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Sep 1, 2024

कहानीः प्रार्थनाओं के विरुद्ध

 - सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

आज  मैं अस्पताल से घर  लौट तो आई थी, पर मेरा लौटना कहाँ लौटना था बस आ जाना था जैसे कोई आ जाता है अनचाहे ही।  ऑपरेशन  के दौरान अवचेतन में महसूस कर रही थी। यहाँ मौजूद सभी लोग पूरे मनोयोग से मुझे बचाने के लिए अथक कोशिश में जुटे हैं और मुझे कुकी की बात याद आ रही है- " दादी देखिएगा आप भी एक दिन जरूर मानेंगी कि डॉ. भगवान होते हैं।" पर अब मुझे भगवान के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे में डॉ. भगवान है या इंसान समझकर क्या करूँ; क्योंकि होगा तो वही, जो मेरी प्रार्थनाओं के विरुद्ध होगा।

“ अच्छा बताइए दादी माँ, क्या भगवान भी पैसे लेते हैं?"

‘‘क्यों, नहीं तो’’- मैंने चौंककर पूछा था ।

“आप ही तो कहती थी डॉक्टर भगवान होते हैं ; लेकिन जब भी डॉक्टर के पास जाती हूँ , तो मिलने के पहले पापा को ढेर सारा पैसा जमा करना होता है। फिर लंबी लाइन में  घण्टों बैठो, तब जाकर डॉक्टर अंकल मिलते हैं। फिर उतने सारे पैसे और समय के बदले कुछ दवाई लिख देते हैं। हद है न दादी ! दवा भी कहीं से पैसे देकर खरीदना होता है हुँह ...’’- मुँह बिचकाते हुए कुकी ने कहा था।

घण्टों बैठे रहो, कहते हुए कुकी की आँखों में थकावट साफ झलक रही थी।

हम सभी उसे कुकी ही कहते थे, बिल्कुल कोयल जैसी प्यारी आवाज़। दिनभर चहकती रहती। थोड़ी देर भी चुप हो जाए, तो लगता पूरा आसमान पक्षी- विहीन हो गया है।  अच्छी नहीं लगती थी उसकी चुप्पी।

उसे प्यार से समझाते हुए मैंने कहा था- “कुकी, जब हम मंदिर जाते हैं, तब लाइन में लगते हैं न, पैसे देकर प्रसाद खरीदते हैं न और अंदर जाते ही पंडित जी कहते हैं- आगे बढ़िए -आगे बढ़िए। हमलोग कहाँ कुछ देर रुककर भगवान से अपनी बात कह पाते हैं। क्षणभर ठीक से भगवान पर नजर पड़ती भी नहीं कि पुजारी कहना शुरू कर देते हैं-  “चलिए-चलिए पीछे लोग खड़े हैं।’’

“हम्म, आप सच कह रही हैं दादी’’- कुछ सोचते हुए उसने कहा । जैसे उसकी भी कोई याद ताजा हो गई हो। फिर क्षण भर बाद ही उछलती- कूदती भाग गई; लेकिन मुझे वह सब याद आ रहा था, जब मन में गहरी आस्था और विश्वास लिये लंबी यात्रा के बाद पुरी धाम गई थी। अभी हाथ जोड़ी भी नहीं पाई थी, सिर्फ भरी आँखों से कुकी के लिए दुआएँ माँग ही रही थी - “आगे बढ़िए-आगे बढ़िए का शोर होने लगा। क्या वे मेरे भगवान नहीं थे? चालीस घण्टे की यात्रा कर पहुँची थी: किन्तु चालीस सेकेंड भी भगवान के सानिध्य में खड़ी न हो पाई। लोगों के शोर में बस कुकी.. कुकी ही बोल पाई थी। पर क्या  भगवान भी शोर में बस मेरे होठों से निकले शब्द ही सुन पाए, मेरे मन की नहीं। या फिर इतनी लंबी भीड़ में किसकी- किसकी सुनते।

   तब अपने मन को समझते हुए मंदिर के बाहर बैठकर खूब रोई थी। ईश्वर से मन ही मन पूछती रही। जीवन कम ही देना होता है,  तो मोह ही क्यों जगाते हो प्रभु ? पर उसकी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला। मेरे सवाल, मेरी पुकार वहीं दीवारों से टकराकर हवाओं में बिखर गई।

 उन दिनों कितने ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, धागा, मन्नत , टोटके करती रही पर सब व्यर्थ होते गए और मेरी आस्था टूटती रही।  खैर, वहाँ का प्रसाद कुकी ने बहुत मन से खाया, चेहरे पर रौनक लौटने लगी थी। 

    कुकी कहती- “दादी मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनूँगी और बच्चों का मुफ्त में इलाज करूँगी।’’ तब मैं खुश होकर उसे ढेर सारे आशीर्वाद देती और पूछती- मुफ्त में क्यों? तब कहती- आप ही तो कहते हो- “बच्चे भगवान होते हैं फिर एक भगवान किसी दूसरे भगवान से पैसे कैसे ले सकते हैं।’’

    मैं मासूम बन पूछती- “तुमसे तो लेते हैं।’’ तब वह उदास हो कहती- शायद मैं अच्छी वाली भगवान नहीं हूँ। तभी तो रोज बीमार ही रहती हूँ। और दीदी अच्छी वाली भगवान।

    फिर परेशान हो पूछती-“ सच बताओ दादी! बच्चे भी भगवान होते हैं ?’’

    मैं कभी - कभी झुँझलाकर कहती- “अरे बिटिया तू हमेशा भगवान के पीछे ही क्यों पड़ी रहती है।”

    सभी इंसान हैं - तू, मैं, तेरी दीदी, डॉक्टर, सब के सब। बस जो पूजा रूम में हैं न, जिसकी हम पूजा करते हैं, सिर्फ  वही भगवान है।

    कुकी कुछ देर सोचती फिर कहती- “दादी मुझे संस्कृत पढ़नी है।’’

 “अब संस्कृत क्यों?’’

 “मुझे भगवान से बात करनी है।’’

 ‘‘वो तो सभी भाषा में बात करते हैं बच्चा।’’

 “नहीं, वो चुप बैठे रहते हैं, मैं बोलती रहती हूँ, वो केवल मुस्कुराते रहते हैं। शायद वो हिन्दी नहीं समझ पाते।’’-बड़ी मासूमियत से कहती।

  मुझे जोर की हँसी आ जाती पर उसी क्षण उसके मन, उसके शरीर की पीड़ा का एहसास मुझे रुला देता।

  और फिर अपने कमजोर होते शरीर से धीरे-धीरे पूजा रूम में जा धीमी आवाज में जाने क्या -क्या बातें करती रहती।

  कभी- कभी सोचती हूँ, वह भी समझने लगी थी कि अब वह ज्यादा दिन नहीं बचेगी; क्योंकि अब उसकी प्रार्थनाओं में कई बार मेरे बाद... सुनाई देता।

   मात्र ग्यारह साल की कुकी कई बार मुझे अस्सी साल की लगती।

   डॉक्टर कहते- ईश्वर से प्रार्थना कीजिए तब कुकी कहती- “आप ही तो ईश्वर हो,  ऐसा दादी कहती हैं।’’ 

     डॉक्टर भी प्यारी- सी गुड़िया को देख मायूस हो जाते । कहते बिटिया अगर मैं ईश्वर होता, तो चुटकियों में तुम्हें ठीक कर देता। तब कुकी उदास हो जाती।

   और आज जब हार्ट अटैक के बाद लोग कह रहे हैं कि सच में डॉक्टर भगवान होते हैं, तो मुझे कुकी बहुत याद आ रही है। लग रहा है- वो हँसकर कह रही है- मैंने कहा था न दादी!

   पर मुझे तो कुकी की दुनिया में जाना था । उसके साथ फिर से खेलना था। देखना था, अब वह थोड़ी और बड़ी होकर कैसी दिखती है। आज  डॉक्टर मुझे भगवान नहीं, दुश्मन नजर आ रहे थे, जो जबरदस्ती मुझे इस शरीर में कैद करके रखना चाह रहे थे। पर अब मुझे नहीं जीना था। बिना इच्छा के ही उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते- चढ़ते यहाँ तक आ गई थी; पर मंजिल के पहुँचने के पहले ही डॉक्टर ने हाथ पकड़कर रोक लिया- नहीं तुम इतनी जल्दी आजाद नहीं हो सकती। अभी तो तुम्हारी सजा की लंबी उम्र बाकी है। मेरे ऊपर शायद दवाइयों का असर-सा होने लगा था। 

  जिस डॉक्टर से मुझे इतनी नफरत हो रही थी। उसी की तस्वीर एक दिन घर के मंदिर में रखकर कुकी ने कहा था- “दादी, इनकी ही पूजा करो न, भगवान जाने होते भी हैं या नहीं । शायद डॉक्टर ही पूजा से खुश हो मुझे ठीक कर दें।’’

    तब फूट-फूटकर रोने लगी थी मैं। यह उन दिनों की बात है, जब मैंने भी मन को समझना शुरू कर दिया था। पर मन को समझना भी इतना सरल कहाँ होता है? रोज दिन- रात प्रार्थना करती- ईश्वर मेरी उम्र मेरी बच्ची को दे दो । मुझे ले चलो प्रभु। पर! प्रार्थनाएँ कितनी असफल हो सकती हैं इतने वर्षों में बार- बार मुझे अनुभव हुआ ।कुकी के रहते, उसे बचाने की प्रार्थना और उसके बाद मुझे ले जाने की।    

अंतिम दिनों में जब वह ढंग से खड़ी भी नहीं हो पाती थी, तब भी मुस्कुराती रहती । जाने कितनी हिम्मत थी उस छोटी सी जान में जो हँसते हुए इतनी पीड़ा सहती थी या जन्म से पीड़ा झेलती, वह कभी जान ही नहीं पाई थी बिना पीड़ा के देह कैसी होती है। 

    धीरे-धीरे पहले उसकी आवाज गई। फिर पीड़ा सहते-सहते एक दिन वह खुद भी चली गई।

   पर सिर्फ वह ही कहाँ गई थी, उसके  साथ ही इस घर की चहचहाट, खुशियाँ, रौनक सब  चली गई थीं।

    खैर ... आज लोग कह  रहे हैं ईश्वर की असीम कृपा है। आप ठीक हो गईं। उनकी माया, उसकी लीला वे ही समझ सकते हैं।

  पर अब इस लीला, इस माया को  मैं समझना नहीं चाहती। मेरी बच्ची इसी लीला, माया के चक्रव्यूह में फँसी अपनी चंद साँसों के लिए, कभी डॉक्टर में भगवान , कभी भगवान में डॉक्टर ढूँढते – ढूँढते हार गई और मैं अपनी असफल प्रार्थनाओं के अस्सी वर्ष की उम्र में लौटकर आ रही हूँ एक खामोश और उदास घर में। ■

सम्पर्कः राँची, झारखण्ड, मो- 7717765690, ईमेल-satyaranchi732@gmail.com


2 comments:

Anonymous said...

बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी कहानी । हार्दिक बधाई सत्याजी । सुदर्शन रत्नाकर

Satya sharma said...

हृदय से धन्यवाद दी 🙏