प्रादेशिक शिक्षा विभाग में डिग्री कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर होने के बाद परिवार के दबाव में मुझे भी आधुनिकता का तमगा लगाना पड़ा। अर्थात मुफस्सिल में एक हवेलीनुमा पैतृक मकान होते हुए भी महानगर में आधुनिकता का झंडा फहराने के लिए एक डुप्लेक्स मकान खरीदना पड़ा। आधुनिक कहलाने के लिए छोटे शहर का मूल निवासी होने का तथ्य किसी शर्मनाक अपराध की तरह छिपाना अनिवार्य होता है। सो भइये मैं भी आधुनिकता के भंवरजाल में फंसा एक तिनका हूं।
लेकिन मामला कुछ ज्यादा ही संगीन है। जिस प्रकार से आधुनिक से आधुनिक रमणी को दाई से पेट नहीं छुपाना चाहिए, उसी तरह से मेरा मानना है, लेखक को पाठक से असलियत नहीं छुपाना चाहिए। तो साहब असलियत यह है कि मैं आधुनिकता की महामारी से ग्रस्त हूं। बीमार हूं। और बीमारी भी कैसी? लाइलाज। ऐसे में जीने का सहारा मन को बीमारी से हटाकर कहीं और लगाना होता है। मैं अपना मन अपने छोटे से शहर में बीते जीवन की मधुर स्मृतियों में लगाता हूं। और राहत पा जाता हूं। कम खर्च बाला नशीं।
अहा। बचपन के दिन भी क्या दिन थे। अंग्रेजों का बसाया हुआ जिले के मुख्यालय और फौजी छावनी वाला गंगा के किनारे छोटा सा साफ सुथरा शहर। हमारा प्यारा फतेहगढ़- जिला फर्रुखाबाद (उत्तरप्रदेश) का मुख्यालय जहां आज भी एक सिनेमा हाल तक नहीं है। गंगा जी के एक किनारे पर शहर दूसरे किनारे पर गांव। रेल पटरी के एक तरफ शहर और दूसरी तरफ खेत और गांव। समझ में ही नहीं आता था कि कहां शहर समाप्त होता था और कहां से गांव शुरु होता था।
ऐसे में क्या ताज्जुब कि मनोरंजन के सार्वजनिक साधन सिर्फ वार्षिक रामलीला, गंगा दशहरा तथा कुछ प्रमुख मंदिरों पर होने वाले मेले थे। मंदिरों वाले मेलों की एक विशिष्टता थी कि दिन ढलने के साथ ही मंदिर के निकट नौटंकी का मंच सजने लगता था। रात भर नौटंकी मंचन मंदिरों के वार्षिक उत्सव का अनिवार्य अंग हुआ करता था।
'मुन्नी बदनाम हुई ...' पर तन मन धन न्यौछावर करने वाली आज की युवा पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि इस प्रकार के 'हॉट आइटम सांग' का मूल स्रोत नौटंकी ही है। आज से अर्धशताब्दी पहले तक उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश के विशाल ग्रामीण क्षेत्र और शहरों में भी नौटंकी सबसे ज्यादा पापुलर मनोरंजन का साधन हुआ करती थी।
मेरे घर के निकट जिले का सबसे प्रसिद्ध हनुमानजी का मंदिर भी है। इस मंदिर की विशिष्टता है कि इसमें महावीर हनुमान जी की 6 या 7 मीटर ऊंची बड़ी ही भव्य प्रतिमा है। शहर की मुख्य सड़क पर स्थित इस मंदिर में मंगलवार और शनिवार को श्रद्धालुओं (जिनमें अधिकांशत: युवक और युवतियां ही होते हैं) की भारी भीड़ होती है। जहां प्रौढ़ाएं अपनी पुत्रियों के लिए सुयोग्य वर पाने के लिए दस आने या बीस आने का प्रसाद बाल ब्रम्हचारी बजरंगबली को अर्पित करती थीं। वहीं उनके साथ आई सजी धजी युवा पुत्री उनके पीछे खड़ी जल्दी से चाट की दुकान पर पहुंच कर 'मैं तुझसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने' को चरितार्थ करने को आतुर रहती थी। दामाद पाने की अम्मा की मुराद पुरी होती थी या नहीं कहना मुश्किल है परंतु यह सत्य है कि चाट की दुकान पर मंडराते यार के दीदार की बिटिया रानी की मुराद तुरंत पूरी होती थी। साथ ही गोलगप्पे और आलू की टिक्की का मजा बोनस में।
इन्हीं बाल ब्रम्हचारी हनुमानजी के वार्षिकोत्सव में रात को नौटंकी भी होती थी। नौटंकी को लेकर मुहल्ले के नाई, धोबी, हलवाई, पानवालों, खोमचों वालों में एक दो हफ्ते पहले से ही गहमा- गहमी रहती थी। आसपास के गांवों से आने वाले सहपाठी भी नौटंकी की चर्चा चटखारे लेकर करते थे। घर के बाहर का वातावरण दस- पंद्रह दिन पहले से नौटंकी की महिमा में डूब जाता था।
दस ग्यारह वर्ष की उमर से इस माहौल में मेरा मन भी नौटंकी देखने के लिए ललचाता था। परंतु पिता और चाचा सरकारी अफसर थे अत: मध्यमवर्गीय नैतिकता के मजबूत पत्थर से मेरी चाहत बरसों कुचली जाती रही। जब भी मैं नौटंकी देखने के लिए रिरियाता, घर के बड़े आंखें तरेर कर कहते नौटंकी शरीफ लोगों के देखने की चीज नहीं। मेरे अभिभावक चाचाजी तो बहुत ही स्पष्टवादी थे। कहते थे नौटंकी जाने के बारे में सोचा भी तो टांगे तोड़ दूंगा। साथ ही चाचा जी
कथनी और करनी में फर्क भी नहीं करते थे। अत: बरसों लगता रहा 'बहुत कठिन है डगर पनघट की।'
साल पर साल बीतते गए और हर साल नौटंकी का नगाड़ा मुझे ललकारता रहा। जवानी ने मेरे तन में पदार्पण किया और ऊपरी ओंठ पर उगती रेख ने मध्यमवर्गीय नैतिकता की भूल- भुलइया में कभी- कभी सेंध लगाने की युक्ति भी सुझाई। चाचाजी सूरज डूबने के साथ सोने लगते थे। नौटंकी रात में 10 बजे के बाद शुरु होती थी। चाचाजी के कड़े अनुशासन को चाचीजी अपने लाड़- प्यार से बैलेन्स करती थी। चाची को पोट कर पिछले दरवाजे से बाहर निकल नौटंकी की चटपटी दुनियां में पहुंच जाता था।
क्या रंगीन समा होता था। त्रिमोहन गुलाब बाई की नौटंकी। इन्हें इनके असंख्य प्रशंसक प्यार से तिरमोहन और गुलबिया कहते थे। त्रिमोहन प्रोड्यूसर और डाइरेक्टर थे तथा गुलाब बाई हीरोइन। तत्कालीन नौटंकी जगत में त्रिमोहन और गुलाब बाई की जोड़ी शीर्ष स्थान पर थी। वे नौटंकी जगत के राजकपूर नरगिस थे।
मंदिर के बगल में सड़क के किनारे खुली जगह में दो तीन तखत जोड़कर मंच बनाया जाता था। तखत पर दरी बिछी होती थी। मंच के पीछे एक छोटा सा तम्बू होता था जो ग्रीनरूम का काम करता था। तखत के सामने नीचे एक कोने में नगाड़े बजाने वाला और हारमोनियम बजाने वाला जिसे पेटी मास्टर कहते थे, बैठते थे। अब जायजा लीजिए दर्शक दीर्घा का।
मंच के सामने आसपास के घरों से मांगकर एक टूटे- फूटे सोफे और कुर्सियों की एक पंक्ति लगाई जाती थी। गणमान्य व्यक्तियों के लिए। गणमान्य दर्शकों से अभिप्राय है इलाके का दरोगा, इलाके के दादा जो चाकू से कत्ल करने में स्पेशलिस्ट थे। टाल के मालिक, किराने की दुकान वाले लाला तथा आस- पास के गांवों के लम्बरदार जो अपनी दुनाली बंदूकों के साथ आते थे। शेष सब दर्शक खड़े- खड़े मजा लेते थे। सब कुछ खुले आसमान के नीचे। जिसकी जब मर्जी हो, जैसे मर्जी हो, आए। जब मर्जी हो जाए। कोई रोक- टोक नहीं। खरा खेल फर्रुखाबादी। जिसकी वजह से गंगा- जमुना के दोआबे में सिनेमा कभी भी नौटंकी का मुकाबला नहीं कर पाया। सिनेमा में तो ज्यादातर समय अंधेरे में बैठे हुए स्क्रीन पर ही ध्यान केंद्रित रहता है। दर्शकों का जायजा तो सिर्फ इंटरवल में ही लिया जाता है। जबकि नौटंकी में मंच पर कलाकारों की हरकतों और दर्शकों की हरकतों में इतना तगड़ा कम्पटीशन रहता था कि यह कहना मुश्किल होता था कि दोनों में से कौन ज्यादा मजेदार है।
जो दुकानदार- लाला और लकड़ी के टाल वाले- हमेशा 8- 10 दिन की दाढ़ी बढ़ाए मटमैली धोती और बनियान में कान में बीड़ी लगाए देखे जाते थे वे सब गुलदस्तों की तरह दमक रहे होते थे। शेव किया हुआ चमकता चेहरा, इफरात से तेल लगाकर संवारे हुए बाल और मूंछे, मुंह में पान और होठों पर उसकी लाली, आंखों में सुरमा और कान में इतर का फाहा, बुर्राक कल$फ लगे कड़क कुर्ता और धोती, कंधे पर नया गमछा, पैरों में पालिश किए हुए जूते और हाथ में सिगरेट का पैकेट और माचिस। इन सबके चेहरों पर तमाशे का सबसे खास मुन्त•िाम होने की अकड़। दरोगा के आते ही उनमें होड़ लग जाती थी, उनके बगल में बैठकर बेहतरीन चापलूस की तरह दरोगाजी को पान- सिगरेट पेश करने की। लेकिन दरोगा के अगल बगल दो ही गणमान्य बैठ सकते थे इसलिए शेष गणमान्य ग्रीनरूम वाले तम्बू के आसपास मंडराया करते थे। शेष दर्शकों की भीड़ में जहां जिसको जगह मिलती थी खड़ा रहता था।
नौटंकी की जान है नगाड़ा जो सूरज डूबने के साथ- साथ अपनी गमकती धाप से नौटंकी का विज्ञापन करने लगता था। नगाड़े की ध्वनि से ही कई किलोमीटर के दायरे में शौकीन कद्रदान मेहरबान गुलाब बाई के दीदार के लिए रतजगा करने
को प्रोत्साहित होते थे। नगाड़ची रह- रह कर 10-15 मिनट तक अपना कमाल दिखाता रहता था फिर बैठकर सुस्ताने लगता था और नगाड़े से अगली भिड़त के लिए गांजे की चिलम को गहरी खींच कर बाजूओं में दम भरता था। असलियत में तो नगाड़े का नौटंकी में वही स्थान था जो मानव शरीर में हृदय का है। नगाड़ा बजाने में त्रिमोहन की ख्याति वैसी ही थी जैसी कि तबला बजाने में फर्रुखाबाद घराने के उस्ताद अहमदजान थिरकवा की थी। मैंने तो नहीं देखा पर सुनने में आता था कि त्रिमोहन अपने पैरों से भी नगाड़ा उतनी ही कुशलता से बजा लेते थे जितना कि अपने हाथों से। जो भी हो दर्शकों में नगाड़े के कद्रदानों की संख्या गुलाब बाई के गले की मिठास और कमर के ठुमकों के दीवानों से कम नहीं थी।
नगाड़े से खिंच कर आए दर्शकों को दो- ढाई घंटे खेला शुरु होने तक, बांधे भी रहना था। यह काम विदूषक करता था। जिसे अधिकांश दर्शक जो देहातों से आते थे, मसखरा कहते थे और शहरी दर्शक जोकर कहते थे। वह मुंह पर सफेदी पोते और हाथ में फटा बांस लिए दर्शकों से छेड़छाड़ करके उन्हें हंसाता रहता था। किसी- किसी दर्शक की पीठ पर फटे बांस का झटका भी दे देता था। जिससे वह दर्शक लक्का कबूतर की तरह फूला नहीं समाता था। 'प्यादा से फर्जी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।' यह नौटंकी का जादू था कि लोग फटे बांस से पिटाई को भी सफलता का तमगा मानते थे। वास्तव में जोकर एक हरफनमौला अभिनेता होता था जो कई पात्रों का अभिनय करता था और पूरे नाटक का सूत्रधार भी वही होता था।
रात 10 बजे के आस- पास नौटंकी का मंचन शुरु होता था। नौटंकी का विषय ज्यादातर सत्यवादी हरिशचंद्र, सुल्ताना डाकू, अमर सिंह राठौर, लैला मजनू इत्यादि होता था। नौटंकी का विषय कुछ भी हो सबसे पहले सभी कलाकार मंच पर खड़े होकर हाथ जोड़कर ईश वंदना करते थे। इसके बाद नौटंकी शुरु होती थी। कलाकारों के बीच संवाद अदायगी उर्दू की शेरों- शायरी में होती थी। कलाकार द्वारा बोले गए प्रत्येक शेर के अंत में नगाड़ा बजता था। इसी प्रकार एक के बाद एक सीन आगे बढ़ते जाते थे। कलाकारों को गाते हुए संवाद बोलने के अलावा एक्टिंग के नाम पर ज्यादा कुछ करने को नहीं होता था। नौटंकी का असली करिश्मा तो प्रत्येक सीन की समाप्ति पर होता था। यह करिश्मा कलाकारों और दर्शकों के सम्मिलित प्रयास से संपन्न होता था। प्रत्येक सीन के बाद स्टेज पर नर्तकी का नृत्य होता था। आजकल की फिल्मों में आइटम डांस का प्रेरणा स्रोत।
ग्रीनरूम वाले तम्बू से नर्तकी इठलाती हुई निकलती थी। सिगरेट का आखिरी कश खींच कर शेष सिगरेट आसपास खड़े किसी लार टपकाते प्रशंसक को थमाकर नाज- नखरे के साथ स्टेज पर चढ़ती थी और इसी के साथ दर्शकों के चेहरे स्विच आन कर देने पर बल्ब की तरह जगमगाने लगते थे। साथ ही साथ दर्शकों के गलों से आहों और कराहों के साथ 'जियो छप्पनछूरी जान', 'छम्मक छल्लो पे जान कुर्बान' जैसे फिकरों से नर्तकी का स्वागत होता था। ये रसीले फिकरे नाच के साथ नगाड़े और हारमोनियम की तरह ही चलते रहते थे और नर्तकी के तन- मन पर जानदार टॉनिक का काम करते थे। दर्शकों के फिकरों की नौटंकी के मंच पर हो रहे नाच में वही भूमिका थी जो आलू की टिक्की के ऊपर चटनी की होती है।
नौटंकी के कार्यक्रम में ऐसे 8 या 10 नाच होते थे। उनमें से बीच में एक दो नाच गुलाब बाई भी दिखाती थी। गुलाब बाई नाचते समय ज्यादातर लोकगीत ही गाती थी। तब उनके द्वारा गाये गीतों के रेकार्ड बहुत प्रसिद्ध्र थे। जैसे 'नदी नारे न जाओ श्याम पइयां पडूं', 'मोको पीहर में मत छेड़...', 'भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्मा' वगैरह। (फिल्म 'मुझे जीने दो' में सुनील दत्त ने गुलाब बाई के गाए दो गीतों को आशा भोंसले की आवाज में रेकार्ड करवाया था।)
ज्यादातर नाच गुलाब बाई की शिष्याओं द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे। जिनके नाम छप्पन छुरी, हुस्नबानो, छबीली, गुलबहार या सोनपरी इत्यादि होते थे। ये नर्तकियां ज्यादातर उस समय के प्रसिद्ध फिल्मी गाने ही गाती थीं। जैसे- ऊंची- ऊंची दुनिया की दीवारें सैंया तोड़कर...., कभी आर कभी पार लगा तीरे नजर..., मुहब्बत में ऐसे कदम डगमगाए..., जमाना ये समझा कि हम पीके आए... वगैरह।
जैसे ही पेटीमास्टर हारमोनियम पर धुन निकालते थे कि नगाड़े की संगत के साथ नर्तकी घुंघरू खनकाती, नाचते हुए गाना गाती थी। उधर वह तान छेड़ती थी- 'जादूगर सैंया छोड़ मेरी बइयां...' और इधर अधिकांश दर्शकों के मुंह भी खुल जाते थे। नौटंकी के नृत्य में पारंपरिक कला और चुम्बकीय सौंदर्य का ऐसा रसीला मुरब्बा होता था कि सिर्फ आंख और कान से इसका पूरा रस नहीं लिया जा सकता। पूरा रस लेने के लिए मुंह खोलना भी जरुरी था। लेकिन यह तो हुई आम दर्शकों की बात। अगली पंक्ति में कुर्सियों पर शोभायमान खास दर्शकों की प्रतिक्रिया भी खास तरह की होती थी। इलाके के दादा नर्तकी के नृत्यकला की प्रशंसा अपने साढ़े दस इंची रामपुरी चाकू (जो उनका व्यावसायिक औजार था) की धारदार नोक पर एक रुपए का नोट फंसा कर लहराते थे। जिसे देखकर बाई जी नाचना गाना रोककर लहराते बदन और बलखाती कमर से छमछमाती हुई मंच से उतरकर चाकू पर से नोट लेकर वापस तखत पर पहुंच जाती थी। फिर एक जोरदार ठुमका लगाकर झुककर सलाम करती हुई बोलती थी- 'गले में लाल रूमाल बांधे बाबू ने मेरे हुनर से खुश होकर एक रुपया इनाम में दिया है। मैं तहेदिल से उनका शुक्रिया अदा करती हूं।' और फिर से नाच शुरु हो जाता था। अगली बार कोई अपनी दुनाली बंदूक के मुंह पर नोट रखकर लहराता था तो फिर उसका भी शुक्रिया वैसे ही अदा किया जाता था। यह सिलसिला सारी रात चलता रहता था। किसी को पता भी नहीं चलता था कि भोर कब हो गई।
तो बताइए मेहरबान, कद्रदान आपको किसकी लीला ज्यादा पसंद आई? नौटंकी के कलाकारों की या दर्शकों की? मैं बताऊं? तो साहब जहां तक मेरा सवाल है तो मुझे तो दर्शकों का दर्शक बनने में ज्यादा मजा आया था। आज भी इसकी मधुर स्मृति मन को गुदगुदाती है।
पता: डी 38, आकृति गार्डेन्स,
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