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Apr 16, 2014

उदंती.com, अप्रैल 2014

उदंती.com, अप्रैल 2014

जाती पाँती से बड़ा धर्म है
और धर्म से बड़ा कर्म है.
किसी कर्म से बड़ा मर्म है
लेकिन सब से बड़ा यहाँ यह छोटा- सा इंसान है
और अगर यह प्यार करे तो धरती स्वर्ग समान है
                   - नीरज



आवरण चित्र: राजेश वर्मा, रायपुर छत्तीसगढ़। एमबीए की डिग्री के बाद अपना स्वयं का व्यवसाय। राजेश को बचपन से ही फोटोग्राफी का शौक रहा है परंतु उन्होंने कभी इसे प्रोफेशन के रुप में नहीं अपनाया। प्रकृति से उन्हें प्यार है जो उनकी फोटोग्रीफी में झलकती है। पेज नम्बर एक और दो पर प्रकाशित चित्र भी राजेश ने ही खींचे हैं। पर्यटन के शौकीन हैं अत: जब भी मौका मिलता है किसी खूबसूरत पर्यटन स्थल के लिए निकल पड़ते हैं और वहाँ अपनी फोटेग्राफी के शौक को पूरा करते हैं। 
मो. 9303344556, Email- rajraipur2003@gmail.com

झोलाछाप डॉक्टरों की गिरफ्त में...


झोलाछाप डॉक्टरों की गिरफ्त में...

-डा. रत्ना वर्मा

पिछले दिनों की बात है छत्तीसगढ़ में एक झोलाछाप डॉक्टर के इलाज ने साढ़े तीन साल की मासूम पायल की जान ले ली। यह वह समय था जब पूरे देश में लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी थी और पूरा प्रशासनिक अमला चुनाव सम्पन्न करने की तैयारी में व्यस्त था। ऐसे में मासूम पायल के मौत की खबर सिर्फ खबर बन कर रह गई। हुआ यह था कि दुर्ग जिले के बलौदी के पास के गाँव सिरवा जौरा के निवासी मुकेश देशमुख ने बेटी पायल को तेज बुखार आने पर गाँव में बरसो से प्राइवेट प्रेक्टिस करने वाले एक डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने बुखार की दवाई दे दी। पायल का बुखार एक दिन में उतर भी गया। लेकिन अगले ही दिन पायल के पूरे शरीर में फफोले पड़ गए और उसकी हालत बिगडऩे लगी। घबराए माता-पिता पायल को लेकर पहले दुर्ग के जिला अस्पताल ले गए, जहाँ डॉक्टरों ने उसे वेंटिलेटर पर रख रायपुर भीमराव अंबेडकर अस्पताल रेफर कर दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी लाख कोशिश करने के बाद भी मासूम पायल की जान नहीं बचायी जा सकी। झोलाछाप डॉक्टर की दवाई पीने से मौत हो जाने की यह कोई पहली घटना नहीं हैइस प्रकार की घटनाएँ आज रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गईं हैं। शर्तिया इलाज के नाम पर इस तरह के झोलाछाप डॉक्टर इन दिनों मीडिया का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। अखबारों और टीवी में बड़े-बड़े विज्ञापन दे कर वे गंभीर से गंभीर बीमारी को ठीक करने का दावा भी करते हैं। समाचार पत्रों में लगभग रोज ही शर्तिया इलाज वाले विज्ञापनों की भरमार रहती है, इतना ही नहीं ,वे ऐसे मरीजों का बयान भी दिलवाते हैं; जो यह कहते हैं कि अमुक दवाई और अमुक डॉक्टर के इलाज से उनकी यह लाइलाज बीमारी ठीक हो गई। बस फिर क्या है लोग आसानी से इनके चंगुल में आ भी जाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि मरीज ऐसे झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में फँस कैसे जाते हैंदरअसल बीमारी व्यक्ति को अंधविश्वासी बना देती है और सुनी सुनाई बातों के आधार पर वे ऐसे डॉक्टरों के पास भागे चले जाते हैं। उन्हें लगता है कि जब उनके इलाज से इतने लोग ठीक होने का दावा कर रहे हैं ,तो क्यों न मैं भी एक बार आजमा कर देखूँ क्या पता मैं भी ठीक हो जाऊँबस इसी भावनात्मक कमजोरी का फायदा ऐसे झोलाछाप डॉक्टर तुरंत उठाते हैं। लोगों की यही मानसिकता ऐसे झोलाछाप डॉक्टरों के लिए वरदान बन जाती है और उनका गोरखधंधा चल पड़ता है। लोगों का ऐसा सोचना है कि झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में सिर्फ गाँव के कम पढ़े-लिखे लोग ही आते हैंपर ऐसा सोचना गलत है। ऐसे हजारो झोलाछाप डॉक्टर फर्जी डिग्री और गलत तरीके से लाइसेंस बनवाकर न सिर्फ गाँव- गाँव में बल्कि छोटे- बड़े सभी शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं और अपनी फर्जी डिग्रियों के आधार पर जगह- जगह अपने क्लीनिक खोलकर आम जनता के स्वास्थ्य एवं उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली का एक मामला उस समय सामने आया, जब पीडि़त ने अदालत की शरण ली- झोलाछाप डॉक्टर के इलाज में एक महिला की मौत हो गई, इससे उसकी दस साल की बेटी फ्रैंड पैरेंट्स के साथ रहने को मजबूर है। महिला के पति मनोज कुमार ने इसकी शिकायत की और मामला हाईकोर्ट तक पहुँचा। हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार के डायरेक्टर हेल्थ सर्विसेज से जवाब माँगा। इसके जवाब में दिल्ली पुलिस ने कहा कि जनवरी में झोलाछाप मामले में 10फआईआर दर्ज किए गये हैं, वहीं डायरेक्टर हेल्थ सर्विसेज का कहना था कि उसके पास साल 2012- 13 में वेस्ट और नॉर्थ वेस्ट से कई शिकायतें आईं थीं, लेकिन उन्होंने इसकी जाँच इसलिए नहीं की; क्योंकि उनके पास जाँच पर जाने के लिये कोई सरकारी वाहन नहीं था ! इस जवाब से कोर्ट काफी नाराज है! और उन्होंने तुरंत कार्यवाई का आदेश दिया है। यह कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि यहाँ सरकार अपनी नाकामी की कहानी खुद ही बया कर रही है। ज्ञात हो कि झोलाछाप डॉक्टरों के खिलाफ दिल्ली सरकार के लिए पाँच एनजीओ संस्थाएँ काम करती है इसके बावजूद ऐसे डॉक्टरों की संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। यह बहुत ही दुखदायी और हमारे देश के लिए शर्म की बात है कि इतनी तरक्की-पसंद और आधुनिक तकनीक का दम भरने वाले हमारे देश के लोग आज भी अंधविश्वासी और कमजोर हैं - विज्ञापनों की चकाचौंध के झाँसे में आकर बिना यह पता लगाए कि जिस डॉक्टर के पास वे इलाज के लिए गए हैं और वह जो दवाई उन्हें प्रिस्क्राइब कर रहा है उस डॉक्टर के पास डॉक्टर की डिग्री है भी या नहीं।  डॉक्टर के पेशे के साथ यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जिन्हें दवाई और मर्ज के बारे में जानकारी ही नहीं है ,वह भला किसी मरीज का इलाज कर ही कैसे सकता है। 
प्रश्न यह उठता है कि ऐसे झोलाछाप डॉक्टरों को क्या किसी का संरक्षण प्राप्त है? अप्रत्यक्ष रूप से एक व्यापार के रूप में इस पेशे को बढ़ावा देने वाले कहीं हमारे अपने ही बीच के लोग तो नहीं हैं ,जो अपने थोड़े से फायदे के लिए इन्हें प्रश्रय देते चले आ रहे हैं।  प्रत्यक्ष रुप में देखा जाए तो झोलाछाप डॉक्टरों की लगातार बढ़ती संख्या के लिए सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी इसका एक बहुत बड़ा कारण है। यदि हमारे देश में सरकार अपनी घोषणाओं और वादों के अनुसार अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, दवायाँ और अन्य स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाए तो ऐसे झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाने की नौबत ही नहीं आए। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात- यदि सरकार इन तथाकथित डॉक्टरों पर तुरंत कार्यवाई करे और प्राइवेट प्रेक्टिस के लिए लाइसेंस जारी करते समय उचित जाँच पड़ताल के बाद ही उन्हें लाइसेंस जारी करे ,तो उनका बाजार इस तरह से पनपने ही नहीं पाता। अब तक होता यही आया है कि जब कोई शिकायत सामने आती है, तो कार्रवाई का आदेश जारी कर दिया जाता है, मामले भी दर्ज हो जाते हैं; पर बाद में यह जानकारी नहीं मिल पाती कि जिन झोलाछाप डॉक्टरों के विरुद्ध मामले दर्ज किए गए थे ,उनका बाद में क्या हुआ?

इस मामले में छत्तीसगढ़ से एक अच्छी खबर यह है कि स्वास्थ्य विभाग के निर्देश पर रायपुर जिला मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) के आदेश पर जिन 60 झोलाछाप डॉक्टरों ने नर्सिग होम एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन के लिए ऑनलाइन-ऑफलाइन आवेदन किया था, उनका आवेदन खारिज किया जा चुका है इनमें से कई तो ग्रामीण इलाकों में नर्सिग होम भी संचालित कर रहे हैं। ज्ञात हो कि छत्तीसगढ़ शासन ने निजी नर्सिंग होम की मनमानियों पर रोक लगाने और झोलाछाप डाक्टरों पर पाबंदी हेतु गत वर्ष प्रदेश में नर्सिंग होम एक्ट लागू कर दिया है। इस एक्ट में एफआईआर का भी प्रावधान है।  यही नहीं लगभग एक हजार ऐसे झोलाछाप डॉक्टरों के विरुद्ध कार्रवाई करने की रूपरेखा तैयार की जा चुकी है। विश्वास किया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य विभाग जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले ऐसे नर्सिंग होम और झोलाछाप डॉक्टरों पर सख्त कार्यवाही करते हुए उन्हें ऐसा दंड देगी कि आगे फिर कभी किसी मासूम पायल को गलत इलाज के नाम पर अपनी जान से हाथ न धोना पड़े। 

संकट में जैव विविधता

संकट में जैव विविधता
   
 - संदीप पौराणिक
    
पशु, पक्षी, वनस्पति प्राकृतिक परिवेश और मनुष्य मिलकर हमारे विश्व का निर्माण करते हैं, उसे रहने लायक बनाते हैं। विश्व अथवा हमारी धरती के विकास में इनमें से प्रत्येक की निश्चित और महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार शरीर के सभी अंग मिलकर मनुष्य की रचना करते हैं उसी प्रकार विभिन्न जीव-जंतु, नदियाँ, पर्वत, वन, झीलें और मनुष्य मिलकर हमारी धरती का निर्माण करते हैं उसे विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। भारत के समृद्ध वन्य प्राणी हमारी प्राकृतिक धरोहर के प्रतीक हैं। भारत के गौरव के रूप में इनकी रक्षा करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। दुनिया के कुछ अन्य क्षेत्रों की प्रजातियाँ भी भारत में मौजूद हैं। भारत जैविक विविधता से सम्पन्न होने के साथ-साथ आकर्षक वन्य प्राणियों का भी केन्द्र भी हैं। इन वन्य प्राणियों में प्रमुख रूप से बाघ, शेर, हाथी, गेंडे और जंगली भैंसे जैसी प्रमुख प्रजातियाँ भी शामिल हैं। कुदरत की इस अनमोल धरोहर के संरक्षक होने के नाते हमारा कत्र्तव्य है कि हम इनकी रक्षा का संकल्प लें। भारत में हमारे साथ कम से कम स्तनपायी जीवों की 397 प्रजातियाँ, पक्षियों की 1232  प्रजातियाँ, उभयचर जीवों की 240 प्रजातियाँ, सरीसृपों की 460 प्रजातियाँ, मछलियों की 2546 प्रजातियाँ, और कीटपतंगों की 59353 प्रजातियाँ निवास करती हैं। भारत में 18664 पौधे विभिन्न प्रजातियों के भी हैं। भारत का कुल क्षेत्रफल विश्व के कुलभाग का मात्र 2.4 प्रतिशत ही है ;लेकिन सम्पूर्ण विश्व की जैव विविधता में भारत का  योगदान 8 प्रतिशत है। जैव विविधिता की दृष्टि से भारत के पश्चिमी घाट और पूर्वी क्षेत्र बहुत समृद्ध हैं। भारत के वनों, घास के मैदानों, आर्द्र भूमि, तटवर्ती समुद्री और मरु प्रजातियों से इसकी जैव विविधता का अंदाजा लगाया जा सकता है। किसी पारिस्थितिक प्रणाली में पायी जाने वाली जैव विविधता से इसके स्वास्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। जितनी अधिक जैव विविधता होगी, प्रणाली उतनी ही अधिक स्वस्थ होगी; लेकिन प्राकृतिक पर्यावास छिनने और चोरी छिपे किए जाने वाले शिकार के कारण इनमें से कई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। अपने जानवरों और पक्षियों के साथ अपने वनों का संरक्षण करके ही हम आने वाली पीढिय़ों के लिए नई कृषि फसलों और जड़ी बूटियों की उपलब्धता सुनिश्चित कर पाएँगे और उन्हे प्रकृति को उसके मूल स्वरूप मे देखने का आनंद दे पाएँगे। यह तभी संभव है जब हम अपनी जैव विविधता को बचाए रखने में सफल होते हैं। पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता को बनाए रखने के लिए वनों एवं वन्य प्राणियों का संरक्षण एवं संवर्धन  अत्यावश्यक है। वन प्रागैतिहासिक काल से ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं। वनों का मतलब केवल पेड़ नही है ;बल्कि यह एक संपूर्ण जटिल जीवंत समुदाय है। वन की छतरी के नीचे कई सारे पेड़ और जीव जंतु रहते हैं। वनभूमि बैक्टीरिया कवक जैसे कई प्रकार के अकशेरूकी जीवों के घर हैं। ये जीव भूमि और वन में पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम पेड़ लगा सकते हैं ;लेकिन वन नही लगा सकते। किंतु भारत जैसे विकासशील देशों में हम यह समझते हैं कि वन्य प्राणी संरक्षण पर धन खर्च करना फिजूलखर्ची है। बाघ, चीतल, सोनचिड़ियाया दुर्लभ प्रजाति की वनस्पति सदा के लिए हमारी धरती से समाप्त हो जाए तो क्या फर्क पड़ेगा इस पर गंभीरता पूर्वक चिंतन किया जाए तो इस अपूरणीय


क्षति के दूरगामी परिणाम इतने भयावह होंगे जिनकी हम कल्पना नही कर सकते। एकदम से किसी को पता नही चलता कि पेड़ों की और जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ खत्म हो रही हैं, यह एक धीमी प्रक्रिया है, लेकिन जब तक हमें यह समझ में आता है तो यह सामने आता है कि विलुप्त होने की इस प्रक्रिया के साथ पूरी प्रणाली खत्म हो सकती है। यह एक बड़ी इमारत के जैसा है कि अगर कोई बहुत सारे पत्थर निकाल ले ,तो धीरे-धीरे पूरी इमारत गिर जाएगी। यही जैव विविधता के खत्म होने पर होगा कि धरती की पूरी प्रणाली ढह जाएगी। इसलिए हमे इसे बचाना जरूरी है, जैसे
एक मधुमक्खी शायद उतनी जरूरी नही है ;लेकिन जो काम वह करती है, पराग कण फैलाने का, वह डेढ़ अरब यूरो के मूल्य के बराबर है। अगर मधुमक्खियाँ खत्म हो गईं या उन्होने शहद नही बनाया या पराग कणों को इधर-उधर नही ले गईं तो यह खेती के व्यवसाय के लिए बहुत बड़ा नुकसान होगा; क्योंकि आज तक हम कृत्रिम परागण करने में सफल नही हुए हैं। भारत सहित विश्व में खत्म हो रहे गिद्धों का असर भी पर्यावरण पर पड़ा है। विश्व में लगभग 50 हजार व्यक्ति रेबीज के कारण प्रति वर्ष मारे जाते हैं, उनमें लगभग 30 हजार व्यक्ति भारतीय हैं। गिद्ध सिर्फ पर्यावरण की सफाई का ही काम नही करते; बल्कि वे कुत्तों और चूहों की आबादी पर भी नियंत्रण रखते हैं। भारत सहित अनेक देशों में चमगादड़ को किसी काम का नही माना जाता; जबकि चमगादड़ मलेरिया को रोकने में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ है; क्योंकि यह बड़ी संख्या में मच्छरों को खाता है। पिछले 8000 वर्षों में पृथ्वी के मूल वन क्षेत्र का 45प्रतिशत हिस्सा गायब हो गया है। इस 45 प्रतिशत हिस्से में ज्यादातर हिस्सा पिछली शताब्दी में साफ  किया गया। खाद्य एवं कृषि संगठन एफ. ए. ओ. ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि हर वर्ष लगभग 1.3 हेक्टेयर वन क्षेत्र कटाई की वजह से खत्म हो जाते हैं। वर्ष 2000-2005 के बीच वन क्षेत्र की वार्षिक कुल क्षति 73 लाख हेक्टेयर रही है जो विश्व के वन क्षेत्र के 0.18 प्रतिशत के बराबर है। भारत में अंग्रेजों द्वारा सन् 1894 में तैयार की गई वन नीति में थोड़ा- सा संशोधन कर 1952 में स्वतंत्र भारत की प्रथम राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की गई। उक्त वन नीति में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि इस कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था में संतुलन हेतु इसके एक तिहाई भू भाग पर वन होने चाहिए जिसमें 60 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्रों में और 40 प्रतिशत समतल क्षेत्रों में है। माना जाता है कि भारत में लगभग 20 प्रतिशत भूमि पर ही वन विस्तार है। परंतु यह विस्तार भी विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत ही कम है। जापान में वनों का क्षेत्रफल उसके कुल क्षेत्रफल का 60 प्रतिशत ,ब्राजील में 55 प्रतिशत स्वीडन में 54 श्रीलंका में 52 प्रतिशत फिनलैंड में 43प्रतिशत रूस में 42 प्रतिशत, म्यांमार में 35 प्रतिशत अमेरिका में 30 कनाडा में 27 प्रतिशत की तुलना में मात्र 20 प्रतिशत क्षेत्र मे वन होना निश्चित ही चिंतनीय है यह एक चेतावनी भी है। छत्तीसगढ़ सहित भारत के अनेक राज्यों में वनक्षेत्र घटा है। तथा छत्तीसगढ़ राज्य में वनभैंसा, बाघ, तेंदुआ तथा हाथी एवं राज्य पक्षी पहाड़ी मैना अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन्हे सिर्फ  सरकारी प्रयासों से नही बचाया जा सकता। इनका संरक्षण एवं संवर्धन  गैर सरकारी संगठनों, ग्रामीणों एवं वनवासियों के सहयोग से ही किया जा सकता है।


सम्पर्क: लेखक छत्तीसगढ़ वन्य प्राणी बोर्ड के सदस्य हैं।    Email- ranushanu2002@gmail.com

भाषाओं पर बढ़ता खतरा

भूमण्डलीकरण के दौर में

भाषाओं पर बढ़ता खतरा

 - आकांक्षा यादव 

 भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, उन्नत प्रौद्योगिकी एवं सूचना-तकनीक के बढ़ते इस युग में सबसे बड़ा खतरा भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पैदा हुआ है। भारत सदैव से विभिन्नताओं का देश रहा है। यहाँ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ हर कोस पर पानी और हर चार कोस पर वाणी यानी भाषा बदल जाती है। पर लगता है यह मुहावरा कुछ दिनों में पुराना पड़ जायेगा। वस्तुत: भारत में बोली जाने वाली सैकड़ों भाषाओं में से 196 खत्म होने के कगार पर हैं; लेकिन इससे भी ज्यादा चिंताजनक पहलू यह है कि बोलियों का पूरा संसार ही सिमटता जा रहा है। दुनिया में बोली जाने वाली 6900 भाषाओं में से 2500 का अस्तित्व खतरे में है। भाषाएँ आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। अगर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन से इसकी तुलना की जाए तो पिछले एक दशक में बदलाव काफी तेजी से हुआ है। उस समय विलुप्त प्राय: भाषाओं की संख्या मात्र 900 थी, लेकिन यह गंभीर चिन्ता का विषय है कि तमाम देशों में इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएँ थी, जबकि 2001 में यह संख्या घटकर मात्र 224 रह गई। स्पष्ट है कि इन पाँच दशकों में भारत की 1418 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी है। इन्टरनेट पर हर कुछ खँगालने वाली युवा पीढ़ी भी उन्हीं भाषाओं को तरजीह देती है जिनका उनके कैरियर से कोई वास्ता होता है। नतीजन प्रगति और विकास के तमाम दावों के बीच कई भाषाएँ व बोलियाँ अपनी उपेक्षा के चलते दम तोड़ती नजर आ रही हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व और संरक्षण के अभाव में सैकड़ों भाषाएँ समाप्ति के कगार पर हैं। दुनियाभर में भाषाओं की इसी स्थिति के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1990 के दशक में 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी। बांग्लादेश में 1952 में भाषा को लेकर एक आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि इसी से बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन की नींव पड़ी थी और भारत के सहयोग से नौ महीने तक चले मुक्ति संग्राम की परिणति पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बनने के रूप में हुई थी। इस आंदोलन की शुरुआत तत्कालीन पाकिस्तान सरकार द्वारा देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्र भाषा के रूप में उर्दू को थोपे जाने के विरोध से हुई थी।

संयुक्त राष्ट्र की पहली स्टेट ऑफ द वल्र्ड्स इन्डीजीनस पीपुल्स रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि दुनिया भर में छह से सात हजार तक भाषाएँ बोली जाती हैं, इनमें से बहुत सी भाषाओं पर लुप्त होने का खतरा मँडरा रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से अधिकतर भाषाएँ बहुत कम लोग बोलते हैं, जबकि बहुत थोड़ी सी भाषाएँ बहुत सारे लोगों द्वारा बोली जाती हैं। सभी मौजूदा भाषाओं में से लगभग 90 फीसदी अगले 100 सालों में लुप्त हो सकती हैं, क्योंकि दुनिया की लगभग 97 फीसदी आबादी इनमें से सिर्फ चार फीसदी भाषाएँ बोलती हैं। यूनेस्को द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा बढ़ता ही जा रहा है और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करनी होंगी। यूनेस्को द्वारा कराये गये इस अध्ययन पर गौर करें तो इस रिपोर्ट में सबसे ज्यादा खतरा भारत की भाषाओं पर बताया गया है। जहाँ भारत में यह 196 भाषाओं पर है, वहीं अमेरिका व इण्डोनेशिया क्रमश: 192147 भाषाओं पर खतरे के साथ दूसरे व तीसरे नंबर पर हैं। भाषाओं के मामले में सर्वाधिक समृद्ध पापुआ न्यू गिनी में 800 से ज्यादा भाषाएँ बोली जाती हैं, जबकि वहाँ केवल 88 भाषाओं पर ही खतरा है। पीपुल्स लिंग्युस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (पीएलएसआई) के अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षो के दौरान 780 विभिन्न बोलियों वाले देश की 250 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं। इनमें से 22 अधिसूचित भाषाएँ हैं। जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार 10 हजार से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली 122 भाषाएँ हैं। बाकी 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाती है। आयरिश भाषाई विद्वान जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के बाद पहली बार यह भाषायी सर्वे किया गया है। ग्रियर्सन ने 1898-1928 के बीच भाषायी सर्वे किया था। पीएलएसआई सार्वजनिक विमर्श और अप्रेजल फोरम वाला एक गैर सरकारी संगठन है, जिसमें 85 संस्थाओं और विश्वविद्यालयों के तीन हजार विशेषज्ञ शामिल हैं। आजाद भारत में पहली बार किए गए इस पहले सर्वें में चार वर्ष लगे। सितम्बर 2013 में इसकी 72 पुस्तकों में 50 खंड की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार भाषायी विविधता की दृष्टि से भारत में अरुणाचल प्रदेश सबसे समृद्ध राज्य है, वहाँ 90 से अधिक भाषाएँ बोली जाती है। इसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात का स्थान है, जहाँ 50 से अधिक भाषाएँ बोली जाती है। 47 भाषाओं के साथ ओडिशा चौथे स्थान पर है। लिपियों के आधार पर देखें तो देश में 86 विभिन्न लिपियाँ चलन में हैं। सबसे ज्यादा नौ लिपियों के साथ पश्चिम बंगाल पहले स्थान पर है और कई अन्य लिपियों को भी विकसित करने का यहाँ प्रयास किया जा रहा है। इस राज्य में 38 विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। देश की पाँच प्रतिशत भाषाएँ और 10 प्रतिशत लिपियाँ बंगाल में पाई जाती हैं। इस सर्वें के अनुसार उत्तर-पूर्व में किसी एक व्यक्ति द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या दुनिया में सर्वाधिक है। इसके बावजूद पूर्वोत्तर के पाँच राज्यों में बोली जाने वाली करीब 130 भाषाओं का अस्तित्व खतरे में हैं। असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड की 17 और त्रिपुरा की 10 भाषाएँ खतरे में हैं। हाल ही में भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तकरीबन 65000 साल से बोली जाने वाली एक आदिवासी भाषा 'बोहमेशा के लिए विलुप्त हो गई। वस्तु: कुछ समय पहले अंडमान में रहने वाले बो कबीले की आखिरी सदस्य 85 वर्षीय बोआ सीनियर के निधन के साथ ही इस आदिवासी समुदाय द्वारा बोली जाने वाली 'बोभाषा भी लुप्त हो गई। अंडमान-निकोबार में चिडिय़ों पर शोध कर रही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की प्रोफेसर डॉ.अनविता अब्बी को तो यह देखकर हैरत हुई की बोआ सीनियर चिड़िया से बात कर रही थीं और वे दोनों एक-दूसरे की भाषा समझ रहे थे। गौरतलब है कि ग्रेट अंडमानीज में कुल 10 मूल आदिवासी समुदायों में से एक बो समुदाय की इस अंतिम सदस्य ने 2004 की विनाशकारी सुनामी में अपने घर-बार को खो दिया था और सरकार द्वारा बनाए गए कंक्रीट के शेल्टर में स्ट्रैट द्वीप पर गुजर-बसर कर रही थी। 'बो'भाषा के बारे में भाषायी विशेषज्ञों का मानना है कि यह भाषा अंडमान में प्री-नियोलोथिक समय से इस समुदाय द्वारा उपयोग में लाई जा रही थी। दरअसल, ये भाषाएँ शहरीकरण के चलते दूर-दराज के इलाकों में अंग्रेजी और हिन्दी के बढ़ते प्रभाव के कारण हाशिए पर जा रही हैं। भाषाओं के कमजोर पड़कर दम तोडऩे की स्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया भर में 199 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। गौरतलब है कि 1974 में आइसले ऑफ मैन में नेड मैडरेल की मौत के साथ ही 'मैक्सभाषा खत्म हो गई, जबकि वर्ष 2008 में अलास्का में मैरी स्मिथ जीन्स के निधन से 'इयाक’भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया। दुनिया की एक तिहाई भाषाएँ अफ्रीकी देशों में बोली जाती हैं, आकलन है कि अगली सदी के दौरान इनमें से दस फीसदी खत्म हो जाएँगी। यूक्रेन में कराइम भाषा बोलने वाले केवल छह लोग हैं, जबकि अमेरिका के ओकलाहामा में विशिता भाषा केवल दस लोगों द्वारा बोली जाती है। इसी तरह इंडोनेशिया में लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 150 से कम हैं। वाकई बोलियाँ-भाषा क्यों विलुप्त हो रही हैं। यह आपने आप में एक जटिल सवाल है। बकौल हिन्दी कवयित्री और लेखिका अनामिका, हम इस बात की अवलेहना नहीं कर सकते कि भाषा और बोलियों को बचाने की शुरुआत घर से ही की जा सकती है। हर परिवार में अलग-अलग पीढिय़ाँ होती है। यह जरूरी है कि अलग-अलग घरेलू बोलियों में घर के अन्दर संवाद हो। बच्चों में लोक कथाओं के मिथक, लोकोक्तियाँ, माँ-दादी व नानी की कहानियों के जरिए रूप लेती हैं। भाषाई संस्कृति का यह पूर्वराग ही अच्छी भाषा के विकास का आधार है। इस पच्चीकारी से भाषा सहज, पैनी और संवादगम्य होती है। भाषा-बोलियों को बचाने के लिए यह भी जरुरी है कि अनुवाद के जरिए दो भाषिक संस्कृतियों के बीच पुल बनाया जाय। यदि हम आज की स्थितियों में भारतीय परिप्रेक्ष्य को ही लें तो एक ओर अंग्रेजी का हौव्वा है तो दूसरी ओर हिन्दी आम आदमी से कट रही है, वहीं उर्दू को मजहब से जोड़ दिया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य ने दो भाषायी परम्पराओं को विकलांग बना दिया। यही नहीं आज की जबान में बोलियों के लफ्जों और कहावतों के समंदर का उपयोग भी नहीं हैं, इससे भी भाषा कमजोर हुई है।भारत में भी तेजी से खत्म हो रही भाषाओं और बोलियों को बचाने व संरक्षित करने के प्रयास तेज हो गये हैं। केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल में बोलियों को लेकर एक अध्ययन कराया गया, जिसमें पाया गया कि उत्तर भारत की नौ बोलियाँ लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। इनमें दर्मिया, जाद, राजी, चिनाली, गहरी, जंघूघ, स्पीति, कांशी या मलानी और रोंगपो शामिल हैं। इन बोलियों को पाँच हजार से कम लोग ही बोलते हैं। इनमें दर्मिया, जाद और राजी बोलियाँ तिब्बती-बर्मी परिवार की हैं, जो उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बोली जाती हैं। राजी को 668, दर्मिया को लगभग ढाई हजार और जद को इससे कुछ अधिक ही लोग बोलते हैं। ये बोलियाँ उत्तरांखड में पिथौरागढ़, धारचूला, जौलजीवी और अस्कोट में बोली जाती हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ही बोली जाने वाली चिनाली और गहरी बोलियों को बोलने वालों की संख्या भी मात्र दो-तीन हजार ही है। वाकई समय रहते यदि इनको संरक्षित नहीं किया गया तो इन्हें खत्म होने में देरी नहीं लगेगी। इन बोलियों के खत्म होने से वहाँ की संस्कृति भी खत्म हो रही है, इसलिए इनका संरक्षण बेहद जरूरी है। ऐसे में इन बोलियों को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिजर्वेशन ऑफ इनडैंजर्ड लैंग्वेज योजना शुरू की है। इसके तहत तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं और बोलियों से जुड़े दस्तावेजों को डिजिटल स्वरूप में संरक्षित किया जायेगा। इसके तहत तमाम प्रतिष्ठित शैक्षणिक व शोध संस्थानों को इन बोलियों के संरक्षण की जिम्मेदारी दी गयी हैं। इन नौ विलुप्त प्राय: बोलियों में से तीन बोलियों दर्मिया, जाद और राजी (जंगली) के संरक्षण का दायित्व लखनऊ विश्वविद्यालय और दो बोलियों चिनाली व गहरी के संरक्षण का काम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को सौंपा गया है। इसके अलावा दो बोलियों को बचाने का जिम्मा सीआईआईएल मैसूर और एक-एक का कोलकाता और जेएनयू, नई दिल्ली को दिया गया है। इनमें लखनऊ विश्वविद्यालय में भाषा विभाग की विभागाध्यक्ष प्रो.कविता रस्तोगी और अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रो. इम्तियाज हसनैन के नेतृत्व में काम होगा। डिजिटल स्वरूप में संरक्षित करने हेतु सर्वप्रथम लुप्त होती भाषाओं व बोलियों की टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो रिकार्डिंग की जाएगी।
टेक्स्ट रिकार्डिंग के बाद बोलियों को इंटरनेशनल फोनेटिक्स अल्फाबेट्स (आईएफए) में लिखा जाएगा ताकि विश्व के भाषा वैज्ञानिक इन्हें पढ़ सकें और बोली को समझ सकें। आडियो रिकार्डिंग लाइब्रेरी में रखी जाएगी ताकि कोई भी इसको सुनकर समझ सके। वीडियो रिकार्डिंग में इन लोगों की दिनचर्या, बोलियों की संस्कृति और विशेष कार्यक्रमों को भी रिकार्ड किया जाएगा, ताकि बोलियों के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी संरक्षित किया जा सके। इसी क्रम में केरल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के एक समूह ने भी तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं से जुड़े दस्तावेजों को डिजिटल स्वरूप में संरक्षित करने के लिए परियोजना शुरू की है। वहाँ के भाषा विज्ञान विभाग का भाषा विज्ञान अनुसंधान मंच बयारी, मलिजलाशांबा और मइगुरदुने सहित 25 भाषाओं एवं बोलियों को संग्रहित कर चुका है। इन भाषाओं को बोलने वाले अब केवल कुछ ही लोग बचे हैं। केरल की लुप्त होती बोलियों के अलावा इस समूह ने हिमाचल प्रदेश की मंतलिया और पहाड़ी भाषाओं, झारखंड की कुरमली और लद्दाख की पाली भाषा को भी रिकार्ड किया है। यहाँ  के भाषा विज्ञान विभाग के तकनीकी अधिकारी एवं परियोजना प्रमुख शिजित एस के निर्देशन में शिक्षकों के दल ने लुप्तप्राय भाषाओं के बचे हुए वक्ताओं की तलाश में देश भर की यात्रा की और उसे रिकार्ड किया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी में एक प्रश्नमाला तैयार किया और उन लोगों से अपनी मूल भाषा में इसका जवाब देने को कहा। इन 25 में से 15 भाषाओं के वक्ताओं को स्टूडियो में लाकर भी उनकी बातें रिकार्ड की गई, ताकि इनका डिजिटलीकरण आसानी से हो सके। वस्तुत: आज सवाल सिर्फ किसी भाषा के खत्म होने का ही नहीं है, बल्कि इसी के साथ उस समुदाय और उससे जुड़ी कई तरह की सांस्कृतिक विरासत के नष्ट होने का अहसास भी होता है। इन भाषाओं का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इनमें से कुछ एक तो कभी समृद्ध और शिष्ट साहित्य का विपुल भण्डार मानी जाती थी कुछेक देशों ने इस खतरे को भाँपते हुए कदम भी उठाये हैं, नतीजन-ब्रिटेन की भाषा कॉर्निश और न्यू कैलेडोनिया की भाषा को पहले खत्म हुआ मान लिया गया था लेकिन अब इन्हें फिर से बोला जाने लगा है। भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि भाषाएँ किसी भी संस्कृति का आईना होती हैं और एक भाषा की समाप्ति का अर्थ है कि एक पूरी सभ्यता और संस्कृति का नष्ट होना। इस तरफ सभी देशों को ध्यान देने की जरूरत है, अन्यथा दुनिया अपनी सभ्यता, संस्कृति व समृद्ध विरासत को यूँ ही खोती रहेंगी।


सम्पर्क: निदेशक, डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र, टाइप 5, निदेशक बंगला, जीपीओ कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001, मो.08004928599, Email- kkyadav.y@rediffmail.com 

वो लम्हें

 वो लम्हें
-श्याम सुंदर दीप्ति 
 









घर की बालकोनी में
हाथ में चाय का प्याला हो
पत्तों की सरसराहट हो
तैरते हुए बादलों में
तेरा झांकना देख ही लूँगा मै
पर ऐसी घड़ी फिर आये तो।
समंदर का किनारा हो
हाथ में बर्फ का गोला हो
लहरें छू रही  हों पैरों को
डूबते सूरज की लाली से
तेरी तस्वीर बना ही लूँगा मै
पर वह पल लौट के आये तो।
बैठ पहाड़ से गिरते झरने के पास
दूर बर्फ से ढके पर्वतों की
हवा में जरा सी ठिठुरन हो
' चमचमाती धूप में
तेरा साया पा ही लूँगा मै
काश ! वो लम्हें फिर मिल पायें तो..  

Email- drdeeptiss@gmail.com

चिंतन

  ...भूने हुए चने कभी नहीं उगते

कौशल किशोर मिश्र 

चुनाव के राजनीतिक मौसम में भारत के राजनीतिज्ञों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और समाचार माध्यमों के बीच चर्चा का एक प्रिय (किंतु भ्रामक) विषय हुआ करता है- पिछड़ापन  एक सुनियोजित भ्रम को निरंतर तराशे जाने का षड्यंत्र स्थापित किया जा चुका है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् तथाकथित अल्पसंख्यक वर्गों को स्वप्न बेचे जाने का क्रम प्रारम्भ हुआ जो अभी तक चल रहा है। लोगों ने बड़ी ललक से अपना बहुमूल्य मत देकर सपनों को खऱीदा, वर्षों तक उसे अपनी आँखों में रखकर सींचा... किन्तु सपनों से अंकुर नहीं निकले। वे ठगे जाते रहे, सपनों के बीज बाँझ थे वे कभी नहीं उगे। भुने हुए चने कभी नहीं उगते भारत को अभी यह सीखना होगा। सपने बेचे जाने का यह व्यापार पिछले छह दशक से भी अधिक समय से चल रहा है। हम यह नहीं कहेंगे कि देश के साथ कोई वञ्चना की गयी, वञ्चना एक-दो बार होती है बारम्बार नहीं होती। खरीददार यदि सजग नहीं है तो उसके ठगे जाने की सम्भावनाएँ असीमित हो जाती हैं। तथापि सत्य यह भी है कि हमारी सजगता को कुन्द करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से हमारे चिंतन और विश्लेषण की धरती पर अम्ल छिड़का जाता रहा है। लोकतंत्र के चालाक व्यापारियों ने सपने बेचने के साथ-साथ हमारे मन-मस्तिष्क में पिछड़ापन और अल्पसंख्यक जैसे अम्लीय शब्द भी ठूँस दिये। इन शब्दों ने हमारे मस्तिष्क की उर्वरता को नष्ट करना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप इन भ्रामक शब्दों ने एक छद्मरूप ही धारण कर लिया है।हम जानना चाहते हैं कि स्वाधीन भारत के सातवें दशक में कौन है पिछड़ा? कौन है अल्पसंख्यकजब मैं कहता हूँ कि सूरजमुखी के फूल का रंग पीला है तो सबको यह विश्वास हो जाता है कि सूरजमुखी के फूल में पीला रंग है, उसकी पँखुडिय़ों को प्रकृति के द्वारा पीले रंग से रंगा गया है । किसी को मेरे कथन की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं होता; किन्तु यही बात यदि किसी भौतिकशास्त्री से कही जाए तो सूरजमुखी के फूल का नाम सुनते ही जो चित्र उसके मन में निर्मित होगा उसमें छह रंग तो होंगे पर पीला रंग नहीं होगा। भौतिकशास्त्री एक तत्त्ववेत्ता है, उसे वास्तविकता पता है कि किसी फूल का रंग वह नहीं होता जो हमें दिखाई देता है;  बल्कि वह होता है जो वह पुष्प अवशोषित करता है। किसी पुष्प का जो रंग हमें दिखाई देता है; वह तो उस पुष्प के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है, उसे वापस कर दिया गया है। हमारी आँखें जो रंग देख पाती हैं वह पुष्प के द्वारा वापस किया हुआ रंग है। जो पुष्प के द्वारा स्वीकार किया गया है वह तो समाहित हो गया पुष्प में, जो रंग पुष्प के अन्दर है वह किसी को दिखाई नहीं देता, उसे तो बस तत्त्वज्ञानी ही देख पाते हैं। कहने का आशय यह है कि किसी बात को कहने और उसे समझाने के तरीके में सोद्देश्य भिन्नता हो सकती है। आज की छद्मराजनीति का यही मूल है । जब हम 'अल्पसंख्यकऔर 'पिछड़ाजैसे शब्दों को उछालते हैं तो उसका उद्देश्य लोककल्याणकारी नहीं होता। यह सर्वविदित है कि भारत की धरती पर विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों का शासन रहा है। भारत के लोग दीर्घ काल तक पराधीन बने रहे।
पराधीनता के इस दीर्घ काल में भारतीयों का विकास सम्भव नहीं था ...विकास नहीं हुआ। पूरे भारत के लोग विकास की प्रतिस्पर्धा में शेष विश्व से पिछड़ते चले गये; क्योंकि अवसरों की अनुपलब्धता सभी पराधीन भारतीयों के लिए एक समान थी। चन्द अवसरवादियों और देशद्रोहियों के अतिरिक्त आम भारतीय विकास नहीं कर सका। इसलिए यदि 'पिछड़ेलोगों को चिह्नित करना है तो सत्ताधीशों, व्यापारियों और उद्योगपतियों के अतिरिक्त पूरे भारत को चिह्नित करना होगा। मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि सामाजिक समानता और विकास की चिंता (?) के समय हमारे विद्वान राजनीतिज्ञों द्वारा अवसरों की अनुपलब्धता के आधार पर 'वंचितशब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया गया? और यदि 'पिछड़ाशब्द से इतना ही मोह था तो उसे वर्ग और जाति का चोला क्यों पहना दिया गया? क्या भारत में कोई भी धर्मावलम्बी है ऐसा जो कह सके कि उसके धर्म को मानने वालों में एक भी व्यक्ति 'वञ्चितनहीं है या विकास में पीछे नहीं है ? क्या भारत में कोई भी जाति ऐसी है जो कह सके कि उसकी जाति में एक भी व्यक्ति 'वञ्चितनहीं है या विकास में पीछे नहीं है ? इन सारी चर्चाओं के समय सवर्णों की स्थिति के बारे चर्चा नहीं की जाती। बिना किसी संधान और प्रमाण के यह माना जाता रहा है कि सवर्ण विकसित हो चुके हैं और अब उन्हें आगे विकसित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह पक्षपात पूर्ण कुविचार वर्गभेद और सामाजिक विषमता को कैसे समाप्त कर सकेगा यह मैं आज तक समझ नहीं सका हूँ। वर्गविशेष को योग्यता और पात्रता में शिथिलता के साथ प्रश्रय देना वर्गभेद का एक अंतहीन चक्र है जिसमें कभी एक ऊपर होगा तो कभी दूसरा। स्वाधीनता के बाद विकास के विषय पर समग्र समाज की बात कभी क्यों नहीं की गयी, यह विचारणीय विषय है।  बड़ी धूर्तता से खण्डित समाज की बात की जाती रही और समाज में खाइयाँ खोदी जाती रहीं। मुझे किसी ने बताया है कि भारत में एक मात्र बिल्हौर संसदीय क्षेत्र ही ब्राह्मणबहुल है, किंतु वहाँ के ब्राह्मण भी विकास में अन्य लोगों की तरह ही पीछे हैं । उनके लिए कभी नहीं सोचा गया कि उन्हें भी पिछड़ा घोषित किया जाए। क्यों, क्या कोई सवर्ण विकास में पीछे नहीं हो सकताराजधर्म तो बिना किसी भेदभाव के हर नागरिक को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए राजा को प्रतिबद्ध करता है।यद्यपि आर्यावर्त में कभी वर्गआधारित राजसत्ताएँ नहीं रहीं, यह तो कुशल नेतृत्व की योग्यता के आधार पर तय होता था कि सत्तानायक कौन होगा। किन्तु जब सत्तानायक की बात आती है तो प्राय: ब्राह्मण इस योग्यता में खरे नहीं उतर सके। सच तो यह है कि बहुत कम ब्राह्मण राजा बने हैं । भारत की ब्राह्मणेतर जातियों के लोग ही प्राय: राजा हुए हैं या राजसत्ता में मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं । अब एक स्वाभाविक सा प्रश्न यह उठता है कि जिनके हाथो में सत्ता रही उनके लोग भी विकास में पीछे क्यों रह गये ? एक दीर्घ अवधि तक भारत पर मुसलमानों का शासन रहा, फिर भी आज मुसलमान पिछड़े हुए क्यों हैं? वे कौन लोग हैं जो मुसलमानों के सत्ता में होते हुए भी मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं? हम उस समुदाय को पिछड़ा कैसे कह सकते हैं; जिसके लोग भारत के राष्ट्रपति रह चुके हों और जो पूरे भारत के लिए सम्मान के पात्र हों ? पिछड़ेपन की छद्म परिभाषा को ...अल्पसंख्यक की छद्म परिभाषा को निरस्त करना होगा। नयी परिभाषाएँ ही देश को नयी दिशा में ले जा सकेंगी जिसके लिए देश के नागरिक प्रतीक्षारत हैं। हमें इन सारी बातों पर पुन: विचार करना होगा। हमें वर्षों के रचे छद्म को तोड़ कर सत्य को अनावृत्त करना होगा। वास्तविकता यह है कि हर धर्म और हर जाति में कुछ लोग समृद्ध हैं, कुछ लोग विकास में पीछे हैं, कुछ लोग बहुत पीछे हैं। भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों और सभी जातियों के लोग उच्च पदों तक पहुँच कर कार्यरत हुए हैं, उनके समुदायों के लोग संत के रूप में पूज्य होते रहे हैं, वैज्ञानिक बने हैं, प्रबन्धक बने हैं... राजनीतिज्ञ बने हैं। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर आरक्षण की बैसाखियों पर चल कर आगे नहीं बढ़े। यह वही भारत है जहाँ शाक्य मुनि गौतम, कबीर, ज्योति बा फुले आदि समाज में सभी के लिए पूज्य और सम्मानित हुए हैं।भारत के लोगों को यह समझना होगा कि किसी भी जाति विशेष का विकास आरक्षण के आधार पर किया जा सकना सम्भव नहीं। विश्व के किसी भी देश में आरक्षण जैसा कोई कुविचार विकसित नहीं हुआ। आरक्षण एक अप्राकृतिक सामाजिक अव्यवस्था है जो समाज में विषमता और बौद्धिक शोषण का आधार बन कर उभरी है। यह दु:ख और चिंता का विषय है कि लोग आरक्षण की पात्रता के लिए नये-नये समुदायों को सम्मिलित करने के लिए माँग और आन्दोलन करते हैं । नये-नये अल्पसंख्यक पैदा हो रहे हैं, जबकि अब तक तो इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाना चाहिए था। 'अल्पसंख्यकका यह विषैला विचारवृक्ष कब तक पल्लवित होता रहेगा?

जब हम सामाजिक समानता और समरसता की बात करते हैं तो हर नागरिक के लिए एक जैसी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता होनी चाहिए न कि समाज के किसी खण्ड विशेष के लिए पृथक् नीति की? जब हम वैश्विक स्तर पर बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में सामने आते हैं तो हमें अपनी बौद्धिक दक्षता के प्रदर्शन की आवश्यकता होनी चाहिए न कि किसी बौद्धिक शिथिलता की? विकास में किसी प्रकार की  शिथिलता का कोई स्थान नहीं होता, यह प्रकृति का विधान है इसका उल्लघंन भारतीय समाज के लिए अभिशाप का कारण बन गया है। हमारे राजनेताओं के व्यक्तिगतहित खण्डितसमाज के खण्डितहितों के भ्रमजाल में सुरक्षित हैं। आज मुस्लिम हितों, दलित हितों, अनुसूचित जाति हितों, अनुसूचित जनजाति हितों की खण्डित चर्चा की जाती है। खण्डितहितों के विरोध को बड़ी धूर्तता से साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया है। समग्र भारतीयसमाज के हितों का चिंतन करने वाले राष्ट्रवादी विचारकों का अभाव-सा हो गया है। सामाजिक विषमता के गर्तों को पाटने के नाम पर गर्तों को और भी गहरा करने काम कब तक चलता रहेगा? यह भारत प्रतीक्षा कर रहा है उस शुभ दिन की जब खण्डितहितों और खण्डितसमाज की नहीं बल्कि समग्र समाज को एक साथ लेकर चलने की चर्चा की जाएगी। हर भारतीय के लिए एक जैसे कानून होंगे, एक जैसे अवसर होंगे और विकास की एक स्वस्थ  प्रतिस्पर्धा को सुस्थापित किया जा सकेगा ।

सम्पर्क- शासकीय कोमलदेव जिला चिकित्सालय, कांकेर, उत्तर बस्तर (छग) 494334, Email- kaushalblog@gmail.com