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Oct 27, 2012

भारत रत्न के असली हकदार वर्गीज कुरियन




भारत रत्न के असली हकदार
वर्गीज कुरियन

 - प्रेमपाल शर्मा
अमूल के अमूल्य जनक वर्गीज कुरियन नहीं रहे। रेलवे कॉलेज बड़ौदा के दिनों में उनका कई बार अधिकारियों को संबोधित करने और अनुभवों को सुनने, साझा करने का मौका मिला। कई बिंब एक साथ कौंध रहे हैं, जिनमें सबसे सुखद है खचाखच भरे सभागार में उनका पूरी विनम्रता से भेंट स्वरूप दी गयी टाई को वापस करना। 'मैं किसानों के बीच काम करता हूँ। इसे कब लगाऊँगा।Ó
अपनी जरूरत और सादगी के बीच अद्भुत संतुलन।
कुछ वर्ष पहले उनकी आत्मकथा छपी थी। 'सपना जो पूरा हुआ। अंग्रेजी में 'आई टू हैव ए ड्रीमÓ। इसमें उन्होंने विस्तार से केरल से चलकर गुजरात को कार्यक्षेत्र बनाने और अमूल संस्था की पूरी कहानी बयान की है। इसकी प्रासंगिकता ऐसे वक्त में सबसे ज्यादा है, क्योंकि यह पुस्तक उन सारे विकल्पों से रू-ब-रू कराती है, जिनको अपनाकर भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल और मौजूदा संकटों से बच सकता है या उन्हें परास्त कर सकता है।
शायद ही कोई प्रधानमंत्री होगा जिसने गुजरात में अमूल के इस प्रयोग को खुद जाकर न देखा हो और वर्गीज कुरियन और सहकारिता आंदोलन की तारीफ न की हो। नेहरू जी ने प्लांट का उद्घाटन किया, फिर शास्त्री जी गये। इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई से लेकर अब तक तमाम प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री। ऐसा नहीं कि राजनीतिज्ञों ने अपनी नाक घुसेडऩे की कोशिश न की हो, लेकिन वर्गीज की निष्ठा, लगन और गुजरात के किसानों की एकजुटता ने किसी भी राजनीतिज्ञ के मंसूबे पूरे होने नहीं दिए। चापलूसी और पोस्टिंग की जोड़-तोड़ में लगी मौजूदा नौकरशाही कुरियन के अनुभव से सीखकर अपनी पहचान वापस ला सकती है। जब हर नौकरशाह दिल्ली की जुगाड़ में रहता है, कुरियन ने खुद शर्त रखी कि 'मैं दिल्ली किसी भी कीमत पर नहीं आऊँगा। मैं किसानों के संगठन का नौकर हूँ और उनके नजदीक आनंद में ही रहूँगा।
जाति व्यवस्था और छूआछूत से जूझते समाज में अमूल की सफलता एक आर्थिक सफलता ही नहीं, एक सामाजिक क्रांति का भी संकेत देती है। सहकारिता आंदोलन में सभी किसान शामिल थे। ब्राह्मण, बनिया, दलित, मुसलमान सभी। समितियाँ गाँव-गाँव स्थापित की गईं थीं और मोटा-मोटी नियम कि जो पहले आए उसका दूध पहले लिया जाएगा। सुबह-सुबह लंबी लाइनों में यदि दलित पहले आया है तो वह ब्राह्मण के आगे खड़ा होता था। यह बात समाज के उन वर्गों ने भी स्वीकार कर ली जो इससे पहले इस बराबरी को नहीं मानते थे। कभी-कभी वे अपने उपयोग के लिए भी दूध इन्हीं डेरियों से लेते थे। दूध लेते वक्त वह अहसास गायब होता है कि यह दूध किसी ब्राह्मण का है या किसी निम्न जाति का। मनुष्यों को बराबर समझने के लिए ऐसे आर्थिक संबंध कितनी प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं वह चकित करता है।
सहकारिता के इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी भी विलक्षण रही। जब उन्हें यह अहसास हुआ कि दूध की बिक्री से उनका घर चल सकता है और उसका मुनाफा भी उनके परिवार की बेहतरी के काम आएगा तो और स्त्रियों में भी एक अलग किस्म का स्वावलंबन पैदा हुआ। वे खुद बढ़-चढ़कर आगे आईं। उनको उन आधुनिक डेयरी फार्मों में ले जाया जाता जहाँ मवेशी रहते थे। उनकी देखभाल करने का प्रशिक्षण दिया जाता तो इससे उनकी समझ में भी स्वास्थ्य, प्रजनन संबंधी जानकारी पैदा हुई। वे स्वयं इस बात को समझने लगी कि भैंस, गायों को क्यों गर्भावस्था में पौष्टिक भोजन देना चाहिए। यहाँ तक कि कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों पर उन्हें ले जाने से जनसंख्या नियंत्रण की समझ भी उनमें पैदा हुई। शिक्षा का अर्थ सिर्फ डिग्रियाँ नहीं, ऐसे सामाजिक अनुभव भी आपको समझदार नागरिक बनाते हैं।
अमूल का यह मॉडल विक्रेंद्रीकरण का सबसे अच्छा उदाहरण है। गाँवों की अर्थव्यवस्था ठीक होगी तो गाँव बेहतर होंगे। तब ये लोग न दिल्ली की तरफ भागेंगे, न मुंबई की तरफ जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ अपना वोट बैंक ढूंढें। स्कूल भी उनके वहीं खोले गए। यहाँ तक कि पशुओं की देखभाल के लिए पशु चिकित्सक गाँव-गाँव  आ गए। पशु चिकित्सक जब आ गए तो किसानों को लगा कि मनुष्यों के लिए भी तो डॉक्टर चाहिए। इससे सरकारी अस्पताल बढ़े, यानी कि एक के बाद एक सुविधा-समृद्धि के द्वार खुलते गए। उत्तर भारत के अधिकांश में विकेन्द्रीकृत, पंचायती राज पर सेमीनार तो 60 वर्ष से हो रहे हैं, जमीनी स्तर पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जो अमूल की छाया के आसपास भी हो। बिहार, उत्तर प्रदेश की जनता नेता और बुद्धिजीवियों के लिये कई सबक इसमें छिपे हैं।
सफलता के शीर्ष पर पहुँचे हुए कुरियन पाकिस्तान के बुलावे पर और विश्व बैंक के अनुरोध पर पाकिस्तान गए। पाकिस्तान भी चाहता था कि कुरियन अमूल जैसी संस्था के निर्माण में उन्हें भी सहयोग दे। कुरियन ने यथासंभव कोशिश भी की। लेकिन मजेदार प्रसंग दूसरा था। पाकिस्तान के एक अधिकारी ने पूछा कि आप एक ईसाई हो और वह भी गुजराती नहीं, हिंदुओं के गुजरात ने कैसे जगह दे दी। कुरियन का जवाब था, 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था, गुजरात में पुलिस महानिदेशक मुस्लिम थे, गृह सचिव ईसाई और गुजरात के राज्यपाल एक मुसलमान। भारत धर्म संप्रदायों से परे एक लोकतांत्रिक देश है इसलिए ऐसा प्रश्न मेरे लिए अप्रासंगिक है।
2002 में मोदी के कारनामों से खार खाये तुरंत भाला-बरछी लेकर सामने आयेंगे लेकिन सत्ता के चरित्र से आम आदमी पर शक नहीं किया जाना चाहिये। क्यों औरंगजेब के कारनामों के आधार पर पूरी मुस्लिम बिरादरी को शक के घेरे में लेना उतना ही घृणास्पाद है। वर्गीज कुरियन ने अपने अनुभवों को समेटते हुए बड़ौदा के उसी भाषण में यह भी कहा था कि गाँधी केवल गुजरात में ही पैदा हो सकता है जहां लोग अच्छे काम के पीछे बिना हील हुज्जत के हो जाते हैं।
सन् सत्तर के बाद पैदा हुई पीढ़ी मुश्किल से ही यह समझ पायेगी कि सन् सत्तर में विशेषकर गर्मियों में मावा या खोये की मिठाइयों पर शादियों तक में प्रतिबंध लग जाता था। उन दिनों दूध की बेहद कमी रहती थी और यदि दूध की मिठाइयों की छूट दी जाती तो बच्चों को दूध नहीं मिल पाता था। कुरियन के प्रयासों का ही प्रताप है कि देश के किसी भी हिस्से से आज दूध की कमी की शिकायत नहीं मिलती। शुद्ध पानी जरूर मुश्किल से मिलता है।
पिछले एक वर्ष से मेरा दिमाग कुरियन पर लिखने को कसमसा रहा था। हुआ यह है कि कुरियन की किताब पढऩे के कुछ दिनों बाद ही मुझे अनसूइया ट्रस्ट से जुड़ी ज्योत्स्ना मिलन ने सेवा की संस्थापक इलाबेन की वाग्देवी प्रकाशन से छपी किताब 'लड़ेंगे भी रचेंगे भीभिजवायी। बेहद प्रेरणादायक। अमूल ने गुजरात समेत देश के लाखों किसानों का जीवन बदल दिया तो इलाबेन ने सेवा संस्था के जरिये समाज में और भी दबायी आधी आबादी यानी कि स्त्रियों की जिंदगी को। सेवा की सहायक संस्थाओं में आज दस लाख से ज्यादा कामगार मजदूर महिलाएँ पैरा बैंकिंग, सिलाई, हस्तशिल्प, स्वास्थ्य, सभी क्षेत्रों में सक्रिय है।
क्या गुजरात के सामाजिक समृद्धि में वर्गीज कुरियन और इला भट्ट के योगदान को नकारा जा सकता है?  दिल्ली में मेरे घर के आसपास अमूल की न चॉकलेट मिलती, न आईसक्रीम। मयूर विहार के दर्जनों दुकानदारों से आग्रह किया कि अमूल की चॉकलेट रखो तो खूब बिकेगी। उनकी चुप्पी का अर्थ था केडबरी और दूसरी ब्रांडों में मुनाफा ज्यादा है। कहाँ गयी तुम्हारी देशभक्ति, देशी योग, स्वदेश, स्वराज। ललकारने पर भी कुछ असर नहीं हुआ है।
ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ वर्षों से बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। देशी उत्पाद अमूल को टिकने के रास्ते में भी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड ने कौन से रोड़े नहीं अटकाये। उनके उत्पाद पोल्स नए नेस्ले का आयात बंद हो गया था। सरकार पर दवाब बनाया, कुप्रचार किया कि भैंस के दूध से मिल्क पाउडर नहीं बनाया जा सकता। लेकिन सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को धता बताते हुए अमूल ने साबित कर दिया कि रास्ता संभव है। श्याम बेनेगल ने इस पूरे प्रयोग पर 'मंथनजैसी फिल्म भी बनायी। लेकिन देश के अधिकतर हिस्सों में अभी भी इस प्रयोग इसकी आत्मा, इसकी दृष्टि को समझकर पूरे देश में फैलाने की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ हम 20 साल से तो हवाई नारे, सेमीनार सुन ही रहे हैं, यदि एक भी काम हम ऐसा कर पाएँ तो देश की तस्वीर बदल सकती है।
वैसे तो ऐसी सामाजिक हस्तियाँ  किसी पुरस्कार की मुहताज नहीं होती फिर भी भारत रत्न का अगला कोई हकदार है तो वर्गीज कुरियन। (http://www.jankipul.com से)

1 comment:

sharma said...

shvet kranti ke janm daataa ke bare men jaan kar bahut aashchary huaa ise kahate hain jahaan chah vahaan raah. bahut prernaa bharaa lekh likhaa hai dhanyvaad.

Dr Subhash Sharma, Australia