प्रकृति के नियम से छल सब कुछ पाने की लालसा
- बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
जब आप बीमारी से कमजोर हो जाते हैं तो डाक्टर कोई शक्तिवद्र्धक टानिक लेने को कहता है। जब स्वयं पृथ्वी कमजोर हो जाए तो क्या यही नुस्खा आजामाया जा सकता है? अमरीकी वैज्ञानिकों की मानें तो उत्तर है 'हां'।
वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढऩे के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। कुछ भावुक वैज्ञानिकों ने इसे पृथ्वी को बुखार आना कहा है। उन्होंने इलाज स्वरूप दवाई भी सुझाई है। उनका मानना है कि यदि पृथ्वी को लौह-युक्त टानिक पिला दिया जाए तो उसका बुखार उतर सकता है।
अमरीकी पत्रिका नेशनल वाइल्ड लाइफ में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक यदि सागरों में भारी मात्रा में लोहा छितरा दिया जाए तो इससे सागर जल में रह रहे शैवालों में जनसंख्या विस्फोट हो जाएगा।
शैवाल एक प्रकार के सूक्ष्म पादप हैं जो सभी पौधों के समान वायुमंडल से कार्बन डाइआक्साइड सोखकर अपने लिए भोजन बनाते हैं। सागर जल में लौह तत्व की कमी होती है, जिसके कारण शैवालों की संख्या नियंत्रण में रहती है। इस कमी को कृत्रिम उपायों से पूरा करके उनकी संख्या में वृद्धि की जा सकती है। इससे वायुमंडल के कार्बन डाइआक्साइड में भी कमी होगी, और साथ- साथ पृथ्वी का तापमान भी नहीं बढ़ेगा, यानी पृथ्वी के बुखार पर काबू हो जाएगा।
अमरीका के राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद की एक बैठक पर बोल रहे वैज्ञानिकों ने इस अनूठे नुस्खे को 'संभावनीय' बताया है। केलिफोर्निया के मोस लैंडिंग मरीन लेबरटरी के निदेशक कहते हैं कि इस दशक के अंत तक इस ओर ठोस कार्रवाई की जाएगी। उनका कहना है कि दक्षिण ध्रुव के चारों ओर के सागरों में और प्रशांत महासागर के लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र पर लोहा फैलाना होगा, तभी कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा।
अन्य वैज्ञानिक इस प्रकार की कार्रवाइयों का यह कहकर विरोध करते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर किए गए प्रयोगों का सागरीय जीवतंत्र और पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा। अत: महासागरों की प्रकृति पर किसी भी प्रकार के मानवी हस्तक्षेप के पहले दो बार सोच लेना लाभकारी होगा। वरना एक गंभीर समस्या से बचने के चक्कर में हम कोई अन्य महागंभीर समस्या को जन्म दे बैठेंगे।
- बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है।
प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढऩे लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यत: मल-मूत्र) के सडऩे से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है।
फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।
आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोडऩे लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।
एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, 'जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।
पृथ्वी को भी चाहिए टॉनिक प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढऩे लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यत: मल-मूत्र) के सडऩे से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है।
फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।
आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोडऩे लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।
एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, 'जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।
जब आप बीमारी से कमजोर हो जाते हैं तो डाक्टर कोई शक्तिवद्र्धक टानिक लेने को कहता है। जब स्वयं पृथ्वी कमजोर हो जाए तो क्या यही नुस्खा आजामाया जा सकता है? अमरीकी वैज्ञानिकों की मानें तो उत्तर है 'हां'।
वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढऩे के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। कुछ भावुक वैज्ञानिकों ने इसे पृथ्वी को बुखार आना कहा है। उन्होंने इलाज स्वरूप दवाई भी सुझाई है। उनका मानना है कि यदि पृथ्वी को लौह-युक्त टानिक पिला दिया जाए तो उसका बुखार उतर सकता है।
अमरीकी पत्रिका नेशनल वाइल्ड लाइफ में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक यदि सागरों में भारी मात्रा में लोहा छितरा दिया जाए तो इससे सागर जल में रह रहे शैवालों में जनसंख्या विस्फोट हो जाएगा।
शैवाल एक प्रकार के सूक्ष्म पादप हैं जो सभी पौधों के समान वायुमंडल से कार्बन डाइआक्साइड सोखकर अपने लिए भोजन बनाते हैं। सागर जल में लौह तत्व की कमी होती है, जिसके कारण शैवालों की संख्या नियंत्रण में रहती है। इस कमी को कृत्रिम उपायों से पूरा करके उनकी संख्या में वृद्धि की जा सकती है। इससे वायुमंडल के कार्बन डाइआक्साइड में भी कमी होगी, और साथ- साथ पृथ्वी का तापमान भी नहीं बढ़ेगा, यानी पृथ्वी के बुखार पर काबू हो जाएगा।
अमरीका के राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद की एक बैठक पर बोल रहे वैज्ञानिकों ने इस अनूठे नुस्खे को 'संभावनीय' बताया है। केलिफोर्निया के मोस लैंडिंग मरीन लेबरटरी के निदेशक कहते हैं कि इस दशक के अंत तक इस ओर ठोस कार्रवाई की जाएगी। उनका कहना है कि दक्षिण ध्रुव के चारों ओर के सागरों में और प्रशांत महासागर के लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र पर लोहा फैलाना होगा, तभी कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा।
अन्य वैज्ञानिक इस प्रकार की कार्रवाइयों का यह कहकर विरोध करते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर किए गए प्रयोगों का सागरीय जीवतंत्र और पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा। अत: महासागरों की प्रकृति पर किसी भी प्रकार के मानवी हस्तक्षेप के पहले दो बार सोच लेना लाभकारी होगा। वरना एक गंभीर समस्या से बचने के चक्कर में हम कोई अन्य महागंभीर समस्या को जन्म दे बैठेंगे।
(लेखक के अन्य लेखों के लिए kudaratnama.blogspot.com देखें।)
1 comment:
इस युग में मूलभूत आवश्यकताएँ भी तो बदल गई हैं। समस्या भोगवादी सभ्यता की है - संतुलन कैसे आए? यह विचारणीय है।
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