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Jun 1, 2024

अनुसंधानः ग्लोबल वार्मिंग नापने की एक नई तकनीक

 - आमोद कारखानीस
आजकल ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के गर्माने की बहुत बातें हो रहीं है। औद्योगीकरण के चलते हवा में कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ी है, जिससे विश्व का औसत तापमान बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत ही धीमी रफ्तार से होने वाली प्रक्रिया है तथा तापमान में बदलाव भी बहुत थोड़ा-थोड़ा करके, एकाध डिग्री सेल्सियस से भी कम, होता है। हालाँकि, इतने छोटे बदलाव से भी कई जगह अलग-अलग असर देखने को मिलते हैं। ये असर क्या हैं, उनके कारण पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहे हैं या आगे क्या हो सकते हैं, यह जानने के लिए दुनिया में कई सारे वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।

इसी प्रयास में वैज्ञानिकों ने यह देखा है कि तापमान वृद्धि का बड़ा असर उत्तरी ध्रुव के बर्फीले प्रदेशों पर हो रहा है। बड़े-बड़े हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ये परिणाम तो प्रत्यक्ष नज़र आते हैं जिन्हें देखना काफी आसान और संभव है। किंतु समुद्र के पानी में जो बदलाव हो रहा है वह जानना काफी मुश्किल है। वैज्ञानिक उन प्रभावों को ढूंढने और मापने के नए-नए तरीके खोजते रहते हैं।

अन्य जगहों के मुकाबले आर्कटिक वृत्त के पास के समंदरों के बारे में इस तरह की जानकारी पाना तो और भी मुश्किल है। यहाँ के समंदर का पानी साल भर काफी ठंडा रहता है। और तो और, जाड़े के मौसम में कई जगह बर्फ जम जाती है। यह हुई ऊपरी हिस्से की बात। जैसे-जैसे हम समंदर की गहराई में जाते हैं, पानी का तापमान और कम होता जाता है। ज़्यादा गहराई में जाने पर कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां पानी साल भर पूरी तरह बर्फ के रूप में जमा होता है और कभी पिघलता नहीं है। इसे समंदर के अंदर का स्थायी तुषार (पर्माफ्रॉस्ट) कहते है। 

वैज्ञानिकों को आशंका थी कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पर्माफ्रॉस्ट पर असर हुआ है और उस के कुछ हिस्से पिघलने लगे हैं। परंतु जहाँ पहुँचना भी मुश्किल है, वहाँ इतनी गहराई में उतरकर कुछ नाप-जोख कर पाना लगभग असंभव है।

हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में छपी एक रिपोर्ट में एक नई तकनीक का ज़िक्र है जिसकी बदौलत अब हमें पर्माफ्रॉस्ट की हालत के बारे में जानकारी मिलना संभव हो गया गया है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का अध्ययन इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि यह बर्फ पिघली तो इसमें कैद कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन वगैरह वातावरण में पहुँचकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा देंगी।

तो क्या है यह तकनीक? हम लोग केबल टीवी से तो काफी परिचित है। अपने घर के टीवी तक लगाए गए केबल के ज़रिए हम बहुत सारे टीवी चैनल देख पाते हैं। सिर्फ टीवी ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संचार संकेतों के प्रेषण के लिए केबल डाली जाती है, जैसे टेलीफोन, टेलीग्राफ, इंटरनेट के लिए। जिस तरह हमारे शहरों में सड़कों के किनारे ज़मीन में केबल डाली जाती है, उसी तरह दो शहरों के बीच या दो देशों के बीच भी केबल रहती है। अलबत्ता यह केबल थोड़ी अलग किस्म की होती है। उनमें तार की जगह प्रकाशीय रेशों (ऑप्टिकल फाइबर) के बहुत से तंतु होते हैं। दो देश ज़मीन से जुड़े हों तो उनके बीच इस तरह की केबल डाली जा सकती है। परंतु यदि हमें इंग्लैंड और अमरीका के बीच केबल डालनी है तो? उनके बीच तो अटलांटिक महासागर है। ये केबल अब समंदर के पानी के अंदर (अंडर-सी) बिछानी पड़ेगी। 

इस तरह की अंडर-सी केबल पहली बार 1858 में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच इंग्लिश चैनल के आर-पार डाली गई थी। उस समय यह केबल टेलीग्राफ के लिए इस्तेमाल की जाती थी। वह काफी प्राथमिक स्तर की थी। अब इनमें काफी सुधार हुए हैं। दुनिया के सभी महासागरों में इस तरह की केबल डाली जा चुकी हैं। आजकल दुनिया का अधिकतर दूरसंचार इसी तरह के केबल द्वारा होता है।

अब स्कूल में पढ़े कुछ विज्ञान को याद करते हैं। हम जानते हैं कि प्रकाश किरण एक सीधी रेखा में चलती है, पर माध्यम बदलने पर यह अपनी दिशा बदल लेती है। इसे हम अपवर्तन कहते हैं। माध्यम का घनत्व बदलने से भी प्रकाश किरणें दिशा बदलती हैं। इसका सामान्य उदाहरण मरीचिका है - यह प्रभाव इस कारण होता है कि गर्मी के दिनों में ज़मीन के पास की हवा अधिक गरम होने की वजह से विरल (कम घनत्व वाली) होती है। 

सैंडिया नेशनल लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने ध्यान दिया कि आर्कटिक वृत्त के समुद्र के तले में कई केबल डली हुई हैं। उसमें से कुछ अलास्का के ब्यूफोर्ट सागर के तले पर मौजूद पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र से गुज़र रही है। उन्होंने अंदाज़ लगाया कि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो दबाव पड़ा होगा उससे अंदर के तंतुओं पर कुछ असर हुआ होगा। अत: उस जगह हमें प्रकाश किरण का अपवर्तन और विक्षेपण (यानी बिखराव) दिखाई देगा। उन्होंने केबल के असंख्य तंतुओं में से एक ऐसा तंतु चुना जिसका उपयोग नहीं हो रहा था। उसमें एक लेज़र बीम छोड़ा और यह नापने की कोशिश की कि बीम का कहाँ-कहाँ और कैसे अपवर्तन तथा विक्षेपण होता है। चूंकि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो असर हुआ वह बहुत सूक्ष्म था; लेज़र बीम में होने वाला बदलाव भी न के बराबर रहा। परंतु चार साल के अथक प्रयासों के बाद वैज्ञानिक अपने मकसद में कामयाब रहे। अब अलास्का के समुद्र के अंडर-सी पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के बारे में हमें कई सारी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली है। अब यह तरीका अन्य जगह भी लागू किया जा सकता है। 

केबल पर पड़ने वाला दबाव, केबल का तापमान आदि कारणों से प्रकाश के संचार पर असर होता है। अत: इस अनुसंधान से विकसित की गई तकनीक की बदौलत जहाँ-जहाँ भी अंडर-सी केबल हैं वहाँ के समुद्र तल के बारे में नई जानकारी पाना संभव हो सकता है। 

1 comment:

Anonymous said...

ज्ञानवर्धक आलेख॥ सुदर्शन रत्नाकर