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Jun 1, 2024

उदंती.com, जून 2024

चित्रः बसंत साहू,
धमतरी (छत्तीसगढ़)
 वर्ष-16, अंक-11

भूमि की देखभाल करो तो भूमि तुम्हारी देखभाल करेगी, भूमि को नष्ट करो, तो वह तुम्हें नष्ट कर देगी।  - एक आदिवासी कहावत

इस अंक में

पर्यावरण विशेष 

अनकहीः जीना दुश्वार हो गया...- डॉ. रत्ना वर्मा

पर्यावरणः हिमालय पर तापमान बढ़ने के खतरे - प्रमोद भार्गव

शब्द चित्रः हाँ धरती हूँ मैं - पुष्पा मेहरा

आलेखः विश्व में पसरती रेतीली समस्या - निर्देश निधि

प्रकृतिः हमारे पास कितने पेड़ हैं? - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जलवायु परिवर्तनः मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने के खतरे - भारत डोगरा

प्रदूषणः ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान - सुदर्शन सोलंकी

अनुसंधानः ग्लोबल वार्मिंग नापने की एक नई तकनीक - आमोद कारखानीस

चिंतनः खत्म हो रही है पृथ्वी की संपदा - निशांत

 दो लघु कविताएँः 1. निवेदन, 2. बस यूँ ही - भीकम सिंह

अध्ययनः पक्षियों के विलुप्ति के पीछे दोषी मनुष्य है

दोहेः नभ बिखराते रंग - डॉ. उपमा शर्मा

लघुकथाः प्रमाणपत्र - प्रेम जनमेजय

कविताः उसकी चुप्पी -  डॉ.  कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

कहानीः विश्वास की जीत - टि्वंकल तोमर सिंह

 व्यंग्यः ठंडा- ठंडा कूल- कूल - विनोद साव 

कविताः चलो लगा दें इक पेड़ - राजेश पाठक

माहियाः गर्मी के धूप हुए - रश्मि विभा त्रिपाठी

हाइबनः जीवन-धारा - डॉ. सुरंगमा यादव

लघुकथाः धारणा - पद्मजा शर्मा

प्रेरकः पीया चाहे प्रेम रस – ब्रजभूषण

किताबेंः साहित्य की गहनतम अनुभूतियों का रसपान कराती पुस्तक -  डॉ. सुरंगमा यादव

कविताः पक्षी जीवन बचा रहेगा - चक्रधर शुक्ल

 जीवन दर्शनः इकीगाई- सोच की खोज - विजय जोशी 

अनकहीः जीना दुश्वार हो गया...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा
फट रही है ये फिर से धरती क्यूँ,

फिर से यज़्दाँ का क़हर आया है।

पर्यावरण प्रदूषण एक ऐसा धीमा जहर है,  जो समूची धरती को धीरे- धीरे निगलते चले जा रहा है।  साल- दर- साल हम प्रदूषण की मार झेलते हुए यह जान गए हैं कि इस विनाश के पीछे प्रमुख कारण, प्रकृति का दोहन करते हुए अंधाधुंध औद्यौगिक विकास ही है। परिणामस्वरूप हम बाढ़, सूखा, भूकंप और महामारी जैसी अनके प्रलयंकारी तबाही का मंजर झेलते चले जा रहे हैं । हवा और पानी इतने जहरीले हो चुके हैं कि जीना दुश्वार हो गया है; लेकिन फिर भी हम इनसे सबक नहीं लेते। विकास की अंधी दौड़ में हम आने वाली पीढ़ियों के लिए लगातार कब्र खोदते ही चले जा रहे हैं। 

हम एक ऐसे देश के वासी हैं, जहाँ सिर्फ नदियों और वृक्षों की ही पूजा नहीं होती, बल्कि धरती का कण- कण हमारे लिए पूजनीय है। अफसोस है, ऐसे पवित्र विचारों से परिपूर्ण देश में पर्यावरण जैसे गंभीर विषय को सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बनाया जाता।  ऐसा तब है,जब हमारी संस्कृति और परंपरा हमें यही सिखाती है कि अपनी प्रकृति, अपनी धरती का सम्मान करें और उनकी रक्षा करें। हम अपने पूर्वजों द्वारा दिए ज्ञान के इस अनुपम भंडार पर गर्व तो करते हैं; पर उनपर अमल करने में पीछे रह जाते हैं। 

परिणाम -विनाश है, जो आज दुनिया भर में दिखाई दे रहा है। हमारे वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों  ने हमेशा चेतावनी दी है कि पहाड़ों का पर्यावरण और मैदानी क्षेत्रों का पर्यावरण भिन्न होता है। पहाड़ के पर्यावरण को समझे बिना ही हम विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाएँगे, तो आपदाओं को आमंत्रित करेंगे। विकसित देशों ने तो बड़े बाँधों के निर्माण पर प्रतिबंध ही लगा दिया है, क्योंकि वे जान चुके हैं- इससे भविष्य में विनाश ही होगा। हमारे यहाँ लगातार तबाही के बाद भी पहाड़ों पर बाँध बनते ही चले जा रहे हैं, पहाड़ों में सुरंग बनाकर, जंगलों से हज़ारों वृक्षों का काटकर, सड़कें और रेल लाइनें बिछाई जा रही हैं। भला धरती का सीना चीरकर हम विकास की कौन सी सीढ़ी चढ़ रहे है?

हम हर बार कहते तो यही हैं कि सरकार चाहे किसी की भी हो, उन्हें  पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सोचना ही होगा। ज्यादातर जनता भी यही सोचती है कि देश के पर्यावरण की रक्षा करना, हमारा नहीं, सरकार का काम है। कहने को तो दुनिया भर में इस दिशा में काम हो रहा है; परंतु जिस तेजी से पर्यावरण बिगड़ रहा है, उतनी तेजी से नहीं। यह सही है कि सरकार को नीतियाँ, नियम और कानून बनाने होंगे; पर देश की जनता को भी तो अपनी भूमिका निभानी होगी। 

 पूरा देश पिछले दिनों चुनावी त्योहार में निमग्न रहा है । अनेक वायदों और आश्वसनों के बल पर वोट माँगे गए; लेकिन हमेशा यह पाया गया है कि चुनाव के समय पर्यावरण हमारे राजनीतिक दिग्गजों की जुबान पर कभी नहीं होता, ऐसा क्यों? भला चुनाव में पर्यावरण एक प्रमुख मुद्दा क्यों नहीं बन पाता? 

 दरअसल जिनके बल पर पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं, जो उनके वोट बैंक हैं,  अर्थात् वह मध्यम और निम्न वर्ग, जिन्हें  पर्यावरण से ज्यादा चिंता, अपनी रोजी- रोटी और वर्तमान को बेहतर बनाने की होती है । इसीलिए चुनाव भी उनकी इन्हीं प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर लड़े जाते  हैं। उनके वोट तो उन्हें मकान, नौकरी, मुफ्त अनाज और बिना मेहनत किए ही उनके बैंक खाते में हजारों रुपये डलवाने के लुभावने वायदों के बल पर बटोरे जाते हैं।  ऐसे में पर्यावरण जैसा विषय भला चुनाव में मुद्दा क्यों बनेगा?

पिछले कार्यकाल में अवश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गंगा सहित अन्य नदियों के प्रति आस्था दिखाई और नमामि गंगे सहित नदियों की सफाई को लेकर अनेक कार्यक्रम चलाए,  स्वच्छ भारत मिशन भी तेजी से चला; लेकिन एक लम्बें समय बाद  उसके भी परिणाम उस तरह देखने को नहीं मिले, जैसी उम्मीद थी। इस दिशा में और अधिक तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है, अन्यथा परिणाम भयानक होने की भविष्यवाणी हमारे पर्यावरणविद् कई बरसों से करते ही आ रहे हैं । 

धरती एक ही है, यदि हमें अपनी धरती को जीने और रहने लायक बनाना है, तो विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने से बचना होगा। विकास की एक सीमा तय करनी होगी। कुछ कठोर कानून बनाने होंगे और इसके पालन के लिए सख्ती बरतनी होगी। अन्यथा पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबिंग वार्मिंग के चलते दुनिया भर के तापमान में जैसी वृद्धि देखी गई है वह भयावह है।  बाढ़, भूकंप और सुनामी जैसा सैलाब पिछले कुछ वर्षों से हम देख ही रहे हैं; वह कल्पना से परे है। पहाड़ों का टूटना, ग्लेशियर का पिघलना,  जंगलों में भयंकर आग, ये सब प्रलय की शुरूआत ही तो है। तो क्या हमें विनाश के लिए तैयार रहना होगा या इस विनाश को रोकने के लिए सजग हो जाना होगा? फैसला हमारे हाथ में है। हम अब भी सचेत हो सकते हैं।  हाँ, आने वाले विनाश को रोक तो नहीं सकते; पर कम अवश्य कर सकते हैं। 

 धरती माता का स्वभाव यदि देने का है, तो क्या हम उसे पूरी तरह खोखला करके ही छोड़ेंगे। हमें कहीं से आरंभ तो करना होगा। अपने जीवन को सादा, सच्चा और सरल बनाना होगा, अपने लालच को कम करना होगा। सबसे जरूरी, प्रकृति के अनुरूप अपने जीवन को ढालना होगा । प्रकृति के साथ, धरती के साथ प्यार करते हुए जीवन गुजारने का संकल्प लेना होगा। अपनी कमजोरियों को दूसरों पर थोपना बंद करना होगा। सम्पूर्ण जगत् को, सभी जीव- जंतु, पशु- पक्षी और मानव के रहने लायक बनाकर फिर से अपनी धरती को शस्य- श्यामला बनाना होगा। और नहीं तो सब कुछ अपनी आँखों के सामने तबाह होते देखने के लिए अपना दिल मजबूत कर लीजिए। 

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का,

जो धूप छाँव से रिश्ता बनाए रहता है।

पर्यावरणः हिमालय पर तापमान बढ़ने के खतरे

 - प्रमोद भार्गव

संपूर्ण हिमालय के पहाड़ एवं भूभाग 21वीं शताब्दी के सबसे बड़े बदलाव के खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। इसी स्थाई हिम-रेखा 100 मीटर पीछे खिसक चुकी है। यहाँ जाड़ों में तापमान 1 डिगी बढ़ने से हिमखंड तीन कि.मी. तक सिकुड़ चुके हैं। नतीजतन बर्फबारी का ऋतुचक्र डेढ़ महीने आगे खिसक गया है। हिमालय क्षेत्र में जो बर्फबारी दिसंबर-जनवरी माह में होती थी, वह फरवरी मध्य से शुरू होकर मार्च 2024 तक जा रही है। उत्तराखंड के वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1901 से लेकर 2018 तक के जलवायु अनुसंधान इकाई के आँकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाला है कि तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो 8 से 10 साल के भीतर हिमालय पर बर्फबारी का मौसम पूरी तरह परिवर्तित हो जाएगा या बर्फबारी की मात्रा घट जाएगी। दिसंबर-जनवरी की बर्फीली बारिश इन महीनों में तापमान कम होने के कारण सूख कर जम जाती थी, लेकिन इन माहों में आसमान से जो बर्फ गिरी, वह तापमान ज्यादा होने के कारण पिघल कर बह गई। अतएव आशंका की जा रही है कि इस बार हिमालय की चोटियाँ और सतही भूमि जल्द ही बर्फ से खाली हो जाएगी। उत्तराखंड में समुद्रतल से 11,385 फीट ऊँचाई पर बना तुंगनाथ मंदिर के क्षेत्र में 14 साल पहले जनवरी में जितनी बर्फ मौजूद होती थी, उतनी इस बार मार्च में है। यह स्थिति इतनी ऊँचाई पर बर्फीली बारिश के बदलते स्वरूप को दर्शाती है। संस्थान का यह शोध-अध्ययन हाल ही में प्रकाशित हुआ है। 

 भू-गर्भ वैज्ञानिक डॉ. मनीश मेहता के अनुसार, ‘पहले दिसंबर-जनवरी में हर साल सूखी बर्फबारी होती थी, जो तापमान कम रहने के कारण जमी रहती थी। इससे हिमखंड सुरक्षित व सुगठित रहते थे। पारा चढ़ने पर सूखी बर्फबारी बंद हो गई। बाद में गीली बर्फ गिरी, जो थोड़ी गर्मी होते ही पिघलने लग गई।‘ पहाड़ों पर अमूमन गर्मी मई माह से शुरू होती थी। परंतु बीते एक दशक में सर्दी का तापमान तो बढ़ा है, जबकि गर्मी का स्थिर है। इसलिए हिमालय में गर्मी ज्यादा समय बनी रहती है। ये बदलते हालात हिमालय के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए खतरे की घंटी हैं। स्थाई बर्फीली रेखा हिमालय पर 4 से 5 हजार मीटर ऊपर होती है। यह स्थाई बर्फ के कारण बनती है। इसके तीन हजार मीटर नीचे तक वनस्पतियाँ नहीं होती हैं। इस रेखा के पीछे खिसकने से जहाँ पहले कम तापमान में हिमपात होता था, वहाँ अब बारिश होने लगी है। परिणामस्वरूप हिमालय के कई किमी क्षेत्र से बर्फ विलुप्त होने लगी है। इस सिलसिले में वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक विनीत कुमार का कहना है कि मौसम चक्र बदलने का सबसे ज्यादा असर देश के उत्तर-पूर्वी भाग्य में हुआ है। सुदुर संवेदन उपग्रह के आँकड़े बताते है कि अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2021 के मध्य ज्यादातर हिमखंड 9 मीटर प्रतिवर्ष की औसत गति से 210 मीटर पीछे खिसक गए हैं। जबकि लद्दाख में यह रफ्तार 4 मीटर प्रतिवर्ष रही है। कश्मीर के हिमखंडों के पिघलने की गति भी लगभग यही रही है। 

वाडिया संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डी.पी डोभाल के अनुसार, ‘जहाँ आज गंगोत्री मंदिर है, वहाँ कभी हिमखंड हुआ करता था। परंतु जैसे-जैसे तापमान बढ़ा और ऋृतुचक्र बदला वैसे- वैसे हिमखंड सिकुड़ता चला गया। 1817 से लेकर अब तक यह 18 कि.मी. से ज्यादा पीछे खिसक चुका है। करीब 200 साल पहले हिमखंड खिसकने का दस्तावेजीकरण सर्वे ऑफ इंडिया के भूविभानी जॉन हॉजसन ने किया था। उससे पता चला था कि 1971 के बाद से हिमखंडों के पीछे हटने की रफ्तार 22 मीटर प्रतिवर्ष रही है। ‘कुछ साल पहले गोमुख के विशाल हिमखंड का एक हिस्सा टूटकर भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखण्डों का इस तरह से टूटना प्रकृति का अशुभ संकेत माना गया है। इन टुकड़ों को गोमुख से 18 किलोमीटर दूर गंगोत्री के भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया था। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखण्ड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी। तब भी ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होना बता रहे थे। इस कम बर्फबारी की वजह धरती का बढ़ता तापमान बताया जा रहा है। यदि कालांतर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और हिमखंड क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है। गरमाती पृथ्वी की वजह से हिमखण्डों के टूटने का सिलसिला आगे भी जारी रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघु द्वीप और समुद्रतटीय शहर डूबने लग जाएँगे। हालाँकि वैज्ञानिक अभी तक यह निश्चित नहीं कर पाए हैं कि इन घटनाओं को प्राकृतिक माना जाए या जलवायु परिवर्तन के कारण टूटना माना जाए ?  

 अब तक हिमखण्डों के पिघलने की जानकारियाँ तो आती रही हैं; किंतु किसी हिमखण्ड के टूटने की घटना अपवाद स्वरूप ही सामने आती है। हालाँकि कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों की ताजा अध्ययन रिपोर्ट से पता चला था कि ग्लोबल वार्मिंग से बढ़े समुद्र के जलस्तर ने प्रशांत महासागर के पाँच द्वीपों को जलमग्न कर दिया है। यह अच्छी बात थी कि इन द्वीपों पर मानव बस्तियाँ नहीं थीं, इसलिए दुनिया को विस्थापन और शरणार्थी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। दुनिया के नक्षे से गायब हुए ये द्वीप थे, केल, रेपिता, कालातिना, झोलिम एवं रेहना। पापुआ न्यू गिनी के पूर्व में यह सालोमन द्वीप समूह का हिस्सा थे। पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में समुद्र के जलस्तर में सालाना 10 मिली की दर से बढ़ोतरी हो रही है।    

 गोमुख के द्वारा गंगा के अवतरण का जलस्त्रोत बने हिमालय पर जो हिमखण्ड हैं, उनका टूटना भारतीय वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखण्डों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखण्ड टूटने लग गए। अभी गोमुख हिमखण्ड का बाईं तरफ का एक हिस्सा टूटा है। उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आँच ने भी हिमखण्डों को कमजोर करने का काम किया है। आँच और धुएँ से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती चली गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। अब वैज्ञानिक यह आशंका भी जता रहे हैं कि धुएँ से बना कार्बन यदि शिलाओं पर जमा रहा तो भविष्य में नई बर्फ जमना मुश्किल होगी ?

हिमखण्डों का टूटना तो नई बात है; लेकिन इनका पिघलना नई बात नहीं है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखण्ड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। लेकिन भूमण्डलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे उत्सर्जित  कॉर्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को बढ़ा दिया है। एक शताब्दी पूर्व भी हिमखण्ड पिघलते थे ; लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था ;  इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। किंतु 1950 के दशक से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्श घटना शुरू हो गया था। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई इसके बाद से गंगोत्री के हिमखण्ड प्रत्येक वर्ष 5 से 20 मीटर की गति से पिघल रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति उत्तराखण्ड के पाँच अन्य हिमखण्ड सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदादेवी और चोराबाड़ी की है। भारतीय हिमालय में कुल 9,975 हिमखण्ड हैं। इनमें 900 उत्तराखण्ड के क्षेत्र में आते हैं। इन हिमखण्डों से ही ज्यादातर नदियाँ निकली हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को पेय, सिंचाई व आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। यदि हिमखण्डों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा, तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही 50 करोड़ आबादी को रोजगार व आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके ?

  बढ़ते तापमान को रोकना आसान काम नहीं है, बावजूद हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं। पर्यटन के रूप में मानव समुदायों की जो आवाजाही हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा वाकई हम अपनी बर्फीली शिलाओं को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हमारी ज्ञान परंपरा में हिमखंडों के सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें भी महत्त्व देना होगा। हिमालय के शिखरों पर रहने वाले लोग आजादी के दो दशक बाद तक बरसात के समय छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर पानी रोक देते थे। तापमान शून्य से नीचे जाने पर यह पानी जमकर बर्फ बन जाता था। इसके बाद इस पानी के ऊपर नमक डालकर जैविक कचरे से इसे ढक देते थे। इस प्रयोग से  लंबे समय तक यह बर्फ जमी रहती थी और गर्मियों में इसी बर्फ से पेयजल की आपूर्ति की होती थी। इस तकनीक को हम ‘वाटर हार्वेस्ंटिग’ की तरह ‘स्नो हार्वेस्टिंग‘ भी कह सकते हैं। हालाँकि पृथ्वी के ध्रुवों में समुद्र के खारे पानी को बर्फ में बदलने की क्षमता प्राकृतिक रूप से होती है। बहरहाल हिमखंडों के टूटने या गलने की घटनाएँ चिंताजनक हैं।  

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100


शब्द चित्रः हाँ धरती हूँ मैं

  - पुष्पा मेहरा 

मैं वही धरती हूँ जिसके स्वरूप को प्रकृति ने अपनी सन्तति की तरह करोड़ों वर्षों में सँवारा यही नहीं अपने सतत प्रयास से इसके रूप को निखारा भी । पहाड़ों पर हरियाली, कलकल करती  हुई नदियाँ व झरने निर्द्वन्द्व उड़ते- चहचहाते पक्षी,  मधुर - मधुर ध्वनि से गूँजता आकाश, हरे –भरे चरागाह, भय रहित पशुओं का स्वछन्द विचरना, गोधूलि बेला में डूबता सूरज और उसके माथे पर साँझ का टीका- टीके  के साथ गोरज की महक और  ढोरों के गले में बँधी घंटियों का साँझ की नीरवता भंग करना... अहा! ऐसे मनोरम वातावरण में मनुष्य का माया से घिर कर भी प्रकृति से जुड़ना स्वाभाविक ही था।   

  वास्तव में प्रकृति और मनुष्य - मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक ही तो हैं ।

  जैसे ही ऋतुएँ बदलतीं मेरा भी रूप बदल जाता,बसंत ऋतु के आने पर मेरी गोद फूलों से भर  जाती, नदियाँ–नहरें  बेझिझक अपना  पल्लू  लहराती  हुई  कुलाँचें भरतीं ,किनारों को छूती कुलकुलाती सैर को निकल पड़तीं पानी से भरे तालाबों  में कमलों की सुषमा देखते ही बनती । ग्रीष्म ऋतु  में जब सूर्य का प्रचंड ताप मुझे   विह्वल  करने लगता तो मेरे कातर हृदय की पुकार सुन इन्द्र देवता  जल परियों को भेज देते। फिर क्या था नदी -नाले जल से लबालब भर जाते चारों  ओर हरियाली ही हरियाली .... घास  के गलीचों  पर सुस्ताती  धूप, पशु-पक्षियों की  मौज- मस्ती देखते ही बनती। फिर होता शरद और शीत का आगमन गिरि  शृंगों पर बर्फ़ का जमावड़ा उड़ती - अठखेलियाँ करती बादलों की टोलियाँ  मानो वे  बाल हिम  श्रेणियों के साथ पकड़म- पकड़ाई खेल रही हों  किन्तु जिसकी कल्पना भी नहीं की थी आज वही घटता जा रहा है । डायनामाइट का वज्र -प्रहार मेरे उन्नत मस्तक के खंड– खंड करने पर आमादा है विकास, नवीनता का समावेश,सुरसा के मुख की तरह जनसंख्या का लगातार बढ़ना इन सबका दुष्परिणाम मुझे ही तो झेलना पड़ रहा है। 

    आज  तक प्रकृति ने जिसे सहेज कर रखा था,  मनुष्य  सहज ही उसे नष्ट कर रहा है । सभ्यता की  होड़  में बढ़ते हुए क़दमों ने हमारी ओढ़नी को तो  तार –तार किया  ही  साथ ही अब वह अधाधुंध मेरा विनाश करने पर तुला है ज़रा मेरा रूप तो देखो  क्या हो गया है ! सूखा और बाढ़ें. प्रलयंकारी  तूफानों का रौरव नृत्य,  निरंतर वनों का कटना, सूने पड़े  अभ्यारण्य झीलों के नाम पार छोटी-छोटी तलैया .... मैं कहाँ मुँह छुपाऊँ  मेरा वात्सल्य  बिलख रहा है  मेरे लाड़ले मुझ से बिलग हो रहे हैं पक्षियों और हिंसक वन प्राणियों की आश्रयस्थली ख़तम होती  जा रही है। ओह !वेदना  असह्य वेदना !

  कहाँ गया वो भौतिक और प्राकृतिक जगत् का गठबंधन – हिमालय की अवन्तिका में औषधि युक्त कन्द-मूल, चंदन वन की मादक सुगंध  जिसे विकराल विषधर का विष भी  कभी नहीं व्यापा –क्या आज मानव  उन विषधरों से भी अधिक विकराल रूप धार कर आ रहा है ? चिमनियों  से निकलने वाला धुआँ आकाश की स्वच्छ्ता को अपने आवर्त में लपेटता जा रहा है, विषाक्त यौगिकों का वायुमंडल पर प्रभाव बढ़ने लगा है  मैं  धरती  ग्रीनहाउस  ईफेक्ट से आक्रान्त हूँ क्या यही मानव की सृजनात्मक शक्ति का विस्तारबोध है ? नहीं-नहीं  मैं अपने प्रति यह निष्ठुरता कदापि सहन नहीं करूँगी। मैं रो- रो कर विलाप करूँगी। मेरी आहों की गर्मी से अग्नि की ज्वालाएँ निकलेंगीं। जल, अतल गर्त में चला जाएगा, सर्वत्र त्राहि –त्राहि –त्राहि मैं क्या बचूँगी और हे मानव तुम्हारा क्या होगा ईश जाने ।

एक बार फिर से बता रही हूँ मैं धरती- मैं नारी समस्त वैभव की मूक स्वामिनी  सृष्टि  की पालक- पोषक, आनन्द दाता हूँ, दान देती तो हूँ किन्तु अपना अतिशय दोहन बर्दाश्त नहीं कर सकती .. नहीं कर सकती.. कदापि नहीं कर सकती मेरा अंतर्मन रो रहा है  ।   

1.

दूभर साँसें 

आक्रान्ता प्रकृति मैं 

वैभव हारी ।   

2.

डँस गया है 

विषधर विकास 

मृत्यु ही शेष ।   


आलेखः विश्व में पसरती रेतीली समस्या

  - निर्देश निधि
आज विश्व अनेक समस्याओं और संकटों से जूझ रहा है।  जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण से लेकर पारिस्थितिकी तंत्र के बिखराव को मुख्य रूप से गिना जा सकता है ।आज मनुष्य के द्वारा फैलाए गए अनेक किस्म के प्रदूषणों से विश्व भर की साँसें संकट में हैं । इन प्रदूषणों के परिणामस्वरूप विश्व में प्रकट होते अनेक नकारात्मक परिवर्तन भी हैं जो मनुष्य जाति और धरती पर विचरने वाले अन्य जीव- जंतुओं के लिए विकराल समस्याएँ हैं । विश्व भर पर पर्यावरण सम्बन्धी अनेक संकट मँडरा रहे हैं, उन मँडराते तमाम संकटों में एक नया  संकट और भी है जिसकी ओर मनुष्य उतनी गम्भीरता से विचार नहीं कर रहा जितना उसे करना चाहिए । 

बात सुनने में अटपटी लग सकती है पर आने वाले कल विश्व में रेत की कमी पड़ने वाली है । रेत के कारण विश्व में भयानक संकट गहराने वाला है । मनुष्य निरंतर निर्माण प्रक्रिया में रत है। उसे रहने के लिए घर-मकान के साथ-साथ सड़कें और दूसरे कई निर्माणों की आवश्यकता होती है । विश्व भर में निर्माण में रेत का प्रयोग किया जाता है और कोई भी निर्माण रेत के बिना संभव नहीं है । कंक्रीट के निर्माण से लेकर काँच की दीवारों, काँच के बर्तनों, कम्प्यूटर के कलपुर्ज़ों, स्मार्ट फ़ोन, टूथपेस्ट, सौंदर्य प्रसाधन, काग़ज़, पेंट, टायर आदि तक, एक अंतहीन सूची है, जिन वस्तुओं के निर्माण में रेत का प्रयोग किया जाता है। उसके बिना इन वस्तुओं का निर्माण सम्भव नहीं है। यही कारण है कि मनुष्य रेत का अत्यधिक दोहन कर रहा है। अमेरिका जैसे पूर्ण विकसित देशों में भी रेत की खपत दिनों दिन बढ़ रही है फिर विकासशील देश या पिछड़े देशों में निर्माण कार्य के लिए इसकी कितनी आवश्यकता होगी और इसका कितना दोहन किया जा रहा होगा, अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है। भारत सहित विभिन्न देशों में तेज़ी से होते शहरीकरण के चलते रेत की माँग बहुत अधिक हो गई है । 

वैसे तो विश्व में रेत की कोई कमी नहीं है । कई रेगिस्तान दूर-दूर तक पसरे पड़े हैं, जहाँ रेत का विपुल भंडार उपस्थित है; परंतु रेगिस्तानों की रेत को निर्माण कार्य में प्रयोग नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह पानी के स्थान पर हवा के घर्षण से अपना आकार लेती है । हवा के घर्षण के कारण वह इतनी गोल हो जाती है कि उसके दो कणों का आपस में जुड़ पाना संभव नहीं होता है । समुद्र की रेत भी लवणीय होती है,  जो निर्माण कार्य के लिए आदर्श तो नहीं है;  परंतु कुछ निर्माणों में इसका प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त निर्माण प्रक्रिया में प्रयोग करने के लिए रेत के कणों का एक विशेष साइज़ होता है । यह साइज़ 0.06 मिलीमीटर से लेकर 2 मिलीमीटर तक का होना चाहिए। इससे मोटे या इससे बारीक रेत से न तो कंक्रीट ही बनाई जा सकती है और न ही किसी अन्य निर्माण- कार्य में इसका प्रयोग किया जा सकता है। यदि हम इस साइज़ के अतिरिक्त किसी साइज़ के रेत को सीमेंट में मिलाते हैं तो सीमेंट उसे पकड़ ही नहीं पाता है । जिसके कारण उसका प्रयोग किया जाना संभव नहीं होता। 

यह राहत भरी बात है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा रेत के संकट को समझ लिया गया है। उसके द्वारा इसके संरक्षण को ग्लोबल चिंता में सम्मिलित किया गया है । संभव है स्थिति में कुछ सुधार आ पाए, जो कि मनुष्य की आवश्यकताओं को देखते हुए संभव लगता भी नहीं है । परंतु इस विषय पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिंता करना यह दर्शाता है कि आने वाला समय मनुष्य के लिए दूसरे संकटों के साथ-साथ रेत का भी संकट लेकर आने वाला है। 

रेत, जल के बाद दूसरा सबसे अधिक दोहन किया जाने वाला पदार्थ है । हालाँकि जल की समस्या एकबारगी हम वॉटर ट्रीटमेंट प्लांटों के माध्यम से सॉल्व करने का प्रयास कर भी सकते हैं;  परंतु रेत को बनाने की कोई त्वरित रासायनिक प्रक्रिया खोजने के लिए अभी बहुत संघर्ष करना है । हालाँकि चट्टानों को तोड़कर उनसे रेत बनाया जाता है, परंतु यह प्रक्रिया भी काफ़ी कठिन है । चट्टानों को तोड़कर  बनाई गई इस रेत को विनिर्मित रेत या एम - सैंड कहा जाता है ।यह रेत नदियों, झीलों आदि से दोहन किए  जाने वाले रेत का मुख्य विकल्प है । परंतु धरती पर प्रकृति के संतुलन में चट्टानों की भी महती भूमिका होती है । यदि भारी मात्रा में चट्टानों को तोड़कर रेत बनाया जाता रहा तो भी उनके टूट जाने से धरती पर प्रकृति के संतुलन के गड़बड़ा जाने की आशंका मुश्तैद खड़ी ही हुई है । धरती पर तेज़ी से जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, जिसके साथ ही निर्माण की तमाम आवश्यकताएँ भी बढ़ती चली जा रही हैं । वैसे तो धरती के भीतर-बाहर संसाधनों के विपुल भंडार हैं;  परंतु यहाँ हमें महात्मा गाँधी के उस कथन को अनदेखा नहीं करना चाहिए, जिसके अनुसार धरती इंसान की आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती है परंतु यह उसका लालच पूरा करने में समर्थ नहीं है । धरती पर बढ़ती जनसंख्या के कारण दिन पर दिन मनुष्य की आवश्यकताओं की वृद्धि हो रही है;  परंतु धरती की संपदाएँ तो सीमित ही हैं । 

अफ़सोस यह है कि प्रकाश प्रदूषण की ही भाँति, रेत के अंधाधुंध खनन या दोहन पर अभी तक विश्व की सरकारों या विश्व के नागरिकों का बहुत अधिक ध्यान नहीं जा सका है और रेत खनन को एक छोटा-मोटा अपराध मान कर अभी तक अनदेखा किया जाता रहा है । रेत माफ़िया हैं, जिन्हें निर्ममता से नदियों की रेत को निकालने में किसी लज्जा या नैतिकता का ख़याल नहीं है। 

रेत, नदियों, झीलों और समुद्र आदि के पारिस्थितिकि तंत्र की आवश्यक संपदा है । रेत नदियों के जल प्रवाह, जल के शुद्धीकरण और उनके स्वास्थ्य के लिए कार्य करता है । रेत - भू जल के पुनर्भरण के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण पदार्थ है । यदि हम नदियों को रेत से रिक्त कर देंगे, तो उनकी जैविक क्रियाएँ भी मर जाएँगी। बेतहाशा रेत खनन के कारण विश्व की हज़ारों छोटी नदियाँ मर चुकी हैं; क्योंकि रेत ना होने के कारण उनका विशाल नदियों तक जाने का रास्ता ही नहीं रह गया । ध्यान देने योग्य बात यह है कि विशाल नदियों की विशालता में इन छोटी नदियों का बहुत मत्त्वत्वपूर्ण योगदान होता है । यदि नदियाँ मरीं, तो उनके भीतर के जीव-जंतु और उनके भीतर पनपती वनस्पतियों के विपुल भंडार भी विनाश की कगार पर पहुँच जाएँगे, जिससे संसार का पारिस्थितिकी तंत्र डगमगा जाएगा। पारिस्थितिकी तंत्र के डगमगाने के दुष्परिणामों की भयावहता हर प्रबुद्ध व्यक्ति समझ ही सकता है। 

पुनः कहना होगा कि रेत संसार का सबसे अधिक खनन किया जाने वाला ठोस पदार्थ है, जिसे कृत्रिम रूप से बनाने की प्रक्रिया बहुत कठिन है और प्राकृतिक रूप से उसे बनने में बहुत अधिक लम्बा समय लगता है । रेत का खनन मुख्यतः झीलों, नदियों आदि से किया जाता है, रेत को समुद्रों से भी निकाला जाता है। रेत खनन के चलते तमाम नदियाँ अपने जीवन काल में ही मरणासन्न हो जाती हैं । नदियों का ही जीवन ख़तरे में नहीं है, समुद्र भी इस खनन के दुष्परिणामों से जूझ रहा है । समुद्र के कई तट वीरान हो गए हैं और उसके कई द्वीप तो विलुप्त ही हो गए हैं । द्वीपों का विलुप्त होना उस पर बसे जीवन का भी विलुप्त होना है । इस तरह नदियों का विनाश और समुद्रों की हानि का बहुत नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न हो रहा है, जिसके कारण पर्यावरण या पृथ्वी के संतुलन का बिगड़ जाना लगभग तय होता जा रहा है । 

इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी) की चिंता अकारण ही नहीं है। यह बिल्कुल सच है कि मानव सभ्यताएँ उस दौर से गुजर रही हैं जहाँ निर्माण कार्य आवश्यक माना जा रहा है, आवश्यक है भी । जिसके लिए रेत की आवश्यकता पहले से कई गुना बढ़ गई है । स्पष्ट है कि भूवैज्ञानिक क्रिया - प्रक्रियाओं के विपरीत रेत का तेज़ी से दोहन किया जा रहा है । जिसका खामियाजा निर्दोष नदियाँ, झीलें और समुद्र भुगत रहे हैं । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार यदि हमारा पूरा विकास, निर्माण प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिसमें रेत की भूमिका मुख्य है, तो उसे एक राजनयिक, राजनैतिक सामग्री के रूप में पहचाना जाना चाहिए । यदि संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अभी भी उचित निर्णय ले लिया गया तो भी आने वाले कल रेत के अनियंत्रित दोहन के दुष्परिणामों से संसार और उसकी पारिस्थितिकी को कुछ तो सुरक्षित किया जा सकता है । 

धरती पर प्राकृतिक रूप से रेत के बनने की प्रक्रिया आख़िर है क्या ? साधारण भाषा में, मोटे तौर पर कहें तो, कई स्थानों पर दिन में अत्यधिक तापमान होता है और रात में भीषण ठंड हो जाती है। वातावरण के इस चरम बदलाव के कारण पत्थर चटकने लगता है उसके बाद जब बरसात होती है तो टूटे पत्थरों के टुकड़े महीन हो जाते हैं और तेज़ हवाओं से घर्षण उत्पन्न होता है । एक लंबे समय तक इस घर्षण से टुकड़े और महीन होते जाते हैं और वे रेत में परिवर्तित होने लगते हैं । यह प्रक्रिया लाखों बरसों की भी हो सकती है। या कहें कि लाखों बरसों तक चट्टानें स्वाभाविक रीति से निरंतर अपक्षरित होती रहती हैं, उनका यही अपक्षरण नदियों में रेत के रूप में एकत्र होता रहता है । इस तरह प्राकृतिक रूप से बहुत लंबे समय में जाकर चट्टानों का रेत बन पाना संभव होता है। प्राकृतिक रूप से जितना समय इसके निर्माण में लगता है उसके अनुपात में इसका दोहन बहुत अधिक रफ़्तार से किया जा रहा है। इसलिए कहना होगा कि जितनी रेत संसार में बनती है, इस समय उससे कहीं अधिक रेत का दोहन मनुष्य कर रहा है । रेत के बनने की इस लम्बी प्रक्रिया और उसके तेज़ी से, अंधाधुंध दोहन के कारण ही नदियों की रेत अब दुर्लभ होती जा रही है ।यही कारण है कि संसार में आगामी समय में रेत का संकट निःसंदेह सबसे बड़ा संकट बनकर सामने आने वाला है । तमाम देशों की सरकारों की चिंता इस आने वाले संकट को लेकर बढ़ गई है । 

विश्व में सिंगापुर रेत के संकट से जूझने वाला प्रमुख देश है । रेत का संकट झेलने वाले देशों में उसे एक उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है । वह निरंतर अपनी सीमाओं का विस्तार करता चला जा रहा है । पिछले 4 दशकों में उसने अपने क्षेत्रफल का लगभग 130 किलोमीटर तक विस्तार कर लिया है, जिसके कारण उसे भारी मात्रा में रेत का आयात करना पड़ा । स्पष्ट है कि उसे रेत के आयात के लिए माफ़ियाओं पर निर्भर करना पड़ा होगा। प्राकृतिक रूप से पसरी रेत को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर कृत्रिम रूप से स्थापित कर देना भी प्रकृति में असंतुलन पैदा करता है । 

संयुक्त अरब अमारात, दुबई और सऊदी अरब जैसे तमाम देशों में, जहाँ रेत के भंडार हैं, उस रेत के, जिसे निर्माण कार्य में प्रयोग नहीं किया जा सकता, संसार में सबसे ऊँची, अधुनातन और भव्य इमारतों में से अनेक इमारतें वहाँ खड़ी है । इन भव्य इमारतों के निर्माण के लिए जिस रेत का प्रयोग किया गया है वह ऑस्ट्रेलिया के समुद्र तटों से आयात की गई है । अरब में इमारतें ही क्या, चौड़ी- चौड़ी सीमेंट वाली सड़कों का निर्माण भी ऑस्ट्रेलिया से लाए गए समुद्र तटों की रेत से ही हुआ है । यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया के कई समुद्र तट आज वीरान दिखाई देते हैं । समुद्र का रेत भी हर निर्माण कार्य के लिए आदर्श नहीं, जैसा कि पहले भी कहा। बचीं झीलें और नदियाँ, मुख्यतः नदियों की रेत का ही प्रयोग निर्माण प्रक्रिया में किया जा रहा है । जिसके कारण अति का खनन भी किया जा रहा है । ऐसा किया जाना उनका विनाश कर रहा है । हमारे ऋषि - मुनि कह ही गए हैं- ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’  इस अति के कारण आशंका तो यह भी है कि आने वाले कल विश्व के विभिन्न देशों के मध्य कहीं रेत के लिए तनातनी और युद्ध न होने लगें ।  

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वन- संपदाः हमारे पास कितने पेड़ हैं?

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

चित्रः स्वाति बरणवाल

पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, कुछ साल पहले इसका विस्तृत विश्लेषण किया गया था। वृक्षों की गणना के इस विश्व स्तरीय प्रयास में ज़मीनी वृक्षों की गणना प्रादर्श के आधार पर की गई थी, और उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों के साथ रखकर उन आँकड़ों को देखा गया था। और फिर एक परिष्कृत एल्गोरिदम की मदद से आँकड़ों का विश्लेषण करके वृक्षों की कुल संख्या का अनुमान लगाया गया था। अध्ययन का अनुमान था कि हमारी पृथ्वी पर करीब तीस खरब पेड़ हैं। यह संख्या चौंकाने वाली है, क्योंकि यह पूर्व में वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए सभी अनुमानों से बहुत ज़्यादा है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन 400 से थोड़े अधिक पेड़ हैं। उपग्रह चित्रों से यह भी पता चला कि ये पेड़ पृथ्वी पर किस तरह वितरित हैं।

पृथ्वी पर मौजूद कुल पेड़ों का 15-20 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण अमेरिकी वर्षा वनों में है। इसके बाद बारी आती है कनाडा और रूस में फैले बोरियल जंगलों या टैगा में शंकुधारी (कोनिफर) वनों की। शंकुधारी वृक्षों की इस प्रचुरता के परिणामस्वरूप, कनाडा का प्रत्येक बाशिंदा लगभग 9000 वृक्षों से ‘समृद्ध' है।

इसके ठीक विपरीत, मध्य पूर्वी द्वीप राष्ट्र बाहरीन के 15 लाख वासियों को मात्र 3100 पेड़ों का सहारा है। यहां प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मात्र पाँच पेड़ हैं।

अन्य ऑक्सीजन स्रोत

यह गौरतलब है कि पृथ्वी के विशाल क्षेत्र अपेक्षाकृत कम पेड़ों वाले घास के मैदान हैं। कुल मिलाकर, घास उतनी ही ऑक्सीजन बना सकती है जितना कि दुनिया भर के पेड़। फिर, हमारे पास समुद्री सायनोबैक्टीरिया और शैवाल हैं - इन सूक्ष्मजीवों के प्रकाश संश्लेषण से उतनी ही ऑक्सीजन बनती है जितनी कि सभी स्थलीय पेड़-पौधों से।

पेड़ ऑक्सीजन बनाने के अलावा वातावरण से कार्बन हटाने में अहम भूमिका निभाते हैं। लाखों साल पहले उगे पेड़ दलदल में डूबने और दबने के बाद धीरे-धीरे कोयले में बदल गए, और इस तरह उन्होंने कार्बन को बहुत लंबे समय तक वायुमंडल में जाने से थामे रखा। बेशक, आप बिजली पैदा करने के लिए थर्मल पावर प्लांट में कोयले को जला कर कार्बन को वायुमंडल में वापस जाने से रोकने की पेड़ों की सारी मेहनत पर फटाफट पानी फेर सकते हैं, साथ ही साथ कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़कर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा सकते हैं।

भारत का वन आवरण

हमारे अपने देश के लिए अनुमान है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग 28 पेड़ हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व और लंबे समय से हो रही वनों की कटाई के कारण यह संख्या इतनी ही रह गई है। बांग्लादेश, जिसका जनसंख्या घनत्व भारत से तीन गुना अधिक है, वहां प्रति नागरिक छह पेड़ हैं। नेपाल और श्रीलंका दोनों देशों में प्रति व्यक्ति सौ से थोड़े अधिक पेड़ हैं।

भारत की भौगोलिक विविधता के चलते प्राकृतिक वन क्षेत्र में बड़ा फर्क है। पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट में, पूर्वोत्तर भारत में और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में नम उष्णकटिबंधीय वनों का घना आच्छादन, उच्च वर्षा और समृद्ध जैव विविधता देखी जाती है। अरुणाचल प्रदेश का अस्सी प्रतिशत भूक्षेत्र वनों से आच्छादित है; वहीं राजस्थान में यह वन आच्छादन 10 प्रतिशत से भी कम है।

भारत के एक-तिहाई हिस्से को वन आच्छादित बनाने की वन नीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। पुनर्वनीकरण के प्रयास इस लक्ष्य को हासिल करने में योगदान देते हैं, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है वनों की कटाई को रोकना। इस मामले में दक्षिणी राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत राज्य वन रिपोर्ट (ISFR) 2021 की रिपोर्ट के अनुसार वन आवरण में सबसे अच्छा सुधार करने वाले तीन राज्य हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु।  

जलवायु परिवर्तनः मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने के खतरे

 - भारत डोगरा

हाल ही में दुबई में मात्र 1 दिन में 18 महीने की वर्षा हो गई और अति आधुनिक ढंग से निर्मित यह शहर पानी में डूब गया। कुछ दूरी पर स्थित ओमान में तो 18 लोग बाढ़ में बह गए, जिनमें कुछ स्कूली बच्चे भी थे।

इस बाढ़ के अनेक कारण बताए गए। इनमें प्रमुख यह है कि जलवायु बदलाव के चलते अरब सागर भी गर्म हो रहा है व पिछले चार दशकों में ही इसकी सतह के तापमान में 1.2 से 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसके कारण वाष्पीकरण बढ़ रहा है और समुद्र के ऊपर के वातावरण में नमी बढ़ रही है। 

दूसरी ओर गर्मी बढ़ने के कारण आसपास के भूमि-क्षेत्र के वायुमंडल में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। समुद्र सतह गर्म होने से समुद्री तूफानों की सक्रियता भी बढ़ती है। अत: पास के क्षेत्र में कम समय में अधिक वर्षा होने की संभावना बढ़ गई है।

तिस पर चूंकि यह शुष्क क्षेत्र है, तो यहाँ नए शहरों का तेज़ी से निर्माण करते हुए जल-निकासी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितनी ज़रूरत थी। इस कारण भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई।

इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी चर्चा का विषय बना। वह यह है कि यूएई में काफी आम बात है कि बादलों पर ऐसा छिड़काव किया जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ती है। जब मौसम वैसे ही तूफानी था तो इस तरह का छिड़काव बादलों पर नहीं करना चाहिए था। इस कारण भी वर्षा व बाढ़ के विकट होने की संभावना बढ़ गई।

यह तकनीक काफी समय से प्रचलित है कि वायुमंडल में कहीं सिल्वर आयोडाइड तो कहीं नमक का छिड़काव करके कृत्रिम वर्षा की स्थिति बनाई जाती है। इसके लिए विशेष वायुयानों का उपयोग किया जाता है। अनेक कंपनियाँ इस कार्य से जुड़ी रही हैं। यह तकनीक तभी संभव है जब वायुमंडल में पहले से यथोचित नमी हो। इस छिड़काव से ऐसे कण बनाने का प्रयास किया जाता है जिन पर नमी का संघनन हो और यह वर्षा या बर्फबारी के रूप में धरती पर गिरे।

इस प्रयास में कई बार यह संभावना रहती है कि तमाम चेष्टा करने पर भी वर्षा न हो, या कई बार यह संभावना बन जाती है कि अचानक इतनी अधिक वर्षा हो जाती है कि संभाली न जा सके व भीषण बाढ़ का रूप ले ले। 

1952 में इंगलैंड में डेवान क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों के बाद एक गांव बुरी तरह तहस-नहस हो गया था व 36 लोग बाढ़ में बह गए थे। इसी प्रकार, वॉल स्ट्रीट जर्नल में जे. डीन की रिपोर्ट (नवंबर 16, 2009) के अनुसार चीन में एक भयंकर बर्फीला तूफान इसी कारण घातक बन गया था। 

हाल के एक विवाद की बात करें तो शारजाह में करवाई गई कृत्रिम वर्षा के संदर्भ में एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन खलीद अल्महीरि, रेबी रुस्तम व अन्य अध्ययनकर्ताओं ने किया था जो वॉटर जर्नल में 27 नवंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसमें यह बताया गया कि कृत्रिम वर्षा से बाढ़ की संभावना बढ़ी है।

दूसरी ओर, यदि कृत्रिम वर्षा से ठीक-ठाक वर्षा हो, तो भी एक अन्य समस्या उत्पन्न हो सकती है - आगे जाकर जहाँ बादल प्राकृतिक रूप से बरसते वहाँ वर्षा न हो क्योंकि बादलों को तो पहले ही कृत्रिम ढंग से निचोड़ लिया गया है। इस कारण हो सकता है कि किसी अन्य स्थान से, जो सूखा रह गया है, उन क्षेत्रों का विरोध हो जहाँ कृत्रिम वर्षा करवाई गई है। यदि ये स्थान दो अलग-अलग देशों में हों, तो टकराव की स्थिति बन सकती है।

जियो-इंजीनियरिग तकनीक के उपयोग भी विवाद का विषय बने हैं। कहने को तो इनका उपयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनसे जलवायु बदलाव का खतरा कम किया जा सकता है, पर इनकी उपयोगिता और सुरक्षा पर अनेक सवाल उठते रहे हैं।

इस संदर्भ में कई तरह के प्रयास हुए हैं या प्रस्तावित हैं। जैसे विशालकाय शीशे लगाकर सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित करना, अथवा ध्रुवीय बर्फ की चादरों पर हवाई जहाज़ों से बहुत-सा कांच बिखेरकर इससे सूर्य की किरणों को परावर्तित करना (यह सोचे बिना कि पहले से संकटग्रस्त ध्रुवीय जंतुओं पर इसका कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा)। इसी तरह से, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में गंधक बिखेरना व समुद्र में लौह कण इस सोच से बिखेरना कि इससे ऐसी वनस्पति खूब पनपेगी जो कार्बन को सोख लेगी।

ये उपाय विज्ञान की ऐसी संकीर्ण समझ पर आधारित हैं जो एकपक्षीय है, जो यह नहीं समझती है कि ऐसी किसी कार्रवाई के प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।

फिलहाल सभी पक्षों को देखें तो ऐसी जियो-इंजीनियरिंग के खतरे अधिक हैं व लाभ कम। अत: इन्हें तेज़ी से बढ़ाना तो निश्चय ही उचित नहीं है। पर केवल विभिन्न देशों के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए भी इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है जो गहरी चिंता का विषय है।

चीन में मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने का कार्य सबसे बड़े स्तर पर हो रहा है। अमेरिका जैसे कुछ शक्तिशाली देश भी पीछे नहीं हैं। समय रहते इस तरह के प्रयासों पर ज़रूरी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)  

दो लघु कविताएँ

   - भीकम सिंह






1. निवेदन

क्या करूँ, क्या ना करूँ

जब कभी भी

सोचता हूँ ,

तो वहीं पहुँचता हूँ

ख़ुद ही ख़ुद से छुपकर ।

 

लेटी हैं जहाँ

मेरी मासूम आदतें

खलिहानों में,

मिट्टी के घरौंदों में

राह तककर ।

 

और गाँव से

करता हूँ निवेदन

कि भूले ना

मेरा बचपन

ताक़पे रखकर ।

000

2. बस यूँ ही

मैंने जब - जब

जिस - जिसके

जूते उठाए

तब- तब टूटा मैं ,

अन्दर तक ।

 

आत्म सम्मान को

जैसे मारते रहे

करते रहे क्षीण

राजनेताओं के,

बन्दर तक ।

 

आज सुख में

दु:ख भरे

स्मृतियों के पन्ने

पलटे जा रहा हूँ मैं,

अम्बर तक ।


अनुसंधानः ग्लोबल वार्मिंग नापने की एक नई तकनीक

 - आमोद कारखानीस
आजकल ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के गर्माने की बहुत बातें हो रहीं है। औद्योगीकरण के चलते हवा में कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ी है, जिससे विश्व का औसत तापमान बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत ही धीमी रफ्तार से होने वाली प्रक्रिया है तथा तापमान में बदलाव भी बहुत थोड़ा-थोड़ा करके, एकाध डिग्री सेल्सियस से भी कम, होता है। हालाँकि, इतने छोटे बदलाव से भी कई जगह अलग-अलग असर देखने को मिलते हैं। ये असर क्या हैं, उनके कारण पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहे हैं या आगे क्या हो सकते हैं, यह जानने के लिए दुनिया में कई सारे वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।

इसी प्रयास में वैज्ञानिकों ने यह देखा है कि तापमान वृद्धि का बड़ा असर उत्तरी ध्रुव के बर्फीले प्रदेशों पर हो रहा है। बड़े-बड़े हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ये परिणाम तो प्रत्यक्ष नज़र आते हैं जिन्हें देखना काफी आसान और संभव है। किंतु समुद्र के पानी में जो बदलाव हो रहा है वह जानना काफी मुश्किल है। वैज्ञानिक उन प्रभावों को ढूंढने और मापने के नए-नए तरीके खोजते रहते हैं।

अन्य जगहों के मुकाबले आर्कटिक वृत्त के पास के समंदरों के बारे में इस तरह की जानकारी पाना तो और भी मुश्किल है। यहाँ के समंदर का पानी साल भर काफी ठंडा रहता है। और तो और, जाड़े के मौसम में कई जगह बर्फ जम जाती है। यह हुई ऊपरी हिस्से की बात। जैसे-जैसे हम समंदर की गहराई में जाते हैं, पानी का तापमान और कम होता जाता है। ज़्यादा गहराई में जाने पर कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां पानी साल भर पूरी तरह बर्फ के रूप में जमा होता है और कभी पिघलता नहीं है। इसे समंदर के अंदर का स्थायी तुषार (पर्माफ्रॉस्ट) कहते है। 

वैज्ञानिकों को आशंका थी कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पर्माफ्रॉस्ट पर असर हुआ है और उस के कुछ हिस्से पिघलने लगे हैं। परंतु जहाँ पहुँचना भी मुश्किल है, वहाँ इतनी गहराई में उतरकर कुछ नाप-जोख कर पाना लगभग असंभव है।

हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में छपी एक रिपोर्ट में एक नई तकनीक का ज़िक्र है जिसकी बदौलत अब हमें पर्माफ्रॉस्ट की हालत के बारे में जानकारी मिलना संभव हो गया गया है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का अध्ययन इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि यह बर्फ पिघली तो इसमें कैद कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन वगैरह वातावरण में पहुँचकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा देंगी।

तो क्या है यह तकनीक? हम लोग केबल टीवी से तो काफी परिचित है। अपने घर के टीवी तक लगाए गए केबल के ज़रिए हम बहुत सारे टीवी चैनल देख पाते हैं। सिर्फ टीवी ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संचार संकेतों के प्रेषण के लिए केबल डाली जाती है, जैसे टेलीफोन, टेलीग्राफ, इंटरनेट के लिए। जिस तरह हमारे शहरों में सड़कों के किनारे ज़मीन में केबल डाली जाती है, उसी तरह दो शहरों के बीच या दो देशों के बीच भी केबल रहती है। अलबत्ता यह केबल थोड़ी अलग किस्म की होती है। उनमें तार की जगह प्रकाशीय रेशों (ऑप्टिकल फाइबर) के बहुत से तंतु होते हैं। दो देश ज़मीन से जुड़े हों तो उनके बीच इस तरह की केबल डाली जा सकती है। परंतु यदि हमें इंग्लैंड और अमरीका के बीच केबल डालनी है तो? उनके बीच तो अटलांटिक महासागर है। ये केबल अब समंदर के पानी के अंदर (अंडर-सी) बिछानी पड़ेगी। 

इस तरह की अंडर-सी केबल पहली बार 1858 में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच इंग्लिश चैनल के आर-पार डाली गई थी। उस समय यह केबल टेलीग्राफ के लिए इस्तेमाल की जाती थी। वह काफी प्राथमिक स्तर की थी। अब इनमें काफी सुधार हुए हैं। दुनिया के सभी महासागरों में इस तरह की केबल डाली जा चुकी हैं। आजकल दुनिया का अधिकतर दूरसंचार इसी तरह के केबल द्वारा होता है।

अब स्कूल में पढ़े कुछ विज्ञान को याद करते हैं। हम जानते हैं कि प्रकाश किरण एक सीधी रेखा में चलती है, पर माध्यम बदलने पर यह अपनी दिशा बदल लेती है। इसे हम अपवर्तन कहते हैं। माध्यम का घनत्व बदलने से भी प्रकाश किरणें दिशा बदलती हैं। इसका सामान्य उदाहरण मरीचिका है - यह प्रभाव इस कारण होता है कि गर्मी के दिनों में ज़मीन के पास की हवा अधिक गरम होने की वजह से विरल (कम घनत्व वाली) होती है। 

सैंडिया नेशनल लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने ध्यान दिया कि आर्कटिक वृत्त के समुद्र के तले में कई केबल डली हुई हैं। उसमें से कुछ अलास्का के ब्यूफोर्ट सागर के तले पर मौजूद पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र से गुज़र रही है। उन्होंने अंदाज़ लगाया कि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो दबाव पड़ा होगा उससे अंदर के तंतुओं पर कुछ असर हुआ होगा। अत: उस जगह हमें प्रकाश किरण का अपवर्तन और विक्षेपण (यानी बिखराव) दिखाई देगा। उन्होंने केबल के असंख्य तंतुओं में से एक ऐसा तंतु चुना जिसका उपयोग नहीं हो रहा था। उसमें एक लेज़र बीम छोड़ा और यह नापने की कोशिश की कि बीम का कहाँ-कहाँ और कैसे अपवर्तन तथा विक्षेपण होता है। चूंकि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो असर हुआ वह बहुत सूक्ष्म था; लेज़र बीम में होने वाला बदलाव भी न के बराबर रहा। परंतु चार साल के अथक प्रयासों के बाद वैज्ञानिक अपने मकसद में कामयाब रहे। अब अलास्का के समुद्र के अंडर-सी पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के बारे में हमें कई सारी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली है। अब यह तरीका अन्य जगह भी लागू किया जा सकता है। 

केबल पर पड़ने वाला दबाव, केबल का तापमान आदि कारणों से प्रकाश के संचार पर असर होता है। अत: इस अनुसंधान से विकसित की गई तकनीक की बदौलत जहाँ-जहाँ भी अंडर-सी केबल हैं वहाँ के समुद्र तल के बारे में नई जानकारी पाना संभव हो सकता है। 

चिंतनः खत्म हो रही है पृथ्वी की संपदा

- निशांत

पृथ्वी की संपदा खत्म हो जाने पर हम दूसरे ग्रहों पर कब तक जाएँगे?

पृथ्वी पर वर्तमान जन्म-दर लगभग 16,000 शिशु प्रति घंटा है और मृत्यु-दर लगभग 9,000 व्यक्ति प्रति घंटा है। इसका अर्थ यह है कि पृथ्वी पर साल के हर महीने हर दिन के हर घंटे में जनसंख्या लगभग 7,000 की दर से बढ़ती जा रही है।

यदि हम यह मान लें कि हमारे वर्तमान ज्ञान और टैक्नोलॉजी के बूते पर हम अन्य ग्रहों को रहने योग्य बना लें तो भी हम 7,000 व्यक्तियों को वहाँ तक कैसे भेज सकेंगे? हमें वहाँ प्रति घंटे 7,000 से अधिक व्यक्ति भेजने होंगे तभी हम पृथ्वी की जनसंख्या को कम कर पाएँगे। हम इतने विशाल अंतरिक्ष यान कैसे बनाएँगे और उनमें सप्लाई का इंतजाम कैसे करेंगे? उन यानों को ऊर्जा कैसे मिलेगी- वह भी तब जब हम पृथ्वी के संसाधनों का पर्याप्त दोहन कर चुके होंगे।

हमारे सामने कोई विकल्प नहीं है। या तो हम पृथ्वी की देखभाल करें ताकि भावी पीढ़ियाँ यहाँ रह सकें, अन्यथा कभी-न-कभी मानव जाति का विनाश निश्चित है।

जेयर्ड डायमंड (Jared Diamond) ने ईस्टर द्वीपों (Easter Island) में रहने वाली सभ्यताओं और माया (Mayans) लोगों के बारे में लिखा है जिन्होंने अपने सारे संसाधन खत्म कर दिए और नष्ट हो गए। हमारा पर्यावरणीय फुटप्रिंट पहले ही विशाल हो चुका है और संभाले नहीं संभल रहा हालांकि हमारे संसाधन अभी कुछ बचे हुए हैं, फिर भी किसी दूसरे ग्रह पर पूरी मानव आबादी को ले जाने की बात सोचना भी कठिन है। यदि मंगल ग्रह को जीवन के पनपने योग्य बनाया जाए तो भी उसकी टेराफार्मिंग में ही  हजारों वर्ष लग जाएँगे।

फिलहाल ऐसा कोई ग्रह नहीं है जिस पर हम जा सकते हों। हमें ऐसे कुछ संभावित ग्रहों की जानकारी है लेकिन हम यह नहीं जानते कि हम उनकी संभावना को वास्तविकता में कैसे बदल सकते हैं क्योंकि वर्तमान साधनों से वहाँ तक जाने में हमें सैंकड़ों-हजारों वर्ष लगेंगे।

अब यदि हम पृथ्वी के संसाधनों की बात करें तो ऐसे बहुत से संसाधन हैं जिनका नवीनीकरण किया जा सकता है बशर्ते हम उनका प्रबंधन बेहतर करें। हमें पृथ्वी के संसाधनों के प्रयोग को सुधारना होगा क्योंकि विकासशील देशों में बढ़ रहे मध्यवर्ग की ज़रूरतों ने भी परिस्तिथियों को जटिल बना दिया है।

यहाँ मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि मनुष्यों का संपूर्ण विनाश कर सकने वाली घटना अचानक बिना किसी चेतावनी के नहीं होगी। यदि कोई बड़ा उल्का पिंड या क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकरा गया तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे। यह बहुत संभव है कि पूर्ण विनाश को न्यौता देने वाली घटना धीरे-धीरे हमें प्रभावित करती जाएगी और हमें अनेक चिन्ह और चेतावनी देगी।


हमें अपनी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति, सारे संसाधन, सारा धन, सारा चिंतन, सारे प्रयास, और सारे इनोवेशन को अंतर्तारकीय यात्रा को सुगम बनाने की दिशा में झोंकना पड़ेगा। यदि हमारे विनाश की घड़ी सर पर टिक-टिक करने लगेगी, तो अंतिम विकल्प के रूप में हमें बहुत थोड़े से मनुष्यों को पृथ्वी से बाहर इस उम्मीद से भेजना पड़ेगा कि वे मानव जाति के अस्तित्व को सुरक्षित रखेंगे।

यदि हम पृथ्वी के विनाश के बारे में नहीं सोचें तो भी जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है। मानव जाति के इतिहास में हम अब उस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं जब हम अपनी आँखों से प्रकृति को हमारे द्वारा हुए नुकसान को देख सकते हैं। हमें पृथ्वी को किसी भी हालत में बचाना होगा। हमें इस आदर्श ग्रह पर विकसित होने में लाखों वर्ष लगे हैं। यह हमारा घर है। यह अभी भी अरबों व्यक्तियों को आश्रय दे रहा है जबकि दूसरे ग्रहों पर हमें कुछ सौ व्यक्तियों की कॉलोनी को सहेजने में ही नानी याद आ जाएगी; क्योंकि हमें पृथ्वी जैसे किसी ग्रह के मिलने की संभावना न-के-बराबर है।

हाल ही में हुई एक रिसर्च से कुछ संसाधनों के पूर्ण दोहन होने की संभावित अवधि का पता चला है। ये आँकड़े इन वस्तुओं की मौजूदा खपत के आधार पर तैयार किए गए हैं। समय बीतने के साथ-साथ इनमें सुधार और बिगाड़ भी हो सकता है।

- पेट्रोलियमः 2045

- तांबा: 2040

- सीसा: 2025। दस वर्ष से भी कम

- एंटीमनी: 2026

- कोयला: 2056

- खनिज: 2050

- टिन, जस्ता: 2031

- भोजन: 2050

 ज़रा सोचिए। हमारे जीवनकाल में ही पृथ्वी पर सभी व्यक्तियों के लिए आहार की भारी कमी होने वाली है।

चीज़ों की बरबादी होते देखने पर दो पीढ़ियों पहले लोग कहते थे कि “अपने नाती-पोतों के बारे में सोचो,” एक पीढ़ी पहले लोग कहने लगे “अपने बच्चों के बारे में सोचो”। अब उनकी कही बातें सच साबित होने जा रही हैं। हमारी पीढ़ी पृथ्वी के अधिकांश संसाधनों को खत्म होता देखेगी। ये सभी संसाधन शून्य कभी नहीं होंगे लेकिन उन्हें प्राप्त करना इतना कठिन और महँगा होता जाएगा कि हम उन्हें समाप्त मानकर बैठ जाएँगे।

हमें जो करना है, यहीं करना है। हमारा समय बहुत पहले शुरु हो चुका था। (हिन्दी ज़ेन से) 

अध्ययनः पक्षियों के विलुप्ति के पीछे दोषी मनुष्य है

 
हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने पिछले 1,26,000 वर्षों में मानव गतिविधियों के कारण पक्षियों की विलुप्ति के चौंकाने वाले आँकड़े उजागर किए हैं। पूर्व में किए गए अनुमानों से आगे जाकर इस शोध ने लगभग 1500 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे मनुष्यों को दोषी पाया है। यह आँकड़ा पूर्व अनुमानित संख्या से दुगना है जो पक्षियों की जैव विविधता पर मानव गतिविधियों के गहरे प्रभाव का संकेत देता है।

सदियों से ज़मीनें साफ करके, शिकार और बाहरी प्रजातियों को नए इलाकों में पहुँचाने जैसे मानवीय कारकों की वजह से पक्षियों की विलुप्ति होती रही है। यह प्रभाव विशेष रूप से द्वीपों जैसे अलग-थलग पारिस्थितिक तंत्रों में विनाशकारी रहा है और पक्षियों की 90 प्रतिशत ज्ञात विलुप्तियाँ  ऐसे ही स्थानों पर होने की संभावना है। स्थिति को समझने में सबसे बड़ी चुनौती पक्षियों का हल्का वज़न और खोखली हड्डियाँ हैं जिनके कारण उनके अवशेषों का जीवाश्म के रूप में भलीभांति संरक्षण नहीं होता है। इसलिए पक्षी विलुप्ति के अधिकांश विश्लेषण लिखित रिकॉर्ड के आधार पर किए गए हैं जो पिछले 500 वर्षों से ही उपलब्ध हैं।

इस दिक्कत से निपटने के लिए, यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के रॉब कुक और उनकी टीम ने 1488 द्वीपों में दस्तावेज़ीकृत विलुप्तियों, जीवाश्म रिकॉर्ड और अनुमानित अनदेखी विलुप्तियों के अनुमानों को जोड़कर कुल विलुप्तियों का एक व्यापक मॉडल तैयार किया। अनदेखी विलुप्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्होंने द्वीप के आकार, जलवायु और अलग-थलग होने की स्थिति जैसे कारकों के आधार पर प्रजातियों की समृद्धता का आकलन किया। उनका निष्कर्ष है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्लायस्टोसीन युग के अंतिम दौर के बाद से वैश्विक स्तर पर लगभग 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि इनमें से आधे से अधिक पक्षियों को तो इंसानों ने देखा भी नहीं होगा और न ही उनके जीवाश्म बच पाए होंगे।

इस विलुप्ति में विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के हवाई द्वीप, मार्केसस द्वीप और न्यूज़ीलैंड को सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ा जहाँ विलुप्त पक्षियों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा केंद्रित था। अध्ययन से पता चलता है कि महाविलुप्ति की शुरुआत लगभग 700 वर्ष पूर्व हुई जब इन द्वीपों पर मनुष्यों का आगमन हुआ। इसके नतीजे में विलुप्त होने की दर में 80 गुना वृद्धि हुई।

शोध के ये परिणाम नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हैं। कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के फोल्मर बोकमा के अनुसार इन नुकसानों को समझकर अधिक प्रभावी जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। एडिलेड विश्वविद्यालय के जेमी वुड का कहना है कि इस अध्ययन ने दर्शाया है कि पक्षियों की विलुप्ति के अनुमान कम लगाए गए थे और वास्तविक स्थिति शायद इस अध्ययन के आकलन से भी ज़्यादा भयावह है। (स्रोत फीचर्स)

दोहेः नभ बिखराते रंग

  - डॉ. उपमा शर्मा

1.

मत कितने ही भिन्न हों, रहे नहीं मनभेद। 

बन जाएँ संबंध जो, करो नहीं विच्छेद।

2.

'उपमा' ऐसों से बचो, पचा न पाते जीत। 

सुख-दुख देते साथ जो, वही आपके मीत।

3.

मान सभी का तुम रखो, मिले प्यार को प्यार।

जैसा सबसे चाहते, करो वही व्यवहार।

4.

चतुराई उसमें भरी, कहे न छोड़ो आस। 

कंकड़ गागर डालकर, काग मिटाए प्यास। 

5.

कल बदलेगी जीत में, आज लगे जो हार।

थोथा-थोथा सब उड़े, रह जाना है सार।

6.

जीवन दुर्गम पथ रहा, आने अनगिन मोड़।

कर्म किए जा बस मनुज, फल की इच्छा छोड़।

7.

देखो हठी पतंग को, कितनी है मुँहजोर। 

ऊँची भरे उड़ान ये, जब-जब खींची  डोर।

8.

सोच समझकर बोलिए, शब्दों से भी घाव।

मन को मोहे है सदा, जग में मधुर स्वभाव।

9.

जीवन में हर पल नया, 'उपमा' कुछ ले जोड़।

उड़ जाए यह हंस कब, सब कुछ जग में छोड़।

10.

अलक बाँधती यामिनी,थमी चंद्र की चाल।

भोर जागकर आ गई, रवि आया नभ भाल।

11.

हरी मखमली दूब पर, पड़ती तुहिन फुहार।

 भीगे- भीगे पात हैं, पहने मुक्ताहार।

12.

कैनवास पर भोर के, नभ बिखराता रंग।

आई स्वर्णिम रश्मियाँ, जब दिनकर के संग।

13.

मिश्री हो या फिटकरी, लगते एक समान।

परखो तो व्यवहार से, होती है पहचान।

14.

अनुबंधों से मुक्त जो, मुझको करदो आज। 

सच कहती हूँ बोल दूँ, दिल के सारे राज। 


कविताः उसकी चुप्पी

  -  डॉ.  कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’






उसकी चुप्पी- 

मेरे भीतर उतर आई हो 

कहीं जैसे; 

करने को आतुर हों 

अनन्त यात्रा 

मेरी आत्मा तक 

उसकी आँखें 

यों देख रही हैं 

एकटक मुझे 

भीतर से भीतर तक 

अभी तो स्पर्श भी न किया

 फिर ये कैसा जादू है।

प्रदूषणः ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान

  -  सुदर्शन सोलंकी

कंप्यूटर, टी.वी., वाशिंग मशीन, फ्रिज, कैमरा, मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या इनके पुर्ज़े जब उपयोग योग्य नहीं रह जाते तो इन्हें ई-कचरे की संज्ञा दी जाती है।

भारत ई-कचरा पैदा करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर, 2017 के अनुसार, भारत प्रति वर्ष लगभग 20 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न करता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारत में वर्ष 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2017-18 के मुकाबले वर्ष 2019-20 में ई-कचरे में 7 लाख टन की बढ़ोतरी हुई थी। किंतु ई-कचरे के निपटान की क्षमता में बढ़ोतरी नहीं हुई है।

युनाइटेड नेशंस युनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट ‘ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020' में बताया गया है विश्व में वर्ष 2019 में 5.36 करोड़ मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ था जो पिछले पाँच सालों में 21 फीसदी बढ़ गया है। अनुमान है कि 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक कचरे की मात्रा 7.4 करोड़ मीट्रिक टन हो जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम 2019 के अनुसार दुनिया में प्रति वर्ष लगभग 5 करोड़ टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है, जो वजन में अब तक निर्मित सभी वाणिज्यिक विमानों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक ई-कचरे की मात्रा लगभग 4500 एफिल टावरों के बराबर है। हाल के एक शोध के अनुसार वर्ष 2025 तक सौ करोड़ से भी अधिक कंप्यूटरों की रिसायक्लिंग की व्यवस्था की आवश्यकता होगी।

वर्तमान समय में हम तेज़ी से इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को उपयोग में लाते जा रहे हैं। इन उत्पादों का जीवन काल छोटा होता है जिस वजह से कुछ ही समय में ये कचरे के रूप में फेंक दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब भी कोई नई टेक्नोलॉजी आती है, हम पुराने उपकरणों को आसानी से फेंक देते हैं क्योंकि कई देशों में पुराने उत्पादों की मरम्मत की सीमित व्यवस्था होती है, और जहां संभव है तो बहुत महंगी। ऐसे में जब कोई इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद खराब होता है तब लोग उसे ठीक कराने की जगह बदलना ज़्यादा पसंद करते हैं। 

ई-कचरा ज़हरीला और जटिल किस्म का कचरा है। इसमें पारा, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम जैसी भारी धातुएँ, पोलीक्लोरिनेटेड बायफिनाइल आदि और लंबे समय तक टिकाऊ कार्बनिक प्रदूषक होते हैं। ये मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होते हैं। ई-कचरा खतरनाक रसायन ही नहीं, बल्कि सोना, चांदी, पैलेडियम, तांबा जैसी बहुमूल्य धातुओं का समृद्ध स्रोत भी है। ज़हरीली और मूल्यवान दोनों धातुओं की मौजूदगी ई-कचरे को अपशिष्टों का एक ऐसा जटिल मिश्रण बना देती है, जिसके लिए एक सजग प्रबंधन प्रणाली ज़रूरी है।

हमारे देश में ई–कचरे के 312 अधिकृत रिसायक्लर हैं, जिनकी सालाना क्षमता लगभग 800 किलोटन है। लिहाज़ा, 95% से अधिक ई–कचरा अब भी अनौपचारिक क्षेत्र ही संभालता है। अधिकांश स्क्रैप डीलरों द्वारा इसका निपटान अवैज्ञानिक तरीके से (जलाकर या एसिड में गलाकर) किया जाता है।

दुनिया के विकसित देश अपना ई-कचरा जहाज़ों में लादकर हमारे बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में इस कचरे का ढेर लग गया है। इस ई-कचरे में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी हैं इसलिए इसे जैविक तरीके से नष्ट करना अत्यधिक कठिन हो गया है।

देश में बढ़ते ई–कचरे से निपटने के लिए भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई–कचरा प्रबंधन नियम, 2016 लागू किया है। 2018 में इस नियम में संशोधन किया गया, ताकि देश में ई–कचरे के निस्तारण को सही दिशा मिल सके तथा निर्धारित तरीके से ई–कचरे को नष्ट अथवा पुनर्चक्रित किया जा सके।

किंतु आँकड़े बताते हैं कि ई-कचरे की री-साइकलिंग नहीं हो पा रही है और अनुपयोगी वस्तुएँ समुचित निस्तारण के अभाव में आज एक बड़ी समस्या  बन गई हैं। भारत के कुल ई-कचरे का केवल पाँच फीसदी ही री-सायकल हो पाता है, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण में क्षति और उद्योग में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने ई-कचरे को ठीक से री-साइकिल नहीं किया तो यह किसी बड़ी घातक महामारी को जन्म दे सकता है।

ई-कचरे का सुरक्षित उपचार एवं निस्तारण  

1. सुरक्षित तरीके से दफन

प्लास्टिक की मोटी शीट के अस्तर वाले गड्ढे में ई-कचरा भरकर मिट्टी से ढक दिया जाता है।

2. भस्मीकरण

ई-कचरे को 900 से 1000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर भट्टी के अंदर एक बंद चैम्बर में जला दिया जाता है। इससे ई-कचरा लगभग नष्ट हो जाता है तथा कार्बनिक पदार्थ की विषाक्तता भी लगभग समाप्त हो जाती है। राख में से विभिन्न धातुओं को रासायनिक क्रिया से पृथक कर लिया जाता है तथा भट्टी से निकलने वाले धुएँ को प्रदूषण नियंत्रण व्यवस्था की मदद से उपचारित किया जाता है।

3. पुनर्चक्रण

लैपटॉप, मॉनिटर, टेलीफोन, पिक्चर ट्यूब, हार्ड ड्राइव, कीबोर्ड, सीडी ड्राइव, फैक्स मशीन, सीपीयू, प्रिंटर, मोडेम इत्यादि उपकरणों का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में विभिन्न धातुओं एवं प्लास्टिक को अलग-अलग करके पुन: उपयोग में लाने हेतु तैयार कर लिया जाता है।

4. धातुओं की पुन:प्राप्ति

इस विधि में सोना, चांदी, सीसा, तांबा, एल्युमिनियम, प्लेटिनम आदि धातुओं को लिए सान्द्र अम्ल का प्रयोग करके पृथक कर लिया जाता है।

5. पुनरुपयोग

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुधार या मरम्मत करके पुन: उपयोग करने योग्य बना लिया जाता है।

ई-कचरे के खतरे को कम करने के उपाय

इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रबंधन नियमों के अनुपालन में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया है कि नियमानुसार ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

1. बिजली एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में खतरनाक पदार्थों के उपयोग में कमी।

2. ई-कचरे का वैज्ञानिक रूप से नियंत्रण। इसके लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा ई-कचरे से सम्बंधी मानदंड अपनाना होगा।

3. निराकरण और पुनर्चक्रण कार्यों में शामिल श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास सुनिश्चित किया जाना चाहिए। 

लघुकथाः प्रमाणपत्र

  - प्रेम जनमेजय

पहला- नमस्कार, मुझे अपने बच्चे के जन्म का प्रमाणपत्र चाहिए।

दूसरा- ठीक है, इस फार्म को भर कर एक रुपया जमा करा देना, पन्द्रह दिन बाद मिल जाएगा।

पहला- पन्द्रह दिन? मुझे जल्दी चाहिए। एडमिशन फार्म के साथ देना है।

दूसरा- आप लोग ठीक समय पर जागते नहीं हैं और हमें तंग करते हैं। बड़े बाबू से बात करनी पड़ेगी, दस रुपये लगेंगे। एक हफ्ते में सर्टिफिकेट मिल जाएगा।

पहला- भाई साहब< मुझे दो दिन में चाहिए। आप कुछ कीजिए, प्लीज़।

दूसरा- ठीक है बीस रुपये दे दीजिए, लंच के बाद ले जाइए।

पहला- मैं विजिलेंस से हूँ, तो तुम रिश्वत लेते हो?

दूसरा- हुज़ूर माई बाप हैं। यह आज की कमाई आप की सेवा में हाज़िर है।

पहला-ग़लत काम करते हो और हमें तंग भी करते हो। तुम्हें सस्पेंड भी किया जा सकता है।

दूसरा- हुज़ूर, एक हज़ार दे दूँगा।

पहला– तुम तो मुझे धर्म संकट में डाल रहे हो। मुझे तुम्हारे बाल- बच्चों का ध्यान आ रहा है। परन्तु ड्यूटी इज़ ड्यूटी।

दूसरा- हुज़ूर दो हज़ार से ज़्यादा की औकात नहीं है।

पहला- ठीक है, ठीक से काम किया करो। आदमी को पहचानना सीखो। मुझसे मिलते रहा करो। तुम जैसे कुशल कर्मचारियों की देश को बहुत आवश्यकता है।

यह कहकर उसने हाथ मिलाया, संधि पर हस्ताक्षर किए और देश तीव्रता से प्रगति करने लगा। 

कविताः चलो लगा दें इक पेड़

  - राजेश पाठक

करो न अब थोड़ी भी देर

चलो लगा भी दें इक पेड़


खेतों से हरियाली गायब

घर-घर से खुशहाली गायब

बचा न जंगल में इक शेर

चलो लगा भी दें इक पेड़


कड़ी धूप में छांव भी देता

पानी हो तो नाव भी देता

नहीं देखता अपना-गैर

चलो लगा भी दें इक पेड़


नहीं प्रदूषण होने देता

सांसें भी ना खोने देता

बिना न इनके कोई खैर

चलो लगा भी दें इक पेड़

सम्पर्कः पावर हाउस रोड, न्यू बरगंडा, गिरिडीह, झारखंड- 815301

कहानीः विश्वास की जीत

  - टि्वंकल तोमर सिंह

सवेरे से ही धनिया मेरे पास बैठी थी। अपने नियत समय से एक घण्टे पहले ही आ गई थी। उसे पूरा भरोसा था, आज दीवाली के दिन उसका लड़का उसे फ़ोन जरूर करेगा।

जैसे ही मेरे मोबाइल की घण्टी बजती, धनिया को लगता था कि उसी के लड़के का फोन है। जैसे ही मैं मोबाइल उठाकर- “हेलो” बोलती, उसकी आँखों में एक चमक आ जाती। वह बड़े उत्साह से मेरी कुर्सी के और पास आ जाती थी; पर मेरे किसी मित्र या रिश्तेदार की तरफ से फोन पर मिलने वाली बधाई का अनुमान लगाकर वह थोड़ा निराश हो जाती थी, फिर वापस अपनी जगह पर निढाल होकर बैठ जाती थी।

‘‘और कितनी देर बैठी रहोगी धनिया? उसने कहा था सुबह 9 बजे फ़ोन करेगा। अब तो ग्यारह बज चुके हैं। अपने घर जाओ। दीवाली की तैयारी करो।” मैं कुर्सी से उठी, रंग उठाए और रंगोली बनाना शुरू कर दी।

धनिया की आँखों में उदासी के हल्के से भाव आए। फिर जल्दी ही वह सँभलते हुए  बोली- लाइए, ये वाला रंग हम भर देते हैं। जब तक रंगोली पूरी नहीं होती, हम आपके साथ रंग भरते रहेंगे।’’

धनिया की आस टूट जाए, मैं भी नहीं चाहती थी। मैंने मुस्कुराकर उसे अनुमति दे दी।

धनिया का लड़का दिल्ली चला गया था। फिर कभी वापस आया ही नहीं। यहाँ धनिया अपनी मड़ैया में अकेले रहती थी। उसके दो बच्चे और थे। एक लड़की जिसकी शादी हो चुकी थी। और एक छोटा लड़का, जो कई बरस हुए पीलिया, निमोनिया झेल न पाया, और भगवान को प्यारा हो गया। अब बड़ा लड़का ही उसके जीने की अंतिम आस थी।

धनिया की आँखों में मोतियाबिंद हो गया था। उसे अपनी आँख का ऑपरेशन कराना था। उसे लगता था, उसका बड़ा लड़का ख़ूब पैसे कमाकर वापस आएगा और उसका इलाज कराएगा। एक साल पहले जब धनिया का लड़का दिल्ली जा रहा था, तो उससे चिपटकर ख़ूब रोया था। उसने वादा किया था कि जल्दी ही वो धनिया की आँखों का ऑपरेशन करवा देगा।

धनिया के रिश्ते के एक चाचा किसी काम से दिल्ली गए थे। वहाँ उनकी मुलाकात उसके लड़के से हुई। उन्होंने धनिया का पूरा हाल उसे बताया कि किस प्रकार उसकी माँ उसकी याद में बावली हो गई है। आँखों से दिखना बहुत कम हो गया है और समझाया कि थोड़ा ख़ैर-ख़बर लेते रहा करो। लड़के ने व्यस्तता का बहाना बताया। चाचा ने उसका मोबाइल नंबर ले लिया। वापस आकर उसने धनिया को बताया कि उसके लड़के ने दिल्ली में किसी फैक्टरी में गार्ड की नौकरी ली है और वहीं उसने शादी करके अपनी गृहस्थी बसा ली है।

धनिया को तनिक भी विश्वास न हुआ। उसे लगा कि ये चाचा उसके परिवार से जलता है; इसीलिए अनाप-शनाप बक रहा है। उसे लगता था उसका लड़का उससे पूछे बिना कपड़े तक नहीं पहनता था, फिर शादी क्या करेगा। उसे क्या पता था कि दिल्ली जैसे बड़े शहर कितने भी सगे रिश्ते हों सबको पराया कर देते हैं।

चाचा ने धनिया के बेटे का जो फ़ोन नंबर लाकर दिया था, धनिया ने जब उस पर कल मुझसे फ़ोन मिलवाया, तो किसी औरत ने फ़ोन उठाया और कहा- “हम उनकी पत्नी बोल रहे हैं, वो तो है नहीं घर पर।”

धनिया को एक धक्का- सा लगा, मतलब शादी वाली बात सच थी। फिर उसने कहा- “हम उनकी अम्मा बोल रहे हैं। उनसे बात करनी थी।”

तो उधर से औरत ने कहा, “माँ जी प्रणाम.. अच्छा, ठीक है...कल सुबह नौ बजे बात कराते हैं आपकी।”

बस आज सुबह सात बजे से धनिया मेरे साथ लगी है। अब तो बारह भी बज गए, रंगोली भी पूरी हो गयी पर उसका फ़ोन न आया।

“भाभी न हो तो एक बार आप ही मिला लो, क्या पता भूल गया हो। या हो सकता है दीवाली की तैयारी में लगा हो।”- धनिया ने कहा।

मैंने उसका मन रखने के लिए  फोन मिला दिया।

“हैलो.. सुखवान, धनिया...तुमसे बात करना चाहती है।” जब मैंने उधर से किसी आदमी की आवाज़ सुनी, तो उसे धनिया का लड़का समझा।

“यहाँ कोई सुखवान नहीं रहता। प्लीज़ इस नंबर पर फ़ोन मत मिलाइएगा कभी।”- उधर से उत्तर आया।

इसके बाद फ़ोन कट गया। मेरी अंदर की आवाज़ पहले ही कह रही थी कि अब यहाँ कनेक्शन नहीं मिलने वाला; लेकिन कनेक्शन इतनी ज़ल्दी कट जाएगा...यह पता न था।

मैंने धनिया की तरफ देखा, जो आँखों में आस भरे मेरी ओर एकटक ताक रही थी। मैंने क्षण भर को उसकी आँखों में देखा फिर आगे उससे नज़रें मिलाने का मुझे साहस न हुआ।

“क्या हुआ भाभी?” उसने बड़ी आस से पूछा।

“कुछ नहीं धनिया। लगता है, फोन ठीक से काम नहीं कर रहा। उधर से आवाज़ नहीं आ रही है।”- मैंने बहुत धीमे से कहा।

“अच्छा”.. धनिया को जैसे मेरी बात का भरोसा नहीं हुआ।

“अच्छा भाभी...कल फिर देख लेंगे।”- इतना कहकर वो हताश होकर जाने लगी।

मैं जानती थी कल भी फ़ोन नहीं आएगा।... “यहाँ कोई सुखवान नहीं रहता...”-  इतनी तल्ख़ी से यह कहा गया था कि मुझे भी पूरा विश्वास हो गया कि मोबाइल फ़ोन के उस ओर जो भी हो, धनिया का लड़का तो नहीं ही हो सकता। एक पति हो सकता है, पैसे के पीछे भागने वाला आदमी हो सकता है, दिल्ली में बसने वाला एक स्वार्थी, मक्कार इंसान हो सकता है, पर बेटा तो बिल्कुल भी नहीं।

मैंने कुछ सोचकर अलमारी से दस हज़ार रुपये निकाले। तब तक धनिया गेट तक पहुँच गई थी।

“धनिया ओ धनिया....”-  मैंने उसे पीछे से आवाज़ दी।

“हाँ, भाभी...” -धनिया फुर्ती से मेरी ओर मुड़ी। उसकी आँखें एक बार फिर चमकी। उसे लगा शायद उसके लड़के का फ़ोन आ गया।

“तुम्हारे लड़के का फ़ोन नहीं लग रहा था; पर उसका मैसेज आया है। कह रहा है, मेमसाब, मेरी माँ को दस हज़ार रुपये दे दीजिए। जब मैं आऊँगा, तब दे दूँगा। ये लो..पैसे। अपने मोतियाबिंद का इलाज़ करा लेना।”- मैंने कहा।

धनिया की आँखों से आँसू ढुलक गए। उसके विश्वास की जीत हो चुकी थी। उसने आगे बढ़कर मेरे हाथ से पैसे ले लिए  और कहा, “हम जानते थे, हमारा लड़का हमको बिसरा नहीं सकता।”

मैंने गहरी साँस ली और सोचा, “आँखों का मोतियाबिंद तो ठीक हो सकता है; पर मन की आँखों को सब स्पष्ट न दिखे, वही ठीक है।”  u

सम्प्रतिः शिक्षिका व लेखिका, लखनऊ, E-mail- twinkletomarsingh@gmail.com

व्यंग्यः ठंडा ठंडा कूल कूल

  - विनोद साव

गरमियों के दिन आदमी पवन दीवान हो जाए, तो अच्छा है। इससे गरमी कम लगेगी। ऊपर का हिस्सा खुली किताब की तरह और नीचे थोड़ी सी जिल्द। दीवानजी को विशेष सुविधा इसलिए भी थी कि उनके नाम में पवन लगा था। पवन की प्रकृति शीतल रहने की है- ठंडा ठंडा कूल कूल। उन्हें सत्ता और उसकी शक्ति की ज्यादा गरमी कभी नहीं रही।  वे जहाँ  भी रहे, ठंडा- ठंडा, कूल- कूल रहे। कभी कोई अपने गरम मिजाज में उनसे टकरा भी जाता, तो वे अपने अट्टहास का एक ऐसा झोंका छोड़ते थे कि किसी भी आकांक्षी की गरमी एक झटके में दूर हो जाती थी।  जब पहली बार वे मंत्री बने थे, तो उन्हें जेल विभाग मयस्सर हुआ था। तब परिहास करने वाले बताते थे कि वे कह उठते थे “मैं का काम ला करॅव गा, मोला तो जेल मंत्री बना दे हें ... ले अब तू ही मन बताओ रे भई... कोन कोन ला जेल मा डार दौं।’

धमतरी के त्रिभुवन पाण्डे बड़े लिक्खाड़ लेखक हैं - व्यंग्य, उपन्यास, गीत, समीक्षा पर लगातार कुछ न कुछ काम करते रहते हैं।  छत्तीसगढ़ में जितने लेखक कवि हुए हैं, उनकी कृतियों पर सबसे ज्यादा समीक्षा करने का काम त्रिभुवन पाण्डे ने किया है। इस अंचल का कोई भी कवि अपने संग्रह छपवाते ही उसकी सबसे पहली प्रति त्रिभुवन जी को भेंट कर देता है, जैसे कोई उपवासधारी भक्त अपने फलाहार का पहला भाग देवता को अर्पित करता है। इन कृतियों को पाकर त्रिभुवन जी पुलक उठते हैं- “अरे आ गई है यार फिर तीन चार किताबें रिव्यू के लिए”... और वे आशुतोष शिव के समान हो जाते हैं। अपने इन भक्तों पर शीघ्र कृपा कर उनकी कृति पर समीक्षा लिखकर उसे छपवा भी देते हैं। वे दूसरे आलोचकों की तरह नखरैल नहीं है। लेखन की गरमी चाहे जितनी भी हो, त्रिभुवन पाण्डे बर्दाश्त कर लेते हैं: पर गरमी के दिनों की इस झुलसाती गरमियों में पूछे जाने पर “... और आजकल क्या लिख रहे हैं पाण्डेजी?’ वे कंझा उठते हैं कि “यार विनोद ! मत पूछो यार.. मत पूछो...  इस चौवालीस-पैंतालीस के टेंपरेचर में आदमी क्या लिखेगा यार !” जाहिर है कि ऐसी गरमी में जब त्रिभुवन जैसे लिक्खाड़ लेखक हाथ डाल देते हैं, तब दूसरों की क्या बिसात ! हाँ  .. ये अलग बात है कि ए.सी. में बैठकर वातानुकूलित कविताएँ लिखने की विशेषज्ञता कुछ ज्ञानिजन के पास है पर ए.सी. विहीन ऐसे सिद्ध पाठक कहाँ,  जो झुलसती गरमी में कविता का रसास्वादन कर सकें। 

गरमियों के दिन राजनांदगांव के कामरेड लेखक रमेश याज्ञिक दिन में आने वालों का खयाल रखते थे और उन्हें काँच के सुन्दर प्याले में फ्रूट जेली खिलाते थे। घर में बनाई गई फ्रूट जेली, जिसमें कलिंदर, पपीता, अंगूर, केले का मसला हुआ रसदार रूप होता था, जो फ्रिज से निकलकर ग्रहण करने वाले अतिथि के दिमाग को ठंडा- ठंडा, कूल- कूल कर देता था। हाँ... अगर वह दिन बुधवार या शनिवार का हो तो आगंतुक अतिथि के लिए शाम को उसी प्याले में ओल्डमंक की रम होती थी। विन्डो कूलर की मादक बयार, आइस क्यूब में भिगी हुई रम। उस पर पैग बनाने के लिए एक ऐसी मशीन, जो सोडा मिश्रित पानी को इतनी ही मात्रा में गिलास में छोड़ती थी कि उससे एक झागदार पैग तैयार हो जाए। रमेश याज्ञिक इस अंचल के सबसे आधुनिक और उन्मुक्त खयालों वाले लेखक थे। वे कहते थे कि ज्योतिष शास्त्र के हिसाब से मुझे सबसे ज्यादा परेशान बुध और शनि ने किया है इसलिए हर बुध और शनि को मैं भी परेशान करता हूँ - चलिए इसी बात पर हो जाए... चीयर्स.’

ऐसी गरमियों में भी हमारे उत्सवप्रेमी कार्यकर्ता कार्यक्रम आयोजित करने से पीछे नहीं हटते हैं... ; लेकिन मुख्य अतिथियों को इनमें आना- जाना भारी पड़ जाता है। तब ऐसे किसी कार्यक्रम संयोजक को श्यामलाल चतुर्वेदी अपनी बिलसपुरिया बोली में राग लमाते हुए कह उठते हैं “गरमी तौ अड़बड़ पडत हाबय सियान। मार कनपटिया हा तपथें अउ तैं हाँ .. हमला हलाकान करेबर मुख्य अतिथि बनाए हाबस ... मोला नई जानिही कहात होबे फेर मैं पक्का अंताज डरेहौं तोर नीयत ला।” चतुर्वेदीजी छत्तीसगढ़ के विद्वानों में बड़े ठंडे दिमाग के हैं, जिनको सुनकर पालेश्वर जी गरम हो उठते थे।

गरमी का असली पता तो उन सड़कों पर चलता है, जहाँ  कोलतार की धारा फूट उठती है और हाइवे पर बहने लग जाती है। फोरलेन बनने से पहले एक बार रायपुर जाते समय जंजगिरी के पास एक अजीब दृश्य देखने में आया। एक कुत्ते की पूंछ नेशनल-हाइवे में चिपक गई थी। संभवतः वह सड़क को पार करता रहा होगा और किसी वाहन के चक्के में उसकी  पूँछ और पिछली एक टाँग आ गई होगी। वाहन के भारी भरकम चक्के के दबाव में उतना हिस्सा गरमी में बह रही कोलतार में चिपक गया था और पूरा कुत्ता साबुत बचा हुआ था। वह ताकत लगा लगाकर अपने उस चिपके हुए हिस्से को सड़क से मुक्त कराने की कोशिश कर रहा था, पर वह असफल सिद्ध हो रहा था। कहा नहीं जा सकता कि बाद में उसका क्या हुआ। तब पता चला कि गरमी में कुत्ते की मौत या कुत्ते जैसी मौत इस तरह से भी आती है। यह एक भीषण वाकया है ... ठंडा- ठंडा कूल -कूल नहीं। 

 सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग 491001 (छत्तीसगढ़)

लघुकथाः धारणा

 - डॉ. पद्मजा शर्मा

मैं और मेरी देवरानी सुधा खाना खाने के बाद रात को वाकिंग पर जाते हैं। हम घर के सामने वाला चौराहा पार करते हैं। फिर माता जी के मंदिर के सामने से, इंजीनियरिंग हॉस्टल के आगे से होते हुए सरकारी बंगलों के सामने से गुजरते हैं। मेन रोड से होते हुए लौट आते हैं। एक दिन रात को हम चौराहा क्रॉस कर रहे थे। एक मोटर बाइक बहुत तेजी से हमारे सामने से गुजरी ।थोड़ी सी देर बाद फिर वही बाइक फिर गुजरी। मैंने कहा – ‘यह लड़का पगला गया है । इतनी तेज गाड़ी चला रहा है । कभी आ रहा है, कभी जा रहा है। क्या दिखाना चाह रहा है एक उसी के पास गाड़ी है ?'

दूसरे दिन फिर वही गाड़ी हमारे सामने से गुजरी। सुधा ने उस लड़के को सुनाते हुए कहा –‘इन लड़कों के पास गाड़ियाँ आ जाती हैं, दिन भर लिए फिरते हैं। पेट्रोल में पैसा फूँकते हैं, इनका क्या जाता है।’

मैंने कहा –‘इनके एक्सीडेंट होते हैं तब माँ बाप रोते हैं, इनको कोई फर्क नहीं पड़ता है।’

हमारी बात सुनकर, पास से गुजरते  एक आदमी ने कहा –‘युवा पीढ़ी बौरा गई है।’ 

मोटर बाइक वाला लड़का लौटकर आया और हमारे साइड में गाड़ी रोकी और बोला –‘मैम, सॉरी मैं आपको जानता नहीं मगर आपकी बात का जवाब देना चाहता हूँ। आपने मुझे सुनाकर कहा है इसलिए।’

मैंने कहा-‘क्या गलत कहा है ? तुम कल गाड़ी कितनी तेज चला रहे थे।’

वह शांति से बोला –‘मैम, कल मेरे छोटे भाई को अस्थमा का अटैक आया था और पंप खराब हो गया था। यहाँ मैं दवा की दुकान से पंप लेने आया था ।उसकी हालत बहुत खराब थी, इसलिए गाड़ी तेज चला रहा था। आज तो आपने देखा होगा मेरी गाड़ी नॉर्मल थी। मैम एक लड़का गाड़ी तेज चलाता है इससे सारी युवा पीढ़ी को आपने लपेटे में ले लिया। यह जाने बिना कि क्या हुआ होगा। इस तरह सारी युवा पीढ़ी को जज करना तो ठीक नहीं। मैम अपवाद तो सब जगह होते हैं । युवा पीढ़ी आपको निराश नहीं करेगी। सॉरी मैंने आपका समय लिया’ कहकर लड़के ने बाइक स्टार्ट कर ली ।

हम देवरानी जेठानी एक दूसरे का मुँह ताकने लगी। इस दौरान इकट्ठा हुई भीड़ भी छँटने लगी।