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Apr 10, 2011

विकिरण का अभिशाप

- प्रमोद भार्गव
वैज्ञानिक प्रगति के तमाम अनुकूल- प्रतिकूल संसाधनों पर नियंत्रण के बावजूद प्राकृतिक आपदा के सामने हम कितने बौने हैं यह जापान में महज दस सेकेंड के लिए आई विराट आपदा ने साबित कर दिया है।
विस्फोटक ऊर्जा पर नियंत्रण का खेल कितना विध्वंसकारी है, इसका अनुभव जापान के परमाणु रिएक्टर में लगी आग को देखकर हो जाता है। हालांकि जापान 1945 में परमाणु विस्फोट की विभीषिका का सामना कर चुका है, जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु हमले किए थे। इस तबाही ने साबित कर दिया था कि परमाणु विकिरण का असर न केवल तत्काल भयावह है, बल्कि भावी पीढिय़ों को भी इसका अभिशाप झेलना होता है। इसी प्रकार से, रूस के चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में 26 अप्रैल 1986 को घटी दुर्घटना ने भी लाखों लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया था।
इन दुष्परिणामों के बावजूद दुनिया खतरनाक परमाणु शक्ति को काबू करने से बाज नहीं आ रही। हम यह मानकर चल रहे थे कि जब तक तीसरे विश्व युद्ध का शंखनाद नहीं होता और उसमें भी परमाणु शस्त्रों का इस्तेमाल नहीं होता तब तक दुनिया महफूज है। लेकिन चेरनोबिल और जापान के परमाणु संयंत्रों में घटी घटनाओं ने साबित कर दिया है कि अचानक हुआ परमाणु हादसा भी दुनिया को झकझोर सकता है।
जापान में कुल 54 परमाणु बिजली घर हैं। जिनमें से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र भूकम्प व सुनामी की त्रासदी की चपेट में आकर विध्वंसक ज्वालामुखी का रूप धारण कर चुका है। रिएक्टरों के फटने से परमाणु रिसाव का संकट मुंह बाए खड़ा है। इस संकट पर काबू न पाया गया तो पैदा होने वाले रेडियोधर्मी तत्व लाखों लोगों को तिल- तिल मरने को विवश कर देंगे। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल परमाणु विकिरण के दुष्परिणामों के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
फुकुशिमा से फैल रहा रेडियोधर्मी रिसाव चेरनोबिल से भी ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है। क्योंकि इन संयंत्रों का ताप कम करने के लिए एक घंटे में जितनी रेडियोधर्मी भाप निकाली गई है, उतनी सामान्य संयंत्र संचालन के दौरान एक साल में निकलती है। जाहिर है कई हजार गुना ज़्यादा विकिरण वायुमण्डल में फैल रहा है।
परमाणु बिजलीघरों में विखण्डन के समय बहुत अधिक तापमान के साथ ऊर्जा निकलती है। यह ऊर्जा टरबाइन को घुमाने का काम करती है जिससे बिजली उत्पन्न होती है। तापमान को एक निश्चित सीमा तक काबू में रखने के लिए रिएक्टरों पर ठंडे पानी की धाराएं निरंतर छोड़ी जाती हैं। हालांकि प्राकृतिक अथवा कृत्रिम संकट की घड़ी में ये परमाणु संयंत्र अचूक कंप्यूटर प्रणाली से संचालित व नियंत्रित होने के कारण खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। इससे नाभिकीय विखण्डन तो थम जाता है लेकिन अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं एकाएक नहीं थमतीं। लिहाजा जलधारा का प्रवाह बंद होते ही रिएक्टरों का तापमान बढ़कर 10,000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यही कारण रहा कि फुकुशिमा रिएक्टर में धमाका होते ही संयंत्र की छत और दीवारें हवा में टुकड़े- टुकड़े होकर छितरा गर्इं।
दुर्घटना के समय तापमान को नियंत्रित करने के लिए परमाणु संयंत्र के ऊपर बोरिक एसिड, सीसा और शीत पदार्थों का छिड़काव भी किया गया, लेकिन रिएक्टर ठंडा करने के ये उपाय कारगर साबित नहीं हुए। अर्थात इस खतरनाक तकनीक पर काबू पाने के तकनीकी उपाय मजबूत व सार्थक नहीं हैं।
कोयला, पानी और तेल भंडारों की लगातार होती जा रही कमी के चलते इस समय पूरी दुनिया में बिजली की कमी दूर करने के लिए के समुद्र तटीय इलाकों में परमाणु रिएक्टरों का जाल फैलाया जा रहा है। भारत के समुद्र तटीय इलाकों में भी कई नए परमाणु संयंत्र लगाए जा रहे हैं। परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना तो एक अलग बात है, इनसे निकलने वाले परमाणु कचरे में यूरेनियम, प्लूटोनियम और विखण्डन से बने अन्य रेडियोसक्रिय तत्व बड़ी मात्रा में होते हैं। इनमें उच्च स्तर की रेडियोधर्मिता होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके दुष्परिणामों का वजूद पांच लाख सालों तक कायम रह सकता है। जाहिर है, परमाणु विभीषिका का ताण्डव तो हम रच सकते हैं लेकिन उस पर काबू पाने की तकनीक ईजाद करने में विज्ञान अभी सक्षम नहीं हुआ है। हिरोशिमा, नागासाकी और चेरनोबिल रेडियोधर्मी विकिरण से आज भी मुक्त नहीं हो पाए हैं।

1 comment:

सहज साहित्य said...

विकिरण का अभिशाप -लेख में बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है । कुछ सुखों के लिए हम अपना अमन-चैन खोने को तैयार हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो बढ़ती सुविधाएँ ही हमारे विनाश का कारण बनती जा रही हैं। हम आदिम युग से भी ज़्यादा बर्बर हो रहे हैं । कुछ वर्षों के सुखा के लिए आने वाली पीढ़ियों को नरक में झोंकने को तैयार हैं।