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Jul 1, 2023

दो लघुकथाएँः

  1. हँसी  

 -  असगर वज़ाहत

श्री टी.पी. देव एक शरीफ शहरी थे। अपने काम से काम रखते थे। न किसी से लेना एक, न देना दो। रोज सुबह पौन आठ बजे ऑफिस के लिए निकलते थे और शाम सवा छह बजे घर पहुँचते थे। टी.वी. देखते थे। खाना खाते थे। सो जाते थे।

अचानक पता नहीं कैसे, एक दिन उन्होंने सोचा कि पिछली बार वे कब हँसे थे? उन्हें याद नहीं आया। सोचते-सोचते थक गए और पता न चला, तो उन्होंने अपनी डायरियाँ, कागज-पत्र उलट-पुलटकर देखे, पर कहीं दर्ज न था कि पिछली बार कैसे कब हँसे थे।

फिर वे डॉक्टर के पास गए। उन्होंने बताया कि उन्हें लगता है कि वे शायद कभी हँसे ही नहीं हैं। कहीं यह कोई बीमारी तो नहीं है?

डॉक्टर बोला, ‘‘नहीं, यह बीमारी नहीं है, क्योंकि बीमारियों की किताब में इसका जिक्र नहीं है।’’

परंतु श्री टी.पी. देव संतुष्ट नहीं हुए। वे दसियों डॉक्टरों, हकीमों, वैद्यों से मिले। सबसे यही सवाल पूछा। सबने वही जवाब दिया। श्री टी.पी. देव की परेशानी बढ़ती चली गई। 

एक दिन श्री टी.पी. देव फ्लैट में आने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, तो उन्होंने एक लड़के को हँसते हुए देखा। वे आश्चर्य से देखते के देखते रह गए। फिर उससे पूछा, ‘‘बताओ, तुम कैसे हँसते हो?’’

यह पूछने पर लड़का और जोर से हँसा।

‘‘नहीं-नहीं, मुझे बताओ।’’ वे बोले।

लड़का और जोर से हँसने लगा।

‘‘बताओ.....बताओ।’’ श्री टी.पी. देव ने उसका हाथ पकड़ लिया।

लड़के ने कहा, ‘‘घर जाकर आईना देखना।’’

श्री टी.पी. देव ने फ्लैट में आकर सबसे पहले शीशा देखा। 

आईने में दसियों साल से न हँसा एक गुरु-गंभीर चेहरा देखकर उन्हें सहसा हँसी आ गई।  ■■

2.  स्वाभिमान 

 -  अनिल शूर आज़ाद

एक विवाह समारोह अपने शबाब पर था। हॉल में लगी टेबल्स पर लोग खाने-पीने में मग्न थे। एक तरफ डीजे की तेज धुन पर कुछ युवा थिरक रहे थे। इन सबसे अलग कुछ बच्चे अपनी ही धुन में मस्ती काट रहे थे। हॉल के एक सिरे से दूसरे तक जाना और फिर वापस दौड़ लगाना ही जैसे उनका शग़ल था।

एकाएक धड़ाम की आवाज हुई! देखा, दौड़ते हुए चार-पाँच वर्षीय एक बालक पक्के फर्श पर गिर पड़ा था। अविलंब जाकर उसे उठाया। सबके बीच इस तरह गिरने से, बच्चा सकपकाया तथा कुछ अपमानित भी अनुभव कर रहा था। उठाए जाने पर उसने कहा,"अंकल, मुझे चोट बिल्कुल नहीं लगी!" अपनी टेबल पर लौटते मैंने इतना कहा, "नहीं लगी है, तो अच्छा है, पर..अब जरा ध्यान से खेलो।"

तभी बच्चे की आँखें सामने की टेबल पर मौजूद अपनी माँ से मिली। अगले ही पल..माँ के पल्लू को थाम, दहाड़ मारकर वह रो उठा।  ■■

1 comment:

शिवजी श्रीवास्तव said...

दोनों ही लघुकथाएँ अद्भुत हैं।असगर वजाहत जी की 'हँसी' यांत्रिक जीवन जीते ,आपाधापी में फँसे व्यक्तियों के लिए एक सार्थक सन्देश है..जीवन मे थोड़ी सहजता थोड़ा उल्लास आवश्यक है,वहीं अनिल शूर आजाद जी की लघुकथा' स्वाभिमान'बाल मनोविज्ञान को बहुत बारीकी से उभरती है।सुंदर लघुकथाएँ देने हेतु सम्पादक जी को धन्यवाद।