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Apr 10, 2011

उदंती.com, अप्रैल 2011

उदंती.com               अप्रैल 2011





आंदोलन से विद्रोह नहीं पनपता 
बल्कि शांति कायम रहती है।
- वेडेल फिलिप्स

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अनकही: बहुत कठिन है डगर पनघट की...
खानपान: जन- जन में पैठ जमा चुकी मिलावट - दीपक मशाल
मिसालः नरसिंहगढ़ का फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता'- लोकेन्द्र सिंह राजपूत
वनसंपदाः जंगलों को आग से बचाओ - देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
जीवन का सचः अंधी लड़की की कहानी
आपदाः परमाणु त्रासदी- सबक न सीखने की कसम - डा. सुरेंद्र गाडेकर
विकिरण का अभिशाप - प्रमोद भार्गव
संस्मरणः जाऊं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज ... - जवाहर चौधरी
वाह भई वाह
आसमान में कलाबाजी करते परिन्दे - सीजर सेनगुप्त
धरोहरः शिव की नगरी ताला - उदंती फीचर्स
रिक्शा चालक बना लेखक
कहानी: शवयात्रा - श्रीकांत वर्मा
कविताएं: सच तो यह है - कृष्णकांत निलोसे
लघु कथाएं: 1. प्रॉब्लम चाइल्ड 2 .सच - शेफाली पाण्डेय
हाइकु: अकेला उड़ चला - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
किताबें
पिछले दिनों

आपके पत्र/ मेल बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया

बहुत कठिन है डगर पनघट की...

हममें से अधिकांश को महात्मा गांधी के चमत्कारिक व्यत्तित्व के दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। हमारी आज की जनसंख्या में से अधिकांश का जन्म महात्मा गांधी के स्वर्गवास के बाद हुआ है। अतएव हम जैसे लोगों को महात्मा गांधी का चरित्र व कृतित्व परियों का कहानी जैसा लगता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में ठीक ही कहा था 'आने वाली पीढिय़ां आश्चर्य करेंगी कि ऐसा महापुरुष इस धरती पर वास्तव में हुआ था।' आइंस्टीन की भविष्यवाणी यथार्थपूर्ण थी। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सहज स्वीकृति के बजाय आश्चर्य होने का कारण है स्वतंत्र भारत का सामाजिक राजनीतिक वातावरण जिसमें हम जन्में, पले, बढ़े और जीवित हैं।
हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक क्रिया कलाप का एकमात्र अनिवार्य अंग भ्रष्टाचार है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से जिस एक चीज ने सबसे तेजी से प्रगति की है वह भ्रष्टाचार है। 1969 से तो 'गरीबी हटाओ' के शोर- शराबे में भ्रष्टाचार में अबाध रुप से बिजली की तेजी से वृद्धि हुई है। चाहे जन्म प्रमाणपत्र लेना हो या मृत्यु प्रमाणपत्र, मोपेड या कार का ड्राइविंग लाइसेन्स हो या पासपोर्ट, बिजली का कनेक्शन हो या पानी का- आम आदमी को यह सब रिश्वत देने से ही मिलते हैं। रिश्वत के बलबूते पर अयोग्य होते हुए भी आप पायलट बनकर सैकड़ों यात्रियों की जिन्दगी से खिलवाड़ करने का लाइसेन्स पा सकते हैं। भ्रष्टाचार की महिमा है कि पिछले चार दशकों में अपराधियों के संसद और विधानसभा के सदस्य चुने जाने में दिन- दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई है। चुनाव प्रक्रिया इतनी लचर है कि इमानदारी और जनसेवा के सहारे चुनाव जीतने की सोचना भी हस्यास्पद हो गया है। दूसरी तरफ नोटों की गठरी बांधे अपराधी के लिए चुनाव जीतना खेल हो गया है। भ्रष्टाचार का कमाल है कि आज कानून तोडऩे वाले अपराधी बड़ी संख्या में कानून बनाने वाले बन बैठे हैं।
ऐसे महौल में अन्ना हजारे के अनशन ने चार दिनों में एक ऐसी सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया जो इतिहास के पृष्ठों में अभी तक की सबसे ज्यादा भ्रष्ट सरकार के रुप में जानी जायेगी। पिछले 5-6 वर्षों में इस सरकार ने भ्रष्टाचार को अपने क्रिया- कलापों में सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए 2जी घोटाला, कामनवेल्थ संबंधित घोटाला इत्यादि एक के बाद एक लाखों- करोड़ों रूपए के घोटालों की अंतहीन कड़ी प्रस्तुत कर दी है। साथ ही पिछले 42 वर्षों से सिर्फ चुनाव घोषणा पत्रों में भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल कानून बनाने के झूठे वादे करके जनता को बहकाकर भ्रष्टाचारियों को यह सरकार सुरक्षा प्रदान करती रही है। इसलिए ऐसा लगने लगा था कि राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के रुप में भ्रष्टाचार का ऐसा विशाल और मजबूत तंत्र खड़ा हो गया है जिसे गिराना असंभव है। इस परिप्रेक्ष में अन्ना हजारे ने अपने निर्मल चरित्र और आत्मबल की शक्ति पर जो कर दिखाया है वह एक ऐसा चमत्कार है जो इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा। साथ ही अन्ना हजारे की इस उपलब्धि ने महात्मा गांधी के चमत्कारिक व्यक्तित्व की अमोघ शक्ति से भी हमारा वास्तविक परिचय करा दिया है।
अन्ना हजारे के नैतिक बल की एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि इसने भारत के मध्यम वर्ग को जगा दिया है। अपनी योग्यता और क्षमताओं के बलबूते पर समाज के उपयोगी सदस्य बनकर जीवन- यापन करने वाला मध्यम वर्ग समाज की रीढ़ की हड्डी होता है। उचित नेतृत्व से उत्प्रेरित होकर मध्यम वर्ग के आत्मबल से समाज में नैतिकता की ऐसी सुनामी उफनती है जो निरंकुशता और भ्रष्टाचार जैसे अनाचारों के सुदृढ़ पुराने किले को भी नेस्तनाबूद कर देती है। इसका प्रमाण पिछले कुछ हफ्तों से ट्यूनेशिया और इजिप्ट में देखा गया है और लीबिया, यमन, सीरिया तथा शेष मध्यपूर्व में देखा जा रहा है। अन्ना हजारे के साथ भी हमारा मध्यम वर्ग स्वत: प्रेरणा से जिस प्रकार बड़ी संख्या में जुड़ा उससे यह प्रमाणित हो गया है कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन की चाहत देशव्यापी है और समाज में उसके लिए आवश्यक ऊर्जा भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
इस संदर्भ में हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सरकार द्वारा अन्ना हजारे की लोकपाल कानून बनाने संबंधी मांगों को मान लेने का अर्थ यह नहीं है कि उनकी मुहिम सफल हो गई है। वास्तविकता तो ये है कि अभी तो सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की शुरूआत भर हुई है। भ्रष्टाचार के विरोध में संघर्ष अत्यन्त मुश्किल और लम्बा होगा। भ्रष्टाचार का दानव अत्यन्त विशाल, विकराल और बलवान है। अनशन समाप्त होने के दूसरे ही दिन से अन्ना हजारे और उनके साथियों को बदनाम करने के लिए जिस प्रकार के सुनियोजित प्रहार किए जा रहे हैं उससे यह स्पष्ट है कि अन्ना हजारे के अन्दोलन को छिन्न- भिन्न करने के प्रयास अभी और ज्यादा सघन और गंदे होते जाएंगे। ईमानदारी पर झूठ का कीचड़ उछालने में भ्रष्टाचारी बड़े माहिर होते हैं। स्वाभाविक ही है कि इस अन्दोलन से जुड़े लोगों को भी यह लगेगा कि बहुत कठिन है डगर पनघट की। फिर भी हमें यह भी विश्वास है कि अन्ना हजारे द्वारा चलाई जा रही मुहिम अंतत: सफल होगी। क्योंकि भारत के वैधानिक इतिहास में अन्ना हजारे के अन्दोलन से प्रायोजित लोकपाल कानून बनाने की क्रिया एक ऐसी अभूतपूर्व और अनूठी घटना है जिसको भ्रष्टाचार से बेहद त्रस्त जनता का सम्पूर्ण समर्थन प्राप्त है।
अन्ना हजारे जिन्दाबाद!
- डॉ. रत्ना वर्मा

खान-पान

                        जन- जन में पैठ जमा चुकी  मिलावट
दीपक मशाल
कैसे चंद पैसे कमाने के लालच में हमारे बीच ही उठने- बैठने वाले लोग हमारी ही जान खतरे में डालने को तैयार हो जाते हैं। कैसे ये लोग भूल जाते हैं कि अगर वो बबूल बो रहे हैं तो उन्हें भी आम हाथ नहीं आने वाला।
नवरात्र का शुभ त्यौहार शुरु होने के साथ- साथ अत्यंत अशुभ समाचार भी आया कि दिल्ली, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश में सैकड़ों लोग (बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियां) कूट्टू खाकर अस्पतालों में भर्ती हैं। इसी प्रकार से होली के पूर्व भारत के कई हिस्सों में खाद्य निरीक्षकों द्वारा डाले गए छापों के दौरान जिस तरह से काफी बड़ी तादाद में नकली या मिलावटी खोवा, घी, क्रीम, दूध, मिठाई और किराना सामग्री इत्यादि के बरामद होने के मामले प्रकाश में आये, उससे मन में यह विश्वास बैठ गया है कि भ्रष्टाचार, मिलावट, मुनाफाखोरी अब सतही बुराईयां नहीं रहीं, बल्कि यह जन- जन में संस्कार के रूप में अपनी पैठ जमा चुकी हैं। अब शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति भारत में शेष हो जो इन क्रियाकलापों से अछूता रहा हो, चाहे वह इस अपराध के अपराधी के रूप में रहा हो या फिर भुक्तभोगी के रूप में। यूँ तो यह सब सिर्फ आज की बात नहीं है ये लालच की (संतान) बुराईयां सालों पहले हमारे यहाँ पैदा हो चुकी थीं और कितनी ही बार ऐसी खबरें हमारी आँखों के सामने से गुजर गईं लेकिन जिस तरह से बीते होली और दीवाली पर मिलावट की घटनाएं देखने को मिलीं उससे लगता है कि देश को तबाह करने के लिए एक अप्राकृतिक और अदृश्य सुनामी भारत और विशेष रूप से उत्तर और मध्य भारत में भी आया हुआ है।
समझ नहीं आता कि कैसे चंद पैसे कमाने के लालच में हमारे बीच ही उठने- बैठने वाले लोग हमारी ही जान खतरे में डालने को तैयार हो जाते हैं। कैसे ये लोग भूल जाते हैं कि अगर वो बबूल बो रहे हैं तो उन्हें भी आम हाथ नहीं आने वाला। कल को हर व्यक्ति मिलावट से ही मुनाफे के चक्कर में उलझकर एक दूसरे के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता मिलेगा। एक व्यक्ति जो जल्दी अमीर बनने के लिए खोवा नकली बनाकर बेचेगा वह फिर उन्ही पैसों से खुद के लिए भी नकली दाल, सब्जियां, मसाले, तेल इत्यादि खरीदेगा। हम सभी तो एक दूसरे को कहने में लगे हैं की 'तू डाल-डाल, मैं पात-पात'।
जिसके जो हाथ में आ रहा है वह उसी को मिलावटी बना देता है। पेट्रोल पम्प हाथ आ गया तो पेट्रोल, डीजल में केरोसिन मिला दिया, किराने की दुकान है तो दाल- चावल, मसाले, घी में अशुद्धिकरण, दूधवाले हैं तो यूरिया मिलाकर दूध ही नकली बना दिया, अगर थोड़े ईमानदार हैं तो पानी मिला कर ही काम चला लिया। बाजारों में उपलब्ध सब्जियों, फलों को कृत्रिम तरीके से आकर्षक एवं बड़े आकार का बनाया जा रहा है। फलों को कैल्शियम कार्बाइड का छिड़काव कर पकाने की बातें तो हम सालों से सुनते आ रहे हैं, ये कार्बाइड मस्तिष्क से सम्बंधित कई छोटी- बड़ी बीमारियों का स्रोत हैं। सब्जियों को बड़ा आकार देने के लिए उनके पौधों की जड़ों में ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाये जा रहे हैं, ये वही ऑक्सीटोसिन है जो कि प्राकृतिक रूप से मादा के शरीर में बनता है और प्रसव के दौरान शिशु को बाहर लाने में एवं उसके बाद दुग्ध उत्पन्न करने में सहायक होता है। गाय- भैंसों को यही इंजेक्शन देकर 'ज्यादा दूध निकाला जा रहा है, जबकि इस हारमोन का इस तरह मानव शरीर में पहुँचने से होने वाले गंभीर दुष्प्रभावों पर रिसर्च चल रही है। मटर को हरा रंग देने के लिए कॉपर सल्फेट का प्रयोग होता है जो हमारे शरीर के लिए काफी नुकसानदेह है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के बाजार में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में 90 प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिलावटी होते हैं। यानी हम हर रोज कितना धीमा जहर ले रहे हैं हमें पता भी नहीं है। अब हम इन्हें खाते हैं तो अपनी मौत को दावत देते हैं और नहीं खाते तो जिंदा कैसे रहें?
वैसे ये सब खेल सिर्फ भारत में ही नहीं अन्य कई विकसित देशों में भी चल रहा है, लेकिन वहां के शुद्धता मानक अलग हैं और वहाँ की सक्रिय मीडिया समय- समय पर सरकार और लोगों को इस सब के खिलाफ चेताती रहती है इसलिए स्थिति काफी हद तक नियंत्रण में रहती है।
ये मिलावटी पदार्थ भले ही तुरंत दुष्प्रभाव ना दिखाए लेकिन इनके दूरगामी परिणाम तब समझ आते हैं जब किसी व्यक्ति को या उसके परिवारजन को किसी न किसी जानलेवा बीमारी के रूप में इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। उस समय हम सिर्फ यही कहते रह जाते हैं कि 'हे ईश्वर! हमने किसी का क्या बिगाड़ा था जो यह दिन देखने को मिला...'
उस समय वह यह भूल जाता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं उसने स्वयं यह जहर अपने आस- पास फैलाया है। मोटे तौर पर कहें तो वह दस रुपये कमाने के लिए अपने ही लोगों का नुकसान कर रहा है।
पिछले साल ऐसे अप्राकृतिक तरीके से आकर्षक और बड़े आकार की बनाई गई सब्जियां- फल बाजार में लाने वालों के खिलाफ कानपुर में एक समूह ने आवाज उठाई जरूर थी, लेकिन उसके बाद क्या हुआ पता नहीं चला। सरकारी अमला ऊपर से आदेश आने से पहले इस तरफ ध्यान देता नहीं और ऊपर से आदेश आने से रहा। क्योंकि देश को चलाने वाले ही इन माफियाओं के साथ लंच- डिनर करते देखे जाते हैं।
आखिर कब तक सिर्फ पैसों की खनक के लिए हम अपने ही लोगों के प्राणों से खिलवाड़ करते रहेंगे।
हम सभी विश्व को खूबसूरत बनाने और जीवनशैली को बेहतर बनाने की दिशा में एक इकाई कार्यकर्ता की तरह कार्य करें तो समाज, देश, दुनिया बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। इस सोच को दिल से निकालना होगा कि 'एक अकेले हम नहीं करेंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा?' हम सभी इसी सोच के तहत दूध की बजाय सुरम्य तालाब को पानी से भर रहे हैं, सभी यही सोच रहे हैं कि सारा गाँव तो दूध डाल रहा है एक मैं पानी डाल दूंगा तो किसे पता चलेगा। इस तरह सभी एक दूसरे को धोखा देते रहे तो हम और न जाने कितने सालों तक सिर्फ विकासशील ही बने रहेंगे।
दूसरी तरफ खाद्य और आपूर्ति विभाग को भी कड़े कानून बनाने, उनको पालन कराने और लोगों में जागरूकता फैलाने की सख्त आवश्यकता है। वर्ना पहले से ही हमारे देश में प्रति दस हजार व्यक्ति पर सिर्फ एक डॉक्टर है...।
लेखक के बारे में
24 सितम्बर 1980 को उत्तर प्रदेश के उरई (जालौन) जिले में जन्म। प्रारंभिक शिक्षा जनपद के कोंच नामक स्थान पर। जैव- प्रौद्योगिकी में परास्नातक तक शिक्षा। वर्तमान में उत्तरी आयरलैंड (यूके) के क्वींंस विश्वविद्यालय से कैंसर पर शोध। साहित्य रचना के साथ चित्रकारी, अभिनय, समीक्षा, निर्देशन, मॉडलिंग तथा संगीत में भी गहरी रूचि। अब तक विविध विधाओं की रचनाओं का राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशन। यूके हिन्दी समिति द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'ब्रिटेन की प्रतिनिधि कहानियाँ' में 'उज्जवला अब खुश थी' कहानी को स्थान। 'मसि-कागद' नाम से हिन्दी ब्लॉग। Email- mashal।com@gmail.com

नरसिंहगढ़ का फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता'


2009 में आमीर खान की एक फिल्म आई थी 3 इडिएट्स इस फिल्म में आमिर ने परंपरागत शिक्षा पद्धति और रटंत शिक्षा का विरोध करते हुए प्रायोगिक शिक्षा की वकालत की थी साथ ही यह संदेश भी दिया था कि अपने बच्चों को वही पढऩे की इजाजत दीजिए जो वे पढऩा चाहते हैं। उन पर जबरदस्ती डॉक्टर, इंजीनियर बनने के लिए जोर मत डालिए। 3 इडिएट्स फिल्म में फुन्सुक वांगडू बने आमिर कुछ ऐसा ही करके एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। नरसिंहगढ़ के 'हर्ष गुप्ता' ने भी लीक से हट कर अपनी पसंद का काम (खेती) करते हुए एक मुकाम हासिल किया है और मिसाल कायम की है।
- लोकेन्द्र सिंह राजपूत
खूबसूरत और व्यवस्थित खेती का उदाहरण है नरसिंहगढ़ के हर्ष गुप्ता का फार्म। वह खेती के लिए अत्याधुनिक, लेकिन कम लागत की तकनीक का उपयोग करता है। जैविक खाद इस्तेमाल करता है। इसे तैयार करने की व्यवस्था उसने अपने फार्म पर ही कर रखी है। किस पौधे को किस मौसम में लगाना है। पौधों के बीच कितना अंतर होना चाहिए। किस पेड़ से कम समय में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। किस पौधे को कितना और किस पद्धति से पानी देना है। इस तरह की हर छोटी- बड़ी, लेकिन महत्वपूर्ण जानकारी उसके दिमाग में है। जब वह पौधों के पास खड़ा होकर सारी जानकारी देता है तो लगता है कि उसने जरूर एग्रीकल्चर में पढ़ाई की होगी, लेकिन नहीं। हर्ष गुप्ता इंदौर के एक प्राइवेट कॉलेज से फस्र्ट क्लास टैक्सटाइल इंजीनियर है। उसने इंजीनियरिंग जरूर की थी, लेकिन रुझान बिल्कुल भी न था।
सन 2004 में वह पढ़ाई खत्म करके घर वापस आया। उसने फावड़ा- तसले उठाए और पहुंच गया अपने खेतों पर। यह देख स्थानीय लोग उसका उपहास उड़ाने लगे। लो भैया अब इंजीनियर भी खेती करेंगे। नौकरी नहीं मिल रही इसलिए बैल हाकेंगे। लेकिन इन सब बातों से बेफिक्र हर्ष ने अपने खेतों को व्यवस्थित करना शुरू कर दिया। इसमें उसके पिता का भरपूर सहयोग मिला। पिता के सहयोग ने हर्ष के उत्साह को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। बेटे की लगन देख पिता का जोश भी जागा। खेतीबाड़ी से संबंधित जरूरी ज्ञान इंटरनेट, पुराने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से जुटाया। नतीजा थोड़ी- बहुत मुश्किलों के बाद सफलता उनके सामने आया।
उसके फार्म पर आंवला, आम, करौंदा, शहतूत, गुलाब सहित शीशम, सागौन, बांस और भी विभिन्न किस्म के पेड़- पौधे 21 बीघा जमीन पर लगे हैं। हर्ष की कड़ी मेहनत ने उन सबके सुर बदल दिए जो कभी उसका उपहास उड़ाते थे। उसके फार्म को जिले में जैव विविधता संवर्धन के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है। इतना ही नहीं कृषि पर शोध और अध्ययन कर रहे विद्यार्थियों को फार्म से सीखने के लिए संबंधित संस्थान भेजते हैं।
हर्ष का कहना है कि मेहनत तो सभी किसान करते हैं, लेकिन कई छोटी- छोटी बातों का ध्यान न रखने से उनकी मेहनत बेकार चली जाती है। मेहनत व्यवस्थित और सही दिशा में हो तो सफलता सौ फीसदी तय है। मैं इंजीनियर की अपेक्षा किसान कहलाने में अधिक गर्व महसूस करता हूं। हर्ष कहते हैं कि खेती के जिस मॉडल को मैं समाज के सामने रखना चाहता हूं उस तक पहुंचने में कुछ वक्त लगेगा.......
हर्ष गुप्ता और उसके फार्म के बारे में बात करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना सा ही है कि कामयाबी के लिए जरूरी नहीं कि अच्छी पढ़ाई कर बड़ी कंपनी में मोटी तनख्वाह पर काम करना है। लगन हो तो कामयाबी तो अवश्य ही आपके कदम चूमेगी। यह कर दिखाया छोटे- से कस्बे नरसिंहगढ़ के फुन्सुक वांगडू यानी 'हर्ष गुप्ता' ने।
संपर्क: गली नंबर-1, किरार कालोनी, एस.ए.एफ. रोड,
कम्पू, लश्कर, ग्वालियर (म.प्र.) 474001
मो. 09893072930
Email- lokendra777@gmail.com
www.apnapanchoo.blogspot.com

प्रेरक

अंधी लड़की की कहानी
एक लड़की जन्म से नेत्रहीन थी और इस कारण वह स्वयं से नफरत करती थी। वह किसी को भी पसंद नहीं करती थी, सिवाय एक लड़के के जो उसका दोस्त था। वह उससे बहुत प्यार करता था और उसकी हर तरह से देखभाल करता था। एक दिन लड़की ने लड़के से कहा-'यदि मैं कभी यह दुनिया देखने लायक हुई तो मैं तुमसे शादी कर लूंगी'।
एक दिन किसी ने उस लड़की को अपने नेत्र दान कर दिए। जब लड़की की आंखों से पट्टियाँ उतारी गयीं तो वह सब कुछ देख सकती थी। उसने लड़के को भी देखा।
लड़के ने उससे पूछा- 'अब तुम सब कुछ देख सकती हो, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?'
लड़की को यह देखकर सदमा पहुँचा की लड़का अँधा था। लड़की को इस बात की उम्मीद नहीं थी। उसने सोचा कि उसे जिन्दगी भर एक अंधे लड़के के साथ रहना पड़ेगा, और उसने शादी करने से इंकार कर दिया।
लड़का अपनी आँखों में आंसू लिए वहां से चला गया। कुछ दिन बाद उसने लड़की को एक पत्र लिखा- 'मेरी प्यारी, अपनी आँखों को बहुत संभाल कर रखना, क्योंकि वे मेरी आंखें हैं'।
(www.hindizen.com से )

जंगलों को आग से बचाओ

- देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
लगातार लगते आग से जंगल में विलुप्तप्राय तमाम वनस्पतियों एवं वन्यजीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही है।
ग्रीष्मकाल शुरू होते ही गावों में ही नहीं प्रदेश के जंगलों में आग लगने का दौर शुरू हो जाता है। आग से मचाई जाने वाली तबाही एवं विनाशलीला से हजारों परिवार बेघर होकर खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को विवश हो जाते हैं। सरकार प्रतिवर्ष अग्निपीडि़तों में करोड़ों रुपए का मुआवजा तो वितरित कर देती है। परंतु प्रदेश की सरकारें आग रोकने या उसके त्वरित नियंत्रण की व्यवस्था करने में आजादी के बाद से अब तक असफल रहीं हैं। जंगलों में लगने वाली आग अकूत वन संपदा को स्वाहा कर देती है और इसकी विनाशलीला से वन्यजीवन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। आग प्रतिवर्ष अपना इतिहास दोहराकर नुकसान के आंकड़ों को बढ़ा देती है। प्रदेश की सरकार गांवों और जंगलों को आग से बचाने के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है। विश्व पर्यटन मानचित्र पर स्थापित यूपी के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के जंगलों में बार- बार होने वाली दावाग्नि को रोकने के लिए आधुनिक साधनों और संसाधनों की व्यवस्था नहीं है। इससे लगातार लगने वाली आग से दुधवा के जंगल का न सिर्फ पारिस्थितिक तंत्र गड़बड़ा रहा है, बल्कि जैव- विविधता के अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है। दुधवा नेशनल पार्क प्रशासन द्वारा जंगल में दावाग्नि नियंत्रण की तमाम व्यवस्थाएं फायर सीजन से पूर्व की जाती हैं। आग को रोकने के लिए कराए जाने वाले कार्यो को पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कराया जाए तो आग को विकराल होने से पहले उस पर नियंत्रण हो सकता है। किंतु निज स्वार्थों में कराए गए दावाग्नि नियंत्रण के कार्य एवं सभी तैयारियां फायर सीजन यानी माह फरवरी से 15 जून के मध्य में आए दिन जंगल में लगने वाली आग का रूप जब भी विकराल होता है तब वह मात्र कागजी साबित होती हैं।
यह बात अपनी जगह ठीक है कि जंगल में कई कारणों से आग लगती है या फिर लगााई जाती है। इसमें समयबद्ध एवं नियंत्रित आग विकास है किंतु अनियंत्रित आग विनाशकारी होती है। दुधवा के जंगल में ग्रासलैंड मैनेजमेंट एवं वन प्रबंधन के लिए नियंत्रित आग लगाई जाती है। इसके अतिरिक्त शरारती तत्वों अथवा ग्रामीणजनों द्वारा सुलगती बीड़ी को जंगल में छोड़ देना आग का कारण बन जाता है। वन्यजीवों के शिकारी भी पत्तों से आवाज उत्पन्न न हो इसके लिए जंगल में आग लगा देते हैं। दुधवा नेशनल पार्क के वनक्षेत्र की सीमाएं नेपाल से सटी हैं और इसके चारों तरफ मानव बस्तियां आबाद हैं। इसके चलते जंगल में अनियंत्रित आग लगने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका भी प्रमुख कारण है कि नई घास उगाने के लिए मवेशी पालक ग्रामीण जंगल में आग लगा देते हैं जो अपूर्ण व्यवस्थाओं के कारण अकसर विकाराल रूप धारण करके जंगल की बहुमूल्य वन संपदा को भारी नुकसान पहुंचाने के साथ ही वनस्पतियों एवं जमीन पर रेंगने वाले जीव- जंतुओं को भी जलाकर भस्म बना देती है। दावाग्नि से बीरान जंगल में वनस्पति आहारी वन पशुओं के लिए भी चारा का अकाल पड़ जाता है। विगत के वर्षों में कम वर्षा होने के बाद भी बाढ़ की विभीषिका के कहर का असर वनक्षेत्र पर व्यापक रूप से पड़ा है। बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी- बालू इत्यादि की हुई सिल्टिंग से जंगल के अन्दर तालाबों, झीलों, भगहरों की गहराई कम हो गई है। जिनमें पूरे साल भरा रहने वाला पानी वन्य जीव- जंतुओं को जीवन प्रदान करता था वे प्राकृतिक जलस्रोत अभी से ही सूखने लगे हैं। इसके कारण जंगल में नमी की मात्रा कम होने से कार्बनिक पदार्थ और अधिक ज्वलनशील हो गए हैं। जिसमें आग की एक चिंगारी सैकड़ों एकड़ वनक्षेत्र को जलाकर राख कर देती है।
जंगल में आग लगने का सिलसिला शुरू हो चुका है। इससे हरे- भरे जंगल की जमीन पर दूर तक राख ही राख दिखाई देती है। लगातार लगते आग से जंगल में विलुप्तप्राय तमाम वनस्पतियों एवं वन्यजीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही है और इससे जंगल की जैव- विविधता के अस्तित्व पर भी खतरा खड़ा हो गया है।
दुधवा टाइगर रिजर्व क्षेत्र के 886 वर्ग किलोमीटर के जंगल में आग नियंत्रण के लिए फायर लाइन बनाई जाती हैं। आग लगने की जानकारी तुरंत मिल सके इसलिए जंगल के संवेदनशील स्थानों पर वाच टावर बनाए गए हैं जो जर्जर होकर चढऩे लायक नहीं रहे हैं। आग लगने पर नियंत्रण के लिए वहां पर जाने के लिए रेंज कार्यालय या फारेस्ट चौकी पर वाहन उपलब्ध नहीं हैं। इस दशा में कर्मचारी जब तक सायकिलों से या दौड़कर मौके पर पहुंचते हैं तब तक आग अपना तांडव दिखाकर जंगल की हरियाली को राख में बदल चुकी होती है।
जंगल के समीपवर्ती आबाद गांवों के ग्रामीण भी अब आग को बुझाने में वन कर्मचारियों को सहयोग नहीं देते हैं। इसका कारण है सन् 1977 में क्षेत्र का जंगल दुधवा नेशनल पार्क के कानून के तहत संरक्षित किया जाने लगा है। इन कानूनों के अंतर्गत आसपास के सैकड़ों गावोंको पूर्व में वन उपज आदि की मिलने वाली सभी सुविधाओं पर प्रतिबंंध लग गया है। जबकि इससे पहले आग लगते ही ग्रामीणजन एकजुट होकर उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ते थे। इस बेगार के बदले में उनको जंगल से घर बनाने के लिए खागर, घास- फूस, नरकुल, रंगोई, बांस, बल्ली आदि के साथ खाना पकाने के लिए गिरी पड़ी अनुपयोगी सूखी जलौनी लकड़ी एवं अन्य कई प्रकार की वन उपज का लाभ मिला करता था। बदलते समय के साथ अधिकारियों का अपने अधीनस्थों के प्रति व्यवहार में बदलाव आया तो कर्मचारियों में भी परिवर्तन आ गया है। कर्मचारी वन उपज की सुविधा देने के नाम पर ग्रामीणों का आर्थिक शोषण करने के साथ ही उनका उत्पीडऩ करने से भी परहेज नहीं करते हैं। जिससे अब ग्रामीणों का जंगल के प्रति पूर्व में रहने वाला भावात्मक लगाव खत्म हो गया है। इससे अब वह जंगल को आग से बचाने में न सहयोग करते हैं और न ही वन्यजीवों के संरक्षण में कोई प्रयास करते हैं। आग लगने की सूचना पर दुधवा नेशनल पार्क के अधिकारियों का मौके पर न पहुंचना और अधीनस्थों को निर्देश देकर कर्तव्य से इतिश्री कर लेना यह उनकी कार्यप्रणाली बन गई है। इससे हतोत्साहित कर्मचारियों में खासा असंतोष है और वे भी अब आग को बुझाने में कोई खास रूचि नहीं लेते। जिससे जंगल को आग से बचाने का कार्य और भी दुष्कर हो गया है। दुधवा टाइगर रिजर्व के जंगल में लगने वाली अनियंत्रित आग से वन्यजीवन समेत वन संपदा को भारी क्षति पहुंच रही है। पार्क के उच्चाधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि आग लगने की बढ़ रही घटनाओं का एक प्रमुख कारण स्थानीय लोगों के बीच संवाद का न होना है। वह यह भी मानते हैं कि वित्तीय संकट, कर्मचारियों की कमी, निगरानी तंत्र में आधुनिक तकनीकियों का अभाव, अग्नि नियंत्रण की पुरानी पद्धति आदि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से जंगल में फैलने वाली अनियंत्रित आग को रोकने की दिशा में प्रभावशाली प्रयास करने में कठिनाईयां आ रहीं हैं। (www.dudhwalive.com से )

लेखक के बारे में - लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, वन्य- जीव सरंक्षण पर लगातार लेखन।
अमर उजाला में कई वर्षों तक पत्रकारिता। पलिया से ब्लैक टाइगर नाम का अखबार निकालते हैं।
उनका पता है- हिन्दुस्तान ऑफिस, पलिया कला, जिला- खीरी मो. 09415166103
Email- dpmishra7@gmail.com

परमाणु त्रासदी सबक न सीखने की कसम

- डा. सुरेंद्र गाडेकर
क्या परमाणु त्रासदियों से हम कभी कोई सबक सीखेंगे? इसका सीधा-सा जवाब है- कभी नहीं। हमारे देश के कर्णधार, भले ही वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा के हों, यह मान चुके हैं कि देश की लाखों मेगावाट बिजली की जरूरत केवल और केवल परमाणु ऊर्जा से ही पूरी की जा सकती है।
एक ऐसे देश में जहां घोटालों से दागदार सरकार के मुखिया अमरीका के साथ परमाणु करार (जिसे 123 करार भी कहा जाता है) को सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हों, जहां परमाणु ऊर्जा विभाग के मुखिया कहते हों कि जापान की परमाणु त्रासदी परमाणु इमरजेंसी नहीं बल्कि विशुद्ध रासायनिक घटना है, जिस देश का मीडिया कभी पूर्ववर्ती ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे देशों को भारत द्वारा हराने की घटना को आठ कॉलम की सुर्खियों में पेश करता हो, लेकिन उन हजारों लोगों के सड़कों पर उतरने की घटना की उपेक्षा करता हो, जिनकी जमीनें विकास के नाम पर लूटी जा रही हो, जिस देश के सैन्य अफसर अपार्टमेंट की छोटी-छोटी जगहों पर कब्जा जमाने में विलक्षण हों, जिस देश में न्याय की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठे लोगों को रंगे हाथ पकड़े जाने के बाद भी शर्म न आती हो, क्या वहां इस मसले पर और भी कुछ लिखने की जरूरत है?
लेकिन मैं आगे बढऩे से पहले ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा जो हमारी मानसिकता को दर्शाता है। अंग्रेजी समाचार-पत्र 'द हिंदू' में गत 15 मार्च को एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसका शीर्षक था 'भारतीय परमाणु संयंत्र सुरक्षित - वैज्ञानिक'। इसमें लिखा था, 'इस बात पर जोर देते हुए कि सुरक्षा के मौजूदा मापदंडों के अनुरूप भारतीय परमाणु संयंत्रों को लगातार उन्नत किया जाता रहा है, वैज्ञानिकों ने कहा कि जापान की घटनाओं की वजह से देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को किसी भी तरह धीमा नहीं किया जा सकता। भारतीय संस्थान पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि जापान के हालात के मद्देनजर वे देश के तमाम परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा पहलुओं की समीक्षा करेंगे।' आखिर इस बात के क्या मायने हैं कि 'सुरक्षा के सभी पहलुओं की समीक्षा करेंगे', जबकि इसके ठीक पहले वे साफ- साफ कहते हैं कि 'जापान की घटनाओं के कारण देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को धीमा नहीं किया जा सकता।' यहां 'सुरक्षा पहलुओं की समीक्षा' से उनका मतलब जापान का दौरा करने से होगा जो वे शायद करेंगे भी।
इसी रिपोर्ट में न्यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के प्रमुख एस.के. जैन ने कहा कि जापान की घटनाओं को उन्होंने बेहद गंभीरता से लिया है और देश के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की जांच उनकी मुख्य चिंता होगी। उन्होंने कहा कि अन्य देशों की नियामक परिपाटी के विपरीत भारत में नियामक बोर्ड एक बार में पांच साल तक की मंजूरी देता है। इसके बाद फिर से लाइसेंस हासिल करने के लिए सुरक्षा पहलुओं का आकलन अनिवार्य है। उन्होंने बताया कि उन तीन परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा की जांच चल रही है जिन्होंने हाल ही में पांच साल पूरे किए हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि देश के तमाम परमाणु संयंत्र सुरक्षा के उच्च मानदंडों के आधार पर संचालित किए जाते हैं। श्री जैन ने बताया कि तारापुर परमाणु संयंत्र, जिसकी दो इकाइयां 40 साल पुरानी हो चुकी हैं, में वर्ष 2004 में उन्होंने सुरक्षा की व्यापक जांच- पड़ताल की और ऐसी व्यवस्था बनाई गई कि इसकी सुरक्षा प्रणाली को लगातार उन्नत कर मौजूदा स्तर पर लाना अनिवार्य हो। उन्होंनें दावा किया कि संयंत्र परमाणु सुरक्षा के मानदंडों का पालन कर रहा है।
मुझे इस बात का पक्का भरोसा है कि ये महान वैज्ञानिक इस बात में सक्षम होंगे कि 2004 में पांच साल जोडऩे पर क्या आएगा। मेरे अनुसार तो वह 2009 होना चाहिए। लेकिन मैं कोई बड़ा वैज्ञानिक नहीं हूं, मैं तो दूरस्थ गांव में रहने वाला एक छोटा-सा किसान भर हूं। वर्ष 2009 में ही लाइसेंस का नवीनीकरण करवाना अनिवार्य था। लेकिन यह साफ प्रतीत होता है कि इस साल ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि अगर होता तो श्री जैन निश्चित रूप से इसका उल्लेख करते। आपको उनके बयान में 2004 से पहले के लाइसेंस नवीनीकरण करने का भी हवाला नहीं मिलता। ये लाइसेंस 1999, फिर उससे पहले 1994 से लेकर हर बीते पांच साल में एक बार जारी होने चाहिए थे। रिएक्टर 1969 में शुरू हुआ था, यानी 1974 में पहली बार लाइसेंस का नवीनीकरण होना था।
तो सवाल यह है कि आखिर उत्तरी मुंबई से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित इस चार दशक पुराने फुकुशिमा किस्म के जर्जर रिएक्टर की अनिवार्य सुरक्षा जांच- पड़ताल वर्ष 2009 में क्यों नहीं की गई, जबकि उस साल वास्तव में होनी चाहिए थी। आखिर यह अनिवार्य नियम कितना बाध्यकारी है? आखिर परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (एईआरबी) ने इन रिएक्टरों के संचालन पर रोक क्यों नहीं लगाई और बगैर लाइसेंस के जहरीले पदार्थों का उत्पादन करने वाले इस खतरनाक संयंत्र के संचालकों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? यही नहीं, पत्रकारों ने इस बारे में वैज्ञानिको से पूछने का साहस क्यों नहीं किया?
क्या वे भी 2004 में पांच जोडऩे में असमर्थ थे? मैं यहां जिस मानसिकता की बात कर रहा हूं, वह है 'वैज्ञानिक सोच' के अभाव की, जिम्मेदार लोगों से सवाल पूछने के रवैये की कमी की। जब तक हममें इस भावना का विकास होगा तब तक हमारे यहां फुकुशिमा, हिरोशिमा, चेरनोबिल और चेलिबिंक्स जैसी घटनाएं हो चुकी होगीं। शायद हमने अतीत की गलतियों से सबक न सीखने की कसम खा रखी है।
तो मैं अपना वही सवाल दोहराना-चाहूंगा कि यदि हम खुले दिमाग से सोचते तो जापान की परमाणु त्रासदी से क्या सबक सीख सकते थे? दरअसल, हमें बस एक ही सबक सीखने की जरूरत है- हम परमाणु मुक्त, कार्बन मुक्त दुनिया कैसे बनाएं? मेरे मित्र डा.अजुन माखिजानी ने इसी शीर्षक से एक किताब लिखी है। इसमें उन्होंने ऐसी योजना पेश की है जिसमें बताया गया है कि अमरीका जैसे देश के लिए वर्ष 2050 तक किस तरह परमाणु मुक्त, कार्बन मुक्त होना संभव है। 100 से भी ज्यादा परमाणु रिएक्टरों वाले अमरीका में, जहां की जीवनशैली में ऊर्जा की खपत बहुत अधिक है, में यदि यह संभव है तो भारत में क्यों नहीं? यहां तो कुल बिजली में परमाणु ऊर्जा का हिस्सा महज 2.5 फीसदी है, जबकि कुल ऊर्जा में बिजली की हिस्सेदारी 11 फीसदी। ऐसे में परमाणु ऊर्जा से बाहर निकलना राहत की बात होगी। 'कार्बन बी एंड न्यूक्लिअर-बी' नामक यह किताब वेबसाइट से नि:शुल्क डाउनलोड की जा सकती है। लेकिन साथ ही कई ऐसे और भी सबक हैं, जिन्हें सीखने की जरूरत है। इसमें सबसे अहम यह है कि हमें आधिकारिक घोषणाओं के बारे में संदेह की प्रवृत्ति का विकास करना होगा। क्लाउड कॉकबर्न की उक्ति थी- 'तब तक किसी बात पर भरोसा न करो जब- तक कि आधिकारिक रूप से उसका खंडन नहीं हो जाता।' इस उक्ति को अपने दिमाग में गहराई तक उतारने की जरूरत है। यह बात लाचार जापानी अधिकारियों पर जितनी सटीक बैठती है, उतनी ही अनभिज्ञ भारतीय अधिकारियों पर भी। 26 मार्च 2011 को न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट कहती है, 'सुनामी शब्द जापान सरकार की गाइडलाइंस में 2006 तक नहीं आया था', यानी जापानी तटों पर परमाणु संयंत्रों के कदम पडऩे के दशकों बाद तक भी नहीं। वर्ष 2002 में एक सलाहकार समूह की गैर बाध्यकारी अनुशंसाओं के बाद संयंत्र की कंपनी 'टोकियो इलेक्ट्रिक पॉवर कंपनी' ने फुकुशिमा दायची पर सुनामी लहरों की संभावित ऊंचाई का आकलन 17.7 और 18.7फीट के बीच किया था। लेकिन इसके बावजूद कंपनी ने केवल इतना किया कि उसने तट के निकट इलेक्ट्रिक पंप को और आठ इंच ऊंचाई पर स्थापित कर दिया, संभवत: ज्वार की लहरों से बचाने के लिए।
कुछ और भी सबक सीखने होंगे
1. एक ही स्थान पर एक साथ कई रिएक्टरों को स्थापित करने की परंपरा विश्वव्यापी रही है। यह आर्थिक रूप से लाभदायक होता है, लेकिन रिएक्टरों की सुरक्षा और आम लोगों के स्वास्थ्य के मद्देनजर इसके कई गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। जैसा कि हमने फुकुशिमा में देखा, एक रिएक्टर में कोई समस्या आने पर उसके आसपास रहने वाले लोगों को दिक्कत आ सकती है। लेकिन अगर रिएक्टर के आजू- बाजू में अन्य रिएक्टर हों तो उनमें कार्य करने वाले और बचाव दल के लोगों को विकिरण के रिसाव से समस्या हो सकती है।
2. भूकंप संभावित क्षेत्रों में रिएक्टरों की उपस्थिति को यह कहकर वाजिब ठहराया जाता रहा है कि यदि जापान में ऐसा हो सकता है, तो भारत में क्यों नहीं। लेकिन अब लगता है कि इस सोच पर विचार करने का समय आ गया है। जापान में भी यह सफल नहीं हो पाया। भारत के बारे में तो जितना कहा जाए, उतना कम है। वर्ष 2004 में सुनामी आने से पहले परमाणु ऊर्जा विभाग ने अपने प्रकाशन में जोर देकर कहा था कि भारत में आज तक सुनामी नहीं आई है और इसलिए रिएक्टरों की सुरक्षा की योजना में इस सुनामी वाले पहलू को छोड़ दिया गया। लेकिन याद करें, उस सुनामी को जब कलपक्कम स्थित मद्रास परमाणु ऊर्जा स्टेशन भी पानी से घिर गया था। नरारा और जैतपुरा में प्रस्तावित रिएक्टरों के सम्बंध में इस पहलू का ध्यान रखा जाना चाहिए, क्योंकि वे उस जोन- 4 में स्थित हैं, जहां छोटे- बड़े भूकंप आते रहते हैं।
3. जापान की परमाणु त्रासदी का अनुभव खासकर तारापुर स्थित रिएक्टरों के सम्बंध में काफी महत्त्वपूर्ण है। यहां के रिएक्टर फुकुशिमा स्थित रिएक्टरों की तरह ही हैं। अंतर इतना ही है कि वे हमारे यहां के रिएक्टरों से दो साल पुराने हैं। यह एक भयावह तथ्य है कि परमाणु ऊर्जा के प्रबंधकों को पुराने रिएक्टर सदैव से आकर्षित करते आए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि परमाणु ऊर्जा में सबसे ज्यादा खर्च रिएक्टरों के निर्माण पर ही आता है। इस खर्च की पूर्ति कई बार सार्वजनिक खजानों से भी की जाती है। लेकिन एक बार किसी भी तरह रिएक्टर स्थापित हो जाए तो उसके बाद बिजली उत्पादन की लागत अन्य विद्युत उत्पादन तकनीकों की बनिस्बत कम ही आती है। यही वजह है कि नए परमाणु संयंत्र स्थापित करने की बजाय पुराने संयंत्रों को ही चलायमान रखने की कोशिश की जाती है। पूरी दुनिया में यही हो रहा है। जो इकाइयां 25 से 30 साल के लिए डिजाइन की गई थीं, उन्हें 40 साल बाद भी चलाया जा रहा है। उन्हें 60 साल तक की सेवावृद्धि दे दी जाती है। पुराने रिएक्टरों के कभी भी अचानक ध्वस्त हाने की आशंका बढ़ जाती है लेकिन उन्हें कार्यमुक्त करने के बारे में कोई नहीं सोचता, क्योंकि परमाणु प्रतिष्ठानों के प्रमुखों को केवल अपने कार्यकाल की ही चिंता रहती है।
4. भारत में परमाणु इमरजेंसी में लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने की योजनाएं एक तरह से मजाक के समान हैं। उन्हें परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित अफसरों और प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने तैयार किया है। इनमें न तो उन लोगों की राय जानी गई जिनका बचाव इस योजना का मुख्य मकसद है और न ही उनसे कुछ पूछा गया जिन्हें इस तरह की योजनाओं से प्रभावित होना है।
परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित अफसर भी इन्हें लेकर गंभीर नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं है कि कभी इस तरह की परमाणु इमरजेंसी की नौबत आएगी भी। उन्होंने इन्हें इसलिए तैयार किया है क्योंकि उन्हें ऐसा करने को कहा गया। ऐसा करने को इसलिए कहा गया क्योंकि अंतराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी द्वारा यह अनिवार्य किया गया है। मूर्खतापूर्ण योजनाएं इसी का परिणाम होती हैं। उदाहरण के लिए व्यारा जिला मुख्यालय को लिया जा सकता है। इमरजेंसी की स्थिति में यहां के लोगों को बारडाली के एक स्कूल में ठहराया जाएगा, जो वहां के छात्रों के लिए ही छोटा पड़ता है। अधिकारियों का शायद यह मानना है कि किसी परमाणु ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाले रेडियोधर्मी विकिरण से भी घातक परमाणु भय होता है। यह सबक उन्होंने चेरनोबिल की त्रासदी से सीखा था। यदि फुकुशिमा की त्रासदी उन्हें सही सबक सिखा सके तो बेहतर रहेगा। हालांकि हमारे कर्णधार ऐसा कोई सबक सीखेंगे, इसमें संदेह है।(स्रोत फीचर्स)

विकिरण का अभिशाप

- प्रमोद भार्गव
वैज्ञानिक प्रगति के तमाम अनुकूल- प्रतिकूल संसाधनों पर नियंत्रण के बावजूद प्राकृतिक आपदा के सामने हम कितने बौने हैं यह जापान में महज दस सेकेंड के लिए आई विराट आपदा ने साबित कर दिया है।
विस्फोटक ऊर्जा पर नियंत्रण का खेल कितना विध्वंसकारी है, इसका अनुभव जापान के परमाणु रिएक्टर में लगी आग को देखकर हो जाता है। हालांकि जापान 1945 में परमाणु विस्फोट की विभीषिका का सामना कर चुका है, जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु हमले किए थे। इस तबाही ने साबित कर दिया था कि परमाणु विकिरण का असर न केवल तत्काल भयावह है, बल्कि भावी पीढिय़ों को भी इसका अभिशाप झेलना होता है। इसी प्रकार से, रूस के चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में 26 अप्रैल 1986 को घटी दुर्घटना ने भी लाखों लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया था।
इन दुष्परिणामों के बावजूद दुनिया खतरनाक परमाणु शक्ति को काबू करने से बाज नहीं आ रही। हम यह मानकर चल रहे थे कि जब तक तीसरे विश्व युद्ध का शंखनाद नहीं होता और उसमें भी परमाणु शस्त्रों का इस्तेमाल नहीं होता तब तक दुनिया महफूज है। लेकिन चेरनोबिल और जापान के परमाणु संयंत्रों में घटी घटनाओं ने साबित कर दिया है कि अचानक हुआ परमाणु हादसा भी दुनिया को झकझोर सकता है।
जापान में कुल 54 परमाणु बिजली घर हैं। जिनमें से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र भूकम्प व सुनामी की त्रासदी की चपेट में आकर विध्वंसक ज्वालामुखी का रूप धारण कर चुका है। रिएक्टरों के फटने से परमाणु रिसाव का संकट मुंह बाए खड़ा है। इस संकट पर काबू न पाया गया तो पैदा होने वाले रेडियोधर्मी तत्व लाखों लोगों को तिल- तिल मरने को विवश कर देंगे। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल परमाणु विकिरण के दुष्परिणामों के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
फुकुशिमा से फैल रहा रेडियोधर्मी रिसाव चेरनोबिल से भी ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है। क्योंकि इन संयंत्रों का ताप कम करने के लिए एक घंटे में जितनी रेडियोधर्मी भाप निकाली गई है, उतनी सामान्य संयंत्र संचालन के दौरान एक साल में निकलती है। जाहिर है कई हजार गुना ज़्यादा विकिरण वायुमण्डल में फैल रहा है।
परमाणु बिजलीघरों में विखण्डन के समय बहुत अधिक तापमान के साथ ऊर्जा निकलती है। यह ऊर्जा टरबाइन को घुमाने का काम करती है जिससे बिजली उत्पन्न होती है। तापमान को एक निश्चित सीमा तक काबू में रखने के लिए रिएक्टरों पर ठंडे पानी की धाराएं निरंतर छोड़ी जाती हैं। हालांकि प्राकृतिक अथवा कृत्रिम संकट की घड़ी में ये परमाणु संयंत्र अचूक कंप्यूटर प्रणाली से संचालित व नियंत्रित होने के कारण खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। इससे नाभिकीय विखण्डन तो थम जाता है लेकिन अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं एकाएक नहीं थमतीं। लिहाजा जलधारा का प्रवाह बंद होते ही रिएक्टरों का तापमान बढ़कर 10,000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यही कारण रहा कि फुकुशिमा रिएक्टर में धमाका होते ही संयंत्र की छत और दीवारें हवा में टुकड़े- टुकड़े होकर छितरा गर्इं।
दुर्घटना के समय तापमान को नियंत्रित करने के लिए परमाणु संयंत्र के ऊपर बोरिक एसिड, सीसा और शीत पदार्थों का छिड़काव भी किया गया, लेकिन रिएक्टर ठंडा करने के ये उपाय कारगर साबित नहीं हुए। अर्थात इस खतरनाक तकनीक पर काबू पाने के तकनीकी उपाय मजबूत व सार्थक नहीं हैं।
कोयला, पानी और तेल भंडारों की लगातार होती जा रही कमी के चलते इस समय पूरी दुनिया में बिजली की कमी दूर करने के लिए के समुद्र तटीय इलाकों में परमाणु रिएक्टरों का जाल फैलाया जा रहा है। भारत के समुद्र तटीय इलाकों में भी कई नए परमाणु संयंत्र लगाए जा रहे हैं। परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना तो एक अलग बात है, इनसे निकलने वाले परमाणु कचरे में यूरेनियम, प्लूटोनियम और विखण्डन से बने अन्य रेडियोसक्रिय तत्व बड़ी मात्रा में होते हैं। इनमें उच्च स्तर की रेडियोधर्मिता होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके दुष्परिणामों का वजूद पांच लाख सालों तक कायम रह सकता है। जाहिर है, परमाणु विभीषिका का ताण्डव तो हम रच सकते हैं लेकिन उस पर काबू पाने की तकनीक ईजाद करने में विज्ञान अभी सक्षम नहीं हुआ है। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल रेडियोधर्मी विकिरण से आज भी मुक्त नहीं हो पाए हैं।

न जाने कब आएगा हैप्पी मेन्स डे


अगर औरत पर हाथ उठाए तो जालिम,
और पिट जाए तो बुजदिल,

औरत को किसी के साथ देख कर
लड़ाई करे तो जलिस,
चुप रहे तो बे-गैरत।

घर से बाहर रहे तो आवारा,
घर पर रहे तो नाकारा।

बच्चो को डांटे तो जालिम,
ना डांटे तो लापरवाह।

औरत को नौकरी से रोके तो शक्की मिजाज,
ना रोके तो बीवी की कमाई खाने वाला।

मां की माने तो मां का चमचा,
बीवी की सुने तो जोरू का गुलाम...

न जाने कब आएगा,
हैप्पी मेन्स डे।

जाऊँ पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के...

- जवाहर चौधरी

रेडियो बजा तो सब निहाल हो गए। उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी। आवाज को कम- ज्यादा करने की सुविधा भी चौंकाने वाली थी। कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे। साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं।
1958- 59 का समय याद आ रहा है। इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर, जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाडिय़ां खूब थीं। सामान्य लोग पैदल चला करते थे। युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था। सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उस वक्त की फिल्मों में हीरो- हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुआत करते थे। दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था। दूल्हे प्राय: दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश होते। सायकिल को धोने- पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था।
बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे। सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदील से रौशन होता था। मनोरंजन के लिए लोग प्राय: ताश पर निर्भर होते थे। कुछ लोग शतरंज या चौसर भी जानते थे। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी। संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी। पिताजी ने चाबी से चलने- बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे 'चूड़ी वाला बाजा' कहते थे। घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे। उन्हें बाजे का बड़ा शौक था। एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी। एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था। पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी।
उन दिनों एक गाना खूब बजाया जाता था -- ' चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... '। मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था। यह गीत तो बहुत ही पसंद था। लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की। इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं। दोस्त अक्सर शाम को आते और 'बाजा-महफिल' जमती। कई गाने सुने जाते लेकिन ' चली कौन से देस ..' दो-तीन या इससे अधिक बार बजता।
कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी। पिताजी के दोस्त बाजा- महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते। एक दिन रेडियो आ ही गया। बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता। सिगनल पकडऩे के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह- तेरह फिट लंबा था। रेडियो बजा तो सब निहाल हो गए। उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी। आवाज को कम- ज्यादा करने की सुविधा भी चौंकाने वाली थी। कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे। साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं। रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी, खासकर बिनाका गीतमाला में। अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे 'भाइयो और बहनो' के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद घुल उठती। बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे 'बिनाका-डे' कहा जाने लगा। शाम होते ही लोग आने लगते। आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती। उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमती का गीत 'आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....' महीनों तक बजता रहा था। सायानी एक बार मुकेश और एक बार लता मंगेशकर की आवाज में इसे सुनवाते। इस गीत के आते- आते श्रोताओं का आनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते।
इस बैटरी- रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी। इसलिए अभी 'चूड़ी वाले बाजे' का महत्व कम नहीं हुआ था। याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई। कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी।
पहले 'चूड़ी वाला बाजा' बेकार हुआ, फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला। लेकिन इनकी यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं।
संपर्क- 16 कौशल्यापुरी, चितावाद रोड, इंदौर- 452001, मो.- 09 826361533,
Email- jc.indore@gmail.com, jawaharchoudhary.blogspot.com

आसमान में कलाबाजी करते परिन्दे

पक्षियों का स्वर्ग सात ताल और पंगोट
छाया एवं आलेख- सीजर सेनगुप्त
कठफोड़वा पेड़ की टहनी पर सबसे पहले फोटो खिंचवाने के लिये तैयार बैठा था। करीब बी तस्वीरें लेने के बाद हमें एहसास हुआ, कि उस जैसे और कठफोड़वे हमारे आस- पास मौजूद थे... हम उन्हें देखने के लिये अलग- अलग दिशाओं में बिखर गये। जब तक घनें जंगलों से होते हुये पहाड़ी पर चढ़ते रहे, सफेद गले वाली हंसने वाली चिडिय़ा की आवाज सारे जंगल में गूंजती रही।
मेरी आंख कब लगी मुझे पता ही नहीं चला। बारिश की ठंडी- ठंडी बूंदों ने नाक भिगो कर मानो मुझे जगाया हो! खिड़की से बाहर झांका तो मुझे हवा के झौके पर सवार ठंडक महसूस हुई। इन पहाड़ी रास्तों पर हमारी कार ठीक- ठाक रफ्तार से आगे बढ़ रही थी...मैंने अपनी घड़ी पर नजर डाली...सुबह के साढ़े छह बजे थे और हम काठगोदाम पहुंच चुके थे। सुबह की ताजी हवा से आती मिट्टी की सौंधी- सौंधी महक बता रही थी कि यहां अभी कुछ देर पहले बारिश हो चुकी थी। ये सारा माहौल बहुत अच्छा लग रहा था। लेकिन साथ ही चिंता भी सता रही थी, कि कहीं बारिश हमारी इस यात्रा के मुख्य उद्देश्य पर ही पानी न फेर दे... दरअसल हम हिमालय की वादियों में बसे पंगोट और सात ताल में परिंदों को देखने के मकसद से आये थे।
हफ्ते के आखिर में परिंदों को देखने के लिये (महाराष्ट्र के) पश्चिमी घाटों में भटकना हमारा रूटीन बन गया था। राकेश धरेश्वर और क्लीमेंट फ्रांसिस के लिखे यात्रा वर्णन ने हिमालय में पाये जाने वाले तरह- तरह के खूबसूरत परिंदों के बारे में, हमारे मन में पहले ही काफी उत्सुकता जगा दी थी। करीब दो महिने पहले मुम्बई से कर्जत लौटते हुये कॉफी की चुस्कियों के दौरान परिंदों को देखने के इस खास अभियान की योजना बना ली गयी थी। अपने- अपने कामों से छुट्टियां ले पाना एक बड़ी कसरत के जैसा था। आखिर तक हम तीनों का कुछ भी तय नहीं था। हालांकि हम सभी ने सोचा था कि इस खास मौके के लिये हम सबसे अच्छे उपकरण (कैमरा, दूरबीन) ले जायेंगे पर ये सब, खासतौर पर मेरे लिये संभव दिखाई नहीं दे रहा था। मैं और अमित अपनी पुरानी दूरबीनों (पुराने उपकरणों) के सहारे ही थे। पर पराग अपने नये 7 डी और 500 एमएम प्राइम को पाकर इतना खुश था कि उसने अपनी 100- 400 एमएम के लैंस इस खास मौके के लिये मुझे उधार दे दिये। फिर क्या था, मेरा काम तो हो गया।


हमारी फ्लाईट अच्छी खासी लेट हो चुकी थी। रनवे पर हमारा जहाज नौवें नंबर पर था। हवाई जहाज के अंदर बैठे- बैठे मुझे अभी से अगले कुछ दिनों के परम आनंद के बारे में सपने आने लगे थे। झटके से मेरी नींद टूटी तो पाया कि एक घंटे के इंतजार के बाद जाकर अब कहीं हम उड़ान भरने वाले थे। जब तक हम दिल्ली पहुंचे आधी रात हो चुकी थी। दिल्ली में रात बिताने का हमारा कोई इरादा नहीं था। हमारी फिक्र और चिंताओं को मात देते हुये हमने ड्राइवर को हमारा इंतजार करते पाया। उसके मुंह से 'गुड ईवनिंग सर' सुनते ही अमित बेफिक्र हो गया। 'पंगोट पहुंचने में आठ से नौ घंटे का समय लगेगा' हमारे ड्राइवर ने घोषणा की। सारी रात सफर में बीतने वाली थी। आरामदायक टोयोटा इनोवा की बड़ी खाली जगहों में हमारा सामान बड़ी आसानी से समा गया। मेरी आंख कब लगी मुझे पता ही नहीं चला। बारिश की ठंडी- ठंडी बूंदों ने नाक भिगोकर मानो मुझे नींद से जगाया हो... काठगोदाम...
पंगोट का 'जंगल लोर बर्डिंग कैम्प हमारे लिये सुखद आश्चर्य के जैसा था। जहां हमारी कार रूकी वहां रिजॉर्ट के नाम पर सिर्फ एक साइन बोर्ड था... रिसॉर्ट का दूर- दूर तक कहीं कोई नामो- निशान नहीं था। जल्द ही मुझे ये एहसास हो गया, कि रिसॉर्ट पहाड़ी की ढलान पर बनाया गया था...और उसके रिसेप्शन तक पहुंचने के लिये हमें कुछ कदम नीचे उतरना था। रिजॉर्ट के रिसेप्शन पर जिस गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत हुआ उसे देखकर हमारी खुशी दुगनी हो गयी। मैं जिंदगी में पहली बार ऐसा रिजॉर्ट देख रहा था जो खासतौर से पक्षी विहार यानी परिंदों में दिलचस्पी रखने वालों के लिये बनाया गया था। जैसे ही मैं अंदर गया मेरी नजर छज्जे पर पड़ी। उस पर दो और लोग बड़ी आसानी से रह सकते थे... मैंने अपना बिस्तर वहीं लगाने का फैसला किया। लकड़ी से बने इस कॉटेज की सजावट बड़े ही खास अंदाज में की गयी थी। जिसे बयान करना मुश्किल था... सब कुछ बड़ा ही जादुई... एक अजीब तरह ही उन्मुक्तता (मस्ती) से सराबोर था। उस पर गर्म- गर्म कॉफी सोने पर सुहागा। कॉफी खत्म होते ही मैंने अगले कुछ दिनों के लिये कैमरे पर लैंस फिट कर दिया था। अचानक पीछे से आवाज आयी 'गुड मॉर्निंग सर अगर आप तैयार हों तो हम रवाना हो सकते हैं'! मुड़कर देखा तो इस पूरे सफर का सबसे खास सदस्य हमारे सामने खड़ा था... हरी लामा जिसे इस इलाके में परिंदों के एन्साइक्लोपीडिया के नाम से जाना जाता था।


पंगोट, एक छोटा सा, बेहद खूबसूरत गांव है। जो नैनीताल से 15, कठगोदाम से 50 और जाने माने कॉर्बेट नेशनल पार्क के करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर है। लामा ने कहा 'हम पहले वुडपैकर प्वाइंट पर जायेंगे' ...हमारी पंगोट की यात्रा शुरू हो चुकी थी।
जिस जगह पर लामा हमें ले गया वह बहुत ही कमाल की जगह थी। मैं कार से उतरकर ट्राइपाड पर कैमरा कस ही रहा था कि लामा की फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी, 'वुडपैकर...एकदम नजदीक में' हम दौड़कर उस तक पहुंचे, वह एक पेड़ की टहनी की ओर इशारा कर रहा था। एक बेहद आकर्षक Rufous Bellied woodpecker पेड़ की टहनी पर सबसे पहले फोटो खिंचवाने के लिये तैयार बैठा था। उसकी करीब बीस तस्वीरें लेने के बाद हमें एहसास हुआ, कि उस जैसे कई और कठफोड़वे हमारे आस- पास मौजूद थे... हम उन्हें देखने के लिये अलग- अलग दिशाओं में बिखर गये। जब तक हम घनें जंगलों से होते हुये पहाड़ी पर चढ़ते रहे, सफेद गले वाली हंसने वाली चिडिय़ा की आवाज सारे जंगल में गूंजती रही। एक ग्रेट बारबेट हमें लगातार पुकार रही थी। मेरे सामने एक ऊंचे पेड़ पर Rufous Bellied woodpecker का एक जोड़ा एक दूसरे से शरारत कर रहा था... मैं बहुत देर तक उस जोड़े को देखता रहा। तभी मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये Verditer Flycatcher वहां से गुजरा। मैंने देखा पराग अपने कैमरे से उसकी तस्वीरें ले रहा था। मैं कठफोड़वे की ओर मुड़ा किन्तु वे उड़ चुके थे। मैंने कुछ चहचाहट सुनी... बड़ी मुश्किल से मैं समझ पाया कि एक भूरे रंग का कठफोड़वा बड़े जोरों से अपनी चोंच एक पेड़ पर मार रहा था। मैंने कुछ तस्वीरें लीं... फिर मुझे मौका मिला कि मैं अपना ट्राईपॉड तीन अलग- अलग जगहों पर रखकर तस्वीरें ले सकूं। उस समय मुझे पता नहीं था कि तस्वीरें कैसी आयेंगी... फिर भी मैंने कुछ तस्वीरें लीं और बाद में जब तस्वीरें देखीं तो दिल खुश हो गया।हमने वहां काफी समय बिताया। फिर हमें भूख सताने लगी तो हम अपने बेस कैम्प यानी रिसॉर्र्ट लौट आये। लंच के बाद परिंदों के साथ शाम बिताने के लिये हम फिर एक बार तैयार थे। इस बार हमें इस खुले इलाके में आने के लिये बहुत दूर तक सफर करना पड़ा। ये इलाकाRed billed blue magpies से भरा पड़ा था। घास में आवाज करते कुछ कीड़ों और इक्का- दुक्का हिमालयी बुलबुलों ने सूरज ढलने तक हमारा मनोरंजन किया। पहले ही दिन इतने सारे Lifer (Lifer ऐसे दुर्लभ परिंदों के लिये इस्तेमाल होता है, जिन्हें देखने का मौका किस्मत वालों को जिंदगी में शायद एक ही बार मिलता है) देख पाने की उम्मीद हम में से किसी को नहीं थी। जब हम रिसॉर्ट लौटे तो बेहद खुश थे।
शाम कॉफी, गपशप, पहले दिन दिखाई दिये परिंदों की लिस्ट तैयार करने में, अपने- अपने लैपटॉप पर तस्वीरों की डाऊनलोड और बैटरियों के लिये चार्जिंग प्वाइंट ढूंढने में समय कब बीता पता ही नहीं चला। रात के खाने का समय हो चला था....
पंगोट में हमारा काम अभी खत्म नहीं हुआ था। अगली सुबह Cheer pheasant की तलाश में हम और भी आगे गये। मुझे नहीं लगता कि लामा की मदद के बिना मुझे उस Cheer pheasant की इतनी भी झलक मिल पाती, जो मुझे उस रोज मिली थी। लामा की आंखें बाज के जैसी तेज थी! 'साहब उधर देखिये' उसने उंगली से इशारा किया। यहां तक कि दूरबीन की मदद से भी उन्हें देख पाना मुश्किल था। पर उनकी एक झलक पाकर ही हम सब खिल गये थे। Whiskered Yuhinas बार- बार उस पेड़ की टहनी पर आ रही थी, जो उसी ढलान पर था, जहां हम खड़े थे... तभी मुझे Himalayan Griffon दिखाई दी जिसका मुझे न जाने कब से इंतजार था। मैं हमेशा से हिमालय की वादियों की पृष्ठभूमि में उड़ान भरती Griffon की तस्वीर लेना चाहता था... वह तस्वीर एक सपना सच होने के जैसे होती... पर बदकिस्मती से मेरा हाथ हिल गया। वापसी में हमनें फिर एक बार कठफोड़वे से मिलने की सोची।
लंच के बाद हम सात ताल जाने वाले थे। पंगोट पूरी दुनियां से कटा हुआ था... सिर्फ कुछ ही जगहों पर मोबाइल के सिगनल मिलते थे। रास्ते में हम नैनीताल में रूके। अमित को कुछ पैसे निकालने थे, पराग को एसिडिटी की दवाईयां लेनी थी और मुझे अपने घर फोन करना था। इससे पहले कि हम सात ताल जाते लामा ने हमें नैनीताल डम्पिंग ग्राउंड के बारे में बताया, डम्पिंग ग्राउंड पहुंचकर इतने सारे Steppe Eagles को मंडराते देखकर हमें बड़ी हैरानी हुई। सच कहूं तो मैंने पहली बारSteppe Eagles की तस्वीरें ली थीं। सात ताल पहुंचते- पहुंचते शाम हो गयी थी। मुझे सामने के पेड़ पर बैठा एक Lesser Yellow naped Woodpecker दिखाई दिया। पर अंधेरा इतना हो चुका था, कि मैंने बैग खोलकर कैमरा निकालने की कोशिश नहीं की। हम सात ताल के बर्डिंग कैम्प रिसॉर्ट पहुंचे। ये जमीन से 4400 फीट की ऊंचाई पर भक्तुरा (Bhakgutra) गांव में था। इस बार रहने का इंतजाम टैंट में किया गया था। अंदर की सजावट बेहद खूबसूरत थी, बिस्तर आरामदेह था, गर्म पानी का इंतजाम और टैंट के अंदर आधुनिक शॉवर की कल्पना मैंने तो नहीं की थी।अगली सुबह सात बजे फोटोग्राफी रिजॉर्ट और उसके आस- पास के इलाकों में ही चलती रही। एक Grey Tree Pie अपनी तीखी आवाज में चीखता रहा। लामा जानता था कि उसे अभी इंतजार करना पड़ेगा... शायद घंटों तक... और उसने किया भी। उसने हमें पास ही की एक जगह दिखाई थी, जहां हमनें करीब दो घंटे बिताये। कुछ Bar Tailed Tree Creepers ने हमें उलझाये रखा जबकि Black Headed Jays अपने आपको नजर अंदाज होते देखते रहे। मुझे यकीन था कि वे मन ही मन जल रहे थे।
अगर लामा हमें लक्ष्मण ताल के बारे में नहीं बताता तो हम सारा दिन यहीं गुजार देते... यद्यपि शुरू में लक्ष्मण ताल इतनी खास नहीं लगी...पर जल्दी ही हम ये मान गये कि हमनें अपनी जिंदगी में अब तक ऐसी मुग्ध कर देने वाली जगह नहीं देखी थी। यही वह जगह थी जहां हमने पंगोट और सात ताल की सबसे ज्यादा और सबसे खूबसूरत तस्वीरें लीं। मैंने लामा का शुक्रिया अदा किया इतना सुंदर 'स्टूडियो' दिखाने के लिये... हां मैंने इस जगह को यही नाम दिया था... हम करीब आठ घंटों तक वहां बैठे रहे और हमें जरा भी थकान नहीं हुई... होती भी कैसे! आखिर वहां अपनी जिंदगी का सबसे खूबसूरत अनुभव जो लिया था... दस Lifer देखने का। वो भी एक ही दिन में। अगले दिन का कार्यक्रम बन चुका था। इस इलाके में ज्यादा से ज्यादा तस्वीरें निकालना। हमनें अगला सारा दिन इसी जगह पर बिताया। हमारे Lifers की संख्या बढ़कर अब 81 हो चुकी थी, और हम अब तक करीब 105 प्रजातियों की पहचान कर चुके थे। सपनों सी सुंदर हमारी हिमालय यात्रा अब खत्म हो चली थी। अगले दिन हमें दिल्ली से मुम्बई की फ्लाईट पकडऩी थी...।
याद नहीं मुझे कब नींद आ गयी। रास्ता रोके खड़ी एक टाटा सूमो के बेहूदा हॉर्न से मेरी आंख खुल गयी। खिड़की से बाहर झांका तो गर्म हवा का एक थपेड़ा मेरे मुंह पर आया। कार अब रूक चुकी थी... मैंने घड़ी देखी सुबह के साढ़े ग्यारह बजे थे... हम दिल्ली पहुंच चुके थे...। (www.dudhwalive.com से )
लेखक के बारे में -
लेखक वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर हैं, पेशे से डाक्टर व एक बड़ी व प्रतिष्ठित 'थायरोकेयर लैबोरेटरी' के जनरल मैनेजर हैं। असम के डिब्रूगढ़ में शिक्षा, मौजूदा समय में मुम्बई महाराष्ट्र में निवास।
संपर्क- 404-ए, इसरानी टावर,
सेक्टर-15, CBD बेलापुर,
नवी मुम्बई- 400614
मो.09 819839821,
Email-workcaesar@gmail।com
www.drcaesarphotography.com

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कैसे पहुंचें?
1. सड़क के रास्ते दिल्ली से कठगोदाम होते हुये नैनीताल : 8 घंटे
2. सड़क के रास्ते दिल्ली से रामनगर(कॉर्बेट नेशनल पार्क) होते हुये कलढुंगी: 07:30 घंटे
3. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से (प्रस्थान रात 22:45 बजे) कठगोदाम (आगमन सुबह 06:15 बजे) जाने वाली वातानुकूलित ट्रेन और फिर वहां से सड़क के रास्ते नैनीताल होते हुये पंगोट : 2 घंटे
4. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से (प्रस्थान रात 22:45 बजे) रामनगर (आगमन सुबह 05:00 बजे) जाने वाली वातानुकूलित ट्रेन और फिर वहां से सड़क के रास्ते कलाडूगंज होते हुये पंगोट : 02:30 घंटे

Sat Tal Birding Camp, Sat Tal - www.sattalbirdingcamp.com

कैसे पहुंचें?
1. सड़क के रास्ते दिल्ली से मोरादाबाद होते हुये हल्द्वानी और भीमताल : 7 घंटे.
2. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से (प्रस्थान रात 22:45 बजे) कठगोदाम (आगमन सुबह 06:15 बजे) जाने वाली वातानुकूलित ट्रेन. और फिर वहां से सड़क के रास्ते भीमताल होते हुये: 1 घंटे की यात्रा.
3. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से (प्रस्थान रात 22:45 बजे) रामनगर (आगमन सुबह 05:00 बजे) जाने वाली वातानुकूलित ट्रेन. और फिर वहां से सड़क के रास्ते हल्द्वानी और भीमताल होते हुये सात ताल 3 घंटे की यात्रा.
मेहरगांव पहुंचने पर सात ताल की ओर बढ़िये...2 किलोमीटर के बाद मुड़ने पर बाईं ओर एक बोर्ड लगा दिखाई देगा... जिस पर लिखा होगा "Sat Tal Birding Camp"
Asian Adventures, B-9, Sector-27, Noida - 201301
Telefax: (+91 120) 2551963, 2524878, 2524874
Email: wildindiatours@vsnl.com
Web: www.himalayanlodges.com

जज़्बा


रिक्शा चालक बना लेखक 
परिवार की आर्थिक हालत ठीक न होने के चलते रहमान को 10 वीं के दौरान स्कूल छोड़ आजीविका चलाने के लिए काम करना पड़ा, लेकिन वह लेखक बनना चाहते थे। वह कहते हैं कि पिता के निधन के बाद मेरे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। उस समय लेखन के क्षेत्र में जाकर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए न तो मेरे पास समय था और न ही संसाधन।
यूपी (बस्ती) के एक रिक्शा चालक की लिखी चार किताबें छप चुकी हैं, जिसमें विभिन्न मुद्दों पर आधारित करीब चार सौ कविताओं का संग्रह है। बस्ती जिले के बड़ेबन गांव निवासी रहमान अली रहमान (55) ने बताया कि कविता लेखन मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। बिना कविताओं के मैं अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। कविता मुझे जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति देती है। रहमान के मुताबिक जब उन्हें सवारी नहीं मिलती तो वह अपने समय का उपयोग कविता लिखकर करते हैं।
परिवार की आर्थिक हालत ठीक न होने के चलते रहमान को 10 वीं के दौरान स्कूल छोड़ आजीविका चलाने के लिए काम करना पड़ा, लेकिन वह लेखक बनना चाहते थे। वह कहते हैं कि पिता के निधन के बाद मेरे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। उस समय लेखन के क्षेत्र में जाकर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए न तो मेरे पास समय था और न ही संसाधन।
कुछ समय बाद रहमान कानपुर जाकर एक सिनेमाघर में नौकरी करने लगे। रहमान याद करते हुए कहते हैं कि नौकरी के दौरान उन्हें फिल्मी गाने सुनने का मौका मिलता। बाद में वह खुद गीत लिखने की कोशिश करने लगे। अपने गीतों से रहमान कुछ दिनों में सिनेमाघर के कर्मचारियों के बीच खासे लोकप्रिय हो गए। रहमान जो अभी तक केवल गाने लिखते थे धीरे- धीरे समसामयिक मुद्दों पर लंबी कविताएं लिखने लगे।
इसी बीच उन्हें बस्ती जिले स्थित अपने गांव जाना पड़ा, जहां उनकी शादी हो गई। यहां उन्होंने अपनी आजीविका चलाने के लिए रिक्शा चलाने का फैसला किया। इस दौरान उन्होंने रिक्शा चलाते हुए कविताएं लिखना जारी रखा। रहमान के तीन बेटे और तीन बेटियां हैं।
साल 2005 रहमान के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया जब एक व्यक्ति की मदद से रहमान की पहली किताब का प्रकाशन हुआ। रहमान ने बताया कि आवास विकास कॉलोनी (बस्ती) के पास एक दिन मैं सवारी का इंतजार कर रहा था तभी एक व्यक्ति ने मुझसे कहीं छोडऩे के लिए कहा। उसने देखा मैं कागज पर कुछ लिख रहा हूं। रास्ते में बातचीत के दौरान उसे मेरे कविता लेखन के बारे में पता चला। उसने मुझे स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कानपुर जेल के एक कार्यक्रम में कविताएं सुनाने का मौका दिया। रहमान ने उस कार्यक्रम में हिस्सा लिया और इस दौरान उन्हें पता चला कि वह व्यक्ति मशहूर हास्य कवि रामकृष्ण लाल जगमग हैं।
बाद में रहमान का सामाजिक दायरा बढ़ा। एक कार्यक्रम में रहमान की मुलाकात कुछ शिक्षकों से हुई। वे कानपुर के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) मानस संगम के सदस्य थे। इन लोगों की मदद से साल 2005 में रहमान की पहली किताब 'मेरी कविताएं ' का प्रकाशन हुआ। तब से रहमान की 'रहमान राम को', 'मत करो व्यर्थ पानी को' सहित तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
एनजीओ मानस संगम के संयोजक बद्री नारायण तिवारी ने कहा कि रहमान हर मायने में अद्भुत हैं। विपरीत परिस्थितियों में कविता लेखन की निरंतर कोशिश का उनका जज्बा निश्चित तौर पर तारीफ के काबिल है।