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Jul 1, 2023

व्यंग्यः ध्वस्त करने के विशेषज्ञ

  - विनोद साव

वे कहते हैं कि उनके घोष- वाक्य पर आस्था न रखने वालों को तुरन्त ध्वस्त कर देना चाहिए। कहा कि विशेषज्ञता की क्या जरूरत, हमारा तो यह खानदानी पेशा है कि अच्छे- अच्छों को ध्वस्त कर देते हैं.. बाप- दादों के ज़माने से चला आ रहा है। ध्वस्त करने की सुदृढ़ परंपरा है हमारे यहाँ। पता भर चलने पाए कि किसे करना है और कब? हम निकल पड़ते हैं.. और काम तमाम करके ही लौटते हैं.. कभी-कभी लौटते भी नहीं हैं और जरूरत पड़ी, तो आगे भी इसी काम से निकल जाते हैं। हमारे ध्वस्त किए हुए लोग फिर कभी खड़े नहीं होते, पानी भी नहीं माँगते हैं।। प्राण छोड़ देते हैं। बोलिए आप कैसे आए? किसी को ध्वस्त करना है?

उनके घर में एक विशाल बुलडोजर का चित्र  टँगा था। मैंने पूछा- “इसे यू.पी. से मँगवाया है क्या?”

“हमीं ने बनाया है। हमारा बनाया ही यू.पी. में चल रहा है.. और कुछ दीगर राज्यों में भी अच्छा काम कर रहा है, चर्चा है.. आपने भी सुना होगा। ये बुलडोजर हम उन राज्यों को सप्लाई कर रहे हैं, जहाँ हमारी सरकारें चलती है। वहाँ बस हमारी चलती है। और जो चलता है वह बुलडोजर है। बुलडोजर के चलने से यह फायदा है कि वहाँ न कुछ चलता है न किसी की चलती है।”

“पर लोकतंत्र में इस तरह बुलडोजर चला देना, कहाँ तक न्याय-संगत है? संविधान है, न्याय-प्रणाली है, चुनाव आयोग है सबके अपने काम करने के ढंग हैं। इनके द्वारा किसी को सजा देनी है या किसी को चोट पहुँचानी है, तो वह भी लोकतान्त्रिक ढंग से पहुँचानी है। विचारधारा, विचारधारा होती है कोई बुलडोजर नहीं कि इसे कहीं भी चला दिया!”

“विचारों और विचारधारा का जमाना गया। अब बुलडोजर का जमाना है। ज्यादा हल्ला करने का नहीं। जहाँ हल्ला हुआ, वहाँ बुलडोजर चला दिया।” यह कहकर वे बाहर खड़े बुलडोजर पर कुछ गैंती फावड़े वालों को लेकर बैठ गए और उस तरफ निकल पड़े, जिधर बुलडोजर चलाने का आदेश उन्हें मिला था।

जाहिर है कि आज के इस पेशेवर समय में वे ध्वस्त करने का ठेका लेते हैं.. और इस ठेके में वे, विपक्ष में जी खा रहे लोगों को नेस्तानाबूद करते चलते हैं। वह सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहते हैं। बुलडोजर चलाने के बाद बची चीजों की मार से भी उन्हें ध्वस्त करना आता है। वे ध्वस्त करने वाली कई एजेंसियों से जुड़ गए हैं।। और दूसरों का नेटवर्क ध्वस्त कर देते हैं।

ध्वस्त करने का ठेका केवल धर्म और राजनीति में ही नहीं, अन्यान्य क्षेत्रों में भी लेने वाले लोग हैं। वे पूछते हैं - “आपकी गोष्ठी कब तक चलेगी।। आते हैं हम।” वे ऐसे कई कार्यक्रमों में सद्भावपूर्वक आते हैं और आपकी व्यवस्था में सहयोग देने के बहाने कुछ सुधार चाहते हैं। जिसमें वे बैठक व्यवस्था में परिवर्तन करवाते हैं- “डायस और माइक को किनारे कर दें और श्रोताओं को ऐसे गोल घेरे में बिठा दें कि सब लोग अपनी बात कह सुन सकें, ताकि गोष्ठी में ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके। वे सबसे पहले बोलकर किसी जरूरी काम का हवाला देकर निकल जाते हैं। फिर उनके आगमन और जल्दी जागमन को लेकर आपत्तियाँ आती हैं.. और इन्हें कौन बुलाया था की चिल्लपों मच जाती है तब पता चलता है कि वे आपका कार्यक्रम ध्वस्त करके जा चुके हैं। यह एक दुर्लभ विशेषज्ञता है जो कभी-कभी देखने में आती है।

उनकी नजर मुख्य-अतिथियों पर होती है। अगर आपके कार्यक्रम के अतिथिगण समय पर नहीं पहुँच रहे हैं, तो यह अनायास नहीं; किसी के सायास उपक्रम का नतीजा है। आपके मुख्य-अतिथि अपहृत हो चुके होते हैं। वे नजरबंदी से छूटेंगे तब ही आपके कार्यक्रम में पहुँचेंगे, आपको कृतार्थ कर पाएँगे। ऐसे मुख्य अतिथि आते ही कह देते हैं - “भई देखिए हमारे जाने का समय निश्चित है।” वे घड़ी देखते हैं और जाने की जल्दी करते हैं। वे तुरत- फुरत आपके कार्यक्रम के शेड्यूल को धता बताते हुए निकल भागते हैं। उनकी इस विशेषज्ञता से आयोजक इस बात का श्रेय ले जाते हैं कि कार्यक्रम उनका भले ही समय पर आरंभ न हुआ हो, पर ख़तम तो बिलकुल समय पर हुआ है। ऐसे कुछ आयोजक भी होते हैं जो अतिथियों से स्वीकृति लेते समय कह देते हैं - “श्रीमान जी! विलम्ब से आते समय भी समय का ध्यान रखें; क्योंकि हमारा उद्घाटन समारोह समय पर हो, न हो पर समापन समारोह का समय तय है।” ऐसे आयोजक किसी भी अतिथि की गौरव-गरिमा को ध्वस्त कर देते हैं।

वे आए हुए अतिथियों के पीछे पड़ जाते हैं और अध्यक्ष की अनुमति से कुछ कहना चाहते हैं। अध्यक्ष महोदय कहते हैं कि महाशय जी आप धाकड़ वक्ता हैं।। और किसी भी सभा में आते है तो छा जाते हैं। आपका लोहा सब मानते हैं.. पर सदाशयतापूर्वक विचार करें कि इन मुख्य-अतिथि महोदय को फ्लाइट से आमंत्रित किया गया है। इनके पीछे पच्चीस- पचास हजार का खर्चा हुआ है।। और आप कहीं उनके सामने मुखरित हो उठेंगे, तो ये बेचारे तो ध्वस्त हो जाएँगे। कभी कभी बिना पेमेंट वाला लोकल आर्टिस्ट ‘हाइली पेड’ अतिथियों पर भारी पड़ जाता है। ऐसे आक्रामक वक्ताओं से अपने अतिथियों को बचाने का संकट सामने होता है।    

एक महाशय विपरीत धारा पर चलने में विश्वास रखते हैं। वे सदैव ध्वस्त होने की मुद्रा में विराजमान रहते हैं। उन्हें देखने से लगता है कि अभी- अभी कोई उनके अखंडित व्यक्तित्व को खंडित करके गया है। या किसी संभावित विनाश का उन्हें पूर्वाभास हो गया है इसलिए स्वयमेव ध्वस्त होने का पूर्वाभ्यास कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं है बल्कि वे बड़े साधक हैं और उन्होंने अपनी भाव-भंगिमा को स्थायी ध्वंस से भर दिया है। वे ध्वंसावशेष की चादर ओढ़ते-बिछाते हैं और अपनी साधक मुद्रा में बने रहते हैं। उनकी यह मुद्रा शहर में ध्वस्त करने वाले विशेषज्ञों के लिए एक बड़ी चुनौती है। उनका विलोम रूप खाँटी विशेषज्ञों को भी ध्वस्त कर देता है। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं- ‘जय जयकार किया मुनियों ने, दस्युराज यों ध्वस्त हुआ।’  

बकौल मुद्रा राक्षस- मैं उसे देख लूँगा- मैं तुम्हें देख लूँगा यह भी एक जुमला है। कुछ लोग यही करतब दिखाते फिरते हैं- ‘मैं तुम्हें देख लूँगा। लेख लिखकर ध्वस्त कर दूँगा। लोग ध्वस्त होते भी हैं। वे ध्वस्त हो भी गए। वे बच गए वरना वे भी ध्वस्त हो चुके थे।

इस पद्धति के लेखन में कुछ विशेषज्ञों ने बड़ी ख्याति पाई थी। मैंने भी किसी ज़माने में कुछ तीर तुक्के छोड़े थे मगर वे जमें नहीं।

वे दिन अद्भुत थे साहब। लोग अपना लिखने के बजाय दूसरों का गुड-गोबर करने में ज्यादा रुचि रखते थे। कुछ लोग तो बकायदा पत्रिकाएँ ही इसी काम को सरअंजाम देने के लिए छापते थे। कभी- कभी ऐसा भी होता था कि जिसे ध्वस्त किया गया, तो वह स्वयं यही काम शुरू कर देता था। ऐसी हालत में वह दूसरों के लिए ज्यादा विपत्ति खड़ी कर देता था।

हाय! वे कैसे अच्छे दिन थे। अब साहित्य में वह आनंद कहाँ- ‘लोग सिर झुकाए दर्जियों की तरह शांतिपूर्वक साहित्य के पायजामे सिलते रहते हैं। पहले का वक्त होता तो वे सिलने से ज्यादा दूसरों की सुई तोड़ने या सिला हुआ उधेड़ देने में रुचि लेते।’

वैसे आमतौर पर यह परम्परा समाप्त हो गई है, मगर कुछ महारथी ख़ुफ़िया तौर पर आज भी इसी का अभ्यास करते रहते हैं। हाँ.. अब वे लेख नहीं लिखते; बल्कि वहाँ बदला लेते हैं, जहाँ वे कमेटियों के सदस्य हों। वे बने ही दूसरों को ध्वस्त करने के लिए हैं। अपना निर्माण करने से कहीं ज्यादा दूसरों का ध्वस्त करने पर उनका विश्वास है.. और अपने विश्वास पर वे इस कदर अडिग हैं कि कोई दूसरा उन्हें ध्वस्त न कर सके।

..और भी हैं पर मैंने तो इस विध्वंस चर्चा में कुछ क्षेपक घुसेड़े हैं। ■■

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छ. ग.) 491001, मो. 9009884014


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