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Nov 8, 2023

उदंती.com, नवम्बर- 2023

वर्ष- 16, अंक- 4

शत-शत दीप इकट्ठे होंगे

अपनी-अपनी चमक लिये,

अपने-अपने त्याग, तपस्या,

श्रम, संयम की दमक लिये

         - हरिवंशराय बच्चन

इस अंक में

अनकहीः अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए... - डॉ. रत्ना वर्मा

निबंधः मिट्टी के दीयों से आलोक का सर्जन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

पर्व - संस्कृतिः दीपक संस्कृति की विविधता में एकता - प्रमोद भार्गव

कविताः यह दीप अकेला - अज्ञेय

जीव- जगतः ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक उल्लू - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पर्व संस्कृतिः लक्ष्मी की सवारी

परसाई जन्म शताब्दी वर्ष परः पूछिए परसाई से -विनोद साव

व्यंग्यः कबीरा, काहे खड़ा बाजार ! - प्रेम जनमेजय

कहानीः घर का रास्ता - सुदर्शन रत्नाकर

कविताः जले ज्योति - रमेश गौतम

मनोविज्ञानः क्या भलाई  का ज़माना नहीं रहा?

हाइबनः दिव्य सम्बन्ध - अनिता ललित

लघुकथाः समाजवाद - उर्मिल कुमार थपलियाल

आलेखः पटाखों का तिहासिक, सांस्कृतिक व न्यायिक पक्ष - राजेश पाठक

धरोहरः कलचुरी कालीन भगवान शिव का प्राचीन मंदिर देवबलोदा

प्रेरकः पत्थर और घी – निशांत

प्रकृतिः तितलियाँ क्यों हैं जरूरी - अपर्णा विश्वनाथ

खान- पानः भारी आहार तो बढ़े विकार – साधना मदान

जीवन दर्शनः 9/11 और ट्वीन टॉवर : एक युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध  - विजय जोशी 

अनकहीः अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए...

 - डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व, त्योहार और उल्लास के इस सर्द मौसम में एक समय ऐसा भी था, जब हम सब भारतवासियों को अपने इस सबसे बड़े उजालों के त्योहार दीपावली की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती थी। घर की साफ- सफाई और लिपाई - पुताई का काम कई दिन पहले से ही शुरू हो जाता था। धनतेरस के दिन घर या परिवार के लिए कुछ नया खरीदने की योजना भी पहले ही से बन जाती थी, नए कपड़े, विभिन्न तरह के पकवान और सबसे ज्यादा उल्लास परिवार वालों से मिलने की खुशी, जो सिर्फ दीपावली के अवसर पर ही हो पाती थी। 
...और यदि वह दीवाली आपके गाँव के घर की हो तब तो बात ही कुछ और होती थी। गाँव में कृषकों का उत्साह देखते ही बनता था। पाँच दिन तक चलने वाले इस पर्व के अवसर पर पूरा गाँव उल्लास में डूबा होता था। धनतेरस, नरकचतुर्दशी, लक्ष्मी पूजा और फिर गोवर्धन पूजा से लेकर भाईदूज तक गाँव के प्रत्येक घर से पकवान बनने की सोंधी महक आया करती थी। मिट्टी के दियों से गाँव में उजियारा फैला रहता था।  उल्लास में डूबा गाँव नाच- गानों में इतना मस्त होता कि आम दिनों के दुख तकलीफ को भूलकर कुछ दिन के लिए उनका जीवन आनन्द से भरपूर हो जाता था।  लेकिन अब गाँव भी शहर बनते जा रहे हैं। सादगी, भाईचारा सब जैसे कहीं तिरोहित हो गए हैं। सुविधाएँ कम थीं, तो आवश्यकताएँ भी कम थीं। आधुनिक सुख- सुविधाओं ने सबकी आदतें बदल दीं हैं। गाँव की आबोहवा भी उल्टी दिशा में बहने लगी है। बिना नशा किए उनके लिए त्योहार का कोई मतलब ही नहीं होता। 
अब चलें आज के ज़माने में मनाए जाने वाले उजाले के पर्व की, तो अब चाहे गाँव हो या शहर लोग साफ- सफाई सुविधानुसार साल में कभी भी कर लेते हैं। कपड़े और घर के लिए कुछ बड़ा सामान तो आजकल जब जरूरत हो, तब खरीद लिए जाते हैं। उसके लिए भला कोई दीवाली का इंतजार क्यों करे? अब रही बात मिठाई और पकवान बनाने की, तो वह तो आजकल बाजार में जब चाहो तब उपलब्ध है। माँ और दादी - नानी के हाथ के वे स्वादिष्ट लड्डू या गुजिया की बात अब पुराने जमाने की बात हो गई है। फिर आजकल की कामकाजी माँ के पास उतना समय ही कहा बचता है कि वह इन पकवानों को बनाने के लिए समय निकाल पाए।  
इसी प्रकार दीपावली- मिलन के लिए हम आज भी मित्रों, परिवारजनों के पास जाते हैं पर परिवार और मित्रों के बीच बधाई का आदान- प्रदान करने के लिए अब घर में बनने वाले अनेक तरह के स्वादिष्ट पकवानों और मिठाइयों से भरे वे थाल, जो खूबसूरत क्रोशिए से बने  थालपोश से ढके हुए  होते थे। इसके बारे में आज की पीढ़ी को क्या बताएँ कि दीपावली- मिलन के साथ सबका मुँह मीठा करने की यह मोहक परम्परा कितनी मीठी हुआ करती थी।
अब तो बढ़िया पैकेजिंग के साथ बाजार में हैसियत के अनुसार तरह - तरह के तोहफे उपलब्ध हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आजकल दुकानदार द्वारा चमचमाते पन्नों के भीतर पैक मिठाई के डब्बे एक के घर से होते हुए कई घरों को पार करके कब आपके ही पास लौट कर आ जाएँगे, आपको भान भी नहीं हो पाएगा। कहने का तात्पर्य यही है कि आजकल तोहफे देना भी औपचारिकता मात्र बनकर रह गए हैं। और तो और, अब तो इसकी भी आवश्यकता नहीं । सोशल मीडिया ने बधाई और शुभकामनाएँ देने के इतने नायाब तरीके उपलब्ध करा दिए हैं कि घर बैठे ही सब संभव हो गया है। न मिठाई खिलाने का झंझट और न किसी के पास जाने का । एक वीडियो कॉल कीजिए , बड़ों का आशीर्वाद भी ले लीजिए और छोटों को प्यार भी दे दीजिए। 
यह सब तो हुआ समाज और परिवार के रहन -सहन और संस्कारों में आए बदलाव का दृश्य।  कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है; पर जब बदलाव अच्छे के लिए हो, तब तक तो सब ठीक, पर जब बदलाव तबाही लाए तो, उसका विरोध तो करना ही पड़ेगा। आइए उन बदलावों का विरोध करने का बीड़ा उठाएँ, जिसने सबका जीना मुश्किल कर दिया है। हम सब आपने आपको शिक्षित, ज्ञानी और जमाने के साथ चलने वाला करते हैं पर क्या सचमें... 
आप सब जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से देशवासी इस पर्व  की तैयारी के साथ इस मौसम में लगातार बढ़ते प्रदूषण को लेकर ज्यादा परेशान दिखाई दे रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली के साथ कई मेट्रो शहरों में में प्रदूषण के कारण स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। इतना ही नहीं बहुत लोग दिल्ली छोड़ने की तैयारी में हैं; क्योंकि उनके अनुसार दिल्ली की आबोहवा रहने लायक नहीं रह गई है। पिछले कई वर्षों से दिल्ली सहित कई शहरों में पटाखे चलाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है , परंतु अन्य कारणों से वहाँ का प्रदूषण कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। लेकिन एक प्रदूषित शहर छोड़कर दूसरे शहर चले जाना समस्या का समाधान तो नहीं है। 
दरअसल जो समाधान है उसे हम करते नहीं; बल्कि उसे बढ़ाने के ही उपाय करते रहते हैं। क्या हम पटाखे फोड़ना बंद कर पाते हैं? क्या हम अपने घरों को अपने नगर को बिजली के लट्टुओं से सजाना बंद कर पाते हैं? क्या हम मोटर गाड़ियों पर चलने की बजाय पैदल और साइकिल से चलने को प्राथमिकता दे पाते है? क्या हम प्लास्टिक का उपयोग बंद कर पाए हैं? क्या हम जल, जंगल और जमीन का संरक्षण कर पा रहे हैं ? सवाल बहुत हैं जिनके जवाब नहीं में ही है। तो फिर ऐसे में हमारी शिक्षा, हमारा ज्ञान, हमारे आविष्कार, हमारी उपलब्धियाँ किस काम की अगर हमारी धरती हमारे रहने लायक ही नहीं बचेगी। 

इधर एक और प्रदूषण है, जो बढ़ा है, वह है भाषा का प्रदूषण। राजनीति के क्षेत्र में भाषा का जो पतन हुआ है, वह पीड़ादायक है। कभी किसी के धर्म को लेकर, कभी किसी वर्ग विशेष के जीवन को लेकर, जो गर्हित टिप्पणियाँ की जाती हैं, वे नैतिक मूल्यों की गिरावट का साक्षात् प्रमाण हैं। चुनावी राजनीति और दलीय स्वार्थ ने इसे अश्लील की सीमा तक पहुँचा दिया है। वायु-प्रदूषण तो कुछ समय बाद घट जाएगा ; लेकिन शासन-प्रशासन में बैठे लोग  जिस तरह  नकारात्मक वाणी का सहारा लेने लगे हैं, वह किसी कलंक से कम नहीं। भाषा की यह दरिद्रता और पतन अशोभनीय ही नहीं, बल्कि निन्दनीय भी हैं।
दीपावली के दियों की चमक सबके दिलों में तभी उजियारा फैलाएगी, जब हम अपनी धरती के वातावरण को, मन के चिन्तन को, शुद्ध और साफ- सुथरा रखने का प्रयास करेंगे। 
 अंत में गोपालदास ‘नीरज’ के शब्दों में -
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 

Nov 7, 2023

निबंधः मिट्टी के दीयों से आलोक का सर्जन

 - रामधारी सिंह 'दिनकर'

कार्तिक–अमावस्या की सरणी हिन्दू–इतिहास में आलोक की लड़ी बनकर चमकती आई है। प्रत्येक वर्ष की एक अँधेरी रात को भारत की मिट्टी अपने अंग में असंख्य दीपों के गहने पहनकर तारों से भरे आकाश से होड़ लेती है और आदर्शनिष्ठ हिन्दू प्रकृति को यह सन्देश देता है कि काल–निर्मित कुरूप अन्धकार को वह सौन्दर्य और ज्योति दे सकता है। आलोक सर्वजयी पुरुष का प्राण–धन और उसके भीतर बसनेवाली आशा का प्रतीक है। वर्ष में एक बार अँधेरी रात को पुरुष प्रतिज्ञा करता है कि वह अन्धकार की सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा। जब सूर्य और चन्द्र पराजित होकर धरती को अन्धकार में छोड़ देंगे, तब वह मिट्टी के दीयों से आलोक का सर्जन करेगा और ज्योति में चलेगा।

आज हिमालय की गुहा में भीषण अन्धकार का साम्राज्य है। सूर्य, चन्द्र और कितने ही उपग्रह पराजय स्वीकार करके क्षितिज के पार उतर गए हैं। सत्ता दीखती है तो धूमकेतु और उल्कापात की, जो इस अन्धकार को और भी डरावना बना रहे हैं। तिमिरकाय दैत्य ने अपनी जादू की छड़ी घुमाकर जीवन के प्रत्येक अंग को जड़ता के पाश में बाँध रखा है। न कोई आहट है और न कोई नाद। ऐसा लगता है कि हमारा समग्र राष्ट्रीय जीवन ही शिथिल और विजड़ित हो गया है। चट्टानों के बीच केवल एक बूढ़े सिंह का हुंकार गूँजता है, लेकिन चट्टानें टूटतीं नहीं, केवल हिलकर रह जाती हैं और हुंकार की व्यंग्यपूर्ण प्रतिध्वनि को सिंह के ही इर्द-गिर्द लौटा देती हैं।

बरसों से देश के शेर सीखचों में बन्द हैं और बाहर शृगाल और भेड़िये अपनी तुरही बजा रहे हैं। देश ने गर्जन किया, लेकिन बन्दीगृह के प्राचीर नहीं गिरे। देश ने तप्त आहें भेजीं, लेकिन सीखचे गले नहीं, कड़ियाँ पिघलीं नहीं। देश ने आक्रोश भेजा, लेकिन प्रलय के बादल घुमड़कर रह गए-शाप का एक वज्र भी आततायियों पर नहीं गिरा सके। क्रोध, आक्रोश, गर्जन, आँसू और आह-सब-के-सब बेकार हुए। अस्सी वर्षों की कठिन तपस्या जब सफल होने जा रही थी, ठीक तभी इन्द्र का आसन डोल गया। मार ने आकर अभियानियों का मार्ग घेर लिया। निर्भीक प्रवाहित होनेवाला निर्झर सहसा ठिठककर रुक गया। वर्षों से उद्दीप्त होकर जलनेवाली आग ने अपनी लपटें समेट लीं, मानो किसी दुष्ट देवता ने उसकी गति बाँध दी हो!

कविता की भाषा छोड़कर हम सीधा प्रश्न उठाना चाहते हैं कि इस जड़ता का अन्त कब और कैसे होगा? इतिहास-निर्माण की अलभ्य घड़ियाँ, एक के बाद दूसरी, व्यर्थ बीतती जा रही हैं। जो समय और शक्ति स्वतंत्रता-स्थापन की तैयारी में व्यय होती, वह विफलता-बोध और अनुपयोगी विलाप के कारण नष्ट होती जा रही है। हमारा देश अब चौराहे पर नहीं है! वह उसे पार करके उस पथ पर आ गया है, जो सीधे स्वाधीनता के मन्दिर में जाता है। एक नहीं, हजार चर्चिलों का यह दावा झूठ है कि साम्राज्यवाद की हिलती दीवारें अब किसी प्रकार भी स्थिर की जा सकती हैं। जनशक्ति का प्राबल्य इस युद्ध से अदृष्टपूर्व भीषणता के साथ निकलता आ रहा है। जो शक्ति अपार संसार का मूल हिला रही है, उसके धक्कों के सामने चर्चिल और एमरी तूफान में रूई के फाहों की तरह उड़ जानेवाले हैं। किसी भी जाति का बलिदान व्यर्थ नहीं जा सकता। मिट्टी पर गिरा हुआ पानी भी सब्जी पैदा करता है। फिर कौन कह सकता है कि भारतीय वीरों का लोहू देश के लिए आलोक का सृजन नहीं करेगा? हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जा सकता :

चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से,

चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिह्न जगमग से।

आवश्यकता इस बात की है कि हम विफलता को स्वीकार नहीं करें। इस समय हमें अधिक-से-अधिक विश्वास, निष्ठा और आदर्श के लिए दुराग्रह की जरूरत है। कर्मनिष्ठ योगियों का मार्ग कोई भी नहीं रोक सकता। युद्ध के बाद ही हमें बहुत बड़े राष्ट्रीय प्रश्न का सामना करना होगा। अचानक हम एक ऐसी राष्ट्रीय परिस्थिति के सम्मुख आ जानेवाले हैं, जिसका कभी अन्दाज भी नहीं किया गया था। वैधानिक संकटों के रहते हुए भी हमारे सामने जन–सेवा के अनन्त मार्ग खुले हुए हैं, जिन पर चलने से हमें कोई नहीं रोक सकता। देश की पीड़ित जनता को हमारी सेवाओं की जैसी आवश्यकता आज है, वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। अकर्मण्यता तथा निष्फलता के विषैले वातावरण को दूर करने का केवल एक ही उपाय है कि हम अपनी पूर्व–परिचित तपस्या के मार्ग पर आरूढ़ हो जाएँ। जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए अर्पित कर दिया है, उनकी सेवाओं से देश किसी भी परिस्थिति में वंचित नहीं रखा जा सकता।

इतिहास की सरणी में आई हुई आज की दीवाली उस पुरुष को खोज रही है, जिसने युग-युग से यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि हम अन्धकार को स्वीकार नहीं करेंगे।

ज्योतिर्मय मनुष्य! तू अपने को भूल रहा है। तुझमें बुद्ध का तेज है, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी, दोनों के लिए प्रकाश का निर्माण किया था। तुझमें राणा प्रताप का प्रताप है, जिसने वन-वन मारे-मारे फिरकर भी अपने आदर्श के प्रदीप को बुझने नहीं दिया। तुझमें मंसूर की जिद है, जिसके मर जाने पर भी उसके मांस की बोटी-बोटी ‘अनलहक’ पुकारती थी। आज का घनान्धकार तेरे पौरुष को चुनौती दे रहा है। नींद से जाग! आलस्य को झाड़कर उठ खड़ा हो! सूरज और चाँद के प्रकाश में चलनेवाले बहुत हो चुके हैं। इतिहास उनकी गिनती नहीं करता। आज तुझे अपने भीतर के तेज को प्रत्यक्ष करना है। तेरे लहू में तेल, शिरा में वर्त्तिका और हड्डी में चिराग है। मिट्टी के दीये शाम को जलते और सुबह से पहले ही बुझ जाते हैं। आज दीवाली की रात अपनी हड्डी के उस चिराग को जला, जिसकी लौ सदियों तक जलती रहती है।

(दीवाली, 1944) 'अर्धनारीश्वर' पुस्तक से