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Sep 1, 2024

उदंती.com, सितम्बर - 2024

वर्ष- 17, अंक- 2

तुम वृक्षों के फूल तोड़कर ईश्वर की मूर्ति पर चढ़ा आते हो, किसको धोखा देते  हो, वह पहले से ही ईश्वर पर चढ़ा था और ज्यादा जीवंत था उस वृक्ष पर ।  - ओशो

इस अंक में-

अनकहीः फिर वही सवाल...  - डॉ. रत्ना वर्मा

पितृ पक्षः दाह-क्रिया एवं श्राद्ध कर्म का विज्ञान - प्रमोद भार्गव

जीवन दर्शनः सम्मान अपनों का: सुखद सपनों का - विजय जोशी

संस्मरणः कस्बों - शहरों की रौनक ...फेरीवाले - शशि पाधा

प्रेरकः शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण – निशांत

शिक्षक दिवसः बहुत याद आते हैं हमारे शिक्षक - डॉ. महेश परिमल

ग़ज़लः ख़ुदा भी उसको खुला आसमान देता है - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’

जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा - देवेश शांडिल्य

पर्यावरणः स्वच्छ पानी के लिए बढ़ाना होगा भूजल स्तर - सुदर्शन सोलंकी

कविताः अब विवश शब्द - डॉ. कविता भट्ट

आलेखः हिन्दी के विकास में ख़तरे  - सीताराम गुप्ता

आलेखः साहित्य समाज और पत्रकारिता में भाषायी सौहार्द की भूमिका - डॉ पदमावती पंड्याराम

व्यंग्यः नींद क्यों रात भर नहीं आती ! - जवाहर चौधरी

कविताः मुस्कुराती ज़ेब - रमेश कुमार सोनी

कविताः गाँव की अँजुरी ? - निर्देश निधि

लघुकथाः असली कोयल - स्वप्नमय चक्रबर्ती, अनुवाद/ बेबी कारफरमा

लघुकथाएँः 1-भेड़ें, 2- कैमिस्ट्री, 3- दरकती उम्मीद - डॉ. सुषमा गुप्ता  

कहानीः प्रार्थनाओं के विरुद्ध - सत्या शर्मा कीर्ति

कविताः कभी ऐसा भी हो -  स्वाति बरनवाल

दो कविताएँः 1-  पीड़ा, 2-  पाँव   - सुरभि डागर

किताबेंः मन की वीणा पर सधे संवेदना के गीत-‘गाएगी सदी’ - रश्मि विभा त्रिपाठी

आलेखः अनुवाद एक कठिन कार्य है  - महेंद्र राजा जैन


अनकहीः फिर वही सवाल...

   - डॉ. रत्ना वर्मा

कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार और फिर हत्या का मामला पिछले एक माह से पूरे भारत वर्ष में  चर्चा का विषय बना हुआ है। यह बहुत अफसोस की बात है कि समाज में नासूर बन चुके इस तरह के घिनौने कृत्य पर आवाज तभी उठती है, जब एक बार फिर कोई दरिंदा अपनी दरिंदगी दिखाकर हमें शर्मसार कर जाता है। 

 इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर महिला सुरक्षा के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है।  महिला देश के किसी भी कोने में, किसी भी संस्थान में, किसी भी दल या कार्यालय में क्यों सुरक्षित नहीं ? महिला सुरक्षा के मामले में आख़िर कहाँ चूक हो जाती है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसके लिए क्या क़दम उठाए जा रहे हैं? ऐसे कई सवाल निर्भया से लेकर, अब तक सिर्फ सवाल ही बने हुए हैं।

पिछले कुछ बरसों में हमारी सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ नियम- कानून अवश्य बनाए हैं; विशेषकर निर्भया मामले के बाद तो कई नियम कानून और सुरक्षा के उपाय किए गए। जैसे, गृह मंत्रालय द्वारा विकसित निर्भया मोबाइल एप्लिकेशन- जो आपात्काकालीन सम्पर्कों और पुलिस को एसओएस अलर्ट भेजने की अनुमति देता है। एप में स्थान ट्रैकिंग और घटनाओं की ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग जैसी सुविधाएँ भी शामिल हैं। यही नहीं, भारत में कई कंपनियों ने पैनिक बटन, पहनने योग्य ट्रैकर और जीपीएस और जीएसएम तकनीक से लैस पेपर स्प्रे जैसे स्मार्ट सुरक्षा उपकरण आदि आदि... पर ऐसे उपायों के क्या मायने जो समय पर उनकी रक्षा न कर सके। 

प्रश्न तो वहीं का वहीं है न, कि जब इतने सुरक्षात्मक उपाय हमारे पास हैं, तो फिर एक युवा डॉक्टर क्यों अपनी सुरक्षा नहीं कर पाई? जाहिर है- ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं। हमारे देश के वे संस्थान तो बिल्कुल भी सुरक्षित हैं, जहाँ, लड़कियाँ रात की पारी में काम करने जाती हैं? अब जब यह दुर्घटना हो गई है, तो अब रातों- रात नियम में बदलाव किया गया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) ने भी सुरक्षा मामलों को लेकर हाल ही में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया, जिसमें पाया गया कि एक तिहाई डॉक्टर, जिनमें से अधिकतर महिलाएँ थीं, अपनी रात्रि पाली के दौरान ‘असुरक्षित’ महसूस करती हैं। इतनी असुरक्षित कि कुछ ने आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने की आवश्यकता भी महसूस की है।

यह सर्वविदित है कि आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही हैं और काम कर रही हैं। जब भी इस तरह की घटना घटती हैं, तो समाज में एक भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है । बेटियों के माता - पिता डर जाते हैं।  चाहे वह स्कूल या कॉलेज जा रही हो अथवा नौकरी के लिए बस या मेट्रो में सफर कर रही हो, जब तक वह सही- सलामत घर नहीं आ जाती, वे चिंतित रहते हैं।  ऐसे में रात की पारी में काम करने वाली बेटियों के अभिभावकों का भय कितना भयावह होगा, यह हम और आप अंदाजा लगा ही सकते हैं। 

पुरानी सोच रही है कि घर में लड़कियों को ही टोका जाता रहा है कि ऐसे कपड़े मत पहनो, देर रात बाहर मत रहो, धीरे बात करो। ज्यादा हँसो मत, बड़ों की बात मानो, घर के काम सीखो.... आदि- आदि। यानी हर रोक- टोकी लड़की के लिए। बराबरी के इस दौर में  यह  बात सब लड़कों के लिए लागू नहीं होती। वे देर रात पार्टी करें, कोई बात नहीं, वे देर से घर लौटे, कोई बात नहीं । उनकी आजादी पर रोक- टोक करने से उनके अहं पर जोट लगती है। परिणामस्वरूप, आज चारों ओर अराजकता का माहौल है। अपराध बढ़ रहे हैं, मानसिक विकृतियाँ बढ़ रही हैं।  कितना अच्छा होता कि हमारे परिवारों में बचपन से ही लड़कों को भी वही संस्कार दिए जाते, जो लड़कियों को दिए जाते हैं, तो समाज की सूरत कुछ और ही होती। 

इन सब सवालों से अलग कुछ और बातें हैं, जो महिलाओं पर होने वाले इस तरह के अपराधों को लेकर हमेशा से ही उठती रही हैं- ऐसी कौन सी पाशविक प्रवृत्ति है, जो एक इंसान से इतना वीभत्स और दिल दहला देने वाला कृत्य करवाती है। ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति के पीछे कौन- सी मानसिकता काम करती है? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था, हमारी परम्पराएँ, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इसके लिए जिम्मेदार हैं?

दरअसल हमारी सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था भी आज उथली हो गई है। वहाँ से बच्चे आज पैसा कमाने की मशीन बनकर निकलते हैं। गुरुकुल और गुरु -शिष्य की परंपरा तो बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो शिक्षा व्यापार बन गया है, तो ऐसे व्यापारिक क्षेत्र में नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जाए। अब तो न वैसे शिक्षक रहे, न वैसे छात्र।  एक समय था, जब बच्चों के लिए परिवार को उनकी पहली पाठशाला माना जाता था, जहाँ उन्हें माता- पिता के रूप में प्रथम गुरु मिलते थे। आजकल उनके पास भी बच्चों के लिए समय नहीं है। वे भी आधुनिकता की इस दौड़ के एक धावक हैं । अब तो संयुक्त परिवार भी समाप्त हो गए, जहाँ कभी बच्चों को उनके दादा- दादी, नाना- नानी से नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती थी।  

 करोना के दौर में अवश्य ऐसा लगने लगा था कि हमारी परम्पराएँ , हमारी संस्कृति, हमारे रीति रिवाज लौट रहे हैं; परंतु वह दौर खत्म होते ही सब पुनः पूर्ववत् हो गया। ऐसे में युवाओं में संस्कारों की कमी, चिंता का विषय है। संस्कारों के अभाव का ही परिणाम है कि आज युवा पीढ़ी नशे और अपराधों में घिरती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ में यह पीढ़ी खुद के साथ समाज को भी अंधकार के गर्त में धकेल रही है। यहाँ सिर्फ युवा पीढ़ी को ही दोष देना गलत होगा; क्योंकि आज जो युवा हैं, वे कल बड़े होंगे। मानसिक विकृति वाला एक बहुत पड़ा वर्ग जिसमें बड़े-बूढ़े भी शामिल है, ऐसे दुष्कर्म करने  में पीछे नहीं हैं। 

जब भी इस तरह का गम्भीर मामला न्यायालय में जाता है, तो पैसे के लोभ में, स्थापित वकील छल-छद्म और ओछे हथकण्डे अपनाकर न्याय में बाधा पहुँचाते हैं। मीडिया भी कम गुनहगार नहीं। वे ऐसी घटनाओं को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। जनता मूर्ख नहीं, वह सारे खेल को समझती है। कुछ राजनैतिक दल इतने निर्लज्ज हैं कि जिस दुर्घटना पर उन्हें लाभ मिलेगा, उस पर हल्ला मचाएँगे, जिस  पर कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा या उनके दल का ही कोई राक्षस पकड़ में आएगा, तो उस पर चुप रह जाएँगे। अपराधी  पैसे के बल पर कानून की भूल भुलैया में पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार को फँसाकर हतोत्साह और पराजित कर देते हैं। न्याय पाने के रास्ते में इतनी बधाएँ हैं कि विवश होकर परिवार चुप होकर बैठ जाता है।

अतः महिलाएँ सुरक्षित महसूस करें,  इसके लिए कानून ज़रूरी है, तो उससे अधिक ज़रूरी है- कानून का कठोरता से पालन करना। यह कार्य राजनैतिक इच्छा शक्ति के बिना सम्भव नहीं। यह एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है, जिसपर ईमानदारी से चिंतन- मनन करने की आवश्यकता है। 

पितृ पक्षः दाह-क्रिया एवं श्राद्ध कर्म का विज्ञान

 - प्रमोद भार्गव

जीवन का अंतिम संस्कार अंत्योष्टि संस्कार है। इसी के साथ जीवन का समापन हो जाता है। तत्पश्चात् भी अपने वंश के सदस्य की स्मृति और पूर्वजन्म की सनातन हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं के चलते मृत्यु के बाद भी कुछ परंपराओं के निर्वहन की निरंतरता बनी रहती है। इसमें श्राद्ध क्रिया की निरंतरता प्रतिवर्ष रहती है। इस क्रिया को हम अपने दिवंगतों के प्रति आदर का भाव प्रकट करने का माध्यम भी कह सकते हैं। वैसे मृत्यु से लेकर श्राद्ध कर्म तक जो भी क्रियाएँ अस्तित्व में हैं, उनके पीछे शरीर और प्रकृति का विज्ञान जुड़ा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। श्राद्ध की मान्यता आत्मा के गमन से जुड़ी है। चूड़ामण्युनिषद् में कहा है कि ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मांड के अंश से ही प्रकाशमयी आत्मा की उत्पत्ति हुई है। इस आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन्हीं पाँच तत्त्वों के समन्वित रूप से मनुष्य व समस्त प्राणि-जगत् और ब्रह्मांड के सभी आयाम अस्तित्व में हैं। अतएव हिंदुओं के अंत्येष्टि संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके पाँचों तत्त्वों में विलीन करने की परंपरा है। 

आत्मा या शरीर के अंशों के इस विलय को संस्कृत में ‘प्रैती’ कहा है। इसे ही बोलचाल की भाषा में 'प्रेत' कहा जाने लगा। इसे ही धन के लालचियों ने भूत-प्रेत या अतीन्द्रीय शक्तियों की हानि पहुँचाने वाली मानसिक व्याधियों से जोड़ दिया, जबकि शरीर में आत्मा के साथ-साथ मन व प्राण भी होते हैं। आत्मा के अजर-अमर रहने वाले अस्तित्व को अब विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है। मन और प्राण जब शरीर से मुक्त होते हैं, तब भी शरीर में इनका असर बना रहता है। इस कारण ये शरीर के चहुँ ओर भ्रमण करते रहते हैं। मन चंद्रमा का प्रतीक माना है। भारतीय दर्शन में इसीलिए स्थूल व सूक्ष्म शरीर की कल्पना कर विवेचना की गई है। पितृपक्ष की अवधि में ऐसी धारणा है कि मृतकों के सूक्ष्म अंश श्राद्ध की अवधि में परिजनों के इर्द-गिर्द मँडारते रहते हैं और श्राद्ध क्रिया से संतुष्ट होकर लौट जाते हैं। हालाँकि सम्पूर्ण शरीर में सत्रह सूक्ष्म इंद्रियों का आवास होता है। इनमें पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेद्रियाँ, पाँच प्राणेद्रियाँ, एक मन और एक बुद्धि हैं। यही इंद्रियाँ छह धातुओं त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा और अस्थि निर्मित स्थूल शरीर में प्रवेश कर उसे संपूर्ण बनाती हैं। अतएव स्थूल शरीर से जब ये सूक्ष्म इंद्रियाँ निकलती हैं, तब सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए वायवीय अर्थात वायुचलित या काल्पनिक शरीर धारण कर लेती हैं। इसे ही प्रेत-संज्ञा दी गई है। यह वायु तत्त्व से प्रधान शरीर माया-मोह से मुक्त नहीं होने के कारण परिजनों के निकट भटकता रहता है। इसी प्रेतत्त्व से छुटकारे का उपाय दशगात्र एवं श्राद्ध आदि क्रियाएँ हैं। 

       हिंदुओं में दाहक्रिया के समय कपाल-क्रिया प्रचलन में है। गरुड़ पुराण के अनुसार शवदाह के समय मृतक की खोपड़ी को घी की आहुति देकर डंडे से प्रहार करके फोड़ा जाता है। चूँकि खोपड़ी का अस्थिरूपी कवच इतना मजबूत होता है कि सामान्य आग में वह आसानी से भस्मीभूत नहीं हो पाता है। इसलिए उसे घी डालकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है, जिससे यह भाग पूर्णरूप से पंचतत्वों में विलय हो जाए। इस क्रिया के प्रचलन से मान्यता जुड़ी है कि कपाल का भेदन हो जाने से प्राण तत्त्व पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं और पुनर्जन्म की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। इस विषयक एक मान्यता यह भी है कि यदि मस्तिष्क का भाग अधजला रहेगा तो अगले जन्म में शरीर पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाएगा। मस्तिष्क में ब्रह्मा का निवास माना गया है, जो ब्रह्मरंध्र में प्राण के रूप में स्थिर रहता है। ऐसा माना जाता है कि शिशु जब गर्भ में जीवन ग्रहण करता है तो वह इसी रंध्र से होकर भ्रूण के शरीर में प्रवेश पाता है। यह बिंदु सिर के सबसे ऊपरी भाग में होता है। इसी भाग पर चोटी रखने का विधान है। यह भाग अत्यंत मुलायम होता है। चूँकि जीवन इस छिद्र से होकर शरीर में प्रवेश करता है, इसलिए कपाल- क्रिया के माध्यम से इसे संपूर्ण रूप से बाहर निकालने का विधान किया जाता है, जिससे शरीर में पूर्व की कोई स्मृति शेष न रह जाए। इसे भौतिक शरीर का एंटीना भी कह सकते हैं।

इस ब्रह्मरंध्र का सबसे प्राचीन विज्ञान-सम्मत उल्लेख महाभारत में मिलता है। अश्वत्थामा जब पाण्डवों के वंशनाश के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र छोड़ देते हैं, तब उत्तरा की कोख से मृत शिशु जन्मता है। परंतु कृष्ण जब उस शिशु को हथेलियों में लेते हैं, तो उन्हें उसमें जीवन का अनुभव होता है। वे तुरंत शिशु के मुख में अपने मुख से वायु प्रवाहित करते हैं। इससे श्वास नली में स्थित काकुली में ब्रह्मरंध्र अवरूद्ध हो गया था, वह खुल गया और शिशु के प्राणों में चेतना लौट आई। ब्रह्मरंध्र तीव्र ध्वनि तरंगों के आवेग और क्रोध से अवरुद्ध हो जाता है। 

         गंगा में अस्थियों के विसर्जन के पीछे भी विज्ञान सम्मत धारणा है। चूँकि अस्थियों में बड़ी मात्रा में फास्फोरस होता है, जो भूमि को उर्वरा बनाने का काम करता है। गंगा का प्रवाह आदिकाल से भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए उपयोगी रहा है। अतएव हड्डियों का गंगा में विसर्जन खाद का काम करता है। इससे तय होता है कि ऋषि-मुनियों ने अस्थियों में फास्फोरस उपलब्ध होने और उससे उपज अच्छी होने के महत्त्व को जान लिया था।   

हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार पुत्र से ही कराने की मान्यता है। दरअसल पुत्र चूँकि पिता के वीर्यांश से उत्पन्न है, अतएव वह पिता का प्रतिनिधित्व करने का वाहक भी है। ब्रह्मा ने बालक को पुत्र कहा है। मनु स्मृति में 'पुं' नामक नरक से 'त्र' त्राण दिलाने वाले प्राणी को 'पुत्र' कहा है। इसी नाते यह पिंडदान एवं श्राद्ध आदि कर्म का दायित्व पुत्र पर है। हालकि पुत्र नहीं होने पर पुत्री से भी ये संस्कार कराए जा सकते हैं। चूँकि हिंदू दर्शन मानता है कि मृत्यु के साथ मनुष्य का पूर्णतः अंत नहीं होता है। मृत्यु द्वारा आत्मा शरीर से पृथक् हो जाती है और वायुमंडल में विचरण करती है। हालाँकि यही आत्मा मनुष्य के जीवित रहते हुए भी स्वप्न-अवस्था में शरीर से अलग होकर भ्रमण करती है, लेकिन शरीर से उसका अंतर्सबंध बना रहता है। रुग्णावस्था में भी आत्मा और शरीर का अलगाव बना रहता है: लेकिन मृत्यु के बाद आत्मा पूर्णतः पृथक् हो जाती है। ऋग्वेद में कहा भी गया है कि 'जीवात्मा अमर है और प्रत्यक्षतः नाशवान् है। इसे ही और विस्तार से श्रीमद भगवद् गीता में उल्लिखित करते हुए कहा है, आत्मा किसी भी काल में न तो जन्मती है और न ही मरती है। जिस तरह से मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी अनुरूप जीवात्मा मृत शरीर त्यागकर नए शरीर में प्रवेश कर जाती है।

आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की धारणा को अब वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है। ऑक्सफोर्ड विश्व-विद्यालय के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक सर रोगर पेनरोज और एरीजोन विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ स्टूअर्ट हामरॉफ ने दो दशक अध्यरत रहने के बाद स्वीकारा है कि 'मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भाँति है। इस जैविक संगणक की पृष्ठभूमि में अभिकलन (प्रोग्रामिंग) आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम में संचालित होती है। इससे तात्पर्य मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नलिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म सा्रेत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। जब व्यक्ति दिमागी रूप से मृत्यु को प्राप्त होने लगता है, तब ये सूक्ष्म नलिकाएँ क्वांटम क्षेत्र खोने लगती हैं। परिणामतः सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकलकर ब्रह्मांड में चले जाते हैं। यानी आत्मा या चेतना की अमरता बनी रहती है।

इसी क्रम में प्रसिद्ध पर मनोवैज्ञानिक डॉ. रैना रूथ ने पदार्थ गत रूपांतरण को ही पुनर्जन्म माना है। उनका कहना है कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा नष्ट नहीं होती, परंतु रूपांतरित व अदृश्य हो जाती है। इसीलिए डीएनए यानी महा रसायन मृत्यु के बाद भी संस्कारों के रूप में अदृश्य अवस्था में उपस्थित रहता है और नए जन्म के रूप में पुनः अस्तित्व में आ जाता है। हमें जो विलक्षण प्रतिभाएँ देखने में आती हैं, वे पूर्वजन्म के संचित ज्ञान का ही प्रतिफल होती हैं। अतएव कहा जा सकता है कि जीवात्मा वर्तमान जन्म के संचित संस्कारों को साथ लेकर ही अगला जन्म लेती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जींस (डीएनए) में पूर्वजन्म या पैतृक संस्कार मौजूद रहते हैं, इसी शेष से निर्मित नूतन सरंचना के चैतन्य अर्थात प्रकाशकीय भाग को प्राण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को आज समझ पाया है, किंतु हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले ही शरीर और आत्मा के इस विज्ञान को समझकर विभिन्न संस्कारों से जोड़ दिया था, जिससे रक्त संबंधों की अक्षुण्णता जन्म-जन्मांतर स्मृति पटल पर अंकित रहे। ■

श्राद्ध पक्ष में कौओं का भोजन

बरगद और पीपल के वृक्षों को देव वृक्ष माना जाता है। क्योंकि वे हमें प्राण वायु अर्थात् ऑक्सीजन और रोगमुक्त शरीर के लिए औषधियाँ देते हैं। इन सब के लिए इन पेड़ों का अस्तित्व बनाए रखना है, तो कौओं को श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी खिलाना  होगा। श्राद्ध पक्ष में पंचबति अर्थात पाँच जीवों को आहार कराने की परंपरा है। इनमें एक काल बलि यानी कौवों को भोजन कराने की परंपरा है। इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं। इनके उदर में ही इन फलों के बीज अंकुरित होने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पीपल और बरगद उग आते हैं। इसीलिए ये वृक्ष पुराने मकानों की दीवारों पर भी उगते दिख जाते हैं। मादा कौवा सावन-भादों यानी अगस्त-सितंबर में अंडे देती है। इन्हीं माहों में श्राद्ध पक्ष पड़ता है; इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कौवों को पौष्टिक आहार खिलाने की परंपरा श्राद्ध पक्ष से जोड़ दी, जो आज भी प्रचलन में है। दरअसल इस मान्यता की पृष्ठभूमि में बरगद और पीपल वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जिससे मनुष्य को 24 घंटे आक्सीजन मिलती रहे।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100