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Dec 1, 2024

उदंती com, दिसम्बर - 2024

वर्ष- 17, अंक- 5

जो फूलों को देखकर मचलते हैं

 उन्हें काँटे भी जल्दी लगते हैं।

        - सुभाष चंद्र बोस

इस अंक में 

अनकहीः गाँव के सरकारी स्कूल ... - डॉ. रत्ना वर्मा

संस्मरणः शांतिदूत की झलक - शशि पाधा

कविताः 1.प्यार, 2. नदी बन जाऊँ 3. उधार की जिंदगी - सुदर्शन रत्नाकर  

स्वास्थ्यः छोटी झपकियों के बड़े फायदे

आलेखः सुवाक्यों की अनोखी दुनिया - डॉ. महेश परिमल

आलेखः उठने लगी आबादी बढ़ाने की माँग - प्रमोद भार्गव

प्रेरकः द्वार पर सत्य - निशांत

शब्द चित्रः हाँ धरती हूँ मैं - पुष्पा मेहरा

हाइकुः हवा बातूनी - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

स्मरणः रोहिणी गोडबोले - लीलावती की एक बेटी - अरविन्द गुप्ता

लघुकथाः  1. नागरिक, 2.  हैड एंड टेल, 3. अंन्ततः - सुकेश साहनी

लघुकथाः खाली-खाली भरा-सा - प्रगति गुप्ता

कविताः नदी नीलकंठ नहीं होती - निर्देश निधि

संस्मरणः मेरी, वे दो शिक्षिकाएँ - अंजू खरबन्दा

कविताः बंद किताब - नन्दा पाण्डेय

व्यंग्यः मुझे भी वायरल होना है - डॉ. मुकेश असीमित

लघुकथाः जूते और कालीन - चैतन्य त्रिवेदी

कविताः उठो स्त्रियो! - डॉ. सुरंगमा यादव

बालकथाः बहादुर चित्रांश - निधि अग्रवाल

कविताः शुक्रिया नन्ही दोस्त! - डॉ. आरती स्मित

किताबेंः ‘लघुकथा- यात्रा’ लघुकथाओं का दस्तावेज -  रश्मि विभा त्रिपाठी

जीवन दर्शनः रोवन एटकिंसन उर्फ़ मिस्टर बीन - विजय जोशी


अनकहीः गाँव के सरकारी स्कूल ...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

पिछले दिनों एक ऐसी खबर पढ़ने को मिलीं जिससे यह सोच और बलवती हुई कि यदि मन में ठान लें तो क्या कुछ हासिल नहीं कर सकते। खबर छत्तीसगढ़ में घने जंगलों के बीच बसे रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़ विकासखंड में संचालित एक शासकीय प्राथमिक विद्यालय लामीखार गाँव की है। समाचारपत्रों में यह खबर कुछ इस तरह प्रकाशित हुआ था कि- ‘सरकारी विद्यालय होने के बावजूद कई निजी विद्यालय को पछाड़ कर लामीखार में पढ़ाई कर रहे विद्यार्थी सबको मात दे रहे हैं।’ यद्यपि इस प्रकार टिप्पणी करने से सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता और हमारी शिक्षा व्यवस्था पर कई सवाल उठ खड़े होते हैं। 
परंतु लामीखार के इस स्कूल ने अन्य सरकारी स्कूलों के समक्ष एक उदाहरण पेश किया है।  जिले के अंतिम छोर पर बसा लामीखार गाँव बहुत पिछड़ा हुआ है, जहाँ जंगली हाथियों का आतंक भी छाया रहता है।  पहले लोग इस गाँव को जानते भी नहीं थे। लेकिन अब इस प्राथमिक विद्यालय के बच्चों की विशेष उपलब्धि के बाद इसकी एक नई पहचान बनी है। खास बात यह है कि इस प्राथमिक शाला के 8 बच्चों का चयन नवोदय विद्यालय में हो चुका है। इतना ही नहीं शाला के स्वच्छ वातावरण और अच्छी पढ़ाई को देखते हुए आस- पास के शहरों में रहने वाले अभिभावक गाँव में किराए का मकान लेकर अपने बच्चों को इस विद्यालय में पढ़ने भेज रहे हैं। 
यह सब इसलिए संभव हुआ है क्योंकि इस विद्यालय के शिक्षकों ने पढ़ाई के तरीकों में बदलाव तो किया ही साथ ही विद्यालय के वातावरण को भी विद्यार्थियों के लिए रुचिकर बनाया। पाठ्यक्रम में निर्धारित विषयों के अलावा भी बच्चों को सामान्य ज्ञान की शिक्षा  खेल- खेल में  दी जाती है।  धरती, आकाश, नदी, जंगल, जानवर, यहाँ तक कि गणित जैसे विषय को समझाने के लिए स्कूल परिसर में ही उनकी कलाकृतियाँ या मॉडल बना दिए गए हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि यहाँ के  शिक्षकों नें अपने निजी खर्च से बच्चों के लिए प्रयोगशाला और लाइब्रेरी सहित कई अन्य संसाधन भी जुटाए हैं। 
इस पाठशाला के शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए शिक्षक निरंजन लाल पटेल  पिछले कई वर्षों से प्रयास करते आ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले बच्चों के अभिभावकों को तैयार किया ताकि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित हों। आस- पास के पर्यावरण और स्वच्छता के लिए गाँव के लोगों को भी जागरुक किया। परिसर में किचन गार्डन, ऑक्सीजोन और बागवानी के साथ अनुपयोगी वस्तुओं से गणित और विज्ञान की पढ़ाई के लिए विभिन्न उपकरण तैयार किए गए हैं। कुल मिलाकर इस स्कूल का भवन भले ही छोटा है पर पूरा परिसर बच्चों को पढ़ाई के प्रति आकर्षित करने वाले संसाधनों से भरा भड़ा है।  
 सवाल यही उठता है कि जब एक छोटे से गाँव का यह शासकीय स्कूल कम संसाधनों में भी बेहतर शिक्षा का वातावरण बना सकते हैं तो फिर अन्य स्कूल ऐसा क्यों नहीं कर सकते। आवश्यकता सिर्फ दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन की है; परंतु यह दुर्भाग्य है कि आजादी के के बाद हम शासकीय स्कूलों की स्थिति को बजाय सुधारने के बिगाड़ते ही जा रहे हैं। 
एक तरफ तो ऐसे हजारों निजी स्कूल हैं, जिन्होंने अच्छी पढ़ाई और सुविधाओं के नाम पर लाखों की फीस वसूलते हुए शिक्षा के मंदिर को व्यवसाय बना दिया हैं। इन स्कूलों में वही बच्चे पढ़ाई कर सकते हैं, जिनके अभिभावक उतना खर्च उठाने के काबिल होते हैं और जो इस काबिल नहीं होते उनके लिए होते हैं यही सरकारी स्कूल, जहाँ सरकार न सुविधा देती न साधन न शिक्षक। हमारे देश के अनेक ऐसे ग्रामीण स्कूल हैं जहाँ एक या दो शिक्षक ही कई - कई कक्षाओं को पढ़ाते हैं।   
ऐसे ही कई कारण हैं कि शासकीय स्कूल से पढ़ाई कर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या गिनती में होती है और सिर्फ उदाहरण के रूप में उनका नाम लिया जाता है। आज भी हम बिल्कुल उसी तरह  धरमजयगढ़ स्कूल का उदाहरण पेश कर रहे हैं। यह हमारे लिए और हमारी सरकार के लिए कितने शर्म की बात है कि, यह कहकर हम खुश होंते हैं कि देखो यह बच्चा शासकीय स्कूल में पढ़ाई करने के बावजूद आज इतनी ऊँचाईं  पर पहुँचा है। जबकि होना तो यह चाहिए कि शासकीय स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा एक उदाहरण बने ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।  
सबसे पहले तो स्कूल प्रशासन को मजबूत बनाया जाए ताकि शिक्षा की गुणवत्ता पर नियमित निगरानी हो सके और शिक्षा नीति का सही क्रियान्वयन हो, शिक्षकों को शिक्षण विधियों और तकनीकों के बारे में नियमित प्रशिक्षण दिया जाए, शिक्षकों की पर्याप्त संख्या हो ताकी शिक्षक प्रत्येक छात्र पर पर्याप्त ध्यान दे सकें। इसके साथ ही स्थानीय समुदाय को स्कूलों के विकास और निगरानी में शामिल करना चाहिए, ताकि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने और उनकी शिक्षा में सहयोग करने के प्रति जागरूक हों सकें।  स्कूल के लिए पर्याप्त भवन हो, साफ-सफाई की व्यवास्था हो, पेयजल, बिजली, शौचालय और खेल-कूद की सुविधाओं को गंभीरता से लिया जाए, स्कूलों में किताबों के अलावा कंप्यूटर, स्मार्ट क्लासरूम, प्रोजेक्टर आदि आधुनिक शैक्षिक सामग्री और तकनीकी साधनों की व्यवस्था हो। 
इन बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही हम प्रत्येक शासकीय स्कूल को उदाहरण योग्य बना सकते हैं। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि व्यवस्था के अंतर्गत उपर्युक्त सभी बातें आती तो हैं परंतु उनपर अमल करने में कोताही बरती जाती है। या तो इन स्थानों पर राजनिति होती है या सारी योजनाएँ भ्रष्टातार की भेंट चढ़ जाती हैं। यही वजह है कि जब धरमजयगढ़ जैसे शासकीय स्कूल के कुछ शिक्षक अपने प्रयास से ऐसा कुछ उदाहरण पेश करते हैं तो वह खबर बन जाती है।

संस्मरणः शांतिदूत की झलक

  - शशि पाधा     

यह प्रसंग वर्ष 1998 के आस-पास का है। कारगिल के भयंकर युद्ध में कितने ही शूरवीरों ने अपनी  जान की आहुति दी थी। पूरे देशवासियों का हृदय दुःख, क्षोभ एवं ग्लानि के मिले जुले भावों से छलनी था। युद्ध पहले भी होते रहे हैं, सीमाएँ पहले भी रक्तरंजित होती रही हैं, किन्तु यह युद्ध सीमाओं के साथ- साथ जनता के घरों में, टीवी स्क्रीन पर भी लड़ा जा रहा था। हरेक क्षण का वृत्तांत सामने देखकर शत्रु के प्रति आक्रोश और युद्ध में विजयी होने की प्रबल भावना हर भारतीय के खून में खौल रही थी। उन्हीं दिनों भारत-पाक सीमा से सटी हुई एक चैक पोस्ट पर मैंने जो दृश्य देखा, उसने मेरे मन- मस्तिष्क पर एक अमित छाप छोड़ दी।

पंजाब राज्य के फिरोजपुर शहर की छावनी में स्थित है ‘हुसैनी वाला ‘चेक पोस्ट’। इस पोस्ट पर भारत –पाक सीमा को निर्धारित करते हुए लोहे की सलाखों वाले दो बड़े –बड़े से काले रंग के प्रवेश द्वार हैं। प्रवेश द्वारों में से एक के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है भारत और दूसरे के ऊपर पाकिस्तान। दोनों के बीच परेड स्थल है, जिसे सैनिक भाषा में  ‘ज़ीरो लाइन’ कहा जाता है। सादी भाषा में वो ज़मीन का टुकड़ा किसी देश की सम्पत्ति नहीं। द्वार के ठीक पीछे दोनों देशों की दर्शक दीर्घा बनी हुई है, जहाँ बैठ के दर्शक हर शाम अपने-अपने देश का राष्ट्रीय झंडा उतारने की परेड देख सकते हैं।

इस परेड का विशेष आकर्षण यह है कि दोनों देशों के सुरक्षा बलों के सैनिक  छह फुट से भी लम्बे, बड़ी ही आकर्षक वर्दी में आकर अस्त्र- शस्त्रों के साथ अपने जूतों को ज़मीन पर पटक–पटककर परेड करते हुए अपने-अपने देश के झंडे को सलामी देने का बाद उसे उतारकर रात के लिए सहेज देते हैं। इन सैनिको के जूतों मे लोहे की प्लेटें लगी होती हैं और जब यह पैर को जोर से उठाकर जमीन पर मारते हैं तो ऐसा लगता है कि शत्रु के सामने अपने बल का प्रदर्शन कर रहे हों। जब दोनों ओर के सैनिक आमने-सामने होते हैं तो एक दूसरे की आँख में ऐसी नोकीली नज़रों से देखते हैं मानों आँखों से निगल जायेंगे।  

परेड आरम्भ होने से पहले दोनों देशों की दर्शक दीर्घाओं के आस-पास देश भक्ति और सेना के शौर्य का बखान करते हुए फ़िल्मी गाने पूरे जोर शोर से लाउडस्पीकर पर बज रहे होते हैं। कुछ दर्शकों के हाथ में अपने अपने देश का झंडा होता है जिसे वे बड़े गर्व के साथ लहराते हैं। कुल मिलाकर एक उत्सव का वातावरण सा हो जाता है। और, हो भी क्यूँ नहीं? वह एक ऐसा स्थल है जिस पर किसी का अधिकार नहीं। वहाँ पर जमीन के चप्पे-चप्पे के लिए मनुष्य-मनुष्य को मारने के लिए घात लगाये नहीं बैठा है। वो तो प्रेम और सौहार्द बाँटने का स्थल है।

यह पूरा कार्यक्रम लगभग आधे घंटे का होता है।  वहाँ का दृश्य भी बड़ा रोमांचक सा होता है। जब भारतीय सैनिक बल प्रदर्शन करते हैं तो पाक दर्शक दीर्घा में सन्नाटा होता है और भारतीय दर्शक ज़ोर-जोर से करतल ध्वनि के साथ अपने सैनिकों का अभिवादन करते हैं। जब पाक सैनिकों का बल प्रदर्शन होता है तो हमारी ओर  चुप्पी होती है लेकिन उस ओर के दर्शक और भी जोर से ताली बजाकर अपने सैनिकों को शाबाशी देते हैं।  यह एक सैनिक परम्परा है, इसे वर्षों से निभाया जा रहा है।

 हम उन दिनों फिरोजपुर में ही रहते थे। हमारे पास  बहुत से मेहमान इसलिए भी आते थे ताकि इस आकर्षक परेड का आनन्द ले सकें। हुसैनी वाला के इस गेट के थोडा सा पहले सतलुज नदी के किनारे एक बाग़ है, जिसमें  भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन को होम करने वाले तीन स्वतंत्रता सेनानियों अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव का समाधि स्थल है, जिसे ‘राष्ट्रीय शहीद स्मारक’ के नाम से जाना जाता है।  कालान्तर में यहीं पर उनके साथी बटुकेश्वर दत्त का भी 1965 में अन्तिम संस्कार किया गया। भगतसिंह की माँ विद्यावती की इच्छा का मान रखते हुए उनका  अन्तिम संस्कार भी यहीं किया गया था। 

सतलुज नदी के इस पुल का सामरिक महत्त्व भी है। तीन दिसंबर, 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान हुसैनीवाला पुल ने ही फिरोजपुर को बचाया था। उस समय पाकिस्तानी सेना ने भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव के शहीदी स्थल तक कब्जा कर लिया था। तब अपनी जान पर खेलकर भारतीय सेना ने पुल उड़ाकर पाकिस्तानी सेना को अपने देश की सीमा में प्रवेश करने से रोका था। उसके बाद यहाँ लकड़ी का पुल बनाकर हुसैनीवाला सीमा पर जाने का रास्ता तैयार किया गया था। इन अमर वीरो का समाधि स्थल पुल के उस पार स्थित था और सीमा का वह भू भाग पाकिस्तान के अधीन हो गया था। वर्ष 1973 में भारतीय सरकार ने पाकिस्तान के साथ समझौता कर फाजिल्का के 10 गाँवों को पाकिस्तान को सौंपकर शहीदी स्थल को पाक के कब्जे से मुक्त करवाया था। तब से लेकर अब तक सैंकड़ों दर्शक परेड देखने से पहले स्वतंत्रता सेनानियों के इस गौरवशाली स्मारक पर जाकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

मैंने हुसैनीवाला सीमा पर ध्वज उतारने की परेड को कई बार देखा है और हर बार मुझे कुछ नया ही अनुभव होता है। भले ही पाकिस्तान और हिंदुस्तान में युद्ध का वातावरण बना हो, लेकिन हुसैनीवाला बार्डर पर दोनों देशों के बीच दोस्ती और सम्मान की अद्भुत मिसाल रोजाना देखने को मिलती है। यह  देश का वो बार्डर है, जहाँ भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय ध्वज सूर्योदय के समय फहराए जाते हैं और सूर्यास्त के समय अपनी अपनी धरती पर सम्मान के साथ उतारे जाते हैं। इस रस्म का निर्वाह कई दशकों से हो रहा है। 

इस बार जो दृश्य मैंने देखा वो मेरे मानस पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गया। अगर उस समय मेरे पास कैमरा होता, तो उस अद्भुत दृश्य को कैद करके दोनों देशों की सरकारों को तस्वीरें इस आशा से  भेजती कि शायद यह देखकर मानवता का संहार करने वाली, युद्ध जैसी क्रूर  भावनाएँ सदा – सदा के लिए समाप्त हो जातीं।

उस शाम भी परेड हो रही थी। दोनों देशों के सैनिक आकाश को चीरने वाली ध्वनि से अपने पैर पटक-पटककर, शस्त्रों को पूरे बल के साथ उठाकर एक दूसरे को खूँखार दृष्टि से घायल करते हुए परेड कर रहे थे। दोनों ओर ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बज रही थीं।  अचानक मेरा ध्यान पाकिस्तान की दर्शक दीर्घा में बैठे हुए एक बच्चे की ओर चला गया। उस नन्हे-मुन्ने की आयु लगभग चार वर्ष होगी। उसने  हरे रंग की कमीज़ पहनी हुई थी (पाकिस्तान का  राष्ट्रीय रंग)। उस दीर्घा में बहुत सी स्त्रियों ने भी हरे दुप्पट्टे और आदमियों ने हरी टोपियाँ पहनी  हुई थीं। उस समय मैंने जो देखा और अनुभव किया वह अपने पाठकों के साथ साझा करने में मेरे शब्द भी शायद कम पड़ जाएँ ...

जब भारतीय सैनिक अपने पूर्ण बल से परेड कर रह थे, तो उस समय भारतीय दर्शक दीर्घा में आकाश भेदती तालियों की गूँज थी, लेकिन पाकिस्तान की पूरी दर्शक दीर्घा में सन्नाटा था। केवल यही मासूम नन्हा-मुन्ना बड़े उत्साह से, ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजा रहा था। मैं अब परेड नहीं देख रही थी। मैं केवल यही देख रही थी कि बच्चा ताली बजा रहा था और उसके अभिभावक बार–बार उसे रोक रहे थे। वह बड़े उत्साह से तालियाँ बजा रहा था और लोग मुड़–मुड़कर उसे देख रहे थे। वह मासूम, नि:छल हृदय क्या जाने कि कौन उसका अपना है और कौन पराया! शायद उसे भारतीय सैनिकों की वर्दी आकर्षक लग रही थी, या पाकिस्तानी सैनिकों की पीठ उनकी दीर्घा की तरफ़ थी और वह उन्हें ठीक से देख नहीं सकता था। या वह भारतीय सैनिकों के चेहरे के हाव–भाव देखकर प्रसन्न हो रहा था। या......वही जाने।

उस शाम मैंने उस बच्चे में उस शान्ति दूत की झलक देखी जिसके अन्दर धर्म, जाति, सीमा, भाषा के विषय में कोई भेदभाव नहीं था। वह , तो एक योगी की तरह केवल सौहार्द और प्रेम का प्रतीक बनकर वहाँ बैठा था। उस मासूम ने वर्ष 65 और वर्ष 71 के भारत-पाक युद्ध की भयानक कहानियाँ भी नहीं सुनी होंगी। वह तो यह भी नहीं जानता होगा कि कुछ माह के बाद ही कारगिल का दिल दहला देने वाला युद्ध होने वाला था।

और ... वहाँ चुपचाप बैठी मैं उसकी तालियों की प्रतिध्वनि में विश्व शान्ति की उद्घोषणा का संदेश सुन रही थी। 

                              

कविताः 1.प्यार, 2. नदी बन जाऊँ 3. उधार की जिंदगी

- सुदर्शन रत्नाकर

1.प्यार

प्यार से छू लो तो

कलियाँ

निखर आएँगी

मौसम की

पत्तियाँ हैं

लहराने दो

पतझड़

आने पर स्वयं ही

बिखर जाएँगी।

2.नदी बन जाऊँ।

मैं बरसों से

प्रतीक्षा कर रही हूँ

उस उजली धूप और

हरी दूब के लिए,

जहाँ एक नदी बहती हो

और मैं भी हिमखंड-सी पिघलती

नदी बन जाऊँ।

निरन्तर गतिशील बहती

अँजुरी-अँजुरी प्यार बाँटती

सागर की गहराइयों में

कहीं खो जाऊँ।

3. उधार की जिंदगी

घोंसला बनाने की चाह में

ज़िन्दगी भर वह

जिंदगी को ढोता रहा

पर

न तो उसे ज़िन्दगी मिली

और

न घोंसला।

टूटता रहा

वह पल-पल

जीता रहा उधार की जिंदगी।


स्वास्थ्यः छोटी झपकियों के बड़े फायदे

 आम तौर पर झपकी को विलासिता या आलस्य का पर्याय माना जाता है। लेकिन निद्रा से सम्बंधित एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दिन में झपकी के लाभों और इसकी आदर्श अवधि के बारे में कुछ दिलचस्प पहलू उजागर किए हैं।

इसमें 20-30 मिनट की छोटी झपकियों को संज्ञानात्मक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है। ये छोटी झपकियाँ  मूड सुधारती हैं, याददाश्त मज़बूत करती हैं, सूचना प्रोसेसिंग तेज़ करती हैं और चौकन्नापन बढ़ाती हैं। इनसे अप्रत्याशित घटनाओं की स्थिति में त्वरित प्रतिक्रिया की क्षमता भी बढ़ती है। दिलचस्प बात यह है कि 10 मिनट की गहरी झपकी भी, क्षण भर के लिए ही सही, दिमाग को तरोताज़ा कर सकती है, जबकि थोड़ी लंबी झपकी इन संज्ञानात्मक लाभों को कुछ देर तक बनाए रखती है।

गौरतलब है कि झपकी की इच्छा दो महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित होती है: एक समस्थापन निद्रा दबाव (एचएसपी) और दैनिक शारीरिक लय। दबाव तब पैदा होता है जब हम अधिक देर तक जागते हैं। ऐसे में हमारे शरीर की प्राकृतिक लय अक्सर दोपहर के दौरान सतर्कता में कमी लाती है। नतीजतन कुछ लोगों को थोड़ी राहत के लिए झपकी लेना पड़ता है। इस मामले में जेनेटिक कारक लोगों की झपकी लेने की प्रवृत्ति को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ लोग आदतन झपकी लेते हैं और अन्य तब जब वे गंभीर रूप से नींद से वंचित हो जाते हैं।

3000 लोगों पर किए गए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन के समय 30 मिनट से अधिक सोने में सावधानी बरतनी चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि झपकी संज्ञानात्मक लाभ प्रदान करती है लेकिन यह गहन निद्रा के चरणों की शुरुआत भी करती है जिससे आलस आता है। इसके अलावा, लंबी झपकी को स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतों से भी जोड़ा गया है, जिनमें मोटापा, उच्च रक्तचाप और वसा कम करने की बाधित क्षमता शामिल हैं। कई मामलों में इसे अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों से भी जोड़कर देखा गया है।

इस स्थिति में झपकी के पैटर्न की पहचान करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बार-बार और लंबे समय तक (एक घंटे से अधिक) झपकी लेना कई स्वास्थ्य समस्याओं या मस्तिष्क की सूजन में वृद्धि का संकेत हो सकता है। इसके लिए चिकित्सीय परामर्श लेना चाहिए। वैसे संक्षिप्त निद्रा रात की नींद को नुकसान पहुंचाए बिना आवश्यक स्फूर्ति प्रदान कर सकती है। छोटी झपकी लेना सतर्कता, एकाग्रता बढ़ाकर खुश रहने की कुंजी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)


आलेखः सुवाक्यों की अनोखी दुनिया

  - डॉ. महेश परिमल

"अगर तुम कुछ नहीं कर सकते, तो चोरी ही सीख लो, सुनते हो, चोरी ही सीख लो। क्योंकि कर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञान से बुरे कर्म छूट जाते हैं।" स्वामी विवेकानंद के ये विचार किसी के जीवन में क्रांति ला सकते हैं। इस तरह के सुवाक्य, आज के विचार, अनमोल बोल आदि के नाम से जाने जाने वाले वाक्य हमारे लिए सदैव ही चमत्कारिक औषधि का काम करते रहे हैं। पहले इस तरह के वाक्य बहुत ही मुश्किल से पढ़ने को मिलते थे। अपनी स्कूलों की दीवारों पर इस तरह के वाक्य अक्सर हम पढ़ा करते थे। उसके बाद इसका धीरे-धीरे विस्तार होता गया। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के भेल इलाके की सड़कों के बीचों-बीच इस तरह के सुवाक्य आज भी पढ़ने को मिल जाते हैं। अब तो सुवाक्यों की बाढ़-सी आ गई है। लोग मोबाइल पर सुबह की राम-राम के बजाय सुवाक्य डालने लगे हैं। वाट्सएप यूनिवर्सिटी से जो भी जुड़ा है, उसके सामने से रोज ही सुवाक्यों की पूरी श्रृंखला ही गुजरती है। 

सुवाक्यों में एक अलग ही प्रकार की सुगंध होती है। उसे हम जैसे-जैसे पढ़ते हैं, उसकी सुगंध उतनी ही फैलती रहती है। कई वाक्य हमें तुरंत ही प्रभावित करते हैं। कई कालांतर में याद आते हैं। कई वाक्यों को हम अपने जीवन में उतारना चाहते हैं। कई वाक्य हमें आंदोलित भी करते हैं। कई बार तो हमें लगता है कि अरे! यही तो मेरे साथ हुआ है। काश...मैं इसे पहले समझ जाता। कई वाक्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि इस पर तुरंत अमल कर लिया जाए। हम उसे अमल में लाते भी हैं। पर कुछ दिन बाद जिंदगी अपनी पटरी पर लौट आती है। सुवाक्यों की दुनिया बहुत ही छोटी होती है।  हम जैसे ही पढ़ते हैं, हमारा मस्तिष्क उससे प्रभावित होता है। हमें लगता है कि यदि इसे तुरंत अमल में लाया जाए, तो हमारा जीवन आसान हो जाएगा। पर वाक्य का असर कुछ ही देर होता है। उसे अमल में लाने के कुछ देर बाद वह कहीं विलीन हो जाता है।

 आजकल सोशल मीडिया में एक नए तरह के रोगी दिखाई देने लगे हैं। ऐसे लोगों को हम "मैसेज मेनिया" कह सकते हैं। उनकी पूरी कोशिश होती है कि अपने होने का प्रमाण देने के लिए वे अपने मोबाइल से अपने मित्रों को "गुड मार्निंग" या "गुड नाइट" का संदेश देना नहीं भूलते। आजकल देश में वाट्सएप यूनिवर्सिटी के अकुशल और अनपढ़ विद्यार्थी संदेशों को आदान-प्रदान करने लगे हैं, उससे ऐसा लगता है मानों देश के सभी लोग अतिशिक्षित हो गए हैं। ज्ञान का भंडार खुल गया है। हर कोई ज्ञानी बन गया है। वह एक से एक संदेश देने लगा है। सारे संदेश और उपदेश केवल देने के लिए ही होते हैं, ऐसा मानकर वह दिन भर एक से एक संदेश देने का काम करता रहता है। यदि इन संदेशों का मर्यादा में उपयोग हो, तो यह अपने विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। आजकल इस माध्यम का दुरुपयोग अधिक हो रहा है। अच्छी जानकारी कहीं दबकर रह जाती हैं, पर समाज में नकारात्मकता फैलाने वाली सामग्री बहुत ही तेजी से फैलने लगी है। फैलाने वाले ऐसे लोगों को ही "मैसेज मेनिया" कहा जाता है। ये लोग आजकल समाज में काफी प्रदूषण फैला रहे हैं।

हमारे मोबाइल में विभिन्न तरह के संदेशों की भरमार है। किसी को भी संदेश भेजा जाए, तो उसके पीछे के भाव, अर्थ भी जानना चाहिए। इस तरह के सुवाक्य हमें केवल मोबाइल में ही मिलते हैं, ऐसा नहीं है। सामान्य जीवन में हमें प्रतिदिन कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। कई चिंतकों, विचारकों, वक्ताओं, कथाकारों तथा दैनन्दिनी में होने वाले वार्तालापों से भी हमें सीखने के लिए बहुत कुछ प्राप्त होता रहता है। जिसे कुछ सीखना हो, तो वह बच्चों की तुतली वाणी से भी सीख सकता है। कई बार मूक प्राणी भी अपनी हरकतों से बिना कहे हमें बहुत कुछ सिखा देते हैं।

सामान्य रूप से हम रोज ही कई संदेशों को डिलीट कर देते हैं। इसके बाद भी कुछ संदेशों को डिलीट करते समय ऐसा लगता है कि इसे रख लिया जाए। जिसे सुरक्षित रखा जाता है, वे संदेश संतों, महान व्यक्तियों के होते हैं, इन संदेशों से हम सदैव प्रेरित होते रहते हैं। उसका अनुकरण करने की कोशिश करते हैं। संदेशों की महिमा अनोखी होती है। संदेशों को अंधानुकरण कई बार हानिकारक हो सकता है। यह समय ऐसा है, जब हमारे मोबाइल में संदेशों की बाढ़-सी आई हुई है। सुबह से शाम तक संदेशों का आना जारी रहता है। ऐसे में हमें इन संदेशों को लेकर सचेत होना होगा। हम सम्यक और तटस्थ भी बन सकते हैं। इससे हम कुछ हद तक इनसे बच सकते हैं।

सुवाक्य कई बार जीवन की दिशा ही बदल देने का माद्दा रखते हैं। कई बार उलाहने भी जीवन को नई रौशनी देने में सहायक होते हैं। उलाहनों को चुनौती मानते हुए जो प्राणप्रण से जुट जाते हैं, वे सफल होकर दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते हैं। आज हमारे सामने जो सुवाक्य आ रहे हैं, उसे यदि ध्यान से पढ़ा जाए, तो ये भी दिन को प्रफुल्लित बनाने का काम कर सकते हैं। कई बार ये सुवाक्य हमें हताशा से भी बाहर निकालते हैं।

सुवाक्यों में एक अलग ही तरह की सुवास होती है। जैसे-जैसे उसे पढ़ा जाए, वैसे-वैसे उसकी सुगंध हमारे आसपास फैलने लगती है। पहले कई लोगों के पास एक किताबनुमा नोटबुक हुआ करती थी, जिस पर वे विभिन्न स्थानों, लोगों से प्राप्त सुवाक्यों को लिखकर उसका संग्रह तैयार करते थे। अब तक इस तरह के सुवाक्यों का विशाल भंडार है। अब तो अनपढ़ लोग भी इसका इस्तेमाल करने लगे हैं। वैसे कुछ लोग विख्यात लोगों के सुवाक्यों को अपने नाम से लिखकर अपनों को भेजने भी लगे हैं। अब दीवारों पर सुवाक्य नहीं दिखते। वाट्सएप यूनिवर्सिटी में सुवाक्यों का भंडार है। लोग अपने-अपने ग्रुप में सुवाक्यों का आदान-प्रदान करते रहते हैं। कई लोग इसे पढ़ते भी नहीं, तुरंत ही दूसरों को भेज देते हैं।

सुवाक्य तो अपनी जगह ठीक हैं, पर कई लोग इन सुवाक्यों के बीच जहर फैलाने का काम भी करने लगे हैं। लोगों को इससे बचकर रहना होगा। क्योंकि लोगों को बुरी चीजें तुरंत आकर्षित करती हैं। इसलिए जैसे ही इसकी भनक मिले, हमें सचेत हो जाना चाहिए। नहीं तो बहुत देर हो जाएगी। हमारे मोबाइल में भी सुवाक्यों को जमा करने की व्यवस्था है। इसे यदि हम नोटपेड पर जमा कर लें, तो कई बार ये हमें हताशा के सागर से निकलने में सहायता करेंगै। अंत में एक सुवाक्य से अपने विचारों को विराम...हमारी छाया जब हमारे कद से बड़ी हो जाए, तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि सूरज डूबने वाला है।

सम्पर्कः  टी 3- 204, सागर लेक व्यू, वृंदावन नगर, अयोध्या बायपास, भोपाल- 462022, मो. 09977276257


आलेखः उठने लगी आबादी बढ़ाने की माँग

  - प्रमोद भार्गव 

जो चीजें कल तक अच्छी नहीं लग रही थीं, अब उन्हें अपनाने की मांग उठ रही है। कहा भी गया है कि प्रकृति अपना संतुलन बनाने का काम संहार के बावजूद कर लेती है। यही कुछ किस्सा आबादी के परिप्रेक्ष्य में दिखाई दे रहा है। आंध्र प्रदेश में बुजुर्गों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर पहले मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने एक चैंकाने वाला बयान दिया। उन्होंने आंध्रप्रदेश की राजधानी अमरावती में कहा कि ‘अब बहुत हुआ लोग दो या दो से अधिक बच्चे पैदा करें। हम ऐसे दंपत्तियों को प्रोत्साहित करने की योजना बना रहे हैं। राज्य सरकार जल्दी ही ऐसा कानून बनाने जाा रही है, जिसके अंतर्गत दो से अधिक बच्चे वाले लोग ही स्थानीय निकाय चुनाव लड़ सकेंगे।‘ इस बयान को तार्किक बताते हुए नायडू ने कहा कि ‘राज्य के कई जिलों में ऐसे गाँव देखने में आ रहे हैं, जहाँ केवल बुजुर्ग देखे जा रहे हैं। कई बुजुर्गों के युवा या तो नौकरी के लिए विदेश चले गए हैं या फिर दूसरे राज्यों का रुख कर गए हैं। अतएव दो से अधिक बच्चे पैदा करने पर ही जनसंख्या स्थिर होगी।‘ इधर दक्षिण भारत के ही तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने संसदीय परिसीमन के चलते लोगों से परिवार बढ़ाने की अपील की है। उन्होंने ज्यादा बच्चे पैदा करने की स्थिति को लोकसभा सीटों के परिसीमन से जोड़कर देखा है। उनका कहना है कि ‘अब नवविवाहित जोड़े कम बच्चे पैदा करने का विचार छोड़ दें। आखिर हम कम बच्चे पैदर करने तक सीमित क्यों रहें ?‘ 

दरअसल अब भारत बूढ़ा हो रहा है। इसलिए जनसंख्या बढ़ाने की चिंता वाजिब हैं। केंद्र सरकार द्वारा युवा भारत 2022 रिपोर्ट कहती है कि 2036 तक देश की 34.55 करोड़ आबादी ही युवा होगी, जो अभी 47 प्रतिशत से ज्याादा है। अभी देश में 25 करोड़ युवा 15 से 25 साल आयु वर्ग के हैं। किंतु आगामी 15 साल में यह दर गिरेगी। इसके दो बड़े कारण हैं। एक महिलाओं में प्रजनन दर निरंतर घट रही है। औसतन बच्चों को जन्म देने की जो दर 2011 में 2.4 थी, वह 2019 में 2.1 रह गई है। दूसरे, उत्तम होती स्वास्थ उपचार के चलते 2011 में प्रति 1000 लोगों पर 7.1 मौंते हो रही थीं, यह स्थिति 2019 में घटकर छह रह गई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश (यूएनपीएफ) की भारतीय उम्र रिपोर्ट 2023 के अनुसार 2011 में भारत में युवा आबादी की औसत उम्र 24 साल थी, जो अब बढ़कर 29 साल हो गई है। यानी युवाओं की संख्या घट रही है। बुजुर्गों की संख्या 2036 तक भारत की जनसंख्या का कुल 12.5 प्रतिशत होगी। 2050 में यह 19.4 फीसदी और इस सदी के अंत तक 36 प्रतिशत होगी। यह बूढ़ी आबादी और युवाओं की घटती आबादी किसी भी देश के लिए चिंता का कारण होना चाहिए? अतएव नायडू और स्टालिन आबादी बढ़ाने का जो संदेश दे रहे हैं, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।  

भारतीय आबादी के सिलसिले में नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की सांख्यिकीय रिपोर्ट-2018 ने देश में आबादी घटने के भयावह संकेत दिए थे। इस सर्वेक्षण के आधार पर 2018 में एक माँ की उसके जीवन काल में प्रजनन दर 2.2 आंकी गई, लेकिन इस दर में गिरावट के चलते वह दिन दूर नहीं, जब देश में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) दो रह जाए? इस विषय के जानकार लोगों का मानना है कि यदि भारत ने यह आँकड़ा छू लिया, तो जनसंख्या स्थिर हो जाएगी और फिर कुछ वर्षों में घटने लगेगी। बालिकाओं के गिरते लिंगानुपात के कारण भी यह स्थिति बनेगी। यह स्थिति सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा देने वाली साबित हो सकते हैं। ऐसे में विवाह की उम्र बढ़ाना निकट भविष्य में बड़ी समस्या पैदा कर सकती है। 

एसआरएस की रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए है, वे जन्म के समय लिंगानुपात के हैं। जैविक तौर पर जन्म के समय सामान्य लिंगानुपात प्रति एक हजार बालिकाओं पर 1050 बालकों का रहता है या प्रति एक हजार बालकों पर 950 बालिकाओं का एसआरएस की रिपोर्ट की मानें तो भारत में लिंगानुपात प्रति एक हजार बालकों पर बालिकाओं के जन्म के आधार पर गिना जाता है। यह 2011 में 906 था, जो 2018 में गिरकर 899 रह गया। केरल और छत्तीसगढ़ छोड़ देश के ज्यादातर राज्यों में पुत्र की आकांक्षा अधिक देखी गई है। बिगड़ा यह लिंगानुपात विवाह व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर डालता है। बिगड़ते लिंगानुपात के चलते इस स्थिति में सुधार के लिए सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है। भारत इस अनुपात को सुधार सकता है, क्योंकि उसके पास 15 से 49 वर्श के प्रजनन योग्य आयु वर्ग के लोगों का बड़ा समूह है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु विवाह की आयु घटाने के साथ अवैध संतान को वैधानिकता देना कानूनी रूप से अनिवार्य करना होगा। साथ ही लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण को कोख में ही नष्ट करने के उपाय बंद करने होंगे। इस हेतु आर्थिक समानता के उपायों के साथ युवाओं को प्रजनन, स्वास्थ्य शिक्षा और लैंगिक समानता के मूल्यों को प्रोत्साहित करना होगा। जैसा की अब नायडू और स्टालिन कर रहे हैं।  

अकसर भारत या अन्य देशों में बढ़ती आबादी की चिंता की जाती है। लेकिन अब भारत में कुछ धार्मिक समुदायों और जातीय समूहों में जनसंख्या तेजी से घटने के संकेत मिल रहे हैं। भारत में जहाँ आधुनिक विकास व विस्थापन के चलते पारसी जैसे धार्मिक समुदाय और आदिवासी प्रजातियों में आबादी घट रही है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचलन में आ जाने से एक बड़ा आर्थिक रूप से सक्षम समुदाय कम बच्चे पैदा कर रहा है। एक राष्ट्र के स्तर पर कोई देश विकसित हो या अविकसित हो अथवा विकासशील, जनसंख्या के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष एक प्रकार की सामाजिक व वैज्ञानिक सोच का प्रगटीकरण करते हैं। अपने वास्तविक स्वरूप में जनसंख्या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ-साथ समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करने का कारण बनती है। इसलिए भारत में जब पाँच अल्पसंख्यक समुदायों में से एक पारसियों की आबादी घटती है, तो उनकी आबादी बढ़ाने के लिए भारत सरकार मजबूर हो जाती है। दूसरी तरफ मुस्लिमों को छोड़ अन्य धार्मिक समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने के कठोर उपाय किए जाते हैं। यह विरोधाभासी पहलू मुस्लिम समुदाय की आबादी तो बढ़ा रहा है, लेकिन अन्य धार्मिक समुदायों की आबादी घट रही है।  इसीलिए जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुष लगाने के लिए एक समान नीति को कानूनी रूप दिए जाने की मांग कई समुदाय कर रहे हैं। हालांकि यह कानून बनाया जाना आसान नहीं है। क्योंकि जब भी इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखा जाएगा तब इसे कथित बुद्धिजीवी और उदारवादी धार्मिक रंग देने की पुरजोर कोशिश में लग जाएँगे। बावजूद देशहित में इस कानून को लाया जाना जरूरी है, जिससे प्रत्येक भारतीय नागरिक को आजीविका के उपाय हासिल करने में कठिनाई न हो। अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पदाधिकारी हिंदुओं में आबादी बढ़ाने की पैरवी करते रहे हैं, किंतु अब नायडू और स्टालिन ने आबादी बढ़ाने की जो वाकालात की है, उससे संघ और भारत सरकार को बल व प्रोत्साहन मिल सकता है ?   

भारत में समग्र आबादी की बढ़ती दर बेलगाम है। 15 वीं जनगणना के निष्कर्ष से साबित हुआ है कि आबादी का घनत्व दक्षिण भारत की बजाय, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएँ हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 फीसदी थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रही, वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में आबादी की दर हिंदुओं से अधिक है। विसंगति यह भी है कि पारसियों व ईसाइयों में भी जन्म दर घटी है।  उच्च शिक्षित व उच्च आय वर्ग के हिंदू एक संतान पैदा करने तक सिमट गए हैं, जबकि वे तीन बच्चों के भरण-पोषण व उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने में सक्षम हैं। भविष्य में वे ऐसा करें, तो समुदाय आधारित आबादियों के बीच संतुलन की उम्मीद की जा सकती है ? 

आमतौर से जनसंख्या नियंत्रण के दृष्टिगत चीन को परिवार- नियोजन संबंधी नीतियों को आदर्श रूप में देखा जाकर उनका विस्तार भारत में किए जाने की माँग उठती रहती है। चीन में आबादी को काबू के लिए 1979 में ‘एक परिवार एक बच्चा‘ नीति अपनाई थी। लेकिन यह गलतफहमी है कि चीन में आबादी इस नीति से काबू में आई। सच्चाई यह है कि 1949-50 में चीन में सांस्कृतिक क्रांति के जरिए जो सामाजिक बदलाव का दौर चला, उसके चलते वहाँ 1975 तक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार आम आदमी की पहुँच में आ गया था। साम्यवादी दलों के कार्यकर्ताओं ने भी वहाँ गाँव-गाँव पहुँचकर उत्पादक समन्वयक की हैसियत से काम किया और प्रशासन से जरूरतों की आपूर्ति कराई। नतीजतन वहाँ आजादी के 25-30 साल के भीतर ही राष्ट्रीय विकास के लिए कम आबादी जरूरी है, यह वातावरण निर्मित हो चुका था। 

‘एक परिवार, एक बच्चा‘ नीति चीन में कालांतर में विनाशकारी साबित हुई। इस नीति पर कड़ाई से अमल का हश्र यह हुआ कि आज चीन में अनेक ऐसे वंश हैं, जिनके बूढ़े व असमर्थ हो चुके माँ-बाप के अलावा, न तो कोई उत्तराधिकारी है और न ही कोई सगा-संबंधी है। अब स्त्री-पुरुष का अनुपात इतना गड़बड़ा गया है कि चीन ने इस नीति को नकारते हुए एक से अधिक बच्चे पैदा करने की छूट दे दी है। आबादी नियंत्रित करने के लिए कठोरता बरतने के ऐसे ही दुष्परिणाम जापान, स्वीडन, कनाडा और आस्ट्रेलिया में देखने को मिल रहे हैं। इन देशों में जन्म-दर चिंताजनक स्थिति तक घट गई है। जापान में मुकम्मल स्वास्थ्य सेवाओं और पर्याप्त आबादी नियंत्रक उपायों के चलते बूढ़ों की आबादी में लगातार वृद्धि हो रही है। इन वृद्धों में सेवानिवृत्त पेंशनधारियों की संख्या सबसे ज्यादा है; इसलिए ये जापान में आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का बड़ा कारण बन रहे हैं। 

प्रकृतिजन्य जैविक घटना के अनुसार एक संतुलित समाज में बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों और बुजुर्गों की संख्या का एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए। अन्यथा यदि कोई एक आयु समूह की संख्या में गैर आनुपातिक ढंग से वृद्धि दर्ज ही जाती है, तो यह वृद्धि उस संतुलन को नष्ट कर देगी, जो मानव समाज के विकास का प्राकृतिक आधार बनता है। भारत में जिस तेजी से पेंशनधारी बुजुर्गों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, वह आर्थिक व स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से तो संकट पैदा कर ही रही है, देश का भविष्य माने जाने वाले युवाओं के हित का एक बड़ा हिस्सा भी बुजुर्गों पर न्योछावर किया जा रहा है। संतुलित मानव विकास के लिए यह दुराभिसंधि घातक है। लिहाजा आबादी बढ़ाने की जो अपील नायडू और स्टालिन कर रहे हैं, उसका स्वागत करने की जरूरत है। 

सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र, मो. 09425488224, 09981061100


प्रेरकः द्वार पर सत्य

 - निशांत

बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक दिन यह कथा सुनाई: किसी नगर में एक व्यापारी अपने पाँच वर्षीय पुत्र के साथ अकेले रहता था। व्यापारी की पत्नी का देहांत हो चुका था। वह अपने पुत्र से अत्यन्त प्रेम करता था। एक बार जब वह व्यापार के काम से किसी दूसरे नगर को गया हुआ था, तब उसके नगर पर डाकुओं ने धावा बोला। डाकुओं ने पूरे नगर में आग लगा दी और व्यापारी के बेटे को अपने साथ ले गए। व्यापारी ने लौटने पर पूरे नगर को नष्ट पाया। अपने पुत्र की खोज में वह पागल- सा हो गया। एक बालक के जले हुए शव को अपना पुत्र समझकर वह घोर विलाप कर रोता रहा। संयत होने पर उसने बालक का अन्तिम संस्कार किया और उसकी अस्थियों को एक छोटे से सुंदर डिब्बे में भरकर सदा के लिए अपने पास रख लिया।कुछ समय बाद व्यापारी का पुत्र डाकुओं के चंगुल से भाग निकला और उसने अपने घर का रास्ता ढूँढ लिया। अपने पिता के नए भवन में आधी रात को आकर उसने घर का द्वार खटखटाया।

व्यापारी अभी भी शोक-संतप्त था। उसने पूछा – “कौन है?” पुत्र ने उत्तर दिया – “मैं वापस आ गया हूँ पिताजी, दरवाजा खोलिए!”

अपनी विचित्र मनोदशा में तो व्यापारी अपने पुत्र को मृत मानकर उसका अन्तिम संस्कार कर चुका था। उसे लगा कि कोई दूसरा लड़का उसका मजाक उड़ाने और उसे परेशान करने के लिए आया है। वह चिल्लाया – “तुम मेरे पुत्र नहीं हो, वापस चले जाओ!”

भीतर व्यापारी रो रहा था और बाहर उसका पुत्र रो रहा था। व्यापारी ने द्वार नहीं खोला और उसका पुत्र वहाँ से चला गया।

पिता और पुत्र ने एक दूसरे को फ़िर कभी नहीं देखा।

कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा – “कभी-कभी तुम असत्य को इस प्रकार सत्य मान बैठते हो कि जब कभी सत्य तुम्हारे सामने साक्षात् उपस्थित होकर तुम्हारा द्वार खटखटाता है तुम द्वार नहीं खोलते”

शब्द चित्रः हाँ धरती हूँ मैं

  - पुष्पा मेहरा 

मैं वही धरती हूँ जिसके स्वरूप को प्रकृति ने अपनी सन्तति की तरह करोड़ों वर्षों में सँवारा। यही नहीं अपने सतत प्रयास से इसके रूप को निखारा भी । पहाड़ों पर हरियाली, कलकल करती  हुई नदियाँ व झरने,  निर्द्वन्द्व उड़ते - चहचहाते पक्षी,  मधुर - मधुर ध्वनि से गूँजता आकाश, हरे –भरे चरागाह, भय रहित पशुओं का स्वछन्द विचरना, गोधूलि बेला में डूबता सूरज और उसके माथे पर साँझ का टीका– टीके  के साथ गोरज की महक और  ढोरों के गले में बँधी घंटियों का साँझ की नीरवता भंग करना...अहा! ऐसे मनोरम वातावरण में मनुष्य का माया से घिरकर भी प्रकृति से जुड़ना स्वाभाविक ही था।   

   वास्तव में प्रकृति और मनुष्य - मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक ही तो हैं ।

  जैसे ही ऋतुएँ बदलतीं, मेरा भी रूप बदल जाता, बसंत ऋतु के आने पर मेरी गोद फूलों से भर  जाती, नदियाँ–नहरें  बेझिझक अपना  पल्लू  लहराती  हुई  कुलाचें भरतीं, किनारों को छूती कुलकुलाती सैर को निकल पड़तीं । पानी से भरे तालाबों  में कमलों की सुषमा देखते ही बनती। ग्रीष्म ऋतु  में जब सूर्य का प्रचंड ताप मुझे  विह्वल  करने लगता, तो मेरे कातर हृदय की पुकार सुन इन्द्र देवता  जल परियों को भेज देते। फिर क्या था नदी -नाले, जल से लबालब भर जाते। चारों  ओर हरियाली ही हरियाली .... घास  के गलीचों  पर सुस्ताती  धूप, पशु-पक्षियों की  मौज- मस्ती देखते ही बनती। फिर होता शरद और शीत का आगमन।  गिरि - शृंगों पर बर्फ़ का जमावड़ा, उड़ती - अठखेलियाँ करती बादलों की टोलियाँ, मानो वे  बाल हिम  श्रेणियों के साथ पकड़म-पकड़ाई खेल रही हों;  किन्तु जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, आज वही घटता जा रहा है । डायनामाइट का वज्र -प्रहार मेरे उन्नत मस्तक के खंड –खंड करने पर आमादा है। विकास, नवीनता का समावेश, सुरसा के मुख की तरह जनसंख्या का लगातार बढ़ना, इन सबका दुष्परिणाम मुझे ही तो झेलना पड़ रहा है। 

    आज तक प्रकृति ने जिसे सहेजकर रखा था, मनुष्य  सहज ही उसे नष्ट कर रहा है। सभ्यता की  होड़  में बढ़ते हुए क़दमों ने हमारी ओढ़नी को तो  तार -तार किया ही,  साथ ही अब वह मेरा अधाधुंध विनाश करने पर तुला है । ज़रा मेरा रूप तो देखो,  क्या हो गया है ! सूखा और बाढ़ें. प्रलयंकारी  तूफानों का रौरव नृत्य, निरंतर वनों का कटना, सूने पड़े  अभ्यारण्य,  झीलों के नाम पार छोटी-छोटी तलैया .... मैं कहाँ मुँह छुपाऊँ,  मेरा वात्सल्य  बिलख रहा है,  मेरे लाड़ले मुझ से बिलग हो रहे हैं, पक्षियों और हिंसक वन प्राणियों की आश्रयस्थली ख़तम होती  जा रही है। ओह! वेदना  असह्य वेदना !

  कहाँ गया वह भौतिक और प्राकृतिक जगत का गठबंधन – हिमालय की अवन्तिका में औषध-युक्त कन्द-मूल, चंदन वन की मादक सुगंध,  जिसे विकराल विषधर का विष भी  कभी नहीं व्यापा –क्या आज मानव  उन विषधरों से भी अधिक विकराल रूप धारण करके आ रहा है ? चिमनियों  से निकलने वाला धुआँ आकाश की स्वच्छता को अपने आवर्त में लपेटता जा रहा है। विषाक्त यौगिकों का वायुमंडल पर प्रभाव बढ़ने लगा है  मैं  धरती  ग्रीनहाउस  इफेक्ट से आक्रान्त हूँ। क्या यही मानव की सृजनात्मक शक्ति का विस्तारबोध है ? नहीं-नहीं  मैं अपने प्रति यह निष्ठुरता कदापि सहन नहीं करूँगी। मैं  विलाप करूँगी मेरी आहों की गर्मी से अग्नि की ज्वालाएँ निकलेंगीं। जल अतल गर्त में चला जाएगा, सर्वत्र त्राहि –त्राहि –त्राहि। मैं क्या रहूँगी और हे मानव तुम्हारा क्या होगा ईश जाने ।

      एक बार फिर से बता रही हूँ मैं धरती-मैं नारी समस्त वैभव की मूक स्वामिनी  सृष्टि  की पालक–पोषक, आनन्द दाता हूँ, दान देती तो हूँ ; किन्तु अपना अतिशय दोहन बर्दाश्त नहीं कर सकती .. नहीं कर सकती.. कदापि नहीं कर सकती। मेरा अंतर्मन रो रहा है  ।   

1

दूभर साँसें 

आक्रान्ता प्रकृति मैं 

वैभव हारी ।   

2

डँस गया है 

विषधर- विकास 

मृत्यु ही शेष ।  


हाइकुः हवा बातूनी

  -  डॉ. कुँवर दिनेश सिंह








1

अकेला पेड़

घर की दीवार से

सटा है पेड़

2

नन्हा- सा सोता

बीहड़ जंगल में

एकल रोता

3

तारों का मेला

रात है जगमग

चाँद अकेला

4

नार अकेली

छेड़ती बार- बार

हवा सहेली

5

डगर सूनी

जी बहलाने आई

हवा बातूनी

6.

अँधेरा हटे -

क्षितिज की भट्टी में

सूरज पके!

7.

पौ फटते ही

पूर्वी क्षितिज पर -

लपटें उठीं!

8.

आग भोर की

देवदारों से छने -

स्फुलिंग कई!

9.

सूरज उगे

नभ- कैनवास पे

दिन उकेरे!

10.

लाल विहाग!

सूर्य की जिजीविषा -

आग ही आग!


स्मरणः रोहिणी गोडबोले - लीलावती की एक बेटी

  - अरविन्द गुप्ता 

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ; क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान का अध्ययन किया और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं। 

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएँ पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ  (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली और आईआईटी कानपुर जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं। 

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता, जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया, जब वे आईआईटी मुंबई से एमएससी कर रही थीं। वहाँ के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे  एम .एससी.  के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।

अपनी पीएच. डी. पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालाँकि उन्हें युरोप में पोस्ट-डॉक्टरल शोध के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती, तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती। 

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएच. डी. के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है। 

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहाँ टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहाँ रहते हैं वगैरह, वगैरह। 

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली, तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव' नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती।

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान और अनुसंधान में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती'स डॉटर्स (Leelavati's Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियाँ  लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़, बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए।

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात् निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती'स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाः 1.नागरिक, 2. हैड एंड टेल, 3.अंन्ततः

  - सुकेश साहनी

1. नागरिक

‘‘क्या हुआ,बेटी?’’ बूढ़ी आँखों में हैरानी थी।

‘‘कैसी अजीब आवाजें निकाल रहे हैं,’’ बहू ने तिनमिनाकर कहा, ‘‘गुड़िया डरकर रोने लगी है, कितनी मुश्किल से सुलाया था उसको!’’

‘‘अच्छा!’’ उन्हें हैरानी हुई, ‘‘नींद में पता ही नहीं चला, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ!’’ पैर में बँधे ट्रेक्शन की वजह से वह खुद को बहुत असहाय पा रहे थे। उन्हें गाँव की खुली हवा में साँस लेने की आदत थी। महानगरों के डिब्बेनुमा मकानों में उनका दम घुटता था। पिछले दिनों गाँव में हैडपम्प पर नहाते हुए उनका पैर फिसल गया था और कुल्हे की हड्डी टूट गई थी। खबर मिलने पर बेटा उन्हें इलाज के लिए शहर ले आया था। डाक्टरों की राय थी कि आपरेशन कर दिया जाए, ताकि वे जल्दी ही चलने फिरने लगे। दूसरे विकल्प के रूप में ट्रेक्शन था, जिसमें छह महीने तक एक ही पोजीशन में लेटे रहने के बावजूद इस उम्र में हड्डी जुड़ने की संभावना काफी कम थी, बेड सोल और पेट संबंधी विकारों का खतरा अलग से था। सभी बातों पर गौर करने के बाद बेटे ने आपरेशन कराने का फैसला किया, तो बहू ने रौद्र रूप धारण कर लिया था, ‘‘अपनी सारी बचत इनके इलाज पर लगा दोगे, तो गुड़िया की शादी पर किससे भीख माँगोगे? पड़े–पड़े जुड़ जाएगी इनकी हड्डी, फिर जल्दी ठीक होकर इन्हें कौन- सा खेतों में हल चलाना है।’’

अंतत: उनके पैर में ट्रेक्शन बाँध दिया गया था।

सोचते–सोचते फिर उनकी आँख लग गई और वे जोर–जोर से खर्राटे लेने लगे। ‘‘हे भगवान!’’ बिस्तर पर करवटें बदलते हुए बहू भुनभुनाई।

‘‘उधर ध्यान मत दो, सोने की कोशिश करो।’’ पति ने सलाह दी।

‘‘दिन भर काम में खटते रहो,’’ वह बड़बड़ाई, ‘‘जब दो घड़ी आराम का समय होता है, तो ये शुरू हो जाते हैं। कुछ करो, नहीं तो मैं पागल हो जाऊँगी।’’

झल्लाकर वह उठा, दनदनाता हुआ वह पिता के पास पहुँचा और उन्हें झकझोर कर उठा दिया।

बेटे की इस अप्रत्याशित हरकत से वे भौंचक्के रह गए। ट्रेक्शन लगे पैर में कूल्हे के पास असहनीय पीड़ा हुई और उनके मुख से चीख निकल गई।

‘‘खर्राटे लेना बंद कीजिए,’’ पीड़ा से विकृत उनके चेहरे की परवाह किए बिना वह चिल्लाया, ‘‘आपकी वजह से घर में सबकी नींद हराम हो गई है।’’

बेटे से ऐसे व्यवहार की वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। थोड़ी देर तक उनकी समझ में कुछ नहीं आया, पर सच्चाई का आभास होते ही उनकी आँखें ही नहीं पूरा शरीर डब- डब करने लगा। आँखों की कोरों से कुछ आँसू निकले और दाढ़ी में गुम हो गए।

उस रात फिर उनके खर्राटे किसी को सुनाई नहीं दिए। सुबह उनका शरीर बिस्तर पर निश्चल पड़ा था। फटी–फटी चुनौती–सी देती आँखें छत पर टिकी हुई थीं।

पिता के दाह–संस्कार के बाद मृत्यु पंजीयन रजिस्टर में शहरी बेटे ने मृत्यु का कारण लिखाया–ओल्ड ऐज।

2. हैड एंड टेल 

हम ख़ुशी से उछल पड़े, टॉस हमारे पक्ष में गया था। अब उन दो रास्तों में से किसी एक को हम चुन सकते थे।

पहला रास्ता बहुत ही बीहड़ था, उस पर चलते हुए हमें आग उगलते सूरज का सामना करना पड़ता जबकि दूसरा रास्ता समतल, साफ-सुथरा था, उसके दोनों ओर घने पेड़ों की छाया थी। उस पर चलते हुए सूर्य की ओर हमारी पीठ रहनी थी।

हमने दूसरा रास्ता चुना।

हम बेफिक्र थे। टॉस ने हमारा काम आसान कर दिया था। हमने पलक झपकते ही निर्धारित दूरी तय कर ली थी। लेकिन लक्ष्य पर पहुँचते ही हमें शॉक-सा लगा, हमारी ख़ुशी काफूर हो गई।

प्रतिद्वंद्वी टीम उस दुर्गम रास्ते से चलकर हमसे पहले ही वहाँ पहुँच कर जश्न मना रही थी। वे पसीने से तर बतर थे। श्रम की आँच से उनके चेहरे दमक रहे थे।

हमारे चेहरे बुझ गए थे। हमारे पास अपनी लम्बी होती परछाइयों के सिवा कुछ भी नहीं था।

3. अन्तत: 

"आज दफ्तर नहीं जाना हैं क्या?"

"तुम्हें दफ्तर की पड़ी है..." श्यामलाल झुँझलाकर पत्नी से बोले, "दो महीने बाद जब मैं रिटायर कर दिया जाऊँगा, तब तुम्हें आटे-दाल का भाव मालूम पड़ेगा। आज मैं ऑफिस न जाकर सेवा-मुक्ति के विरुद्ध अपने प्रत्यावेदन को अंतिम रूप दूँगा..."

"क्यों नाहक अपना खून जलाते हो, ..." पत्नी ने कहा, "अकेले तुम्हीं तो रिटायर होने नहीं जा रहे।"

"जब तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है तो क्यों हर मामले में अपनी टाँग अड़ाती हो?" श्यामलाल ने कुढ़कर जलती हुई आँखों से पत्नी को घूरा, "सारे कायदे-कानून हमारे लिए ही तो बने हैं। अवतार सिंह को ही ले लो, उसने शासन में अपनी ऐसी गोट फिट कर रखी है कि साठ साल की सेवा के बाद एक-एक साल के दो एक्सटेंशन ले चुका है। इन राजनीतिज्ञों को देख लो...इनके सेवा काल में उम्र कहीं आड़े नहीं आती। तुम्हें मेरी क्षमता का अभी कोई अंदाजा नहीं है, मैं आज भी तीन-चार आदमियों का काम अकेले कर सकता हूँ। आजकल के एम.ए. पास छोकरे मेरे आगे पानी भरते हैं- श्यामलाल जी यह बता दीजिए, यह एप्लीकेशन जाँच दीजिए... इस पत्र का जवाब बनवा दीजिए.। और मुझे ही रिटायर किया जा रहा है। मैं कल हर हालत में निदेशक को अपना प्रत्यावेदन भेज दूँगा।" थोड़ा रुककर बोले, "अच्छा-खासा लिखने का मूड था, तुमने चौपट करके रख दिया। थैला लाओ, ...पहले बाज़ार से सामान ले आता हूँ।"

इस बार पत्नी कुछ नहीं बोली। उसने चुपचाप थैला उन्हें थमा दिया। रोज़गार कार्यालय के सामने से लौटते हुए श्यामलाल ठिठक गए। उन्होंने हैरानी से देखा...परेशान-से इधर-उधर घूमते पच्चीस-तीस वर्षीय बूढ़े युवक-युवतियाँ ...चश्मों के मोटे-मोटे शीशों के पीछे सोचती हुई उदास आँखें...न जाने कितनी चलती-फिरती लाशें। उन बेरोज़गार युवक-युवतियों की भीड़ को एकटक देखते हुए श्यामलाल गहरी सोच में डूब गए।

सीटी की आवाज़ से श्यामलाल की पत्नी चौंक पड़ी। इस तरह की सीटी जवानी के दिनों में श्यामलाल बजाया करते थे। उसे लगा तीस साल पहले वाले जवान श्यामलाल ने घर में प्रवेश किया है। उन्होंने सामान का थैला पत्नी को दिया और मुस्कराकर बोले, "एक प्याला गर्म-गर्म चाय तो पिलाओ।" कहकर वह आरामकुर्सी पर पसर गए। अगले ही क्षण वह अपने विदाई समारोह की कल्पनाओं में खो गए थे।

लघुकथाः खाली-खाली भरा-सा

  - प्रगति गुप्ता

कृष्णा पति के अंत्येष्टि-कर्म पूर्ण होते ही बेटों को विदेश जाते देखती रही। दोनों बेटे माँ को जल्द ही अपने पास ले जाने की सांत्वना देकर चले गए। वे सालोसाल से विदेश में थे। उनका लगाव हमेशा माँ-बाप के साथ खानापूर्ति-सा ही था। 

भाइयों के जाने के बाद बेटी चंदा ने कहा-"माँ! अब आपको अकेले नहीं रहने दूंगी। मेरे पास चलकर रहिए।"

चंदा की बात सुनकर कृष्णा बोली-"बेटा! मेरा आखिरी समय इसी घर में आए , तो अच्छा है।... तेरे घर पर मुझे कुछ हुआ , तो तेरे अपने ही कहेंगे, माँ से कुछ चाहिए होगा, तभी अपने साथ ले गई। तुम इसी शहर में रहती हो, मेरे पास आती-जाती रहना।"

संयुक्त परिवार की राजनीति झेलने वाली कृष्णा बहुत व्यवहारिक हो गई थी। पति का ‘ब्लड इस थिक्कर देन वाटर’ की दुहाई देकर अपने घरवालों को हमेशा सही ठहराना, वह कभी नहीं भूल पाई। उसने अपनी पीड़ाओं को डायरी में सहेजकर, बस कर्तव्यों को संभाला था। 

मुश्किल से पाँच-छह महीने गुजर होंगे, कृष्णा को खाँसी के साथ साँस लेने की तकलीफ़  बढ़ती गई। चंदा ने ही अस्पतालों के चक्कर लगा-लगाकर उसकी सभी जाँचें करवाईं। फेफड़ों के कैंसर की आखिरी स्टेज निकली। इलाज शुरू होने के बावजूद, उसके हालत बिगड़ते गए। उसने स्वयं को मृत्यु के लिए तैयार कर लिया था। बेटे भी सपरिवार पहुँच गए। एक दिन सभी को बुलाकर, उसने जेवर का डिब्बा सबके हिस्से का सामान देने के लिए खुलवाया।  

“माँ! अभी नहीं... अभी तो जीवित हो न। आपने सबकुछ लिखा हुआ भी है।”

ज्योंही चंदा अपनी बात बोलकर कमरे से सुबकते हुए निकली, उसे बड़ी भाभी की आवाज सुनाई दी- "बैठी रहो चंदा। माँ सबको साथ बैठाकर जो कर रही हैं, सही है। नहीं तो बाद में लगेगा कि इसको कम दिया, उसको ज्यादा!" 

बड़ी बहू की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि छोटी बहू बोली-"बहनजी! तो माँझी के पास आती-जाती रहीं हैं, उन्हें तो माँझी ने पहले ही बहुत कुछ..”

एकाएक कृष्णा ने छोटे बेटे को घूरा। उसके आँख दिखाने से छोटी बहू चुप हो गई थी। कृष्णा ने सबका सामान सौंपने के बाद चंदा को वापस कमरे में बुलवाया, वह अपने आँसू पोंछते हुए बोली-"माँ! मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस नानी वाली अंगूठी जिसे आपने ताउम्र पहने रखा, दे दो। यह मेरे लिए भी रक्षा-कवच का काम करेगी।"

चंदा की बात सुनकर कृष्णा डूबती आवाज़ में बोली-"बस यही चाहिए तुझे!"

"मुझे आपकी अधफटी डायरी भी चाहिए। मैं नहीं चाहती वह किसी के हाथ लगे। अब आप उसके पन्ने नहीं फाड़ पाओगी। मैं आपकी पीड़ाओं को महसूस करना चाहती हूँ माँ... ताकि... प्लीज माँ!"

चंदा तो उसके प्रस्थान से पहले, उसकी सभी पीड़ाएँ समेट लेना चाहती थी। वह उसका ही प्रतिरूप हो गई थी। जैसे ही चंदा ने कृष्णा की बंद आँखों से ढलकते हुए आँसुओं को पोंछा, उसने गहरी साँस साथ शरीर छोड़ दिया। 

चंदा ने एकाएक माँ के शरीर में पसरते ठंडेपन को, अपने स्पर्श से थाम लिया।। 

सम्पर्कः 58,सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर -342011, pragatigupta.raj@gmail.com


कविताः नदी नीलकंठ नहीं होती

  -   निर्देश निधि


कभी वह थी चंचला नदी,

और मैं बेलगाम अरमानों वाली अल्हड़,

मैं उसके पावन जल का आचमन करती

सब तृष्णाओं, कुंठाओं को सिराती उसकी उद्दाम उर्मियों में

खड़ी थी उसके दाहिने किनारे पर

बनकर सतर चट्टान

मैं खुश थी, नदी के किनारे की चट्टान होकर

एक दिन तुम आए और

मेरी देह का परिरम्भ कर, लाँघ गए सब सीमाएँ

तुम्हारा वह गंदला स्पर्श,

भाया नहीं था मुझे

मैं झर गई थी पल में, कण-कण रेत सी

जा पसरी थी नदी की सूनी छाती पर

तब जानी थी मैं कि नदी,

नहीं थी सिर्फ़ बहता पानी

वह तो थी इतिहास लिपिबद्ध करती निपुण इतिहासकार,

संस्कृतियाँ रचकर, परम्पराएँ सहेजती ज़िम्मेदार पुरखिन,

अपनी मर्ज़ी से रास्ते बदलती सशक्त आधुनिका भी थी वह

और थी धरती का भूगोल साधती साधक

वह तो थी सदेह रचयिता ममतामयी माँ,

तभी तो जानी थी मैंने पीड़ा नदी की

उसकी देह से कोख, अँतड़ियों और दिल के साथ

निकाल ली थी तुमने मास–मज्जा तक उसकी

कई बार महसूस की थीं मैंने उसकी सिसकियाँ अट्टालिकाओं में

देखी थी कई बार मैंने

सड़कों की भीतरी सतह में आँसू बहाती, वह नदी

वह बिखर जाना चाहती थी होकर कण–कण

ठीक मेरी तरह

बचकर तुम्हारे गँदले स्पर्शों से

पर जाती किधर, समाती कहाँ?

उसके पास नहीं थी कोई नदी, ख़ुद उसके जैसी

मैं उसकी सूनी छाती पर निढाल पड़ी

चुपचाप देखती उसके मुँह पर मैला कपड़ा रख

उसकी नाक का दबाया जाना

देखती उसका तड़पना एक-एक साँस के लिए

मेरे कण–कण रेत हो जाने से

कहीं दुखकर थी उसकी वह तड़पन

नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से

पर इस सदी, शेष थीं बस चंद साँसें उसमें

दुर्गंध भरी, हाँफती, अंतिम, चंद साँसें

मैंने कितनी मिन्नतें की थीं तुमसे

भर दो कुछ साँस उसके सीने में

अपने अधर रखकर उसके अधरों पर

लौटा दो उसकी सकल सम्पदा

जो बलात् छीन ली थी तुमने

जो चाहो मेरे कणों तक का शेष रह जाना

तो खींच लो सिंगियाँ लगाकर

उसकी देह में फैला, सारा का सारा विष

सुनो,

नदी जी नहीं सकती विष पीकर;

क्योंकि

नदी नीलकंठ नहीं होती

नदी शिव नहीं होती।


संस्मरणः मेरी, वे दो शिक्षिकाएँ

  - अंजू खरबन्दा

1-बत्रा आंटी

सरकारी विद्यालयों में पहली से पाँचवीं तक एक ही अध्यापिका रहती थी। हर कक्षा उत्तीर्ण होने के साथ- साथ वह अध्यापिका भी हमारे साथ अगली कक्षा में आ जाती । मेरी प्रथम अध्यापिका रही बत्रा आंटी ।

हाँ हम उन्हें आंटी ही पुकारा करते। बुआजी बताती हैं कि पहले उन्हें बहनजी कहा जाता था, वक्त बदला, तो वे आंटी कहलाने लगी और काफी बाद में जाकर वह मैडम कहलाईं।

उस समय हम लोग टाट- पट्टी पर बैठा करते थे। एक कक्षा में कुछ- कुछ  दूरी पर चार- टाट पट्टियाँ बिछी थीं। रोल नंबर के अनुसार हमारी बारी होती कक्षा की सफाई की । रोज दो लड़कियाँ इस कार्य को दक्षता से करतीं व बत्रा आंटी की शाबाशी पातीं । उनकी शाबाशी पाना मानो मैडल जीतना! पूरा दिन खुशी व गर्व से बीतता कि आज हमारे हिस्से उनकी शाबाशी आई ।

बत्रा आंटी सुबह जब कक्षा में प्रवेश करतीं, तो सब बच्चे खड़े होकर अभिवादन स्वरूप जोर से चिल्लाते-"कक्षा स्टैंड"

वह प्यारी सी मुस्कान बिखेरती हुई कहती

"बैठ जाओ!’’

फिर शुरू होता क्रम अपनी- अपनी तख्ती दिखाने का ।

मोतियों जैसी लिखावट होने के कारण मुझे हमेशा शाबाशी ही मिलती। लिखावट में मुझे पुरस्कार भी मिला था। उस समय पुरस्कार स्वरूप टूथब्रश और पेन मिला करते थे। 

हमारे समय चार विषय ही हुआ करते- गणित, विज्ञान, हिंदी और सामाजिक विज्ञान।

पहाड़े याद करने के लिए हम सभी बच्चे जितना दम लगाकर बोल सकते, उतनी जोर- जोर से चिल्लाते हुए पहाड़े बोलते-

दो एकम दो

दो दूनी चार 

दो तिया छह....

फिर हिंदी के दोहे याद कर खूब जोर- जोर से बोले जाते, ताकि अच्छे से कण्ठस्थ हो जाएँ। लगभग सभी कक्षाओं से ऐसी ही आवाजें आया करतीं ।

खुले- खुले हवादार कमरे और खिड़की के बाहर लगे हरे- भरे वृक्ष। बड़ा ही रमणीक दृश्य होता था, सरकारी स्कूल का उस वक्त।

बत्रा आंटी के साथ मेरा गहरा लगाव रहा । उनका सरल व्यवहार व प्रेमपूर्वक सभी बच्चों पर ध्यान देना इसका कारण हो सकता है। मुझे स्वतंत्रता शब्द बोलने में बड़ी मुश्किल आई तब बत्रा आंटी ने मेरे हाथ में चॉक देते हुए कहा- ‘‘बार- बार बोर्ड पर लिखो और ध्यान से पढ़ते हुए ये शब्द दोहराओ।" 

जाने कौन- सा जादू हुआ कि कुछ ही देर में मैं स्वतंत्रता शब्द बिना अटके बोलने लगी ।

मैं पाँचवीं में थी, जब मेरी मम्मी का देहांत हुआ। स्कूल आकर मैं चुपचाप खिड़की के पास खड़ी रहती, तब बत्रा आंटी मेरे पास आती, स्नेह से अपना हाथ मेरे सिर पर रखती, मेरा नन्हा- सा हाथ अपने मजबूत हाथों में थाम मुझे प्यार से समझाती । 

आज भी उनका चेहरा आँखों के सामने है । वह जहाँ भी हो खुश रहें स्वस्थ रहे, प्रभु से यही कामना है ।

2- सुमन शर्मा मैम

लम्बी, गोरी, खूबसूरत, हल्के  घुँघराले बालों का ढीला- सा जूड़ा और तिस पर गुलाब का फूल लगाए,  दुनिया का सबसे दिलकश चेहरा! ऐसी थी हमारी सुमन शर्मा मैम ।

उनका साड़ी बाँधने का तरीका ऐसा कि उन पर से नजर ही न हटती। जो उन्हें देखता, बरबस देखता ही रह जाता। उनका सम्मोहन ही था कि क्लास की शैतान से शैतान लड़कियाँ भी उनकी क्लास में चुपचाप बैठकर पढ़तीं।

जब वह बोलती, तो मानो फूल झरते, जब वह मुस्कुराती, तो मानो फिजा खिल उठती और जब वह किसी बात पर हँस पड़ती, तो मानो हवाएँ गीत गाने लगतीं ।

वह हमें हिंदी पढ़ाया करती । उनके पढ़ाने का अंदाज ऐसा कि हम एकटक उन्हें ही निहारा करते । किताब हाथ में थामे, जब वह अपना हाथ हिलाते हुए पाठ समझाती, तो हम सभी सम्मोहित हो उन्हें सुनते।

जब वह पहाड़ों के बारे में विस्तृत वर्णन करती, पहाड़ साक्षात् आँखों के आगे आ खड़े होते। जब वह नदियों के बारे में पढ़ाती, नदियाँ आस पास लहराने लगतीं! जब कोई कहानी सुनाती, उसके पात्र हमसे बातें करने लगते। जब कोई कविता कहती, ऐसा समाँ बँध जाता कि कोई सुध- बुध ही न रहती। 

बाकी विषयों की क्लास में हम घंटी बजने की प्रतीक्षा करते; परंतु सुमन मैम की क्लास में कब घंटी बज जाती, होश ही न होता।

उन्हें निहारते, उनसे पढ़ते न जाने कब उन जैसा बनने का सपना मन में पलता चला गया और आज.... उनसे प्राप्त किया हुआ ज्ञान व उनकी तरह ही पढ़ाने का तरीका मेरे कितने काम आ रहा है, यह सोचकर खुद पर हैरान होती हूँ। उन्हीं की तरह, गहराई तक जाना और तब तक समझाना, जब तक कि खुद को व बच्चे को तसल्ली न हो जाए । 

जब बच्चे मुझसे कहते हैं, आप जब पढ़ाते हो, तो आँखों के आगे पूरा सीन क्रिएट हो जाता है, तब सुमन मैम और भी याद आती हैं।

कविताः बंद किताब

  - नन्दा पाण्डेय







एक बंद पड़ी

किताब थी वो!

 

जिसने न धूप देखी

न वसंत देखा

न पूस की रात देखी

न पतझड़ के दिन देखे

 

जिसने

न झरने देखे

न पहाड़ देखा

 

क्योंकि...

किसी ने उसे

पढ़ा ही नहीं

 

इस किताब के

पन्ने को पलटकर

तुमने उसकी ज़िंदगी पलट दी!


व्यंग्यः मुझे भी वायरल होना है

 - डॉ. मुकेश असीमित

मैं परेशान, थका-हारा देवाधिदेव, पतिदेव, अभी बिस्तर पर उल्टे मुँह पड़ा ही था कि न जाने कहाँ से नींद ने मुझे आगोश में ले लिया और मुझे सपना भी आया। जी हाँ, वैसे तो नींद के खर्राटों की आवाज़ से डरकर सपने पास आते ही नहीं, जब घरवाले पास नहीं आते तो सपनों की क्या मजाल। खैर, सपना भी अच्छा था, हकीकत से कोई ताल्लुक नहीं रखता था। मैं सेलिब्रिटी बन गया था, जी हाँ, एक बहुत बड़ी सेलिब्रिटी। रातों-रात स्टार बनने वाली सेलिब्रिटी, अख़बार के मुख पृष्ठ पर छपने वाली सेलिब्रिटी, चमचमाती गाड़ी के खुले दरवाजे से सटकर पोज़ देने वाली सेलिब्रिटी, मैगज़ीन के पेज थ्री में छपने वाली सेलिब्रिटी, पपराज़ी की शिकार सेलिब्रिटी। जी हाँ, मेरा एक शॉर्ट वीडियो, जिसे रील कहते हैं, वायरल हो गया। यह रील भी कोई मेरी तुच्छ बुद्धि से निकले हुए ज्ञान चक्षुओं को खोलने वाला प्रेरक वीडियो नहीं था, न ही मेरे चिकित्सा ज्ञान से लाभान्वित करने वाला था। वह तो मेरी कहीं दबकर रह गई नृत्य कला प्रतिभा का भोंडा प्रदर्शन था। यह मेरी ससुरालवालों की शादी में, साली की मनुहार भरे अनुनय-विनय के कारण, अपने आपको रोक नहीं पाने का नतीजा था, जिसे श्रीमती जी ने सोशल मीडिया पर डाल दिया। और जिसे दर्शकों ने जमकर देखा। वीडियो पर 1 मिलियन का करिश्माई लाइक आ चुका था। मेरे पास 1 करोड़ का चेक भी आ गया था, जो मैंने हाथ में ले रखा था। 

मेरे घरवाले मेरे आगे-पीछे नाच रहे थे। पहली बार सभी घरवालों को मेरे आगे-पीछे नाचते देख रहा था। शायद पहली बार उन्हें लगा कि मैं, एक नाकारा निकम्मा सा आलसी जीव, भी परिवार को कुछ खुशियाँ दे सकता हूँ। चलो, उन्हें कुछ तो मुझमें खूबी नज़र आई जो उन्हें खुशियाँ दे सकती थी। बेटे के हाथ में कोई ऑटो मैगज़ीन थी, जिसमें कम से कम 10 मॉडलों की श्रंखला में बड़ी गाड़ियों का चयन कर रखा था। श्रीमती जी की बरसों की नौलखा हार की चाहत पूरी होने की चमक उसकी आँखों में थी। 

नौलखा हार की चाहत तो शादी के पहले साल से ही थी, लेकिन महंगाई की मार और मेरे बार-बार के इनकार ने इस नौलखा हार को सिर्फ नाम का नौलखा और हकीकत में 50 लाख का कर दिया था। अब तो श्रीमती जी ने भी कहना बंद कर दिया था। मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि मेरे दो-चार कमर मटकाने वाले स्टेप लोगों को इतने पसंद आ जाएँगे। सच पूछो, तो मारे खुशी के अब खुलकर मेरी प्रतिभा खुली सांस लेने लगी, मतलब कि नाचने लगा। मुझे नाचते देख बीबी बोली, "रुको, रील बनाने दो।" यानी कि अब मेरे नृत्य का इस प्रकार का मोनेटाइजेशन देखकर सभी बड़े खुश थे।

यूँ तो जब से होश सँभाला, तब से एक ही हसरत थी- फेमस होना, सेलिब्रिटी बनना। इसके लिए जो जतन मेरी तंगहाली और मुफलिसी में मैं कर सकता था, वे किए। यानी कि सपने तो देख ही सकता था, तो खूब सपने देखे। कभी फिल्मों का हीरो बना, फिल्मों में डायलॉग डिलीवरी देखते ही बनती थी। ये बात और है कि मेरी इस कलाकारी को देखने वाला मैं ही था। कार रेसिंग, सिंगिंग, इंस्ट्रुमेंट प्लेइंग, यानी कि हर अव्वल दर्जे के काम जो पेज थ्री की सेलिब्रिटी भरी दुनिया में होते हैं, वे किए। पेज थ्री की दुनिया में क्या होता है, वह तो वैसे भी हकीकत हो जानी थी। तो कभी रॉक स्टार बना, कभी हीरो तो कभी क्रिकेट का धोनी। यूँ तो कभी भी बैट के हाथ नहीं लगाया, या यूँ कहिए किसी ने बैट को हाथ लगाने ही नहीं दिया। बचपन में क्रिकेट में मुझे बस एक ही काम मिलता था- गेंद जो पाले से बाहर चली जाती, उन्हें दौड़-दौड़कर लाना और बॉलर को पकड़ाना। लेकिन हकीकत में जो क्रिकेट के सहायक प्लेयर के रूप में पानी पहुँचाने का काम करते थे, वही करते रहे। लेकिन सपनों में हमेशा धोनी जैसे ही बनते थे। अब जैसे-जैसे समय ने करवट ली, सपने भी बदलने लगे।

कॉलेज के समय में हमें सपने आने लगे कि कॉलेज की सारी लड़कियाँ हम पर मर रही हैं। और इतनी मर रही हैं कि देवानंद स्टाइल में हम गर्ल्स हॉस्टल के बाहर चहल-कदमी कर रहे हैं। गोलगप्पे की ठेली पर चाय पीने के लिए तो हॉस्टल की छत से लड़कियाँ कूद रही हैं हम पर मरने के लिए। सपनों में कई बार हम गिरफ्तार भी हुए, इतनी सारी लड़कियों को ‘मारने’ के इल्जाम में। लेकिन हकीकत में जो बने वह तो हमने सपने में देखना तो दूर, सोचा ही नहीं था- डॉक्टर, वो भी हड्डियों का। मुझे याद है करौली के हॉस्पिटल में, एक बार हम दादाजी जो कि वहाँ भर्ती थे, पापा के साथ उँगली पकड़ते हुए पहुँचे थे। वहाँ पास ही कटे हुए प्लास्टर का एक ढेर पड़ा था, उसमें उन प्लास्टरों के हाथ-पैर देखकर हमारे हाथ-पैर फूल गए। हम डर के भागे कि अब कभी हॉस्पिटल के दर्शन नहीं करेंगे। लेकिन नियति को जो मंजूर होता है, वही होता है।

खैर, शादी हो गई। उसके बाद तो हकीकत की सच्चाई तले सारे सपने ऐसे दबे कि अब तो सपने भी घुट-घुट कर आते हैं। सपनों की जगह अब खर्राटों ने ले ली है ; लेकिन कभी-कभी सपने भी फड़फड़ाकर बगावत स्वरूप आ ही जाते हैं। खैर,आज का सपना खास है। मेरे लिए एक्स्ट्रा कमाई का एक जरिया लेकर आया है। डॉक्टरी चले तो ठीक, नहीं तो रील बनाने लगूँ। आजकल की हर उम्र की पीढ़ी, गरीब-अमीर, गाँव-देहात, शहर सभी इसे अपना मुख्य धंधा बना चुके हैं। धंधा कभी गंदा नहीं होता, इसलिए रील बनाई जा रही है। इसके लिए लोगों ने अश्लीलता और भोंडेपन की चरम सीमा को भी लाँघ दिया है। सेक्स और कामुकता, जो कभी हिंदी फिल्मों की बी-ग्रेड फिल्मों तक सीमित थी और पर्दे तक सीमित थी, अब पर्दे से बाहर आ गई है। लोगों के अँगूठे के इशारे पर आ गई है। हर जगह एक ही दुहाई- बस वीडियो वायरल हो जाए। वीडियो वायरल करने के नुस्खे परोसने के नाम पर रील बनाकर लोग रीलों को वायरल करना चाहते हैं। मजेदार बात यह है कि वीडियो कैसे वायरल की जाए इसके नुस्खे बताने वाले रील ज्यादा वायरल हो रहे हैं। नुस्खे अपनाने वाली आत्माएँ अभी भी अपने वीडियो के वायरल होने की गुहार लगा रही हैं।

पत्नियों ने पतियों को रील बनाने में लगा रखा है। वह बेचारा अपना ऑफिस, काम-धंधा छोड़कर बस बीवी की रील बनाए जा रहा है। कहा बीवी पतिदेव की रील बनाती थी, उसे छटी का दूध याद दिलाती थी, अब उल्टा हो गया है। सास-बहू में अब नोक-झोंक नहीं, कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं, सभी मिलकर रील बना रहे हैं। मुझे तो लगता है सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। रील बनाने वालों को प्रोत्साहित करे, बेरोजगारी की समस्या हल हो जाएगी। पति-पत्नी, सास-बहू की नोक-झोंक खत्म, लोकतंत्र में 'अच्छे दिन आ गए हैं' का फील-गुड वाला अहसास। बस देश की जनता को रील बनाने में लगा दो। सरकार विशेष सब्सिडी इन्हें दे। इनके लिए स्पेशल डेटा पैकेज उपलब्ध कराए। जगह-जगह सड़कों पर रील स्टूडियो खुलवाए। कहाँ फ्री का डेटा! यही नहीं, हर नागरिक को दिन के चार घंटे रील देखने में स्पेंड करना आवश्यक किया जाए। रील देखेंगे नहीं तो वायरल कैसे होगी? वायरल नहीं होगी तो रील का बुखार कैसे चढ़ेगा? सच ही तो है, रील का जब तक वायरल देश की जड़ों में नहीं घुसेगा, यह बुखार नहीं चढ़ेगा। एक बार बुखार चढ़ जाएगा तो देह की सभी समस्याएँ चुटकियों में हल हो जाएँगी। 

अब देखो न, बेचारे रील बनाने वाले क्या-क्या जतन नहीं करते। कोई अपनी माँ-बाप की अर्थी को कंधा देते वक्त रील बना रहा है, कोई पड़ोसी के घर हुई मारपीट, लूट, हत्या की रील। कोई अपनी डूबती हुई अर्थी की रील बना रहा है, तो कोई ट्रेन से कूदकर आत्महत्या करने जा रहे अपने साथी की रील। कितना असंवेदनशील होना पड़ता है, अपने दिल को पत्थर जैसा बनाना पड़ता है तब कहीं जाकर कोई ऐसी रील बनती है जो वायरल हो सके। मुझे तो इन रील बनाने वालों को झुककर सलाम करना चाह रहा हूँ।

इधर जैसे ही मेरी श्रीमती जी ने रील बनानी शुरू की, मेरी कमर कुछ ज्यादा ही जोश में मटकने लगी। तभी पास में सो रही श्रीमती जी ने झिंझोड़कर मुझे उठाया, "क्या कर रहे हो? क्यों कमर हिलाए जा रहे हो?" मैं हड़बड़ाकर उठा, अपनी चादर वापस खींची और पैरों को उसमें समेटकर सो गया ; क्योंकि हकीकत ने वापस अपना आधिपत्य जमा लिया था। और मुझे "जितनी चादर हो उतने पैर पसारिए" की हिदायत देकर वापस अपनी चिर-परिचित नथुने फुलाकर खर्राटे वाली नींद लेने को प्रोत्साहित किया।

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लघुकथाः जूते और कालीन

  - चैतन्य त्रिवेदी

“जब भी वे कालीन देखते हैं तो कोफ्त से भर जाते हैं । कालीन बुने जाने के उन कसैले दिनों की याद में । कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं । ’’

“ क्यों भला , हमने उनका क्या बिगाड़ा ?’’

“यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमबोसी के लिए बिछाया है, उसके रेशे – रेशे में पल – पल के कई अफसोस भी बुनें हुए हैं , जिसे आप नहीं जानते । ’’

“हमने दाम चुका दिए । उसके बाद हम चाहे जो करें कालीन का । ’’ उन्होनें कहा । 

“ नहीं श्रीमान, दाम चीजों के हो सकते हैं, लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती है । उसके लिए हुनर लगता है । धैर्य लगता है, परिश्रम लगता है दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती हैं ’’ 

“ आप क्या चाहते है ?’’

“आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशें – रेशें में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है । स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श, जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए । इसके कसीदे देखिए श्रीमान, ये सुन्दर – सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में चलने का मन बना देते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाई रात – रात, मन मारा जिनके लिए । उन्हें क्या मिला मजूरी में, सिर्फ़ रोटी ही तो खाई, लेकिन अपना आसमान निगल गये ।”

“कुछ पैसे और ले लो यार, लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है!’’ वह बोले । 

“बात पैसों की नहीं है । उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों ने क्या – क्या नहीं बिछा दिया, उस पर पैर तो रख लें, लेकिन जूते नहीं रखें श्रीमान ।”


कविताः उठो स्त्रियो!

  - डॉ. सुरंगमा यादव


हे ईश्वर!

विधवा स्त्रियाँ

तय कर रहीं तुम्हारी

जवाबदेहियाँ

पूजा तुम्हारी

कितने व्रत -उपवास

आए तुम्हें न रास

जिसके लिए माँगती रहीं दुआ

तुमने उसी से कर दिया जुदा

क्या तुम भी ग्रस्त हो?

समाज की रूढ़ियों से

पुरुष प्रधान

तुमने भी लिया मान

यह कैसा तरीका?

मृत्यु में भी उसे ही

दी तुमने वरीयता

विधुर होने की पीड़ा से

पुरुष बच जाता है तुम्हारी क्रीड़ा से

कोमल हृदया स्त्री पर

डाल देते हो पीड़ा गुरुतर

अनंत पथ पर पुरुष अग्रगामी

स्त्री पर आयी जैसे सुनामी

वैधव्य का दंश झेलती

मृतप्राय हो जाती हैं

विधवा स्त्रियाँ

एक स्त्री सिर्फ पति ही नहीं खोती

उसके साथ खो देती है

सारी खुशियाँ तीज- त्योहार

साज-सिंगार!

उसके हृदय की चीत्कार

तुम्हें कोसती है बार- बार

क्यों नहीं हर लिये तुमने उसके प्राण!

क्यों किया पति को निष्प्राण

विधवाओं की लंबी कतारें

लगाती हैं तुमसे न्याय की गुहारें

क्योंकि तुम्हें ही पूजा था

और तुम्हीं ने उपेक्षिता बनाकर

टाँग दिया हाशिए पर

वैधव्य को महसूस कराने की

कैसे ये रीति-रिवाज

उतारा जाता है जब उसका साज-सिंगार

उमड़ता है दु:ख का पारावार

जिन बच्चों को पाला -पोसा

जिन रिश्तों को सँजोया-सँवारा

उनकी ही नजरों में आ गया फर्क-सा

जाए कहाँ? किसको सुनाए?

खुलकर बेचारी रो भी न पाए

सवाल बड़ा है?

हमेशा ही स्त्रियाँ

क्यों पाती हैं उधार की खुशियाँ

कभी सुहाग चिह्न लादें

कभी वे उतारें

बन जाती है एक स्त्री

चलता -फिरता प्रमाणपत्र

पति के जीवन अथवा मृत्यु का

पाँवों में अपने बेड़ियाँ कसके बाँधें

क्यों सहे वे ये सब?

क्यों जिएँ सूना जीवन

मृत्यु से पहले मृत्यु का वरण

साँसों का रिदम टूटना तय है

कोई आगे तो कोई पीछे गया है

प्यार लेकिन कभी भी मरता नहीं है

कल मूर्त्त था आज अमूर्त्त हुआ है

उसी प्यार का मान मन में रहे बस

साज-सिंगार छोड़े, उदासी लपेटे

क्यों रहे स्त्री मन को मसोसे

सौभाग्य उसका पुरुष मात्र ही है?

अन्यथा शून्य ही उसकी नियति है?

उठो स्त्रियो! रूढि़याँ सारी तोड़ो

जीवन में खुशियों से नाता न तोड़ो

तुम्हारी भी अपनी एक अस्मिता

ढूँढ लो फिर से उसका पता

सारे रंग- सिंगार- त्योहार 

अपने लिए अब सजाओ

जमाने से ऐसे नज़र न चुराओ।