्षत्र में रहता है, उसी के आधार पर पड़ते हैं, चैत्र की पूर्णिमा के दिन चित्रा नक्षत्र वैशाख की पूर्णिमा के दिन विशाखा, ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन ज्येष्ठा, आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन पूर्वाषाढ़ या उत्तराषाढ़, श्रावण की पूर्णिमा के दिन श्रवण, भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन पूर्व या उत्तर भाद्रपद, आश्विन की पूर्णिमा , के दिन अश्विनी, कार्तिक की पूर्णिमा के दिन कृतिका, मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन मृगशिरापौष की पूर्णिमा के दिन पुष्य, माद्य की पूर्णिमा के दिन मद्या और फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन पूर्वा या उत्तरा फाल्गुनी अब ये नाम भारतीयों ने 5000 वर्ष पूर्व दिये, इसलिए ये नाम तो अपने आप किसी धार्मिक छूत से छुए हुए नहीं होंगे। नक्षत्रों, सौर मंडल के ग्रहों और पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप से वर्तमान ब्रह्माण्ड के बीच का सम्बन्ध तो सांप्रदायिक हो नहीं सकता। ऐसे सम्बन्ध को अनुभव करना कोई पाप तो नहीं हो सकता। पर लोग डरते हैं कि कहीं इन सम्बन्धों की चर्चा करेंगे तो कुछ गलत न समझे जायँ।
अभी-अभी एक मित्र ने पत्र लिखा कि कर्मकांड के नाम पर बड़ा अन्धविश्वास और पाखंड फैला हुआ है, उसका खंडन कीजिए। कैसे उनसे कहूँ कि अर्थहीन प्रत्येक अनुष्ठान पाखंड है और उस अर्थ में मोमबत्तियों को गुल कर बीते वर्षों की याद दिलाना भी किसी संदर्भ में शायद अर्थहीन हो पर जहाँ प्रकाश का अर्थ शुभ हो, जहाँ प्रकाश बराबर सुलभ हो, थोड़े से समय को छोड़ कर वहाँ मोमबत्ती बुझाना केवल बड़े समाज की सदस्यता के लिए सम्पन्न होता है। वह पाखंड ही हो जाता है, उसी प्रकार नये वर्ष के दिन शराब पीकर हुड़दंग मनाना भी वहाँ कुछ अर्थ रखता है, जहाँ बर्फ पड़ रही है और आधी रात के पहले बीते वर्ष का शोकगीत गाते हुए निकले, फिर बाहर का गजर बजते ही नये वर्ष के स्वागत में मदमत्त हो गये, क्योंकि वहाँ कृत्रिम उल्लास से ही नये जन्म का मंगल मनाया जा सकता है। कहीं प्रकृत्ति से संकेत नहीं है। परंतु इसके विपरीत जहाँ मौसम में बदलाव साफ दिख रहा हो, बयार बदली दिख रही हो, पेड़ नया रूप लेते दिख रहे हैं, भीतर मन भी इस परिवर्तन के साथ जुड़ कर कुछ न कुछ उन्मन हो रहा हो, व्यष्टि के बँधन शिथिल हो रहे हों, समष्टि का आसपास बाहर भीतर भर रहा हो, वहाँ नये संवत्सर का आरंभ वास्तविक अनुष्ठान होता है। वह ऋतुचक्र का ही नया अवर्तन नहीं होता जीवन चक्र का भी नया अवर्तन नहीं होता, जीवन चक्र का भी नया आवर्तन होता है।
वर्षा आरंभ से पहले अर्थात् माघसुदि पंचमी से चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तक वर्ष का बचपन और किशोरवस्था है, यकायक नये वर्ष में तरुणाई आती है और तपती है, बरसाती है। फिर प्रौढ़ावस्था आती है, अनुभव परिपक्व होते है, सब आँधी पानी थाह जाते हैं, मन कुछ स्थिर हो जाता है, कातिक की नदी के जल की तरह फिर आती है जरा की जीर्णता। केश धवल होने लगते हैं, अंग शिथिल होने लगते हैं, झुरियाँ पडऩे लगती हैं और अजीब सी ठिठुरन देह की पोरपोर में समा जाती है। पूरा का पूरा जीवन भी ऐसे ही वृत्त में घूमता रहता है, बच्चों में कभी-कभी बड़े बूढ़ों का भाव आता है, जवानों बूढ़ों के भीतर कभी बचपन की उत्सुकता आती है, बूढ़े से बूढ़े के भीतर किशोरवस्था आती रहती है। यह न हो तो जीवन पूरा आस्वाद्य न हो। जीवन में छह ऋतुएँ हैं तो छह स्वाद भी हैं। मधुर लवण अम्ल कटु तिक्त कषाय। छहों रसों का अस्वाद अलग-अलग अवस्थाओं के कुछ विशेष अनुकूल है, बचपन के अनुकूल मधुर और अम्ल है, उसके बाद की अवस्था के लिए लवण, उसके बाद कटु उसके बाद तिक्त और सबसे अन्त में कषाय। कषाय ऐसा स्वाद है, जिसमें सब स्वाद घुल जाते हैं और उसके बाद फीका पानी भी मीठा लगता है।
नया वर्ष आता है तो हम तिक्त और कषाय का आस्वाद लेते हैं। नीम की नयी कोंपल काली मिर्च के साथ पीस कर गोली के रूप में चखी जाती है। आप की मंजरी का आस्वाद लिया जाता है। नयी अमिया कैरी का आस्वाद लिया जाता है, नये अन्न की बाली भूनी जाती है, उसका आस्वाद लिया जाता है। ये सब आस्वाद जीवन की समग्रता को समझने के लिए हैं। किशोरवस्था जिस प्रकार विश्वास और अविश्वास के बीच शीतलता और ताप के बीच अमृत और विष के बीच बचपन और तरूणाई के बीच, आशा और निराशा के बीच अविराम पेंग मारने वाला झूला है। कुछ जा रहा है, उसे जाते हुए अच्छा नहीं लगता है, कुछ आ रहा है, उसका स्वागत करते हुए अच्छा नहीं लगता। नये वर्ष का पहला दिन ऐसा ही असमंजस है। नया वर्ष विसर्जन भी है आवाहन भी है। इसीलिए इसके साथ नीम की कोंपल और काली मिर्च की संगति: है, उसके साथ नये भुने अनाज के दाने के सोंधेपन की संगति है, नयी सुराही के शीतल जल की संगति है, नये अमलोनपन के साथ सरस लगाव की संगति है और साथ ही विगत के प्रति निर्मोही भाव की संगति है। नया वर्ष का नया दिन उछाल अज्ञात में, अजनबीपन में। पर यही तो जीवन के नया होने का प्रमाण है।
वैदिक साहित्य में नये संवत्सर का नाम दिया गया यज्ञ और जीवन को भी उपमा दी गयी यज्ञ की। यज्ञ का अर्थ कुछ नहीं, अपने में सर्व के प्रति अर्पित करना। जीवन की सार्थकता इस सर्वमय होने के संकल्प में है और उस संकल्प के लिए अनवरत प्रयत्न में है। वर्ष का आरम्भ यथार्थ की पहचान से होती है तो अधिक सटीक होती है। मुझे स्मरण आता है विवाह का एक गीत, जो विवाह पूर्व की पिछली संध्याओं में गाया जाता है, जिसका अन्त होता है कन्नौजे के मोड़ो बबुर तर छाई लेबो (पूरे कन्नौजी ठाठ का विवाह मण्डप बबूल की छाया में छा लेंगे)।
विवाहित जीवन हमारे यहा मधु राका से नहीं, इस बबूल की छाया के यथार्थ- ज्ञान से प्रारंभ होता है। हम ठीक पहचान लें और हम नव वर्ष काँटों की चुभन और विराट वीरानी में बबूल की सुरभित छाया के सुख की अनुभूति से शुरू करते हैं तो इस रूमानी खयालों की दुनिया में नहीं घूमते, न हम रंगीली तस्वीरों को देखते-देखते अन्धकार में प्रवेश करते हैं। हम जानते हैं हर कदम में कुछ जोखिम है, हर गीत में कुछ दुराव है, हर हँसी में कुछ ज़हर है और इसके साथ ही हर तल्खी में एक मिठास है, हर कडुए प्रत्यय में एक सलोनापन है और यह अनुभव हमारे नववर्षोत्सव को उन्मादी नहीं होने देता। हम भरे पूरे मन से नववर्षोत्सव के रूप में सामने पसरे वर्ष के ऋतु चक्र पर दृष्टिपात करते हैं या पंचांगवाले पंडित से सुनते हैं, वर्षा के योग की कैसे-कैसे पहचान होगी। सौर मंडली राज्य व्यवस्था कैसी है, उसकी परिणति किस रूप में सामने आयेगी। यह दिन अपने जीवन को वेदी के रूप में आकार देने के लिए है और पूरा वर्ष इस वेदी पर अपनी निजताओं की आहुति है। मालवा में और महाराष्ट्र में नये गुड़ का आस्वाद इस दिन लेते हैं और घर को फूलों पत्तियों से सजाते हैं, उसका भी अर्थ यही है कि प्रकृति ने जो माधुर्य दिया, उसे आस्वादें और प्रकृति के नये उल्लास  के साथ अपनी संगति बिठलाएँ। हम जो कुछ हैं अपनी आभ्यंतर और बाह्य प्रकृति के परिणाम हैं, उनसे जुड़े रह कर, उनका उत्सव अपना उत्सव मान कर चलते हैं तो सब कुछ असमंजस रहता है, आदमी आदमी के भी रिश्ते बने रहते हैं, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, जीवन के प्रति उत्सुकता बनी रहती है और सबको सबका हिस्सा मिलता है कि नहीं इसकी चिंता बनी रहती है। शकुन्तला के बारे में कालिदास ने कहा था कि सजना- धजना नयी वय में किसे नहीं सुहाता, पर शकुन्तला पेड़- पौधो से इतना प्यार करती है कि उनके नये पल्लव तोडऩे का मन न होता था, वे पल्लव जहाँ हैं, वहीं से शकुन्तला की शोभा बने पेड़ में पहला फूल आता तो शकुन्तला उत्सव मनाती थी, जैसे ये फूल उसी में खिले हैं।
आज हमारे जीवन में वह एकात्मता नहीं है तो भी एक दिन उसका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण तो किया जा सकता है। नये वर्ष के दिन यही स्मरण करें कि हम शकुन्तला की सन्तान भारत के राज्य में हैं, हम भारत की सन्तान है तो कहीं वह शकुन्तला हमारी मातृभूमि की तरह ही इतने झंझावतों से गुजरी माता है, जिसकों सत्ता का अधिकार मिलकर भी नहीं मिलता है। बस सन्तान का सर्वदमन तेज सिंह के दाँत गिरने वाला साहस उसे पुन: प्रतिष्ठापित करता है। यह आत्म परीक्षण का दिन है कि हम कितने उस बालक भारत के हैं। कितना हम नकार सकते हैं एश्वर्य के अधिकार को कि माँ से कहें कौन है माँ यह, जो अपना अधिकार मुझ पर जमाना चाहता है, पुत्र-पुत्र कह कर के गोद में लेना चाहता है? शकुन्तला का उत्तर आज के दिन तो हमारे कानों में गूँजे-भागधेयान वे पृच्छ। बेटा मुझसे यह सवाल न करो, पूछो अपने जन्मसिद्ध भागधेय से तुम्हें जो तुम्हारा हिस्सा मिला हुआ है, उस हिस्से से पूछो। हम आज इतने साक्षर अशिक्षित हैं कि हमें अपना भागधेय भी नहीं मालूम। हमें यही नहीं मालूम हमारा इस शासन के तंत्र में कितना बड़ा हिस्सा है। हमें मालूम भी है तो हम इतने कायर हैं कि हिस्सा ले नहीं सकते। केवल रिरियाते रहते हैं। हमें भी हिस्सा दो, थोड़ा- सा ही दो। या हम इतने बेसुध हैं कि बिसूरते रहते हैं। कभी हम यह थे, कभी हम वह थे, आज ही दीनहीन हैं। हम थे का कोई अर्थ नहीं होता, हम इतने हजार वर्षो के अस्तित्व को निरंतर निचोड़ते रहने वाले लोग हजार वर्षो के अस्तित्व को निचोड़ते रहने वाले लोग, उस रस को आत्मसात् करने वाले लोग, मन्थनों में विष निकालने पर भी अमृत की प्रतीक्षा करने वाले अप्रतिहत जीवन के विश्वासी लोग, आज के दिन क्यों इतने कुंठित है? जाने कितना सागर हमने मथा है, कितना हमने पिया है, आज हमें सागर की लहरों से क्यों डर? ये हमें क्या लील पायेंगी?
पर हम कुछ विचित्र प्रकार की अविश्वासी और विचित्र प्रकार के बुद्धिमन्त हो गये हैं कि हमें सब भविष्य दिखा गया है और कुछ करने को शेष नहीं रह गया है। हमें अपनी बुद्धि के अलावा किसी पर भरोसा करें जो कभी भी भरोसे से खाली नहीं रहे वे यह जानते हैं इसी चैत्र में आज से आठ दिन बाद सनातन देशकाल के राजा रामचन्द्र जन्म लेने वाले हैं। उनके ऊपर भरोसा है। एक महीने के बाद ही जानकी जी जन्म लेने वाली हैं। इनसे बड़ा और कौन भरोसा है। आत्मनिर्वासन के कठिन क्षण में, जब सब चीजें लगता हैं आयेंगी आएँगी, हमारे यहाँ से कुछ  जाएँगी नहीं, जाएँगी भी हमारी अतीत उपलब्धियाँ । अपने देश के चरित्र के पतन के बारे में इतनी बात हम करते हैं, पर अपनी अनचुकी संभवना के बारे में एक दिन बात कर लें। तमाम भ्रष्टाचारों के बीच में कहीं हमारे भीतर एक मनुष्य है, वह निखालिस भारतीय मनुष्य है, एक साथ छोटे से छोटे और बड़े से बड़े की सुधि लेने वाला, विराट को वामन बनाने वाला बिन्दु को सिन्धु बनाने वाला परब्रह्म में कच्चे आँगन की धूलि में लिपटाने वाला और सामान्य मनुष्य की कठौती में गंगा लहराने वाला। उसी प्राण पुरुष का स्मरण करें, वह हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं ईसाई नहीं, सिख नहीं वह भारतभूमि का प्राणपुरुष है। वहीं नया संवत्सर है।


लेखक के बारे में: जन्म- 28 जनवरी, 1926, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 14 फरवरी, 2005) हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। हिन्दी साहित्य को अपने ललित निबन्धों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र जी ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्त्व दिया। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- हिन्दी में यदि आंचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है। मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्रीऔर 'पद्मभूषणसे भी सम्मानित किया था।

भौरे भी गा रहे

          भौरें भी गा रहे
                                       - मंजुल भटनागर

                        किरण समेटे उजाले
                        आ गए द्वार पाहुने
                        सतरंगी चूनर है
                        कलियों के हैं घाघरे
                        द्वार उद्यान कलरव है
                        भौरें भी गा रहे वाद्य रे
                        जाग गई चारों दिशाएँ
                        जाग गए मन फाग रे
                        जड़ चेतन प्रगट हुए
                        धूप फैली शाख रे
                        गाँव  की पगडण्डी आबाद
                        रहट गिर्द बैल घूमे
                        दुनिया घूमे घाम रे
                        भोर तकती दूर से
                        रौशनी भरी धूप- सी
                        सुख दु:ख सा जीवन भी
                        आज है आतप कल सबेरा
                        जग की यही रीत
                        सब गुने, मन जाग रे...

सम्पर्क:Mrs Manjul Bhatnagar o/503,Tarapor Towers New Link Rd Andheri West Mumbai 53. phone 09892601105, 022-42646045
Email- manjuldbh@gmail.com    manjuldbh@gmail.com

अन्नदान का महायज्ञ : छेरछेरा

न्नदान का महायज्ञ

छेरछेरा
- श्यामलाल चतुर्वेदी
 छत्तीसगढ़ी की अर्थ व्यवस्था कृषि के धुरी पर घूमती है। यहाँ आज भी अस्सी प्रतिशत से अधिक परिवारों की आजीविका कृषि पर निर्भर करती है। दिन रात कार्यरत रह कर, चराचर के समस्त जीवों को जीवनदान देने वाला किसान मौन साधक होते है। अनेक जोखिमों के बाद जब फसल काट कर अपने कोठे में लाता है तो राहत की साँस लेता है। धान को बोने से लेकर उसकी कटाई और मिंजाई तक उसकी फसल को पशु, पक्षी चूहे, चोर और कीट पतंग देखे मन देखे चाटते रहते हैं। फिर भी किसान को परम संतुष्टि का अनुभव तब होता है जब वह समारोह पूर्वक अपनी फसल के कुछ अंश का दान करता है। स्वेच्छा से धान की फसल के अंशदान का महायज्ञ छेर छेरा कहलाता हैं। अन्नदान का यह महायज्ञ पौष पूर्णिमा के दिन समारोह पूर्वक होता है।
छत्तीसगढ़ के किसान को छेर छेरा की उत्फुल्लता के साथ प्रतीक्षा रहती है। घरों की साफ-सफाई और लिपाई पुताई करने के बाद अन्नदान के सामूहिक अनुष्ठान का यजमान छत्तीसगढ़ का किसान पौष पूर्णिमा के आने तक मन-प्राण से अपने सामाजिक दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार हो जाता है। सुबह होते ही गाँव भर के अमीर गरीब अभिजात्य और अन्त्यज सभी वर्गो के बच्चे-बच्चियाँ टोकरियाँ लिये हुए घर-घर छेर-छेरा के लिए निकल पड़ती है। समूह में साधिकार घोष करते जाते हैं छेर-छेरा माई कोठी से धान निकालो और उसे बाँटो। बाल भगवान की घर के सामने सुबह से समूह में उपस्थित टोली और उसकी अधिकारिक  यह बोली क्या अमीर क्या गरीब सबके दरवाजे ही भीड़। गरीब भी यथाशक्ति सबको थोड़ा-थोड़ा ही सही अत्यधिक आनंद से अन्न दान करता है। उसके दरवाजे धनिक निर्धन सभी घर के बच्चे खड़े होते हैं। दौलत की दीवार टूट जाती है जाति का भेद मिट जाता है। एकात्मता का अनोखा अनुष्टान होता है छेर-छेरा। नौकर के भी दरवाजे मालिक का बेटा खड़ा रहता है, गरीब की गली में अमीर का लाड़ला याचक बना घूमता है। सब लोग सबको देते हैं, सब लोग सबसे लेते हैं। यहाँ परिणाम का प्रश्न नहीं परिणाम की प्रसन्नता प्राप्त करना सबका अभीष्ट है। यदि कोई धान बाँटने में कंजूसी करता है तो ये बच्चे अपने बेलाग व्यंग्य बाणों से उनकी कृपणता पर निर्भीकता से आधात करने से भी नहीं चूकते। अहंकार का भी परिष्कार हो जाता है। सर्वत्र समभाव का साम्राज्य होता है। उदारता की भावना उद्वेलित होती है। कई छोटे बच्चे अपने यहाँ गोद में अपने छोटे भाई-बहन को लेकर निकले रहते हैं और उसके लिए भी हिस्सा वसूलते हैं। यहाँ इंकार करने वाला भी कौन है? शास्त्रों में कहा गया है बाँटकर खाओ सबकी सम्पदा में सबका हिस्सा है। किसी को खाली हाथ न लौटाओ। छत्तीसगढ़ में इस भावना को आचरण में उतारा जाता है। अन्न वितरण के बाद पर्व के उल्लास का दूसरा अध्याय प्रारंभ होता है। डंडा नाचने वालो के दल हाथों में डंडे लिए झांझ मजीरा मांदर आदि के साथ घरों घर जाकर आँगन में डंडा नाच करते हैं। इस नाच की अनेक शैलियाँ हैं जिनमें रेली, माढऩ, गुनढरकी मंडलाही, तिनडंडिय़ा, दूडंडिय़ा आदि प्रचलित है।
इस नाच के साथ गाए जाने वाले लोक गीतों में जन-जीवन की व्यथा कथा इतिहास, भगवान के स्वरूप वर्णन आदि के साथ हर्ष विषाद उल्लास के वृत चित्र उभरते हैं। निरक्षर नर्तकों के गीतों की बानगी देखिए।
तरि हरि नाना, ना मोरि नाना,
नाना रे भाई नान गा।
परथम बन्दौं गुरू आपना,
फिर बन्दों भगवान गा।
 क्या स्पष्ट धारणा है? कबीर के समान असमंजस नहीं है कि गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काकेलागू पांय ये तो साफ कहते हैं सबसे पहले अपने गुरू की वन्दन करता हूँ फिर बाद में भगवान की स्तुति। एक गीत में विरह की व्याकुता की झलक देखिए:-
मैं तो नई जानौं राम, नई जानौं राम,
जिया बियाकुल पिहा बिना
(हे राम। मैं नहीं जानती, नहीं समझती कि क्यों प्रियतम के बिना मेरे प्राण व्याकुल है) इस पद की अगली पंक्ति में नायिका कहती है:-
कच्चा लोहा सरौता के,
सइंया हे नदान।
फोरे न फूटय सुपरिया,
बिना बल के जवान।
जियरा बियाकुल पिहा बिना।
 मेरा बालम अपरिपक्व है, पूर्ण वयस्क नहीं है, उसकी सामर्थ्य का सरौता अभी कच्चा है। उससे सुपारी नहीं फूट सकती। अपेक्षित बलविहीन जवान, अभी नादान है। फिर भी उसके वियोग में मेरे प्राण बेजार हैं, बेकल हो रही हूँ।
एक मनोरंजक विचित्रता इस गीत में देखिए-
बावा कोड़ाइस, तिन डबरी,
दू सुक्खा एक म पानी नहीं।
तेमा पेलिन, तिन केंवटा
दू खोरवा एक के गोड़े नहीं।
आमन पाइन तिन मछरी,
दू सरहा एक के पोटा नहीं।
भोला बेंचिन, तिन रूपया।
दू खोटहा, एक चलय नहीं।
ये किस्सा ल समढ़ लेहा गा,
नई जाने तउन अडहा ये गा।
 क्या दिलचस्प कल्पना है? बाबा जी ने तीन तालाब खोदवाये जिसमें से दो सुखे और एक में पानी नहीं। उसमें मछली लाने तीन मछुआरे घुसे जिसमें दो लँगड़े और एक के पाँव ही नहीं है। उनको तीन मछलियाँ मिली जिसमें से दो सड़ी हुई थी और एक मछली की आँते नहीं थीं। उसे तीन रूपये में बेचा गया  तो दो सिक्के मिले खोटे और एक ऐसा जो बाजार में चला ही नहीं।
अब गौर कीजिए कथा के उस निरक्षर लोक गायक के चातुर्य कौशल को जिसने इस अटपटे अनबूझ कथानक को नहीं समझ पाने की बात कबूलने के पहले से यह घोषित कर दिया कि नासमझी बताने वाले मूर्ख कहे जायेंगे।
डंडा नाचने वालों को धान देकर बिदाई दी जाती है। गाँव-गाँव में डंडाहारों के नाच गान से वातावरण संगीतमय हो जाता है। घरों-घर पकवान बनाए जाते और इष्ट मित्रों के साथ खाये जाते हैं।

इस तरह अन्नदान का यह सामूहिक महोत्सव सम्पन्न हुआ करता है।

अपना ग्लेशियर खुद बनाओ

    अपना ग्लेशियर खुद बनाओ
                   - डॉ. अरविंद गुप्ता


केदारनाथ में पिछले दिनों हुई भयंकर तबाही का एक कारण मंदिर के ऊपर स्थित चोराबारी ग्लेशियर का पिघलना बताया गया है। इससे आम लोगों के मन में ग्लेशियर के प्रति डर पैदा होना स्वाभाविक है। किंतु यह दुर्घटना कुछ ऐसी थी मानों किसी तालाब की पाल टूट जाए और उससे निकलने वाले पानी से तबाही हो जाए। वैसे तालाब तो एक उपयोगी जलाशय ही होता है। ठीक उसी प्रकार ग्लेशियर मानव के लिए वरदान हैं। पहाड़ों की ऊँचाइयों पर सर्दियों में बर्फ पड़ती है। इसमें से कुछ बर्फ पिघल कर पानी बन जाती है जो नदियों में बह जाता है। किंतु जमी रहने वाली बर्फ की मात्रा पिघलने वाली बर्फ की मात्रा अधिक होने के कारण पहाड़ के ऊपर बर्फ की एक परत बन जाती है। साल-दर-साल इस परत पर बर्फ गिरती रहती है और वह मोटी होती जाती है। अंत में अपने स्वयं के भार के कारण यह परत पहाड़ से खिसक कर एक बहाव के रूप में नीचे आने लगती है। इस प्रकार बनने वाली बर्फ की नदी को ग्लेशियर या हिमनद कहते हैं। पृथ्वी पर स्थित मीठे पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ग्लेशियरों में भंडार के रूप में संगृहीत रहता है। गर्मी के मौसम में ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और इनसे निकलने वाला पानी नदियों में बहने लगता है। यही कारण है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों में गर्मी के मौसम में बाढ़ आती है। वैसे भी हिमालय से निकलने वाली नदियों में पूरे वर्ष पाए जाने वाले पानी का एक बड़ा हिस्सा ग्लेशियरों से ही आता है। यदि हिमालय के सारे ग्लेशियर समाप्त हो जाएँ तो गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों का अस्तित्व ही समाप्त जाएगा। जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और मनुष्य का जीवन काफी हद तक ग्लेशियरों पर निर्भर है। जम्मू-कश्मीर का लद्दाख एक काफी सूखा क्षेत्र है और पानी की कमी के कारण यहाँ खेती-बाड़ी करना एक मुश्किल काम है। इस क्षेत्र में वर्षा बहुत कम होती है, किंतु पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियरों से नदी-नालों में आने वाले पानी का उपयोग इस क्षेत्र के लोग सिंचाई के लिए और पेयजल के रूप में करते हैं। पिछले वर्षों में बढ़ी वैश्विक तपन के कारण लद्दाख और पूरे हिमालय के ग्लेशियर सिकुडऩे लगे हैं और इनके पानी पर निर्भर रहने वाली आबादी के लिए संकट खड़ा हो गया है। खेत सूखने लगे हैं और मवेशियों तथा मनुष्यों के लिए पेयजल की कमी हो गई है। कुछ लोग यह मानते हैं कि यह वैश्विक तपन के कारण हो रहा है, तो कुछ लोग इसे दैवी प्रकोप मानते हैं। किंतु दोनों में से किसी भी कारण पर विश्वास करें तो आम धारणा तो यही है कि इसका कोई इलाज नहीं है। किंतु लद्दाख के मुख्यालय लेह में रहने वाले सिविल इंजिनियर चेवांग नॉरफेल ने इस समस्या का इलाज खोज लिया है। लेह के एक मध्यम वर्गीय परिवार से आने वाले नॉरफेल ने लखनऊ से सिविल इंजिनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया और उन्हें 1960 में जम्मू-कश्मीर शासन के ग्रामीण विकास विभाग में नियुक्ति मिली। 1995 में वे सेवानिवृत्त हुए और 1996 में लेह न्यूट्रीशन प्रोजेक्ट नामक स्वयंसेवी संस्था के साथ वॉटरशेड विकास के परियोजना प्रबंधक के रूप में कार्य करने लगे।नॉरफेल ने देखा कि उनके आँगन में बहने वाले एक नाले में पानी कलकल बहता रहता था; किंतु जहाँ यह नाला पहाड़ी पीपल पेड़ों के झुरमुट से धीमी गति से गुजऱता था; वहाँ उसका पानी जमकर बर्फ बन जाता था। इसका कारण यह था कि बहते पानी की गति इतनी तेज़ थी कि उसे जमने का समय ही नहीं मिलता था। इसके विपरीत, पेड़ों के नीचे धीमी गति से बहने वाला पानी जम जाता था। इससे उनके दिमाग में विचार आया कि क्यों न इस विधि से कृत्रिम ग्लेशियर बनाए जाएँ। तब उन्होंने उस नाले के पानी को एक छोटी घाटी में मोड़ दिया और उस पर कई स्थानों पर चेक डैम बनाकर उसके बहाव को धीमा कर दिया। जाड़े के दिनों में इस नाले का पूरा पानी बर्फ बन कर एक छोटे ग्लेशियर का रूप लेने लगा।
इसके बाद नॉरफेल ने अपनी परियोजना की शुरुआत की और गाँवों के ठीक ऊपर पहाड़ों पर कृत्रिम ग्लेशियर बनाना शुरूकिया। ये ग्लेशियर प्राकृतिक ग्लेशियरों से कम ऊँचाई पर होने के कारण कुछ पहले यानी अप्रैल में पिघलने लगते हैं और इनका पानी गाँव की सिंचाई नालियों में आने लगता है। यह वह समय होता है जब खेतों में अंकुरित फसलों को सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, बोनस के रूप में इन नालियों से भूजल का पुनर्भरण भी हो जाता है। प्राकृतिक ग्लेशियर मई-जून में पिघलने लगते हैं। इस प्रकार फसलों को अधिक समय तक पानी मिलता रहता है। सन 2001 से 2012 के बीच नॉरफेल 12 ग्लेशियरों का निर्माण कर चुके हैं। उनका सबसे बड़ा ग्लेशियर 1000 फीट लम्बा, 150फीट चौड़ा और 4 फीट मोटा है। यह एक हज़ार की आबादी वाले गाँव को लगभग दो माह तक पानी प्रदाय कर सकता है। इस कृत्रिम ग्लेशियर को बनाने की लागत केवल 90,000 हज़ार रुपए आई है जबकि सीमेंट के छोटे बाँध की कीमत इससे लगभग पाँच-छह गुना अधिक होती है। कृत्रिम ग्लेशियर बनाने के लिए आवश्यक सामग्री स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाती है और ग्रामवासी स्वयं ही इसका निर्माण कर सकते हैं। इन छोटे जलाशयों के आसपास पॉपलर और विलो के पेड़ लगा दिए जाते हैं ताकि छाँव के कारण पानी कम समय में बर्फ बन सके। नॉरफेल की सफलता का समाचार जैसे-जैसे फैलने लगा है, उनके काम को देखने और उनसे सीखने के लिए देश के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों के और विदेशों के इंजीनियर आने लगे हैं। नॉरफेल का सपना है कि वे 1000 गाँवों के लिए कृत्रिम ग्लेशियरों का निर्माण करें, किंतु खेद की बात यह है कि इस अनूठे काम में भी उन्हें कठिनाइयों का सामना कर पड़ रहा है। जम्मू-कश्मीर शासन से उनकी संस्था को वॉटरशेड विकास के लिए मिलने वाली राशि में कटौती कर दी गई है। इसके अलावा, वह नियमित रूप से मिलती भी नहीं है। दूसरी कठिनाई यह है कि ग्रामवासियों का सहयोग आशा के अनुरूप नहीं मिल रहा है। सन 2001 में जब पहला कृत्रिम ग्लेशियर बना तब कई गाँवों के लोग उत्साहित होकर इस काम में जुट गए। उन्होंने चेक डैम बनाए, सिंचाई का साधन उपलब्ध हो जाने के कारण खाली पड़ी ज़मीनों पर खेती करना शुरू कर दिया और खेतों में विलो और पॉपलर के पेड़ रोपे। किंतु बाद में उनमें आपस में झगड़े होने लगे और वे एक-दूसरे पर पानी की चोरी का आरोप लगाने लगे। गाँवों की वॉटरशेड समितियाँ भी सरकार से रख-रखाव के लिए मिलने वाली राशि का सही उपयोग करने में कोताही बरतने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि इन गाँवों के ग्लेशियर असफल हो गए। किंतु 74 वर्षीय नॉरफेल इन कठिनाइयों से निराश नहीं हैं। वे लगातार यह सोचते रहते हैं कि यदि उन्हें अधिक धनराशि उपलब्ध हो तो वे अपनी परियोजना में क्या-क्या सुधार कर सकते हैं। उनकी मान्यता है कि वे प्राकृतिक ग्लेशियरों का सिकुडऩा भले न रोक सकें, इसके दुष्परिणामों से अपने क्षेत्र को और उसके निवासियों को कुछ हद तक बचा ज़रूर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

प्रेरक

       नए साल में निखारिए अपना घर
- निशांत
अपने घर और परिवेश को व्यवस्थित रखना एक हुनर है जो नियमित अभ्यास से और अधिक निखरता है। आधुनिक जीवनशैली मे दिनों दिन बढ़ती आपाधापी के कारण घर-गृहस्थी में जो समस्याएँ पहले महानगरों में आम थीं वे अब छोटे शहरों में भी पैर पसार रहीं हैं। भारतीय परिवार में घर-परिवार की देखरेख करना स्त्रियों का एक अनिवार्य गुण माना जाता रहा है। बदलते माहौल और जागरूकता के कारण अब बहुत से घरों में पुरुष भी कई कामों में स्त्रियों की सहायता करने लगे हैं। जिन घरों में स्त्री भी नौकरी करती हो वहाँ या तो नौकर के सहारे या आपसी तालमेल से सभी ज़रूरी काम निपटाना ही समय की माँग है। रोज़मर्रा के कुछ काम ऐसे होते हैं जिनको करना निहायत ही ज़रूरी होता है। आप चाहें तो कपड़े सप्ताह में एक या दो दिन नियत करके धो सकते हैं लेकिन खाना बनाना और घर को व्यवस्थित रखना ऐसे काम हैं जिन्हें एक दिन के लिए भी टाला नहीं जा सकता। घर की सफाई को टाल देने पर दूसरे दिन और अधिक गंदगी से दो-चार होना पड़ता है। ऐसे में किसी अतिथि के अनायास आ जाने पर शर्मिंदगी का सामना भी करना पड़ता है। इसलिए बेहतर यही रहता है कि सामने दिख रही गंदगी या अव्यवस्था को फौरन दुरुस्त कर दिया जाए। किसी भी काम को और अधिक अच्छे से करने के लिए यह ज़रूरी होता है कि उसके सभी पक्षों के बारे में अपनी जानकारी को परख लिया जाए। घर के बाहर और भीतर बिखरी अव्यवस्था को दूर करने के लिए रोज़-रोज़ की परेशानियों का सामना करने से बेहतर यह है कि घर को यथासंभव हमेशा ही सुरुचिपूर्ण तरीके से जमाकर रखें। ऐसा करने पर हर दिन की मेहनत से भी बचा जा सकता है और इस काम में खटने से बचने वाले समय का सदुपयोग किन्हीं अन्य कामों में किया जा सकता है। घर को कायदे से रखने सिर्फ हाउसवाइफ का ही कर्तव्य नहीं है। इस काम में घर के सभी सदस्यों और बच्चों की भागीदारी भी होनी चाहिए. घर के सभी सदस्यों का समझदारी भरा व्यवहार उनके घर को साफ, स्वच्छ और सुंदर बनाता है। घर में कीमती सामान और सजावट का होना ज़रूरी नहीं है बल्कि घर में ज़रूरत के मुताबिक सामान का व्यवस्थित रूप से रखा जाना ही घर को तारीफ़ के काबिल बनाता है। सफाई तथा व्यवस्था को नज़र अंदाज करने और उससे जी चुराने वाले कई तरह के बहाने बनाते हैं और यथास्थिति बनाए रखने के लिए कई तर्क देते हैं, जिनका समाधान नीचे क्रमवार दिया जा रहा है।
1. समझ में नहीं आता कि शुरुआत कहाँ से करू? - किसी भी काम को करने के लिए कहीं से तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी, इसलिए यदि आप तय नहीं कर पा रहे हों तो किसी भी एक कोने को चुन लें। उस स्थान को साफ और व्यवस्थित करते हुए आगे बढ़ें। एक ही जगह पर एक घंटा लगा देने में कोई तुक नहीं है। एक कोने को पांच-दस मिनट दें, ताकि पूरे घर को घंटे भर के भीतर जमाया जा सके। आज पर्याप्त सफाई कर दें, कल थोड़ी और करें। एक दिन सिर्फ किताबों के ऊपर की धूल झाड़ दें, दूसरे दिन उन्हें क्रमवार जमा दें। यदि आप थोड़ा-थोड़ा करके काम करेंगे तो यह पहाड़ -सा प्रतीत नहीं होगा।

2. पुराने अखबारों और पत्रिकाओं में कोई काम की चीज हुई तो? - मेरे एक मित्र के घर दो-तीन साल पुराने अखबारों और पत्रिकाओं का ढेर लगा रहता था। उसे यही लगता था कि उनमें कोई काम की चीज होगी जिसकी ज़रूरत पड़ सकती है; लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी अखबार या पत्रिका को खोजने की ज़रूरत पड़ी हो। बहुत लंबे समय तक पड़े रहने के कारण उस रद्दी का सही मोल भी नहीं मिलता था। कुछ घरों में ऐसा ही होता है। यह एक मनोदशा है जिसके कारण लोग पुराने कागजों का अम्बार सँजोए रहते हैं। इसका सीधा-सरल उपाय यह है कि पढ़ चुकने के फौरन बाद ही यह तय कर लिया जाए कि उस अखबार या पत्रिका को रखना है या रद्दी में बेचना है। जिन अखबार या पत्रिका को सहेजना ज़रूरी लग रहा हो, उनका एक अलग ढेर बना लिया जाए। मेरा अनुभव यह कहता है कि यह ढेर भी अंतत: रद्दी में ही मर्ज हो जाता है। प्रारंभ से ही ज़रूरी और गैर-ज़रूरी अखबार या पत्रिका का ढेर बनाने लगें ताकि बाद में रद्दी का अंबार न लगे।
3. मैं तो तैयार हूँ; लेकिन घर के सदस्य ही नहीं मानते! - दूसरों पर जिम्मेदारी डालने से पहले खुद शुरुआत करें। अपनी निजी चीजों को अपनी जगह पर व्यवस्थित रखें और दूसरों को बताएँ कि ऐसा करना क्यों ज़रूरी है। नकारात्मक नज़रिया रखते हुए कोई समझाइश देंगे तो इसका सही प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्हें अपने काम में शामिल करें। छोटे बच्चों को बताएँ कि वे अपने बस्ते और कपास को सही तरीके से रखें, पेंसिल की छीलन जमीन पर नहीं गिराएँ, अपने गंदे टिफिन को धुलने के लिए रखें। अपने परिवेश को साफ रखना व्यक्तिगत अनुशासन का अंग है और छुटपन से ही बच्चों को इसकी शिक्षा देनी चाहिए। प्रारंभ में लोग आनाकानी और अनमने तरीके से काम करते हैं लेकिन उसका लाभ दिखने और प्रोत्साहन मिलने पर यह आदत में शुमार हो जाता है।
4. क्या पता किस चीज की कब ज़रूरत पड़ जाए! - इस मनोदशा का जिक्र ऊपर किया गया है। यदि आप इससे निजात पाने की कोशिश नहीं करेंगे तो आपका घर कचराघर बन जाएगा। इसका सीधा समाधान यह है कि एक बक्सा लें और ऐसे सामान को उसमें डालते जाएँ जिसके बारे में आप आश्वस्त नहीं हों। छह महीने या साल भर के बाद उस बक्से का मुआयना करें। यदि इस बीच किसी सामान की ज़रूरत नहीं पड़ी हो तो उससे छुटकारा पाना ही सही है।
5. मैं उपहारों और स्मृतिचिह्नों का क्या करूँ? - घर में मौजूद बहुत सी चीजों का भावनात्मक मूल्य होता है और वे किसी लम्हे, व्यक्ति या घटना की यादगार के रूप में रखी जातीं हैं। इन चीजों के बारे में यही कहा जा सकता है कि इनसे जुड़ी असल भावना हमारे भीतर होती है। ये सामान उस भावना का प्रतिरूप बनकर उपस्थित रहते हैं। आप उनकी फोटो लेकर एक अल्बम में या टेबल पर लगा सकते हैं, चाहें तो किसी ब्लॉग आ डायरी में उनके जिक्र कर सकते हैं। यदि ऐसी वस्तुएँ जगह घेर रही हों तो उन्हें बक्सा बंद करके रख देने में ही समझदारी है। दूसरों ने आपको उपहार इसलिए नहीं दिए थे कि आप उन्हें बोझ समझकर धूल खाने के लिए छोड़ दें। इन उपहारों ने आपको कभी खुशी दी थी, अब इनको रखे रहना मुनासिब न लग रहा हो तो उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखाने में असमंजस न रखें।
6. ऐसी भी क्या पड़ी है? आज नहीं तो कल कर लेंगे! - आलस्य ऐसी बुरी चीज है कि यदि यही भाग जाए तो बहुत से काम सहज बन जाते हैं। एक बात मन में बिठा लें कि कल कभी नहीं आता। आलस्य को दूर भगाने के लिए प्रेरणा खोजिए। आप जिस काम से जी चुरा रहे हों उसका जिक्र परिवार के सदस्यों और दोस्तों से कर दें। उनके बीच घोषणा कर दें कि आपने साफ-सफाई करने बीड़ा उठा लिया है। यदि आप इस दिशा में कुछ काम करें ,तो उसके बारे में भी सबको बता दें। इसका फायदा यह होगा कि आपको ज़रूरी काम करने के लिए मोटिवेशन मिलता रहेगा और आप कुछ आलस्य कम करेंगे; क्योंकि आपके ऊपर खुद से और दूसरों से किए वादे निभाने का दारोमदार होगा। इन वादों को तोड़कर आप खुद को नाकारा तो साबित नहीं होने देना चाहेंगे न?
7. सारी अनुपयोगी वस्तुओं को यूँही तो फेंक नहीं सकते! - यदि आपके घर में बहुत सारा अनुपयोगी सामान है, तो उनके निबटारे के केवल तीन संभव हल हैं- सामान चालू हालत में हो तो इस्तेमाल करें। इस्तेमाल नहीं करना चाहते हों या आपके पास उससे अच्छा सामान हो तो किसी और को दे दें। यदि सामान खराब हो और ठीक नहीं हो सकता हो ,तो उसे रखे रहने में तभी कोई तुक है जब उसकी कोई विटेज वैल्यू हो।
8. और भी बहुत से ज़रूरी काम हैं। इनके लिए समय ही कहाँ है! - यदि आप चाहें तो बहुत से काम संगीत या समाचार सुनते-सुनते ही निबटा सकते हैं। सही तरीके से करें तो अपने घर और परिवेश को साफ और व्यस्थित रखने के लिए रोज कुछ मिनट ही देने पड़ते हैं। एक आलमारी, एक टेबल, घर का एक कोना- एक दिन में एक बार। घर छोडऩे के पहले और घर लौटने के बाद। जिस सामान को जहाँ रखना नियत किया हो इसे इस्तेमाल के बाद वहीं रखना। जिस चीज की ज़रुरत न हो उसे या तो बक्सा बंद करके रख देना या उसकी कंडीशन के मुताबिक या तो ठीक कराकर इस्तेमाल करना, या बेच देना, या दान में दे देना। ये सभी उपाय सीधे और सरल हैं। इन्हें अमल में लाने पर लोग घर की ही नहीं बल्कि उसमें रहनेवाले सभी सदस्यों की भी तारीफ़ करते हैं। यूँ तो नौकरों के भरोसे भी यह सब किया जा सकता है लेकिन इसे खुद ही सुरूचिपूर्वक करने में आनंद आता है।  (हिन्दी ज़ेन से)

भोर शरद् की

         भोर शरद् की
                             - डॉ. बच्चन पाठक सलिल
                      भोर शरद की
                      उतर रही है
                      धरती पर धीरे धीरे 
                      मानो कोई नव परिणीता
                      पति-गृह में सकुचाती आती।
                      किरणों की डोली में बैठी
                      जिसके कहार ये तारक सारे
                      और आसमान का बूढ़ा चाँद
                      करुण दृष्टि से ताक रहा है
                      पर घर जाती निज दुहिता को।
                      तुहिन पट आवृत्त छलकती आँखें
                      अंतर में है छिपा एक कौतूहल,
                      जिसमे भय है, विस्मय भी।
                      अब आलोक निखर आया है
                      पंछी गाते मंगल गान
                      इस समष्टि का हो कल्याण।
                      नाच रही है सारी धरणी
                      विहँस रही है यह पुष्करिणी
                      घर से निकले सब नर- नारी
                      शुचिस्मिता के अभिनन्दन में
                      आओ, आओ, आओ
                      शरद सुहागिन आओ

लेखक के बारे में: वरिष्ठ साहित्यकार, कवि, कथाकार, व्यंग्यकार डॉ बच्चन पाठक 'सलिलरांची विश्व विद्यालय के अवकाश प्राप्त पूर्व हिंदी प्राचार्य हैं। स्नेह के आँसू, धुला आँचल, सेमर के फूल, मेनका के आँसू (उपन्यास) तथा कई काव्य एवं कहानी संग्रह प्रकाशित।