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Oct 27, 2012

मंटो का पहला अफसाना



मंटो का पहला अफसाना
मंटो की जिन्दगी-  बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की जिंदगी में सआदत हसन मंटो को लिखने के लिए सिर्फ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उसने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 खाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे।
बैरिस्टर के बेटे से लेखक होने तक-  मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उसके वालिद खुद एक नामी बैरिस्टर और सेशंस जज थे। और माँ? सुनिए बकलम मंटो 'उसके वालिद, खुदा उन्हें बख्शे, बड़े सख्तगीर थे और उसकी वालिदा बेहद नर्म दिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाजा आप कर सकते हैं।
बचपन से ही मंटो बहुत जहीन था, मगर शरारती भी कम नहीं था, जिसके चलते एंट्रेंस इम्तहान उसने दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उसका उर्दू में कमजोर होना भी था। उन्हीं दिनों के आसपास उसने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आगा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था। 'यह क्लब सिर्फ 15-20 रोज कायम रह सका था, इसलिए कि वालिद साहब ने एक रोज धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और वाजे अल्$फाज में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।
एंट्रेंस तक की पढ़ाई उसने अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। 1931 में उसने हिंदू सभा कॉलेज में दाखिला लिया। उन दिनों पूरे देश में और खासतौर पर अमृतसर में आजादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियांवाला बाग का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उस के बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी।
पहला अफ़साना
क्रांतिकारी गतिविधियां बराबर जल रही थीं और गली-गली में 'इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन वालिद की सख्तीगीरी के सामने वह मन मसोसकर रह जाता।
आखिरकार उसका यह रुझान अदब से मुखातिब हो गया। उसने पहला अ$फसाना लिखा 'तमाशा’, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नजर से देखा गया है। इसके बाद कुछ और अ$फसाने भी उसने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखे।
1932 में मंटो के वालिद का देहांत हो गया। भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में वालिद के फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख्ती पर लिखा-'लाल कमरा।
जाहिर है कि रूसी साम्यवादी साहित्य में उसकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। इन्हीं दिनों उसकी मुलाकात अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उसे रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढऩे के लिए प्रेरित किया और उसने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया।
अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उसने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे 'द लास्ट डेज ऑफ ए कंडेम्डका उर्दू में तर्जुमा किया, जो 'सरगुजश्त-ए-असीरशीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ।
यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका तर्जुमा करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत करीब है। अगर मंटो के अ$फसानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था। विक्टर ह्यूगो के इस तर्जुमे के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे 'वेराका तर्जुमा शुरू किया।
इस ड्रामे की पृष्ठभूमि 1905 का रूस है और इसमें जार की क्रूरताओं के खिलाफ वहाँ के नौजवानों का विद्रोह ओजपूर्ण भाषा में अंकित किया गया है। इस ड्रामे का मंटो और उसके साथियों के दिलों-दिमाग पर ऐसा असर हुआ कि उन्हें अमृतसर की हर गली में मॉस्को दिखाई देने लगा।
दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके 'रूसी अफ़सानेशीर्षक से प्रकाशित करवाया। इन तमाम अनुवादों और फ्रांसीसी तथा रूसी साहित्य के अध्ययन से मंटो के मन में कुछ मौलिक लिखने की कुलबुलाहट होने लगी, तो उसने पहला अफ़साना लिखा 'तमाशा’, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है।

1 comment:

vandana gupta said...

मंटो के जीवन के अनछुए पहलुओं से परिचित करा दिया।