- रश्मि विभा त्रिपाठी
1
अब ना वो मेल रहा
जिसको देखो वो
अब दिल से खेल रहा।
2
राहें आसान नहीं
हार मगर माने
वो तो इंसान नहीं।
3
माँ मेरा सरमाया
मैं हूँ धूप कड़ी
वो एक घना साया।
4
आँखों में सच्चाई
बस इसकी मैंने
हर बार सजा पाई।
5
कैसा ये आलम है
रिश्ते टूट रहे
तन्हाई का गम है।
6
इंसान हकीकत में
वो ही होता जो
दे संग मुसीबत में।
7
मेला पल-छिन का है
हँस लो, गा लो तुम
जीवन दो दिन का है।
8
क्या बात हुई जाने
मेरे अपने ही
बन बैठे बेगाने।
9
दिन जो भी पीहर के
जी लेती बेटी
उनमें ही जीभर के।
10
आती खुशबू प्यारी
जब- जब मैं खोलूँ
यादों की अलमारी।
11
ना दुख मन में पालो
बीती बातों पे
अब तुम मिट्टी डालो।
12
कैसे हालात हुए
अरसा बीत गया
अपनों से बात हुए।
13
दुर्दिन जब आते हैं
कौन हमारा है
हमको दिखलाते हैं।
14
गर्मी की धूप हुए
रिश्ते- नाते तो
कैसे विद्रूप हुए।
15
कैसे दिन आए हैं
अपना ना कोई
अपने बस साए हैं।
16
दो दिन का मेल नहीं
प्यार निभा पाना
बच्चों का खेल नहीं।
17
ना देख वसीयत को
तू बूढ़ी माँ की
बस देख तबीयत को।
18
आती है रोज सबा
मुझसे ये कहने
ज़िंदा रखना जज़्बा।
19
जो उसका दावा था
साथ निभाने का
वो एक छलावा था।
20
इन सारे रिश्तों में
हर पल दर्द मिला
हमको तो किश्तों में।
21
आँधी के तिनके थे?
जाने किधर गए
जो दिन बचपन के थे।
22
अब तो वो गाँव मिले
मेरे सपनों का
चल- चलके पाँव छिले।
23
सब बंद झरोखे हैं
घर- बाहर देखो
धोखे ही धोखे हैं।
24
माटी के घर कच्चे
और न दिखते हैं
इंसाँ मन के सच्चे।
3 comments:
उदन्ती में मेरे माहिया को स्थान देने के लिए सम्पादक आदरणीया रत्ना वर्मा जी का हार्दिक आभार।
सादर
बहुत सुंदर माहिया। हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
बहुत सुंदर माहिया...हार्दिक बधाई।
कृष्णा वर्मा
Post a Comment