छ: सात तरूण तरुणियां। औसत आयु बीस-बाइस वर्ष। सभी मेधावी। एमबीए के विद्यार्थी। बहस चल रही थी। बहस का विषय, हमारी राष्ट्रीय पहचान। खानपान, वेशभूषा, रीति- रिवाज, भाषा इन सबके मामले में तो हमारे देश में इतनी विविधता है कि एक ही प्रांत में ये सब अनेक हो सकते हैं। तो फिर क्या है जो भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और मुम्बई से मेघालय तक हमारे समाज में समान रूप से व्याप्त है। इन मेधावी छात्र-छात्राओं की बहस का निष्कर्ष था कि गरीबी और भ्रष्टाचार ही सिर्फ दो ऐसी चीजें हैं जो हमारे देश के चप्पे-चप्पे में समान रूप से व्याप्त हैं। अतएव गरीबी और भ्रष्टाचार ही हमारी राष्ट्रीय पहचान है।
यह हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य है कि उपरोक्त निष्कर्ष एक कड़वा सच है।
हमारा समाज दो भागों में बटा है। एक वह जो शक्तिशाली वर्ग है- नेता और प्रशासन के सदस्य वे जो भ्रष्टाचार के लाभार्थी हैं। दूसरा समाज का बहुसंख्यक निर्बल वर्ग जिसे आम आदमी भी कहने का चलन है। यद्यपि कि बिना लेनदेन के कुछ भी न करने की हमारे यहां पुरानी परंपरा रही है। राजा, महाराजा, बादशाह और नवाब से तो बिना नजर भेंट किए मिला भी नहीं जा सकता था। इसी चलन के फलस्वरूप राज्य के निचले तबके के पदाधिकारी जैसे सूबेदार, तालुकेदार, जमींदार भी लड़की के ब्याह के बहाने या हाथी खरीदने या कार खरीदने के बहाने रियाया से धन उगाहा ही करते थे। इसी परिपाटी के चलते 1947 में आजादी मिलने के समय भी पुलिस, तहसील और जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार व्याप्त था। इनके अतिरिक्त सरकार के अन्य विभाग तथा उच्च न्यायालय इत्यादि पर भ्रष्टाचार की काली छाया तब तक नहीं पड़ी थी।
आजादी के बाद से भ्रष्टाचार बेहद तेजी से बढ़ा है और आज यह हालत है कि आज ऐसा सरकारी विभाग जिसमें भ्रष्टाचार कार्यप्रणाली का अनिवार्य अंग न हो ढूंढने पर भी न मिलेगा। बच्चे का स्कूल में दाखिला कराना हो, मरीज का अस्पताल में इलाज कराना हो, पासपोर्ट लेना हो, ड्राइविंग लाईसेंस लेना हो, जन्म या मृत्यु प्रमाण पत्र लेना हो, बिजली या पानी का कनेक्शन लेना हो- कुछ भी ऐसा हो जिसमें सरकार से कोई कागज प्राप्त करना हो तो वह काम बिना रिश्वत दिये हो नहीं पाता है। कोई भी ट्रक राजमार्ग पर ट्रैफिक पुलिस को नजराना चढ़ाये बगैर एक इंच भी चल नहीं सकता है।
सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि इस भ्रष्टाचार की आग में आम आदमी की गरीबी हटाने के नाम पर चलाई गई सरकारी योजनाओं ने घी का काम किया है। 1969 से गरीबी हटाओं के नाम पर जनता के पैसे (सरकारी खजाना) की जो लूट शुरु हुई उससे गरीबी तो नहीं हटी पर नेताओं और सरकारी कर्मचारियों की अमीरी दिन दूनी रात चौगुनी बढऩे लगी। अब तो हालत यह है कि सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा हो, सेनाओं के लिए हथियारों की खरीद हो, गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के लिए सस्ते मूल्य के खाद्यान्न हो, सूखे के कारण भूख से मरते पशुओं का चारा हो, न्याय प्रणाली के उच्च स्तर हो, सभी जगह भ्रष्टाचार का नंगा नाच अबाध रूप से चल रहा है। सांसद भी प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेते देखे गए हैं।
भ्रष्टाचार को राजनीतिक सत्ता का एकमात्र उद्देश्य बनाने की अंधी दौड़ में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा ने सबको पछाड़ दिया है। झारखंड देश का प्राकृतिक संसाधनों में सबसे संपन्न राज्य होने के बावजूद आर्थिक रूप से सबसे गरीब और पिछड़ा है। मधु कोडा पहले खाद्य मंत्री बने और फिर से दो वर्ष से भी कम समय तक मुख्यमंत्री रहे। आयकर विभाग के अनुसार इन चार वर्षों में 4000 हजार करोड़ रुपए ( जो झारखंड के सलाना बजट की बीस प्रतिशत राशि है) कि रकम हड़प ली और देश में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि के साथ-साथ विदेश में लीबिया, दुबई, थाईलैंड इत्यादि में व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित किए। त्रासदी यह है कि राज्य सरकारों और केंद्र में राजनीति के ऐसे काले चेहरों की भरमार है।
एक पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि सरकारी योजनाओं में खर्चा होने वाली रकम का सिर्फ10 प्रतिशत ही वास्तविक कार्यों पर खर्च होता है। अभी कुछ ही हफ्ते पहले केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना का दो जिलों में सर्वेक्षण कराया तो ज्ञात हुआ कि इस पर खर्च होने वाली हजारों करोड़ की राशि का कम से कम 40 प्रतिशत भ्रष्टाचारियों द्वारा हड़प लिया जाता है। हम यह भी जानते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार स्वीकारोक्ति में काफी कंजूसी दिखाती है अत: वास्तव में यह रकम 40 प्रतिशत से कहीं अधिक होगी।
हमारे देश में भ्रष्टाचार के इतने व्यापक रूप से पनपने के प्रमुख कारणों में से एक हमारे देश की जर्जर और लचर न्याय प्रणाली भी है। जिसके कारण भ्रष्टाचार के लिए दंडित होने की संभावना गधे के सिर पर सींग होने से भी कम है। कड़वा सच तो यह है कि न्याय प्रणाली भ्रष्टाचारियों के लिए सुरक्षा कवच का काम करती प्रतीत होती है। यथार्थ तो यह है कि गरीबी और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है। यह तो कहना मुश्किल है कि इन दोनों में से कौन कारण है और कौन परिणाम परंतु दोनों का एक दूसरे पर आश्रित होना तो बिल्कुल स्पष्ट है। गरीबी और भ्रष्टाचार का यह घातक गठजोड़ अब कैंसर बनकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था की जड़े ही खोदने में जुटा है। दावानल की तरह फैलते नक्सलवाद के लिए भी यही काफी कुछ जिम्मेदार है।
विडंबना यह है कि भ्रष्टाचार के अथाह दलदल में महात्मा गांधी के नाम को भी घसीटा जा रहा है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में व्यापक रूप से भ्रष्टाचार होने का तथ्य उजागर होते ही इस योजना का नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया गया है। वर्तमान माहौल में तो भ्रष्टाचार का गहरा अंधेरा मिटता नहीं दिखता। हां, यह विश्वास अवश्य है कि भ्रष्टाचार और गरीबी की अमावस्या से मुक्ति दिलाने के लिए भारत माता महात्मा गांधी जैसी महान आत्मा को फिर से जन्म देगी जो हमारे देश में सार्वजनिक सुख और समृद्धि की परिस्थितियां संभव करेगी।
- डॉ. रत्ना वर्मा