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Nov 20, 2009

रंगमंच


बहादुर कलारिन एक जीवंत दस्तावेज
- मुन्ना कुमार पांडे
सही मायनों में छत्तीसगढ़ के एक लगभग विस्मृत और बिखरे लोक - आख्यान को एक सूत्र, एक घटनात्मक क्रम में पिरोकर पूर्ण नाटक का पाठ बना देना कम रचनात्मकता की बात नहीं है। 'बहादुर कलारिन' नाटक रचनात्मक लेखन का जीवंत दस्तावेज है।
हबीब तनवीर के नाटक 'आगरा बाजार' के बारे में प्रसिद्ध रंग-समीक्षक नेमीचंद्र जैन ने कहा था- 'वैसे हिन्दी में संवेदनशील नाट्यालेख अभी भले ही कम और नाकाफी हो पर हिंदी रंगमंच का विस्तार पर्याप्त बल्कि हर देश की हर भाषा से ज्यादा व्यापक और विविधतापूर्ण है। उसमें देश-विदेश की अनेक भाषाओं और नाटककारों के श्रेष्ठ नाटक लगातार प्रस्तुत हो रहे हैं और इस प्रक्रिया में हिन्दी के नाट्य प्रर्दशन का कलात्मक स्तर और फैलाव बहुत बढ़ चुका है।' यद्यपि यह उक्ति 'आगरा बाजार' से संबंधित है, परंतु नाटककार के रचनात्मक और कलात्मक विवेक से मुक्त कुछ ऐसे ही आख्यान क्लासिक का दर्जा हासिल कर लेत हैं। 'बहादुर कलारिन' ऐसा ही नाटक है।
सही मायनों में छत्तीसगढ़ के एक लगभग विस्मृत और बिखरे लोक - आख्यान को एक सूत्र, एक घटनात्मक क्रम में पिरोकर पूर्ण नाटक का पाठ बना देना कम रचनात्मकता की बात नहीं है। 'बहादुर कलारिन' नाटक रचनात्मक लेखन का जीवंत दस्तावेज है। एक ऐसा लोक- आख्यान जिसकी कथा काफी मार्मिक थी। यह अपने कथ्य में पश्चिम के दु:खांत नाटकों का स्वरूप लिए हुए था जो कि भारतीय रंगमंच का क्षेत्र नहीं माना जाता है। दूसरे, इस लोक- आख्यान में नाटककार हबीब तनवीर को 'इडिपस कॉम्प्लेक्स' का एक पहलू नजर आने के बावजूद नाट्यालेखन में यह दिक्कत आई कि इस आख्यान को नाटक का रूप क्या और कैसे दें? ऐसा होना स्वाभाविक था। 'दरअसल लोककथा तो केवल मां-बेटे के बारे में थी। प्रेमी, जिसके माध्यम से छछान-छाडू ने जन्म लिया, उसका ना तो कोई खास जिक्र था और ना उसका कोई व्यक्त्वि कथा के अंदर दिखाया
गया था।'
'बहादुर कलारिन' के लोक-अख्यान का नाटकीय रूपांतरण पहली जरूरत थी, परंतु इससे भी पहले इसका नाट्यालेख तैयार करना महत्वपूर्ण था। हबीब साहब ने पटना में 'सफदर हाशमी समारोह' (2002) के व्याख्यान में कहा था- मान लो, फर्ज करो के वो राजा आया और सचमुच उसपर मोहित हुआ और सचमुच उससे वादा किया कि आऊंगा मैं वापिस मगर फिर भी, ऐसा उलझा अपने कामों में कि फिर वापिस नहीं सका।
उन्होंने नाटक में नायक की एंट्री दुबारा कराई। इससे हुआ यह कि 'इडिपस' की कथा का पहलू भी उभरा। इसका कारण था कि इस लोक- अख्यान को हबीब तनवीर महज नाटक के पाठ के तौर पर ही नहीं रखना चाहते थे, उनका रंगकर्म इसकी इजाजत उन्हें देता है, बल्कि इस लोक- आख्यान नाटक को मंच पर प्रस्तुत करने के लिहाज से इसमें कुछ बदलावों की जरूरत थी। साथ ही 'कलारिन' के आख्यान के बरबस हबीब साहब के मस्तिष्क में 'राजा इडिपस' की कथा भी थी, तो इस लोक- आख्यान का नाट्यालेख तैयार करने में रचनात्मक छूट ली। इस प्रयोग से नाटक में रोचकता गई और गतिशीलता भी। परंतु नाट्यालेख फिर भी इस अर्थ में इंडिपस की कथा से भिन्न है कि यहां पिता जानबूझकर पुत्र के हाथों मार दिया
जाता है।
'बहादुर कलारिन' का आख्यान कलमबद्ध होकर एक नाटक का रूप ले चुका था। अब जरूरत इसकी पूर्णाहुति यानी मंच पर प्रदर्शन की थी। बहादुर कलारिन के आख्यान में छछान छाडू की एक सौ छब्बीस शादियों की कथा है। जिसे नाट्यलेख में जस का तस रखा गया था, अब कठिनाई उसको मंच पर प्रदर्शित करने की थी। हबीब तनवीर ने अपने रंग कौशल से इसे एक अनूठे अंदाज में मंचित किया। उन्हीं के शब्दों में- जहां तक एक सौ छब्बीस शादियां दिखाने की समस्या थी। उसे मैंने यूं हल कर लिया कि पहली दो शादियां के सीन के बाद दो- तीन मिनट के गीत में बाकी शादियां निपटा दी। बस एक आखिरी शादी को रोक दिया।
हबीब साहब के इस रंग प्रयोग से मंच पर लोक आख्यान तथा नाटक में वर्णित 126 शादियों की रंगमंची पुष्टि भी सफलतापूर्वक हो जाती है। इस रंग-प्रयोग के बारे मेंं उन्होंने लिखा- 'मंडला की गोंड नाच पार्टी वह गाना गाती है, जिसमें : लड़के : लड़कियां नाचते गाते हैं... सारी लड़कियां नाचती हुई एक एक करके छछान के पास आकर खड़ी होती जाती हैं। पति- पत्नी की आरती उतारी जाती है, बहादुर हर एक बहू के हाथ में एक मूसल थमा देती है। लड़की मूसल लिए दूसरी तरफ से नाच में फिर शामिल हो जाती हैं। इस तरह नाच गाना भी चलता रहता है और एक के बाद एक शादी भी होती रहती है।' हाथ में मूसल देने के रंग प्रयोग से हबीब तनवीर ने लोक आख्यान के उस विश्वास को पुष्ट कर डाला कि सोरर गांव और चिरचारी (बहादुर कलारिन का गांव) की पथरीली जमीन पर अनगिनत गोल- गोल गड्ढ़े हैं जिनके बारे में विख्यात है कि ये ओखलियां थी। बहादुर अपनी बहुओं के हाथ में मूसल दे देती और कहती थी- जाओ धान कूटो।
रंगमंच एक ऐसा माध्यम है जिससे जनमानस का सीधा संपर्क होता है यह अपने समाज को प्रतिबिंबित करते हुए उसकी चिंतन धारा को भी प्रभावित करता है। यह समाज अपने अंचल की लोककथा, लोककला को जब मंच पर सजीव होते देखता है तो वह अभिभूत हो जाता है। हबीब तनवीर को बहादुर कलारिन के कथ्य को मंच पर प्रदर्शित करते समय थोड़ा संशय था कि क्या भारतीय समाज इस तरह के कथानक को स्वीकार करेगा। उन्होंने लिखा भी है - 'मुझे तो यह भी डर था कि राजनीतिक दलों की बात दूर रही, शायद गांव वाले इस नाटक को मंच पर स्वीकार करें लेकिन कोरबा के खुले मंच पर जब यह नायक खेला गया, जहां कारखानों में काम करने वाले और मध्यम कई के दफ्तरों में काम करने वालों के अलावा हजारों की संख्या में देहातों के लोग भी जमा थे तो यह देखकर मैं हैरान रह गया कि शुरू से आखिर तक ट्रेजेडी सन्नााटे में देखी गई।Ó
ऐसा होना सहज था। बहादुर दुलारिन का लोक आख्यान उन लोगों के सामने पहली बार मूर्त रूप में सामने आया था। इससे पहले वे लोग इस आख्यान को सुनते रहे थे, लेकिन जब सामने घटित आख्यान उन्हें दिखा तो कथानक की गंभीरता और त्रासदी का पहली बार अनुभव हुआ। इसकी एक वजह यह भी थी कि इस नाटक के क्रिया व्यापार में प्रेक्षकों को अनुभव की तीव्रता और गहराई दिखाई दी।
वैसे भी रंगमंच की अपेक्षा का वास्तविक अर्थ नाटक के मंच पर अभिनेताओं के माध्यम से दृश्य रूप में मूर्त हो सकने की क्षमता और दर्शकों को बांध लेने की सामथ्र्य से जुड़ा है। इस दृष्टि से निर्देशक हबीब तनवीर की रचनात्मकता ने इस नाटक को पूर्णता दी है। दरअसल अपनी संस्कृति, परम्पराओं और लोक जीवन के रंग इस नाटक के माध्यम से व्यक्त हुए। यही वजह है कि हबीब साहब के रंगप्रयोगों से यह लोक आख्यानक नाटक अधिक स्पष्ट हो सका।
नाट्य कला मनुष्य की कलात्मक अभिव्यक्ति का एक रूप है। इसी कलात्मक अभिव्यक्ति का श्रेष्ठतम रूप हमें इस लोक आख्यान 'बहादुर कलारिन' के नाटकीय रूप में दिखता है।
नाटककार रंगधुनी हबीब तनवीर ने अपने कुशल रंग-निर्देशन से छत्तीसगढ़ के इस लोग आख्यान को वैश्विक परिदृश्य पर लाकर रख दिया। यह उनकी रचनात्मक कुशलता ही थी अन्यथा यह बहुत संभव था कि यदि कलारिन के इस लोक आख्यान को उसके मूल रूप में ही प्रदर्शित किया जाता तो एक दोयम दर्जे का नाटक होता। यह परिवर्तन, प्रयोग सही भी थी क्योंकि नाटककार यदि अपने समय के समाज के परिवर्तनों और मूल्यों की पहचान नहीं रखेगा तो वह उम्दा नाटक नहीं लिख सकता।

4 comments:

तरुण गुप्ता said...

lage raho munnabhai

Unknown said...

हबीब साहब को एक भावभीनी विदाई कहा जा सकता है श्री मुन्ना पाण्डेय जी के लेख को. हालाँकि रंगमंच, हिंदी साहित्य, और लेखन से मेरा कोई गहरा जुडाव नहीं है और ना ही इन सबका कोई अनुभव है लेकिन हबीब साहब जैसे रंगधुनी से वाकिफ होना और प्रभावित होना कोई अचरज की बात नहीं. बहादुर कलारिन नाटक और रचनात्मकता का मेल बहुत सरीखे से दर्शाया गया है इस लेख में. इस लेख को पढ़ कर मुझे अपने भीतर एक नयी उर्जा, नयी सोच और नयी दिशा का अहसास हुआ इसके लिए मैं श्री मुन्नाजी और उदंती.कॉम का आभारी हूँ.

Rupesh kumar said...

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M¤Âðàæ

Kumar Durgesh said...

मुन्ना कुमार पाण्डे जी को मेरा प्रणाम मैं संगीत कला संथा में अध्ययन रत विद्यार्थी हूँ और इस संस्था के थिएटर विभाग में बहादुर कलारिन नाटक का मंचन हुआ जिसे देखने का सौभाग्य मुझे मिला । नाटक देखने पर मन में बहुत से सवाल उठे और उनके जवाब तलाशते हुए आपके इस पोस्ट तक पंहुचा आपके इस सुन्दर लेख को पढ़ने पर मन में पूर्णता का एहसास हुआ ।

सादर धन्यवाद