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Jul 1, 2023

सॉनेटः तितली के पँखों पर

    





    - अनिमा दास

‘असमर्थ हो’ जग ने कहा, ‘समर्थ हूँ’ मैंने कहा 

दिव्यांगता की कहानी में मेरा नाम सदा ही रहा

'संपूर्ण नहीं हो' उसने कहा, दो बूँद अश्रु गए ढल 

पीड़ा से मुक्ति चाहता था मैं.. काँपता रहा अंतस्थल। 


विकलता के चरम पर, लगता मुझे सर्वोच्च शृंग शिखर ?

मैंने सरीसृप- सा रेंगते हुए छू लिया अंततः ..पद प्रस्तर

त्यागा कितनों ने, अभिशाप, लांछन व तिरस्कार दिए? 

मैं नहीं, मेरे अंग हैं विवश.. कहा, नव संकल्प लिए।


मानव मंत्र अथवा परिवर्तन तंत्र, का करते मिथ्या चिंतन

असहायता के निर्मम सेतु पर क्यों सो रहा यह जीवन?

तुमने बनाया? उसने बनाया? या किसने है बनाया?

मेरे अंग दिव्य हैं, अतः मैं दिव्य हूँ, ईश्वर ने ही बताया।


मैं भी लाँघ जाऊँगा नदी.. निर्झर..शैल कभी नदराज

चढ़कर तितली के पंखों पर छू आऊँगा मैं हिमताज।।


- कटक, ओड़िशा


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