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Apr 16, 2014

ह्वेनसांग की अंतिम रात

ह्वेनसांग की अंतिम रात (ऐतिहासिक कहानी)
- डॉ. बच्चन पाठक सलिल 

ह्वेनसांग प्रसिद्ध चीनी यात्री थे, वे एक दार्शनिक इतिहासकार और बुद्ध के सिद्धान्तों में अटूट आस्था रखने वाले धर्म प्रिय पुरुष थे। उन्हें चीनी भाषा के अतिरिक्त, संस्कृत, पालि, अपभ्रंश और तिब्बती भाषा का अद्भुत ज्ञान था प्रौढ़ावस्था में वे भारत में पन्द्रह वर्षों तक रहे थे, भारत भ्रमण किया था। नालंदा में रह कर भारतीय दर्शन एवं भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था, एवं कुछ वर्षों तक वह आचार्य के रूप में अध्यापन भी किया था।
वृद्धावस्था ने उन्हें अशक्य कर दिया था वे अपनी शय्या पर पड़े रहते, उन्होंने मछली खाना बंद कर दिया था, और मन ही मन- बुद्धं शरणम गच्छामि...एवं भवतु सबब मंगलम का जाप करते  थे, उनके दो एक शिष्य उनकी सेवा में हमेशा तत्पर रहते थे ..ह्वेनसांग मितभाषी हो गए थे। संध्या समय थोड़ी  देर तक उपदेश करते, एवं प्रवास का संस्मरण सुनाते- उस समय शिष्यों से घिर ह्वेनसांग कभी-कभी उनके जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर भी दे दिया करते थे। उस दिन वे कुछ अधिक गम्भीर मुद्रा में थे, उपर से शांत पर अंदर में विचारों का चक्रवात मचल रहा था।
वे जब नालंदा विश्विद्यालय में थे। आचार्य सोम उनके गुरु थे उन्हीं से वे शिक्षा प्राप्त करते, वहाँ समय-समय पर सम्मेलनों में दूसरे आचार्य भी आते, और सभी विद्यार्थियों को सम्बोधित करते आचार्य सोम ब्राह्मण थे और बुद्ध की शरण में आए थे इस लिए उनकी शिक्षाएँ संतुलित होती थीं, वे सर्व विचार सम भाव पर जोर देते थे, कुछ आचार्य जो इतर वर्णों से आकर बौद्ध पन्थ में दीक्षित हुए थे। ब्राह्मणों और अन्य आचार्यों की निंदा करते थ। यद्यपि इनकी संख्या कम थी, तथापि दो प्रकार की विचारधाराएँ विश्वविद्यालय परिसर में चल रही थीं, ...ह्वेनसांग सोच रहे थे- कितने महान थे गुरु सोम जी अपने शिष्यों को अपना सारा ज्ञान दे देना चाहते थे। उनकी स्मरण शक्ति अलौकिक थी। किसी विषय को समझाते और कहते कि पुस्तकालय से अमुक-अमुक ग्रन्थ लेकर पढ़ो- स्वाध्याय में मुझसे बड़े पंडित हो जाओगे, भारतीय परम्परा में गुरु चाहता है कि सुयोग्य शिष्य ज्ञान में गुरु से बढ़ जाय। 'शिष्यैत परजितुम इच्छैत’। ह्वेनसांग के अधरों पर कभी-कभी स्मित रेखा खिंच जाती थी, उनका नाम आस-पास के नवागन्तुक व ग्रामीण पूरी तरह उच्चारित नहीं कर पाते थे। वे उन्हें सांग बाबा कहने लगे जो बाद  में संघ  बाबा  बन गया। एक बार आचार्य सोम अस्वस्थ थे, उन्हें गाय का दूध पीना था- नालंदा परिसर में गौ दुग्ध की व्यवस्था नहीं थी। वे गुरु के लिए दूध लाने समीपवर्ती गाँव मधुवन जाया करते थे, वहाँ एक ग्वाले के घर से दूध लाते। उनके जाने पर अहीर पुत्री दूध दुहती- उसका नाम कृष्णा था, वह उन्हें चीना बाबा कहती। कृष्णा अत्यंत रूपवती और प्रगल्भा थी, वह बोली -चीना पंडित!, तुम जवान हो, सुन्दर हो, फिर घर द्वार छोड़कर साधू क्यों बन गए? ह्वेनसांग क्या कहते? वे संकोची स्वभाव के थे, धीरे-धीरे कुछ दिनों में वे भी सहज हो गए। एक दिन कह दिया तेरा नाम कृष्णा है, तू गोरी कैसे हो गई?..कृष्णा खूब हँसती थी कृष्णा ने एक दिन कहा था परदेशी, जब अपने देश चलना तो मुझे ले जाना। मैं नौका चलाना जानती हूँ, मेरा मायका गंगा किनारे है। मै बचपन मैं नाव चलाती थी। मै तुम्हारे जाने की प्रतीक्षा करूँगी। ह्वेनसांग सोच रहे थे। कितनी सरल और अल्हड है बालिका ठीक महाभारत की सत्यवती की तरह ...आज ह्वेनसांग सोच में थे पता नहीं कृष्णा अब कहाँ होगी?
ह्वेनसांग ने संस्कृत पालि ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार कीं- ताड़ पत्रों पर लिखित सैकड़ों पाँडुलिपियाँ उनके पास एकत्र हो गई थीं। उन्होंने सोचा कि चीन जाते समय इन्हें ले जाऊँगा और चीनी भाषा में इनका अनुवाद करूँगा, यह अपने देश के लिए मेरा अमूल्य उपहार सिद्ध होगा। अब चीन से आने वाले विद्यार्थी ह्वेनसांग के ही शिष्य होते थे। वे पहले उन्हें संस्कृत और पालि पढ़ाते बाद में दर्शन की शिक्षा देते, आचार्य सोम मार्ग दर्शन करते,उन्होंने चार चीनी विद्यार्थियों को पर्याप्त ज्ञान दिया इसी बीच चीन से चार नये विद्यार्थी आ गए और वे भी ह्वेनसांग के शिष्य बने, ह्वेनसांग अपने साथ वे दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ चीन ले जाना चाहते थे उनके शिष्यों ने कहा-गुरुजी! अब हम भी स्वदेश चलेंगे, शेष शिक्षा अब  आप ही के मार्गदर्शन में पूरी होगी, नए छात्र भी साथ जाना चाहते थे, क्योंकि कई आचार्यों की भाषा उन्हें समझ में नहीं आती थी, वे भी चीनी नहीं जानते थे, आचार्य सोम भी वृद्ध और निर्बल हो गए हैंह्वेन संग, उनके शिष्यों और दुर्लभ पाण्डुलिपियों को एक ही नौका में स्थान मिला, दो तीन नाविक भी सवार थे, दूसरे  दिन सागर में तूफान उठा नौका डगमगाने लगी, नाविक ने कहा- भार अधिक है, इन गट्ठरों को उठाकर फेंक दो, नहीं  सभी डूब जाएँगे।
उनके प्रधान शिष्य चेंग ने कहा- गुरुजी, आपने सिखाया है कि ज्ञान इस नश्वर शरीर से ज्यादा मूल्यवान् होता है, इन पाण्डुलिपियों में आपके प्राण बसते हैं। ये चीन देश को एक अलभ्य उपहार हैं। ये पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित रहें और नौका का भार भी कम हो जायेगा अत: मैं सागर में कूद रहा हूँ, और वह कूद गया। उसके बाद तीन और शिष्य कूद गए ...नाविक ने अपराध बोध मानते हुए कहा- अब कोई मत कूदो, मैं सम्भाल लूँगा। ह्वेनसांग चीन पहुँचे, पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित थीं पर उनका उत्साह क्षीण हो गया था। वे शिष्यों की गुरुभक्ति, ज्ञान निष्ठा और देशप्रेम से अभिभूत थे, पर स्वयं को किंकर्त्तव्यविमूढ़ समझ रहे थे, उनके साथ कुछ नए शिष्य आये थे, जिन्होंने नालंदा में कुछ विशेष अध्ययन नहीं किया था। उनसे पाण्डुलिपियों के अनुवाद में कोई विशेष सहायता नहीं मिल सकती थी, दो एक पोथियों का अनुवाद ह्वेनसांग ने किया पर अब वे अशक्त हो चले थे। यही सोचते सोचते वे रुग्ण हो गए कि अब मेरी इन पाण्डुलिपियों का क्या होगा? मेरा प्यारा देश तथागत की प्यारी विद्या से वंचित हो जाएगा, इसी समय चार शिष्य आये उन्होंने ह्वेनसांग की पद वन्दना की,और निवेदन किया। गुरुजी! आप चिंता मुक्त हो जाइए, हम नालंदा जायेंगे और संस्कृत तथा पालि का अध्ययन करेंगे, वापस आकर इन पोथियों का चीनी में अनुवाद भी करेंगे। ह्वेनसांग के अधरों पर एक फीकी मुस्कान आई, और संतोष का भाव उमड़ा नेत्रों में आनंदाश्रु छलछला उठे, उन्होंने मौन रहकर हार्दिक आशीर्वाद दिया, दूसरे ही क्षण वह यायावर अपनी अगली अनंत यात्रा के लिए प्रस्थान कर गया।
लेखक के बारे में: वरिष्ठ साहित्यकार, कवि, कथाकार, व्यंग्यकार डॉ बच्चन पाठक 'सलिल' रांची विश्व विद्यालय के अवकाश प्राप्त पूर्व हिंदी प्राचार्य हैं। स्नेह के आँसू, धुला आँचल, सेमर के फूल, मेनका के आँसू (उपन्यास) तथा कई काव्य एवं कहानी संग्रह प्रकाशित।                       
सम्पर्कः पूर्व आचार्य -रांची विश्वविद्यालय, पंचमुखी हनुमान मन्दिर के सामने -बाबा आश्रम कालोनी आदित्यपुर -2, जमशेदपुर -13 , मो. 0657/237089

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