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Oct 27, 2012

उदंती.com-अक्टूबर 2012

मासिक पत्रिका वर्ष- 3, अंक- 2, अक्टूबर 2012

कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं।
                                                                  - लोकमान्य तिलक

शिक्षा का अधिकार



शिक्षा का अधिकार
  -डॉ. रत्ना वर्मा
इन दिनों देश भक्ति रस में डूबा है। मॉँ दुर्गा की उपासना के साथ पूरा भारत दशहरा और दीपावली के स्वागत की तैयारी में जुट जाता है। चहुँ ओर 'जय माता दीÓ के नारे से वातावरण गुंजायमान रहता है। अष्टमी के दिन कन्या पूजने की जोर-शोर से तैयारी की जाती है। लेकिन कन्या को दुर्गा-माता के रूप में पूजे जाने वाले इस देश में जब देश की सर्वोच्च अदालत यह कहती है कि इस देश में माता-पिता अपनी लड़कियों को स्कूल इसलिए नहीं भेजते; क्योंकि स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं होती तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। दुर्गा की प्रतिबिंब मानी जाने वाली हमारे देश की ये कन्याएँ नवरात्र में भले ही पूजी जाती हों पर वे अपने देश में शिक्षा जैसे सबसे जरूरी मूलभूत अधिकारों से वंचित हो जाती हैं और वह भी इसलिए कि उनके स्कूलों में शौचालयों की व्यवस्था नहीं है!!! 
 इस माह की तीन तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में पानी, बिजली, इमारत और अध्यापकों की कमी जैसी मूलभूत सुविधाओं पर फिर एक बार गहरी चिंता व्यक्त करते हुए राज्यों को जमकर फटकार लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और राज्य सरकार को हर स्कूल में रिक्त पड़े शिक्षकों के पदों को भरने के आदेश के साथ यह भी आदेश दिया है कि सरकारी और अनुदानित शिक्षण संस्थाओं में पीने का पानी और शौचालय उपलब्ध कराया जाए। न्यायालय का निर्देश है कि छह महीने के भीतर देश के सभी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश एक गैर सरकारी संगठन इन्वायरन्मेण्टल एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन फाउंडेशन की याचिका पर सुनवाई के बाद दिया। याचिका में देश के प्राथमिक विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं का मुद्दा उठाया गया है।
बहुत अफसोस जनक है यह सब कि आजादी के 65 वर्षों बाद भी हम अपने स्कूलों में पानी और शौचालय जैसी बेहद मामूली सुविधाएँ भी उपलबध नहीं करा पाएँ हैं और इसके लिए जो कि हमारा मूलभूत कानूनी अधिकार है, जनहित याचिकाओं और कोर्ट का सहारा लेना पड़ रहा है।
सरकार ने 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून पारित तो कर दिया; लेकिन उसका पालन करने में जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को बार-बार सरकार के लिए निर्देश  जारी करना पड़ता है। अन्यथा क्या कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 18 अक्टूबर को सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि सरकार सभी सरकारी स्कूलों में खासकर लड़कियों के लिए शौचालय का निर्माण करें, परंतु सरकार तब भी नहीं जागी और उसने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। साल बीत गया पर हालात जस के तस हैं। अदालत ने तब यह भी कहा था कि शोधों से पता चला है कि जिन स्कूलों में शौचालयों की सुविधा नहीं होती वहाँ माता-पिता अपने बच्चों को और खासतौर पर बच्चियों को पढऩे के लिए नहीं भेजते। अदालत को तब यह भी कहना पड़ा था कि बुनियादी सुविधाएँ प्रदान नहीं करना संविधान के अनुच्छेद 21-ए के तहत बच्चों को प्रदत्त नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का उल्लघन है।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए हमें अफसोस के साथ यह कहना पड़ता है कि अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखते।
उदंती के इस स्तंभ में हमने कई बार इस मुद्दे को उठाया है। और इस मामले को तब तक उठाते रहेंगे; जब तक कि हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जो कि शिक्षा की बुनियाद है। समय-समय पर कई निजी संस्थानों द्वारा कराए गए शोध और सर्वेक्षण इस बात के गवाह हैं कि हमारे देश में 80 प्रतिशत से भी अधिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाएँ, जैसे- स्कूल भवन, पानी, बिजली, शौचालय, बैठने के लिए कुर्सी टेबल या टाटपट्टी जैसी आवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं और तो और पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी नहीं हैं। एक ही शिक्षक पहली से पाँचवी तक की कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मजबूर हैं। स्कूल भवनों की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। बैठने के लिए पर्याप्त जगह न होने के कारण बच्चे खुले आसमान के नीचे पढऩेे को मजबूर हैं।
 बच्चों को स्कूल में भोजन देने के नाम पर सरकार जो योजना चला रही है, उसमें भी भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा चुका है। कीड़े-मकौड़े से युक्त सड़ा-गला भोजन परोसकर सरकारें आखिर क्या हासिल करना चाहती हैं। पर सच्चाई तो यही है कि जनता को हमारे राजनीतिक दल पढ़ा-लिखा बनने ही नहीं देना चाहते। यदि जनता पढ़-लिख कर जागरूक बन गई तो फिर उनके वोट बैंक का क्या होगा, जिनके बल-बूते पर वे जीत कर कुर्सियाँ हासिल करते हैं!
प्रश्न अब यह उठता है कि कैसे हम शिक्षा के अपने मूल अधिकारों को हासिल करें? जनता को इसके लिए लडऩा तो होगा ही, राजनीतिकों को भी अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर देश को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगा। कानून बना देने मात्र से सरकार की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। किसी भी कानून को लागू करने के लिए सरकार को कई जतन करने पड़ते हैं, योजनाओं को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए काम करना पड़ता है। यह तो सर्वविदित है कि विकसित देशों की समृद्धि का मूलमंत्र वहां की शिक्षा-व्यवस्था की मजबूत इमारत है। जबकि हमारे देश में यही इमारत सबसे कमजोर है। अत: जब तक हम प्राथमिक शिक्षा की नींव को मजबूत नहीं करेंगे और इसके लिए स्कूलों में मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं को मुहैया नहीं कराएँगे तब तक तब समृद्ध देश का सपना पूरा नहीं कर सकते।
यह हो नहीं सकता ऐसी बात भी नहीं है, बस जरूरत है दृढ़ इच्छा शक्ति और मजबूत इरादों की। बहुत अधिक न सही कम से कम पीने का पानी, शौचालय और शिक्षकों की कमी को दूर करने की दिशा में पहल करके हमारी सरकारें सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का मान तो रख ही सकती हैं। सरकारें चाहे वह केन्द्र की हो या राज्य की, जिस दिन भी ठान लेंगी कि देश के हर बच्चे को चाहे वह लड़का हो या लड़की शिक्षा के समुचित अवसर मिलेंगे तब कहीं जाकर नौनिहाल देश का मान बढ़ाएँगे और तब देश को समृद्धि के शिखर पर परवान चढऩे से कोई नहीं रोक सकेगा। विश्वास करना चाहिए कि है ऐसी जागरूकता जल्दी ही आएगी।

                                                                                                                         

भारत रत्न के असली हकदार वर्गीज कुरियन




भारत रत्न के असली हकदार
वर्गीज कुरियन

 - प्रेमपाल शर्मा
अमूल के अमूल्य जनक वर्गीज कुरियन नहीं रहे। रेलवे कॉलेज बड़ौदा के दिनों में उनका कई बार अधिकारियों को संबोधित करने और अनुभवों को सुनने, साझा करने का मौका मिला। कई बिंब एक साथ कौंध रहे हैं, जिनमें सबसे सुखद है खचाखच भरे सभागार में उनका पूरी विनम्रता से भेंट स्वरूप दी गयी टाई को वापस करना। 'मैं किसानों के बीच काम करता हूँ। इसे कब लगाऊँगा।Ó
अपनी जरूरत और सादगी के बीच अद्भुत संतुलन।
कुछ वर्ष पहले उनकी आत्मकथा छपी थी। 'सपना जो पूरा हुआ। अंग्रेजी में 'आई टू हैव ए ड्रीमÓ। इसमें उन्होंने विस्तार से केरल से चलकर गुजरात को कार्यक्षेत्र बनाने और अमूल संस्था की पूरी कहानी बयान की है। इसकी प्रासंगिकता ऐसे वक्त में सबसे ज्यादा है, क्योंकि यह पुस्तक उन सारे विकल्पों से रू-ब-रू कराती है, जिनको अपनाकर भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल और मौजूदा संकटों से बच सकता है या उन्हें परास्त कर सकता है।
शायद ही कोई प्रधानमंत्री होगा जिसने गुजरात में अमूल के इस प्रयोग को खुद जाकर न देखा हो और वर्गीज कुरियन और सहकारिता आंदोलन की तारीफ न की हो। नेहरू जी ने प्लांट का उद्घाटन किया, फिर शास्त्री जी गये। इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई से लेकर अब तक तमाम प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री। ऐसा नहीं कि राजनीतिज्ञों ने अपनी नाक घुसेडऩे की कोशिश न की हो, लेकिन वर्गीज की निष्ठा, लगन और गुजरात के किसानों की एकजुटता ने किसी भी राजनीतिज्ञ के मंसूबे पूरे होने नहीं दिए। चापलूसी और पोस्टिंग की जोड़-तोड़ में लगी मौजूदा नौकरशाही कुरियन के अनुभव से सीखकर अपनी पहचान वापस ला सकती है। जब हर नौकरशाह दिल्ली की जुगाड़ में रहता है, कुरियन ने खुद शर्त रखी कि 'मैं दिल्ली किसी भी कीमत पर नहीं आऊँगा। मैं किसानों के संगठन का नौकर हूँ और उनके नजदीक आनंद में ही रहूँगा।
जाति व्यवस्था और छूआछूत से जूझते समाज में अमूल की सफलता एक आर्थिक सफलता ही नहीं, एक सामाजिक क्रांति का भी संकेत देती है। सहकारिता आंदोलन में सभी किसान शामिल थे। ब्राह्मण, बनिया, दलित, मुसलमान सभी। समितियाँ गाँव-गाँव स्थापित की गईं थीं और मोटा-मोटी नियम कि जो पहले आए उसका दूध पहले लिया जाएगा। सुबह-सुबह लंबी लाइनों में यदि दलित पहले आया है तो वह ब्राह्मण के आगे खड़ा होता था। यह बात समाज के उन वर्गों ने भी स्वीकार कर ली जो इससे पहले इस बराबरी को नहीं मानते थे। कभी-कभी वे अपने उपयोग के लिए भी दूध इन्हीं डेरियों से लेते थे। दूध लेते वक्त वह अहसास गायब होता है कि यह दूध किसी ब्राह्मण का है या किसी निम्न जाति का। मनुष्यों को बराबर समझने के लिए ऐसे आर्थिक संबंध कितनी प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं वह चकित करता है।
सहकारिता के इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी भी विलक्षण रही। जब उन्हें यह अहसास हुआ कि दूध की बिक्री से उनका घर चल सकता है और उसका मुनाफा भी उनके परिवार की बेहतरी के काम आएगा तो और स्त्रियों में भी एक अलग किस्म का स्वावलंबन पैदा हुआ। वे खुद बढ़-चढ़कर आगे आईं। उनको उन आधुनिक डेयरी फार्मों में ले जाया जाता जहाँ मवेशी रहते थे। उनकी देखभाल करने का प्रशिक्षण दिया जाता तो इससे उनकी समझ में भी स्वास्थ्य, प्रजनन संबंधी जानकारी पैदा हुई। वे स्वयं इस बात को समझने लगी कि भैंस, गायों को क्यों गर्भावस्था में पौष्टिक भोजन देना चाहिए। यहाँ तक कि कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों पर उन्हें ले जाने से जनसंख्या नियंत्रण की समझ भी उनमें पैदा हुई। शिक्षा का अर्थ सिर्फ डिग्रियाँ नहीं, ऐसे सामाजिक अनुभव भी आपको समझदार नागरिक बनाते हैं।
अमूल का यह मॉडल विक्रेंद्रीकरण का सबसे अच्छा उदाहरण है। गाँवों की अर्थव्यवस्था ठीक होगी तो गाँव बेहतर होंगे। तब ये लोग न दिल्ली की तरफ भागेंगे, न मुंबई की तरफ जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ अपना वोट बैंक ढूंढें। स्कूल भी उनके वहीं खोले गए। यहाँ तक कि पशुओं की देखभाल के लिए पशु चिकित्सक गाँव-गाँव  आ गए। पशु चिकित्सक जब आ गए तो किसानों को लगा कि मनुष्यों के लिए भी तो डॉक्टर चाहिए। इससे सरकारी अस्पताल बढ़े, यानी कि एक के बाद एक सुविधा-समृद्धि के द्वार खुलते गए। उत्तर भारत के अधिकांश में विकेन्द्रीकृत, पंचायती राज पर सेमीनार तो 60 वर्ष से हो रहे हैं, जमीनी स्तर पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जो अमूल की छाया के आसपास भी हो। बिहार, उत्तर प्रदेश की जनता नेता और बुद्धिजीवियों के लिये कई सबक इसमें छिपे हैं।
सफलता के शीर्ष पर पहुँचे हुए कुरियन पाकिस्तान के बुलावे पर और विश्व बैंक के अनुरोध पर पाकिस्तान गए। पाकिस्तान भी चाहता था कि कुरियन अमूल जैसी संस्था के निर्माण में उन्हें भी सहयोग दे। कुरियन ने यथासंभव कोशिश भी की। लेकिन मजेदार प्रसंग दूसरा था। पाकिस्तान के एक अधिकारी ने पूछा कि आप एक ईसाई हो और वह भी गुजराती नहीं, हिंदुओं के गुजरात ने कैसे जगह दे दी। कुरियन का जवाब था, 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था, गुजरात में पुलिस महानिदेशक मुस्लिम थे, गृह सचिव ईसाई और गुजरात के राज्यपाल एक मुसलमान। भारत धर्म संप्रदायों से परे एक लोकतांत्रिक देश है इसलिए ऐसा प्रश्न मेरे लिए अप्रासंगिक है।
2002 में मोदी के कारनामों से खार खाये तुरंत भाला-बरछी लेकर सामने आयेंगे लेकिन सत्ता के चरित्र से आम आदमी पर शक नहीं किया जाना चाहिये। क्यों औरंगजेब के कारनामों के आधार पर पूरी मुस्लिम बिरादरी को शक के घेरे में लेना उतना ही घृणास्पाद है। वर्गीज कुरियन ने अपने अनुभवों को समेटते हुए बड़ौदा के उसी भाषण में यह भी कहा था कि गाँधी केवल गुजरात में ही पैदा हो सकता है जहां लोग अच्छे काम के पीछे बिना हील हुज्जत के हो जाते हैं।
सन् सत्तर के बाद पैदा हुई पीढ़ी मुश्किल से ही यह समझ पायेगी कि सन् सत्तर में विशेषकर गर्मियों में मावा या खोये की मिठाइयों पर शादियों तक में प्रतिबंध लग जाता था। उन दिनों दूध की बेहद कमी रहती थी और यदि दूध की मिठाइयों की छूट दी जाती तो बच्चों को दूध नहीं मिल पाता था। कुरियन के प्रयासों का ही प्रताप है कि देश के किसी भी हिस्से से आज दूध की कमी की शिकायत नहीं मिलती। शुद्ध पानी जरूर मुश्किल से मिलता है।
पिछले एक वर्ष से मेरा दिमाग कुरियन पर लिखने को कसमसा रहा था। हुआ यह है कि कुरियन की किताब पढऩे के कुछ दिनों बाद ही मुझे अनसूइया ट्रस्ट से जुड़ी ज्योत्स्ना मिलन ने सेवा की संस्थापक इलाबेन की वाग्देवी प्रकाशन से छपी किताब 'लड़ेंगे भी रचेंगे भीभिजवायी। बेहद प्रेरणादायक। अमूल ने गुजरात समेत देश के लाखों किसानों का जीवन बदल दिया तो इलाबेन ने सेवा संस्था के जरिये समाज में और भी दबायी आधी आबादी यानी कि स्त्रियों की जिंदगी को। सेवा की सहायक संस्थाओं में आज दस लाख से ज्यादा कामगार मजदूर महिलाएँ पैरा बैंकिंग, सिलाई, हस्तशिल्प, स्वास्थ्य, सभी क्षेत्रों में सक्रिय है।
क्या गुजरात के सामाजिक समृद्धि में वर्गीज कुरियन और इला भट्ट के योगदान को नकारा जा सकता है?  दिल्ली में मेरे घर के आसपास अमूल की न चॉकलेट मिलती, न आईसक्रीम। मयूर विहार के दर्जनों दुकानदारों से आग्रह किया कि अमूल की चॉकलेट रखो तो खूब बिकेगी। उनकी चुप्पी का अर्थ था केडबरी और दूसरी ब्रांडों में मुनाफा ज्यादा है। कहाँ गयी तुम्हारी देशभक्ति, देशी योग, स्वदेश, स्वराज। ललकारने पर भी कुछ असर नहीं हुआ है।
ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ वर्षों से बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। देशी उत्पाद अमूल को टिकने के रास्ते में भी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड ने कौन से रोड़े नहीं अटकाये। उनके उत्पाद पोल्स नए नेस्ले का आयात बंद हो गया था। सरकार पर दवाब बनाया, कुप्रचार किया कि भैंस के दूध से मिल्क पाउडर नहीं बनाया जा सकता। लेकिन सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को धता बताते हुए अमूल ने साबित कर दिया कि रास्ता संभव है। श्याम बेनेगल ने इस पूरे प्रयोग पर 'मंथनजैसी फिल्म भी बनायी। लेकिन देश के अधिकतर हिस्सों में अभी भी इस प्रयोग इसकी आत्मा, इसकी दृष्टि को समझकर पूरे देश में फैलाने की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ हम 20 साल से तो हवाई नारे, सेमीनार सुन ही रहे हैं, यदि एक भी काम हम ऐसा कर पाएँ तो देश की तस्वीर बदल सकती है।
वैसे तो ऐसी सामाजिक हस्तियाँ  किसी पुरस्कार की मुहताज नहीं होती फिर भी भारत रत्न का अगला कोई हकदार है तो वर्गीज कुरियन। (http://www.jankipul.com से)

प्रेरक

वास्तविक सौंदर्य
 हर सुबह घर से निकलने के पहले सुकरात आईने के सामने खड़े होकर खुद को कुछ देर तक तल्लीनता से निहारते थे।
एक दिन उनके एक शिष्य ने उन्हें ऐसा करते देखा। आईने में खुद की छवि को निहारते सुकरात को देख उसके चेहरे पर बरबस ही मुस्कान तैर गयी।
सुकरात उसकी ओर मुड़े, और बोले, बेशक, तुम यही सोचकर मुस्कुरा रहे हो न कि यह कुरूप बूढ़ा आईने में खुद को इतनी बारीकी से क्यों देखता है? और मैं ऐसा हर दिन ही करता हूँ।
शिष्य यह सुनकर लज्जित हो गया और सर झुकाकर खड़ा रहा। इससे पहले कि वह माफी माँगता, सुकरात ने कहा, आईने में हर दिन अपनी छवि देखने पर मैं अपनी कुरूपता के प्रति सजग हो जाता हूँ। इससे मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरणा मिलती है जिसमें मेरे सद्गुण इतने निखरें और दमकें कि उनके आगे मेरे मुखमंडल की कुरूपता फीकी पड़ जाए।
शिष्य ने कहा, तो क्या इसका अर्थ यह है कि सुन्दर व्यक्तियों को आईने में अपनी छवि नहीं देखनी चाहिए?
ऐसा नहीं है, सुकरात ने कहा, जब वे स्वयं को आईने में देखें तो यह अनुभव करें कि उनके विचार, वाणी, और कर्म उतने ही सुन्दर हों जितना उनका शरीर है। वे सचेत रहें कि उनके कर्मों की छाया उनके प्रीतिकर व्यक्तित्व पर नहीं पड़े।
(www.hindizen.com से)

चौराहे पर गाँधी



चौराहे पर गाँधी
- प्रेम जनमेजय
मसूरी में, लायब्रेरी चौक पर
राजधानी की हर गर्मी से दूर
आती-जाती भड़भड़ाती
सैलानियों की भीड़ में अकेला खड़ा
सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी
क्या सोच रहा होगा-
अपने से निस्पृह
भीड़ के उफनते समुद्र में
स्थिर, निस्पंद, जड़
नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी
खड़ा।
क्या सोच रहा है, गाँधी ?
सोचता हू मैं।

कोटि-कोटि पग
इक इशारे पर जिसके, बस
नाप लेते थे साथ-साथ हज़ारों कदम
अनथक
वो ही थका-सा
प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात
अकेला
संगमरमरी कंकाल में, किताबी
मूर्तिवत खड़ा-सा
क्या सोच रहा है, गाँधी ?

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़
नियंत्रित करतीं वर्दियाँ
कारों की चिल्ल-पौं को
पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियाँ
एक शोर के बीच
दूसरे शोर की भीड़ को
जन्म देती
मछली बाजार-सी कर्कश दुनिया
किसी के पास समय नहीं
एक पल भी देख ले गाँधी को
अकेले अनजान खड़े, गाँधी को ।

क्या सोचता होगा गाँधी ?
भीड़ में भी विरान खड़ा
क्या, सोचता होगा गाँधी !

सोचता हूँ,
सोचता होगा
भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता... मेरी ?
मैं तो बन न सका
भीड़ का भी हिस्सा
बस, खड़ा हूँ शव-सा औपचारिक
इक माला के सम्मान का बोझ उठाए
किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में
अपनेपन की सच्चाई को तरसता
अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसूरता ।

हमारे पराएपन को झेलता
हमारा अपना ही
बंजर बेजान खड़ा है गाँधी ।
मेरा गाँधी, तेरा गांधी
अनेक हिस्सों में बंटा गाँधी
सड़कों और चौराहों को
नाम देता गाँधी
हमारी बनाई भीड़ में
वीरान-सा चुपचाप,
खड़ा है,  अकेला गाँधी ।
क्या सोचता है गाँधी ?
क्या, सोचता है गाँधी!
संपर्क: संपादक- व्यंग्य यात्रा, 73 साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली 110 063,
मो. 09811154440, Email- prem_janmejai@yahoo.com