- डॉ. रत्ना वर्मा
लंदन जा रहा एअर इंडिया का ड्रीम
लाइनर विमान पिछले दिनों अहमदाबाद एयरपोर्ट से उड़ान भरने के कुछ ही समय बाद आवासीय इलाके में क्रैश हो गया। विमान में दो पायलट और चालक दल के 10 सदस्य सहित 242 लोग सवार थे। एक यात्री को छोड़कर सभी की दर्दनाक मौत ने समूचे देश के हृदय को झकझोर दिया। जब भी कोई विमान हादसा होता है, वह केवल एक यांत्रिक विफलता या मानवीय त्रुटि भर नहीं होता - वह असंख्य कहानियों, सपनों और जीवन की आकस्मिक समाप्ति की त्रासदी बनकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है। यह हादसा भी उसी शृंखला का एक कड़वा सच है, जहाँ तकनीक और सुरक्षा तंत्र के तमाम दावे एक पल में टूट कर बिखर जाते हैं।
इस प्रकार के हादसे में एक जीवन का समाप्त हो जाना केवल एक आँकड़ा नहीं होता, वह किसी का बेटा-बेटी, किसी की माँ या पिता, किसी की पत्नी या पति होता है। ऐसे भयानक हादसों में केवल एक व्यक्ति नहीं, पूरा परिवार, पूरा देश शोक में डूब जाता है। जिसे केवल मुआवजा दे कर भरा नहीं जा सकता। यह समय केवल आँसू बहाने या संवेदना प्रकट करने का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का है। यह देखना ज़रूरी है कि क्या यह हादसा टल सकता था? क्या हमारे तकनीकी और प्रशासनिक इंतज़ाम पर्याप्त थे? और अगर नहीं, तो क्यों नहीं? ऐसे कई सवाल उठ खड़े होते हैं।
अहमदाबाद की इस दुर्घटना की प्रारंभिक रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि तकनीकी गड़बड़ी का संदेह है। सवाल उठता है कि क्या विमान की समय-समय पर जांच की जा रही थी? क्या कोई पुरानी शिकायत नजरअंदाज की गई थी? भारत में, खासकर छोटे विमानों और प्राइवेट एयरलाइनों की सुरक्षा प्रणाली कितनी पारदर्शी और सुदृढ़ है - यह सवाल बार-बार उठता हैं। अफसोस तो तब होता है, जब दुर्घटना के कुछ दिन बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। हम अक्सर तकनीक को दोष देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं; लेकिन मानव कारक भी कई बार हादसों की जड़ में होता है। पायलटों को किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया था? क्या वे किसी दबाव में थे? क्या उन्होंने उड़ान भरने से पहले पूरी सावधानी बरती थी?
आज जब एयर ट्रैफिक तेज़ी से बढ़ रहा है, और हवाई अड्डों पर विमानों की आवाजाही लगातार हो रही है, ऐसे में पायलटों की मानसिक स्थिति, कार्य का दबाव और प्रशिक्षण की गुणवत्ता को लेकर गहन मंथन की आवश्यकता है ; क्योंकि एक पायलट केवल एक चालक नहीं होता - वह सैकड़ों जीवन की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर उड़ता है।
कई बार मौसम की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है ; लेकिन यह दुर्घटना किस मौसम में हुई, क्या आसमान साफ़ था, क्या तेज़ हवाएँ चल रही थीं - ये सभी बातें महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन के दौर में आज जबकि मौसम का पूर्वानुमान लगाना बहुत आसान हो गया है, ऐसे में खराब मौसम के कारण दुर्घटना हो जाना खेदजनक है। इसका ताजा उदाहरण है अहमदाबाद विमान हादसे के दो दिन बाद ही उत्तराखंड में केदारनाथ धाम के पास हेलीकॉप्टर क्रैश में सात लोगों की मौत। कई बार हम मौसम विज्ञान की सतर्कता को नजअंदाज कर सिर्फ कमाई करने के उद्देश्य से यात्रियों की जान को जोखिम में डाल देते हैं। सोचने वाली बात है कि क्या हादसे के पहले मौसम संबंधी कोई चेतावनी दी गई थी? यदि हाँ, तो उसे गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया?
एक रीत- सी बन गई है कि हर हादसे के बाद एक जाँच समिति गठित कर दी जाए। हादसे को लेकर मीडिया में कुछ दिन बहस होती है, कुछ तकनीकी विवरण प्रकाशित होते हैं, और फिर सब कुछ धीरे-धीरे भुला दिया जाता है; लेकिन क्या कोई स्थायी बदलाव आता है? देश के नागरिक क्या यह जानने के अधिकारी नहीं हैं कि- कौन उत्तरदायी था? क्या कार्रवाई हुई? क्या भविष्य में ऐसे हादसे रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए?

हादसे की ख़बर मिलते ही मीडिया घटनास्थल पर तुरंत पहुँच जाती है। यह बेहद जरूरी भी है; लेकिन कई बार यहाँ संवेदना की जगह सनसनी हावी हो जाती है। घटनास्थल की तस्वीरें, रोते-बिलखते परिजनों के चेहरे, खून से सने मलबे की क्लोज़-अप तस्वीरें - यह सब क्या सूचना है या सिर्फ़ टीआरपी की होड़? क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि दूसरों का दुःख हमारे लिए एक ‘कंटेंट’ बन जाए? सोशल मीडिया के इस नए दौर में संवेदना की बाढ़ आ गई। शुरूआती कुछ घंटों तक “RIP” हैशटैग ट्रेंड करता रहा; लेकिन क्या इतनी सी संवेदना काफी है? क्या हम सबका यह कर्तव्य नहीं बनता कि हम भी प्रशासन से सांसदों से या विमानन मंत्रालय से सवाल पूछें? समाज में जब तक नागरिकों की भूमिका केवल दर्शक की बनी रहेगी, तब तक व्यवस्थाओं में सुधार की संभावना कम ही होगी।
हमें यह भी देखना होगा कि क्या समाज, प्रशासन और सरकार इस प्रकार की घटनाओं के बाद पीड़ित परिवारों के साथ कब तक खड़ा होता है? क्या हम अपने आसपास ऐसे परिवारों को सहारा देने के लिए आगे आते हैं? संवेदना केवल शब्दों की नहीं, कर्मों की भी होनी चाहिए।
इतने आधुनिक समय में भी यदि हम ऐसे हादसों को सिर्फ नियति मानकर सबको चुप करा देंगे तो इससे बड़ी शर्मिंदगी की और क्या बात होगी। होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक विमान की सुरक्षा जाँच में पारदर्शिता हो, ताकि सच सबके सामने आ सके। मौसम और पर्यावरणीय जोखिमों की सटीक जानकारी हो और उसका कड़ाई से पालन हो, जाँच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए और जो भी कमियाँ हों, उन्हें हर हाल में दूर कर यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।
अहमदाबाद का यह विमान हादसा हमें फिर से याद दिलाता है कि जीवन कितना कीमती है, और व्यवस्था की चूक कितनी भारी कीमत वसूल सकती है। हम केवल संवेदना व्यक्त करके चुप नहीं रह सकते।
हर हादसा एक आम दुर्घटना नहीं है - यह एक ऐसा हादसा है, जो हमें हमारे तंत्र की खामियों, हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारियों की याद दिलाता है और इन सब कमियों को दूर किए बिना हम यह नहीं कह सकते कि हम आगे अपनी किसी भी यात्रा में सुरक्षित हैं।