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Jul 1, 2025

चिंतनः बंद आँख से देख तमाशा दुनिया का..

  - डॉ. महेश परिमल

कोई माने या न माने, पर सच यह है कि समग्र सृष्टि का आरंभ अँधेरे से हुआ है। लोग भले ही अँधेरे को नकारात्मक दृष्टि से देखते हों, पर यह पूरा सच नहीं है। जीवन में प्रकाश से कहीं अधिक अँधेरे का महत्त्व है। योग की एक क्रिया है, आँखें बंद कर अंत:करण की तलाश। जीवन के सुखद क्षणों को याद करना हो, तो हमें अपनी आँखें बंद करनी होती है। अपार हर्ष के समय भी आँखें बंद हो जाती हैं। बच्चा जब खुशी से भर जाता है, तब वह अपनी आँखें बंद कर लेता है। जीवन के सारे आल्हादित क्षणों को हम बंद आँखों से ही सजीव कर पाते हैं। सोचने की प्रक्रिया में आँखों का बंद होना भी कई बार चमत्कारिक परिणाम देता है।

सृष्टि के निर्माण में अँधेरे की भूमिका प्रमुख है। किसी भी वस्तु के आंरभ की शुरुआत अंधकार प्रमुख रूप से होता है। बीज के अंकुरण को ही ले लो, उसका जीवन माटी के नीचे अंधकार से ढंका होता है। माँ के गर्भ में शिशु गहरे अंधकार में ही पूरे नौ महीने गुजारता है। उसके बाद ही उसे प्रकाशमय जीवन मिलता है। इस जीवन में वह ऊर्जा प्राप्त करता है। वास्तव में आरंभ गूढ़ अर्थों में है। इसलिए जीवन में भी अंधकार की आवश्यकता रहती ही है। यह आरंभ ही बहुत नाजुक है। अंधकार में अटूट गहनता होती है। अंधकार शाश्वत है, निरंतर भी है। प्रकाश के पहले भी है और प्रकाश के बाद भी। कहा भी गया है कि जीवन में अंधकार जितना गहन होगा, सुबह की उजास उतनी ही सुहानी लगेगी। उजास को यदि हमें भीतर से अनुभव करना हो, तो पहले गहन अंधकार के द्वार से गुजरना होगा। इसके बिना हमें उजास को अपने भीतर नहीं ले सकते।

आकाश में लाखों तारे, चंद्रमा और सूर्य के होने के बाद भी अंतरिक्ष में अँधेरा व्याप्त है। वास्तव में जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह अँधेरे की कोख से ही पैदा होता है। कोयले को अँधेरे का पर्याय ही कहेंगे ना...किंतु उसी से अमोल हीरे की रचना होती है। अंधकार को काले रंग से बताया जाता है। कहा भी गया है कि एक बार जिस पर काला रंग चढ़ गया, उसके बाद उस पर कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता। उसी प्रकार यदि हमारा मन अपने आराध्य में लग जाए, तो संसार की कोई मायावी शक्ति हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती। काला रंग ही सृष्टि का आदि और अंत है। 

हम अपनी दो आँखों से संपूर्ण सृष्टि को निहार रहे हैं। रंग-बिरंगी दुनिया का आनंद ले रहे हैं। पर क्या हमने कभी विचार किया कि जब तक हम अपनी आँखें खुली रखते हैं, उतनी ही हमारी आँखों की शक्ति खर्च होती है। आँखों के बंद होते ही अंत:करण की अकूत शक्ति असीम आनंद का अनुभव कराती है। सूरदास और हेलन केलर को ही ले लो, उनकी कल्पनाशक्ति की थाह नहीं मिलेगी हमें। उन्होंने प्रकृति का जो चित्रण किया है, क्या हम उनकी कल्पना के एक अंश को भी प्राप्त कर सकते हैं। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्‌टी बाँधकर जिस अँधेरी दुनिया में प्रवेश किया और अपार शक्ति प्राप्त की, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। भगवान शिव ने युगों-युगों तक समाधि में रहकर विश्व कल्याण के लिए जो शक्ति प्राप्त की, वह सबके लिए कितनी उपयोगी हे, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। आँखों को बंद कर ध्यान करने से अंतरात्मा के विराट अंधकार से साक्षात्कार होता है। इस अंधकार में रहकर हम जितना अंतर्ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, वह खुली आँखों से प्राप्त कर ही नहीं सकते। स्वयं को पहचानने के लिए हमें अपनी आँखें बंद करनी ही होगी।

लोग कहते हैं कि जीवन में अँधेरा दूर होना चाहिए। हमें प्रकाश के साथ रहना चाहिए। प्रकाश ही अँधेरे को दूर भगाता है। मानव सदैव प्रकाश की लालसा रखता है। वह सदैव अँधेरे से दूर भागता रहता है। अंधकार की उपयोगिता को हम समझ नहीं पाते हैं। अँधेरे से डरते हैं। जब अँधेरा हमें डराता है, तो तय है कि उजाला भी हमें डराएगा ही। जो अँधेरे से डरते हैं, उनका उजाले से डरना स्वाभाविक है। यही वजह है कि हमें जीवन के सत्य और सत्व को पहचान नहीं पाते हैं। उजास भरी सुबह को प्राप्त करने के लिए आत्मा के अंधकार से सत्व लेकर हमें बाहर आना ही होगा। अंधकार के बाद ही है प्रकाश और मृत्यु।  उसके बाद ही आरंभ होता है जीवन। संसार के भौतिक प्रकाश का आकर्षण इतना गहरा है कि इसके लिए हम अपना पूरा जीवन खर्च कर डालते हैं। बाहरी चमक-दमक तो क्षणभंगुर है, अस्थिर और अस्थायी है। स्थायित्व तो केवल शांति में है। जो आँखों को बंद करने से ही प्राप्त होती है। हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि अपने भीतर की गहराई में स्थित अँधेरे को अपना साथी बनाएँ। इससे जीवन में असीम शांति की प्राप्त होगी।

जीवन में प्रकाश का आगमन अँधेरे के बाद ही होता है। अँधेरे से ही प्रकाश की पहचान है। अँधेरे में रहने वाले भीतर से प्रकाशमान होते हैं। दीये से पूछो कि अँधेरा कहाँ है, वह नहीं बता पाएगा, पर अँधेरा तो उसके ही नीचे विराजमान है। अंधकार और प्रकाश का साथ जनम-जनम से होता आया है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है। जिस तरह से प्रसन्नता के पीछे ही है विषाद। ठीक उसी तरह अंधकार और प्रकाश का साथ है। दोनों ही जीवन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नकारात्मकता होगी, तभी हमें सकारात्मकता का अनुभव होगा। बिना इसके हम दोनों को नहीं पहचान पाएँगे। इसलिए अँधेरे के साथ जीवन जीने का प्रयास सतत होते रहना चाहिए। इसे हम छाया-प्रतिच्छाया की तरह समझना होगा। अमोल होता है अँधेरा भी.. बस इसे समझने में हम देर कर देते हैं। अंत में केवल यही कि अँधेरा नाम की कोई चीज होती ही नहीं है, यह केवल प्रकाश की अनुपस्थिति का ही दूसरा रूप है। ठीक उसी तरह समस्या नाम की कोई चीज नहीं होती, यह सिर्फ समाधान खोजने के लिए एक विचार का अभावमात्र है।

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