हमें इस बात पर शक्ति केन्द्रित करनी होगी कि गाँव स्वावलम्बी बनें और अपने उपयोग के लिये अपना माल स्वयं तैयार करें। अगर कुटीर उद्योग का यह स्वरूप कायम रखा जाए तो ग्रामीणों को आधुनिक यन्त्रों और औजारों को काम में लेने के बारे में मेरा कोई ऐतराज नहीं...। ‘मैं यंत्रों का विरोधी नहीं, मैं तो उनके पागलपन का विरोधी हूँ। मानव के लिये उस यंत्र का क्या काम जिससे हजार-हजार व्यक्ति बेकार होकर भूख से सड़कों पर मारे-मारे फिरे।’
-महात्मा गाँधीJul 14, 2019
क्यों नहीं बदली गाँव की तस्वीर
क्यों नहीं बदली गाँव की तस्वीर
– डॉ. रत्ना वर्मा
गाँव की जो तस्वीर अब तक मेरे मन में है, उसमें मैं अपने गाँव को याद करती हूँ, तो एक खुशहाल गाँव की जो तस्वीर उभरती है, वह कुछ इस तरह है -खपरैल वाले कच्चे गोबर
से लिपे साफ सुथरे घर, कच्ची सड़कें, कंधे पर हल थामे खेतों की ओर जाते किसान। बैलगाडिय़ों की रुनझुन करती आवाज़
लहलहाते धान के खेत, खेतों में काम करती हुई लोकगीत गाती महिलाएँ। घरों में ढेकी, जाता में अनाज कूटती, पीसती महिलाएँ। तालाब, कुएँ, गाय, बैल, तीज त्योहार, मेले मढ़ई और हँसते मुस्कराते परिवार के
साथ जि़न्दगी बिताते लोग। एक गाँव में हर तरह के काम करने वाले होग होते थे, उन्हें जीवन की ज़रूरत पूरा करने के लिए
कहीं बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं होती थी। हर काम के लिए अलग अलग कारीगर -बुनकर
कपड़ा बनाते थे, बढ़ई लकड़ी के सामान, चर्मकार जूते, लुहार लोहे के औजार, कुम्हार मिट्टी के र्बतन, बहुत लम्बी लिस्ट है ऐसे दृश्यों की।
अब आज की बात करें, तो
ऊपर जो भी लिखा है, उनमें से एक भी चीज़ आज के गाँव में दिखाई नहीं देती। टेक्नोलॉजी के इस युग
में यह सब दिखाई भी नहीं देगा। किसानों की बात करें तो अनाज बोआई से लेकर कटाई और
कूटने- पीसने तक सब कामों में मशीनीकरण हो गया है। यानी हाथ से किए जाने वाले सभी
काम मशीन से होने लगे हैं। काम भले जल्दी हो रहे हैं, पर आदमी के हाथ खाली हैं। छोटा किसान किसी
तरह आपने खाने के लिए अनाज उगा रहा है और यदि कभी अधिक पैदावर की आस में कर्ज लेकर
आगे बढऩे की कोशिश करता है, तो असफल होता है। फलस्वरूप आज किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह
स्थिति हमारे देश के लिए सबसे शर्मनाक है। अन्न पैदावर में अव्वल रहने वाले देश के
किसान मरने को मजबूर हैं। सरकार यदि इसे गंभीरता से नहीं लेती, तो उनसे और क्या उम्मीद करें...
किसानों के साथ साथ गाँव के अन्य रोजगार
भी समाप्त हो चुके हैं। न बुनकर हैं, न बढ़ई, न लुहार, न कुम्हार, न चर्मकार। परिणाम यह है कि लोग काम की तलाश में शहरों की ओर भाग चुके हैं।
पलायन का यह सिलसिला आज भी जारी ही है। कुछ ऐसे भी गाँव मिल जाएँगे, जहाँ केवल बूढ़े बचे हैं, कहीं वे भी नहीं। गाँव में शिक्षा के स्तर
को भी बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। जब शहरों में पढऩे वाले बच्चे उच्च शिक्षा
प्राप्त कर बेहतर नौकरी पा सकते हैं, तो फिर गाँव के बच्चे वहाँ तक क्यों नहीं पहुँच पाते। क्या इसके लिए हमारी
शिक्षा व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है? ग्रामीण और शहरी भारत के बीच बढ़ती दूरी ने दोनों के बीच एक बड़ी खाई बना दी
है। देखने में यह आया है कि गाँव में रहने वाले सम्पन्न परिवार अच्छी शिक्षा के
लिए अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए शहर भेज देते हैं, उनके बच्चे उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर
लेते हैं, फिर अपने गाँव को भूल
जाते हैं; क्योंकि उनके लिए गाँव
में कुछ करने को होता नहीं। अफसोस! हम ऐसे अवसर पैदा ही नहीं कर पाए कि गाँव का
पढ़ा-लिखा बच्चा गाँव में रहते हुए अपने गाँव की तस्वीर सुधारने की दिशा में कुछ
सोचे।
1991 के उदारीकरण के बाद ग्रामीण और शहरी
भारत के बीच बड़े पैमाने पर एक असंतुलन पैदा हुआ है। उदारीकरण के बाद नौकरियों के
जो अवसर उपलब्ध कराए गए, उसका फायदा ग्रामीण भारत को नहीं मिला, जिसका एक मुख्य कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था ही है। आँकड़ें बताते हैं कि आईटी
सेक्टर में गाँव से पढ़ाई करके निकले बहुत कम युवा कार्यरत है, क्योंकि खऱाब शिक्षा व्यवस्था के कारण
उनके पास पर्याप्त स्किल नहीं है, जबकि शहरों से पढ़कर निकले छात्रों ने आईटी क्षेत्र में हुई क्रांति का भरपूर
फायदा उठाया और वे गाँव के छात्रों से बहुत आगे निकल गए। यदि इस समस्या की ओर
आरम्भ से ही ध्यान दिया जाता तो आज शहर और गाँव के बीच बढ़ती यह खाई कम हो गई होती, जिसे हम आजादी के इतने बरसों बाद भी नहीं कर
पाए।
दरअसल सरकारी स्कूल और निजी स्कूलों में
पढ़ाई के तरीकों में भेदभाव, शिक्षकों की कमी, सुविधाओं का अभाव तथा उनके पढ़ाने के तरीकों में अंतर ने दोनों के बीच बहुत
बड़ा पहाड़ खड़ा कर दिया है। अत: जब तक शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं होगा, हम तब तक किसी बदलाव की उम्मीद नहीं कर
सकते। शिक्षा में सुधार के साथ- साथ गाँव में बिजली पानी, सड़क, परिवहन के साधन, रोजगार व अन्य दैनिक जीवन की सुविधाएँ
उपलब्ध हों, तो क्यों कोई अपने गाँव का घर छोड़कर जाना चाहेगा। आगे बढऩे की चाह हर इंसान
में होती है। जब देश के प्रत्येक गाँव का हर व्यक्ति सुखी व सम्पन्न होगा, तभी तो हम खुशहाल देश के खुशहाल नागरिक
कहलाएँगे।
अमीरी और गरीबी की खाई जिस तरह बढ़ती चली
जा रही है, उसी तरह गाँव और शहर
के बीच भी दूरी बढ़ती जा रही है, इसे पाटना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। गाँधी जी के ग्राम स्वराज की बातें आज
भाषणों और किताबों में छापने के लिए रह गईं हैं, इसे धरातल पर लागू करने के बारे में कोई
नहीं सोच रहा है। राजनीति में भी ग्रामीण विकास की बात सिर्फ वोट बटोरने तक सीमित
है। हमारे देश के कर्ता-धर्ता जब तक इस जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होंगे, तब तक गाँव की तस्वीर बदलने की बात करना
खय़ाली पुलाव पकाने की तरह ही होगा। रोजग़ार को गाँव तक लाएँगे, तो पलायन भी रुकेगा और शहरों में बढ़ती
भीड़ का दबाव भी कम होगा। बड़े शहरों को आवास, पानी, बिजली के अभाव की नारकीय स्थिति से बचाने
के लिए यह करना ही होगा।
विरासत, संस्कृति और अनुभवों का महासागर है गाँव
विरासत, संस्कृति और अनुभवों
का महासागर है गाँव
अरुण तिवारी
भारत में शायद ही कोई गाँव हो, जिसका किसी न किसी नदी से सांस्कृतिक
रिश्ता न हो। हर नदी के अपने कथानक हैं; गीत संगीत हैं;
लोकोत्सव हैं।
नदी में डुबकी लगाते, राफ्टिंग-नौका विहार करते, मछलियों को अठखेलियाँ करते देखते हुए
घंटों निहारते हमें जो अनुभूति होती है, वह एक ऐसा सहायक कारक है,
जो किसी को भी
नदियों की ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है; किंतु इस पूरे
आकर्षण को नदी, गाँव और नगर के बीच के सम्मानजनक रिश्ते
की पर्यटक गतिविधि के रूप में विकसित करने के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी होंगे।
दिलचस्प है कि हमारा घूमना-घुमाना आज दुनिया
के देशों को सबसे अधिक विदेशी मुद्रा कमाकर देने वाला उद्योग बन गया है। विश्व
आर्थिक फोरम का निष्कर्ष है कि भारतीय पर्यटन उद्योग में भारत के सकल घरेलू उत्पाद
में 25 फीसदी तक योगदान
करने की क्षमता है; वह भी गाँवों के भरोसे। फोरम मानता है
कि भारत के गाँव विरासत, संस्कृति और अनुभवों के ऐसे महासागर हैं,
जिन तक पर्यटकों
की पहुँच अभी शेष है। गाँव-आधारित प्रभावी
पर्यटन को गति देकर, भारत वर्ष 2027 तक प्रतिवर्ष 150 लाख अतिरिक्त पर्यटकों को आकर्षित करने की क्षमता क्षमता हासिल कर सकता है। इस
तरह वह 25 अरब अमेरिकी डॉलर
की अतिरिक्त विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है। इसके लिए भारत को अपने 60 हजार गाँवों में कम से कम 1 लाख उद्यमों को गतिशीलता प्रदान करनी
होगी। यह भारत में ग्रामीण पर्यटन के विकास की पूर्णतया वाणिज्यिक दृष्टि है।
भारतीय दृष्टि भिन्न है।
भ्रमण की भारतीय दृष्टि
भ्रमण तो कई जीव करते हैं, किंतु मानव ने अपने भ्रमण का उपयोग अपने
अंतर्मन और अपने बाह्य जगत के विकास के लिए किया। बाह्य जगत का विकास यानी सभ्यता
का विकास और अंतर्मन का विकास यानी सांस्कृतिक विकास। इसीलिए मानव अन्य जीवों की
तुलना में अधिक जिज्ञासु, अधिक सांस्कृतिक,
अधिक हुनरमंद और
अधिक विचारवान् हो सका; अपनी रचनाओं का विशाल संसार गढ़ सका।
स्पष्ट है कि भ्रमण, मनुष्य के लिए मूल रूप से सभ्यता और
संस्कृति दोनों को पुष्ट करने का माध्यम रहा है। भ्रमण की भारतीय दृष्टि का मूल
यही है। इसी दृष्टि को सामने रखकर भारतीय मनीषियों ने विभिन्न उद्देश्यों के आधार
पर पर भ्रमण को पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन के रूप में वर्गीकृत
किया है और तीनों को अलग-अलग वर्गों के
लिए सीमित किया है।
भ्रमण के इस वर्गीकरण तथा दृष्टि को यदि हम बचा कर रखें तो बेहतर होगा;
वरना हमारे गाँवों
के भ्रमण में जैसे ही पूर्णतया वाणिज्यिक दृष्टि का प्रवेश होगा,
हमारा भ्रमण
तात्कालिक आर्थिक लाभ का माध्यम तो बन जाएगा किंतु भारतीय गाँवों को लंबे समय तक
गाँव के रूप-स्वरूप में बचा
रखना असंभव हो जाएगा। भारतीय गाँवों के बचे-खुचे रूप-स्वरूप के पूरी तरह लोप का मतलब होगा,
भारत की
सांस्कृतिक इकाइयों का लोप हो जाना। सोचिए कि क्या यह उचित होगा?
तीर्थ भाव से हो ग्राम्य पर्यटन का विकास
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के गाँव महज समाजिक इकाइयाँ न होकर,
पूर्णतया
सांस्कृतिक इकाइयाँ हैं। हमारे गाँवों की बुनियाद सुविधा नहीं,
रिश्तों की नींव
पर रखी गई है। भारतीय गाँवों में मौजूद कला, शिल्प, मेले,
पर्व आदि कोई
उद्यम नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है। भारत का बहुसंख्यक आज भी गाँव में ही बसता है; इसलिए आज भी कहा जाता है कि यदि भारत को जानना हो तो भारत
के गाँव को जानना चाहिए। रिश्ते-नाते,
संस्कृतिक-धरोहर को संजोकर रखने के कारण भारत के 60 हजार गाँव अभी भी तीर्थ ही हैं।
तीर्थाटन-तीर्थयात्रियों
से सादगी, संयम, श्रद्धा और अनुशासन की माँग करता है।
तीर्थयात्री से लोभ-लालच,
छल-कपट की अपेक्षा नहीं की जाती। भारतीय
गाँवों में पर्यटन और पर्यटकों के रूझान का विकास किसी भाव और अपेक्षा के साथ करना
चाहिए। नदियाँ इस भाव को पुष्ट करने का सर्वाधिक सुलभ ,
सुगम्य और प्रेरक
माध्यम है और आगे भी बनी रह सकती है। भारत की नदियाँ आज भी अपनी यात्रा की ज़्यादातर
दूरी ग्रामीण इलाकों से गुज़रते हुए तय करती हैं; नदियाँ आज भी
भारतीय संस्कृति व सभ्यता की सर्वप्रिय प्रवाह हैं।
नदी पर सवार संभावना
गौर कीजिए कि भारत नदियों का देश है। सिंधु, झेलम,
चिनाब,
रावी,
सतलुज,
व्यास,
मेघना,
गंगा,
गोदावरी,
कृष्णा,
कावेरी,
नर्मदा,
ब्रह्मपुत्र,
तुंगभद्रा,
वैगई,
महानदी,
पेन्नर,
पेरियार,
कुवम,
अड्यार,
मांडवी,
मूसी,
मीठी,
माही,
वेदवती और
सवर्णमुखी; गिनती गिनते जाइए कि भारत में नदियाँ ही नदियाँ हैं। मरूभूमि होने के बावजूद राजस्थान
50 से अधिक नदियों का प्रदेश है। राजस्थान
के चुरू और बीकानेर को छोड़कर भारत में शायद कोई जिला ऐसा हो ,जहाँ नदी न हो। भारत के हर प्रखंड के रिकॉर्ड में आपको कोई
न कोई छोटी-बड़ी नदी लिखी मिल
जाएगी। भारत में शायद ही कोई गाँव है, जिसका किसी न किसी नदी से सांस्कृतिक
रिश्ता न हो। मुंडन से लेकर मृत्यु तक; स्नान से लेकर पूजन,
पान,
दान तक;
पर्व परिक्रमा से
लेकर मेले तक, संन्यास, शिष्यत्व से लेकर
कल्पवास तक; सभी कुछ नदी के किनारे। हर नदी के अपने
कथानक हैं; गीत-संगीत हैं;
लोकोत्सव हैं।
भैया-दूज,
गंगा दशहरा,
छठ पूजा,
मकर संक्राति
पूरी तरह नदी पर्व हैं।
गंगा के किनारे वर्ष में 21 बार स्नान पर्व
होता है। गंगा, शिप्रा और गोदावरी के किनारे लगने वाले
कुंभ में करोड़ों लोगों को जुटते आपने देखे ही होंगे। 14 देवताओं को सैयद नदी में स्नान कराने के कारण खारची पूजा (त्रिपुरा) तथा मूर्ति विसर्जन के कारण गणेश चतुर्थी,
दुर्गा पूजा,
विश्वकर्मा पूजा
आदि का नदियों से रिश्ता है। नदियाँ योग, ध्यान, तप,
पूजन,
चिंतन,
मनन और आनंद की
अनुभूति की केन्द्र हैं ही। नदी में डुबकी लगाते, राफ्टिंग-नौका विहार करते,
मछलियों को
अठखेलियाँ करते देखते हुए घंटों निहारते हमें जो अनुभूति होती है,
वह एक ऐसा सहायक
कारक है, जो किसी को भी नदियों की ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त
है। किंतु इस पूरे आकर्षण को नदी, गाँव और नगर के बीच के सम्मानजनक रिश्ते
की पर्यटक गतिविधि के रूप में विकसित करने के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी होंगे।
जरूरी कदम
- नदी केन्द्रित ग्राम्य पर्यटन को विकसित करने के लिए नदियों को
अविरल-निर्मल तथा गाँव
को स्वच्छ-सुंदर बनाना सबसे
पहली ज़रूरत होगी। एशिया के सबसे स्वच्छ गाँव का दर्जा प्राप्त होने के कारण ही
मेघालय का गाँव मावलिन्नांग आज पर्यटन का नया केन्द्र बन गया है।
- नदी-ग्राम्य पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए
नदियों को उनकी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करना शुरू करना होगा;
जैसे सबसे छोटा
आबाद नदी द्वीप- उमानंद,
भारत का सबसे
पहला नदी द्वीप जिला- माजुली,
स्वच्छ नदी- चंबल, भारत का सबसे
वेगवान प्रवाह- ब्रह्मपुत्र,
सबसे पवित्र
प्रवाह- गंगा,
एक ऐसी नदी जिसकी
परिक्रमा की जाती है- नर्मदा,
ऐसी नदी घाटी
जिसके नाम पर सभ्यता का नाम पड़ा- सिंधु नदी घाटी,
नदियाँ जिन्हें स्थानीय समुदायों ने पुनर्जीवित किया- अरवरी, कालीबेईं,
गाडगंगा।
- सच पूछो तो भारत
की प्रत्येक नदी की अपनी भू-सांस्कृतिक
विविधता, भूमिका और उससे जुड़े लोक कथानक,
आयोजन व उत्सव
हैं। नुक्कड़ नाटक, नृत्य-नाट्य प्रस्तुति, नदी संवाद,
नदी यात्राओं के
आदि के जरिए आगंतुकों को इन सभी से परिचित कराना चाहिए। गंगा,
ब्रह्मपुत्र,
कृष्णा,
कावेरी,
गोदावरी,
नर्मदा छह मुख्य नदियों को लेकर इंदिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केंद्र ने यह शुरुआत की है। इससे न सिर्फ नदियों के प्रति चेतना,
जन-जुड़ाव व दायित्वबोध बढ़ेगा,
बल्कि नदी-आधारित ग्रामीण पर्यटन को अधिक रुचिकर
बनाने में भी मदद मिलेगी।
- नदी पर्यटन का
वास्तविक लाभ गाँवों को तभी मिलेगा, जब नदी पर्वों-मेलों के नियोजन, संचालन और प्रबंधन में स्थानीय ग्रामीण
समुदाय की सहभागिता बढ़े। इसके लिए स्थानीय गाँववासियों को जिम्मेदार भूमिका में
आने के लिए प्रेरित, प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करना जरूरी
होगा।
- केरल ने ग्राम्य
जीवन के अनुभवों से रूबरू कराने को अपनी पर्यटन गतिविधियों से जोड़ा है। नदी
आयोजनों को भी स्थानीय ग्राम्य अनुभवों, कलाओं, आस्थाओं आदि से रूबरू कराने वाली गतिविधियों से जोड़ा जाना
चाहिए। स्थानीय खेल-कूद,
लोकोत्सव तथा
परंपरागत कला-कारीगरी-हुनर प्रतियोगिताओं के आयोजन तथा
ग्रामीण खेत-खलिहानों,
घरों के भ्रमण
इसमें सहायक होंगे।
- उत्तर प्रदेश के
जिला गाजीपुर में गंगा किनारे स्थित गाँव गहमर एशिया का सबसे बड़ा गाँव भी है और
फौजियों का मशहूर गाँव भी। फौज में भर्ती होना, यहाँ एक परंपरा
जैसा है। नदियों किनारे बसे अनेकानेक गाँव ऐसी अनेकानेक खासियत रखते हैं। नदी
किनारे के ऐसे गाँव की खूबियों से लोगों को रूबरू होना अपने आप में एक दिलचस्प
अनुभव नहीं होगा? नदी-गाँव पर्यटन विकास की दृष्टि से यह एक आकर्षक पर्यटन विषय
हो सकता है। इसे नदी-गाँव यात्रा के
रूप में अंजाम दिया जा सकता है।
- भारत की अनेकानेक
हस्तियों, विधाओं का जन्म गाँवों में ही हुआ है। माउंट एवरेस्ट फतह
करने वाली प्रथम भारतीय पर्वतारोही बछेन्द्री पाल का गाँव नाकुरी,
मिसाइल मैन
अब्दुल कलाम का गाँव रामेश्वरम, तुलसी-कबीर-रहीम-प्रेमचंद के गाँव,
कलारीपयट्टु
युद्धकला का गाँव, पहलवानों का गाँव,
प्राकृतिक खेती
का गाँव, मुकदमामुक्त-सद्भावयुक्त गाँव
आदि। ऐसी खूबियों वाले गाँवों के ग्राम्य पर्यटन विकास के प्रयास गाँव-देश का हित ही करेंगे।
- 'अतुल्य नदी- अतुल्य गाँव’ के इस प्रस्तावित नारे के आधार पर भी
पर्यटन विकास के बारे में विचार करना चाहिए। इसके जरिए नगरवासियों की गाँवों के
प्रति समझ भी बढ़ेगी, सम्मान भी और पर्यटन भी। ऐसे गाँव
प्रेरक भूमिका में आ जाएँगे; साथ ही उनकी खूबियों का हमारे
व्यक्तित्व व नागरिकता विकास में बेहतर योगदान हो सकेगा। हाँ,
ऐसे गाँवों को
उनकी खूबियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए
तैयार रखने की व्यवस्थापरक जिम्मेदारी स्थानीय पंचायती राज संस्थानों तथा प्रशासन
को लेनी ही होगी। पर्यटन, संस्कृति तथा पंचायती राज विभाग मिलकर
ऐसे गाँव के खूबी-विशेष आधारित
विकास के लिए विशेष आर्थिक प्रावधान करें तो काम आसान हो जाएगा। इसके बहुआयामी लाभ
होंगे।
- नदी आयोजनों में
होटल और बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों
में बनी वस्तुओं से अटे पड़े बाजार की जगह स्थानीय मानव संसाधन,
परिवहन,
ग्रामीण आवास,
स्थानीय परंपरागत
खाद्य-व्यंजनों के
उपयोग को प्राथमिकता देने की नीति व योजना पर काम करना चाहिए। इसके लिए जहाँ
गाँवों को इस तरह के उपयोग से जुड़ी सावधानियों के प्रति प्रशिक्षित करने की जरूरत
होगी, वहीं बाहरी पर्यटकों में नैतिकता,
अनुशासन,
जिज्ञासु व
तीर्थाटन भाव का विकास भी जरूरी होगा।
- कुंभ अपने मौलिक
स्वरूप में सिर्फ स्नान-पर्व न होकर,
एक मंथन पर्व था।
कुंभ एक ऐसा अवसर होता था, जब ऋषि, अपने शोध,
सिद्धांत व आविष्कारों
को धर्म -समाज के समक्ष
प्रस्तुत करते थे। धर्मसमाज उन पर मंथन करता था। समाज हितैषी शोध,
सिद्धांत व
अविष्कारों को अपनाने के लिए समाज को प्रेरित व शिक्षित करने का काम धर्म गुरुओं
का था। राजसत्ता तथा कल्पवासियों के माध्यम से यह ज्ञान,
समाज तक पहुँचता
था। समाज अपनी पारिवारिक-सामुदायिक
समस्याओं के हल भी कल्पवास के दौरान पाता था।
- एक कालखण्ड ऐसा
भी आया कि जब कुंभ, समाज की अपनी कलात्मक विधाओं तथा
कारीगरी के उत्कर्ष उत्पादों की प्रदर्शनी का अवसर बन गया। कुंभ को पुन: सामयिक मसलों पर राज-समाज-संतों के साझे मंथन तथा वैज्ञानिक खोजों,
उत्कर्ष कारीगरी
व पारम्परिक कलात्मक विधाओं के प्रदर्शन का अवसर बनाना चाहिए। इससे गाँव-नदी पर्यटन के नजरिए को ज्यादा संजीदा
पर्यटक मिलना तो सुनिश्चित होगा ही; कुंभ देश-दुनिया को दिशा देने वाला एक ऐसा आयोजन बन जाएगा,
जिसमें हर कोई
आना चाहे।
- नदियों के उद्गम
से लेकर संगम तक तीर्थ क्षेत्र, पूजा-स्थली, तपस्थली, वनस्थली,
धर्मशाला और
अध्ययनशालाओं के रूप में ढांचागत व्यवस्था पहले से मौजूद हैं। भारत में कितने ही
गाँव हैं, जहाँ कितने ही घर, कितनी ही हवेलियाँ वीरान पड़ी हैं। नदी-गाँव पर्यटन में इनके उपयोग की संभावना
तलाशना श्रेयस्कर होगा।
- हाँ,
इतनी सावधानी
अवश्य रखनी होगी कि नदी-गाँव आधारित कोई
भी पर्यटन गतिविधि,
उपयोग किए गए
संसाधन तथा प्रयोग किए गए तरीके सामाजिक सौहार्द, ग्रामीण खूबियों
और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले न हों। सुनिश्चित करना होगा कि पर्यटन गाँव व
नदी संसाधनों की लूट का माध्यम न बनने पाएँ। गाँव-नदी पर्यटन को नगरीय पर्यटन की तुलना में कम खर्चीला बनाने
की व्यवस्थात्मक पहल भी जरूरी होगी।
कहना न होगा कि चाहत चाहे तीर्थाटन की हो अथवा पर्यटन की;
भारत की नदियों
और गाँवों में इनके उद्देश्यों की पूर्ति की अपार सम्भावना है। इस सम्भावना के
विकास का सबसे बड़ा लाभ गाँवों के गाँव तथा नदियों के नदियाँ बने रहने के रूप में
सामने आएगा। लोग जमीनी-हकीकत से रूबरू
हो सकेंगे। अपनी जड़ों को जानने की चाहत का विकास होगा। ग्रामीण भारत के प्रति सबसे
पहले स्वयं हम भारतवासियों की समझ बेहतर होगी। इससे दूसरे देशों की तुलना में अपने
देश को देखने का हमारा नजरिया बदलेगा। दुनिया भी जान सकेगी कि भारत एक बेहतर
सभ्यता और संस्कृति से युक्त देश है। इसीसे भारत की विकास नीतियों में गाँव और
प्रकृति को बेहतर स्थान दे सकने वाली कुछ और गलियाँ खुल जाएँगी। नदियों के सुख-दुख के साथ जनजुड़ाव का चुंबक कुछ और
प्रभावी होकर सामने आएगा। भारत के अलग-अलग भू-सांस्कृतिक इलाकों के लिए स्थानीय विकास के अलग-अलग मॉडल विकसित करने की सूत्रमाला भी इसी रास्ते से हाथ
में लगेगी। कितना अच्छा होगा यह सब! (इंडिया वॉटर
पोर्टल से)
(लेखक वरिष्ठ
पत्रकार हैं। ग्रामीण विकास और सामाजिक सरोकार के विषयों पर लिखते रहते हैं।)
Subscribe to:
Posts (Atom)