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Nov 2, 2025

चिंतन- मननः जीवन की सुंदरता

 - अंजू खरबंदा  

मनुष्य का मन एक अद्भुत साधन है- विचारों का महासागर। इसी से सभ्यताएँ जन्म लेती हैं, इसी से ज्ञान का प्रवाह होता है और इसी से जीवन दिशा पाता है; लेकिन जब यही मन अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगे, तो सृजन का स्रोत ही पीड़ा का कारण बन जाता है। यही स्थिति है ओवरथिंकिंग की!

‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’ (भगवद्गीता – अध्याय 2, श्लोक 66)

इसका विस्तृत अर्थ है –‘जिसका मन अशांत है, उसे सुख कहाँ से प्राप्त

हो सकता है?’

यह श्लोक गीता का अत्यंत गूढ़ संदेश देता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब तक मन स्थिर और शांत नहीं होगा, तब तक कोई भी व्यक्ति सच्चे सुख, ज्ञान या आनंद को अनुभव नहीं कर सकता। बाहरी वस्तुओं से मिलने वाला आनंद क्षणिक होता है, किंतु मन की शांति ही स्थायी सुख का स्रोत है; इसीलिए ओवरथिंकिंग के संदर्भ में यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है। जब मन निरंतर विचारों, चिंताओं और कल्पनाओं में उलझा रहता है, तो वह 'अशांत' हो जाता है। उस अशांत मन में सुख, आनंद या स्वास्थ्य का निवास संभव नहीं। गीता का यह संदेश हमें याद दिलाता है कि मन को शांत करना ही जीवन को सुंदर बनाना है। जब विचारों का शोर कम होता है, तभी भीतर की आत्मा की आवाज़ सुनाई पड़ती है।

इस तरह कहा जा सकता है कि ओवरथिंकिंग मन की जड़ता है। जिस प्रकार कोई मशीन लगातार चलते-चलते थक जाती है और धीमी पड़ जाती है, उसी प्रकार निरंतर चिंतन मन को बोझिल और निष्क्रिय बना देता है। इसका परिणाम है- अनिद्रा, सिरदर्द, चिंता, चिड़चिड़ापन और कई शारीरिक बीमारियाँ। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है कि अधिकतर बीमारियों की जड़ मानसिक असंतुलन और तनाव ही है।

अब प्रश्न यह उठता है कि इससे बचा कैसे जाए? 

उत्तर सरल है जितना छोड़ना सीखेंगे, उतना स्वस्थ रहेंगे। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि हर परिस्थिति को वह नियंत्रित नहीं कर सकता। कई बार हालात को स्वीकार करना ही समाधान होता है। यदि हम हर छोटी घटना पर बार-बार विचार करेंगे तो मन पर बोझ बढ़ेगा; लेकिन यदि उन्हें सहज भाव से छोड़ देंगे, तो मन हल्का रहेगा। सोचिए, पर उतना ही जितना ज़रूरी हो।

सोचना मानवीय क्षमता है और जीवन के विकास का आधार भी! योजनाएँ बनाना, निर्णय लेना, भविष्य के लिए तैयारी करना-ये सब सोच पर ही निर्भर है; लेकिन जब यही सोच आवश्यकता से अधिक हो जाए, तो यह क्षमता विनाशकारी रूप ले लेती है। जैसे नमक भोजन का स्वाद बढ़ाता है पर आवश्यकता से अधिक होने पर स्वाद बिगाड़ भी देता है, ठीक वैसे ही सोच भी सीमित हो तो लाभकारी होती है और असीमित हो तो हानिकारक!

आधुनिक मनोविज्ञान यह बताता है कि ‘स्वस्थ मन ही स्वस्थ शरीर की चाबी है।’ यदि मन संतुलित, शांत और प्रसन्न है तो शरीर में भी सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। इसलिए ध्यान, योग, प्राणायाम, संगीत, लेखन या प्रकृति के बीच समय बिताना ओवर थिंकिंग को कम करने के सरल उपाय हो सकते हैं। अंततः जीवन का सार यही है वर्तमान क्षण को जीना! जो बीत गया उसे पकड़कर बैठना व्यर्थ है, और जो आने वाला है उसकी अनिश्चितताओं पर चिंता करना भी निरर्थक है । संतुलित विचार ही जीवन की दिशा बदलते हैं। याद रखिए 'मन को जितना हल्का रखेंगे, जीवन उतना ही सुंदर और स्वस्थ होगा।'

उपनिषद् का एक संदेश है : ‘शान्तो दान्त उपरतः तितिक्षुः समाहितो भवति’ (जो शांत, संयमी और सहनशील है, वही समाहित होकर सत्य को प्राप्त करता है।)

अतः स्वस्थ मन केवल स्वस्थ शरीर की ही नहीं, बल्कि मुक्त आत्मा की भी चाबी है। जब मन ओवरथिंकिंग के बोझ से मुक्त होता है, तभी भीतर का सच्चिदानंद स्वरूप प्रकट होता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है मुक्ति का मार्ग भीतर से ही निकलता है :

* छोड़ना एक साधना है। जिस बात का हल नहीं, उसे मन में बार-बार दोहराना केवल बोझ है।

* ध्यान और मौन विचारों की धारा को थामते हैं और आत्मा को चमकने का अवसर देते हैं।

* योग और प्राणायाम मन को अनुशासन में रखते हैं जैसे घोड़े की लगाम।

* सत्संग और अध्यात्म हमें यह स्मरण कराते हैं कि हम केवल शरीर-मन नहीं, बल्कि शुद्ध आत्मा हैं।

जैसे नदी अंततः सागर में मिलकर अपनी बेचैनी खो देती है वैसे ही मन जब आत्मा में विलीन होता है तब उत्तम स्वास्थ्य और सुख प्रकट होता है।

1 comment:

  1. विचारणीय लेख।बधाई आपको।

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