Dec 18, 2017
चर्चा डिज़िटल इंडिया की...
चर्चा डिज़िटल इंडिया की...
- डॉ. रत्ना वर्मा
आज जिधर देखो उधर डिज़िटल इंडिया की
चर्चा हो रही है। बहुत अच्छा लगता है सुनकर कि हमारे देश का हर नागरिक इस नई तकनीक
से जुड़ कर तरक्की के रास्ते पर चलेगा। अब क्या गाँव और क्या शहर। जब कहीं कोई अंतर नहीं रहेगा तो कोई भी सरकारी
कर्मचारी गाँव जाने से कतराएगा नहीं। चाहे डॉक्टर हो चाहे शिक्षक या अफसर कोई भी
यह नहीं कह पाएगा कि भला भारत के पिछड़े हुए गाँवों में कोई कैसे रह सकता है, जहाँ न तो इंटरनेट की
सुविधा है, न वाईफाई है
न हॉटस्पॉट।
शांत हो जाइए... शांत हो जाइए.... अब
आप यह सब भूल जाएँगे जब पूरा देश डिज़िटल होगा, तब भला कोई गाँव पिछड़ा हुआ कैसे कहलाएगा। समझ लीजिए गाँव
और शहर का अंतर यूँ चुटकियों में मिटने वाला है। इधर देश डिज़िटल हुआ और उधर
ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, गाँव-शहर जैसी खाई मिट ही
गई ....
आप ही सोचिए, जब आप सब सीध-सीधे इंटरनेट और मोबाइल एप से पैसे पेमेंट करके सामान ले रहे
हैं तो बन गए ना आप डिज़िटल इंडिया के नागरिक। न छुट्टे की समस्या न जेब में पैसे
रखने की समस्या। बस एक मोबाइल आपके जेब में होना चाहिए। ये बात भले ही अलग है कि
आज भी मोबाइल में बात करते- करते आवाज नहीं आ रही है कहना पड़ता है (भले ही वह बात
न करने का बहाना ही क्यों न हो....) या
बात करने के लिए कभी सड़क पर तो कभी छत पर जाना पड़ता है। यही नहीं मोबाइल न हुआ
मुआ रोज पहनने वाला कपड़ा हो गया। इतनी जल्दी जल्दी नए मॉडल बाजार में उतारे जा
रहे हैं कि नए की अभी आदत अभी बन ही नहीं
पाई थी कि वह आउटडेटेड हो जाता है। मजबूरन उसे बदलना पड़ता है, आखिर नए जमाने के साथ जो
चलना है।
हाँ तो बात हो रही थी कि पूरा देश एक
नेटवर्क से जुड़ेगा और हम घर बैठे ही अपने कम्प्यूटर से सारे काम कर सकेंगे।
ऑनलाइन खरीददारी तो आसान हो ही गई है, घर से ही बैंक का काम,
बिजली बिल का भुगतान, रेल और हवाई
टिकट भी बहुत आसानी से बुक होने लगे हैं और अब तो विदेशों की तर्ज पर घर में ही
रहकर ऑनलाइन ऑफिस का काम भी शुरू हो चुका है। हो गई न बल्ले बल्ले... यूँ भी आजकल
गडिय़ों से होने वाले प्रदूषण से सब परेशान है, कितना अच्छा होगा कि सब घर में बैठ कर काम करेंगे। आड-इवन
गाडियाँ चलाने से तो छुट्टी मिलेगी ही। पेट्रोल के पैसे भी बचेंगे। बीबियाँ भी खुश
कि पति घर पर है घर के कामों में सहायता ही करेंगे। अब शाम तक उनके इंतजार में बैठे भी नहीं रहना
पड़ेगा। जरूरत हुई तो बच्चों को स्कूल छोड़ देंगे और ले आएँगे। सब्जी -भाजी भी ला के देंगे। कभी पिक्चर या मार्केटिंग का मन हुआ तो भी चले जाएँगे।
काम का क्या है, होता रहेगा।
घर में ही ओवरटाइम कर लेंगे। ... हुई न फायदे वाली बात।
आज नहीं तो कल जैसा कि भारत सरकार ने
कहा है कि संभवत: सन् 2020 तक (बहुत
ज्यादा दूर नहीं हैं हम इससे) भारत पूर्णरूप से डिजीटल इंडिया बन जाएगा। हजारों
करोड़ इस पर खर्च होने वाले हैं। मुझे याद है जब पेजर जैसी तकनीक ने भारत में कदम
रखा था तब हम मजाक ही मजाक में कहा करते थे कि आने वाले समय में घर में काम करने
वाली बाई, रिक्शे वाले, सब्जी वाले, दूध वाले, सबके पास पेजर होगा और तब
सबकुछ कितना आसान होगा। एक फोन करो बाई, दूध वाला सब्जी वाला सब हाजिर.... लेकिन हमारी कल्पना और
सपनों से बहुत परे आज देखिए क्या बाई और क्या दूध वाला हर हाथ में मोबाइल है। अब
बात मज़ाक की नहीं रह गई है हम सचमुच में तरक्की कर रहे हैं, कहना चाहिए थोड़ी तरक्की
तो कर ही चुके हैं। हाँ लेकिन इस बार हमने अपने सपने भी थोड़े बड़े देखने की आदत
बना ली है। चूँकि अब होम असिस्टेंट तो आ ही चुका है जो आपके आदेश का पालन करता है, तो जाहिर है जल्दी ही एक
ऐसा रोबोट भी आ जाएगा जो आपके एक आदेश पर वह सारा काम कर देगा जिसे आप दिन भर में
करते हैं। जैसे ऑफिस के काम,
घर के काम जिसके लिए आपको बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। साफ-सफाई से लेकर बर्तन
धोने, खाना पकाने
तक वह सब कुछ जिसे करने के लिए आपको दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है। यदि यह सब एक रोबोट कर दे तो फिर कल्पना कीजिए
कैसी हो जाएगी आपकी यह डिज़िटल दुनिया।
डिज़िटल इंडिया में ई-शासन के चलते
सरकारी काम-काज भी बहुत आसान होने वाला है। वह दिन भी आने में देरी नहीं लगेगी जब
हमें सरकार के दरवाजे तक जाने की जरुरत ही नहीं होगी। कल्पना कीजिए ई- शासन में
हमें कितनी सारी सुविधाएँ मिल जाएँगी। आज सरकारी कामकाज इसलिए बदनाम है कि छोटा से
छोटा काम करवाने जाओ, तो चपरासी से लेकर बाबू
और बड़े बाबू तक सबकी जेबें गरम करनी पड़ती है। बिना अंडर टेबल कोई काम ही नहीं
होता, परंतु सबकुछ
आधार से जोडऩे के बाद तो उम्मीद है यह उपरी लेनदेन बंद हो जाएगा। .... अब ई-शासन
में अंडर टेबल की जगह ई- टेबल जैसा कोई नया तरीकाइज़ादहो जाएगा तो
फिर ई- घूसखोरी, ई- भ्रष्टाचार जैसी मुसीबतों से जूझने के लिए कौन सी तकनीक
इस्तेमाल होगी यह अभी नहीं मालूम।
कहा तो यही जा रहा है कि डिज़िटल
इंडिया में भ्रष्टाचार की संभावनाएँ भी खत्म हो गईं हैं, अब कोई घोटाला नहीं कर सकेगा।
जब सब कुछ ऑनलाइन होगा, आधार का लिंक
बैंकों से जुड़ा रहेगा तो जाहिर है सब निगरानी में रहेंगे। अब बताओ भला कैसे
भष्टाचार करोगे? इसलिए कुछ
लोग जिनको डर लग रहा है कहने लगे हैं कि डिज़िटल इंडिया बनने के पहले जितनी जेबें
भरना है भर लो, अपनी अगली
पीढ़ी का इंतजाम कर लो, फिर न कहना
हमें मौका ही नहीं मिला।
रही बात आपस में भेद-भाव मिट जाने की
तो कहा तो यही जा रहा है कि सारी दूरियाँ मिट जाएगी। भले ही आज शिक्षा का स्तर
वैसा नहीं है जैसा हम चाहते हैं पर सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों का अंतर यह डिजिटल
इंडिया मिटा देगा। जब सभी स्कूल और कॉलेज में इंटरनेट की सुविधा हो जाएगी, जब गाँव- गाँव ब्राडबैंड
से जुड़ जाएगा, आम आदमी के
पास वाईफाई और हॉटस्पॉट होगा तो फिर तो यह अंतर तो मिटना ही है। आप देख तो रहे ही
हैं मोबाइल के आने से परिवार और पड़ोसियों से दूरी भले ही बढ़ गई हो पर सोशल
मीडिया में उनकी उपस्थिति इतनी अधिक रहती है कि बिना किसी के घर जाए वे दिन- रात
आपस में जुड़े रहते हैं। अब जब उनका मोबाइल वाईफाई और हॉटस्पॉट से जुड़ जाएगा उसके
बाद का नज़ाराकैसे होगा कल्पना करना मुश्किल हो रहा है। आप कोई कल्पना कर
पा रहे हों तो जरूर बताएँ....
शोकसभा में आमसभा का टच
शोकसभा में आमसभा का टच
– गिरीश पंकज
भैया जी की बोलने या कहें कि धाराप्रवाह बकरने की कला अद्भुत है।
जब मूड में आते हैं तो फिर याद नहीं रहता कि शोकसभा में बोल रहे हैं या आमसभा
में। माइक मिला नहीं कि शुरू हो गए सुपरफास्ट ट्रेन की तरह। उस दिन भी यही हुआ। एक
शोक सभा में उन्हें बोलने का मौका मिला और वे चुनावी आमसभा समझ कर जो शुरू हुए कि
फिर समझ ही नहीं पाए कि शोकसभा में हैं या कहीं और।
एक नेता का निधन हो गया था। उनके लिए शोक सभा आयोजित की गई थी इसलिए भैयाजी को
भी बुलवा लिया गया था। न बुलाते तो वे और उनके चमचे ही चढ़ बैठते कि देश के इत्ते
बड़े मोहल्ला छाप नेता को नहीं बुलाया। मजबूरी में लोग बुला ही लेते हैं। हालाकि सबको ये पता है कि अगर एक बार माइक मैया
जी के हाथों में आया तो हो गया काम। न जाने कितने मिनट बोलेंगे और क्या-क्या
बोलेंगे, वे खुद ही नहीं जानते। इसलिए
जब भैया जी का भाषण नाकाबिलेबर्दाश्त होने लगता है तो लोग तरह-तरह की जुगत बिठाने
लगते है कि कैसे उनकी बोलती बंद कराए। कोई जा कर धीरे से लाइट गोल कर देता है,
फिर भी वे बोलते रहते हैं। माइक वाले को इशारा करके साउंड गायब कर दिया
जाता है, फिर भी ‘ वीर तुम बड़े चलो ’ की तर्ज पर में बोलते ही जाते हैं कई बार फुल
बेशर्मी अपनाते हुए संचालक आकर कहता है कि आपका समय हो गया है, लेकिन भैया जी का दिल है कि मानता नहीं। कहते
हैं, ‘बस, अभी ख़त्म करता हूँ’ और उसके बाद नए
सिरे से शुरू हो जाते हैं. टोकाटाकी के बावजूद आधा घंटे तो आराम से निकाल लेते
हैं।
उस दिन भी यही हुआ। शोकसभा में आयोजक उनको बुला कर फँस गए. जब उनके चमचे आयोजक के पास बार-बार भैया जी
के नाम की पर्ची भिजवाने लगे और बाकायदा देख लेने की धमकी तक देने लगे तो आयोजक को
उनका नाम लेना ही पड़ा। भैया जी लपक कर मंच पर
आए और कहने लगे, ‘खुशी की बात है
कि आज इस शुभअवसर पर हम लोग यहाँ एकत्र हुए हैं। भगवान ऐसे अवसर हमें प्रदान करते
रहे। बोलो भारत माता की जय।’ किसी ने
भी जय नहीं कहा। केवल चमचों ने ही
स्वर-से-स्वर मिलाया क्योंकि चमचा-धर्म भी एक बड़ा युगीन धर्म है।
एक चमचा मुँह लगा था और समझदार भी था। वह आगे बढ़ा और भैया जी के कान में
फुफुसाया, ‘भैया जी, रामलाल जी के निधन की शोकसभा है। उन पर कुछ
बोलना है।’
भैयाजी ने ध्यान से सुना और स्टार्ट हो गए, ‘रामलाल जी नहीं रहे।
लेकिन मैंने जो खुशी की बात कही है, उसके भाव को समझें।
आज स्वर्ग लोक खुश होगा कि उनके यहां रामलाल जैसे व्यक्ति की आत्मा पहुंची
है। इसलिए स्वर्ग की खुशी की बात है।’
फिर इतना बोल कर भैयाजी
बहक गए। ‘आज देश की हालत किसी से
छिपी नहीं है. महँगाई आसमान छू रही है, घोटाले-पर-घोटाले हो रहे हैं। देश कहाँ जा रहा है, हम देख रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है कि हम मंत्री नहीं हैं।
पहले थे, पर हमे तरीके हटा दिया
गया। साजिश की गई। अपनों ने की। लेकिन मैं बता दूँ कि वो क्या कहते हैं न, सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। हम
होंगे कामयाब एक दिन। मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास. बोलिए भारत माता की जय।’
किसी ने जय नहीं कहा, केवल चमचे
हुँकारा भरते रहे। चमचे ने फिर कान में कहा, ‘रामलाल के बारे में कुछ बोलिए। उनका निधन हो गया है।’
भैया जी बोले, ‘रामलाल और हम लोग
एक साथ पले बढ़े, राजनीति में
आए। एक साथ फेल होते थे। एक साथ नकल मारते
थे फिर पास हो जाते थे। कभी रामलाल मेरा पत्ता काट देते थे, कभी मैं उनका पत्ता काट देता था। राजनीति में सब चलता है लेकिन रामलाल ने कभी बुरा नहीं
माना। हम लोग एक -दूसरे के खून के प्यासे रहते थे, लेकिन पक्के दोस्त थे। आज वे मर गए हैं लेकिन हमें उनके
रास्ते पर चलना है।’ इतना बोलने के
बाद भैयाजी फिर सनक गए, शुरू हो गए,
'आज शहर की हालत क्या है, किसी से छिपी नहीं है। गाँधी ने क्या कहा था, पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। नेताजी ने कहा, था, स्वराज्य हमारा
जन्म सिद्ध अधिकार है। तिलक जी ने नारा दिया था, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। आज हम कहाँ
खड़े है? अमरीका को देख लो,
पाकिस्तान को ही देख ले,
सिंगापुर को देख लो न.. एक बार सब मिल कर बोले ‘भारत माता की जय।’
इस बार भी किसी ने जय नहीं कहा। चमचे सुर-से- सुर मिलाते रहे और माथा ठोंकते
रहे कि आज ये फिर हम लोगों की फजीहत करवा
रहे हैं। चमचा कान में फुसुसाया, ‘रामलाल के बारे
में बोलना है।’
भैयाजी बोले, ‘रामलाल बड़े महान
आदमी थे। मर गए बेचारे। पता नहीं कैसे मर गए। हम लोग साथ साथ पीते-खाते थे। पीते
मतलब कुछ और मत समझ लेना भाई। ज़माना खराब है।
खैर, कोई बात नहीं। इस ज़माने को हम देख रहे हैं। हर हाथ में मोबाइल है. चहरे पार स्माइल है। ज़िंदगी के रंग
कई रे साथी रे। एक दिन सबको मरना है। सजन
रे झूठ तुम बोलो, खुदा के पास जाना
है। मौत गाँधी को आई। भगत सिंघ भी शायद
हार्ट अटैक से चल बसे। देखते-ही देखते कितने लोग मर गए। लेकिन मैं अभी नहीं
मरूँगा। बोलिए भारत माता की जय।’
भैया जी की ऊल-जलूल बाते सुन कर शोक सभा गुस्से से भर चुकी थी। एक ने दूसरे से कहा, ‘तुम कहो, तो इसे छुटभैये
को यही निबटा कर इसकी भी शोकसभा कर लेते हैं? ससुरा अंट -शंट बके जा रहा है।’ तभी एक व्यक्ति उठा और माइक बंद हो गया। फिर भी भैया जी
बोले चले जा रहे थे। सभा की लाइट भी गोल कर दी गई। फिर भी भैयाजी रुके नहीं,
तब आयोजक ने कहा, ‘शोकसभा खत्म हो चुकी
है। आप अब अपना स्थान ग्रहण कर लें।’
भैया जी ने खोपड़ी हिलाई और शुरू रहे। लोग उठ कर टहलने लगे। जम्हाई लेने लगे।
आपस में बातें करने लगे। लेकिन भैया जी असरहीन रहे। जब चमचे ने कहा, 'समय ख़त्म हो चुका है, अब दूसरी सभा में जाना है तब भैया जी ने
भाषण रोका और जोर से हुँकारा लगा, ‘बोलिए, भारत माता की जय।’
इस बार सबने राहत की साँस ली और दुहराया, ‘भारत माता की जय।’
उसके बाद से लोगों ने कान पकड़ कर कसम खाई कि अब कभी इनको नहीं बुलाना।
लेखक परिचय: गिरीश पंकज विगत चालीस वर्षो से व्यंग्य लिख रहे है। उनके
आठ उपन्यास और सोलह व्यंग्य संग्रह,
समेत बासठ पुस्तकें
प्रकाशित हो चुकी है। पंद्रह छात्रों ने इनके व्यंग्य साहित्य पर शोध कार्य भी
किया है। व्यंग्य साहित्य लेखन के लिए उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके है, जिनकी सूची बहुत लम्बी है- कुछ प्रमुख हैं-
मिठलबरा की आत्मकथा (उपन्यास) के लिए रत्न भारती सम्मान- भोपाल, माफिया (उपन्यास) के लिए लीलारानी स्मृति सम्मान (पंजाब), श्रीलाल शुक्ल (परिकल्पना) व्यंग्य सम्मान, लखनऊ और अब व्यंग्यश्री
सम्मान जो आगामी 13 फरवरी, 2018 को दिल्ली
के हिंदी भवन सभागार में प्रदान किया
जाएगा। साहित्य और पत्रकारिता में निरंतर
सक्रिय, गिरीश पंकज अनेक
देशों का भ्रमण कर चुके हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण दैनिको में चीफ रिपोर्टर और
सम्पादक रहने के बाद ' सद्भावना दर्पण ' नामक त्रैमासिक अनुवाद
पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे है। सम्पर्क: सेक़्टर- 3, एचआईजी-2, घर नंबर-2, दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल- 09425212720, 877 0969574, Email- girishpankaj1@gmail.com,
1-http://sadbhawanadarpan.blogspot.com, 2-http://girishpankajkevyangya.blogspot.com,
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एक शर्त भी जीत न पाया
एक शर्त भी जीत न पाया
-हरि जोशी
मैं शर्त लगाने का कभी पक्षधर भी नहीं रहा
अत: मैंने कभी शर्तें नहीं लगायी किन्तु कुसमय मेरा परिचय एक बीमा एजेंट से हो
गया। उसने मुझे अपनी शातिर बातों के जाल में ऐसा फँसाया कि मैं शर्तें लगाने पर
मजबूर हो गया।
अब मैं उसे प्रतिमाह कुछ राशि का चेक दे
देता हूँ और वह उससे ख़ुश होकर जुआ खेलता रहता है। मैं यही समझ नहीं पा रहा हूँ कि
उसने मेरा बीमा किया या मुझे बीमार किया। पहले उसने मुझे डराया कि मेरे घर में
चोरी हो सकती है। इसीलिए सारे सामान का बीमा कर लो। मैं उसी बात से आशंकित हो गया, संभव है रात के
अँधेरे में किसी दिन सेंधमारी करने वह ख़ुद आ धमके या किसी को भेज दे?
एक दिन कहा मेरे घर में आग लग सकती है। घर
सुरक्षित रहे इसके लिए बीमा करा लो। मुझे शंका हुई कि किसी दिन पेट्रोल में कपड़ा
डुबाकर तीली सुलगाकर मेरे घर में स्वयं ही न फेंक दे?
मैं बहुत नियमित रहकर अपना जीवन जीता हूँ
पर वह उस दिन कह रहा था- क्या पता आप कल बीमार पड़ जायें? - स्वास्थ्य का बीमा
करा लो। इसीलिए कई दिन तक मैंने उसकी चाय भी नहीं पी। चाय पिलाकर वह अपनी शंका को
साकार कर सकता था। कह सकता था देखो आज ही बीमार हो गया। एक दिन कहने लगा मेरी कार
का एक्सीडेंट हो सकता है। बीमा करा लो। मैंने पूछा - क्या बीमा कराने से एक्सीडेंट
नहीं होगा? अगले दिन से मैं किसी
और से बचता न बचता उससे बचने लगा।
एक दिन उसने अपने अधीनस्थ को भेज दिया।
अधीनस्थ तो यहाँ तक कहने लगा मेरी मौत हो सकती है। बीमा करा लेना ठीक रहेगा। याने
मैं कई साल मासिक किस्त भरता रहूँ जिसका मज़ा एजेंट उठाता रहे? और मर जाऊँ तो बाद
में मिली धनराशि का आनंद कोई और उठाये?
अब जब मैं चौहत्तर साल की उम्र तक सुरक्षित हूँ तो वही बीमा कंपनी
का एजेंट मेरे बच्चों ही नहीं नाती पोतों के बारे में मुझे चिन्तित करने लगा है।
कहता है पोते पोतियों के स्वास्थ्य से निश्चिन्त रहना हो तो मासिक किस्त भरते रहो।
देश में रहकर इस तरह जुआ खेलते-खेलते
प्रतिमाह अपनी जेब खाली करता रहता हूँ। जब कभी विदेश जाता हूँ तो वही प्राणी आशंका
से ग्रस्त कर देता है कि मुझे बाहर कुछ भी कभी हो सकता है और इस तरह भयभीत कर वह
एकमुश्त बड़ी राशि मुझसे ले लेता है। मैं हर बार पैसे लगाता हूँ और वही हर बार जीतता जाता है। लाखों
रुपये फूँक चुका हूँ पर आज तक एक बार भी मैं नहीं जीता। एजेंट्स का लक्ष्य एक ही
होता है कि वह और उसकी कंपनी शर्तें जीतती रहे। सामने वाला किसी अनहोनी से डरकर बस
पैसा देकर हारता रहे। कितनी बार अमेरिका की यात्रा पर गया? हर बार यात्रा बीमा
कराया किन्तु बदले में एक पैसा नहीं मिला। एक बार अमेरिका में रहकर एक डॉक्टर से
अपना इलाज भी इसी आशा से अधिक पैसे देकर कराया कि भारत जाकर सारा पैसा मिल ही जायेगा। बीमा जो
कराया है?
किन्तु यहाँ आकर जब क्लेम फॉर्म भरा तो
उसन साफ कह दिया आपको अस्पताल में दाखिल होना ज़रूरी था? यदि दाखिल हुए होते तो पैसा मिल जाता? याने मैं पहले अपनी
टांग तुड़वाता, अस्पताल में दाखिल
होता, तब ही कुछ बात बन
सकती थी? बाहर इलाज कराने का पैसा
नही मिलता। इस तरह मैं कई बार जुआ खेलता रहा और हर बार हारता रहा।
एक बार मुझे आभास होने लगा था कि अब मैं
शर्त जीत सकता हूँ। हुआ यह कि एक वर्ष पूर्व ही श्रीमतीजी के स्वास्थ्य का बीमा
कराया था। उनका आँखों में मोतियबिंद का ऑपरेशन कराना पड़ा। मैंने सोचा इब तक लाखों
रुपये बीमा में दे चुका हूँ। यह खर्च तो मात्र कुछ हजार का है, शायद बीमा कंपनी दे
देगी?
मैंने एजेंट को तदाशय की जानकारी दी और घर
बुलाया। वह नहीं आया। जो बीमा एजेंट स्वयं ही बीमा करने के लिए दिन में दो चक्कर
लगाता था, शर्त के हारने के डर
से नहीं आया। जब जब टेलीफोन किया, हमेशा दूरभाष, बंद मिला।
बड़े-बड़े सट्टेबाज भी एकाध बार तो हारने
के लिए तैयार रहते हैं, पर वह एक बार भी तैयार नहीं हुआ। हारकर मैंने उसे एक सुमधुर पत्र लिखा कि आपको
अंदरूनी ख़ुशी तो हुई होगी कि पहली बार मैं शर्त जीत गया हूँ। पहली बार आपकी
अपेक्षा पूरी हुई है। आशा है शल्य चिकित्सा का व्यय मुझे मिल जाएगा। इस बार उसका
उत्तर ही नहीं आया।
जब बार-बार टेलीफोन और पत्र लिखे तो कई
दिन बाद कुछ लाल-पीले प्रपत्रों सहित उसका उत्तर आया। प्रपत्रों में छुपे हुए
दसियों प्रश्न थे। जैसे ऑपरेशन कराने का निर्णय मेरा था या डॉक्टर का? क्या ऑपरेशन कराना
बहुत जरूरी था? एक प्रश्न यह भी था
कि मैं प्रमाण दूँ कि आपरेशन आँख का ही हुआ है। फिर दायीं आँख का हुआ या बायीं आँख
का? कितने दिन रोगी
अस्पताल में भर्ती रहा। डॉक्टरों ने कितनी फीस ली, कौन-कौन सी दवाइयाँ लेनी पड़ीं और दवाइयों
पर कितना खर्च आया? अस्पताल में रहने पर कितना व्यय हुआ आदि आदि।
मैंने सारे प्रपत्र पूरे होशो-हवास से भरे, माँगे गए सारे प्रमाण
पत्र संलग्न किये, और रजिस्टर्ड डाक से एजेंट को भेज दिये। एक दो महीने तक कोई उत्तर नहीं आया।
जब मैंने झुँझलाकर शिकायत की तो उत्तर मिला वे सभी कागज मिल चुके हैं और आगामी
कार्यवाही के लिए मुख्यालय भेज दिये गए हैं।
मैंने एजेंट से कहा मासिक राशि के चेक तो
मैं आपको देता रहा अब पैसा किससे माँगू?
उसने उत्तर दिया मैं तो पैसे एकत्र करने
वाला नौकर हूँ, पैसे देना न देना, कंपनी का काम है।
क्या तुम पागल हो गए हो, शर्त तो मैंने जीती
है, मुझे पैसे आप दो।
वह बोला- मैं नहीं कंपनी वाले पागल हैं।
कौन कंपनी वाले?
मुँबई में जो मुख्यालय है उसकी कंपनी
वाले।
मैं उनकी टाँग तोडऩे हथौड़ा लिए उनके ऑफिस
पहुँचा।
ऑफिस के लोग बोले जो कुछ निर्णय लेना है
इस कम्प्यूटर को लेना है। और यह कोई निर्णय ही नहीं ले रहा है?
अब क्या मैं कम्प्यूटर की टाँग तोड़ता? यदि तोड़ भी देता तो
मुझे क्या मिल जाता?
इस तरह मैं एक भी शर्त जीत नहीं पाया।
शिक्षा- एम.टेक.,पीएच.डी. (मेकेनिकल
इन्जीनियरिंग),सम्प्रति- सेवा
निवृत्त प्राध्यापक (मेकेनिकल इन्जी.)शासकीय इन्जीनियरिंग कॉलेज, उज्जैन (म.प्र.), हिन्दी की लगभग सभी
प्रतिष्ठित पत्र/पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित। अमेरिका की इंटरनेशनल
लाइब्रेरी ऑफ़ पोएट्री में 10 अंग्रेजी कविताएँ
संग्रहित। प्रकाशित पुस्तकें- तीन कविता संग्रह- पंखुरियाँ, यंत्रयुग, हरि जोशी। पन्द्रह
व्यंग्य संग्रह- अखाड़ों का देश, रिहर्सलजारी है, व्यंग्य के रंग, भेड की नियति, आशा है,सानंद हैं, पैसे को कैसे लुढका
लें, आदमी अठन्नी रह गया, सारी बातें कांटे की, किस्से रईसों नवाबों के, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, इक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, नेता निर्माण उद्योग, अमेरिका ऐसा भी है, हमने खाये, तू भी खा, My Sweet Seventeen, published from Outskirts Press
Publication Colorado (US) नौ
व्यंग्य उपन्यास- पगडंडियाँ, महागुरु, वर्दी, टोपी टाइम्स, तकनीकी शिक्षा के माल, घुसपैठिय, दादी देसी-पोता
बिदेसी, व्यंग्य के त्रिदेव, भारत का राग- अमेरिका
के रंग, दो प्रकाशनाधीन
उपन्यास- पन्हैयानार्तन, नारी चिंगारी। सम्मान- व्यंग्यश्री (हिंदी भवन, दिल्ली), गोयनका सारस्वत सम्मान (मुंबई), अट्टहास शिखर सम्मान
(लखनऊ), वागीश्वरी सम्मान
(भोपाल), अंग्रेज़ी कविता के लिए
अमेरिका का एडिटर्स चॉइस अवार्ड। सम्पर्क: 3/32 छत्रसाल नगर, फेज़-2, जे.के.रोड, भोपाल- 462022 (म.प्र.), फोन-0755-2689541, मो. 098264-26232, Email – harijoshi2001@yahoo.com
मिलना नहीं, मिलना केमिस्ट्री का
मिलना नहीं, मिलना केमिस्ट्री का
-विनोद साव
यह समझ में नहीं आ रहा है कि अपनी
केमेस्ट्री दूसरों से कैसे मिले। आखिर वह कौन सी केमेस्ट्री है जो दूसरों से जा
मिलती है और कितने ही लोग ऐसी केमेस्ट्री के धनी हैं पर मैं क्यों कंगाल हूँ! अपनी
केमेस्ट्री की मूल धातु में ऐसा क्या है जिसे दूसरे किसी से मिलाया जा सके। यह
कार्बनिक है कि अकार्बनिक है। मेरे भीतर जैव रसायन बह रहा है कि भौतिक रसायन। या
यह किसी विश्लेषणात्मक रसायन का हिस्सा है। इसी के विश्लेषण में खोया हुआ हूँ। जब
तब किसी भी अभिनेता का किसी अभिनेत्री से या किसी नेता का किसी नेत्री से
केमेस्ट्री मिल जाने का हल्ला सुनने में आता है तो और भी उलझन बढ़ जाती है कि उनके
पास रसायन भरा ऐसा कौन सा अस्त्र है या उनके रसायन की धार में ऐसा कौन सा जलजला
फूट रहा है जो उनकी केमेस्ट्री किसी न किसी से मिल जाती है और मेरी भौतिकी में किस
रसायन की कमी है जो आज तक मेरी केमेस्ट्री किसी से नहीं मिल पाई।
संभवत: यह चूक अपने छात्र जीवन में ही हो
गई थी जब मैं विज्ञान संकाय की कक्षा से बाहर निकलकर कला निकाय में जा बैठा था।
कला निकाय (आर्ट सेक्शन) में लड़कियाँ अधिक प्रवेश लेती थीं। साइंस सेक्शन में
केमेस्ट्री में अपना माथा खपाने से अच्छा सुन्दर किशोरियों के बीच बैठकर अपनी
केमेस्ट्री खपाना अधिक उपयुक्त लगा। खुदा ने उन्हें कला और सौंदर्य का ऐसा नायाब
नमूना बनाया था कि जब भी कोई नाभि-दर्शना हमारे गाँव की शाला में भरती होतीं तो वे
सीधे कला निकाय में ही आ बैठती थीं। गोया वे सब गाय हों और कला-निकाय
कांजीहाउस। साइंस से उनका कोई ताल्लुक न
हो। उस समय में स्कूल-कालेज में ये धारणा भी पुख्ता हुआ करती थी कि ‘आर्ट्स ग्रुप वाले सब
गधे होते हैं।’ जिन्हें साइंस और
कामर्स में इंट्री नहीं मिलती थी वे सब आर्ट्स में जा बैठते थे। हम सबका शरीर भले
ही विज्ञान के लिए चुनौती रहा हो पर दिमाग पूरी तरह अवैज्ञानिक था। इस
अवैज्ञानिकता के बावजूद अपने पाठ्यक्रम से बाहर जाकर और डाक्टर-इंजीनियर बनने का
सपना पाले मित्रों की संगत में रसायन विद्या की गूढ़ता को पकडऩे की हरदम कोशिश मैं
करता रहा, पर मित्रगण डाक्टर
इंजीनियर नहीं बन पाए और न किसी से मेरी केमेस्ट्री फिट हो पाई।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे।। यहाँ बाबा
लोगों की केमेस्ट्री बॉबी से जुड़ जाती है। रसायन विद्या का इतिहास उतना ही पुराना
है जितना प्राचीन है मनुष्य का इतिहास। यह मनु और श्रद्धा की केमेस्ट्री मिल जाने
से जन्मा इतिहास है। इस इतिहास की निरंतरता को बनाए रखने के लिए मनु के जीवन में
फिर इड़ा को आना था। इन्होंने एक ऐसे फल को चख लिया था जिसके रसायन ने संतान
संख्या में वृद्धि की। मनु से पैदा हुई संतानें मनुष्य है। मनु की इस उन्मादक
भूमिका पर कालजयी कवि मुक्तिबोध फरमाते है-
'वस्तुत- मनु की प्रकृति ठीक उस पूंजीवादी व्यक्तिवादी की प्रकृति है जिसने कभी
जन्तान्त्रत्मकता का बहाना भी नहीं किया, केवल अपने मानसिक खेद, अंतर्विप्लव और निराशा से छुटकारा पाने तथा स्वस्थ शांत अनुभव करने के लिए
श्रद्धा और इड़ा के सामान अच्छी साथिनों का सहारा लिया जो उसके सौभाग्य से उसे
प्राप्त हुई।
‘और श्रद्धा क्या है?’
श्रद्धावाद घनघोर व्यक्तिवाद है-
ह्रासग्रस्त पूंजीवाद का, जनता को बरगलाने का जबरदस्त साधन है।
मनु चल पड़ते हैं ‘पुराने में अब मज़ाक नहीं रहा, इसलिए नया चाहिए’ इड़ा मिल जाती है। वह
कौन है?
मुक्तिबोध चेतावनी देते हैं, ‘ ध्यान रहे कि
ह्रासग्रस्त सभ्यता की उन्नायिका है- इड़ा।’
(मुक्तिबोध- ‘कामायिनी एक
पुनर्विचार’)
रसायन- इसका शाब्दिक विन्यास रस+अयन है
जिसका शाब्दिक अर्थ रसों (द्रवों) का अध्ययन है। रसायन विज्ञान, रसायनों के रहस्यों
को समझने की कला है। इस विज्ञान से विदित होता है कि पदार्थ किन-किन चीजों से बने
हैं, उनके क्या-क्या गुण
हैं और उनमें क्या-क्या परिवर्तन होते हैं। इस विद्या की थ्योरी को पकड़ते हुए भी
इसके प्रेक्टिकल में हमेशा कमजोर साबित होता रहा और प्रेम की किसी भी परीक्षा में
किसी नाभि-दर्शना से कोई नाभिकीय रसायन नहीं जोड़ पाया। माँ के हाथों से बने रसायन
कतरा (बेसन की सीरे वाली सब्जी) को बार- बार सुड़कने के बाद भी अपने भीतर वांछित
रसायन का अपेक्षित स्तर नहीं ला पाया। आखिरकार कला निकाय की एक सहपाठिनी ने कह भी
दिया कि ‘जब केमेस्ट्री का
मिलान करना था तो यहाँ क्यों आए विज्ञान में पड़े सड़ते रहते।।’ फिर ये भी कह दिया कि
‘तुम कहीं भी रहो
तुम्हारी केमेस्ट्री किसी से मिल नहीं सकती क्योंकि ‘अफेयर’ के लायक तुम आदमी
नहीं हो।’
कितना अच्छा लगता था जब साइंस की कक्षाओं
में फिजिक्स-केमेस्ट्री के नाम सुना करते थे। फिजिक्स यानी भौतिकीय में एक
मर्दानापन महसूस होता था और केमेस्ट्री अपनी रसायनीय तरलता से कमनीय हो उठती थी।
बिल्कुत वही आकर्षण जो ‘मेस्कुलाइन’ और ‘फेमिनाइन’ में होता है। जैसे
फिजिक्स उसे पुकार रहा हो ‘हाय केमि।। कम-ऑन डार्लिंग।’ दोनों एक दूजे के लिए बने हैं। एक के अभाव में दूसरा अधूरा है। जहाँ फिजिक्स
होगा वहाँ केमेस्ट्री होगी। जैसे फिल्मों में धर्मेन्दर-हेमामालिनी की जोड़ी।
दोनों के फीजिक की क्या केमेस्ट्री मिली रे बावा कि एक स्वप्न-सुन्दरी ने अपने से
बीस साल बड़े मर्द जो पहले ही चार बच्चों का बाप हो और उनकी माँ के साथ रहता हो
वहाँ जाकर सर्वांग सुन्दरी ने अपना सर्वांग निछावर कर दिया। इस तरह केमेस्ट्री का
मिल जाना अपने आप में एक भयानक दु:स्वप्न की तरह भी होता है। फिल्मों के इस स्वप्नलोक
में ऐसे दु:स्वप्न भी देखने में आते हैं। इस सिने संसार का पूरा अर्थशास्त्र ही
केमेस्ट्री की मिलान पर टिका हुआ है। नायक-नायिका की जोड़ी ज़मी तो मामला सुपर-डुपर हिट।। नई तो
करोड़ों अरबों का झटका लगा और सारी चकाचौंध चौराहे पर। इसी दुनिया में एक रचनात्मक
उदाहरण भी सुना करते थे कि ‘गाइड’ में देवानंद और वहीदा
की केमेस्ट्री कुछ इस कदर मिली कि गाइड एक क्लासिक कृति बन गई थी।
पर मेरी समस्या यह है कि आज तक मेरी
केमेस्ट्री किसी से नहीं मिली जिससे मैं कोई क्लासिक कृति आपको दे नहीं पा रहा
हूँ। इस बौद्धिक-वैचारिक उर्जा को प्राप्त करने के लिए गाँधीवादी जैनेन्द्र ने ‘पत्नी नहीं प्रेयसी
चाहिए’ का हल्ला बोल कर
केमेस्ट्री का एक नया सूत्र बताया ज़रूर था पर साहित्य समाज ने उसे असाहित्यिक
करार कर दिया। अब यह सूत्र ज्यादातर मंचीय कार्यक्रमों में आजमाया जा रहा है जहाँ
ग्लैमर की चकाचौंध है। मंच में कविता और रसायन की धारा साथ- साथ बह रह रही है ये
गाते हुए कि ‘तू गंगा की मौज मैं
जमुना की धारा।’
राजनीति में केमेस्ट्री मिलान को गठबंधन
कहा जाता है। आजकल कांग्रेस से किसी भी पार्टी की केमेस्ट्री नहीं बैठ रही है।
इसके भीतर जैसे तैसे सोनिया-मनमोहन की केमेस्ट्री ने पार्टी को दस साल खींच लिया
था फिर यू.पी.में सपा के साथ केमेस्ट्री मिलाने की जबरदस्त कोशिश जबरदस्ती कोशिश
साबित हुई और भाजपा विरोधी पूरा कुनबा डूब गया। प्रियंका की केमेस्ट्री भी काम
नहीं आई। यहाँ पहले भी मुलायम और मायावती की केमेस्ट्री नहीं ज़मी। देश के इस सबसे बड़े राज्य में एक ऐसी
पार्टी का राज आ गया जिसके प्रधान ने अपने दाम्पत्य जीवन में ही केमेस्ट्री मिलाना
ज़रूरी नहीं समझा और
पत्नी का त्याग कर देना ही श्रेयस्कर समझा। अब उनकी अर्धांगिनी स्मृति के गलियारे
में कहीं खो गई है। इतिहास गवाह है बहुतों ने इस चक्कर में अपने राजे-रजवाड़े
गँवाए हैं। बात जब निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। बड़े लोगों की बड़ी बातें उनका फिजिक्स
क्या और केमेस्ट्री क्या? उनकी केमेस्ट्री कहीं भी मिल जाए तो उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा। इसलिए बड़े
लोगों के पचड़े में ज्यादा पडऩा नई।
लेखक परिचय: विनोद साव- जन्म 20 सितंबर
1955 दुर्ग में, समाजशास्त्र विषय में एम.ए.। भिलाई
इस्पात संयंत्र के सी.एस.आर. विभाग में सहायक प्रबंधक पद से सेवानिवृत। व्यंग्य के
साथ साथ उपन्यास, कहानियाँ और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा
में। उनकी रचनाएँ हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा,
ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य आदि में
प्रकाशित होती रही हैं। उपन्यास, व्यंग्य, संस्मरण व कहानियों के संग्रह सहित अब तक
कुल बारह किताबें प्रकाशित। सम्मान: वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित उपन्यास के
लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल सम्मान।
सम्पर्क: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़- 491001, मो. 9009884014,
Email- vinod.sao1955@gmail.com
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