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बाबा मायाराम
बाबा मायाराम
18 -02 - 2019
गाँव में एक दिन
चेहरे, बिम्ब, पुराने लोग, टूटा स्कूल और गाँव
परसों के दिन मैं अपने गाँव में था। उस
गाँव में जिसमें बचपन बीता। जहाँ पुराने पीढ़ी के लोग मुझे नाम से जानते हैं।
वहाँ घूमते हुए मेरे मानसपटल पर वे
बिम्ब जिन्हें शब्दों में ढालता रहता हूँ, खाली समय में।
आँखें मूँदे हुए जब नींद नहीं आती। ट्रेन से सफर करते हुए जब तेजी से वह दौड़ती
जाती है।
जब कोई परिचित मिलता, मैं देखता रहता उसके चेहरे को, याद करता उन लोगों को जो नहीं रहे, वे पेड़ जो कट गए हैं। इमली के, आम के और नीम के। वो ढोंगा जहाँ रहती थी एक बुढ़िया, लाठी टेककर कमर पर हाथ धरे।
मिल गया बाराती, जिसका जन्म लौटती बारात को हुआ था। अब उसका परिवार भी बड़ा
हो गया। उन पेड़ों पर नाम भी जो उनके घर के पास थे- जैसे चंपोवारे। यानी चंपा के पेड़ वाला घर। वो मुनीम की माँ, जिसने मुझे बरसों बाद चीह्न लिया था।
अनमने से लोगों में अचानक नया उत्साह आ
गया था। वे याद करने लगे थे मेरे पिता को, जिन्होंने उनके ओसारे में बैठकर खूब बातें की थी। इलाज
कराने ले गए थे अस्पताल।
छोटी- छोटी गैल अब सड़क में बदल गई हैं। पर उनमें पानी बेतरतीब
फैला पानी। फैल गया है गाँव भी।
स्मृति पर जोर डालने से याद आया था
कच्ची खपरैल वाला स्कूल। अब पक्का कांक्रीट व लेंटर वाला बन गया था। बनाता रहा
उसका आकार, कहाँ क्लास लगती थी और कहाँ बैठते थे
टीचर। और कहाँ था इमली वाला पेड़।
कौन थे साथ में पढ़ने वाले।
मैंने एक नजर दूर नदी पर डाली। पानी
नहीं था, रेत पसरी थी। दूर हो गई थी गाँव से। वह
सदानीरा थी।
कुछ खोया हुआ, कुछ मृत सा, कुछ नया और कुछ
उजड़ा सा.. उजड़ा उस मायने
में जहाँ मूल्य बदल गए।
असल में स्मृति बीते हुए और वर्तमान को
जोड़ने की कड़ी है, शायद उसमें समय
भी लगता है
बदलते गाँव
डाँग, पक्का गोला और गैल
जब गाँव की याद करता हूँ तो जो छवि
उभरती है- सुबह सवेरे की
चिड़ियों की चीं-चीं- चूँ ची चिआऊ।
कुएँ के पनघट पर पनिहारों की भीड़- रस्सी बाल्टी की खट-पट। नहाना-धोना, और देवी की पूजा-पाठ।
गाँव की डाँग, जहाँ दिन में अँधेरा हुआ करता था। जंगल के कारण, उधर आने में डर लगता था।
नदी, जो कल-कल छल-छल बहते थीं। वहाँ बरौआ, कहार लोगों के खेत होते थे। हरी सब्जियों की खेती। पानी तो
झिरिया खोदने से ऊपर ही निकल आता था।
गोला, गाँव के लोग पक्की सड़क को गोला कहते हैं। गैल, उसे कहते हैं जो कच्ची होती है। गड़बाठ उसे कहते हैं, जिसमें बैलगाड़ी चल सके यानी चौड़ी गैल।
खेत-हार में काम करते लोग, मवेशियों की नार ( मवेशियों का समूह, जिसे गाँव का चरवाहा चराने ले जाता था)। शाम को धूल उठाते गाय-बैल।
गोबर से लिपे-पुते घर। कच्ची मिट्टी की दीवारें गेरू से रँगी। तीज-त्योहारों का अलग ही आनंद।
इन दिनों होउरा ( हरे चना पौधा सहित भूँजना, यानी भुँजा चना) खूब खाया जाता था।
अब इनमें से कई दृश्य गायब हो गए हैं।
जंगल कट गए, नदी सूख गई, कुएँ भी सूख गए।
मवेशी भी कम हो गए। होउरा अब भी मिलता
है। मिट्टी की दीवारें और लिपे-पुते घर भी। गाँव
अब भी है। गाँव संस्कृति भी कुछ हद तक। इसे बचाने की जरूरत है।
गाँवों में क्या बदला?
जब आज मैं सड़क से गाँवों से गुजर रहा
था तो सोच रहा था इन गाँवों में क्या बदला।?
गेहूँ के खेत, पेड़, गाँव घर, दुकानें सब चलचित्र की तरह पीछे छूट रहे थे।
एक तो बदलाव यही दिख रहा था कि सड़क
अच्छी बन गई है और वाहनों की बाढ़ आ गई है।
जब हम तीन-चार दशक पहले सड़कों पर चलते थे तो लोग पैदल और साइकिल पर
चला करते थे।
मोटर साइकिल इक्का दुक्का दिखती थी और
ट्रेक्टर भी बहुत कम। टेलिविजन तो बाद में आया।
कच्चे घर हुआ करते थे। अब ज़्यादातर
पक्के हो गए हैं; लेकिन कुछ तो अब
भी कच्चे हैं, बल्कि वैसी ही
हालत में हैं जैसे सालों पहले थे।
मवेशी बहुत होते थे। खेतों में हल-बक्खर चलते थे। बैल उन्हें खींचते थे।
स्कूल कम, बच्चे ज्यादा थे; लेकिन पढ़ाई आज से अच्छी होती थी और
शिक्षक- छात्र दोनों
पढ़ाई पर ज़ोर देते थे। यह कम ज़्यादा हो सकता है।
पर शिक्षकों में पढा़ने का चाव था।
स्कूल की इमारतें आज जितनी अच्छी नहीं थी।
सड़कों के किनारे पेड़ हुआ करते थे, जो कम दिखते हैं। खेतों में आम, जामुन, महुआ के पेड़
बहुत होते थे।
यह तो हुआ बाहरी बदलाव, सोच भी बदली है। वह कई मायनों में एक जैसी है। शहर और गाँव का फर्क कम हो रहा है।
09- 04 -2019
नगालैंड- नयापन भी और
पुरानापन भी
पहाड़ियों के बीच बसे विरल गाँव। ऊपर से
छोटे-छोटे माचिसनुमा
दिखते घर। बाँस की दीवारें। घरों की कलात्मकता व डिज़ाइन।
चीड़ के पेड़ों की सरसराहट। सफेद व लाल
फूल। झाड़ियाँ व वनस्पतियाँ। सुंदर भू दृश्य (लैंडस्केप)।
कल -कल बहती नदियाँ, नाले और झरने और
दूर-दूर ऊँची नीची
चोटियाँ।
जींस-पेट, टोपी, सुंदर छतरियाँ और पुराने में रंगीन मनकों व गुरियों की मालाएँ पहने बुज़ुर्ग महिलाएँ।
और कई तरह की खेती पद्धतियाँ- पहाड़ी झूम खेती, टैरेस, किचन गार्डन और कुदरती
खेती (नेचुरल फार्मिंग)।
तरह-तरह के भोजन, बेजोड़ स्वाद, हरी पत्तीदार सब्जियाँ व स्वादिष्ट सूप ।
ज़्यादा खेती करने वाले, लघु कुटीर उद्योग, सुंदर पर्स, शाल, झोले, टोपी। व्यापारी, कुछ नौकरी पेशा वाले। साझा संस्कृति के साथ अलग-अलग पेशों के साथ फलने-फूलने वाला है नगालैंड।
16 – 04- 2019
गाँव को क्या चाहिए
नगालैंड के एक गाँव में करीब हफ़्ता भर
रहने का मौका मिला।
वहाँ जंगल था, पीने के पानी के परंपरागत जलस्रोत थे, पौष्टिक अनाजों की खेती थी।
अच्छा स्कूल था। लड़कियों की शिक्षा, जो कि इस गाँव में थी।
परंपरागत हस्तकला थी। बाँस की शंक्वाकार
टोकरियाँ, पीठ पर बाँधकर चलने वाली, और भी न जाने कितने सामान, दस्तकारी ऐसी कि देखते रह जाएँ।
बुनकरी की सानी नहीं, मफ़लर, पर्स, झोले, मेखला, टेबल कवर इत्यादि।
मुर्गी पालन था।
एक आदर्श गाँव ही था यह। अगर हम इसे
सूत्र में कहे ,तो हमें एक गाँव
में अच्छा जंगल चाहिए। ये पेड़-पौधे चाहिए।
जिससे जल संरक्षण हो।
ऐसी खेती चाहिए ,जिससे मिट्टी बचे, मिट्टी का
संरक्षण हो, यानी रासायनिक
खादों व कीटनाशकों से बचा जाए, जो हमारी खेती को
बंजर कर रहे हैं।
इसके लिए पौष्टिक अनाजों की देसी खेती , हाथ से श्रम वाली ज़रूरी है।
दस्तकारी के कामों से परंपरागत कला व
हुनर भी बचेंगे और आजीविका भी मिलेगी। इस सूची में और भी कुछ जोड़ा जा सकता है।
इस तरह एक गाँव अपनी बुनियादी जरूरतें
पूरी कर सकता है।
22- 04 - 2019
छत्तीसगढ़ यात्रा
सादगी व सुघड़ता के गाँव
किसी भी जगह की यात्रा में वहाँ के
प्राकृतिक सौंदर्य के साथ लोगों की संस्कृति भी प्रभावित करती है।
छत्तीसगढ़ उन स्थानों में एक है ,जहाँ की सांस्कृतिक सभ्यता बहुत समृद्ध है।
खासतौर से ग्रामीण छत्तीसगढ़ की।
शहरी व नगरीय सभ्यता अब एक जैसी हो गई
है। चमचमाती सड़़कें, कारें और भव्य
इमारतें। उन पर रेंगते -भागते लोग।
लेकिन छत्तीसगढ़ के दूरदराज़ के गाँव अब
भी पुरानी गाँव की संस्कृति को सँजोए हुए है।
खपरैल वाले हवादार घर, गोबर से लिपे-पुते, आंगन में तुलसी पौधा, बाड़ी में मुनगा, नींबू और अमरूद।
कुर्ता, धोती की पोशाक, रंगीन गमछा, लुंगी। महिलाएँ, रंगीन चटक साड़ी। और रेडियो पर
छत्तीसगढ़ी गीत।
कड़ी धूप में काम करना, कर्मठ लोगों की चमड़ी की चमक, महिलाओं का सार्वजनिक कामों में बराबरी से हिस्सा लेना।
सुबह झाडू लगाने से लेकर शाम तक खाना
पकाना, खिलाना और बाद में खाना, जैसे कड़े काम करना।
मेहमानों की आव-भगत, लोटे में पानी, नीचे बैठकर पीतल की थाली में चावल, दाल और हरी भाजियों का साग, मुनगा का साग।
सादगी से रहना, तरह तरह के नृत्य गीत, तालाबों के पास
बने पेड़ों की पूजा। तालाबों के साथ सुंदर भूदृश्य। जो आँखों में बस जाते हैं।
इतनी सारी ग्रामीण विशेषताएँ शायद ही
कहीं मिले।
यह सब लिखते समय मुझे याद आ रहा है कोटा
का मानपुर व सरईपाली गाँव जहाँ मुझे बहुत ही प्रेम से भोजन कराया गया था।
30 – 06 – 2019
बारिश, गाँव औऱ खेत
बारिश का मौसम आ गया है। दो दिन शाम को घुमड़े बादल बरसे। कल कुछ ज़्यादा ही।
अब खेती किसानी का काम शुरू हो गया है।
धान के लिए थऱहा ( रोपा), जो पीला पड़ने लगा था, अब उसमें जान आ गई होगी।
बारिश आते ही मुझे गाँव की याद आई।
बारिश के पहले लोग खपरैल वाले घरों की
मरम्मत करते हैं। जहाँ -जहाँ नए खपरे
चढ़ाने की ज़रूरत होती है, बदल देते हैं।
मिट्टी के खपरे लोग खुद ही बनाया करते
थे। कई महिलाएँ इसमें पारंगत थीं।
खपरों के नीचे ठाट ( बाँस या अरहर के ठंडलों से बनता था) किया जाता था। इस काम में बच्चे भी खपरे
लाने ले जाने का काम करते थे।
छतों पर चढ़कर यह काम करना होता था। कई
बार बच्चों को भी चढ़ने का मौका मिलता था।
खेतों में धान रोपाई जिसे इधर लबोदा
कहते हैं, का दृश्य बहुत सुंदर होता था। रंग-बिरंगी साड़ियों में महिलाएँ और पुरुष लोकगीत गाते हुए रोपा
लगाते थे।
बैल-बक्खर चलता रहता था। बारिश होती रहती थी। गाय-बैल चरते चराते खुद को पानी से बचाने के लिए पेड़ों के नीचे
छुपते थे।
कई लोग बारिश से बचने के लिए सागौन के
पत्ते के छाते बनाते थे। छातों का चलन कम था।
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