अहिंसक खेती
-रंजन
-रंजन
प्रस्तुत आलेख मासिक पत्रिका ‘जीवन साहित्य’
वर्ष-14,
अंक-1,
जनवरी-1953 से साभार लिया गया है। इसमें लेखक ने अहिंसक खेती क्या
होती है यह बताने का प्रयास किया है। यद्यपि आज अत्याधुनिक औजारों और मशीनों ने
खेती के मायने ही बदल दिए हैं। ऐसे में इस लेख को यहाँ प्रकाशित करने का मात्र एक
ही आशय है कि हम जान सकें कि तब किसान के लिए उसकी मिट्टी और उसमें उपजाने वाले
अन्न का क्या महत्त्व था।
जिन दिनों जमीन तलाशी के चक्कर में एक
प्रांत से दूसरे प्रांत की धूल छन रहा था उन्हीं दिनों मेरे एक मित्र का पत्र मेरे
पास आया जिसमें उसने सर्वोदयी खेती के स्पष्टीकरण की बात पूछी थी उस समय खेती के
व्यवहार पक्ष पर अपना मत देना समुद्र के किनारे खड़े होकर तल की गहराई नापने के
समान था।
फिर भी अहिंसक खेती के विषय में मैं
जितना सोच सकता था सोचा था। आज जब स्वयं
कभी हल पर हाथ रख कर खेत को जोतता हूँ और कभी-कभी शुद्ध व्यवस्था की दृष्टि से
केवल दूसरे मजदूरों से काम लेता हूँ तो विचारों में अधिक प्रभाव स्पष्टता और सफाई
आती जाती है।
और अब तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि
कथित रूप से एक बात पर विचार करना एक चीज है और उसका अंग होकर विचार करना सर्वदा
भिन्न चीज है फिर भी विचार तो मुझे भी करना ही है और मेरे मित्रों एवं साथियों को
भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि देश की भावी समृद्धि एवं विकास में खेती का सर्वोत्तम
स्थान है अपने इस नव निर्माण की कल्पना बिना सुंदर और अहिंसक खेती की पूरी नहीं उतर
सकती इसलिए पंचवर्षीय योजना एवं अन्य
सरकारी और गैर सरकारी कामों में खेती को प्रथम स्थान दिया गया है। बड़े-बड़े बांध और विद्युत योजनाएँ इस कृषि कार्य
की ही पूरक हैं पर आज यह स्थान केवल कागजी योजना तक ही सीमित है सच्चे अर्थ में
देश में अहिंसक खेती की बुनियाद आज भी नहीं पड़ सकी है।
इस नवयुगी खेती की सफलता का रहस्य दो
बातों में है पहला योजनाबद्ध भूमि की अहिंसक पुर्नव्यवस्था दूसरा खेती का आधुनिक
एवं वैज्ञानिक स्वरूप इन दोनों बातों का प्रधान प्रेरणा केंद्र है भूमि के साथ
किसान की आत्मीयता,
ममत्व,
कानूनी शब्दों में स्वामित्व। बिना इस स्वामित्व के खेती
में ना तो प्रेरणा का संचार हो सकता है और न ही उसे अहिंसक खेती माना ही जा सकता
है इसलिए किसान और खेत के नए संबंध के विषय में विनोबा जी ने जो आंदोलन भूमिदान के
नाम से चलाया है वह वास्तव में अहिंसक खेती की एक भूमिका मात्र है।
आज यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि भूमि
जोता ही हो ‘जो जोते सो पाए।’
इसके भीतर मध्यस्थ के लाभ के लिए बिल्कुल गुंजाइश नहीं है
प्रत्येक प्रकार की कृषि विकास की पहली शर्त है कि जमीन पर किसान का स्वामित्व हो, पर व्याख्याएँ तो घुमाई जाती है- और
तब जमीन के स्वामित्व की बात आज भी दूसरी शक्ल लेकर हमारे सामने मौजूद है इस प्रथम
शर्त के साथ खेती का प्रकार और रूप क्या हो?
सामूहिक,
सहयोगी,
व्यक्तिगत,
विस्तृत या गहन।
एक भेद और उठ सकता है यंत्र युक्त कृषि और यंत्र
शून्य कृषि। इस विषय पर तो एक स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है पर इस लेख का मूल विषय
है खेती में हिंसा और अहिंसा पर विचार करना।
अत: इसीपर विचार करना लेखक का उद्देश्य है। वर्तमान समाज व्यवस्था में जहाँ
तक शोषण रहित खेती का प्रश्न है वह वह दो
ही अवस्थाओं में संभव है।
एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि अहिंसक खेती
से मतलब यहाँ शुद्ध शोषण शून्य खेती से है। कीड़े मकोड़े के मरने जीने से नहीं। अहिंसक खेती का प्रथम रूप है- 1. अपने हाथ से व्यक्तिगत खेती करना दूसरा ऐसी सामूहिक खेती जिसके सभी सदस्य
सक्रिय सदस्य हों और जहाँ किराए के मजदूरों से खेती का कोई काम ना लिया जाता हो। इन
दोनों तरीकों में यंत्र की बिल्कुल उपेक्षा भी की जा सकती है यानी सारे काम स्वयं
जमीन के स्वामी अपने हाथ से करे।
पर यंत्र युक्त खेती की भी एक ऐसी अवस्था है जिसमें जमीन
का स्वामी स्वयं अपने हाथ से यंत्रों का
चालन करे खेती के प्रत्येक छोटे बड़े काम में वह मशीन का इस्तेमाल करे और मशीन के
चलाने के लिए वह और उसके सहयोगी किसान करे।
मशीन के प्रयोग से वे अतिरिक्त कार्य के लिए मजदूरी पर बुलाए जाने वाले
मजदूरों की आवश्यकता को खत्म कर सकते हैं परंतु खेती के व्यवहृत इस प्रकार की
अहिंसा प्रथम श्रेणी की अहिंसा नहीं है। प्रथम श्रेणी की अहिंसक खेती तो व्यक्तिगत
सीमित में या वृस्तृत सामूहिक खेती के अमल
में लाई जा सकती है जिसका प्रत्येक श्रमिक स्वयं भूमि का स्वामी हो।
खेती की साधना को लेकर जबसे इस जंगल में
आया हूँ, जब से यहाँ
सामूहिक खेती के दायित्व को अपने पर लिया है तब से यह प्रश्न समय- समय पर दिमाग
में उठा है कि किराये या भाड़े के श्रमिकों के सहारे से की गई खेती को शोषण-शून्य
खेती तो नहीं कहा जा सकता है। कई बार मजदूरों से खेती का काम लेते हुए यह प्रश्न
मन में जोर से उठा है कि इनके श्रम का मूल्य इन्हें दिए गए मूल्य से तो अधिक है
ही। दोनों मूल्यों का यह अंतर ही तो बाबू,
किसानों या फार्मों का लाभ लाता है। इस प्रकार की खेती में
और कल-कारखानों के मुनाफे में गुणात्मक भेद बिल्कुल नहीं है- मात्रा का भले हो।
यहाँ की जमीन का स्वामी अन्य व्यक्तियों के अतिरिक्त श्रम का लाभ उठाता है और
कारखाने में भी। और इस लाभ के कारण बिल्कुल वही हैं जो मिल के लाभ का। दोनों
स्थानों पर एक श्रमिक अपनी मजदूरी के पैसे से अधिक काम मालिक को करके देता है और
यह अधिक काम ही लाभ की शकल धारण कर लेता है। अत: निर्विवाद है कि यदि कोई नवयुवक
किसी आदर्श से प्रभावित होकर सच्चे अर्थ में अहिंसक खेती करना चाहता है तो उसे इस
प्रश्न के सब पहलुओं पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में चालू
बड़े-बड़े नामधारी कोऑपरेटिव फॉर्म एक
प्रकार से सैकड़ों श्रमिकों के श्रम का लाभ कमाना चाहते हैं वे फॉर्म ना कर्म से
कोऑपरेटिव है ना धर्म से और ना ही आदर्श से।
खेती की मिले हैं जिन्हें बड़े बड़े गणपति अपने गौरव की लड़ाई में सेकंड
मोर्चे के रूप में खड़ा कर रहे हैं क्योंकि ऐसे फॉर्मों में एक या दो मैनेजर सैकड़ों
मजदूरों से वास्तविक भागीदारों की अनुपस्थिति में खेती का काम करवाते हैं। अत: इस
प्रकार के फॉर्म या खेती आगे चलकर समाजवादी समाज रचना में न फिट बैठते हैं न कोई
अन्य प्रगतिशील सरकार इन्हें प्रोत्साहन दे सकती है। ऐसी खेती किसी प्रकार की
संतुलित आर्थिक रचना के उपर्युक्त न होगी- चाहे वह गाँधीवादी समाज रचना हो, चाहे समाजवादी या साम्यवादी। इस लोक-शोषण की चक्की बद्स्तूर चलती रहेगी।
अपने देश के भावी निर्माण में खेती और
खेतीहर का जो स्थान होने वाला है उसकी पूर्णता के लिए शोषण-शून्य सात्विक खेती की
कुछ सीमाएँ होना चाहिए। यदि मर्यादाओं की रक्षा नहीं होती तो यह कहना चाहिए कि देश
में औद्योगिक पूंजीवाद एक नया चोला धारण कर अवतरित हो रहा है। और यह भूमि-पूंजीवाद
निश्चय ही जम्मीदारी प्रथा से अधिक भयंकर साबित होगा। इन मर्यादाओं की पहली शर्त
यह है कि खेत पर पैसे पर आए मजदूरों का नितांत अभाव हो। दूसरे शब्दों में यह कहा
जा सकता है कि उतनी ही खेती करना जितने की खेत का स्वामी और उसका परिवार सम्भाल
सके। शायद इसीलिए पूज्य विनोबाभावे जी ने पवनार आश्रम में अधिकतम खेती की सीमा
पाँच एकड़ रखी थी। (आज उन्होंने तीस एकड़ के अधिकतम सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है)
पर यह तो कहना ही चाहिए कि यदि यंत्रों का उपयोग नहीं किया जाता तो तीस एकड़ जमीन
की खेती में मजदूर को रखना ही पड़ेगा जो कृषि का अहिंसक रुप नहीं हो सकता। एक
व्यक्ति इमानदारी के साथ दस एकड़ से अधिक सिंचाई की और बीस- पच्चीस एकड़ से अधिक
सूखी जमीन नहीं सम्भाल सकता।
जापान में जहाँ के लोगों के पास बहुत
थोड़ी जमीन होती है पाँच- छह एकड़ से अधिक नहीं- वहाँ उतनी ही जमीन में लोग चार-
पाँच हजार रुपए कमाते हैं । यह सत्य है कि साधारण अवस्था में यंत्र की सहायता के
बिना प्रत्येक व्यक्ति बीस एकड़ से अधिक जमीन नहीं सम्भाल सकता। ( खेती के प्रकार
और प्रांत पर यह बात निर्भर करती है) अपनी खेती पर किसी बाहरी श्रमिक को खेती के
काम के लिए न रखना- अहिंसक या सात्विक खेती की पहली शर्त है।
अहिंसक खेती की सीमा में आनेवाली वह
सामूहिक खेती भी है जिसका प्रत्येक श्रमिक उस जमीन का भागीदार हो। अर्थात जमीन के
स्वामी या फार्म के हिस्सेदारी को खेत पर रहकर हाथ से काम करना अनिवार्य हो -
अनुपस्थित भागीदातर न रखे जायें,
ऐसे फार्मों का क्षेत्रफल सदस्य संख्या के विचार से कम और
अधिक रह सकता है। यहाँ सहयोगी खेती में जमीन का क्षेत्रफल महत्त्वपूर्ण चीज नहीं
है- महत्त्वपूर्ण बात है बाहर के श्रमिकों का सर्वथा अभाव। ‘मजदूरी पर मजदूर नहीं रहेंगे’
यही तो अहिंसक खेती की प्रथम शर्त है। और उसका निर्वाह
सामूहिक खेती के लम्बे-चौड़े फार्मों में भी हो सकता है पर अपने देश में इस प्रकार
के फार्म नहीं के बाराबर हैं। मशीन की मदद से खेती का रकबा बढ़ाया जा सकता है । एक
व्यक्तित तब अधिक जमीन संभाल सकता है। परंतु व्यवहार में यहाँ भी प्रत्येक व्यक्ति
का हिस्सा औसत तीस एकड़ से अधिक नहीं होना चाहिए। अमरीका में यंत्र के सहारे से
पारिवारिक खेती का रकबा बहुत काफी होता है पर अपने देश के व्यक्तिगत किसान को आज
वे साधन उपलब्ध नहीं हैं।
अत: निजी खेती की एक कानूनी सीमा अपने
देश में तो तय होनी ही चाहिए। इस प्रकार की खेती की मनोवृति पैदा करने के लिए
शिक्षा की बड़ी उपयोगिता है। हम क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे है?
यह ज्ञान आवश्यक है। कार्य के महत्त्व का बोध साधना में
दृढ़ता पैदा करता है। अत: अहिंसक खेती के व्यवहार में सम्यक शिक्षा दूसरी शर्त है।
दुर्भाग्य से इस देश में श्रम की इज्जत आज भी नहीं है। आज भी हाथ से काम न छूने
वाले की समाज में अधिक इज्जत होती है। श्रम के प्रति यह दृष्टिकोण बिना श्रम के
नहीं बदला जा सकता है। श्रम के प्रति मन का आदर भाव खेती के शुष्क और कठोर कर्म
में एक सरसता पैदा करता है जिससे अहिंसक किसान कठिनाइयों के बीच भी प्रेरणा लिया
करता है। आज मालिक खेतों पर काम करने वाले मजदूरों का (सुपरविजन) देखरेख करता है-
स्वयं फावड़ा या गेती लेकर उसके बीच में खड़ा नहीं होता। यह अवस्था बड़ी शोचनीय है।
उससे सामाजिक विषमता का नाश नहीं होगा।
परिणाम यह होगा कि मजदूरों के अभाव में
या मजदूरी के चढ़ाव में ऐसे फार्म ठप्प पड़ जायेंगे। खेत बंजर होंगे और फार्मों वाले
बाबू पुन: शहरों की ओर भागने लगेंगे। उत्तरप्रदेश के लखीमपुर, बहराइच,
नैनीताल आदि जिलों में, मध्यभारत के शिवपुरी,
भिंड जिले में ऐसे बाबू किसानों द्वारा संचालित बहुत से
फार्म मिलेंगे। कहने के लिए फार्मों की बड़ी जमीनों की रक्षा की दृष्टि से इनके
पीछे- आगे कोआपरेटिव शब्द जुड़ा है पर है उनपर एकाधिकार किसी एक व्यक्ति या
कारखानेदार का और सामूहिक खेती के पट्टों पर नाम दर्ज है पत्नी के, भाई के,
भतीजे के,
मामा के।
व्यवहार में ये फार्म सबसे कम सहयोगी
हैं, क्योंकि 15-20 सदस्य की सूची में से केवल एक या दो खेती पर रहते हैं शेष
या तो बहुधन्धी है जिन्होंने खेती को एक अतिरिक्त पेशे के रुप में अपनाया है या
कोई पूंजीपति जिसने मिल के हिस्से के समान यहाँ भी कुछ पूँजी लगा रखी है जो वक्त
जरूरत पर राष्ट्र्रीयकरण के बाद उन्हें और उनकी तिजोरी को कायम रखे। देश में
अधिकांश फार्म इसी केटि में आते हैं। सच्चे अर्थ में श्रमिकों या किसानों द्वारा
संचालित फार्म अंगुलियों पर गिने जाने योग्य है। आज खेती के पक्ष में जो हवा तेजी
से चल रही है,
विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि ये वर्तमान पद्धतियों
अधिकांश शोषण पर ही निर्भर करती है एवं कोई भी लोकप्रिय प्रगतिशील सरकार ऐसे
फार्मों को अधिक दिनों तक सहन नहीं कर सकती। कहीं- कहीं तो फर्जी या व्यर्थ के
नामों पर पट्टे लेकर भविष्य में सरकार के संभावित अधिकार से अपनी खेती को सुरक्षित
रखा गया है। पर कड़ाई के साथ यदि जाँच की जाय तो उत्तर भारत, मध्य भारत एवं राजस्थान के अधिकांश फार्म पूर्णतया एकाधिकारी फार्म है। श्री
कुमारप्पा द्वारा चालित सेल्डू फार्म भी आज आदर्श रूप धारण नहीं कर सका है। जिन
लोगों से कुमारप्पाजी ने आशा की थी कि वे खेती के छोटे बड़े सारे कामों को अपने हाथ
से करेंगे- सो हुआ नहीं है।
रोटी और मक्खन से निश्चिंत होकर यहाँ के
अधिकांश कर्मी खेती के कामों से दूर रहते हैं या जितना उसमें जुटना चाहिए नहीं
जुटते। नतीजा यह हुआ कि वहाँ भी अधिकांश काम मजदूरी देकर बाहर के मजदूरों से कराये
जाते हैं - यह अलग बात है कि मजदूरों के प्रति उनकी शर्तें अधिक उदार हों। हाँ, यह ठीक है कि उन्होंने यंत्र का प्रयोग न करने का इस फार्म में निश्चय किया है
पर यंत्रवाद से दूर होते हुए भी इस फार्म पद्धति को पूर्णतया अहिंसक या गाँधीवादी
पद्धति नहीं कहा जा सकता है। पर कुमारप्पाजी का यह प्रयोग है। हमें विश्वास है कि
आगे चलकर वे इसे अपने आदर्श के अनुरूप बना सकेंगे। अहिंसक खेती के विचार से
विनोबाजी का पौनार प्रयोग पूर्ण सफल माना जा सकता है।
यह रही बिना यंत्र की सहायता के व्यक्तिगत खेती
की बात। सामूहिक खेती का एक ही उदाहरण मेरी दृष्टि में है- श्री अन्ना जी (अध्यक्ष
चर्खा संघ ) द्वारा संचालित पूना का कृषि फार्म। इस फार्म पर काम करने वाले
अधिकांश भागीदार स्वयं किसान हैं। पर इस फार्म में कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जो यहाँ
पर उपस्थित नहीं रहते। यहाँ काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को लाभांश या बोनस
मिलता है।
खेती और समाज- व्यवस्था के एक नये युग
में हम प्रवेश कर रहे हैं। लोकतंत्र के चौखटे में भी हमारे देश को कृषि- व्यवस्था
अभी ठीक नहीं उतरती। जमींदारी खत्म होने के बाद भी स्वस्थ- कृषि- व्यवस्था राष्ट्र
में स्थापित नहीं हो सकी है। अलग- अलग
प्रान्त भिन्न- भिन्न योजनाओं और सीमाओं को लेकर चल रहे हैं। कहीं- कहीं तो
जमींदारी की कब्र पर एक नई जमींदारी खड़ी हो रही है। विचारक कृषक के सामने आज एक
प्रश्न है कि अपने आदर्श और नव- निर्माण की रक्षा के हेतु उसे खेती का
कौन-सा-मार्ग अपनाना चाहिए?
ऐसे मार्ग जिस पर चलकर स्वयं उसे शोषक न बनना पड़े। जहाँ वह
शारीरिक और मानसिक श्रम के समन्वय से एक नवयुगीन स्वस्थ कृषि-व्यवस्था की नींव डाल
सके। जिससे कि आने वाले शिक्षित कृषक उत्साह और प्रेरणा ग्रहण कर सकें। (जीवन साहित्य से)
No comments:
Post a Comment