मेरे संपादक! मेरे प्रकाशक!!
-यशवंत
कोठारी
(1)
लेखक के जीवन में प्रकाशक व सम्पादक का
बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। एक अच्छा संपादक व एक अच्छा प्रकाशक लेखक को बना या
बिगाड़ सकता है। मुझे अच्छे प्रकाशक- संपादक मिले, बुरे भी मिले। किसी ने उठाया किसी ने
गिराया, किसी ने धमकाया, किसी ने लटकाया, किसी ने अटकाया किसी
ने छापा किसी ने अस्वीकृत किया, किसी ने खेद के साथ अन्यत्र जाने के लिए कहा, किसी- किसी ने स्वीकृत रचना वापस कर दी, कुछ ने स्वीकृत
पांडुलिपियाँ ही वापस कर दी किसी ने विनम्रता से हाथ जोड़ लिए। किसी ने मुझे तीसरी श्रेणी का बताया तो किसी ने स्पष्ट कहा
हम जीवित लेखकों को नहीं छापते। मगर ये सभी अनुभव बड़े मजेदार रहे। समय आ गया है
की इस विषय पर भी लिखा जाये, कुछ लोग चाहे तो इस रचना को संस्मरण समझ सकते हैं मेरी नजर में तो हास्य
व्यंग्य ही है, इस लघु भूमिका के बाद
मैं कुछ स्पष्ट हो जाता हूँ।
संपादक के रूप में मेरा पहला साबका एक लघु
पत्रिका के स्वनामधन्य संपादक महोदय से पड़ा। ये वो समय था जब फोन की सुविधा
ज्यादा नहीं थी रचनाएँ लिफाफों में आती- जाती थी। वापसी का लिफाफा भेजना पड़ता था, सम्पादक जी ने लिखा-
रचना छाप देंगे ग्राहक बन जाओ, मैंने मना कर दिया, रचना वापस माँग ली वे नाराज हो गए, आज तक रचना वापस नहीं लौटी। वापसी वाला लिफाफा उन्होंने खुद के काम में ले
लिया था। इस संकट से घबरा कर मैंने अपनी रचनाओं का मुँह बड़ी पत्रिकाओं की और कर
दिया। परिणाम आशाजनक रहा। रचनाएँ पढ़ी गई, छापी गयी, और यह सिलसिला चलता
रहा । पिछले दिनों नेट की एक इ- पत्रिका के संपादक को रचना भेजी, तुरंत जवाब आया
पत्रिका का खाता नम्बर *** है , राशि डालने पर रचना छाप दूँगा, गूगल ने जो काम सर्व जन हिताय नि:शुल्क किया उससे भी हिन्दी के संपादकों ने
कमाई के रस्ते निकाल लिए। यदि लेखक ही संपादक प्रकाशक हो तो समझ लीजिये कि करेला
और नीम चढ़ा, उस पर गिलोय की बेल। साहित्य की राजनीति
मुख्य धरा की राजनीति से ज्यादा घटिया और बेशरम है।
पत्रिकाओं में छपना मुश्किल, पारिश्रमिक माँगना एक
अपराध, तुरंत आपको ब्लैक
लिस्टेड कर दिया जायगा, पारिश्रमिक में भेद
भाव एक आम प्रक्रिया है, प्रभारी के मकान के पास में मकान होने पर पूरे परिवार की रचनाएँ दुगुने
पारिश्रमिक के साथ छप सकती है। एक अघोषित आपत्काल सेंसरशिप के लिए लेखक को हमेशा
तैयार रहना चाहिए। अच्छी सरचना मुझे नहीं जमी के वेद वाक्य के साथ वापस आ जाती थी।

ऐसे ही हालात आकाशवाणी, दूरदर्शन व टी वी
चेनलों में है, वहाँ पर संपादक के
अलावा सब संपादक है। कभी संपादक को पता रहता था कौन से पेज पर क्या जा रहा है, अब संपादक भी सुबह पाठकों के साथ ही
पढ़ता है कहाँ क्या छपा है, एक ही रचना का एक साथ 2 पेजों पर छप जाना आम बात हो गई। टेक्नोलॉजी के विस्तार के कारण किसी को कुछ
पता नहीं कहाँ क्या हो रहा है? आधे से ज्यादा अख़बार इन्टरनेट से ले लिया जाता है। कट पेस्ट का युग चल रहा
है।
कुल मिला कर यहीं लगता है की पसंद का
संपादक मिलना संभव नहीं है। बड़े अख़बारों में संपादक अपनी लेखकीय टीम रखता है, जो वह एक स्थान से
दूसरे स्थान तक ले जाता है। लेखक गिरोह में काम करते है। कई बार तो ऐसा होता है की यदि क की रचना इस अंक में जा रहीं
है तो ब लेखक अपनी रचना नहीं देता। मेरे पंसंदीदा संपादकों में धरम वीर भारती के
बाद कन्हैयालाल नंदन थे , मनोहर श्याम जोशी व्यंग्य के मामले में इश्वर सिंह बेस के भरोसे थे। शरद जोशी
ने मुझे कहा था - भारतीजी रचना खुद पढ़ कर फाइनल करते थे। हाँ उनके कुछ पूर्वाग्रह
थे जैसे अज्ञेय और बाद में कमलेश्वर ।
एक स्थानीय संपादक की चर्चा करना ज़रूरी है वे स्वयं
में गणेशजी की छटा देते थे, कभी मिलना होता तो कहते- तुम्हारी वो वाली रचना अगले अंक में दे रहा हूँ, मैं विनम्रता पूर्वक
बताता की वो वाली रचना मेरी नहीं क लेखक की है तथा आप इसे दो साल पहले छाप चुके
हैं, तो वे शालीनता से बोलते मैंने आपको क ही
समझा था। वैसे एक बड़े नेता ने मुझसे कहा-संपादक रूपी राक्षस को कुछ मत कहो, सेठ रूपी तोते की
गर्दन मरोड़ो।
(2)
कभी किसी संपादक से मिलने दफ्तर जाना
अच्छा समझा जाता था, संपादक भी बैठने को कहते, संस्था की चाय भी पिला देते, मगर अब ऐसा नहीं है। डेड लाइन का भूत हर संपादक के सर पर सवार रहता है।
सम्पादकीय दृष्टि का क्या फर्क पड़ता है इसका एक उदाहरण बताता चलूँ, सारिका में कमलेश्वर विश्व साहित्य में गणिका विशेषांक निकालने चर्चित रहे, साहित्य का भी मान
बढ़ा। बाद में अवध नारायण मुद्गल ने देह व्यापार पर विशेषांक निकाले, प्रसारण तो बढ़ा, मगर बड़ी बदनामी हुई, पाठकों ने मालिकों से कहा, सेठानी ने कहा- इस मुनीम को यहाँ क्यों बैठा रखा है? बाद में नया ज्ञानोदय
में भी बेवफाई पर अंक छपे, पाठकों ने मालिकों को बताया, तीसरा अंक नहीं छपा। नया ज्ञानोदय मामले में विभूति नारायण राय को तो नौकरी
बचाने के लिए माफी माँगनी पड़ी।
धर्मयुग में भारती के जाने के बाद ,कोई संपादक सफल नहीं हो सका। अन्य सस्थानों में संपादकों पर प्रबन्धन हावी हो गया है।
जय सिंह एस राठोर की भी चर्चा करना चाहूँगा, उन्होंने मुझे तब
छापा जब कोई नहीं छाप रहा था। प्रेम से घर बुलाते, पारिश्रमिक देते चाय पिलाते और नए काम
देते। श्री गोपाल पुरोहित ने भी मुझे खूब अवसर दिए। सरकारी पत्रिकाओं के संपादकों
ने मुझे कभी घास नहीं डाली मैंने भी ज्यादा परवाह नहीं की। मधुमती में छपे एक लेख
के विरोध में लेखकों का एक गुट अकादमी अध्यक्ष के घर चला गया, लेकिन मेरी रचनाएँ
बदस्तूर छपती रहीं। कुछ अन्य मेरी पसन्द के संपादकों में बिशन सिंह शेखावत, दीनानाथ मिश्र, ओम थानवी, आनन्द जोशी, यशवंत व्यास, शीला झुनझुनवाला, विष्णु नागर, अनूप श्रीवास्तव, ब्रजेन्द्र रेही, गिरिजा व्यास ,योगेन्द्र लल्ला, महेश जोशी, असीम चेतन, अभिषेक सिंघल, राजेन्द्र कसेरा, हनुमान गलवा, चाँद मोहमद शैख़,
ज्ञान पाटनी के नाम गिनना चाहूँगा, इसका मतलब यह नहीं की बाकी के संपादक खराब हंै लेकिन ज्यादा काम नहीं पड़ा।
दूरदर्शन के चन्द्र कुमार वेरठे, राधेश्याम तिवारी, ममता चतुर्वेदी, शैलेंद्र उपाध्याय, महेश दर्पण, अनिल दाधीच, मनमोहन सरल, आदि ने भी बहुत सहयोग दिया। आकाशवाणी वाले मुझे कम ही याद करते हैं, कई बार चक्कर लगाओ तो
एकाध बार बुलाते हैं, उनकी मर्जी।
राजस्थान साहित्य अकादमी ने व्यंग्य
संकलनों के संपादन का भार मदन केवलिया, पूरण सरमा, अरविन्द तिवारी, अतुल चतुर्वेदी को
दिया, मदन केवलिया व पूरण
सरमा के संकलनों में मुझे अवसर नहीं मिला, शेष छपे ही नहीं। मंजू गुप्ता व दुर्गा प्रसाद अग्रवाल- यश गोयल के संपादन में
छापे संकलनों में मैं भी हूँ। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, प्रकाशन विभाग व
साहित्य अकादमी के संकलनों तक मेरी पहुँच
नहीं, वहाँ दिल्ली-वाद हावी
है।
व्यंग्य रचनाओं के साथ सबसे बड़ी समस्या
लम्बाई की है, छोटी लिखो तो मज़ा नहीं आता, बड़ी लिखो तो सम्पादक
स्पेस की कमी की बात करते हैं। कुछ संपादक एक निश्चित शब्द सीमा की ही रचना चाहते
हैं, हर बार वे ऐसा ही
करने को कहते हैं।
एक और संपादक की याद बड़ी शिद्दत से आ रही
है, ये सज्जन एक दैनिक
में थे, अक्सर डोसा, काफी सेवन के बाद
रचना छापते, पारिश्रमिक की बात
करने पर छापना बंद करने की घोषणा करते। एक संपादक ऐसे भी थे जो विषय आप से लेते
फिर उसी विषय पर स्टाफ से लिख्वाते, स्टाफ के बिल में लिखते -यदि यह रचना बाहर से लिखवाते तो दुगुना खर्च आता अत:
स्टाफ से लिखवाया, स्टाफ खुश।
स्टाफ के अंदर की राजनीति का एक मनोरंजक
किस्सा यों है –एक बड़े अख़बार के
सम्पादक ने रचना मंगवाई, छपी, एक स्टाफ मेम्बर ने
जाने ऊपर मेनेजमेंट से क्या कहा की पेमेंट रुक गया, शिकायत हुई मगर तब तक जिस ने रचना मंगवाई
थी उसने भुगतान करवा दिया, मगर कुछ दिनों के बाद ही संपादक ने वह संसथान छोड़ दिया।
बालेन्दु शेखर तिवारी ने भी अंक निकाला, मुझे भी अवासर दिया।
नई गुदगुदी के मोदीजी इन्जिनियर है, फिर भी अच्छे संपादक
है। रंग चकल्लस के रामावतार त्यागी ने
अवसर तो दिया मगर कार्यक्रम के लायक नहीं समझा, उन्होंने ब्राह्मणों का खूब पक्ष लिया, आगे जाकर कायस्थ
संपादकों का बोल बाला हो गया, कमलेश्वर, भारती, भटनागर, अवस्थी, आ गये। केपी सक्सेना
खूब छपे। शरद जोशी ने भी संपादक का भार लिया मगर ज्यादा चले नहीं। कई प्रकाशक भी
संपादक रखने लगे हैं मगर ये बेचारे पीर बाबर्ची भिश्ती खर याने प्रूफ रीडिंग से
लगाकर बण्डल ट्रांसपोर्ट तक पहुँचाने तक का काम करते हैं। कुछ ज्यादा होशियार होते हैं तो प्रकाशन
सलाहकार का मुखौटा लगा लेते हैं, या फिर क्रय समिति का लायीजन करते हैं। जो लोग सेल्फ पब्लिशिंग कर रहे हैं वे
इससे वाकिफ़ हैं।
बहुत सारे सम्पादकों ने मुझे नहीं छापा, बहुत सारों ने बार
बार छापा। काफी प्रकाशन नि:शुल्क हुए। कई बार फीचर एजेंसीज ने लगातार छपा मगर पैसे
नहीं दिए।
(3)
कुछ शब्द नयी पीढ़ी के नए संपादकों पर भी
अर्ज करूँ तो आगे चलूं-
ये लोग सुंदर हैं, स्मार्ट हैं, अभी अभी डिग्री, डिप्लोमा, पीजी करके निकले हैं
युवा हैं अत: अधीर हैं, किसी को कुछ समझते नहीं 75 साल के कहानीकार को 1350 शब्दों की कहानी भेजने को कहते हैं, किसी भी लेख का सर या
पैर काट कर छापने की क्षमता रखते हैं। यदि विसुअल में हैं तो क्या कहने। खुद भी
कवि, साहित्यकार का सपना
पालते हैं, मेहनत नहीं केवल मशीन
पर भरोसा, नेट से मॉल मारा
चिपकाया और जीफ के साथ या सोशल मीडिया पर। ये पीढ़ी अख़बारों में जान-पहचान, एकआध किताब के सहारे
घुसती है, फण्डा क्लियर है, जल्दी से जल्दी एक फ्लैट, कार व स्रद्बठ्ठद्म याने डबल इनकम नो किड। ये लोग भावनाओं से नहीं मशीन से
चलते हैं, ये सब प्रभारी होते
है।
संपादकों की यह गाथा बिना पारिश्रमिक का
जिक्र किये पूरी नहीं हो सकती। कभी टाइम्स में सबसे अच्छी व्यवस्था थी, हर पत्र का जवाब आता
था। अब स्थिति ये है की पारिश्रमिक की दरे 50 वर्ष पुरानी है, पेमेंट आने की गति भी बहुत सुस्त है, यदि आपने स्मरण करा दिया तो अगली रचना नहीं छपेगी। कई जगहों पर पेमेंट बंद कर
दिए गए हैं, या इतने कम है की
बताते शरम आती हैं। कुछ संपादक पूरा कॉपी राईट खरीद लेते हैं। विष्णु प्रभाकर ने
कहा था-फिल्म या पत्रकारिता से ही पैसा कमाया जा सकता हैं साहित्य से नहीं।
एक और संपादक की याद आ रही है, वे बड़े सम्पादक थे, जब भी गया प्रेम से मिले, निम्बू वाली चाय
पिलाई, खूब गप्पे मारी, मगर मेरी रचना कभी
नहीं छपी, बाद में और ऊँचे पद
पर चले गए, मेरी रचनाएँ छपने लगी
मैंने प्रभारी से पूछा तो उसने बताया, बॉस ने ही मना कर रखा था। आज कल प्रभारी सम्पादक भी खूब हो गये हैं, ये संपादक से भी भारी
होते हैं । एक ही स्थान के बजाय अलग अलग स्थानों पर, किसी को नहीं पता क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? एक प्रदेश के संपादक
ने चार पाँच लेख ले लिये, न छापे न वापस दे। आखिर में मैंने दूसरी जगह छपवा दिया वे नाराज हो गए, कुछ दिनों बाद उनके
सेठजी उनसे नारज हो गये, हटा दिए गए। पक्की नौकरी नहीं अब ठेके के संपादकों का युग है। तू नहीं और सही, और नहीं और सही। ई-
पत्रिका के सम्पादक के रूप में मुझे रविशंकर श्रीवास्तव- रचनाकार का कॉम बहुत पसंद
है, तुरंत छापते हैं। अभिव्यक्ति की संपादिका
भी अवसर देती हैं उदंती.com की रत्ना वर्मा भी याद करती रहती हैं।
सम्पादक कथा अनंता ।
(4)
अब मैं संपादकों का पीछा छोड़ता हूँ और
प्रकाशकों को पकड़ता हूँ। ये वे दिन थे, जब मैं बगल में पाण्डुलिपि दबाये चौड़ा
रास्ता से लगाकर दरियागंज तक चक्कर लगाता रहता था, दोनों जगहों पर कुछ
चाय वाले मुझे पहचानने लग गए थे। बबुआ लेखक बनना चाहता है, इस वाक्य के साथ कट
चाय मिलती थी। ऐसे नाजुक समय में चम्पालाल राका ने मुझे सही सलाह दी, पहली किताब खुद छाप
लो, मैं वितरित कर लागत
निकलवा दूँगा, बात जम गयी, कवर के लिए ब्लाक
रामचन्द्र शुक्ल व्याकुल के संग्रहालय से उधार पर लिए गए, कागज उधारी में आया, और इस प्रकार ‘कुर्सी सूत्र’ छपी। एक विज्ञापन भी
दिया गया। किताब की कई समीक्षाएँ छपी। बीकानेर के एक सज्जन कुछ प्रतियाँ ले गए आज
तक वापस नहीं आये। अब मैं प्रकाशकों के पास पुस्तक के साथ जाने लगा। एक
प्रसिद्ध प्रकाशक ने अगली पुस्तक छाप दी, मगर लिखित अनुबंध
नहीं किया, बाद में समझौते के
रूप में एक मुश्त राशि ली गयी। बाद में मैंने इस प्रकाशक को कोई पुस्तक नहीं दी। इनका
नाम बड़ा था मगर दर्शन, व्यवहार बहुत ही छोटा था। मणि मधुकर ने इन महाशय के कई किस्से मुझे सुनाये। हिंदी की आखरी किताब
नामक पुस्तक छपने बाद मेरा शुमार लेखकों में हो गया, उन्ही दिनों इब्ने इंशा की उर्दू की आखरी
किताब ने धूम मचा राखी थी मेरी किताब भी
उसी कोण से देखि गयी। हाथ में दो किताबे लेकर मेने दिल्ली की और कूच किया, प्रभात प्रकाशन के
श्याम सुन्दर जी ने हाथों हाथ लिया, पाण्डुलिपि ली, अनुबंध बनाया चेक दिया, आने जाने का किराया दिया, मिठाई खिलाई और नाश्ता कराया, मैं परम प्रसन्न भया। प्रभातजी ने भी
इस परम्परा को बनाये रखा।
दिल्ली के एक अन्य बड़े प्रकाशक से मिलने
गया, बातचीत हुई बोले -आप बच्चों की दो किताबें दीजिये, अगली बार वापस गया वे
सब कुछ भूल गए। मुझे बैठने को भी नहीं कहा। ज्यादातर प्रकाशक पैसे या रायल्टी के
नाम से ही बिदकते हैं। और कोढ़ में खाज की तरह पैसे देकर छपास पूरी करने वाले।
शायद इसी कारण दरियागंज में ही एक दुकान पर हिन्दी साहित्य सौ रूपये किलो बिक रहा
है।
प्रकाशक साफ कहते है, रायल्टी याने रिश्वत
आपको दे तो आप क्या मदद करेंगे, किसी समिति से काम करा दे, या फिर पुस्तक पाठ्यक्रम में लगवा दे। जयपुर में यह धंधा आम है। एक प्रकाशक ने
बताया हर लायब्रेरियन लेखक है, क्रय आदेश के साथ ही
पाण्डुलिपि पकड़ा देता है, यहीं रिश्वत है, कई बार विभागाध्यक्ष उसी प्रकाशक की किताब खरीदता है, जो उसकी पुस्तक भी
छापे और पैसे भी दे, ऐसे पचासों हिन्दी वालों के नाम लिखे जा सकते हैं जो केवल कुर्सी के बल पर
बड़े लेखक बन गए हैं, यहीं नहीं अब तो नेता, अफसर, भी लेखक है क्योंकि
प्रकाशक का फायदा इसी में है।
वैसे जयपुर जनरल बुक्स की दूसरी सबसे बड़ी मंडी
है यहाँ पर पुस्तक अस्सी प्रतिशत कमीशन पर मिल जाती है, दिल्ली से सस्ती
पुस्तक जयपुर में। नकली मॉल भी काफी। अब तो वन वीक, कुंजियों, पास बुक्स आदि का सबसे बड़ा बाज़ार जयपुर। कई
स्वनामधन्य प्रकाशक पुलिस व जेल तक हो आये। कुछ को ससुराल वालों ने बचा लिया।
पाठ्य पुस्तकों व बोर्ड में पुस्तक भिड़ाने का एक माफिया यहाँ पर सक्रिय है। जो
समिति के सदस्यों को मेनेज करने का विशेषज्ञ
है। यहाँ पर लेखक को लबूरने वाले प्रकाशक, उनके दलाल भी खूब। कविता का मॉल सबसे
ज्यादा यहाँ चलता है, कवि याने आज नहीं तो कल बीस- तीस हज़ार खर्च कर किताब छपा लेगा, लोकार्पण कराएगा, भोजन होगा, समीक्षा छपेगी। कवि
को एक रात के लिए महाकवि घोषित कर दिया जायगा, फिर नए शिकार की तलाश। सेल्फ पब्लिशिंग
कोई खऱाब काम हो ऐसा नहीं है, लेकिन जो पुस्तक छप के बाज़ार में जा रही है, उसकी मेरिट की बात
होनी ही चाहिए, क्योंकि पुस्तक पूरे
समाज को प्रभावित करती है। मैंने दिल्ली जयपुर में कुछ लघु पुस्तकें दी पर मगर
प्राप्ति कुछ ज्यादा नहीं, कुछ खुद छापी, व्यावसायिक लोगों ने बिकने नहीं दी। मगर मैं लगा रहा, धीरे धीरे रस्ते बनते
चले गए।
कुछ सम्पादक भी लेखक हो गये, अपनी टिप्पणियों को
पुस्तकाकार दिया, प्रकाशक को धमकाया, किताब छपाई, विमोचन हुआ, थोक खरीद हुई। पैसा
अंटी में। ऐसे लोग मंत्रियों के मुँहलगे होते है। कालान्तर में बहुत सारे लेखक, प्रकाशकों से दुखी
होकर खुद प्रकाशक हो गये। भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, उपेन्द्रनाथ अश्क, राजेन्द्र यादव और
अन्य सैकड़ों लेखक प्रकाशक बने, उन्होंने भी किताब बेचने के लिए व्यावसायिक काम किये। लेकिन जब इन लोगों ने
दूसरे लेखकों को छापा तो रॉयल्टी नहीं दी या कम दी, प्रेमचंद की प्रेस में तो कर्मचारियों ने
हड़ताल तक की। दिल्ली के एक प्रकाशक तो अकादमी के पुरस्कारों की राजनीति पर भी
अपना दखल रखते हैं। उनके या सहयोगी संस्थान को ही पुरस्कार जाना है, बाकि सब एक तरफ वे एक
तरफ।
एक और प्रकाशक की याद आ रही है, वे इतने सज्जन थे शाम
होते ही किसी न किसी किसी लेखक को पकड़ते और पीने के लिए चल देते, वे ऐसे ही एक दिन
चुपचाप दुनिया से भी चले गए।
अपनी पुस्तक इसी जन्म में आये यह अरमान
लिए ही कई चले गए, शुक्र है की अकादमियाँ प्रकाशन ग्रांट देने लगी है जिसे प्रकाशक पूरी ही जीम
जाता है, लेकिन लेखक अपनी कृति
का मुख देख लेता है, जेसे सुहागरात को पत्नी का मुख।
लेखक प्रकाशन संपादक रूपी त्रिभुज को कई
प्रकार से बनाया जा सकता है, साहित्य के विद्यार्थी यह सब गणित के विशेषज्ञ से ज्यादा जानते हैं। एक अच्छे
सम्पादक व एक अच्छे प्रकाशक की तलाश कभी खतम नहीं होती।
जीवन के अंतिम वर्षों में लेखक की यह
इच्छा भी बलवती हो जाती है की उसकी रचनावली या ग्रंथावली छप जाये। हरिशंकर परसाई रचनावली उनके जीवन काल में ही आ
गयी थी। सुमित्रानंदन पन्त ने प्राप्त पुरस्कार राशि को अपनी ग्रंथावली के प्रकाशन
हेतु दे दिया था। गिरिराज शरण अगरवाल की रचनावली भी आ गई है। इस काम को प्रकाशक बहुत मनोयोग से करता है, सम्पादक भी आसानी से
मिल जाता है क्योंकि यदि हिन्दी का अध्यापक है तो तुरंत प्रोन्नति व मोटी रकम
संपादन के नाम की। नेताओं की भी रचनावली आ जाती है, एक बड़े लेखक की रचनावली तभी छापी गयी जब
सरकारी खरीद तय हो गयी।
मित्रों अब इस व्यंग्य रचना या संस्मरण या
मेरे आलाप, आत्मालाप या फिर
प्रलाप का अंतिम समय आ गया है, यह रचना निराशावादी नहीं है, यह यथार्थवादी, आधुनिक, उत्तर आधुनिक सत्य व
उत्तर सत्य की रचना है, कोई भी इसे कहीं भी प्रकाशित प्रसारित करें कोई आपत्ति नहीं। आमीन।
(सभी से अग्रिम क्षमा याचना सहित )

1 comment:
जी बेहतरीन व्यंग्य है
आदरणीय
मैं भी संपादकों के द्वारा सताया गया हूँ
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