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Sep 1, 2024

संस्मरणः कस्बों - शहरों की रौनक ...फेरीवाले

  - शशि पाधा

बचपन में बहुत सी कहानियाँ पढी थीं, सुनी थीं। कुछ कहानियाँ मन-मस्तिष्क में चित्र की तरह ऐसे टँगी रहती हैं कि वे हमारे अस्तित्त्व का अटूट भाग बन जाती है। मैंने भी रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘काबुली वाला’ पढ़ी थी, फिल्म भी देखी थी, तो लगता था जैसे मैं ही मिनी हूँ और यह मेरी ही कहानी है। जानते हैं क्यों -

हम जिन शहरों में पले-बढ़े हैं, उन शहरों–कस्बों का अगर आप चित्र बनाएँ, तो केनवास पर बच्चे दिखाई देंगे और दिखाई देंगे खूब सारे फेरीवाले।  उन चित्रों में आप देखेंगे- सर पर टोकरी रखे  फलवाला, हाथ में डंडे पर बँधे हुए रंग- बिरंगे गुब्बारेवाला, गले में पट्टी के साथ पेटी बाँधकर चलने वाला मलाई बर्फ वाला, चना जोर गर्म वाला, चमकते हुए बाँस पर लिपटे हुए चीनी के गट्टे से नन्हे- नन्हें खिलौने बनाकर बेचने वाल। अब आप याद करें आपकी सूची में न जाने कितने फेरीवाले होंगे। मैं अगर लिखने बैठूँ, तो पूरा उपन्यास बन सकता है। हर रोज़ नई- नई स्वादिष्ट और आकर्षक चीज़ें लेकर आने वाले फेरीवालों से हमारा प्यारा-सा सम्बन्ध जुड़ा हुआ था और उनका हमारे-सा। इसी लिए शायद मैं अपने आप को काबुलीवाला कहानी की मिनी ही मानती रही।

उस ज़माने में फेरीवाले हमारी ज़िंदगी का एक हिस्सा थे। गली-मुहल्ले, कूचे-बाज़ार, स्कूल –दफ़्तर हर जगह उनकी उपस्थिति जानी- पहचानी थी। सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हर कोई उनके आने की प्रतीक्षा करता थ। उनके आने से बच्चों और बूढ़ों के मुख पर मुस्कान बिखर जाती थी। बच्चों को मनचाही ‘चिज्जी’ या खिलौना मिलता था और बूढ़ों को दो पल बतियाने के लिए कोई साथी। 

फेरीवालों की छवि का एक विशेष गुण था, उनकी लच्छेदार, बुलंद आवाज़। यानी जब वे अपनी मज़ेदार आवाज़ के साथ सब को आगाह करते थे कि आओ, हम तो आ गए , तो भला कौन अपने आप को रोक सकता था। हैरानी की बात यह थी कि हर फेरीवाले का आवाज़ लगाने का अपना विशिष्ट अंदाज़ होता था। कोई गाकर बुलाता था, किसी की आवाज़ गले की किसी अनोखी नस से निकलती थी, कोई कविता के अंदाज़ में बुलाता था और कोई फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर पैरोडी के स्टाइल में अपने सौदे का गुणगान करता था। कभी-कभी वे या गाने-लटके गा-गाकर लोगों को बुलाते थे या अपने शरीर से भी तरह-तरह की मुद्राएँ बनाकर लोगो को प्रभावित करते थे। वे अपने अनूठे ढंग से कभी घंटी बजाकर, कभी  बाँसुरी की धुन छेड़कर अपने निजी ढंग के मीठे बोल बोलकर वस्तुओं के नाम बताते और बच्चे–बूढ़े उनकी मोहक आवाज़ की डोर से बँधे चले आते। यानी उस समय के फेरीवाले सौदागर भी होते थे, गायक भी और अभिनेता भी। 

फेरीवालों की कुछ-कुछ आवाजें मैं कभी नहीं भूलती। जैसे जामुन बेचने वाला – काले- काले  जामुन , देते खूब मज़ा जामुन। गन्ने की गँडेरी बेचने वाला कहता था – गुड़मिट्ठी गँडेरियाँ-दो तेरियाँ दो मेरियाँ। मूँगफली बेचने वाले का मुहावरा था - ले लो पिशावर की गरियाँ, मिट्ठे  बादाम की गरियाँ। तिकोन- सी टोकरी को गली के किसी स्वच्छ स्थान पर रखकर खुद एक छोटे से मूढ़े पर बैठकर जब हमारा सर्वप्रिय खट्टे-मीठे चने बेचने वाला आवाज़ लगाता था – ‘चना जोर गर्म, आओ खाओ मौज मनाओ’ तो हमारा हाल कुछ ऐसा होता था। जब तक वह कागज़ के कोण में चना और मसाले डालकर हिला रहा होता,हम बच्चों के मुँह में स्वाद की न जाने कितनी नदियाँ बह रही होती। 

मुझे मालूम नहीं कि भारत के दूसरे शहरों में ‘मलाई बर्फ’ बेचने वाला गली मोहल्लों में आता था कि नहीं; किन्तु जम्मू , पंजाब और हिमाचल में तो अवश्य ही आता था। एक लकड़ी की पेटी के अंदर कम्बल जैसे हरे कपड़े में लिपटा होता था एक बर्तन। शायद उसके नीचे खूब सारी बर्फ रखी रहती थी। हरे- हरे साफ़ पत्तों पर कड़छीनुमा किसी चीज़ से जब भैया मलाई वाले बर्फ़ की एक पतली- सी तह रखता था, तो पूरे शरीर में ठंड का अहसास  होने लगता था। सर्दियों में मूँगफली, खजूर से भरे खोमचे वाले आते,  तो आवाज़ आती –  कलकत्ते की खजूरें आई हैं, गाड़ी भर मँगवाई हैं। पानी के बताशे, बुड्डी के बाल, कचालू, गोलगप्पे, गुड़-रेवड़ियाँ ----  अगर मैं सब चीज़ों के नाम लिखूँ , तो आपके मुँह में भी पानी आ जाएगा। चलिए छोड़ देते हैं आपके लिए भी कुछ याद करने को।

इसी संदर्भ में एक बात और भी याद आती है कि एक ही फेरीवाला मौसम के अनुसार अलग-अलग चीज़ें बेचने के लिए लाता था। गर्मियों में मौसमी फल, लच्छेदार कुल्फी और सर्दियाँ आते ही मूँगफली ,रेवड़ियाँ, खजूरें अपनी टोकरी या थाल में सजा लेते थे। जब भी कोई फेरीवाला,  किसी गली के कोने पर बैठकर अपनी दूकान सजा लेता,  तो उसके आसपास बच्चों –बूढ़ों का समूह इकट्ठा हो जाता। वह जगह सही मायने में मनोरंजन के लिए मीटिंग का अड्डा भी बन जाती।

फेरी वालों में से एक बहुत पुराना फेरी वाला मुझे अक्सर याद आता है, जो बायोस्कोप दिखाता था। एक अजब तरह से भोंपू बजाकर, वह अपने आने का एलान कर देता था। एक स्टैंड पर वह अपना लकड़ी का बक्सा सजा देता और फिर प्रतीक्षा करता था बच्चों के आने की। अगर उस दिन दादी दयावान हुई तो पैसे मिल जाते थे और हम बायोस्कोप के बक्से में आँख गड़ाकर तमाशा देखते थे। कुछ चित्र आँखों के सामने से गुजरते जाते और बायस्कोप वाला गा-गाकर उनकी कहानी सुनाता जाता। गाने के बोल शायद कुछ कुछ ऐसे थे - ‘दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो, लखनऊ का मीना बाज़ार देखो।’ मुझे यह याद नहीं कि उस कहानी के पात्र कौन थे। बस वह  बक्सा और बायोस्कोप वाला याद है। 

मैंने बचपन में भगवती प्रसाद बाजपेयी जी की एक कहानी पढ़ी थी –‘मिठाई वाला’। वह भोला भाला मिठाई वाला मुझे इतना प्रभावित कर गया कि मैंने छोटी सी उम्र में इस कहानी पर ‘मोनो एक्टिंग’ भी की थी। यानी मैं कभी टोपी पहनकर टोकरी उठाकर मिठाई वाला बनती और कभी चुनरी ओढ़कर ‘रोहिणी’। आप समझ सकते हैं कि उस समय के जीवन और दिनचर्या में फेरीवालों का कितना महत्त्व और योगदान था। 

इन फेरीवालों के साथ हम बच्चों का प्यारा-सा सम्बन्ध भी जुड़ जाता था। वे हमें हमारे घर के नाम से जैसे मुन्नी, गुड्डी, काका, मुन्ना कहकर बुलाते थे, तो लगता था कि वे हमारे परिवार का ही अंग हैं। अगर कुछ दिन कोई फेरीवाला नहीं आता, तो हम बच्चे तो उसे याद करते ही थे, घर के बड़े - बूढ़े  उनका हाल चाल जानने उनके घर भी चले जाते थे। वास्तव में ये फेरीवाले हमारी संस्कृति और समाज का एक अभिन्न अंग थे।

परिवर्तन एक ऐसी जादुई छड़ी है, जो समय के साथ कितना कुछ बदल देती है। समय के साथ ही बदल गया लोगों का जीवन। धीरे-धीरे लोग शहर के बाहर नए नगरों में रहने आ गए। बहुत- सी चीज़ें वहीं छूट गईं। इसी बदलाव में फेरीवाले भी कहीं गुम हो गए। या तो उन्होंने छोटी मोटी दूकानें डाल लीं या रेहड़ी- गुमटियाँ। उस ज़माने में बाज़ार स्वयं हमारे गली-मोहल्ले में आता था। अब लोग बाज़ार जाते हैं। अब न वो फेरीवालों की आकर्षक आवाजें सुनाई पड़ती हैं और न ही थाल- टोकरी में सजी वो स्वादिष्ट चीजें। न बच्चों को कोई उनके प्यारे से घर के नाम से बुलाता है और न ही बच्चे मुट्ठी में पैसे दबाकर घर की खिड़की के पास खड़े होकर किसी ‘काका’, ‘भैयाजी’ की प्रतीक्षा करते हैं। जब मोबाइल से पिज़्ज़ा या फास्टफूड का ऑर्डर किया जाता है, तो मुझे लगता है जैसे बच्चों का यह अधिकार उनसे छिन गया है। 

 शायद मुझे अपने बचपन के उन दिनों से बहुत लगाव है। अतीत को भुलाना कठिन है और अतीत के रंगमंच के पात्रों का अचानक लुप्त हो जाना और भी दुखदायी लगता है। चलिए हम रचनाकार अपनी कहानियों, कविताओं, उपन्यासों में उन फेरीवालों को फिर से बुलाएँ, ताकि हमारी नई पीढ़ी भी उनसे पहचान कर ले।  ■


1 comment:

Anonymous said...

शशि जी आपने बरसों पीछे ले जाकर बचपन के सुनहरे दिनों की याद दिला दी है। एक बात और चीजें लेकर झुंगा (पंजाबी शब्द) लेना कभी नहीं भूलते थे। जैसे यह हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हो।
फेरीवालों का सजीव चित्रण करता बहुत सुंदर संस्मरण । हार्दिक बधाई आपको ।सुदर्शन रत्नाकर