- प्रमोद भार्गव
जो चीजें कल तक अच्छी नहीं लग रही थीं, अब उन्हें अपनाने की मांग उठ रही है। कहा भी गया है कि प्रकृति अपना संतुलन बनाने का काम संहार के बावजूद कर लेती है। यही कुछ किस्सा आबादी के परिप्रेक्ष्य में दिखाई दे रहा है। आंध्र प्रदेश में बुजुर्गों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर पहले मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने एक चैंकाने वाला बयान दिया। उन्होंने आंध्रप्रदेश की राजधानी अमरावती में कहा कि ‘अब बहुत हुआ लोग दो या दो से अधिक बच्चे पैदा करें। हम ऐसे दंपत्तियों को प्रोत्साहित करने की योजना बना रहे हैं। राज्य सरकार जल्दी ही ऐसा कानून बनाने जाा रही है, जिसके अंतर्गत दो से अधिक बच्चे वाले लोग ही स्थानीय निकाय चुनाव लड़ सकेंगे।‘ इस बयान को तार्किक बताते हुए नायडू ने कहा कि ‘राज्य के कई जिलों में ऐसे गाँव देखने में आ रहे हैं, जहाँ केवल बुजुर्ग देखे जा रहे हैं। कई बुजुर्गों के युवा या तो नौकरी के लिए विदेश चले गए हैं या फिर दूसरे राज्यों का रुख कर गए हैं। अतएव दो से अधिक बच्चे पैदा करने पर ही जनसंख्या स्थिर होगी।‘ इधर दक्षिण भारत के ही तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने संसदीय परिसीमन के चलते लोगों से परिवार बढ़ाने की अपील की है। उन्होंने ज्यादा बच्चे पैदा करने की स्थिति को लोकसभा सीटों के परिसीमन से जोड़कर देखा है। उनका कहना है कि ‘अब नवविवाहित जोड़े कम बच्चे पैदा करने का विचार छोड़ दें। आखिर हम कम बच्चे पैदर करने तक सीमित क्यों रहें ?‘
दरअसल अब भारत बूढ़ा हो रहा है। इसलिए जनसंख्या बढ़ाने की चिंता वाजिब हैं। केंद्र सरकार द्वारा युवा भारत 2022 रिपोर्ट कहती है कि 2036 तक देश की 34.55 करोड़ आबादी ही युवा होगी, जो अभी 47 प्रतिशत से ज्याादा है। अभी देश में 25 करोड़ युवा 15 से 25 साल आयु वर्ग के हैं। किंतु आगामी 15 साल में यह दर गिरेगी। इसके दो बड़े कारण हैं। एक महिलाओं में प्रजनन दर निरंतर घट रही है। औसतन बच्चों को जन्म देने की जो दर 2011 में 2.4 थी, वह 2019 में 2.1 रह गई है। दूसरे, उत्तम होती स्वास्थ उपचार के चलते 2011 में प्रति 1000 लोगों पर 7.1 मौंते हो रही थीं, यह स्थिति 2019 में घटकर छह रह गई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश (यूएनपीएफ) की भारतीय उम्र रिपोर्ट 2023 के अनुसार 2011 में भारत में युवा आबादी की औसत उम्र 24 साल थी, जो अब बढ़कर 29 साल हो गई है। यानी युवाओं की संख्या घट रही है। बुजुर्गों की संख्या 2036 तक भारत की जनसंख्या का कुल 12.5 प्रतिशत होगी। 2050 में यह 19.4 फीसदी और इस सदी के अंत तक 36 प्रतिशत होगी। यह बूढ़ी आबादी और युवाओं की घटती आबादी किसी भी देश के लिए चिंता का कारण होना चाहिए? अतएव नायडू और स्टालिन आबादी बढ़ाने का जो संदेश दे रहे हैं, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।
भारतीय आबादी के सिलसिले में नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की सांख्यिकीय रिपोर्ट-2018 ने देश में आबादी घटने के भयावह संकेत दिए थे। इस सर्वेक्षण के आधार पर 2018 में एक माँ की उसके जीवन काल में प्रजनन दर 2.2 आंकी गई, लेकिन इस दर में गिरावट के चलते वह दिन दूर नहीं, जब देश में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) दो रह जाए? इस विषय के जानकार लोगों का मानना है कि यदि भारत ने यह आँकड़ा छू लिया, तो जनसंख्या स्थिर हो जाएगी और फिर कुछ वर्षों में घटने लगेगी। बालिकाओं के गिरते लिंगानुपात के कारण भी यह स्थिति बनेगी। यह स्थिति सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा देने वाली साबित हो सकते हैं। ऐसे में विवाह की उम्र बढ़ाना निकट भविष्य में बड़ी समस्या पैदा कर सकती है।
एसआरएस की रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए है, वे जन्म के समय लिंगानुपात के हैं। जैविक तौर पर जन्म के समय सामान्य लिंगानुपात प्रति एक हजार बालिकाओं पर 1050 बालकों का रहता है या प्रति एक हजार बालकों पर 950 बालिकाओं का एसआरएस की रिपोर्ट की मानें तो भारत में लिंगानुपात प्रति एक हजार बालकों पर बालिकाओं के जन्म के आधार पर गिना जाता है। यह 2011 में 906 था, जो 2018 में गिरकर 899 रह गया। केरल और छत्तीसगढ़ छोड़ देश के ज्यादातर राज्यों में पुत्र की आकांक्षा अधिक देखी गई है। बिगड़ा यह लिंगानुपात विवाह व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर डालता है। बिगड़ते लिंगानुपात के चलते इस स्थिति में सुधार के लिए सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है। भारत इस अनुपात को सुधार सकता है, क्योंकि उसके पास 15 से 49 वर्श के प्रजनन योग्य आयु वर्ग के लोगों का बड़ा समूह है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु विवाह की आयु घटाने के साथ अवैध संतान को वैधानिकता देना कानूनी रूप से अनिवार्य करना होगा। साथ ही लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण को कोख में ही नष्ट करने के उपाय बंद करने होंगे। इस हेतु आर्थिक समानता के उपायों के साथ युवाओं को प्रजनन, स्वास्थ्य शिक्षा और लैंगिक समानता के मूल्यों को प्रोत्साहित करना होगा। जैसा की अब नायडू और स्टालिन कर रहे हैं।
अकसर भारत या अन्य देशों में बढ़ती आबादी की चिंता की जाती है। लेकिन अब भारत में कुछ धार्मिक समुदायों और जातीय समूहों में जनसंख्या तेजी से घटने के संकेत मिल रहे हैं। भारत में जहाँ आधुनिक विकास व विस्थापन के चलते पारसी जैसे धार्मिक समुदाय और आदिवासी प्रजातियों में आबादी घट रही है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचलन में आ जाने से एक बड़ा आर्थिक रूप से सक्षम समुदाय कम बच्चे पैदा कर रहा है। एक राष्ट्र के स्तर पर कोई देश विकसित हो या अविकसित हो अथवा विकासशील, जनसंख्या के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष एक प्रकार की सामाजिक व वैज्ञानिक सोच का प्रगटीकरण करते हैं। अपने वास्तविक स्वरूप में जनसंख्या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ-साथ समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करने का कारण बनती है। इसलिए भारत में जब पाँच अल्पसंख्यक समुदायों में से एक पारसियों की आबादी घटती है, तो उनकी आबादी बढ़ाने के लिए भारत सरकार मजबूर हो जाती है। दूसरी तरफ मुस्लिमों को छोड़ अन्य धार्मिक समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने के कठोर उपाय किए जाते हैं। यह विरोधाभासी पहलू मुस्लिम समुदाय की आबादी तो बढ़ा रहा है, लेकिन अन्य धार्मिक समुदायों की आबादी घट रही है। इसीलिए जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुष लगाने के लिए एक समान नीति को कानूनी रूप दिए जाने की मांग कई समुदाय कर रहे हैं। हालांकि यह कानून बनाया जाना आसान नहीं है। क्योंकि जब भी इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखा जाएगा तब इसे कथित बुद्धिजीवी और उदारवादी धार्मिक रंग देने की पुरजोर कोशिश में लग जाएँगे। बावजूद देशहित में इस कानून को लाया जाना जरूरी है, जिससे प्रत्येक भारतीय नागरिक को आजीविका के उपाय हासिल करने में कठिनाई न हो। अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पदाधिकारी हिंदुओं में आबादी बढ़ाने की पैरवी करते रहे हैं, किंतु अब नायडू और स्टालिन ने आबादी बढ़ाने की जो वाकालात की है, उससे संघ और भारत सरकार को बल व प्रोत्साहन मिल सकता है ?
भारत में समग्र आबादी की बढ़ती दर बेलगाम है। 15 वीं जनगणना के निष्कर्ष से साबित हुआ है कि आबादी का घनत्व दक्षिण भारत की बजाय, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएँ हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 फीसदी थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रही, वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में आबादी की दर हिंदुओं से अधिक है। विसंगति यह भी है कि पारसियों व ईसाइयों में भी जन्म दर घटी है। उच्च शिक्षित व उच्च आय वर्ग के हिंदू एक संतान पैदा करने तक सिमट गए हैं, जबकि वे तीन बच्चों के भरण-पोषण व उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने में सक्षम हैं। भविष्य में वे ऐसा करें, तो समुदाय आधारित आबादियों के बीच संतुलन की उम्मीद की जा सकती है ?
आमतौर से जनसंख्या नियंत्रण के दृष्टिगत चीन को परिवार- नियोजन संबंधी नीतियों को आदर्श रूप में देखा जाकर उनका विस्तार भारत में किए जाने की माँग उठती रहती है। चीन में आबादी को काबू के लिए 1979 में ‘एक परिवार एक बच्चा‘ नीति अपनाई थी। लेकिन यह गलतफहमी है कि चीन में आबादी इस नीति से काबू में आई। सच्चाई यह है कि 1949-50 में चीन में सांस्कृतिक क्रांति के जरिए जो सामाजिक बदलाव का दौर चला, उसके चलते वहाँ 1975 तक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार आम आदमी की पहुँच में आ गया था। साम्यवादी दलों के कार्यकर्ताओं ने भी वहाँ गाँव-गाँव पहुँचकर उत्पादक समन्वयक की हैसियत से काम किया और प्रशासन से जरूरतों की आपूर्ति कराई। नतीजतन वहाँ आजादी के 25-30 साल के भीतर ही राष्ट्रीय विकास के लिए कम आबादी जरूरी है, यह वातावरण निर्मित हो चुका था।
‘एक परिवार, एक बच्चा‘ नीति चीन में कालांतर में विनाशकारी साबित हुई। इस नीति पर कड़ाई से अमल का हश्र यह हुआ कि आज चीन में अनेक ऐसे वंश हैं, जिनके बूढ़े व असमर्थ हो चुके माँ-बाप के अलावा, न तो कोई उत्तराधिकारी है और न ही कोई सगा-संबंधी है। अब स्त्री-पुरुष का अनुपात इतना गड़बड़ा गया है कि चीन ने इस नीति को नकारते हुए एक से अधिक बच्चे पैदा करने की छूट दे दी है। आबादी नियंत्रित करने के लिए कठोरता बरतने के ऐसे ही दुष्परिणाम जापान, स्वीडन, कनाडा और आस्ट्रेलिया में देखने को मिल रहे हैं। इन देशों में जन्म-दर चिंताजनक स्थिति तक घट गई है। जापान में मुकम्मल स्वास्थ्य सेवाओं और पर्याप्त आबादी नियंत्रक उपायों के चलते बूढ़ों की आबादी में लगातार वृद्धि हो रही है। इन वृद्धों में सेवानिवृत्त पेंशनधारियों की संख्या सबसे ज्यादा है; इसलिए ये जापान में आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का बड़ा कारण बन रहे हैं।
प्रकृतिजन्य जैविक घटना के अनुसार एक संतुलित समाज में बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों और बुजुर्गों की संख्या का एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए। अन्यथा यदि कोई एक आयु समूह की संख्या में गैर आनुपातिक ढंग से वृद्धि दर्ज ही जाती है, तो यह वृद्धि उस संतुलन को नष्ट कर देगी, जो मानव समाज के विकास का प्राकृतिक आधार बनता है। भारत में जिस तेजी से पेंशनधारी बुजुर्गों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, वह आर्थिक व स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से तो संकट पैदा कर ही रही है, देश का भविष्य माने जाने वाले युवाओं के हित का एक बड़ा हिस्सा भी बुजुर्गों पर न्योछावर किया जा रहा है। संतुलित मानव विकास के लिए यह दुराभिसंधि घातक है। लिहाजा आबादी बढ़ाने की जो अपील नायडू और स्टालिन कर रहे हैं, उसका स्वागत करने की जरूरत है।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र, मो. 09425488224, 09981061100
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आबादी बढ़ाने की अपील को मध्यवर्ग स्वीकार करने की स्थिति में अभी नहीं है, महंगाई,बेरोजगारी और अनेक प्रकार के दवाबो में जीता मध्यवर्ग, विशेषकर नौकरेपेशा अभी एक बच्चे की परवरिश कठिनाई से कर पा रहा है, अधिक बच्चों के पालन -पोषण हेतु वह तैयार नहीं है।
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