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Sep 1, 2024

उदंती.com, सितम्बर - 2024

वर्ष- 17, अंक- 2

तुम वृक्षों के फूल तोड़कर ईश्वर की मूर्ति पर चढ़ा आते हो, किसको धोखा देते  हो, वह पहले से ही ईश्वर पर चढ़ा था और ज्यादा जीवंत था उस वृक्ष पर ।  - ओशो

इस अंक में-

अनकहीः फिर वही सवाल...  - डॉ. रत्ना वर्मा

पितृ पक्षः दाह-क्रिया एवं श्राद्ध कर्म का विज्ञान - प्रमोद भार्गव

जीवन दर्शनः सम्मान अपनों का: सुखद सपनों का - विजय जोशी

संस्मरणः कस्बों - शहरों की रौनक ...फेरीवाले - शशि पाधा

प्रेरकः शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण – निशांत

शिक्षक दिवसः बहुत याद आते हैं हमारे शिक्षक - डॉ. महेश परिमल

ग़ज़लः ख़ुदा भी उसको खुला आसमान देता है - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’

जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा - देवेश शांडिल्य

पर्यावरणः स्वच्छ पानी के लिए बढ़ाना होगा भूजल स्तर - सुदर्शन सोलंकी

कविताः अब विवश शब्द - डॉ. कविता भट्ट

आलेखः हिन्दी के विकास में ख़तरे  - सीताराम गुप्ता

आलेखः साहित्य समाज और पत्रकारिता में भाषायी सौहार्द की भूमिका - डॉ पदमावती पंड्याराम

व्यंग्यः नींद क्यों रात भर नहीं आती ! - जवाहर चौधरी

कविताः मुस्कुराती ज़ेब - रमेश कुमार सोनी

कविताः गाँव की अँजुरी ? - निर्देश निधि

लघुकथाः असली कोयल - स्वप्नमय चक्रबर्ती, अनुवाद/ बेबी कारफरमा

लघुकथाएँः 1-भेड़ें, 2- कैमिस्ट्री, 3- दरकती उम्मीद - डॉ. सुषमा गुप्ता  

कहानीः प्रार्थनाओं के विरुद्ध - सत्या शर्मा कीर्ति

कविताः कभी ऐसा भी हो -  स्वाति बरनवाल

दो कविताएँः 1-  पीड़ा, 2-  पाँव   - सुरभि डागर

किताबेंः मन की वीणा पर सधे संवेदना के गीत-‘गाएगी सदी’ - रश्मि विभा त्रिपाठी

आलेखः अनुवाद एक कठिन कार्य है  - महेंद्र राजा जैन


अनकहीः फिर वही सवाल...

   - डॉ. रत्ना वर्मा

कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार और फिर हत्या का मामला पिछले एक माह से पूरे भारत वर्ष में  चर्चा का विषय बना हुआ है। यह बहुत अफसोस की बात है कि समाज में नासूर बन चुके इस तरह के घिनौने कृत्य पर आवाज तभी उठती है, जब एक बार फिर कोई दरिंदा अपनी दरिंदगी दिखाकर हमें शर्मसार कर जाता है। 

 इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर महिला सुरक्षा के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है।  महिला देश के किसी भी कोने में, किसी भी संस्थान में, किसी भी दल या कार्यालय में क्यों सुरक्षित नहीं ? महिला सुरक्षा के मामले में आख़िर कहाँ चूक हो जाती है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसके लिए क्या क़दम उठाए जा रहे हैं? ऐसे कई सवाल निर्भया से लेकर, अब तक सिर्फ सवाल ही बने हुए हैं।

पिछले कुछ बरसों में हमारी सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ नियम- कानून अवश्य बनाए हैं; विशेषकर निर्भया मामले के बाद तो कई नियम कानून और सुरक्षा के उपाय किए गए। जैसे, गृह मंत्रालय द्वारा विकसित निर्भया मोबाइल एप्लिकेशन- जो आपात्काकालीन सम्पर्कों और पुलिस को एसओएस अलर्ट भेजने की अनुमति देता है। एप में स्थान ट्रैकिंग और घटनाओं की ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग जैसी सुविधाएँ भी शामिल हैं। यही नहीं, भारत में कई कंपनियों ने पैनिक बटन, पहनने योग्य ट्रैकर और जीपीएस और जीएसएम तकनीक से लैस पेपर स्प्रे जैसे स्मार्ट सुरक्षा उपकरण आदि आदि... पर ऐसे उपायों के क्या मायने जो समय पर उनकी रक्षा न कर सके। 

प्रश्न तो वहीं का वहीं है न, कि जब इतने सुरक्षात्मक उपाय हमारे पास हैं, तो फिर एक युवा डॉक्टर क्यों अपनी सुरक्षा नहीं कर पाई? जाहिर है- ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं। हमारे देश के वे संस्थान तो बिल्कुल भी सुरक्षित हैं, जहाँ, लड़कियाँ रात की पारी में काम करने जाती हैं? अब जब यह दुर्घटना हो गई है, तो अब रातों- रात नियम में बदलाव किया गया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) ने भी सुरक्षा मामलों को लेकर हाल ही में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया, जिसमें पाया गया कि एक तिहाई डॉक्टर, जिनमें से अधिकतर महिलाएँ थीं, अपनी रात्रि पाली के दौरान ‘असुरक्षित’ महसूस करती हैं। इतनी असुरक्षित कि कुछ ने आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने की आवश्यकता भी महसूस की है।

यह सर्वविदित है कि आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही हैं और काम कर रही हैं। जब भी इस तरह की घटना घटती हैं, तो समाज में एक भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है । बेटियों के माता - पिता डर जाते हैं।  चाहे वह स्कूल या कॉलेज जा रही हो अथवा नौकरी के लिए बस या मेट्रो में सफर कर रही हो, जब तक वह सही- सलामत घर नहीं आ जाती, वे चिंतित रहते हैं।  ऐसे में रात की पारी में काम करने वाली बेटियों के अभिभावकों का भय कितना भयावह होगा, यह हम और आप अंदाजा लगा ही सकते हैं। 

पुरानी सोच रही है कि घर में लड़कियों को ही टोका जाता रहा है कि ऐसे कपड़े मत पहनो, देर रात बाहर मत रहो, धीरे बात करो। ज्यादा हँसो मत, बड़ों की बात मानो, घर के काम सीखो.... आदि- आदि। यानी हर रोक- टोकी लड़की के लिए। बराबरी के इस दौर में  यह  बात सब लड़कों के लिए लागू नहीं होती। वे देर रात पार्टी करें, कोई बात नहीं, वे देर से घर लौटे, कोई बात नहीं । उनकी आजादी पर रोक- टोक करने से उनके अहं पर जोट लगती है। परिणामस्वरूप, आज चारों ओर अराजकता का माहौल है। अपराध बढ़ रहे हैं, मानसिक विकृतियाँ बढ़ रही हैं।  कितना अच्छा होता कि हमारे परिवारों में बचपन से ही लड़कों को भी वही संस्कार दिए जाते, जो लड़कियों को दिए जाते हैं, तो समाज की सूरत कुछ और ही होती। 

इन सब सवालों से अलग कुछ और बातें हैं, जो महिलाओं पर होने वाले इस तरह के अपराधों को लेकर हमेशा से ही उठती रही हैं- ऐसी कौन सी पाशविक प्रवृत्ति है, जो एक इंसान से इतना वीभत्स और दिल दहला देने वाला कृत्य करवाती है। ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति के पीछे कौन- सी मानसिकता काम करती है? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था, हमारी परम्पराएँ, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इसके लिए जिम्मेदार हैं?

दरअसल हमारी सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था भी आज उथली हो गई है। वहाँ से बच्चे आज पैसा कमाने की मशीन बनकर निकलते हैं। गुरुकुल और गुरु -शिष्य की परंपरा तो बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो शिक्षा व्यापार बन गया है, तो ऐसे व्यापारिक क्षेत्र में नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जाए। अब तो न वैसे शिक्षक रहे, न वैसे छात्र।  एक समय था, जब बच्चों के लिए परिवार को उनकी पहली पाठशाला माना जाता था, जहाँ उन्हें माता- पिता के रूप में प्रथम गुरु मिलते थे। आजकल उनके पास भी बच्चों के लिए समय नहीं है। वे भी आधुनिकता की इस दौड़ के एक धावक हैं । अब तो संयुक्त परिवार भी समाप्त हो गए, जहाँ कभी बच्चों को उनके दादा- दादी, नाना- नानी से नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती थी।  

 करोना के दौर में अवश्य ऐसा लगने लगा था कि हमारी परम्पराएँ , हमारी संस्कृति, हमारे रीति रिवाज लौट रहे हैं; परंतु वह दौर खत्म होते ही सब पुनः पूर्ववत् हो गया। ऐसे में युवाओं में संस्कारों की कमी, चिंता का विषय है। संस्कारों के अभाव का ही परिणाम है कि आज युवा पीढ़ी नशे और अपराधों में घिरती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ में यह पीढ़ी खुद के साथ समाज को भी अंधकार के गर्त में धकेल रही है। यहाँ सिर्फ युवा पीढ़ी को ही दोष देना गलत होगा; क्योंकि आज जो युवा हैं, वे कल बड़े होंगे। मानसिक विकृति वाला एक बहुत पड़ा वर्ग जिसमें बड़े-बूढ़े भी शामिल है, ऐसे दुष्कर्म करने  में पीछे नहीं हैं। 

जब भी इस तरह का गम्भीर मामला न्यायालय में जाता है, तो पैसे के लोभ में, स्थापित वकील छल-छद्म और ओछे हथकण्डे अपनाकर न्याय में बाधा पहुँचाते हैं। मीडिया भी कम गुनहगार नहीं। वे ऐसी घटनाओं को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। जनता मूर्ख नहीं, वह सारे खेल को समझती है। कुछ राजनैतिक दल इतने निर्लज्ज हैं कि जिस दुर्घटना पर उन्हें लाभ मिलेगा, उस पर हल्ला मचाएँगे, जिस  पर कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा या उनके दल का ही कोई राक्षस पकड़ में आएगा, तो उस पर चुप रह जाएँगे। अपराधी  पैसे के बल पर कानून की भूल भुलैया में पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार को फँसाकर हतोत्साह और पराजित कर देते हैं। न्याय पाने के रास्ते में इतनी बधाएँ हैं कि विवश होकर परिवार चुप होकर बैठ जाता है।

अतः महिलाएँ सुरक्षित महसूस करें,  इसके लिए कानून ज़रूरी है, तो उससे अधिक ज़रूरी है- कानून का कठोरता से पालन करना। यह कार्य राजनैतिक इच्छा शक्ति के बिना सम्भव नहीं। यह एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है, जिसपर ईमानदारी से चिंतन- मनन करने की आवश्यकता है। 

पितृ पक्षः दाह-क्रिया एवं श्राद्ध कर्म का विज्ञान

 - प्रमोद भार्गव

जीवन का अंतिम संस्कार अंत्योष्टि संस्कार है। इसी के साथ जीवन का समापन हो जाता है। तत्पश्चात् भी अपने वंश के सदस्य की स्मृति और पूर्वजन्म की सनातन हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं के चलते मृत्यु के बाद भी कुछ परंपराओं के निर्वहन की निरंतरता बनी रहती है। इसमें श्राद्ध क्रिया की निरंतरता प्रतिवर्ष रहती है। इस क्रिया को हम अपने दिवंगतों के प्रति आदर का भाव प्रकट करने का माध्यम भी कह सकते हैं। वैसे मृत्यु से लेकर श्राद्ध कर्म तक जो भी क्रियाएँ अस्तित्व में हैं, उनके पीछे शरीर और प्रकृति का विज्ञान जुड़ा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। श्राद्ध की मान्यता आत्मा के गमन से जुड़ी है। चूड़ामण्युनिषद् में कहा है कि ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मांड के अंश से ही प्रकाशमयी आत्मा की उत्पत्ति हुई है। इस आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन्हीं पाँच तत्त्वों के समन्वित रूप से मनुष्य व समस्त प्राणि-जगत् और ब्रह्मांड के सभी आयाम अस्तित्व में हैं। अतएव हिंदुओं के अंत्येष्टि संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके पाँचों तत्त्वों में विलीन करने की परंपरा है। 

आत्मा या शरीर के अंशों के इस विलय को संस्कृत में ‘प्रैती’ कहा है। इसे ही बोलचाल की भाषा में 'प्रेत' कहा जाने लगा। इसे ही धन के लालचियों ने भूत-प्रेत या अतीन्द्रीय शक्तियों की हानि पहुँचाने वाली मानसिक व्याधियों से जोड़ दिया, जबकि शरीर में आत्मा के साथ-साथ मन व प्राण भी होते हैं। आत्मा के अजर-अमर रहने वाले अस्तित्व को अब विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है। मन और प्राण जब शरीर से मुक्त होते हैं, तब भी शरीर में इनका असर बना रहता है। इस कारण ये शरीर के चहुँ ओर भ्रमण करते रहते हैं। मन चंद्रमा का प्रतीक माना है। भारतीय दर्शन में इसीलिए स्थूल व सूक्ष्म शरीर की कल्पना कर विवेचना की गई है। पितृपक्ष की अवधि में ऐसी धारणा है कि मृतकों के सूक्ष्म अंश श्राद्ध की अवधि में परिजनों के इर्द-गिर्द मँडारते रहते हैं और श्राद्ध क्रिया से संतुष्ट होकर लौट जाते हैं। हालाँकि सम्पूर्ण शरीर में सत्रह सूक्ष्म इंद्रियों का आवास होता है। इनमें पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेद्रियाँ, पाँच प्राणेद्रियाँ, एक मन और एक बुद्धि हैं। यही इंद्रियाँ छह धातुओं त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा और अस्थि निर्मित स्थूल शरीर में प्रवेश कर उसे संपूर्ण बनाती हैं। अतएव स्थूल शरीर से जब ये सूक्ष्म इंद्रियाँ निकलती हैं, तब सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए वायवीय अर्थात वायुचलित या काल्पनिक शरीर धारण कर लेती हैं। इसे ही प्रेत-संज्ञा दी गई है। यह वायु तत्त्व से प्रधान शरीर माया-मोह से मुक्त नहीं होने के कारण परिजनों के निकट भटकता रहता है। इसी प्रेतत्त्व से छुटकारे का उपाय दशगात्र एवं श्राद्ध आदि क्रियाएँ हैं। 

       हिंदुओं में दाहक्रिया के समय कपाल-क्रिया प्रचलन में है। गरुड़ पुराण के अनुसार शवदाह के समय मृतक की खोपड़ी को घी की आहुति देकर डंडे से प्रहार करके फोड़ा जाता है। चूँकि खोपड़ी का अस्थिरूपी कवच इतना मजबूत होता है कि सामान्य आग में वह आसानी से भस्मीभूत नहीं हो पाता है। इसलिए उसे घी डालकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है, जिससे यह भाग पूर्णरूप से पंचतत्वों में विलय हो जाए। इस क्रिया के प्रचलन से मान्यता जुड़ी है कि कपाल का भेदन हो जाने से प्राण तत्त्व पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं और पुनर्जन्म की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। इस विषयक एक मान्यता यह भी है कि यदि मस्तिष्क का भाग अधजला रहेगा तो अगले जन्म में शरीर पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाएगा। मस्तिष्क में ब्रह्मा का निवास माना गया है, जो ब्रह्मरंध्र में प्राण के रूप में स्थिर रहता है। ऐसा माना जाता है कि शिशु जब गर्भ में जीवन ग्रहण करता है तो वह इसी रंध्र से होकर भ्रूण के शरीर में प्रवेश पाता है। यह बिंदु सिर के सबसे ऊपरी भाग में होता है। इसी भाग पर चोटी रखने का विधान है। यह भाग अत्यंत मुलायम होता है। चूँकि जीवन इस छिद्र से होकर शरीर में प्रवेश करता है, इसलिए कपाल- क्रिया के माध्यम से इसे संपूर्ण रूप से बाहर निकालने का विधान किया जाता है, जिससे शरीर में पूर्व की कोई स्मृति शेष न रह जाए। इसे भौतिक शरीर का एंटीना भी कह सकते हैं।

इस ब्रह्मरंध्र का सबसे प्राचीन विज्ञान-सम्मत उल्लेख महाभारत में मिलता है। अश्वत्थामा जब पाण्डवों के वंशनाश के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र छोड़ देते हैं, तब उत्तरा की कोख से मृत शिशु जन्मता है। परंतु कृष्ण जब उस शिशु को हथेलियों में लेते हैं, तो उन्हें उसमें जीवन का अनुभव होता है। वे तुरंत शिशु के मुख में अपने मुख से वायु प्रवाहित करते हैं। इससे श्वास नली में स्थित काकुली में ब्रह्मरंध्र अवरूद्ध हो गया था, वह खुल गया और शिशु के प्राणों में चेतना लौट आई। ब्रह्मरंध्र तीव्र ध्वनि तरंगों के आवेग और क्रोध से अवरुद्ध हो जाता है। 

         गंगा में अस्थियों के विसर्जन के पीछे भी विज्ञान सम्मत धारणा है। चूँकि अस्थियों में बड़ी मात्रा में फास्फोरस होता है, जो भूमि को उर्वरा बनाने का काम करता है। गंगा का प्रवाह आदिकाल से भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए उपयोगी रहा है। अतएव हड्डियों का गंगा में विसर्जन खाद का काम करता है। इससे तय होता है कि ऋषि-मुनियों ने अस्थियों में फास्फोरस उपलब्ध होने और उससे उपज अच्छी होने के महत्त्व को जान लिया था।   

हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार पुत्र से ही कराने की मान्यता है। दरअसल पुत्र चूँकि पिता के वीर्यांश से उत्पन्न है, अतएव वह पिता का प्रतिनिधित्व करने का वाहक भी है। ब्रह्मा ने बालक को पुत्र कहा है। मनु स्मृति में 'पुं' नामक नरक से 'त्र' त्राण दिलाने वाले प्राणी को 'पुत्र' कहा है। इसी नाते यह पिंडदान एवं श्राद्ध आदि कर्म का दायित्व पुत्र पर है। हालकि पुत्र नहीं होने पर पुत्री से भी ये संस्कार कराए जा सकते हैं। चूँकि हिंदू दर्शन मानता है कि मृत्यु के साथ मनुष्य का पूर्णतः अंत नहीं होता है। मृत्यु द्वारा आत्मा शरीर से पृथक् हो जाती है और वायुमंडल में विचरण करती है। हालाँकि यही आत्मा मनुष्य के जीवित रहते हुए भी स्वप्न-अवस्था में शरीर से अलग होकर भ्रमण करती है, लेकिन शरीर से उसका अंतर्सबंध बना रहता है। रुग्णावस्था में भी आत्मा और शरीर का अलगाव बना रहता है: लेकिन मृत्यु के बाद आत्मा पूर्णतः पृथक् हो जाती है। ऋग्वेद में कहा भी गया है कि 'जीवात्मा अमर है और प्रत्यक्षतः नाशवान् है। इसे ही और विस्तार से श्रीमद भगवद् गीता में उल्लिखित करते हुए कहा है, आत्मा किसी भी काल में न तो जन्मती है और न ही मरती है। जिस तरह से मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी अनुरूप जीवात्मा मृत शरीर त्यागकर नए शरीर में प्रवेश कर जाती है।

आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की धारणा को अब वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है। ऑक्सफोर्ड विश्व-विद्यालय के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक सर रोगर पेनरोज और एरीजोन विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ स्टूअर्ट हामरॉफ ने दो दशक अध्यरत रहने के बाद स्वीकारा है कि 'मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भाँति है। इस जैविक संगणक की पृष्ठभूमि में अभिकलन (प्रोग्रामिंग) आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम में संचालित होती है। इससे तात्पर्य मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नलिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म सा्रेत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। जब व्यक्ति दिमागी रूप से मृत्यु को प्राप्त होने लगता है, तब ये सूक्ष्म नलिकाएँ क्वांटम क्षेत्र खोने लगती हैं। परिणामतः सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकलकर ब्रह्मांड में चले जाते हैं। यानी आत्मा या चेतना की अमरता बनी रहती है।

इसी क्रम में प्रसिद्ध पर मनोवैज्ञानिक डॉ. रैना रूथ ने पदार्थ गत रूपांतरण को ही पुनर्जन्म माना है। उनका कहना है कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा नष्ट नहीं होती, परंतु रूपांतरित व अदृश्य हो जाती है। इसीलिए डीएनए यानी महा रसायन मृत्यु के बाद भी संस्कारों के रूप में अदृश्य अवस्था में उपस्थित रहता है और नए जन्म के रूप में पुनः अस्तित्व में आ जाता है। हमें जो विलक्षण प्रतिभाएँ देखने में आती हैं, वे पूर्वजन्म के संचित ज्ञान का ही प्रतिफल होती हैं। अतएव कहा जा सकता है कि जीवात्मा वर्तमान जन्म के संचित संस्कारों को साथ लेकर ही अगला जन्म लेती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जींस (डीएनए) में पूर्वजन्म या पैतृक संस्कार मौजूद रहते हैं, इसी शेष से निर्मित नूतन सरंचना के चैतन्य अर्थात प्रकाशकीय भाग को प्राण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को आज समझ पाया है, किंतु हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले ही शरीर और आत्मा के इस विज्ञान को समझकर विभिन्न संस्कारों से जोड़ दिया था, जिससे रक्त संबंधों की अक्षुण्णता जन्म-जन्मांतर स्मृति पटल पर अंकित रहे। ■

श्राद्ध पक्ष में कौओं का भोजन

बरगद और पीपल के वृक्षों को देव वृक्ष माना जाता है। क्योंकि वे हमें प्राण वायु अर्थात् ऑक्सीजन और रोगमुक्त शरीर के लिए औषधियाँ देते हैं। इन सब के लिए इन पेड़ों का अस्तित्व बनाए रखना है, तो कौओं को श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी खिलाना  होगा। श्राद्ध पक्ष में पंचबति अर्थात पाँच जीवों को आहार कराने की परंपरा है। इनमें एक काल बलि यानी कौवों को भोजन कराने की परंपरा है। इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं। इनके उदर में ही इन फलों के बीज अंकुरित होने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पीपल और बरगद उग आते हैं। इसीलिए ये वृक्ष पुराने मकानों की दीवारों पर भी उगते दिख जाते हैं। मादा कौवा सावन-भादों यानी अगस्त-सितंबर में अंडे देती है। इन्हीं माहों में श्राद्ध पक्ष पड़ता है; इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कौवों को पौष्टिक आहार खिलाने की परंपरा श्राद्ध पक्ष से जोड़ दी, जो आज भी प्रचलन में है। दरअसल इस मान्यता की पृष्ठभूमि में बरगद और पीपल वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जिससे मनुष्य को 24 घंटे आक्सीजन मिलती रहे।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

जीवन दर्शनः सम्मान अपनों का: सुखद सपनों का

 - विजय जोशी 

( पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो

फिर देखो किस कदर ये जिंदगी आसान हो जाये

  जीवन उम्मीदों का अपार संसार है और यही हमारी यात्रा की नौका भी है और पतवार भी। लेकिन उम्मीदों से बहुत ज्यादा की आस पाल लेना दुख का कारण भी बन सकता है, यदि हम उस  स्वावलंबन की लक्ष्मण रेखा लांघकर परावलंबन की सरहद में पहुँच जाएँ। जीवन में खुद की उम्मीद पूरा करने की आकांक्षा के दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतरने पाने का प्रयास करने से अधिक सुखकारी है।

  इस संदर्भ में एक सुंदर वृत्तांत से मेरा सामना हुआ। पत्नी ने दिनभर की थकान के बाद रात के भोजन के समय थाली में दाल सब्जी के साथ किसी हद जली हुई रोटी पति को परोसी। पुत्र बड़े मनोयोग से सारा दृश्य निहार रहा था। उसके लिए आश्चर्य अभी प्रतीक्षा सूची में तब तक था, जब उसने देखा कि माँ सॉरी कह पाती, उसके पूर्व ही उसके पिता ने जली रोटी के साथ भोजन बिल्कुल आनंदपूर्वक ग्रहण करना आरंभ कर दिया।

पुत्र से रहा नहीं गया। उसने भोजन उपरांत पिता से देर रात्रि अकेले में धीमे स्वर में पूछा कि क्या उन्हें सचमुच में जली रोटी पसंद आई थी। और तब जिस सत्य से उसका साक्षात्कार हुआ उससे उसकी आँखें भर आईं ।

पिता ने कहा - तुम्हारी माँ सारे दिन काम करते हुए थक जाती है। गृहस्थी की गाड़ी खींचने में। सारा दिन काम करते- करते शाम तक थककर निढाल हो जाती है। उसके त्याग से परिपूर्ण प्रेम के सामने मुझे रोटी के जले होने का एहसास ही नहीं हुआ। ऐसे अवसर पर यदि मैं कुछ भी कटु शब्द कह भी देता, तो शायद अपनी नजर में खुद गिर जाता।

पिता ने अपनी बात आगे जारी रखी - सारा संसार और हमारा अपना जीवन अनेक कमियों से परिपूर्ण है। ऐसे में दूसरों में कमियाँ ढूँढकर हम अपनी कमियों पर परदा नहीं डाल सकते। सो श्रेष्ठ यही होगा कि हम सब जैसे भी हैं, एक साथ संतुष्टि का भाव अंतस् में समाकर प्रसन्नतापूर्वक जीने की कला सीखें।

 बात बहुत सरल, सामायिक और सार्थक है। हमें दूसरों से आवश्यकता से अधिक उम्मीद रखने के बजाय अपनी कमियों की ओर अंदर झाँकते हुए सबके साथ जीने की कला को व्यक्तित्व में अंगीकार करना चाहिए। जीवन बहुत छोटा है। उसे दुख, अवसाद, असंतोष के साथ जीने के बजाय उपलब्ध की कद्र करते हुए जीने की कला सीखना चाहिए। याद रखिए, किसी से अत्यधिक उम्मीद भी अंततः निराशा का कारण बन सकती है।

जो चाहते हैं, उनसे प्यार करो, उनका सम्मान करो, उनकी कद्र करो। जो नहीं करते उनसे सहानुभूति रखो। याद रखो, जो आपको पसंद नहीं करते, उन पर समय बर्बाद मत कीजिए। जो चाहते हैं उनकी कद्र कीजिए, उनका सम्मान कीजिए। और कहिए:

कितने हसीन लोग हैं, जो मिलके एक बार

आँखों में जज़्ब हो गए दिल में समा गए।

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

संस्मरणः कस्बों - शहरों की रौनक ...फेरीवाले

  - शशि पाधा

बचपन में बहुत सी कहानियाँ पढी थीं, सुनी थीं। कुछ कहानियाँ मन-मस्तिष्क में चित्र की तरह ऐसे टँगी रहती हैं कि वे हमारे अस्तित्त्व का अटूट भाग बन जाती है। मैंने भी रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘काबुली वाला’ पढ़ी थी, फिल्म भी देखी थी, तो लगता था जैसे मैं ही मिनी हूँ और यह मेरी ही कहानी है। जानते हैं क्यों -

हम जिन शहरों में पले-बढ़े हैं, उन शहरों–कस्बों का अगर आप चित्र बनाएँ, तो केनवास पर बच्चे दिखाई देंगे और दिखाई देंगे खूब सारे फेरीवाले।  उन चित्रों में आप देखेंगे- सर पर टोकरी रखे  फलवाला, हाथ में डंडे पर बँधे हुए रंग- बिरंगे गुब्बारेवाला, गले में पट्टी के साथ पेटी बाँधकर चलने वाला मलाई बर्फ वाला, चना जोर गर्म वाला, चमकते हुए बाँस पर लिपटे हुए चीनी के गट्टे से नन्हे- नन्हें खिलौने बनाकर बेचने वाल। अब आप याद करें आपकी सूची में न जाने कितने फेरीवाले होंगे। मैं अगर लिखने बैठूँ, तो पूरा उपन्यास बन सकता है। हर रोज़ नई- नई स्वादिष्ट और आकर्षक चीज़ें लेकर आने वाले फेरीवालों से हमारा प्यारा-सा सम्बन्ध जुड़ा हुआ था और उनका हमारे-सा। इसी लिए शायद मैं अपने आप को काबुलीवाला कहानी की मिनी ही मानती रही।

उस ज़माने में फेरीवाले हमारी ज़िंदगी का एक हिस्सा थे। गली-मुहल्ले, कूचे-बाज़ार, स्कूल –दफ़्तर हर जगह उनकी उपस्थिति जानी- पहचानी थी। सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हर कोई उनके आने की प्रतीक्षा करता थ। उनके आने से बच्चों और बूढ़ों के मुख पर मुस्कान बिखर जाती थी। बच्चों को मनचाही ‘चिज्जी’ या खिलौना मिलता था और बूढ़ों को दो पल बतियाने के लिए कोई साथी। 

फेरीवालों की छवि का एक विशेष गुण था, उनकी लच्छेदार, बुलंद आवाज़। यानी जब वे अपनी मज़ेदार आवाज़ के साथ सब को आगाह करते थे कि आओ, हम तो आ गए , तो भला कौन अपने आप को रोक सकता था। हैरानी की बात यह थी कि हर फेरीवाले का आवाज़ लगाने का अपना विशिष्ट अंदाज़ होता था। कोई गाकर बुलाता था, किसी की आवाज़ गले की किसी अनोखी नस से निकलती थी, कोई कविता के अंदाज़ में बुलाता था और कोई फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर पैरोडी के स्टाइल में अपने सौदे का गुणगान करता था। कभी-कभी वे या गाने-लटके गा-गाकर लोगों को बुलाते थे या अपने शरीर से भी तरह-तरह की मुद्राएँ बनाकर लोगो को प्रभावित करते थे। वे अपने अनूठे ढंग से कभी घंटी बजाकर, कभी  बाँसुरी की धुन छेड़कर अपने निजी ढंग के मीठे बोल बोलकर वस्तुओं के नाम बताते और बच्चे–बूढ़े उनकी मोहक आवाज़ की डोर से बँधे चले आते। यानी उस समय के फेरीवाले सौदागर भी होते थे, गायक भी और अभिनेता भी। 

फेरीवालों की कुछ-कुछ आवाजें मैं कभी नहीं भूलती। जैसे जामुन बेचने वाला – काले- काले  जामुन , देते खूब मज़ा जामुन। गन्ने की गँडेरी बेचने वाला कहता था – गुड़मिट्ठी गँडेरियाँ-दो तेरियाँ दो मेरियाँ। मूँगफली बेचने वाले का मुहावरा था - ले लो पिशावर की गरियाँ, मिट्ठे  बादाम की गरियाँ। तिकोन- सी टोकरी को गली के किसी स्वच्छ स्थान पर रखकर खुद एक छोटे से मूढ़े पर बैठकर जब हमारा सर्वप्रिय खट्टे-मीठे चने बेचने वाला आवाज़ लगाता था – ‘चना जोर गर्म, आओ खाओ मौज मनाओ’ तो हमारा हाल कुछ ऐसा होता था। जब तक वह कागज़ के कोण में चना और मसाले डालकर हिला रहा होता,हम बच्चों के मुँह में स्वाद की न जाने कितनी नदियाँ बह रही होती। 

मुझे मालूम नहीं कि भारत के दूसरे शहरों में ‘मलाई बर्फ’ बेचने वाला गली मोहल्लों में आता था कि नहीं; किन्तु जम्मू , पंजाब और हिमाचल में तो अवश्य ही आता था। एक लकड़ी की पेटी के अंदर कम्बल जैसे हरे कपड़े में लिपटा होता था एक बर्तन। शायद उसके नीचे खूब सारी बर्फ रखी रहती थी। हरे- हरे साफ़ पत्तों पर कड़छीनुमा किसी चीज़ से जब भैया मलाई वाले बर्फ़ की एक पतली- सी तह रखता था, तो पूरे शरीर में ठंड का अहसास  होने लगता था। सर्दियों में मूँगफली, खजूर से भरे खोमचे वाले आते,  तो आवाज़ आती –  कलकत्ते की खजूरें आई हैं, गाड़ी भर मँगवाई हैं। पानी के बताशे, बुड्डी के बाल, कचालू, गोलगप्पे, गुड़-रेवड़ियाँ ----  अगर मैं सब चीज़ों के नाम लिखूँ , तो आपके मुँह में भी पानी आ जाएगा। चलिए छोड़ देते हैं आपके लिए भी कुछ याद करने को।

इसी संदर्भ में एक बात और भी याद आती है कि एक ही फेरीवाला मौसम के अनुसार अलग-अलग चीज़ें बेचने के लिए लाता था। गर्मियों में मौसमी फल, लच्छेदार कुल्फी और सर्दियाँ आते ही मूँगफली ,रेवड़ियाँ, खजूरें अपनी टोकरी या थाल में सजा लेते थे। जब भी कोई फेरीवाला,  किसी गली के कोने पर बैठकर अपनी दूकान सजा लेता,  तो उसके आसपास बच्चों –बूढ़ों का समूह इकट्ठा हो जाता। वह जगह सही मायने में मनोरंजन के लिए मीटिंग का अड्डा भी बन जाती।

फेरी वालों में से एक बहुत पुराना फेरी वाला मुझे अक्सर याद आता है, जो बायोस्कोप दिखाता था। एक अजब तरह से भोंपू बजाकर, वह अपने आने का एलान कर देता था। एक स्टैंड पर वह अपना लकड़ी का बक्सा सजा देता और फिर प्रतीक्षा करता था बच्चों के आने की। अगर उस दिन दादी दयावान हुई तो पैसे मिल जाते थे और हम बायोस्कोप के बक्से में आँख गड़ाकर तमाशा देखते थे। कुछ चित्र आँखों के सामने से गुजरते जाते और बायस्कोप वाला गा-गाकर उनकी कहानी सुनाता जाता। गाने के बोल शायद कुछ कुछ ऐसे थे - ‘दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो, लखनऊ का मीना बाज़ार देखो।’ मुझे यह याद नहीं कि उस कहानी के पात्र कौन थे। बस वह  बक्सा और बायोस्कोप वाला याद है। 

मैंने बचपन में भगवती प्रसाद बाजपेयी जी की एक कहानी पढ़ी थी –‘मिठाई वाला’। वह भोला भाला मिठाई वाला मुझे इतना प्रभावित कर गया कि मैंने छोटी सी उम्र में इस कहानी पर ‘मोनो एक्टिंग’ भी की थी। यानी मैं कभी टोपी पहनकर टोकरी उठाकर मिठाई वाला बनती और कभी चुनरी ओढ़कर ‘रोहिणी’। आप समझ सकते हैं कि उस समय के जीवन और दिनचर्या में फेरीवालों का कितना महत्त्व और योगदान था। 

इन फेरीवालों के साथ हम बच्चों का प्यारा-सा सम्बन्ध भी जुड़ जाता था। वे हमें हमारे घर के नाम से जैसे मुन्नी, गुड्डी, काका, मुन्ना कहकर बुलाते थे, तो लगता था कि वे हमारे परिवार का ही अंग हैं। अगर कुछ दिन कोई फेरीवाला नहीं आता, तो हम बच्चे तो उसे याद करते ही थे, घर के बड़े - बूढ़े  उनका हाल चाल जानने उनके घर भी चले जाते थे। वास्तव में ये फेरीवाले हमारी संस्कृति और समाज का एक अभिन्न अंग थे।

परिवर्तन एक ऐसी जादुई छड़ी है, जो समय के साथ कितना कुछ बदल देती है। समय के साथ ही बदल गया लोगों का जीवन। धीरे-धीरे लोग शहर के बाहर नए नगरों में रहने आ गए। बहुत- सी चीज़ें वहीं छूट गईं। इसी बदलाव में फेरीवाले भी कहीं गुम हो गए। या तो उन्होंने छोटी मोटी दूकानें डाल लीं या रेहड़ी- गुमटियाँ। उस ज़माने में बाज़ार स्वयं हमारे गली-मोहल्ले में आता था। अब लोग बाज़ार जाते हैं। अब न वो फेरीवालों की आकर्षक आवाजें सुनाई पड़ती हैं और न ही थाल- टोकरी में सजी वो स्वादिष्ट चीजें। न बच्चों को कोई उनके प्यारे से घर के नाम से बुलाता है और न ही बच्चे मुट्ठी में पैसे दबाकर घर की खिड़की के पास खड़े होकर किसी ‘काका’, ‘भैयाजी’ की प्रतीक्षा करते हैं। जब मोबाइल से पिज़्ज़ा या फास्टफूड का ऑर्डर किया जाता है, तो मुझे लगता है जैसे बच्चों का यह अधिकार उनसे छिन गया है। 

 शायद मुझे अपने बचपन के उन दिनों से बहुत लगाव है। अतीत को भुलाना कठिन है और अतीत के रंगमंच के पात्रों का अचानक लुप्त हो जाना और भी दुखदायी लगता है। चलिए हम रचनाकार अपनी कहानियों, कविताओं, उपन्यासों में उन फेरीवालों को फिर से बुलाएँ, ताकि हमारी नई पीढ़ी भी उनसे पहचान कर ले।  ■


प्रेरकः शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण

 – निशांत

एक साधु ने अपने आश्रम के अंत:वासियों को जगत् के विराट विद्यालय में अध्ययन के लिए यात्रा को भेजा था। समय पूरा होने पर उनमें से एक को छोड़कर अन्य लौट आए थे। उनके ज्ञानार्जन और उपलब्धियों को देखकर गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। वे बहुत कुछ सीखकर वापस आए थे। फिर अंत में पीछे छूट गया युवक भी लौट आया। गुरु ने उससे कहा, “निश्चय ही तुम सबसे बाद में लौटे हो, इसलिए सर्वाधिक सीखकर लौटे होगे।” 

उस युवक ने कहा, “मैं कुछ सीखकर नहीं लौटा हूँ, उलटा जो आपने सिखाया था, वह भी भूल आया हूँ।” इससे अधिक निराशाजनक उत्तर और क्या हो सकता था?

फिर एक दिन वह युवक गुरु की मालिश कर रहा था। गुरु की पीठ को मलते हुए उसने स्वगत ही कहा, “मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।” गुरु ने सुना, तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उनसे ही कहे गए थे। उनके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हँसने लगा। यह ऐसा था, जैसे कोई जलती अग्नि पर और घी डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से अलग कर दिया।

फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहे थे, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया। वह बैठा रहा, गुरु पढ़ते रहे। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी। द्वार तो खुला ही था – वही द्वार, जिससे वह भीतर आई थी; पर वह बिलकुल अँधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भिनभिनाहट मंदिर के सन्नाटे में गूँज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, “ओ, नासमझ! वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहाँ से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।”

मधुमक्खी ने तो नहीं, पर गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उन्होंने युवक की आँखों में पहली बार देखा। वह, वह नहीं था, जो यात्रा पर गया था। ये आँखें दूसरी ही थीं। गुरु ने उस दिन जाना कि वह जो सीखकर आया है, वह कोई साधारण सीखना नहीं है।

वह सीखकर नहीं, कुछ जानकर आया था।

गुरु ने उससे कहा, “मैं आज जान रहा हूँ कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूँ कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा; पर मुझे द्वार नहीं मिला। लेकिन अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूँ? क्या करूँ कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?”

उस युवक ने कहा, “भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।”

गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अँधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।

यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूँ। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। उस शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण है। वह आमंत्रण धर्म का ही है। उस आमंत्रण को स्वीकार कर लेना ही धार्मिक होना है। (ओशो के पत्रों के संकलन ‘क्रांतिबीज’ से) ■ साभार हिन्दी ज़ेन से

शिक्षक दिवसः बहुत याद आते हैं हमारे शिक्षक

  - डॉ. महेश परिमल

शिक्षक के लिए बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं। कोई इन्हें मोमबत्ती की तरह बताता है, जो स्वयं जलते हैं, पर प्रकाश फैलाते हैं। कोई इन्हें ईश्वर से भी अधिक महान् बताता है। कोई इन्हें जीवन की नैया को पार लगाने वाला बताता है। सचमुच शिक्षक का स्थान बहुत ऊँचा है। ये महान् हैं भी; पर इनके लिए कही गई सारी बातें बड़े होकर ही सच साबित होती हैं। बचपन में किसी को भी शिक्षक कभी अच्छे नहीं लगे। मस्ती की कुलाँचे मारने वाला बचपन अपने-आप में अनोखा होता है। यह वह उम्र होती है, जिसमें कोई तनाव नहीं होता, कोई परेशानी नहीं होती, कोई इच्छा नहीं होती। न कोई जरूरी होता है, न कोई जरूरत। मस्ती...मस्ती और केवल मस्ती ही इस उम्र का दूसरा नाम है।

बचपन की उम्र बहुत तेजी से गुजर जाती है। वह उम्र इतनी बेपरवाह होती है कि उस उम्र में कुछ ऐसा सूझता ही नहीं कि हम अच्छे बनें। बुरे बनने के सारे गुण उस समय हमारे भीतर ही होते हैं। यही उम्र होती है, अपने-आप को तराशने की। इस काम का अनजाने में ही बीड़ा उठा लेते हैं, शिक्षक। उस शिक्षक की नजरों से कोई बच नहीं सकता। शिक्षक एक-एक बच्चे की हरकतों को अपनी आँखों में कैद कर लेते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि कौन-सा बच्चा किस विषय में दक्ष है। किसे खेल में दिलचस्पी है, किसे गणित में और किसे केवल विज्ञान में। जिम्मेदार शिक्षक सभी बच्चों को उसकी दिलचस्पी के आधार पर तराशने का काम किया करते हैं। तराशने की यह प्रक्रिया अनजाने में ही होती है। जिसे शिक्षक तो समझते हैं, पर बच्चे नहीं समझ पाते। बच्चों को अनुशासन की एक डोर से बाँधने का काम करते हैं शिक्षक। अनुशासन की वह डोर, उस समय बच्चों को बहुत बुरी लगती है। वास्तव में बच्चे उन दिनों अपने आसपास एक घेरा बना लेते हैं, जिसमें वे केवल अपने दोस्तों को ही आने देते हैं। उस घेरे में शिक्षक को नहीं लाया जाता। पर कई शिक्षक ऐसे होते हैं, जो दोस्त बनकर उस घेरे में चले आते हैं। इसका आभास बच्चे को नहीं हो पाता। इसे ही तो कहते हैं, बच्चे को अनुशासन की डोर में बाँधना।

बरसों बीत जाते हैं, स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद बच्चे कॉलेज पहुँच जाते हैं। नई; किंतु परिपक्व शरारतों के बीच, वहाँ उनकी प्रतिभा निखरती है। यहाँ के अध्यापकों का बच्चों से वैसा नाता नहीं रहता, जैसा स्कूल में होता था। यहाँ स्कूल के दौरान अनजाने में मिले संस्कार काम आते हैं। जिस सवाल पर बच्चे को शिक्षक ने डाँटा था या मारा था, वही सवाल जब कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सामने आता है, तब वही डाँटा और मार ही याद आती है, इसके साथ ही कॉलेज में वही सवाल आसानी से हल हो जाता है। यहाँ आकर लगता है कि शिक्षक ने अकारण ही नहीं डाँटा था। डाँटा और मार के दौरान बहुत ही बुरे लगे थे शिक्षक, आज वही शिक्षक अच्छे और भले लगने लगते हैं।

कॉलेज के बाद युवा जब जीवन के मैदान में पहुँचता है, तब चारों ओर प्रतिस्पर्धा का वातावरण होता है। ऐसे में हर कोई आगे बढ़ने की चाहत रखता है। अपने प्रतिस्पर्धी से आगे बढ़ने की चाहत के दौरान काम आती हैं, शिक्षक की बातें। जब वे कहते कि निराशा के समय साहस मत खोना। चुनौतियों को ध्यान से देखना, समाधान भी वहीं मिलेगा। जल्दबाजी बिलकुल भी मत करना। धैर्य के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करना। यही सीख बहुत काम आती है। इन्हीं सीखों से बनती है इरादों की बुलंद इमारत, जिसमें अपनों का प्यार होता है, दोस्तों का साथ होता है और होती हैं शिक्षकों की नसीहतें।

यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते शिक्षक के प्रति बनाई गई धारणा बदलने लगती है। इस दौरान भले ही उन शिक्षकों से भेंट न हुई हो, पर अपनी नसीहतों के साथ वे अक्सर बच्चों की यादों में होते हैं। शिक्षक पर अटूट विश्वास के कारण बच्चा घर में कई बार अपने अभिभावकों से विरुद्ध चला जाता है। शिक्षक ने ऐसा कहा है, तो यही सही है। इस निष्ठा के साथ, बच्चा जब जीवन के रणक्षेत्र में पहुँचता, तब वे सारे शिक्षक एक के बाद एक अतीत से निकलकर उसके सामने आ जाते हैं। तब लगता है- शिक्षक बुरे नहीं होते...कभी बुरे नहीं होते। बुरी होती है वह उम्र, जब हम किसी की बात नहीं मानते थे। मस्ती के आगे हम किसी की नहीं चलने देते थे। आज सारी मस्ती एक तरफ है और शिक्षक दूसरी तरफ। तब लगता है शिक्षकों का पलड़ा भारी है, मस्ती का पलड़ा बहुत ही हलका लगता है उस समय। यादों की इस जुगाली में यदि बच्चे की आँखें गीली हो जाएँ, तो समझो, बचपन में वह सचमुच शिक्षकों का दुलारा रहा होगा। उसने भी शिक्षकों की सलाह नहीं मानी थी, उसे भी डाँट पड़ी होगी, उसने भी मार खाई होगी। यही है...बस यही है शिक्षकों के प्रति सच्ची आदरांजलि।

आज भी कई शिक्षक उन बच्चों को मिलते होंगे, तब बच्चों को याद दिलाना पड़ता होगा कि सर, मैं विजय, सर मैं संतोष, सर मैं मनोज, फिर भी शिक्षक को बच्चों की पहचान नहीं हो पा रही हो, तो बच्चे अपनी शरारतों से अपना परिचय देते होंगे, तब शायद शिक्षक को याद आते हैं बच्चे। कई शिक्षक इस दुनिया में नहीं होंगे, पर उनकी याद भी अक्सर याद आती होगी। शिक्षक दिवस पर ऐसे सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं को सादर नमन्... ■

सम्पर्कः  टी 3- 204, सागर लेक व्यू, वृंदावन नगर, अयोध्या बायपास, भोपाल- 462022, मो. 09977276257

ग़ज़लः ख़ुदा भी उसको खुला आसमान देता है

  - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’


जो अपनी फिक्र को, ऊँची उड़ान देता है

ख़ुदा भी उसको, खुला आसमान देता है।

 

जो देखे आइने को, दिल के अपने साफ़ करके;

उन्हीं के अक्स को, मुकम्मल पयाम देता है।

 

ख़्वाहिशें, बंदगी तमाम, चलके देखें तो;

हो जहाँ रूह वहीं पर, आराम देता है।

 

टूटते तारों से कब तक, दुआ हम माँगेंगे ?

बुलंद करके ख़ुदी को, पैगाम देता है।

 

जले है लौ कि जब तलक, है तेल बाती में; 

कि खौफ़ को क्यों  'मनस्वी' स्थान देता है।

-Ph_8604634044, email- meenakshishiv8@gmail.com


जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा

  - देवेश शांडिल्य

विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहाँ-तहाँ से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है।

इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियाँ सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता में (जो AQI द्वारा प्रदर्शित होती), काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की TDS (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।

अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल- भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं।

तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते, जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके? 

दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएँ बनाई जाएँ और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुँचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अत: हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन–कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं। 

ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।

भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे।

जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गाँवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्‍ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें, तो वहाँ के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गाँव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी; क्योंकि गाँव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली- पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात् ये तालाब न केवल राज्य की आय; बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेंगे।

जल की एक बूँद तो ऐसी पूँजी है; जिसे कमाया नहीं जा सकता। ऐसे में इसका संरक्षण ही इसका निर्माण है। 

उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण होता है, जिसकी लंबाई 100 मीटर, चौड़ाई 4 मीटर है तथा 16 सेंटीमीटर की गहराई तक पुरनी के लिए एक ही स्थान से मिट्टी खोदें, तो वहाँ 64,000 लीटर क्षमता का गड्ढा या तालाब तैयार हो जाएगा। 

एक गाय या भैंस साधारणत: 80-100 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करती है। तो हमारे पास 2 गाय अथवा 2 भैंस के लिए कम से कम 320 दिन का पानी हो गया। एक बकरी अथवा भेड़ लगभग 10 लीटर पानी उपयोग करती है, तो यह 20 जानवरों के लिए 320 दिन का पानी होगा।

2010 के बाद से भारत में सड़क निर्माण की गति तेज़ हो गई है। 2014-15 में यह औसतन लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन और 2018-19 में 30 किलोमीटर प्रतिदिन थी। देश का लक्ष्य प्रतिदिन 40 किलोमीटर राजमार्ग बनाना है। जिनकी चौड़ाई 12 मीटर रहेगी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम जल-संग्रहण की कितनी क्षमता विकसित कर सकते थे या आज भी कर सकते हैं और यह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं अपितु घर बनाते समय नींव में भरी जाने वाली मिट्टी के साथ भी छोटे पैमाने पर कर सकते हैं।

अत: केवल सड़क निर्माण के कार्य को थोड़े से अलग ढंग से करके सरकार सड़कों के माध्यम से न केवल उद्योगपतियों को मूलभूत अधोसंरचना उपलब्‍ध कराएगी, अपितु इसमें गाँव की अर्थव्यवस्था का लाभांश भी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह यह मानव सभ्यता से लेकर वन्य जीवन को लाभान्वित करेगा और सह-अस्तित्व का नया अध्याय आरम्भ होगा। (स्रोत फीचर्स) ■

पर्यावरणः स्वच्छ पानी के लिए बढ़ाना होगा भूजल स्तर

  - सुदर्शन सोलंकी

पानी की कमी दुनिया की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है। दुनिया की अधिकांश आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहाँ पानी सीमित है या अत्यधिक प्रदूषित है। जल प्रदूषण स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित अध्ययन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि पानी की कमी पर शोध प्रमुखत: पानी की मात्रा पर केंद्रित होते हैं, जबकि पानी की गुणवत्ता को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है।

प्रदूषित होने के साथ ही जल स्रोत तेज़ी से अपनी ऑक्सीजन खो रहे हैं। इनमें नदियाँ, झरने, झीलें, तालाब व महासागर भी शामिल हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक जब पानी में ऑक्सीजन का स्तर गिरता है, तो यह प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और पूरे खाद्य जाल को बदल सकता है।

सेंट्रल वॉटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के पुनर्गठन की कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मानसून में तो पानी होता है;  लेकिन मॉनसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बना रहता है। देश के ज़्यादातर हिस्सों में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिसके कारण कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, मरक्यूरी और यहाँ तक कि युरेनियम भी मौजूद है।

दुनिया भर में लगभग 1.1 अरब लोगों के पास पानी की पहुँच नहीं है, और कुल 2.7 अरब लोगों को साल के कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त स्वच्छता भी 2.4 अरब लोगों के लिए एक समस्या है - वे हैजा और टाइफाइड जैसी बीमारियों और अन्य जल जनित बीमारियों के सम्पर्क में हैं। हर साल बीस लाख लोग, जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, सिर्फ डायरिया से मरते हैं।

बेंगलुरु जैसे बड़े शहर जल संकट से जूझ रहे हैं, जहाँ इस साल टैंकरों से पानी पहुँचाना पड़ा। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को रोज़मर्रा के कामों के लिए भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है। राजस्थान के कुछ सूखे इलाकों में तो हालात और भी खराब रहते हैं।

भारत, दुनिया में सबसे ज़्यादा भूजल का इस्तेमाल करने वाला देश है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न मानव गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। और यदि एक बार भूजल प्रदूषित हो गए तो उन्हें उपचारित करने में अनेक वर्ष लग सकते हैं या उनका उपचार किया जाना संभव नहीं होता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषण के खतरे से बचाकर ही उनका संरक्षण किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में मौसम और बारिश के पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ इलाकों में बारिश में कमी और सूखा पड़ रहा है और कुछ इलाकों में बाढ़ आ रही है। जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी कभी बाढ़, तो कभी सूखे का सामना करना पड़ सकता है। यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो बाढ़ पर नियंत्रण के साथ ही सूखे से निपटने में भी बहुत हद तक कामयाब हो सकेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि संचित वर्षा जल से भूजल स्तर भी बढ़ जाएगा और जल संकट से बचाव होगा। और साथ ही स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता की स्थिति भी बेहतर हो जाएगी। (स्रोत फीचर्स) ■


कविताः अब विवश शब्द


 - डॉ. कविता भट्ट

जीवन की वर्षा में

पुष्पित-पल्लवित

भीजते, घुलते- धुलते

मेरे शब्द - होने को थे

अक्षरश: रूपांतरित

इक मधुर गीत में;

उसी क्षण आकाश में

चमकी विद्युत-तरंगें

किसी षड्यन्त्र जैसे

प्रबल मारक तंत्र जैसे

वज्रपात हुआ गीत पर

हुआ गीत परिवर्तित

दुःखांतिका कविता में

अब विवश शब्द

वर्षा में खड़े रहने का

साहस नहीं करते।

विलाप, विराग, विछोह..

क्षणभंगुर संसार में

व्याकुल रागिनियाँ

दासियों के जैसे

हाथ बाँधे खड़ी हैं -

यही सोच मानकर

संभवत: यह विधाता का

अंतिम अन्याय हो।

लेकिन अनंतिम दुःख में

कोई भी अन्याय

अंतिम कैसे हो सकता है?

यह प्रश्न पंक्तिबद्ध हो

जिज्ञासाएँ निरंतर पूछ रही हैं?

नियति समझ नहीं पा रही

कि उत्तर क्या दिया जाए?


आलेखः हिन्दी के विकास में ख़तरे

  - सीताराम गुप्ता

हिन्दी हमारी संस्कृति की पहचान व वाहक है, इसमें संदेह नहीं; लेकिन हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है अथवा नहीं, यह विवाद का मुद्दा है। संवैधानिक दृष्टि से हिन्दी भाषा आज हमारे देश की राजभाषा तो है; लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं। हम हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की माँग को लेकर काफी उत्साहित रहते हैं और इसके लिए संघर्ष भी कम नहीं करते; लेकिन समस्या ये है कि हिन्दी के उन्नयन अथवा विकास के संदर्भ में हमारी कथनी व करनी में दिन-रात का अंतर है। हम हिन्दी की बात ज़्यादा करते हैं; हिन्दी में अथवा हिन्दी के बारे में सही बात कम करते हैं। कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि दुनिया की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और देवनागरी ही एक ऐसी लिपि है, जो पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि है, जो पूर्ण सत्य नहीं है। कुछ महाशय देवनागरी के वर्णिक लिपि होने को ही एक बड़ी उपलब्धि मानकर इसकी प्रशंसा में लगे रहते हैं; लेकिन क्या सिर्फ संस्कृत व हिन्दी भाषा व देवनागरी लिपि की शान में कसीदे पढ़ने से हिन्दी का वास्तविक विकास संभव है?

     जहाँ तक समय, श्रम व संसाधनों को लगाने की बात है, हिन्दी के लिए हमारे पास न तो समय ही है ओर न इसके लिए हम विशेष परिश्रम करने को ही तैयार हैं। हिन्दी के उन्नयन व विकास के लिए व्यक्तिगत स्तर पर संसाधनों को लगाने अथवा पैसा ख़र्च करने की बात करना तो बेमानी ही होगा। अंग्रेज़ी भाषा में दक्षता प्राप्त करने के लिए इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स करते हैं, अच्छी बात है; लेकिन हिन्दी के लिए थोड़ा-सा भी अतिरिक्त प्रयास क्यों नहीं करते? अंग्रेज़ी भाषा में न केवल सही स्पैलिंग लिखने के लिए पूरा प्रयास करते हैं; अपितु सही उच्चारण के साथ बोलने के अभ्यास में भी कोई कसर नहीं रख छोड़ते। फिर हिन्दी के प्रति ऐसी उपेक्षा व दोगलापन क्यों? क्या इसीलिए कि ये मातृभाषा के रूप में हमें विरासत में बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गई है? ऐसी स्थिति में केवल इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देने से इसका विकास व राष्ट्रभाषा के पद पर इसकी प्रतिष्ठा बने रहने में संदेह है। हिन्दी के लिए समय और श्रम ही नहीं; इसमें निवेश करने की भी ज़रूरत है।

 अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों की अंग्रेज़ी की वर्तनी व उच्चारण दुरुस्त करवाने के लिए पूरी तरह से तत्पर व सतर्क रहते हैं। कितने माता-पिता हैं, जो अपने बच्चों की हिन्दी की वर्तनी (स्पैलिंग) व उच्चारण दुरुस्त करवाने के लिए कोशिश करते हैं? नगण्य अथवा बहुत कम। बच्चों के पैदा होते ही उन्हें अंग्रेज़ी गीत रटवाना शुरू कर देते हैं? हिन्दी के शिशुगीत अथवा कविताएँ क्यों नहीं? अंग्रेज़ी पढ़ाइए और खूब पढ़ाइए; पर हिन्दी की क़ीमत पर नहीं। हिन्दी भी ख़ूब पढ़ने व पढ़ाने की ज़रूरत है। हम सब लोगों के घरों में अंग्रेज़ी के मोटे-मोटे कई शब्दकोश, थिसॉरस व एंसाइक्लोपीडिया मिलेंगे; लेकिन हममें से कितने लोग हैं; जिन्होंने अपने बच्चों के लिए हिन्दी के शब्दकोश, थिसॉरस अथवा विश्वकोश या ज्ञानकोश लाकर दिए हैं? क्या हिन्दीवालों के लिए हिन्दी के शब्दकोशों का महत्त्व नहीं? हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों के लिए न केवल अंग्रेज़ी-हिन्दी के अच्छे शब्दकोश लाकर दें; अपितु हिन्दी व हिन्दी-अंग्रेज़ी द्विभाषी कोश भी अवश्य लाकर दें।  

     एक बार एक संस्कृताचार्य से मिलने जाना हुआ। हिन्दी व संस्कृत के मूर्द्धन्य विद्वान हैं। उनके पुत्र की एक कैमिस्ट शॉप है। उनकी दुकान पर मुख्य बोर्ड के सामने एक छोटे बोर्ड पर रेड क्रॉस का चिह्न बना था और लिखा था ‘दवाईयाँ’। यह सही वर्तनी नहीं है। सही वर्तनी ‘दवाईयाँ’ नहीं ‘दवाइयाँ’ है। मैंने जब संस्कृताचार्य महोदय का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया, तो उन्होंने कहा, ‘‘लोगों को क्या फ़र्क़ पड़ता है इससे?’’ 

‘‘लेकिन इसका भाषा के विकास पर तो ग़लत असर पड़ता है न,’’ मैंने प्रतिवाद किया। 

‘‘कौन ध्यान देता है इन छोटी-मोटी बातों पर?’’ वे पूरी तरह से डिफेंसिव थे। क्या हिन्दी भाषा को सही-सही लिखने के लिए ज़्यादा मेहनत लगती है या कुछ ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है? हमें चाहिए कि सार्वजनिक स्थलों पर हिन्दी भाषा की वर्तनी की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।

एक साधारण- सा नियम है कि जिस एकवचन ईकारांत शब्द के अंत में दीर्घ ई लगती है (बड़ी ई की मात्रा लगती है) बहुवचन में वह ह्रस्व हो जाती है, अर्थात् उसमें छोटी इ की मात्रा लगती है, जैसे- नदी-नदियाँ, रोटी-रोटियाँ, सदी-सदियाँ, कमी-कमियाँ, मिठाई-मिठाइयाँ, लड़ाई-लड़ाइयाँ व दवाई-दवाइयाँ आदि। इसी शृंखला में एक शब्द शृंखला अथवा शृ से प्रारंभ होने वाले कुछ अन्य शब्द हैं जो हम प्रायः श्रृ से लिखते हैं जैसे श्रृंग, श्रृंगार, श्रृगाल आदि। शृ एक संयुक्त वर्ण है, जो श् एवं ऋ के मेल से बनता है। जब हम श् एवं र को संयुक्त रूप से लिखते हैं, तो उसका रूप श्र होता है, जैसे- श्रद्धा, श्राद्ध, श्रावण, श्रीमान, श्रीमती श्रेणी आदि। श् में या तो ऋ जोड़कर संयुक्त वर्ण शृ बनाएँगे या श् में र जोड़कर श्र बनाएँगे। श् में र एवं ऋ एक साथ कैसे जोड़ सकते हैं? अतः श्रृंग, श्रृंगार, श्रृगाल आदि सभी वर्तनियाँ अशुद्ध हैं। इनकी सही वर्तनियाँ शृंग, शृंगार व शृगाल ही लिखनी होंगी।

     एक शब्द है- उज्ज्वल जिसे  अधिकतर व्यक्ति उज्जवल लिखते हैं; क्योंकि अधिकतर ऐसे शब्दों में, जहाँ दो ध्वनियाँ एक साथ आती हैं; प्रायः पहली ध्वनि स्वर-रहित होती है और बाद वाली सस्वर जैसे बच्चन, चप्पल, खद्दर, चद्दर, उद्देश्य, लट्टू, गुड्डू आदि; लेकिन उज्ज्वल में ऐसा नहीं है। इसमें दोनों ही ‘ज’ न केवल स्वररहित हैं; अपितु साथ-साथ भी आते हैं। इसका यह रूप संधि के नियम के प्रभाव से बना है। उत् एवं ज्वल की जब संधि की गई, तो उत् में जो त् की ध्वनि है, वह ज्वल में ज् की ध्वनि के प्रभाव से ज् हो जाती है और संधि से नया शब्द बनता है उज्ज्वल। कुछ लोग उज्ज्वल तो ठीक लिखते हैं; लेकिन जिन शब्दों में भी ज्वल आता है, उन सभी को भी ज्ज् से लिखते हैं- जैसे प्रज्ज्वल। यहाँ प्र एवं ज्वल के मेल से नया शब्द प्रज्वल बनेगा, न कि प्रज्ज्वल। प्रज्ज्वल अथवा प्रज्ज्वलित, दोनों ही अशुद्ध हैं। सही शब्द हैं प्रज्वल व प्रज्वलित। 

भाषा के विकास पर इन छोटी-छोटी अशुद्धियों का बहुत ग़लत असर पड़ता है। यदि आप सर्वेक्षण करें, तो पाएँगे कि दवाविक्रेताओं की दुकान पर दवाइयाँ शब्द प्रायः ग़लत लिखा मिलेगा। मैंने तो आज तक एक भी ऐसी कैमिस्ट शॉप नहीं देखी जिस पर दवाइयाँ शब्द ठीक लिखा हो। क्या ये बहुत कठिन शब्द है? बिलकुल नहीं। यदि ये त्रुटियाँ सार्वजनिक स्थानों पर दिखलाई देंगी, तो पूरे समाज की भाषा विकृत होने का खतरा बना रहता है। हम प्रायः काग़ज़ पर छपे या किसी बोर्ड पर लिखे अक्षरों अथवा शब्दों को सही मान लेते हैं, अतः ऐसे में कोई भी अशुद्धि पूरे समाज को प्रभावित करेगी। हिन्दी के विकास से जुड़ी सरकारी-ग़ैरसरकारी संस्थाओं व अकादमियों को भी इस संबंध में अपेक्षित क़दम उठाने चाहिए। आज सोशल मीडिया भी भाषाओं विशेष रूप से हिन्दी के विकास में बहुत बड़ा ख़तरा बन गया है। सोशल मीडिया पर जिस प्रकार की सामग्री व भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, उससे बचना भी अनिवार्य है। ■

सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतम पुरा, दिल्ली- 110034, मो. 9555622323, Email :  srgupta54@yahoo.co.in


आलेखः साहित्य समाज और पत्रकारिता में भाषायी सौहार्द की भूमिका

  - डॉ. पद्मावती पंड्याराम

सनातन संस्कृति का मूल मन्त्र है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जहाँ विविध भाषाएँ धर्म और संस्कृतियाँ एक परिवार की भांति समाविष्ट होकर पुष्ट होती हैं, और सह-अस्तित्व में ही अपनी परिणति पाती हैं । भारत बहुभाषी राष्ट्र है जहाँ औदार्य और सहिष्णुता का गुण आत्मसात् कर भाषायी समन्वय सद्भावना पूरित समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है । भारोपीय भाषाओं के इतिहास को अगर हम देखें, तो इनका मूल स्रोत संस्कृत में ही मिलेगा और भाषाओं का पारस्परिक सहकार केवल उनके शब्द- भंडार को ही पुष्ट नहीं करता;  बल्कि उन्हें विस्तार भी देता है । हमारे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा हिन्दी भी ऐसी समावेशी भाषा है, जिसने प्राकृत तत्सम, तद्भव, प्रांतीय, देशी, विदेशी सभी शब्दों को अपनाकर अपना क्षितिज विस्तृत कर लिया है; क्योंकि यह एक अविवादित सत्य हैं कि हिंदी स्थानीय और प्रांतीय भाषाओं को साथ लेकर ही वैश्विक भाषा बन सकती है । 

आज यह एक गंभीर सामयिक चिंतन का विषय है कि भाषायी सहकार में वर्चस्वता के विषैले बीज बो दिए जा रहे है। भाषायी विरोध तो अपरिपक्व मानसिकता का ही परिचायक है । कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आज हमारी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में भाषायी सहकार अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है । हिन्दी को राष्ट्रीय फलक से ऊपर उठाकर वैश्विक क्षितिज पर स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण मानदंड भाषायी समन्वय को माना जाना चाहिए । 

अगर साहित्य की बात करें, तो साहित्य समाज की वैचारिकता से प्रभावित भी होता है और उसे प्रभावित भी करता है । समाज से दिशा भी पाता है और उसे दिशा भी देता है । इसी कारण उसे समाज का दर्पण माना जाता है । और पत्रकारिता- पत्रकारिता का लक्ष्य - सच से दुनिया को रूबरु कराना है । साहित्य और पत्रकारिता में एक मूलभूत अंतर यह है कि साहित्य भले ही कितना भी यथार्थवादी क्यों न हो, वह यथार्थ की तर्ज पर स्थापित सामाजिक और पारंपरिक मूल्यों को विस्थापित करने का जोखिम कभी नहीं उठा सकता । इस तरह से वह तो यथार्थवादी होता हुआ भी आदर्शों की नींव पर ही भवन निर्माण करता है और जहाँ तक पत्रकारिता का सवाल है, वे उस सच को परोसते है, जो या तो घट चुका होता है या संभावित होता है और वह भी यथासंभव ईमानदारी के साथ । हाँ, जब ध्येय विस्तार है, तो आम जनता की ज़ुबान तक पहुँचना अवश्यम्भावी बन जाता है । स्थानीय बोध अर्थात् प्रांत विशेष की भाषा के शब्दों का सम्मिश्रण ! वे शब्द, जो उस बोली विशेष के लोगों में प्रचलित हैं । भाषा में लचीलापन एक अनिवार्य गुण है और हिन्दी तो ऐसी भाषा है, जिसने सभी भाषाओं और बोलियों को अपने में समा लिया है ।यहाँ ‘स्कूल’ शब्द भी उसी तरह व्यवहृत है, जैसे विद्यालय शब्द और पाठशाला शब्द । आज देखा जाए, तो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में हर वर्ष सैकड़ों हिन्दी के शब्द जोड़े जा रहे हैं, तो हिन्दी का अंग्रेज़ी से भी विरोध क्यों ? हाँ वर्चस्व की सनक अवश्य नकारात्मक परिणाम दे सकती है; लेकिन समावेशी सोच का स्वागत हमेशा होना चाहिए ! जो जितना मूल से जुड़ा रहेगा, उतना पुष्पित और पल्लवित होगा। भाषा की सर्वग्राह्यता उसे जीवंत बनाए रखती है।  हिंदी की महानदी में प्रांतीय भाषाओं की उप-नदियाँ अनादि काल से मिलती आ रही हैं;  लेकिन यह भी एक सच है कि जब तक भाषा को जीविका का माध्यम न बनाया जाए,  तो वह धीरे- धीरे वह विलुप्त होने के कगार पर चली जाती है और यही अंजाम हुआ कई भारतीय भाषाओं का । ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, व्यवहार, साहित्य, पत्रकारिता में स्थानीय भाषा का प्रयोग राष्ट्र की असीमित प्रगति का सोपान बन सकता है । 

एक ओर यह भी सत्य हैं कि आज अंग्रेजी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीविकोपार्जन की मान्य प्रचलित भाषा है, जिसने देशी गुणवत्ता को निर्यात करने में घातक भूमिका निभाई है । हाँ, हर राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी राष्ट्रभाषा होती है, होनी चाहिए;  लेकिन दुर्भाग्यवश, कारण कुछ भी हो, आज तक हिन्दी हमारी राष्ट्र की घोषित राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाई है । जब तक यह क़दम न उठाया जाएगा, इससे पहले राष्ट्रीय स्तर पर मान्य न बनाया जाएगा, इसकी दशा- दिशा में सुधार न किया जाएगा, तो यह केवल धीरे- धीरे एक सम्पर्क भाषा मात्र बनकर रह जाएगी । और देखा जाए, तो प्रशासनिक भाषा,  जो राजभाषा के रूप में आज सरकारी कार्यालयों में व्यवह्रत है, उसे दुर्भाग्य से अधिक से अधिक दुरूह बना दिया गया है, जो सामान्य जन तो क्या, शिक्षित बुद्धिजीवियों के लिए भी अग्राह्य बनकर रह गई है । जब भाषा की बोधगम्यता बाधित हो जाती है, तो उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है । आज वैश्विक बाज़ार की अवधारणा ने भाषायी सौहार्द को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । 

भारत एक सशक्त संभावित बाज़ार है । आज हिन्दी को अपनाना बहु राष्ट्रीय कम्पनियों की अनिवार्यता बन गई है। उसी प्रकार स्थानीय पहुँच हर व्यापारिक प्रतिष्ठान की सफलता का रहस्य टिका हुआ है । आज बड़े से बड़े व्यापारिक समुदाय अपने उत्पाद की खपत बढ़ाने के लिए आम जन की आर्थिकी को केंद्र में रखकर उत्पाद संकुलित कर रहे हैं । जो जितना आम जन तक पहुँचेगा, वह उतनी सफलता पाएगा । अब क्षेत्र जो भी हो, आम व्यक्ति तक पहुँच अवश्यंभावी है । 

साहित्य, व्यापार और पत्रकारिता भी इसका अपवाद नहीं । कथ्य संप्रेषणीय तभी होता है, जब अपनी बोली में बोला गया हो । शिक्षा तभी सुलभ ग्राह्य हो जाती है, जब मातृभाषा में हो । साहित्य तभी बोधगम्य होगा, जब स्थानीय भाषा में हो । इस तथ्य को जिसने जितना ग्रहण किया, उतनी सफलता पाई  है। इसलिए साहित्य हो या पत्रकारिता, स्थानीय भाषा उसे लोकप्रियता ही नहीं देती; बल्कि व्यापक विस्तार भी देती है । ■

सम्पर्कः सह-आचार्य, आसन महाविद्यालय, चेन्नई

व्यंग्यः नींद क्यों रात भर नहीं आती!

  - जवाहर चौधरी

इसे वैधानिक सूचना की तरह समझिए । हम अपनी बात कह रहे हैं । दरअसल अपनी बात कहने में जोखिम कम होता है, तो बात ये है कि हम सोने के लिए बदनाम थे कभी । अब जाने क्या डर है या चिंता कोई कि आँखों से नींद उड़ी हुई है । कभी कुम्भकर्ण नाम दिया था लोगों ने, तो उनका भी मान रखना पड़ता था । खूब सोते थे। अब पता नहीं किसके घोड़े बाँध लिये हैं सिरहाने । जैसे- जैसे रात काली होती है, नींद सेटेलाइट की तरह उड़ जाती है और लौटती नहीं है । मच्छर सर पर मँडराते रहते हैं, कहते हैं न सोऊँगा और न सोने दूँगा । इधर जितने बेरोजगार हैं, सब चौकीदार हैं और जागते रहो, जागते रहो चिल्लाते रहते हैं । आँख लगे, तो कैसे । कभी चैन की नींद सो लिया करते थे लोग, जिसके लिए शेरवानी पर लगा लाल गुलाब दोषी है शायद । ख्याल आता है कि सुबह होगी तब सो जाएँगे; लेकिन वो सुबह आ नहीं रही है ।

“ऐसे नहीं मानोगे ! चलो मन, तुम्हें बहलाने के लिए एक किस्सा सुनाते हैं । दरअसल तुम्हीं हो, जो बार- बार बहकते रहते हो। जबसे रेडिओ पर आने लगे हो,  तुम बहुत बिगड़ गए हो । तुम्हारी उछलकूद से हम परेशान होते हैं । तुम एक जगह स्थिर और शांत बैठो, तो हम नींद ले पाएँ जरा । खैर, सुनो कहानी । एक समय की बात है एक राज्य था शांतिपुरम । जैसा नाम वैसा गुण, राज्य में शांति और सौहार्द बहुत था। लोग मिलजुलकर रहते थे और जो मिल जाता था उसमें खुश थे । रातें गहरी नींद वाली और सुबह ऊर्जा से भरी होती थी । एक साँझी जीवनशैली में जी रहे थे लोग । इस बात से राजा वीरचन्द्र को बहुत संतोष था । यही बात कुछ लोगों को पसंद नहीं आ रही थी । उन्होंने हितैषी बनकर प्रजा के बीच पैठ बनाई । पहले विश्वास जीता, उसके बाद विवेक भी और मौका मिलते ही इतिहास की ओर रुख मोड़ दिया । धीरे धीरे लोग वर्तमान को भूलने लगे और राजा वीरचन्द्र के शासन को भी । जिस भविष्य को लेकर आमजन सपने बुना करते थे कभी, उससे डरने लगे ।  नतीजा यह हुआ कि जो पीढ़ी भविष्य के निर्माण में लगी थी, वह अतीत के खनन में लग गई । ‘बीत गई सो बात गई’ कहने वालों को जनाक्रोश झेलना पड़ा । लोग कालखंडों, मान्यताओं और किताबों में बाँटते गए । पड़ोसी, जो पहले एक दूसरे के सहारे थे, अब संदेह करने और डरने लगे । सबसे पहले विश्वास घटा, फिर प्रेम और परस्पर आदर भी । जो पहले एक दूसरे को देख कर सुरक्षित मानते थे, अब खतरा महसूस करने लगे । समय बीता, जिन्होंने सुरक्षा की गारंटी दी थी, वही डर का सबसे बड़ा कारण हो गए...”

“रुको जरा !” अचानक मन बोला । “यह कैसा किस्सा सुना रहे हो ! इसमें नींद कहाँ है ? इस तरह की कहानी से किसी को नींद कैसे आयेगी भला ! ... मुझे परियों वाली कहानी सुनाओ ताकि सुकून मिले और कुछ सपने भी देख सकूँ।” 

“ किस्सों वाली परियाँ अब कहाँ हैं मन । वे अब बाज़ार में हैं, मॉल में हैं, पोस्टर और विज्ञापनों में हैं । परियाँ अब प्रोफेशनल हैं, आँखे बंद करने से नहीं, कांट्रेक्ट साइन करने के बाद ही आती- जाती हैं कहीं भी । किसी ने कभी कहा था कि बड़े सपने देखो । हम लम्बे सपने देखने लगे हैं, कलयुग से सतयुग तक । जल्द ही युवक भूल जाएँगे कि रोजगार किसे कहते है ! जीवन का आधार मुफ्त का राशन होगा और जीवन किसका होगा पता नहीं । ... यही चिंता है और यही डर ।”

“कोई उम्मीद बर नहीं आती ; 

कोई सूरत नजर नहीं आती । 

मौत का एक दिन मुअय्यन है ;

 नींद क्यों रात भर नहीं आती ।” 

सम्पर्कः BH 26 सुखलिया , भारतमाता मंदिर के पास ,इंदौर- 4520 10 , फोन- 940 670 1 670  


कविताः मुस्कुराती ज़ेब


 - रमेश कुमार सोनी

एक मायावी स्वप्नलोक 

तैर रहा है मेरे मष्तिष्क की 

बेरोजगार डिग्री वाली फाइल में,

रोज़गार का स्वर्णमृग 

हर बार मुझे ठगकर भाग जाता है

जैसे ठगता है 

मानसून किसानों को। 


मेरी भूख रोज बाँचती है

रोज़गार के विज्ञापन

हर भोर मुझसे पूछती है

आज कहाँ साक्षात्कार होगा

लौटते कदम 

तलाशते हैं-बहाना

घर को ढाँढस दिलाने 

ओ मेरी जरूरतों 

लो आज मैं फिर लौटा हूँ-खाली ज़ेब। 


जवानी गुजरने को है

वैवाहिक रिश्तों का टोटा है

डिग्री कोई गिरवी रखता नहीं

भूख सौतन बनी इसे गुर्राती है, 

‘नो वेकेंसी’ देखकर और 

धक्के खाकर पेट भरने का 

अज्ञातवास जाने कब समाप्त होगा

हर घूरती नज़रें ये पूछती हैं। 


सभी दुआओं को तौल चुका हूँ

खाली ज़ेब में इन दिनों

सिर्फ निर्वात का बसेरा है 

मेरी महत्त्वकांक्षाओं का

भविष्य धुआँसा है,

आशाओं की अटारी 

कपूर के जैसी उड़ रही है

लोगों के पूछने पर 

कैसे कह दूँ की सब ठीक है?


मेरे ठेले पर पकोड़े खाते हुए

समय हँस रहा था मुझ पर 

मैं देख रहा हूँ अपने

उम्मीदों के सावन को हरियाते हुए, 

मेरी चाय सुड़कते हुए

लोग चर्चा कर रहे हैं-

आत्महत्या के कारणों पर और

मेरी डिग्रियाँ मुस्कुरा रही हैं।


कविताः गाँव की अँजुरी ?

  - निर्देश निधि

जो गाँव की अँजुरी में 

छलछलाईं  फिर से पोखरें 

और खिलखिलाए फिर किसी दिन

उसकी हथेलियों पर 

नरम, फुलकारी से कपास के श्वेतवर्णी फूल 

तो टलते रहेंगे संकट 

 

जो गाँव के चबूतरों पर

लौटीं कभी फिर से 

टेलिविज़न और मोबाइलों के सैलाब में 

बह गईं  चौपालें

फिर गुड़गुड़ा उठे हुक्के, 

हुक्कों पर खिल उठीं 

अगनफूलों- भरी चिलम 

और फिर से जी उठे अंतहीन 

किस्से बुजुर्गों के 

तो भी टलते रहेंगे संकट 

 

जो कंक्रीटों की क़ैद से मुक्त होकर 

पसर जाएँगे हरे कालीनों वाले 

चरागाह दूर तलक 

गाँव की सीमाओं के उदर पर

बज उठेंगी एक बार फिर से घंटियाँ 

आते - जाते पशुकुल की 

मर जाएँगे सारे के सारे अवसाद उनके 

तो भी टलते रहेंगे संकट 

 

जो पितामह की हर टेर पर

दौड़े आएँगे अंग्रेज़ीदाँ घर के किशोर

अस्मिताएँ स्त्रियों की होंगी कोहिनूर से कीमती

सुने जाएँगे उनके मन के सब आलाप

मासूम बने रहेंगे बचपन 

साफ़ रहेंगे पंख हवाओं के 

तो भी देखना टलते रहेंगे संकट


लघुकथाः असली कोयल

  - स्वप्नमय चक्रबर्ती, अनुवाद/ बेबी कारफरमा

अभी टूरिज़्मजम कम्पनी वालों ने अपने बिजनेस को बढ़ाने के लिए एक नया तरीका अपनाया है; क्योंकि वर्ष भर इको ट्यूरिज्म , एजूकेशन ट्यूरिज्म, हेल्थ ट्यूरिज्म, एथनिक ट्यूरिज्म का व्यवसाय चलता ही रहता है।

एक रिज़ॉर्ट पर ट्यूरिज्म का मेला लगा हुआ था। थीम था ‘बसंत का मौसम’। रिज़ॉर्ट  के अंदर घासफूस से छोटी  छोटी झोंपड़ियाँ  बनाई हुई थी।  झोंपड़ियों में ए.सी. चल रहे थे  कुछ आधुनिक किस्म की लड़कियाँ बिना ब्लाउज पहने हुए पाड़ वाली ताँत की साड़ियाँ पहनकर ढेंका चला रही थीं। बाहर पलाश के पेड़ों को भी अच्छी से सजाया गया था। उन पेड़ों पर प्लास्टिक के नकली फूल भी खिले हुए थे।  रिज़ॉर्ट की कृत्रिम झील में पेडल मारकर चलने वाली बोट और बत्तखें भी तैर  रही थीं। कुछ पेड़ों के बीच साऊण्ड बॉक्स लगाए गए थे। साऊण्ड बॉक्स से कोयल की ‘कुहू-कुहू-कुहू’ की मीठी आवाज भी सुनाई पड़ रही थी। मध्य रात्रि के समय तीन बार लोमड़ी की आवाज भी सुनाई देती है। रात्रि के समय बिजली के द्वारा जुगनू भी चमक रहे थे। मतलब यह है की कम्प्यूटर  से सारा कार्यक्रम सेट किया हुआ था। सुबह के समय कम और सायंयकाल  को कोयल की  मीठी आवाज़ सुनाई दे रही थी।  केवल दोपहर के समय की कोयल की कुहुक सुनाई नहीं देती थी;  क्योंकि यह समय कोयल के सोने का होता है।

एक दिन अचानक दोहपर के समय जोर-जोर से कोयल की कुहू-कुहू की आवाज रिज़ॉर्ट में गूँज उठी। फिर क्या था रिज़ॉर्ट में अफरा-तफ़री मच गई। कम्प्यूटर  इंचार्ज मधुबन्ती को बुलाया गया। एक्सपर्ट मधुबन्ती भी परेशान हो गई। सिस्टम में गलती कैसे आ गई। उसने बार-बार सिस्टम की जाँच की। एकबार बनाए गये सिस्टम को बन्द करके भी देखा, फिर भी कोयल की आवाज आती ही गई।

अरे! कितना सर्वनाश हो गया! उस कृत्रिम बगीचे में एक असली कोयल प्रहरियों की आँख बचाकर घुस गई थी। ■

सम्पर्कः कलकाता, पश्चिम बंगाल,भारत , मो. 9432492217, 6291955060 

(लेखक परिचय – स्वप्नमय चक्रबर्ती पश्चिम  बंगाल के एक प्रसिद्ध लेखक है ।  सन् 2023 में ‘जलेर उपर पानी ’ पुस्तक के लिए  उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है)


तीन लघुकथाएँ

 - डॉ. सुषमा गुप्ता       

1-भेड़ें 

“चल कम्मो”

“कहाँ ?”

“बाबा जी के डेरे।”

“क्यों?”

“माथा टेकना है।”

“क्यों ?”

“अरे सब टेक रहे हैं।”

“क्यों ?”

“अरे इतने लोग टेक रहे हैं। बाबा जी बहुत पहुँचे हुए होंगे तभी तो न”, शानो जोर देकर बोली।

“अरी हाँ कम्मो। बाबा जी के चरण छूके मेरी नंद के इस साल लड़का हुआ।” शान्ता ने मोहर लगाई।

“अरे! मेरे तो जेठ का लकवा ठीक हो गया उनके दर्शन से”, रजनी ने भी खूब पुलिंदा बाँधा ।

“हैं! सही में ! खूब तेज होगा बाबा जी में फिर तो! चलो-चलो मैं भी चलती हूँ। ऐसे संत पुरुष के दर्शन से तो जन्म धन्य हो जाएगा।”

यूँ ही पचास औरतें और पीछे हो ली।

थोड़ी देर बाद डेरे के पब्लिसिटी डिपार्टमेंट से अपनी-अपनी पेमेंट लेकर शानो, शान्ता, रजनी तीनों चलती बनी।

बाबा जी की जय-जयकार दूर-दूर तक गूँज रही था।

2- कैमिस्ट्री

“कल मेरी कमर में बहुत दर्द था। “मोहनदास पटरी पर बैठे, रामदीन मोची से अपना जूता ठीक करवाते हुए उससे बोले।

“चमड़ा कितना महँगा हो गया है” रामदीन ने जूता सिलते हुए कहा।

“सुबह मुझे दफ्तर जाना है पैंशन लेने । लाइन बहुत लम्बी होगी। रामदीन इतने दर्द में मैं कैसे खड़ा रह पाऊँगा?” मोहनदास बाबू ने अपनी व्यथा सुनाई।

“ये जूते अब और ज्यादा ठीक नहीं हो सकते। तला बिल्कुल घिस चुका है” रामदीन सपाट स्वर में बोला।

“मेरी तो पिंडलियाँ भी सूज जाती है बहुत देर खड़े रहने से। तुझे पता है बैठने को भी कुछ नहीं होता है वहाँ ।”

“अबकी तो जैसे-तैसे ठीक कर दिए हैं पर अब नए ले लो।”

“हम्मम..” पैसे पकड़ा कर मोहनदास घर की तरफ चल दिए।

घर का गेट मोची की दुकान से साफ दिखता था।

बाहर खड़ी बहू ने उन्हें घूरकर देखा और मुँह बनाकर भीतर चली गई। वे वहीं बरामदे में अखबार लेकर बैठ गए ।

“आप मना क्यों नहीं करते बाबू जी को।

रोज़ किसी न किसी फ़िजूल कारण से रामदीन मोची की दुकान पर जा बैठते हैं। शोभा देता है क्या इस उम्र में यूँ रात-दिन छोटे लोगों में संगत करना।”

“सीमा बेकार हंगामा न करो। बाबूजी रिटायर हो चुके है, तो काम तो कुछ वैसे भी नहीं है । माँ के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए हैं । अब तुम और मैं तो दफ्तर चले जाते हैं तो समय काटने उसी से बतिया आते है।”

“समय काटने को ये मोची ही रह गया । पार्क भी तो जा सकते है”, वह तमातमाकर बोली।

“हाँ जा तो सकते है , पर इस उम्र में अब आदत तो छूटने से रही।”

“आदत? मतलब? मोची से बात करने की आदत!”

“अरे मोची से नहीं माँ से। माँ तुम्हारे आने से पहले चल बसी तो तुमने माँ बाबूजी की कैमिस्ट्री नहीं देखी। पापा अपना सारे दिन का लेखा-जोखा रोज़ दफ्तर से आकर माँ को सुनाते थे और माँ अपनी धुन में घर के दुखड़े सुनाती रहती। दोनों की बातों में कोई ताल-मेल न होता। फिर भी अनवरत लगे रहते दोनों अपनी-अपनी समस्याएँ सुनाने में। सो वही सुकून अब बाबू जी को रामदीन के पास मिलता है। दुनिया में कहीं कुछ हो रहा हो। वह अपनी जूतों की दुनिया में मस्त रहता है।”

सीमा ने एक नज़र बरामदे में बैठे बाबू जी को देखा फिर गेट से दिखते रामदीन पर नज़र गई।

बैठक में लगी अपनी सास की बड़ी सी तस्वीर की तरफ़ देख मुस्कुराकर बुदबुदाई- “वाह! कैमिस्ट्री हो तो ऐसी।”

3- दरकती उम्मीद

“बाबा मुझे और भी मरीज देखने हैं , खाना खा लीजिए ।”

“नहीं खाना मुझे । पहले मेरे घरवालों से मेरी बात करवाओ”

“अरे बाबा, कितनी बार बोलूँ, आपके घर पर कोई फोन नहीं उठा रहा। ये रखा है खाना । जब खाना हो, आवाज लगा देना।” ये कह कर नर्स गुस्से में झुँझलाती दूसरे मरीज की तरफ बढ़ गई।

बाबा की आँखें छलक आईं।

आशा सब चुपचाप देख रही थी। उन‌ बुज़ुर्ग के साथ वाले बैड पर उसकी सासु माँ थी। आशा से बाबा की छलकती आँखें देखी न गई।

वह बेहद प्यार से बोली, “ बाबा आपका कसूर नहीं है। ये अस्पताल वाले इतना बेस्वाद खाना देते है कि स्वस्थ भी बीमार पड़ जाएँ। “

आशा उन्हें हँसाने के इरादे से बोली और फिर खूब सारे झूठे-सच्चे किस्से सुना कर उन्हें खाना खिला ही दिया। वह बाबा इतने बुज़ुर्ग थे कि अपने काँपते हाथों से खुद खाने में असमर्थ थे।

“बिटिया ये मेरी, मेरे घर बात नहीं करा रहे। आज मेरे पोते का जन्मदिन है। वह मेरे फ़ोन का इंतज़ार कर रहा होगा। तुम बात करा दोगी?” उन्होंने बेहद कातर स्वर में कहा।

“जी बाबा ज़रूर,  नम्बर बोलिए ?”

“वह तो बिटिया याद नहीं ।” उन्होंने काँपती आवाज में कहा ।

“कोई बात नहीं बाबा, मैं नर्स से लेकर आती हूँ।”

आशा ने वार्ड की रिसेप्शन पर जाकर पूछा

“सिस्टर, बैड नम्बर दस के मरीज के घर का फोन नम्बर दे दीजिए।”

“अरे मैडम कोई फ़ायदा नहीं होगा फ़ोन मिलाकर। हम बात कर चुके हैं।‌ इनका सपुत्र ...अपने सुपुत्र के जन्मदिन की पार्टी मना रहा है । आज इनका डिस्चार्ज था। उसने कह दिया कि एक दिन का एक्स्ट्रा बिल भर देंगे; पर आज समय नहीं है उनके पास, इन्हें ले जाने का। इसलिए इनसे बात भी करने से मना कर दिया उन्होंने कि फिर आज ही जाने की जिद करेंगे।”

स्तब्ध आशा ने बाबा को मुड़कर देखा‌। वे बड़ी उम्मीद से उसी की तरफ देख रहे थे। आशा ने हताशा से आँखें मूँद लीं।   ■