- डॉ. रत्ना वर्मा
कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार और फिर हत्या का मामला पिछले एक माह से पूरे भारत वर्ष में चर्चा का विषय बना हुआ है। यह बहुत अफसोस की बात है कि समाज में नासूर बन चुके इस तरह के घिनौने कृत्य पर आवाज तभी उठती है, जब एक बार फिर कोई दरिंदा अपनी दरिंदगी दिखाकर हमें शर्मसार कर जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर महिला सुरक्षा के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। महिला देश के किसी भी कोने में, किसी भी संस्थान में, किसी भी दल या कार्यालय में क्यों सुरक्षित नहीं ? महिला सुरक्षा के मामले में आख़िर कहाँ चूक हो जाती है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसके लिए क्या क़दम उठाए जा रहे हैं? ऐसे कई सवाल निर्भया से लेकर, अब तक सिर्फ सवाल ही बने हुए हैं।
पिछले कुछ बरसों में हमारी सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ नियम- कानून अवश्य बनाए हैं; विशेषकर निर्भया मामले के बाद तो कई नियम कानून और सुरक्षा के उपाय किए गए। जैसे, गृह मंत्रालय द्वारा विकसित निर्भया मोबाइल एप्लिकेशन- जो आपात्काकालीन सम्पर्कों और पुलिस को एसओएस अलर्ट भेजने की अनुमति देता है। एप में स्थान ट्रैकिंग और घटनाओं की ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग जैसी सुविधाएँ भी शामिल हैं। यही नहीं, भारत में कई कंपनियों ने पैनिक बटन, पहनने योग्य ट्रैकर और जीपीएस और जीएसएम तकनीक से लैस पेपर स्प्रे जैसे स्मार्ट सुरक्षा उपकरण आदि आदि... पर ऐसे उपायों के क्या मायने जो समय पर उनकी रक्षा न कर सके।
प्रश्न तो वहीं का वहीं है न, कि जब इतने सुरक्षात्मक उपाय हमारे पास हैं, तो फिर एक युवा डॉक्टर क्यों अपनी सुरक्षा नहीं कर पाई? जाहिर है- ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं। हमारे देश के वे संस्थान तो बिल्कुल भी सुरक्षित हैं, जहाँ, लड़कियाँ रात की पारी में काम करने जाती हैं? अब जब यह दुर्घटना हो गई है, तो अब रातों- रात नियम में बदलाव किया गया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) ने भी सुरक्षा मामलों को लेकर हाल ही में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया, जिसमें पाया गया कि एक तिहाई डॉक्टर, जिनमें से अधिकतर महिलाएँ थीं, अपनी रात्रि पाली के दौरान ‘असुरक्षित’ महसूस करती हैं। इतनी असुरक्षित कि कुछ ने आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने की आवश्यकता भी महसूस की है।
यह सर्वविदित है कि आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही हैं और काम कर रही हैं। जब भी इस तरह की घटना घटती हैं, तो समाज में एक भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है । बेटियों के माता - पिता डर जाते हैं। चाहे वह स्कूल या कॉलेज जा रही हो अथवा नौकरी के लिए बस या मेट्रो में सफर कर रही हो, जब तक वह सही- सलामत घर नहीं आ जाती, वे चिंतित रहते हैं। ऐसे में रात की पारी में काम करने वाली बेटियों के अभिभावकों का भय कितना भयावह होगा, यह हम और आप अंदाजा लगा ही सकते हैं।
पुरानी सोच रही है कि घर में लड़कियों को ही टोका जाता रहा है कि ऐसे कपड़े मत पहनो, देर रात बाहर मत रहो, धीरे बात करो। ज्यादा हँसो मत, बड़ों की बात मानो, घर के काम सीखो.... आदि- आदि। यानी हर रोक- टोकी लड़की के लिए। बराबरी के इस दौर में यह बात सब लड़कों के लिए लागू नहीं होती। वे देर रात पार्टी करें, कोई बात नहीं, वे देर से घर लौटे, कोई बात नहीं । उनकी आजादी पर रोक- टोक करने से उनके अहं पर जोट लगती है। परिणामस्वरूप, आज चारों ओर अराजकता का माहौल है। अपराध बढ़ रहे हैं, मानसिक विकृतियाँ बढ़ रही हैं। कितना अच्छा होता कि हमारे परिवारों में बचपन से ही लड़कों को भी वही संस्कार दिए जाते, जो लड़कियों को दिए जाते हैं, तो समाज की सूरत कुछ और ही होती।
इन सब सवालों से अलग कुछ और बातें हैं, जो महिलाओं पर होने वाले इस तरह के अपराधों को लेकर हमेशा से ही उठती रही हैं- ऐसी कौन सी पाशविक प्रवृत्ति है, जो एक इंसान से इतना वीभत्स और दिल दहला देने वाला कृत्य करवाती है। ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति के पीछे कौन- सी मानसिकता काम करती है? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था, हमारी परम्पराएँ, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इसके लिए जिम्मेदार हैं?
दरअसल हमारी सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था भी आज उथली हो गई है। वहाँ से बच्चे आज पैसा कमाने की मशीन बनकर निकलते हैं। गुरुकुल और गुरु -शिष्य की परंपरा तो बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो शिक्षा व्यापार बन गया है, तो ऐसे व्यापारिक क्षेत्र में नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जाए। अब तो न वैसे शिक्षक रहे, न वैसे छात्र। एक समय था, जब बच्चों के लिए परिवार को उनकी पहली पाठशाला माना जाता था, जहाँ उन्हें माता- पिता के रूप में प्रथम गुरु मिलते थे। आजकल उनके पास भी बच्चों के लिए समय नहीं है। वे भी आधुनिकता की इस दौड़ के एक धावक हैं । अब तो संयुक्त परिवार भी समाप्त हो गए, जहाँ कभी बच्चों को उनके दादा- दादी, नाना- नानी से नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्राप्त होती थी।
करोना के दौर में अवश्य ऐसा लगने लगा था कि हमारी परम्पराएँ , हमारी संस्कृति, हमारे रीति रिवाज लौट रहे हैं; परंतु वह दौर खत्म होते ही सब पुनः पूर्ववत् हो गया। ऐसे में युवाओं में संस्कारों की कमी, चिंता का विषय है। संस्कारों के अभाव का ही परिणाम है कि आज युवा पीढ़ी नशे और अपराधों में घिरती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ में यह पीढ़ी खुद के साथ समाज को भी अंधकार के गर्त में धकेल रही है। यहाँ सिर्फ युवा पीढ़ी को ही दोष देना गलत होगा; क्योंकि आज जो युवा हैं, वे कल बड़े होंगे। मानसिक विकृति वाला एक बहुत पड़ा वर्ग जिसमें बड़े-बूढ़े भी शामिल है, ऐसे दुष्कर्म करने में पीछे नहीं हैं।
जब भी इस तरह का गम्भीर मामला न्यायालय में जाता है, तो पैसे के लोभ में, स्थापित वकील छल-छद्म और ओछे हथकण्डे अपनाकर न्याय में बाधा पहुँचाते हैं। मीडिया भी कम गुनहगार नहीं। वे ऐसी घटनाओं को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। जनता मूर्ख नहीं, वह सारे खेल को समझती है। कुछ राजनैतिक दल इतने निर्लज्ज हैं कि जिस दुर्घटना पर उन्हें लाभ मिलेगा, उस पर हल्ला मचाएँगे, जिस पर कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा या उनके दल का ही कोई राक्षस पकड़ में आएगा, तो उस पर चुप रह जाएँगे। अपराधी पैसे के बल पर कानून की भूल भुलैया में पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार को फँसाकर हतोत्साह और पराजित कर देते हैं। न्याय पाने के रास्ते में इतनी बधाएँ हैं कि विवश होकर परिवार चुप होकर बैठ जाता है।
अतः महिलाएँ सुरक्षित महसूस करें, इसके लिए कानून ज़रूरी है, तो उससे अधिक ज़रूरी है- कानून का कठोरता से पालन करना। यह कार्य राजनैतिक इच्छा शक्ति के बिना सम्भव नहीं। यह एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है, जिसपर ईमानदारी से चिंतन- मनन करने की आवश्यकता है।