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Jul 1, 2023

उदंती.com, जुलाई 2023

वर्ष- 15, अंक- 11

जो समय बीत गया उसे याद करके पछताना बेकार है। अगर कोई गलती हुई भी है तो उससे सबक लेकर वर्तमान को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए।  - चाणक्य

इस अंक में 

अनकहीः आइए रिश्तों को बचाएँ... - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः पानी तो बहता है समुद्र में मिलने के लिए - अनुपम मिश्र

 बचपनः ऑनलाइन गेम्सः बच्चों के जीवन से खेलते खेल - प्रमोद भार्गव

 कविताः शाम का वक्त - अमृता अग्रवाल

 स्वाथ्यः नींद क्यों ज़रूरी है? - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

 पर्यटनः हरियाला महाबलेश्वर - प्रिया आनंद

 यात्रा-संस्मरणः घने बादल और बारिश में भीगता समुद्र - नीरज मनजीत

 सॉनेटः तितली के पंखों पर - अनिमा दास

 विश्व इमोजी दिवसः इमोजी कैसे बनती और मंज़ूर होती है - स्रोत फीचर्स

 व्यंग्यः ध्वस्त करने के विशेषज्ञ - विनोद साव

 जन्म दिवसः प्रेमचंद ने जैसा देखा वैसा ही लिखा - रवीन्द्र गिन्नौरे

 कहानीः शेर और लड़का – प्रेमचंद

 दो लघुकथाएः 1. हँसी - असगर वज़ाहत, 2. स्वाभिमान - अनिल शूर आज़ाद

 लघुकथाः डाका  - कमल चोपड़ा

 लघुकथाः जेब में हाथ  - अमर गोस्वामी

 क्षणिकाएँः प्रेम - पारुल हर्ष बंसल 

 कविताः यात्रा की थकान - रश्मि विभा त्रिपाठी

 किताबेंः आमजन की ग़ज़लें  ‘दो मिसरों में’  - डॉ. उपमा शर्मा

 प्रेरकः लौटा लाइए अपने भीतर का बचपन - निशांत

 लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः नियम बनाकर चलने वाले लेखक - सूरज प्रकाश

 जीवन दर्शनः कर्म करें केवल - हरिदास - विजय जोशी

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रचनाकारों से .... 

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अनकहीः आइए रिश्तों को बचाएँ...

- डॉ.  रत्ना वर्मा 

रिश्तों का महत्त्व हमारे जीवन में हमेशा ही बना रहता है। यद्यपि यह बात तो पूरी दुनिया मानती है पर  भारतीय संदर्भ में यह बात इसलिए भी लागू होती है;  क्योंकि भारतीय संस्कृति में परिवार बनते ही रिश्तों की बुनियाद पर हैं। परंतु इन दिनों बदलते हुए सामाजिक परिवेश में रिश्तों की अहमियत पर कुछ ज्यादा ही बातचीत होने लगी है, कारण रिश्तों की मधुरता कहीं गुम होती नजर आ रही है।  पत्र- पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया में छोटे – बड़े सभी अपने- अपने तरीके से रिश्तों पर या तो अपने अनुभव साझा करते हैं या बनते बिगड़ते रिश्तों पर अपने सुझाव देते हैं और बहस भी करते हैं। दरअसल इस तरह की बातें 21 वीं सदी में ज्यादा होने लगी हैं। और दो साल पहले कोरोना जैसी महामारी के बाद तो और भी ज्यादा। याद कीजिए, कैसा होता था हमारा भारतीय परिवार और इस परिवार में रहने वालों के बीच के रिश्ते। परिवार संयुक्त होते थे, बच्चों को दादा- दादी, नाना- नानी,- ताई- ताऊ, चाचा- चाची का साथ और प्यार मिलता था। माता- पिता भी यह जानते थे कि हम अगर व्यस्त हैं तो भी बच्चे अकेले नहीं है। बचपन से लेकर बड़े होने तक परिवार का संस्कार और सुरक्षा रूपी कवच उनको घेर कर रखता था। 

पर यह सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल फोन ने हमारे जीवन में दस्तक नहीं दी थी। जब टेलीफोन आया, तो उसका उपयोग पूरा परिवार करता था। अपनों के संदेश आते थे और अपनों को उसी एक फोन से संदेश भेजे भी जाते थे। आज की तरह नहीं कि सबके हाथ में मोबाइल होते हैं कौन किससे क्या बात करता है किसी को नहीं पता होता। वाट्सअप में सबकी अलग अलग चैटिंग, अलग- अलग ग्रुप और अलग- अलग दुनिया। कहने का तात्पर्य यही है कि समय बदलते जा रहा है तो रिश्तों की परिभाषा भी बदलते जा रही है। 

अब परिवारों की जीवन शैली भिन्न हो गई है। अब पूरा परिवार शायद ही एक साथ बैठकर भोजन करता हो।  परिवार एकाकी होते जा रहे हैं इसलिए आजकल की पीढ़ी जानती ही नहीं कि दादा- दादी, नाना- नानी के साथ वक्त कैसे बिताया जाता है। माता- पिता दोनों नौकरी करने निकल जाते हैं बच्चे स्कूल- कॉलेज से आकर घर में अकेले रहते हैं। अब तो बहुत छोटी उम्र में ही बच्चों को मोबाइल फोन पकड़ा दिया जाता है, क्योंकि ऐसा करके वे सोचते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं। लेकिन सिर्फ बच्चे स्कूल से घर आ गए हैं, उन्होंने खाना खा लिया है या नहीं जैसी दिनचर्या की बातें जानकर ही वे बच्चे की सुरक्षा के प्रति निश्चिंत नहीं हो सकते। इन दिनों एक दूसरा खतरा आज की पीढ़ी पर मँडरा रहा है। मोबाइल की लत ने जहाँ आज के बच्चों को मानसिक रूप से बीमार कर दिया है वहीं वे आभासी दुनिया में इतने मगन हो जाते हैं कि जीते- जागते रिश्ते उन्हें नजर ही नहीं आते। 

  क्रिक्रेटर रोहित शर्मा और और शार्दूल ठाकुर के बचपन के कोच दिनेश लाड का मानना है कि मोबाइल जीत की राह में बाधा है। उन्होंने इस बात के एक बार नहीं कई बार पुख्ता प्रमाण भी दिए हैं। पिछले दिनों अंडर 14 लीड टूर्नामेंट में मुम्बई की जीत इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। कोच लाड ने टूर्नामेंट की 25 दिन की अवधि में कुछ सख्त नियम बनाए, जिसमें एक था कि कोई भी इस बीच मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करेगा। परिवार से भी बात करने के लिए केवल दो बार अनुमति दी गई वह भी मात्र दो मिनट के लिए। इस तरह के नियमों से हुआ यह कि बच्चों का मन भटका नहीं और सभी खिलाड़ी आपस में अच्छे दोस्त बन गए, परिणाम एक अच्छी टीम बनी और जीती भी। यदि क्रिकेट में यह नियम काम कर गया, तो पढ़ाई तथा अन्य क्षेत्रों में भी यह काम करेगा और बच्चे बेहतर परिणाम देंगे। इन दिनों बच्चों के परीक्षा परिणाम आ रहे हैं। मेरिट में आन वाले बच्चों से जब पूछा जाता है कि आपने कितनी मेहनत करके और किस प्रकार तैयारी करके यह स्थान पाया है,  तो उनके जवाब में उनकी कड़ी मेहनत के अलावा एक बात अवश्य होती है कि वे सोशल मीडिया में एक्टिव नहीं हैं और परीक्षा के दौरान मोबाइल से दूरी बनाए रखते हैं। 

आप सबने सुना होगा कि आजकल बहुत लोग मानसिक शांति और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए किसी ध्यान केन्द्र, योगा सेन्टर अथवा नेचरोपेथी सेंटर में महीने पन्द्रह दिन के लिए दुनिया के झंझटों से दूर शांति के साथ रहने जाते हैं और तरोताजा होकर लौटते हैं। आपको पता है वहाँ सबसे पहले क्या किया जाता है- उनसे उनका मोबाइल अलग रखवा दिया जाता है। यानी सारी पीड़ाओं से मुक्ति। यदि आप पैसे देकर अपनी शांति के लिए 10- 15 दिन तक मोबाइल से दूरी बना सकते हैं, तो घर में रहते हुए बगैर पैसे के ऐसा क्यों नहीं कर सकते। आप प्रतिदिन कुछ घंटे मोबाइल को अपने से दूर रखकर तो देखिए। इस एक बदलाव से आप बच्चों के अपने माता पिता के करीब तो आएँगे ही, उनसे बात करेंगे सुकून और खुशी भी महसूस करेंगे। 

पिछले कुछ वर्षों में रिश्तों को लेकर विभिन्न अध्ययन भी हुए हैं एक अध्ययन में 52% लोग मानते है कि परिवार हर स्थिति में उनका सबसे मजबूत सपोर्ट सिस्टम है। यद्यपि लोगों ने इस बात को लेकर चिंता भी जताई कि इन दिनों परिवारों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। जिसका प्रमुख कारण 44% लोगों ने मोबाइल को अधिक समय देना बताया। एकल परिवार, बाहर नौकरी पर जाना आदि अन्य कई और भी कारण इसमें शामिल हैं।   वैज्ञानिक तरक्की और आविष्कार होते तो बेहतरी के लिए हैं परंतु दवाई की तरह इसके साइड इफेक्ट भी होते हैं। यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है। इसने संचार की दुनिया में बेहतर सुविधाएँ तो मनुष्य को प्रदान की ही हैं;  पर कहते हैं न कि व्यक्ति बुरी आदतें जल्दी सीखता है। आज पूरी दुनिया व्यापार की दुनिया हो गई है। अधिक से अधिक कमाने की होड़ में मोबाइल कम्पनियाँ ऐसे- ऐसे लुभावने फीचर्स देते हैं कि बच्चे तो बच्चे, बड़े भी उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं और परिवार टूटने का कारण भी बनते हैं। पहले बच्चा जब पढ़ाई नहीं करता था या बदमाशियाँ ज्यादा करने लग जाता था, तो बुजुर्ग कहते थे बच्चा गलत संगति में पड़ गया है। उसे सही राह पर लाने के लिए उसे कहीं दूसरी जगह पढ़ने भेजना होगा;  लेकिन आज के बच्चों के लिए कहा जाता है बच्चा दिन- रात मोबाइल में लगा रहता है; इसलिए पढ़ाई में मन नहीं लगाता। 

यह भी उतना ही सच है कि सब कुछ जानते हुए भी इससे दूरी बनाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया है;  परंतु इससे होने वाले दुष्परिणाम को देखते हुए और सबसे जरूरी अपने रिश्तों को बचाए रखने तथा आने वाली पीढ़ी में रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए हमें अपने परिवार में कुछ सख्त नियम ही बनाने होंगे; क्योंकि रिश्ते परिवार से ही बनते हैं, तो आइए सब मिलकर रिश्तों को बचाएँ...

आलेखः पानी तो बहता है समुद्र में मिलने के लिए

 - अनुपम मिश्र
इस दुनिया से न तो हम ठीक से जुड़ पा रहे हैं न ही इससे पूरी तरह से अलग हो पाते हैं। हम त्रिशंकु की तरह अधर में लटके रह जाते हैं। गुजरात विद्यापीठ की स्थापना के समय सन् 1920 में गांधीजी ने विद्यापीठ में जो पहला भाषण दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि इसकी स्थापना हेतु केवल विद्यादान नहीं है, विद्या देना नहीं है। विद्यार्थी के लिए गुजारे का साधन जुटाना भी एक उद्देश्य है। इस वाक्य को पूरा करते ही उन्होंने आगे के वाक्य में कहा कि इसके लिए जब मैं इस विद्यापीठ की तुलना दूसरी शिक्षण- संस्थाओं से करता हूँ तो मैं चकरा जाता हूँ। उन्होंने इस विद्यापीठ की तुलना उस समय के बड़े माने गए, बड़े बताए गए दूसरे विद्यालयों से करते हुए एक भिन्न अर्थ में इसे अणुविद्यालय, एक लघु यानी छोटा- सा विद्यालय कहा था। यहाँ के मुकाबले दूसरे संस्थाओं में ईंट -पत्थर, चूना कहीं ज्यादा लगा था- ऐसा भी तब गांधीजी ने कहा था। लेकिन इस मौके पर हम यह दुहरा लें कि अणु दिखता छोटा -सा ही है पर उसके भीतर ताकत तो अपार होती है।

पिछले दो-पाँच वर्षों में आप सबने देखा ही है कि समृद्धि की सबसे आकर्षक चमक दिखाने वाले अमेरिका जैसे देश भी भयानक मंदी के शिकार हुए हैं और वहाँ भी इस अर्थव्यवस्था ने ग़जब की तबाही मचाई है। उधारी की अर्थव्यवस्था में डूबे सभी देशों को तारने के लिए किफायत को लाइफ जैकेट नहीं फेंकी गई है। उन्हें तो विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बड़े महाजनों ने और उधार देकर बचाना चाहा है। हिंदी में और गुजराती में भी दो शब्द हैं- एक नौकरी दूसरा शब्द है चाकरी। नौकरी कीजिए, आप जीविका के लिए; पर जो काम करें उसमें अपना मन ऐसा उडेल दें कि वह काम आपका खुद का काम बन जाए-  दूसरे के लिए किया जाने वाला काम नहीं बने। नौकरी में चाकरी का भाव जितना सध सकेगा आपसे, उतना आनंद आने लगेगा और तब आप उसे केवल पैसे के तराजू पर तोलने के बदले संतोष के तराजू पर तोलने लगेंगे।

देश में दो और पुरानी विद्यापीठों की उम्र देखेंगे, तो यह विद्यापीठ एकदम ताज़ा, आज की लगेंगी। हमारे सुनहरे बताए गए इतिहास में एक विद्यापीठ थी नालंदा और दूसरी थी तक्षशिला। दूसरी विद्यापीठ का अर्थ है तक्ष यानी तराशना, शिला यानी पत्थर, या चट्टान। अनगढ़ पत्थर में से यानी साधारण से दिखने वाले पत्थर में से, शिक्षक, अध्यापक अपने सधे हाथों से, औजारों से एक सुंदर मूर्ति तराश कर निकालें। मामूली से छात्र को एक उपयोगी, संवेदनशील नागरिक के रूप में तराशकर उसके परिवार और समाज को वापस करें। इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज तो खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती है। उनकी ईंट से ईंट बज चुकी है। तो इससे हमें यह समझ में आना चाहिए कि संस्थाएँ, खासकर शिक्षण संस्थाएँ केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनती। वे गुरु और छात्रों के सबसे संयोग से बनती है। यह बारीक संयोग जब तक वहाँ बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहेंगे। आप सब जानते ही हैं कि इनमें से कैसे-कैसे बड़े नाम उस काल में निकले। कैसे-कैसे बड़े-बड़े प्राध्यापक वहाँ पढ़ाते थे, चाणक्य जैसी विभूतियाँ वहाँ थीं, जिनका लिखा लोग वे सारे अक्षर आज भी पढ़ते थे और उनके लिखे वे सारे अक्षर आज भी क्षर नहीं हुए हैं, आज भी मिटे नहीं हैं। नालंदा और तक्षशिला को राज्याश्रय भी खूब था; पर वह राज ही नहीं बचा तो आश्रय क्या बचता।

आज हमारे अखबार, टेलीविजन के सात दिन-चौबीस घंटे चलने वाले एक-दो नहीं, सौ चैनल अमंगलकारी समाचारों से भरे पड़े हैं। तो क्या हम सचमुच ऐसे अनिष्टकारी युग से गुजर रहे हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। गाँधीजी ने हिंद स्वराज में जैसा कहा था, यह ठीक वैसा ही है- यह तो किनारे की मैल है। बीच बड़ी धारा तो साफ है। समाज के उस बड़े हिस्से के बारे में गांधीजी ने सौ बरस पहले बड़े विश्वास से कहा था कि उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं और न आप राज कर सकेंगे। हाँ आज वह लगातार उपेक्षित रखे जाने पर शायद थोड़ा टूट गया है, पर अभी अपनी धुरी पर कायम है।

विनोबा कहते हैं कि पानी तो निकलता है, बहता है समुद्र में मिलने के लिए। पर रास्ते में एक छोटा-सा गड्ढा आ जाए, मिल जाए, तो वह पहले उसे भरता है। उसे भरकर आगे बढ़ सके, तो ठीक, नहीं तो वह उतने से ही संतोष पा लेता है। वह किसी से ऐसी शिकायत नहीं करता, कभी ऐसा नहीं सोचता कि अरे मुझे तो समुद्र तक जाने का एक महान् उद्देश्य एक महान् लक्ष्य, एक महान्  सपना पूरा करना था। और वो महान्  लक्ष्य तो पूरा हो ही नहीं पाया। तो हम बहना शुरू करें। जीवन की इस यात्रा में छोटे-छोटे गड्ढे आएँगे, खूब प्यार के साथ उन्हें भरते चलें।

(अनुपम मिश्र (1948-2016): गांधीवादी, लेखक, पत्रकार,        पर्यावरणविद् और जल संरक्षणकर्ता थे जिन्होंने जल संरक्षण, जल संचालन और बारिश के पानी के संरक्षण की परम्परागत तकनीकों का प्रचार किया और और जन जागरण की दिशा में काम करते हुए लोगों को प्रोत्साहित किया।) ■■

बचपनः ऑनलाइन गेम्सः बच्चों के जीवन से खेलते खेल

 - प्रमोद भार्गव

आजकल बड़े-बुजुर्ग और महिलाओं समेत बच्चे स्मार्ट फोन के आदि हो गए हैं। कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा के बहाने ये विद्यार्थियों की मुट्ठी में आ गए। फिर क्या था, जो खेल भारत की समृद्ध संस्कृति शारीरिक स्वास्थ्य और जीवन के विकास की अभिप्रेरणा थे, वे देखते-देखते भ्रम, ठगी, लालच और पोर्न का जादुई करिश्मा बनकर मन-मस्तिष्क पर छा गए। यहाँ तक की ‘ब्लू व्हेल’ खेल में तो आत्महत्या का आत्मघाती रास्ता तक सुझाया जाने लगा। बच्चे लालच की इस मृग-मरीचिका के दृष्टिभ्रम में ऐसे फँसे कि धन तो गया ही, कइयों के प्राण भी चले गए। सोशल मीडिया की यह आदत जिंदगी में सतत सक्रियता का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन गई कि इससे छुटकारा पाना मुश्किल हो गया। इससे मुक्ति के स्थायी उपाय के अंतर्गत कानून लाने की बात सत्ता-संचलकों ने सोची, लेकिन इनका संचालन वैश्विक स्तर पर है और इनके सर्वर विदेशी धरती पर हैं, इसलिए इन पर भारतीय कानून प्रभावकारी नहीं होते, अतएव कानूनी अंकुश की बात लगभग बेमानी है।

बालमन अत्यंत चंचल होता है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाएँ इस चरित्र के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। हम जानते हैं कि एक मामूली गेंद को लाने के लिए उन्होंने उस यमुना में छलांग लगा दी थी, जिसमें कालिया जैसा खतरनाक नाग रहता था। चूँकि कृष्ण ईश्वरीय अवतार थे, इसलिए वे नाग का मान-मर्दन करने में सफल रहे, लेकिन आज ऑनलाइन खेलों के पीछे बच्चों को गुस्सैल और हिंसक बनाने का खतरनाक खेल खेला जा रहा है। ब्लू ब्हेल, जिसे नीली पोर्न फिल्मों की तर्ज पर ‘नीली-व्हेल‘ खेल के भी नाम से भी जाना जाता है की शुरूआत 2013 में रूस में हुई थी। दिलकश दुनिया रचने वाले इंटरनेट के मायाजाल में यह खेल दुनियाभर में फैल कर बच्चों के दिलो-दिमाग पर छा गया। इस खेल में ऐसी विचित्र चुनौतियाँ पूरी करने के निर्देश बच्चों को दिए जाते हैं, जिनमें आत्महत्या भी शामिल है। नतीजतन खेल के जनक देश रूस में ही 2022 के अंत तक 130 से ज्यादा किशोरों ने अपनी जीवन-लीला खत्म कर ली। मरने वाले ये किशोर 10 से 15 वर्ष के थे। इस खेल के जाल में फँसकर अपना विवेक खो चुके पहले किशोर ने 2015 में खुदकुशी की थी। इस मृत्यु की सूचना के बाद पुलिस सक्रिय हुई और खेल के आविष्कारक फिलिप बुदिकिन नाम के छात्र को 14 नवंबर 2016 को मास्को में गिरफ्तार कर लिया गया था। फिलिप को  अनैतिक कार्यों में लिप्तता के चलते विश्विद्यालय से निकाल दिया गया था। यह मनोविज्ञान का छात्र था।

इस खेल में सिलसिलेबार कई टास्क यानी कर्तव्य पालन के निर्देश नियंत्रक द्वारा दिए जाते हैं। पहले मामूली कामों से शुरूआत होती है, जिससे खिलाड़ी रुचि लेता चला जाए। निरंतर 50 दिन तक चलने वाले इस खेल में आगे बढ़ने के साथ चुनौतियाँ कठिन होने लगती हैं। इनमें समय पर काम करने की बाध्यता के साथ क्रेन पर चढ़ना, नदी में छलांग लगाना, आधी रात श्मशान भूमि में जाना, डरावनी फिल्में देखना, शरीर को ब्लेड से काट लेना, त्वचा को खरोंच कर जांघ पर ब्लू ब्हेल का नाम लिखना या चित्र बनाना। सट्टे के खेल में जिस तरह व्यक्ति लुटता-पिटता चला जाता है, उसी तरह इस खेल की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ने के लिए बालक बाजी इस उम्मीद से लगाते रहते हैं कि किसी एक स्टेज पर तो जीत उनके हाथ लग ही जाएगी। अंततः उम्मीद की इसी आस में वह आत्महत्या कर लेने के शिखर से छलांग तक लगा देता है। 

 खेल-खेल में कुछ कर गुजरने की यह मन:स्थिति भारत समेत दुनिया अनेक बच्चों की जान ले चुकी है। ऑनलाइन खेलों में पब्जी, रोबोलॉक्स, फायर-फैरी, फ्री-फायर भी प्रमुख खेल हैं। ये सभी खेल चुनौती और कर्तव्य के फरेब से जुड़े हैं। इन खेलों में दूध और पानी पीने की सरल चुनौतियों से लेकर कई घंटे मोबाइल पर बने रहने, मित्रों से पैसे उधार लेने, छत से कूदने, घुटनों के बल चलने, नमक खाने और बर्फ में रहने तक की चुनौतियाँ शामिल हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में जनवरी 2022 में 11 वर्षीय सूर्यांश ने फाँसी लगा ली थी। इसके पहले 16 वर्षीय विनय रजक और 12 वर्षीय बालिका दुर्गा ने फाँसी लगाई थी। पुलिस पड़ताल से पता चला कि ये सभी बच्चे मोबाइल पर हिंसक खेल खेलने के आदि हो गए थे। इसके बाद प्रदेश सरकार द्वारा ऑनलाइन खेलों पर प्रतिबंध लगाने का कानून बनाने का दावा किया गया था, लेकिन परिणाम शून्य रहा। 

पूरी दुनिया में इस समय डिजिटल खेलों का कारोबार बढ़ रहा है। भारत में तो इसका रूप दैत्याकार होता जा रहा है। 2022 में भारत में डिजिटल खेलों की संख्या 510 मिलियन के करीब पहुँच गई है। फिलहाल विश्व में लोकप्रिय डिजिटल खेलों में मोबाइल प्रीमियर लीग (एमपीएल), फैंटेसी स्पोर्ट्स प्लेटफार्म, ड्रीम-11 और लूडो किंग हैं। ये सभी खेल भारत में उपलब्ध हैं। भारत से संचालित होने वाली खेल कंपनियों में चीन सहित कई देशों की कंपनियों की पूँजी लगी हुई है। इन खेलों के अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजील और स्पेन बड़े खिलाड़ी हैं। ऐसी उम्मीद है कि 2025 तक भारत में इन खेलों का व्यापार 290 अरब रुपये का हो जाएगा। 

ऑनलाइन शिक्षा के बढ़ते चलन के चलते विद्यार्थियों की मुट्ठी में एनरॉयड मोबाइल जरूरी हो गया है। मनोविज्ञानी और समाजशास्त्री इसके बढ़ते चलन पर निरंतर चिंता प्रकट कर रहे हैं। पालक बच्चों में खेल देखने की बढ़ती लत और उनके स्वभाव में आते परिवर्तन से चिंतित व परेशान हैं। पालक बच्चों को मनोचिकित्सकों को तो दिखा ही रहे हैं, चाइल्ड लाइन में भी शिकायत कर रहे हैं। दरअसल बच्चों का मोबाइल या टेबलैट की स्क्रीन पर बढ़ता समय आँखों की दृष्टि को खराब कर रहा है।  साथ ही अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियों की गिरफ्त में भी बच्चे आ रहे हैं। बच्चे पोर्न फिल्में भी देखते पाए गए हैं। 

ऑनलाइन खेल आंतरिक श्रेणी में आते हैं, जो भौतिक रूप से मोबाइल पर एक ही किशोर खेलता है, लेकिन इनके समूह बनाकर इन्हें बहुगुणित कर लिया जाता है। वैसे तो ये खेल सकारात्मक भी होते हैं, लेकिन ब्लू ब्हेल, पब्जी जैसे खेल उत्सुकता और जुनून का ऐसा मायाजाल रचते हैं कि मासूम बालक के दिमाग की परत पर नकारात्मकता की परत रच देते हैं। मनोचिकित्सकों और स्नायु वैज्ञानिकों का कहना है कि ये खेल बच्चों के मस्तिष्क पर बहु आयामी प्रभाव डालते हैं। ये प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म किंतु तीव्र होते हैं, इसलिए ज्यादातर मामलों में अस्पष्ट होते हैं। दरअसल व्यक्ति की आंतरिक शक्ति से आत्मबल दृढ़ होता है और जीवन क्रियाशील रहता है। किंतु जब बच्चे निरंतर एक ही खेल खेलते हैं, तो दोहराव की इस प्रक्रिया से मस्तिष्क कोशिकाएँ परस्पर घर्षण के दौर से गुजरती हैं, नतीजतन दिमागी द्वंद्व बढ़ता है और बालक मनोरोगों की गिरफ्त में आ जाता है। ये खेल हिंसक और अश्लील होते है, तो बच्चों के आचरण में आक्रामकता और गुस्सा देखने में आने लगता है। दरअसल इस तरह के खेल देखने से मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न करने वाले डोपाइन जैसे हारमोनों का स्राव होने लगता है। इस द्वंद्व से भ्रम और संशय की मन:स्थिति निर्मित होने लगती है और बच्चों का आत्मविश्वास छीजने के साथ विवेक अस्थिर होने लगता है, जो आत्मघाती कदम उठाने को विवश कर देता है। हालाँकि डोपाइन ऐसे हारमोन भी सृजित करता है, जो आनंद की अनुमति के साथ सफलता की अभिप्रेरणा देते हैं। किंतु यह रचनात्मक साहित्य पढ़ने से संभव होता है। बहरहाल इस हेतु भारत सरकार को ही प्रभावी कदम उठाने होंगे। ■■

सम्पर्कः शब्दार्थ, 49, श्रीराम कालोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

कविताः शाम का वक्त






- अमृता अग्रवाल

हाथ में चाय का कप,

और

तेरा फोन आना,

मुस्कुराकर पूछना -कैसी हो?

मेरा खिलखिलाना

हँसकर बोल पड़ना,

तुम्हारे जैसी हूँ।

उस पर एक और हँसी

आकाश को अपनी लालिमा में,

समेटता सूरज

मुझसे कह रहा हो, देख!

मैं भी शामिल हूँ तेरे वार्तालाप में,

गवाह बनकर खड़ी है,

चिड़ियों की चहचहाहट,

कौओं का बिजली के तार पर झूलना।

साथ ही,

मेरा नंगे पाँव छत पर टहलना,

तेरी बातों को गौर से सुनना,

कहीं -कहीं बीच में मेरा टोकना

और,

तेरा हँस देना।

दोस्त, तेरी दोस्ती को,

मेरा हार्दिक अभिनंदन।

सम्पर्कः नेपाल (जिला: सर्लाही) amrita93agrawal@gmail.com


स्वाथ्यः नींद क्यों ज़रूरी है?

 - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जब मेरे जैसे अति-बुज़ुर्ग, बच्चे हुआ करते थे, तब हमें रात 8 बजे तक सो जाना पड़ता था। फिर सुबह 4 बजे उठकर मंजन करना, नहाना, फिर बचा-खुचा होमवर्क पूरा करना, नाश्ता करना और टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के लिए निकल जाना होता था।

स्कूल और खेलने के बाद हम शाम 6 बजे तक घर वापस आ जाते थे। वापिस आकर अपना होमवर्क करते, रेडियो सुनते, अखबार पढ़ते, रात का खाना खाते और रात 8 बजे तक बिस्तर पर गिरते और सो जाते। लेकिन अफसोस कि आजकल चीज़ें बदल गई हैं।

आईआईटी या आईआईएम जैसे पेशेवर संस्थानों में दाखिला पाने की चाह रखने वाले विद्यार्थियों के लिए सेवा निवृत्त प्रोफेसरों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग क्लासेस (जो अल्सुबह - आम तौर पर सुबह 4 या 5 बजे शुरू होती हैं) के चलते नींद का समय कम हो गया है; जबकि यह उनके लिए ज़रूरी है।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन ने सिफारिश की है कि 6-12 साल के बच्चों को रोज़ाना 9-12 घंटे की नींद लेनी चाहिए। और 13-18 साल के किशोरों के लिए रोज़ाना 8-10 घंटे की नींद ज़रूरी है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि आजकल के बच्चों को इतनी नींद नहीं मिल रही है, क्योंकि वे पूरे दिन कक्षाओं में रहते हैं। और तो और, उनके ‘प्रशिक्षक' भी पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, जो आम तौर पर 40-70 साल के होते हैं, और स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें सात घंटे की नींद की ज़रूरत है।

हाल ही में डॉ. जे. एलन हॉब्सन ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा का आकर्षक शीर्षक दिया है: ‘नींद दिमाग की, दिमाग के द्वारा, दिमाग के लिए होती है' (Sleep is of the brain, by the brain and for the brain)। इसमें वे बताते हैं कि हमारी नींद के दो चरण होते हैं। एक जिसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) कहा जाता है, और दूसरा गैर-REM कहलाता है। REM नींद कुल नींद के लगभग 20 प्रतिशत समय होती है और इसमें सपने आते हैं, जबकि गैर- REM नींद कुल नींद के लगभग 80 प्रतिशत समय होती है और इसे सुदृढ़ता लाने, याददाश्त को मज़बूत करने और नई चीजें सीखने के लिए जाना जाता है।

पोषण और नींद

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट मेडिसिन प्लस बताती है कि पोषण का सम्बन्ध स्वस्थ और संतुलित आहार लेने से है। भोजन और पेय आपको स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा और पोषक तत्व प्रदान करते हैं। पोषण सम्बन्धी इन बातों को समझने से आपके लिए भोजन के बेहतर विकल्प चुनना आसान हो सकता है।

यूएस का स्लीप फाउंडेशन बताता है कि आहार और पोषण आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, और कुछ फल और पेय आपके लिए आवश्यक नींद लेने को मुश्किल बना सकते हैं। कैल्शियम, विटामिन A, C, D, E और K जैसे प्रमुख पोषक तत्त्वों की कमी के कारण नींद की समस्या हो सकती है।

रात के भोजन में उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन (जैसे, पॉलिश किया हुआ चावल या मैदा, शकर) शराब या तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति उनींदा बन सकता है। यह बार-बार जगाकर आवश्यक नींद की अवधि कम कर सकता है।

स्लीप फाउंडेशन आगे बताता है कि हमें मेडिटेरेनियन आहार अपनाना चाहिए, जिसमें वनस्पति आधारित खाद्य, वसारहित मांस, अंडे और उच्च फाइबर वाले खाद्य पदार्थ शामिल हैं। ऐसा आहार न केवल व्यक्ति के हृदय की सेहत में सुधार करता है, बल्कि नींद की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।

खुशी की यह बात है कि अधिकतर भारतीय भोजन मेडिटेरेनियन आहार का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। और हमें यह सलाह भी दी जाती है कि अच्छी नींद लेने के लिए पर्याप्त भोजन करना चाहिए। तो आइए हम कामना करते हैं कि सभी को स्वस्थ और ‘अच्छी' नींद आए।  ■■

पर्यटनः हरियाला महाबलेश्वर

 - प्रिया आनंद

पश्चिमी घाट के सतारा जिले में स्थित यह एक सुंदर सा हिल स्टेशन है। इसे पुराना महाबलेश्वर अथवा क्षेत्र महाबलेश्वर भी कहते हैं। यह जगह यहाँ के प्राचीन मंदिरों और स्ट्रॉबेरी फार्म के लिए प्रसिद्ध है। महाबलेश्वर कई नदियों,शानदार झरनों और खूबसूरत पहाड़ों की वजह से आकर्षक बना हुआ है। गौरतलब है  कि इसे पुणे और मुंबई के गेट वे  के तौर पर भी जाना जाता है. यह महाराष्ट्र का लोकप्रिय हिल स्टेशन है। इसका सही विकास ब्रिटिश राज में मुंबई का समर कैपिटल बनने के बाद हुआ। घने वनों से आच्छादित होने के  कारण इसे हरियाली का शहर  भी कहते हैं । यहाँ  कितनी ही जगहें ऐसी हैं, जिन्हें देखने पर्यटक जरूर जाते हैं। लॉडविक प्वाइंट, विल्सन प्वाइंट और आर्थर सीट पर्यटकों की पहली पसंद में शामिल हैं। इसके अलावा चाइनामैन फॉल, वाशरमैन फॉल तथा वेन्ना झील यहाँ के  मुख्य आकर्षण हैं।

यहाँ स्थित महाबलेश्वर मंदिर मराठा साम्राज्य की महिमा और समृद्ध विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। यह मंदिर शिव को समर्पित है  तथा इसे त्रिदेवों का  प्रतीक भी माना जाता है । इसका निर्माण चंदा राव मोरवंश ने करवाया था। गर्भगृह में 6 फीट लंबा शिवलिंग तथा भगवान शिव की मूर्ति है। मंदिर का स्थापत्य दक्षिण की हेमदंत शैली पर आधारित है। मंदिर का निर्माणकाल सोलहवीं शताब्दी का है। शिवलिंग रुद्राक्ष के आकार का है जिसके  ऊपर पंचगंगा नदियों की नक्काशी है। यह भी कहा जाता है कि यह स्वयंभू शिवलिंग  है।

मंदिर में विशालकाय  नंदी की उपस्थिति है तथा एक तरफ कालभैरव विराजमान हैं। 

इसी मंदिर  के समीप ही  पंचगंगा मंदिर है जहाँ पाँच नदियाँ -कृष्णा, कोयना वीणा, सावित्री और गायत्री अपना जल मिलाती हैं। इसे देवगिरी के यादवों के राजा राजसिंहदेव ने बनवाया था। पंचगंगा मंदिर महाबलेश्वर के सबसे धार्मिक स्थलों में से एक है।

  महाबलेश्वर मंदिर और पंचगंगा मंदिर के बीच में स्थित कृष्णाबाई मंदिर अपना अलग ही स्थान रखता है। यह महाबलेश्वर मंदिर से मात्र 300 मीटर की दूरी पर है.एक पगडंडी इस मंदिर तक जाती है। यह अत्यंत प्राचीन मंदिर हरी काई से ढका है।  कुछ सीढ़ियाँ उतरकर मंदिर तक जाना होता है. यहाँ आप पॉजिटिव एनर्जी साफ महसूस कर सकते हैं। मंदिर प्राचीन है, पर खंडहर नहीं है। प्रस्तर स्तंभों की कलात्मकता  देखने योग्य है। छतों पर भी सुंदर नक्काशी है। मंदिर परिसर में एक कुंड है, जिसके गोमुख से निकला पानी आगे जाकर कृष्णा नदी में समाहित हो जाता है। हालाँकि कृष्णा बाई मंदिर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है; फिर भी  स्थानीय लोगों का कहना है कि इसे 1888 में रत्नागिरी के एक शासक ने बनवाया था। मंदिर का प्रांगण धनुषाकार है।

यहाँ के शांत वातावरण के बीच जो कुछ रहस्यमय और आकर्षक है वह है मंदिर के भीतर फैला अंधकार। यहाँ कोई रोशनी नहीं होती। बस विशाल शिवलिंग के आगे रखे दीपक का प्रकाश ही आपको रोशनी प्रदान करता है। कहते  हैं कि सूर्य की पहली किरण सीधे शिवलिंग पर गिरती है और पूरे परिसर को ऊर्जा से भर देती है। यह ऊर्जा प्रकाश बल्बों को नष्ट कर देती है। यही वजह है कि मंदिर में बिजली नहीं है।

महाबलेश्वर का दूसरा आकर्षण मेप्रो पार्क है जो पूरी तरह  स्ट्रॉबेरी थीम पर आधारित है। यहाँ एक खुला रेस्टोरेंट है.और फूलों की अनगिनत वेराइटीज आपका ध्यान खींच लेती हैं। एक छोटी- सी मार्केट भी है, जहाँ आप  सिरप ,सॉस,जैम,स्क्वैश तथा तैयार  किए गए अन्य उत्पाद खरीद सकते हैं। मेप्रो गार्डन शानदार ऑर्गेनिक उत्पाद आधारित आपूर्ति करता है। अब तो यह एक लोकप्रिय पिकनिक स्पॉट के रूप में  भी प्रसिद्ध हो गया है।

महाबलेश्वर जाने के लिए सही मौसम जून से अक्टूबर तक है। महाराष्ट्र के आस-पास के क्षेत्रों तथा भारत के मेट्रो  शहरों से  यहाँ तक की अच्छी रोड कनेक्टिविटी  है।  कैब की  सुविधा है ,निजी और सरकारी बसें भी चलती हैं।

पुणे एयरपोर्ट से दूरी 128 किलो मीटर

पुणे रेलवे स्टेशन से  दूरी 120 किलो मीटर 

महाबलेश्वर बस स्टैंड से  दूरी 6 किलो मीटर  है । ■■


यात्रा-संस्मरणः घने बादल और बारिश में भीगता समुद्र

 - नीरज मनजीत

सड़क के एक तरफ़ सह्याद्रि की हरी-भरी पहाड़ियाँ और दूसरी तरफ मूसलाधार बारिश में भीगता सलेटी समुद्र... वृक्षों, पौधों की हरीतिमा धुलकर साफ चटक हरी हो गई है और बारिश के कोहरे में समुद्र धुँधला... और अधिक धुँधला हो रहा है... मूसलाधार बारिश का भी अपना कोहरा होता है.... बादल-बारिश- कोहरा-समुद्र... लगता है कि दसों दिशाओं में सैकड़ों मील घना सलेटी कोहरा आकार ले रहा है... धूप का एक टुकड़ा भी हमें दिखा.... बस थोड़ी देर के लिए... फिर वह हमारी परछाइयों के साथ कहीं गुम हो गया....

यह बारिश के दिनों का दापोली है... महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में सह्याद्रि पर्वत शृंखला की गोद में बसा यह तटवर्ती नगर बारिश में नहाकर कुछ ज़्यादा ही खूबसूरत दिखाई पड़ता है.... नितांत उस कविता की तरह जो उस दिन लिखी गई....

             कोहरे  की  बारिश      


                    बारिश के कोहरे में

                     खो गया है समुन्दर।

                     कोहरे के बादलों तले

                     कोहरे की नीली-हरी मौजें

                     करवटें बदल रही हैं।


                    बादल बारिश समुन्दर

                    या कि सलेटी कोहरे से

                    कोहरे की बारिश

                    बरस रही है

                    नीले कोहरे पर।


                   सबकुछ मिलकर ज्यों

                   एक बहुत बड़े वितान पर

                   गतिमान कई दृश्याभास।


                   समन्दर के किनारे

                   कोहरे के साहिल पे 

                   धूप का एक टुकड़ा

                   दिखा था जो थोड़ी देर पहले,

                   वह गुम हो गया है

                   हमारी परछाइयों के साथ !

दापोली में हम पूरे सवा दो दिनों तक रहे। हम सब रचनाकार 25 जुलाई, 2017 की रात 10 बजे के आसपास एक पहाड़ी पर बसे सागर हिल रिसोर्ट पहुँच गए थे। बस से उतरते ही ताज़ा ठण्डी हवाओं, हल्की बूँदाबाँदी और सड़क के थोड़ा नीचे समुद्र की गरज ने हमारा इस्तक़बाल किया। रात के वक़्त हम कतई नहीं देख पाए कि हम कितनी सुंदर दृश्यावलियों से घिरे हैं। सुबह खिड़की खोली, तो सामने अपनी लहरों पर तैरते आकर्षक समुद्र का विस्तार था और आसमान पर घने काले बादल छाए हुए थे। चाय पीने रिजॉर्ट की ऊपरली छत पर बैठे ही थे कि ठण्डी हवाओं के साथ तेज बारिश शुरू हो गई। उसके बाद तो पूरे 52 घण्टों तक हम थे, सह्याद्रि की सुंदर शृंखला थी, बादल बारिश समुद्र थे और तन-मन के आरपार होकर गुज़रती ठण्डी हवाएँ थीं। ताज़ा ठण्डी हवाएँ, बादल, बारिश और समुद्र 28 जुलाई की सुबह 10 बजे तक हमारे साथ-साथ चलते रहे। जब हमने दापोली को अलविदा कहा, तो मानो खिली धूप का उपहार देकर उन्होंने हमें विदाई दी।

दापोली जाने के लिए मई महीने के आखिरी हफ़्ते मैंने ट्रेन की टिकटें बुक करा लीं, ताकि ऐन वक़्त पर किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। मुम्बई की टिकिट एक दिन पहले यानी 23 जुलाई की ली। 24 जुलाई का दिन वहाँ मित्रों से मुलाक़ात का तय किया। टिकटें आदि हो जाने के बाद दापोली के बारे में नेट पर सर्च किया, तो कुछ खास जानकारी नहीं मिली। एक तरह से यह ठीक ही होता है। किसी यात्रा के पहले सबकुछ जान लिया गया, हो तो कुछ रोमांच शेष नहीं रहता। खैर, जुलाई के पहले हफ़्ते बारिशें आने लगीं। बड़ी खुशगवार-सी, तन-मन को भिगोती। ऐसी, जिन्होंने थमने का नाम नहीं लिया। दूसरे हफ़्ते बारिशें थोड़ा भयभीत करने लगीं। हर तरफ़ से बड़ी ही डरावनी खबरें आ रही थीं। खासतौर पर मुम्बई से। प्रवास खटाई में पड़ता नज़र आने लगा। फिर भी हिम्मत जुटाकर सामान बाँध लिया, तैयारी कर ली।

22 जुलाई को एक कांफ्रेंस में शामिल होने जबलपुर जाना था। सुबह 5 बजे हम कवर्धा से जबलपुर के लिए रवाना हुए, तो तेज बारिश हो रही थी। फिर रास्ते भर बारिश लगातार घटती-बढ़ती रही। जबलपुर से वापसी के लिए निकले,  तो भी मूसलाधार बारिश हो रही थी। पानी की तेज बौछारों से जूझते कवर्धा पहुँचे; लेकिन बड़ा ही अच्छा लगा। पिछले कुछेक वर्षों से तो ऐसी तेज बारिश देखने में ही नहीं आ रही थी। 23 की सुबह चार बजे उठा, तो फिर बाहर तेज बारिश थी। तैयार होकर रायपुर के लिए निकला, तो भी अच्छी खासी बारिश हो रही थी। रायपुर में बारिश तो नहीं थी, लेकिन घने काले बादल कब बरस पड़ें, कुछ कहा नहीं जा सकता था। अच्छी खबर यह थी कि मुम्बई में बारिश थम चुकी है।

दापोली पहुँचने के लिए हमें मत्स्यगंधा एक्सप्रेस पकड़कर खेड़ जाना था। मुंबई से मडगाँव गोआ तक चलने वाली यह ट्रेन मुंबई से दोपहर 2 बजे रवाना होती है और रात 8 बजे खेड़ पहुँचती है। बारिशों में मुंबई से मडगाँव का रास्ता काफी खुशगवार और सुंदर दृश्यावलियों से भरा होता है। इसी लाइन पर देश की सबसे लंबी सुरंग है। इस सुरंग की लंबाई 12 किमी है। खेड़ से हम एक विशेष बस से दापोली पहुँचे, जो वहाँ से 45 किमी दूर था।

रसिका माने, दापोली और  मछुआरों की बस्ती

दापोली और सह्याद्रि की पहाड़ियाँ प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से काफी संपन्न हैं। इसके बावजूद पर्यटन के नज़रिए से इसकी ख्याति ज़्यादा नहीं है, हालाँकि यहाँ कुछ बड़े ही अच्छे रिज़ॉर्ट हैं। दरअसल, यहाँ गोआ जैसे सुनहली रेत वाले खूबसूरत, साफ-सुथरे बीच नहीं हैं। यहाँ के समुद्रतट कटे-फटे, सँकरे और काली रेत वाले हैं। समुद्र का पानी भी अपेक्षाकृत गँदला है। सुंदर बीच तलाश करने वाले पर्यटकों के लिए भले ही यहाँ ज़्यादा कुछ न हो, पर हम रचनाकारों के लिए यहाँ बहुत कुछ था।

दापोली में यह मछुआरों की बस्ती है। यहाँ पर समुद्र काफी गहरा और उग्र है। 27 जुलाई की दोपहर जब हम यहाँ आए, तो मौसम काफी सुहावना था। ऊपर घने काले बादल थे; लेकिन बारिश नहीं हो रही थी। तेज ठंडी दिलकश हवाएँ तन-मन को ताज़ादम कर रही थीं। यह मौसम मछुआरों के लिए ऑफ सीजन है, इसलिए उनकी छोटी-बड़ी नावें समुद्र के किनारे गाँव में ज़मीन पर उल्टी-सीधी पड़ी हैं। कुछ नावें काफी बड़ी, भारी-भरकम, कई टन वजनी थीं। उन पर तालपत्री तानकर मछुआरों ने घर बना लिये थे। मैंने एक मछुआरे से पूछा कि इतनी भारी और बड़ी नाव वे समुद्र में वापस कैसे उतारते हैं, तो उसने बताया कि नाव के नीचे बड़े गोल लट्ठे डालकर धीरे-धीरे सरकाकर उसे उतारा जाता है। कुछ मछुआरे अपने जाल की मरम्मत कर रहे थे। उन्होंने बताया कि गणपति की स्थापना के साथ ही उनका सीजन शुरू हो जाता है। इस जगह एक पुराने लाइट हाउस के अवशेष भी हैं और कुछ दूरी पर एक छोटे से द्वीप पर एक भग्न होता किला है। इस किले में नाव पर बैठकर ही जाया जा सकता है, लेकिन अभी उफनते समुद्र में आवाजाही बंद है।

रसिका माने एक दुबली-पतली लड़की है, दापोली के पास बसे साखरेवाड़ी गाँव की। 26 जुलाई को ग्राम पंचायत भवन में हम उससे मिले। वह यहाँ नौकरी करती है। चूँकि हम सभी रचनाकार इस इलाके के बारे में ज़्यादा-से-ज़्यादा जानने के लिए उत्सुक थे, इसलिए हम सभी ने एक तरह से उसे घेर लिया और सवाल-पे -सवाल दागने लगे। उसे हमारी हिन्दी समझने में थोड़ी दिक़्कत हो रही थी, लेकिन बड़ी ही सहजता से, समझदारी से, बड़े ही धैर्य से उसने हमें अपने गाँव के बारे में, अपने रहन-सहन के बारे में काफी कुछ बताया। बातचीत के बीच ही किसी ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न आज शाम हम रसिका के घर चाय पीने चलें। रसिका ने भी सहर्ष हमें आमंत्रित कर लिया। शाम को हम सभी लोग रसिका के घर गए। साथ में बच्चों के लिए कुछ चॉकलेट स्नैक्स वगैरह भी ले गए। रसिका और उसकी भाभी ने बड़े ही प्यार से हमें घर के अंदर बिठाया। रसिका का घर छोटा; किंतु पक्का था। हमने बड़े ही चाव से उसके हाथों बानी चाय पी। यह हम सब रचनाकारों की मूल भावना के अनुरूप ही था। जैसा कि हमारे वरिष्ठ साथी साहित्यकार सतीश जायसवाल ने कहा-" हमने आज रसिका के घर बैठकर चाय पी, उसके घरवालों से बातें की, तो पूरा साखरेवाड़ी गाँव हमारे साथ चला आया। यह पूरा गाँव हमारी स्मृतियों में सदैव बना रहेगा और साथ ही हम सारे रचनाकार भी इस गाँव और गाँववालों को याद रहेंगे।"

दापोली और रसिका के अलावा भी इस प्रवास का बहुत कुछ हमें लंबे समय तक याद रहेगा। बालासाहेब सावंत कृषि विद्यापीठ- यह एशिया का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय है। बालासाहेब का जन्म रत्नागिरि जिले के मिन्या गाँव में हुआ था। वे एक सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और शिक्षाशास्त्री थे। आज़ादी के बाद वे कई वर्षों तक महाराष्ट्र सरकार में मंत्री भी रहे। उनकी स्मृति में यह विद्यापीठ 1985 में स्थापित की गई। यहाँ के लाइब्रेरियन देवानंद बी खुपटे ने हमें काफी कुछ बताया। निकटवर्ती गाँव कर्दे के सरपंच सचिन तांडे हमसे मिलने रिसोर्ट आए। वे एक बड़े आम सप्लायर भी हैं। इस इलाके के बारे में उन्होंने हमारे कई सवालात को लेकर विस्तार से जानकारी दी। कर्दे गाँव के मोहम्मद असलम, जो हमें मस्जिद का चित्र लेते देख हमारे पास चले आए और फिर उस गली में खड़े-खड़े ही उनसे हम काफी कुछ पूछते रहे, उसके साथ एक चित्र भी लिया। कर्दे गाँव का स्कूल और फिर एक गाँववाले के घर रात के खाने में स्थानीय व्यजनों का स्वाद। 

और फिर दोनों दिन रात के वक़्त ठण्डी हवाओं, बारिश और समुद्र के साथ कविता पाठ और बातचीत। रात के वक़्त हम सभी रचनाकार गोल घेरे में कुर्सियों पर जम जाते और रसीली वार्ता तथा कविता सुनने-सुनाने का दौर चल निकलता। बारिश और समुद्र ही हमारी कविताओं के केन्द्र में थे। लग रहा था कि वे भी हमारी कविताएँ सुन रहे हैं, हमें कुछ सुना रहे हैं, हमारी बातचीत में शामिल हैं। यह एक अद्भुत अनुभव था। ■■

सम्पर्कः हैप्पीनेस प्लाजा, नवीन मार्केट, कवर्धा, छ .ग . 491995, मो.  96694 10338, 70240 13555

ई मेल- neerajmanjeet@gmail.com


सॉनेटः तितली के पँखों पर

    





    - अनिमा दास

‘असमर्थ हो’ जग ने कहा, ‘समर्थ हूँ’ मैंने कहा 

दिव्यांगता की कहानी में मेरा नाम सदा ही रहा

'संपूर्ण नहीं हो' उसने कहा, दो बूँद अश्रु गए ढल 

पीड़ा से मुक्ति चाहता था मैं.. काँपता रहा अंतस्थल। 


विकलता के चरम पर, लगता मुझे सर्वोच्च शृंग शिखर ?

मैंने सरीसृप- सा रेंगते हुए छू लिया अंततः ..पद प्रस्तर

त्यागा कितनों ने, अभिशाप, लांछन व तिरस्कार दिए? 

मैं नहीं, मेरे अंग हैं विवश.. कहा, नव संकल्प लिए।


मानव मंत्र अथवा परिवर्तन तंत्र, का करते मिथ्या चिंतन

असहायता के निर्मम सेतु पर क्यों सो रहा यह जीवन?

तुमने बनाया? उसने बनाया? या किसने है बनाया?

मेरे अंग दिव्य हैं, अतः मैं दिव्य हूँ, ईश्वर ने ही बताया।


मैं भी लाँघ जाऊँगा नदी.. निर्झर..शैल कभी नदराज

चढ़कर तितली के पंखों पर छू आऊँगा मैं हिमताज।।


- कटक, ओड़िशा


17 जुलाईः विश्व इमोजी दिवसः इमोजी कैसे बनती और मंज़ूर होती है

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इमोजी का बहुत इस्तेमाल होता है। और तो और, इमोजी का इस्तेमाल विज्ञान- संवाद में भी खूब होने लगा है। हर साल 17 जुलाई को विश्व इमोजी दिवस पर नए इमोजी लॉन्च होते हैं। 2018 में, डीएनए, सूक्ष्मजीव, प्रयोगशाला कोट और पेट्री डिश सहित कई विज्ञान इमोजी फोन कीबोर्ड में शामिल हुई थीं। फिर 2019 में स्टेथोस्कोप, खून की बूँद और प्लास्टर की इमोजी शामिल हुई थी। 2020 में हृदय, और 2021 में एक्स-रे स्कैन की इमोजी शामिल हुई थी। 


जुलाई 2022 में, रोचेस्टर विश्वविद्यालय के एंड्र्यू व्हाइट ने प्रोटीन इमोजी शामिल करने के लिए प्रस्ताव भेजा था। उनका यह प्रस्ताव तो मंज़ूर नहीं हुआ; लेकिन उनके प्रयास से इमोजी के बारे में कुछ रोचक बातें ज़रूर निकलीं।

इमोजी की शुरुआत कब हुई?

पहली बार इमोजी 1990 के दशक के अंत में जापानी मोबाइल फोन पर दिखाई दी थी। 2022 में बाँसुरी, जेलीफिश, गधा जैसी 31 नई इमोजी लॉन्च होने के साथ वर्तमान में स्वीकृत इमोजी की संख्या 3600 से अधिक हो गई है। 2015 में, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ‘फेस विद टीयर्स ऑफ जॉय' इमोजी को पहली बार एक शब्द के तौर पर शामिल किया था। 

इमोजी में रुचि कैसे बनी?

लगभग डेढ़ साल पहले, लोगों को ट्विटर पर इमोजी के साथ अंकगणित करते देखना दिलचस्प लगा था। जैसे, लघुगणक (लॉग) के गुण दर्शाने के लिए इमोजी का इस तरह इस्तेमाल: 

log (😅) = 💧log (😄)

लोग सोशल मीडिया पर इमोजी का नए-नए तरह से उपयोग कर रहे थे। फिर एक पेपर आया, जिसमें बताया गया था कि इमोजी को वेक्टर के रूप में कैसे दर्शाएँ।

इसके बाद कुछ मज़ेदार समीकरण बनाए गए। जैसे यदि ‘राजा’ की इमोजी से ‘पुरुष’ इमोजी घटा दें और इसमें ‘महिला’ इमोजी को जोड़ दें तो ‘रानी’ इमोजी बनेगी। इमोजी की मदद से तत्त्वों की एक आवर्त सारणी भी बनाई गई, और फिर एक प्रोग्राम भी लिखा गया, जो इमोजी के साथ आणविक संरचनाएँ बनाता है।

प्रोटीन की इमोजी क्यों?

हुआ यूँ कि करीब एक साल पहले एंड्र्यू व्हाइट की एक सहयोगी क्रिस्टीन लिंडोर्फ-लार्सन ने इस ओर उनका ध्यान दिलाया कि इंटरनेट के प्रमुख सर्च इंजनों पर ‘प्रोटीन’ खोजने पर या तो मांस की या पोषक तत्त्वों की तस्वीर या चित्र ही मिलते हैं। लेकिन प्रोटीन मात्र इतना तो नहीं है।

डीएनए की पहचान जीवन को कूटबद्ध करने वाली भाषा के रूप में है, लेकिन प्रोटीन जीवन के वास्तविक कार्यकारी हैं। इसलिए लगा कि एक प्रोटीन इमोजी होना विज्ञान संचार के लिए उपयोगी साबित होगा, ठीक डीएनए इमोजी की तरह।

टीम कैसे बनी?

जब एंड्र्यू व्हाइट इमोजी के बारे में पढ़ रहे थे, तब पता चला कि कोई भी एक नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकता है। फिर व्हाइट और क्रिस्टीन ने रोचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्राफिक डिज़ाइनर माइकल ओसाडिव को अपनी टीम में शामिल किया, और उन्होंने प्रोटीन इमोजी ग्राफिक डिज़ाइन किया था।

मार्च 2022 में ट्विटर पर एक सर्वेक्षण करके पता किया गया कि प्रोटीन की इमोजी कैसी दिखना चाहिए। सर्वेक्षण में 800 से अधिक लोगों ने प्रतिक्रिया दी; इनमें से 70 प्रतिशत लोगों के सुझावों के आधार पर डिज़ाइन तैयार की गई। अंतत: जुलाई 2022 में प्रस्ताव इमोजी समिति को भेज दिया गया।

प्रक्रिया क्या है?

यूनिकोड कंसॉर्शियम की एक इमोजी उपसमिति है जिसमें एप्पल, मेटा और माइक्रोसॉफ्ट जैसी प्रतिनिधि कंपनियाँ और इमोजीपीडिया शामिल हैं। ये मिलकर तय करते हैं कि कौन से इमोजी प्रस्ताव उपयुक्त हैं। हालाँकि, यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि प्रस्ताव चुनने के उनके मानदंड क्या हैं।

लेकिन इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने का कोई शुल्क नहीं है। और आम तौर पर पाँच से दस पेज लंबा प्रस्ताव भेजना होता है, जिसमें यह बताना होता है कि इस इमोजी की ज़रूरत क्यों है, इसके लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द कितना उपयोग होता है, और यह भी बताना होता है कि इसका डिज़ाइन कैसा हो। समिति द्वारा समीक्षा करने में लगभग चार महीने लग जाते हैं।

जब इमोजी का प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो एप्पल और सैमसंग जैसी कंपनियाँ डिज़ाइनर से इमोजी बनवाती हैं, जिन्हें विश्व इमोजी दिवस पर रिलीज़ किया जाता है। यदि किसी इमोजी का प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है, तो दोबारा प्रस्ताव भेजने के लिए दो साल का इंतज़ार करना पड़ता है। वैसे, दोबारा प्रस्ताव भेजने पर इसके स्वीकृत होने की संभावना कम ही होती है।

मज़ेदार बात यह है कि प्रोटीन इमोजी का प्रस्ताव स्वीकृत न होने पर व्हाइट की टीम निराश थी, लेकिन उनका कहना है कि इस प्रक्रिया के दौरान बहुत कुछ सीखने को मिला- इमोजी का इतिहास और कई मज़ेदार तथ्य। जैसे एक बात यह पता चली कि इमोजी की शुरुआत जापान से हुई, यही कारण है कि जापानी कांजी लिपि के कई अक्षर इमोजी में दिखते हैं, हालाँकि अब नियम है कि इमोजी में शब्द या अक्षर नहीं होंगे।

आप भी चाहें तो इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकते हैं। यूनिकोड वेबसाइट पर नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए गए हैं। गैर-लाभकारी संगठन इमोजीनेशन पर मुफ्त प्रस्ताव टेम्पलेट्स भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स) ■■


व्यंग्यः ध्वस्त करने के विशेषज्ञ

  - विनोद साव

वे कहते हैं कि उनके घोष- वाक्य पर आस्था न रखने वालों को तुरन्त ध्वस्त कर देना चाहिए। कहा कि विशेषज्ञता की क्या जरूरत, हमारा तो यह खानदानी पेशा है कि अच्छे- अच्छों को ध्वस्त कर देते हैं.. बाप- दादों के ज़माने से चला आ रहा है। ध्वस्त करने की सुदृढ़ परंपरा है हमारे यहाँ। पता भर चलने पाए कि किसे करना है और कब? हम निकल पड़ते हैं.. और काम तमाम करके ही लौटते हैं.. कभी-कभी लौटते भी नहीं हैं और जरूरत पड़ी, तो आगे भी इसी काम से निकल जाते हैं। हमारे ध्वस्त किए हुए लोग फिर कभी खड़े नहीं होते, पानी भी नहीं माँगते हैं।। प्राण छोड़ देते हैं। बोलिए आप कैसे आए? किसी को ध्वस्त करना है?

उनके घर में एक विशाल बुलडोजर का चित्र  टँगा था। मैंने पूछा- “इसे यू.पी. से मँगवाया है क्या?”

“हमीं ने बनाया है। हमारा बनाया ही यू.पी. में चल रहा है.. और कुछ दीगर राज्यों में भी अच्छा काम कर रहा है, चर्चा है.. आपने भी सुना होगा। ये बुलडोजर हम उन राज्यों को सप्लाई कर रहे हैं, जहाँ हमारी सरकारें चलती है। वहाँ बस हमारी चलती है। और जो चलता है वह बुलडोजर है। बुलडोजर के चलने से यह फायदा है कि वहाँ न कुछ चलता है न किसी की चलती है।”

“पर लोकतंत्र में इस तरह बुलडोजर चला देना, कहाँ तक न्याय-संगत है? संविधान है, न्याय-प्रणाली है, चुनाव आयोग है सबके अपने काम करने के ढंग हैं। इनके द्वारा किसी को सजा देनी है या किसी को चोट पहुँचानी है, तो वह भी लोकतान्त्रिक ढंग से पहुँचानी है। विचारधारा, विचारधारा होती है कोई बुलडोजर नहीं कि इसे कहीं भी चला दिया!”

“विचारों और विचारधारा का जमाना गया। अब बुलडोजर का जमाना है। ज्यादा हल्ला करने का नहीं। जहाँ हल्ला हुआ, वहाँ बुलडोजर चला दिया।” यह कहकर वे बाहर खड़े बुलडोजर पर कुछ गैंती फावड़े वालों को लेकर बैठ गए और उस तरफ निकल पड़े, जिधर बुलडोजर चलाने का आदेश उन्हें मिला था।

जाहिर है कि आज के इस पेशेवर समय में वे ध्वस्त करने का ठेका लेते हैं.. और इस ठेके में वे, विपक्ष में जी खा रहे लोगों को नेस्तानाबूद करते चलते हैं। वह सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहते हैं। बुलडोजर चलाने के बाद बची चीजों की मार से भी उन्हें ध्वस्त करना आता है। वे ध्वस्त करने वाली कई एजेंसियों से जुड़ गए हैं।। और दूसरों का नेटवर्क ध्वस्त कर देते हैं।

ध्वस्त करने का ठेका केवल धर्म और राजनीति में ही नहीं, अन्यान्य क्षेत्रों में भी लेने वाले लोग हैं। वे पूछते हैं - “आपकी गोष्ठी कब तक चलेगी।। आते हैं हम।” वे ऐसे कई कार्यक्रमों में सद्भावपूर्वक आते हैं और आपकी व्यवस्था में सहयोग देने के बहाने कुछ सुधार चाहते हैं। जिसमें वे बैठक व्यवस्था में परिवर्तन करवाते हैं- “डायस और माइक को किनारे कर दें और श्रोताओं को ऐसे गोल घेरे में बिठा दें कि सब लोग अपनी बात कह सुन सकें, ताकि गोष्ठी में ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके। वे सबसे पहले बोलकर किसी जरूरी काम का हवाला देकर निकल जाते हैं। फिर उनके आगमन और जल्दी जागमन को लेकर आपत्तियाँ आती हैं.. और इन्हें कौन बुलाया था की चिल्लपों मच जाती है तब पता चलता है कि वे आपका कार्यक्रम ध्वस्त करके जा चुके हैं। यह एक दुर्लभ विशेषज्ञता है जो कभी-कभी देखने में आती है।

उनकी नजर मुख्य-अतिथियों पर होती है। अगर आपके कार्यक्रम के अतिथिगण समय पर नहीं पहुँच रहे हैं, तो यह अनायास नहीं; किसी के सायास उपक्रम का नतीजा है। आपके मुख्य-अतिथि अपहृत हो चुके होते हैं। वे नजरबंदी से छूटेंगे तब ही आपके कार्यक्रम में पहुँचेंगे, आपको कृतार्थ कर पाएँगे। ऐसे मुख्य अतिथि आते ही कह देते हैं - “भई देखिए हमारे जाने का समय निश्चित है।” वे घड़ी देखते हैं और जाने की जल्दी करते हैं। वे तुरत- फुरत आपके कार्यक्रम के शेड्यूल को धता बताते हुए निकल भागते हैं। उनकी इस विशेषज्ञता से आयोजक इस बात का श्रेय ले जाते हैं कि कार्यक्रम उनका भले ही समय पर आरंभ न हुआ हो, पर ख़तम तो बिलकुल समय पर हुआ है। ऐसे कुछ आयोजक भी होते हैं जो अतिथियों से स्वीकृति लेते समय कह देते हैं - “श्रीमान जी! विलम्ब से आते समय भी समय का ध्यान रखें; क्योंकि हमारा उद्घाटन समारोह समय पर हो, न हो पर समापन समारोह का समय तय है।” ऐसे आयोजक किसी भी अतिथि की गौरव-गरिमा को ध्वस्त कर देते हैं।

वे आए हुए अतिथियों के पीछे पड़ जाते हैं और अध्यक्ष की अनुमति से कुछ कहना चाहते हैं। अध्यक्ष महोदय कहते हैं कि महाशय जी आप धाकड़ वक्ता हैं।। और किसी भी सभा में आते है तो छा जाते हैं। आपका लोहा सब मानते हैं.. पर सदाशयतापूर्वक विचार करें कि इन मुख्य-अतिथि महोदय को फ्लाइट से आमंत्रित किया गया है। इनके पीछे पच्चीस- पचास हजार का खर्चा हुआ है।। और आप कहीं उनके सामने मुखरित हो उठेंगे, तो ये बेचारे तो ध्वस्त हो जाएँगे। कभी कभी बिना पेमेंट वाला लोकल आर्टिस्ट ‘हाइली पेड’ अतिथियों पर भारी पड़ जाता है। ऐसे आक्रामक वक्ताओं से अपने अतिथियों को बचाने का संकट सामने होता है।    

एक महाशय विपरीत धारा पर चलने में विश्वास रखते हैं। वे सदैव ध्वस्त होने की मुद्रा में विराजमान रहते हैं। उन्हें देखने से लगता है कि अभी- अभी कोई उनके अखंडित व्यक्तित्व को खंडित करके गया है। या किसी संभावित विनाश का उन्हें पूर्वाभास हो गया है इसलिए स्वयमेव ध्वस्त होने का पूर्वाभ्यास कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं है बल्कि वे बड़े साधक हैं और उन्होंने अपनी भाव-भंगिमा को स्थायी ध्वंस से भर दिया है। वे ध्वंसावशेष की चादर ओढ़ते-बिछाते हैं और अपनी साधक मुद्रा में बने रहते हैं। उनकी यह मुद्रा शहर में ध्वस्त करने वाले विशेषज्ञों के लिए एक बड़ी चुनौती है। उनका विलोम रूप खाँटी विशेषज्ञों को भी ध्वस्त कर देता है। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं- ‘जय जयकार किया मुनियों ने, दस्युराज यों ध्वस्त हुआ।’  

बकौल मुद्रा राक्षस- मैं उसे देख लूँगा- मैं तुम्हें देख लूँगा यह भी एक जुमला है। कुछ लोग यही करतब दिखाते फिरते हैं- ‘मैं तुम्हें देख लूँगा। लेख लिखकर ध्वस्त कर दूँगा। लोग ध्वस्त होते भी हैं। वे ध्वस्त हो भी गए। वे बच गए वरना वे भी ध्वस्त हो चुके थे।

इस पद्धति के लेखन में कुछ विशेषज्ञों ने बड़ी ख्याति पाई थी। मैंने भी किसी ज़माने में कुछ तीर तुक्के छोड़े थे मगर वे जमें नहीं।

वे दिन अद्भुत थे साहब। लोग अपना लिखने के बजाय दूसरों का गुड-गोबर करने में ज्यादा रुचि रखते थे। कुछ लोग तो बकायदा पत्रिकाएँ ही इसी काम को सरअंजाम देने के लिए छापते थे। कभी- कभी ऐसा भी होता था कि जिसे ध्वस्त किया गया, तो वह स्वयं यही काम शुरू कर देता था। ऐसी हालत में वह दूसरों के लिए ज्यादा विपत्ति खड़ी कर देता था।

हाय! वे कैसे अच्छे दिन थे। अब साहित्य में वह आनंद कहाँ- ‘लोग सिर झुकाए दर्जियों की तरह शांतिपूर्वक साहित्य के पायजामे सिलते रहते हैं। पहले का वक्त होता तो वे सिलने से ज्यादा दूसरों की सुई तोड़ने या सिला हुआ उधेड़ देने में रुचि लेते।’

वैसे आमतौर पर यह परम्परा समाप्त हो गई है, मगर कुछ महारथी ख़ुफ़िया तौर पर आज भी इसी का अभ्यास करते रहते हैं। हाँ.. अब वे लेख नहीं लिखते; बल्कि वहाँ बदला लेते हैं, जहाँ वे कमेटियों के सदस्य हों। वे बने ही दूसरों को ध्वस्त करने के लिए हैं। अपना निर्माण करने से कहीं ज्यादा दूसरों का ध्वस्त करने पर उनका विश्वास है.. और अपने विश्वास पर वे इस कदर अडिग हैं कि कोई दूसरा उन्हें ध्वस्त न कर सके।

..और भी हैं पर मैंने तो इस विध्वंस चर्चा में कुछ क्षेपक घुसेड़े हैं। ■■

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छ. ग.) 491001, मो. 9009884014


दो लघुकथाएँः

  1. हँसी  

 -  असगर वज़ाहत

श्री टी.पी. देव एक शरीफ शहरी थे। अपने काम से काम रखते थे। न किसी से लेना एक, न देना दो। रोज सुबह पौन आठ बजे ऑफिस के लिए निकलते थे और शाम सवा छह बजे घर पहुँचते थे। टी.वी. देखते थे। खाना खाते थे। सो जाते थे।

अचानक पता नहीं कैसे, एक दिन उन्होंने सोचा कि पिछली बार वे कब हँसे थे? उन्हें याद नहीं आया। सोचते-सोचते थक गए और पता न चला, तो उन्होंने अपनी डायरियाँ, कागज-पत्र उलट-पुलटकर देखे, पर कहीं दर्ज न था कि पिछली बार कैसे कब हँसे थे।

फिर वे डॉक्टर के पास गए। उन्होंने बताया कि उन्हें लगता है कि वे शायद कभी हँसे ही नहीं हैं। कहीं यह कोई बीमारी तो नहीं है?

डॉक्टर बोला, ‘‘नहीं, यह बीमारी नहीं है, क्योंकि बीमारियों की किताब में इसका जिक्र नहीं है।’’

परंतु श्री टी.पी. देव संतुष्ट नहीं हुए। वे दसियों डॉक्टरों, हकीमों, वैद्यों से मिले। सबसे यही सवाल पूछा। सबने वही जवाब दिया। श्री टी.पी. देव की परेशानी बढ़ती चली गई। 

एक दिन श्री टी.पी. देव फ्लैट में आने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, तो उन्होंने एक लड़के को हँसते हुए देखा। वे आश्चर्य से देखते के देखते रह गए। फिर उससे पूछा, ‘‘बताओ, तुम कैसे हँसते हो?’’

यह पूछने पर लड़का और जोर से हँसा।

‘‘नहीं-नहीं, मुझे बताओ।’’ वे बोले।

लड़का और जोर से हँसने लगा।

‘‘बताओ.....बताओ।’’ श्री टी.पी. देव ने उसका हाथ पकड़ लिया।

लड़के ने कहा, ‘‘घर जाकर आईना देखना।’’

श्री टी.पी. देव ने फ्लैट में आकर सबसे पहले शीशा देखा। 

आईने में दसियों साल से न हँसा एक गुरु-गंभीर चेहरा देखकर उन्हें सहसा हँसी आ गई।  ■■

2.  स्वाभिमान 

 -  अनिल शूर आज़ाद

एक विवाह समारोह अपने शबाब पर था। हॉल में लगी टेबल्स पर लोग खाने-पीने में मग्न थे। एक तरफ डीजे की तेज धुन पर कुछ युवा थिरक रहे थे। इन सबसे अलग कुछ बच्चे अपनी ही धुन में मस्ती काट रहे थे। हॉल के एक सिरे से दूसरे तक जाना और फिर वापस दौड़ लगाना ही जैसे उनका शग़ल था।

एकाएक धड़ाम की आवाज हुई! देखा, दौड़ते हुए चार-पाँच वर्षीय एक बालक पक्के फर्श पर गिर पड़ा था। अविलंब जाकर उसे उठाया। सबके बीच इस तरह गिरने से, बच्चा सकपकाया तथा कुछ अपमानित भी अनुभव कर रहा था। उठाए जाने पर उसने कहा,"अंकल, मुझे चोट बिल्कुल नहीं लगी!" अपनी टेबल पर लौटते मैंने इतना कहा, "नहीं लगी है, तो अच्छा है, पर..अब जरा ध्यान से खेलो।"

तभी बच्चे की आँखें सामने की टेबल पर मौजूद अपनी माँ से मिली। अगले ही पल..माँ के पल्लू को थाम, दहाड़ मारकर वह रो उठा।  ■■

31 जुलाई - जन्म दिवसः प्रेमचंद ने जैसा देखा वैसा ही लिखा

- रविन्द्र गिन्नौरे
हिंदी साहित्य में एक ऐसा भी लेखक हुआ जिसने समाज की विसंगतियों पर चोट की, जिनकी रचनाओं से जन जागरण का एक दौर चला। अपनी क्रांतिकारी कहानियों से जनमानस में देश प्रेम का जज्बा पैदा किया। अंग्रेजों ने इनकी अनेक रचनाओं पर प्रतिबंध लगाया, जिससे जन क्रांति फैल सकती थी। अपनी कलम से युद्ध लड़ा, उन सभी के खिलाफ, जो सामान्य जीवन को नकारते थे। प्रेमचंद की इन्हीं खूबियों के कारण उन्हें 'कलम का सिपाही' कहा गया। गरीबों के सच्चे हमदर्द रहे प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा, वैसा ही जीवन जीकर एक आदर्श भी समाज के सामने रखा।

  प्रेमचंद के संपूर्ण जीवन को हम देखें कि उनकी कथनी और करनी में कितना सामंजस्य रहा है! वाराणसी के पास एक छोटे से गाँव लमही के कृषक परिवार अजायब लाल के यहाँ 21 जुलाई 1880 को प्रेमचंद जन्में। अपने सभी भाई- बहनों में छोटे होने के कारण इनके चाचा प्यार से 'नवाब राय,' कह कर पुकारते थे। बचपन में इनकी माता का स्वर्गवास हो गया और सौतेली माँ की परवरिश में इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े।

 विवाह भी छोटी उम्र में हुआ, जो नहीं रही, फिर इन्होंने अपने विचारों के अनुरूप बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।

धनपत राय इनका असली नाम है; मगर साहित्य- जगत् में इन्हें इस नाम से नहीं जाना गया। उर्दू में यह अपने उपनाम 'नवाब राय' के नाम से क्रांतिकारी कहानियाँ लिखते रहे। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह नाम 1910 में मुंशी दयाराम निगम के परामर्श से रखा गया, इसी नाम से प्रेमचंद पूरे विश्व में प्रसिद्ध भी हुए। प्रेमचंद ने अपने जीवन में बहुत उतार- चढ़ाव देखे मगर कलम नहीं छोड़ी। लेखन के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी और सिने- जगत् से मोह त्याग दिया। सन् 1900 में अध्यापक बने और पदोन्नत हुए। महात्मा गांधी के पहले सत्याग्रह के शुरुआती दौर में नौकरी छोड़ने वालों में प्रेमचंद भी एक थे।

 प्रेमचंद की रचनाओं में ग्रामीण परिवेश झलकता है; परंतु अंधविश्वास, रूढ़िगत मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। शोषण, अत्याचार के खिलाफ प्रेमचंद ने जेहाद छेड़ रखा था। जमीदारों, पूँजीवादियों की कुरीतियों पर प्रहार किया, तो वहीं उन्होंने सर्वहारा वर्ग के जीवन परिवेश को ज्यों का त्यों अपनी कहानी में उतार दिया। 

   हिंदी से पहले प्रेमचंद उर्दू साहित्य में नवाब राय के नाम से प्रसिद्ध हुए । 1901 में इन्होंने उर्दू में रचनाएँ लिखनी शुरू कीं। उर्दू कथा संग्रह 'सोज़े वतन' को बगावत फैलने के डर से अंग्रेज सरकार ने जप्त कर ली। इन दिनों तिलस्मी और राजा रानी की रूमानी कहानियों और उपन्यासों का दौर था। सब से अलग हटकर आम जनजीवन पर अपनी कलम चलाने वाले प्रेमचंद एक थे। महात्मा गांधी के संपर्क में आने से पहले इन्होंने राष्ट्रीयता को लक्ष्य रखकर कहानियाँ लिखीं और फिर अंधविश्वास, छुआछूत, कुप्रथा को लेकर अपनी कलम चलाई। प्रेमचंद की ऐसी कहानियाँ उस समय काफी लोकप्रिय हुई जो आज भी समसामयिक हैं।

की अपेक्षा हिंदी साहित्य में प्रेमचंद को काफी ख्याति मिली। हिंदी में खड़ी ठेठ भाषा में कौशल चित्रण इन्हें सही सभी साहित्यकारों से अलग करता हुआ विशेष दर्जा देता है। यथार्थ जीवन को चित्रित करने में जो सफलता पाई उससे प्रेमचंद को विश्व स्तरीय स्थान मिला। ग्रामीण जीवन को अपनी कहानियों में अविकल रखा, जिससे भाषा अनुकरणीय होने के साथ जीवंत हो गई। कल्पना और रोमांस से हटकर प्रेमचंद मानवीय संवेदनाओं के मुखर हो गए। हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दौर में प्रेमचंद ने एक नई दिशा दी जिनकी रचनाओं में ग्रामीण जीवन में जीते पात्र आस- निरास के बीच सुखी- संतोषी दिखते हैं। परंपरा से अलग हटकर लिखने के कारण प्रेमचंद को ब्राह्मण द्रोही, जमींदार विरोधी कहा गया, पर यह विरोध उनके सामने ज्यादा दिन नहीं ठहर सका। आडंबर को नकार कर सत्य लिखने का विरोध तो इन्हें सहना ही पड़ा, इसी सहनशीलता ने प्रेमचंद को हिंदी साहित्य में अमर कर दिया जिनकी ऊँचाई को दूसरा लेखक नहीं छू सका।

 प्रेमचंद ने जैसा लिखा, उसे अपने जीवन में उसे ढाला और अपने अभियान के पक्के रहे। जीवन भर की जमा पूंजी को प्रेमचंद ने पत्रकारिता के माध्यम से जनमत एकत्र करने में लगा दी। अपनी नौकरी ठुकरा कर 'हमदर्द' उर्दू के संपादक बने। साप्ताहिक 'प्रताप' में रहने के बाद सन् 1920 में काशी प्रेस से जुड़ गए। 1922 में लखनऊ की साहित्यिक पत्रिका 'माधुरी' में आए, यहाँ उन्हें ऐसी स्वतंत्रता हासिल नहीं हो सकी, जो वे चाहते थे। इन्हीं दिनों गोरखपुर में हुए असहयोग आंदोलन के आह्वान पर प्रेमचंद जेल गए। 'स्वदेश' में प्रेमचंद अंग्रेजों के खिलाफ तीखी टिप्पणी लिखा करते थे, यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है; क्योंकि टिप्पणी में प्रेमचंद का नाम नहीं जाता था। काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के साथ 'मर्यादा' में इन्होंने अपनी संपादन कला का परिचय दिया। काशी से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'जागरण' में संपादक बनकर 1932 में आए जिसका ऐतिहासिक महत्व पत्रकारिता के रूप में आज भी मील का पत्थर है।

  हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रीय सूत्र के साथ नव अध्याय की आकांक्षाओं का सूत्रपात हुआ, प्रेमचंद के 'हंस' प्रकाशन पर। 'हंस' में संपादन की गौरवशाली परंपरा को कायम रखते हुए, देशवासियों की आत्मा की आवाज को जीवंत रखने का यत्न किया गया। 'हंस' के माध्यम से अनेक कथाकारों को प्रेरणा मिली जिन्होंने समाज का सच्चा चित्रण कर आम लोगों के साथ जुड़ने का हौसला रखा। प्रेमचंद के विचारों के अनुरूप तब कई साहित्यकार आगे आए। हंस के माध्यम से प्रेमचंद ने बताया कि 'यथार्थवाद का अर्थ सनकीपन नहीं है'!

 हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में प्रेमचंद ने नए आयाम स्थापित किए। हंस और जागरण ने इन्हें प्रसिद्धि तो दी; परंतु धन नहीं दिया। इन्हीं दिनों मुंबई की एक फिल्म कंपनी ने अपने यहाँ काम करने का प्रस्ताव रखा। फिल्मों के लिए काम कर कुछ कर्ज उतार सकूँ ऐसा विचार कर एक साल तक प्रेमचंद ने काम किया; परंतु फिल्म प्रोड्यूसर के अनुरूप प्रेमचंद अपने आप को नहीं ढाल सके और वहाँ उन्हें सब कुछ निरर्थक- सा लगने लगा और फ़िल्म लाइन ही छोड़ दी। सिनेमा बारे में प्रेमचंद ने एक पत्र लिखा, “सिनेमा साहित्यिक आदमी के लिए नहीं है। मैं इस लाइन में यह सोचकर आया था कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकने की कुछ संभावनाएँ इसमें दिखाई देती थीं; लेकिन अब मैं देख रहा हूँ कि यह मेरा भ्रम था और मैं फिर साहित्य की ओर लौट रहा हूँ। सच तो यह है कि मैंने लिखना कभी बंद नहीं किया और मैं उसे अपना जीवन का लक्ष्य समझता हूँ।"

  प्रेमचंद की रचनाओं में नयापन था। अपनी रचनाओं के बारे में प्रेमचंद ने खुद कहा –“इसमें नयापन कुछ नहीं है जिन की आवाजें, उनके अंतर्मन को साहित्य में लानी चाहिए उन्हीं को लाने के लिए मैंने भरपूर कोशिश की है।” सचमुच प्रेमचंद ऐसे लेखक रहे, जिनके व्यक्तित्व व कृतित्व का एक ही मार्ग था, वही मार्ग आज हम सबके लिए खुला है।   ■■

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कहानीः शेर और लड़का

  - प्रेमचंद

बच्चो, शेर तो शायद तुमने न देखा हो, लेकिन उसका नाम तो सुना ही होगा। शायद उसकी तस्वीर देखी हो और उसका हाल भी पढ़ा हो। शेर अकसर जंगलों और कछारों में रहता है। कभी-कभी वह उन जंगलों के आस-पास के गाँवों में आ जाता है और आदमी और जानवरों को उठा ले जाता है। कभी-कभी उन जानवरों को मारकर खा जाता है, जो जंगलों में चरने जाया करते हैं। थोड़े दिनों की बात है कि एक गड़रिये का लड़का गाय-बैलों को लेकर जंगल में गया और उन्हें जंगल में छोड़कर आप एक झरने के किनारे मछलियों का शिकार खेलने लगा। जब शाम होने को आई तो उसने अपने जानवरों को इकट्ठा किया, मगर एक गाय का पता न था। उसने इधर-उधर दौड़-धूप की, मगर गाय का पता न चला। बेचारा बहुत घबराया। मालिक अब मुझे जीता न छोड़ेंगे। उस वक्त ढूँढने का मौका न था, क्योंकि जानवर फिर इधर-उधर चले जाते; इसलिए वह उन्हें लेकर घर लौटा और उन्हें बाड़े में बाँधकर, बिना किसी से कुछ कहे हुए गाय की तलाश में निकल पड़ा। उस छोटे लड़के की यह हिम्मत देखो; अँधेरा हो रहा है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, जंगल भाँय-भाँय कर रहा है. गीदड़ों का हौवाना सुनाई दे रहा है, पर वह बेखौफ जंगल में बढ़ा चला जाता है।

कुछ देर तक तो वह गाय को ढूँढता रहा, लेकिन जब और अँधेरा हो गया तो उसे डर मालूम होने लगा। जंगल में अच्छे-अच्छे आदमी डर जाते हैं, उस छोटे-से बच्चे का कहना ही क्या। मगर जाए कहाँ? जब कुछ न सूझी, तो एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया और उसी पर रात काटने की ठान ली। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि बगैर गाय को लिए घर न लौटूँगा। दिन भर का थका-माँदा तो था, उसे जल्दी नींद आ गई। नींद चारपाई और बिछावन नहीं ढूँढती।

अचानक पेड़ इतनी जोर से हिलने लगा कि उसकी नींद खुल गई। वह गिरते-गिरते बच गया। सोचने लगा, पेड़ कौन हिला रहा है? आँखें मलकर नीचे की तरफ देखा तो उसके रोएँ खड़े हो गये। एक शेर पेड़ के नीचे खड़ा उसकी तरफ ललचाई हुई आँखों से ताक रहा था। उसकी जान सूख गई। वह दोनों हाथों से डाल से चिमट गया। नींद भाग गई।

कई घण्टे गुजर गए, पर शेर वहाँ से ज़रा भी न हिला । वह बार-बार गुर्राता और उछल-उछलकर लड़के को पकड़ने की कोशिश करता। कभी-कभी तो वह इतने नज़दीक आ जाता कि लड़का जोर से चिल्ला उठता।

रात ज्यों-त्यों करके कटी, सवेरा हुआ। लड़के को कुछ भरोसा हुमा कि शायद शेर उसे छोड़कर चला जाए । मगर शेर ने हिलने का नाम तक न लिया। दिनभर वह उसी पेड़ के नीचे बैठा रहा। शिकार सामने देखकर वह कहाँ जाता। पेड़ पर बैठे-बैठे लड़के की देह अकड़ गई थी, भूख के मारे बुरा हाल था, मगर शेर था कि वहाँ से जौ भर भी न हटता था। उस जगह से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा झरना था। शेर कभी-कभी उस तरफ ताकने लगता था। लड़के ने सोचा कि शेर प्यासा है। उसे कुछ आस बँधी कि ज्यों ही वह पानी पीने जाएगा, मैं भी यहाँ से खिसक चलूँगा। आखिर शेर उधर चला। लड़का पेड़ पर से उतरने की फिक्र कर ही रहा था कि शेर पानी पीकर लौट आया। शायद उसने भी लड़के का मतलब समझ लिया था। वह आते ही इतने जोर से चिल्लाया और ऐसा उछला कि लड़के के हाथ-पाँव ढीले पड़ गए, जैसे वह नीचे गिरा जा रहा हो। मालूम होता था, हाथ-पाँव पेट में घुसे जा रहे हैं। ज्यों-त्यों करके वह दिन भी बीत गया। ज्यों-ज्यों रात होती जाती थी, शेर की भूख भी तेज़ होती जाती थी। शायद उसे यह सोच-सोचकर गुस्सा आ रहा था कि खाने की चीज़ सामने रखी है और मैं दो दिन से भूखा बैठा हूँ। क्या आज भी एकादशी रहेगी? वह रात भी उसे ताकते ही बीत गई।

तीसरा दिन भी निकल आया। मारे भूख के उसकी आँखों में तितलियाँ-सी उड़ने लगीं। डाल पर बैठना भी उसे मुश्किल मालूम होता था। कभी-कभी तो उसके जी में आता कि शेर मुझे पकड़ ले और खा जाए। उसने हाथ जोड़कर ईश्वर से विनय की, भगवान, क्या तुम मुझ गरीब पर दया न करोगे?

शेर को भी थकावट मालूम हो रही थी। बैठे-बैठे उसका जी ऊब गया । वह चाहता था किसी तरह जल्दी से शिकार मिल जाए। लड़के ने इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई कि कोई नज़र आ जाए, मगर कोई नजर न आया। तब वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। मगर वहाँ उसका रोना कौन सुनता था।

आखिर उसे एक तदबीर सूझी। वह पेड़ की फुनगी पर चढ़ गया और अपनी धोती खोलकर उसे हवा में उड़ाने लगा कि शायद किसी शिकारी की नजर पड़ जाए। एकाएक वह खुशी से उछल पड़ा। उसकी सारी भूख, सारी कमजोरी गायब हो गई। कई आदमी झरने के पास खड़े उस उड़ती हुई झण्डी को देख रहे थे। शायद उन्हें अचम्भा हो रहा था कि जंगल के इस पेड़ पर झण्डी कहाँ से आई। लड़के ने उन आदमियों को गिना एक, दो, तीन, चार।

जिस पेड़ पर लड़का बैठा था, वहाँ की जमीन कुछ नीची थी। उसे ख्याल आया कि अगर वे लोग मुझे देख भी लें, तो उनको यह कैसे मालूम होगा कि इसके नीचे तीन दिन का भूखा शेर बैठा हुआ है। अगर मैं उन्हें होशियार न कर दूँ, तो यह दुष्ट किसी-न-किसी को जरूर चट कर जाएगा। यह सोचकर वह पूरी ताकत से चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनते ही वे लोग रुक गए और अपनी-अपनी बन्दूकें सम्हालकर उसकी तरफ ताकने लगे।

लड़के ने चिल्लाकर कहा-होशियार रहो! होशियार रहो! इस पेड़ के नीचे एक शेर बैठा हुआ है!

शेर का नाम सुनते ही वे लोग सँभल गए, चटपट बन्दूकों में गोलियाँ भरी और चौकन्ने होकर आगे बढ़ने लगे।

शेर को क्या ख़बर कि नीचे क्या हो रहा है। वह तो अपने शिकार की ताक में घात लगाए बैठा था। यकायक पैरों की आहट पाते ही वह चौंक उठा और उन चारों आदमियों को एक टोले की आड़ में देखा। फिर क्या कहना था। उसे मुँह माँगी मुराद मिली। भूख में सब्र कहाँ। वह इतने ज़ोर से गरजा कि सारा जंगल हिल गया और उन आदमियों की तरफ़ ज़ोर से जस्त(उछाल) मारी। मगर वे लोग पहिले ही से तैयार थे। चारों ने एक साथ गोली चलाई। दन! दन! इन! दन! आवाज़ हुई। चिड़ियाँ पेड़ों से उड़-उड़कर भागने लगीं । लड़के ने नीचे देखा, शेर ज़मीन पर गिर पड़ा था। वह एक बार फिर उछला और फिर गिर पड़ा। फिर वह हिला तक नहीं।

लड़के की खुशी का क्या पूछना। भूख-प्यास का नाम तक न था। चटपट पेड़ से उतरा, तो देखा सामने उसका मालिक खड़ा है। वह रोता हुआ उसके पैरों पर गिर पड़ा। मालिक ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया और बोला--क्या तू तीन दिन से इसी पेड़ पर था?

लड़के ने कहा--हाँ, उतरता कैसे? शेर तो नीचे बैठा हुआ था।

मालिक-हमने तो समझा था कि किसी शेर ने तुझे मार कर खा लिया। हम चारों आदमी तीन दिन से तुझे ढूँढ रहे हैं। तूने हमसे कहा तक नहीं और निकल खड़ा हुआ।

लड़का- मैं डरता था, गाय जो खोई थी ।

मालिक-अरे पागल, गाय तो उसी दिन आप ही आप चली आई थी।

भूख-प्यास से शक्ति तक न रहने पर भी लड़का हँस पड़ा।  ■■