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Sep 1, 2024

कविताः मुस्कुराती ज़ेब


 - रमेश कुमार सोनी

एक मायावी स्वप्नलोक 

तैर रहा है मेरे मष्तिष्क की 

बेरोजगार डिग्री वाली फाइल में,

रोज़गार का स्वर्णमृग 

हर बार मुझे ठगकर भाग जाता है

जैसे ठगता है 

मानसून किसानों को। 


मेरी भूख रोज बाँचती है

रोज़गार के विज्ञापन

हर भोर मुझसे पूछती है

आज कहाँ साक्षात्कार होगा

लौटते कदम 

तलाशते हैं-बहाना

घर को ढाँढस दिलाने 

ओ मेरी जरूरतों 

लो आज मैं फिर लौटा हूँ-खाली ज़ेब। 


जवानी गुजरने को है

वैवाहिक रिश्तों का टोटा है

डिग्री कोई गिरवी रखता नहीं

भूख सौतन बनी इसे गुर्राती है, 

‘नो वेकेंसी’ देखकर और 

धक्के खाकर पेट भरने का 

अज्ञातवास जाने कब समाप्त होगा

हर घूरती नज़रें ये पूछती हैं। 


सभी दुआओं को तौल चुका हूँ

खाली ज़ेब में इन दिनों

सिर्फ निर्वात का बसेरा है 

मेरी महत्त्वकांक्षाओं का

भविष्य धुआँसा है,

आशाओं की अटारी 

कपूर के जैसी उड़ रही है

लोगों के पूछने पर 

कैसे कह दूँ की सब ठीक है?


मेरे ठेले पर पकोड़े खाते हुए

समय हँस रहा था मुझ पर 

मैं देख रहा हूँ अपने

उम्मीदों के सावन को हरियाते हुए, 

मेरी चाय सुड़कते हुए

लोग चर्चा कर रहे हैं-

आत्महत्या के कारणों पर और

मेरी डिग्रियाँ मुस्कुरा रही हैं।


2 comments:

भीकम सिंह said...

बहुत सुंदर कविता, हार्दिक शुभकामनाऍं ।

Anonymous said...

बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति । हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर