जहाँ गैया जाएगी वहाँ बछड़े को तो जाना ही है । यह तो सनातन नियम है । रमेसर मंडल भी इस नियम के भीतर ही रहेंगे। तुम तो अपनी हाँ या ना बताओ । शेष सब जम जाएगा । रमेसर मंडल के साथ आए बिसाहू ने जब जगेसरी को यह प्रस्ताव दिया तो वह राजी हो गई।
दो साल पहले ही उसकी कलाई सुनी हुई थी। अचानक उसके पति उसे छोड़कर गुजर गए। कोई बीमारी भी नहीं थी। दो दिन तक बुखार में तड़पे और, जाथंव जगेसरी, समेलाल के खियाल करबे । कहते हुए चल बसे। घरवाला गुजर गया, मगर जगेसरी की दिनचर्या वही रही । पहले जगेसरी घरवाले के साथ काम करने जाती थी, अब अकेली जाने लगी। साथ में तीन बरस के समेलाल को भी ले जाती । दो माह बाद ही जात-बिरादरी के लोग चूड़ी पहनाने का प्रस्ताव लेकर आने लगे । मगर जगेसरी ने हर आने वाले को साफ कहा कि बेटे को पहले अपना बेटा बनाओ, तब उसकी माँ के हाथ में डालो चूड़ी । यह एक कठिन शर्त थी।जगेसरी चाहती थी कि चूड़ी पहनाने वाला पहले समेलाल के नाम अपनी कुछ जमीन लिख दे, फिर आगे बात करें । इस बार भी रमेसर मंडल के प्रस्ताव पर उसने साफ कह दिया, दो एकड़ जमीन समे के नाम कर दो तब हाथ लमाहूँ । रमेसर मंडल मान गए और जगेसरी को चूड़ी पहनाकर समेलाल सहित गाँव आ गए। समेलाल तब तीन बरस का था जब धानगाँव के रमेसर मंडल के यहाँ उसकी माँ चूड़ी पहनकर आई।
रमेसर मंडल के पास दस एकड़ जमीन थी । आठ एकड़ नाले के पास धनहा जमीन थी । एकड़ पीछे दो गाड़ा धान देने वाली जमीन । ठीक नाले से लगी हुई । दो एकड़ भर्री जमीन थी जिसमें कुछ नहीं होता था । मटकटैया के पेड़ उगते थे भर्री में । उस तरफ मंडल ने पाँच बरस से देखा भी नहीं था । एक बरस कुवार में बारिश हो गई तो अहहर की फसल हो गई थी । भर्री जमीन थी भी गाँव से दूर । उस बरस अरहर की खड़ी फसल को बकरी चराने वाले लड़कों ने नष्ट कर दिया था । इसीलिए मंडल कहते थे - भर्री भाठा, करम नाठा । यानी पुरूषार्थ को नष्ट करने वाली जमीन होती है भर्री । मंडल अपनी पहली मंडलिन को भी भर्री जमीन कहते थे । पाँच वर्ष तक साथ रही । थी भी चौड़ी चकली। मगर माँ न बन सकी । मंडल ने इसीलिए आखिर में उसे भगा दिया । उसे छोड़ने के बाद जगेसरी को ले आया । जगेसरी के साथ समेलाल को जब मंडल ले आया तो गाँव में पंगत में ही चरचा हो गई कि दो एकड़ जमीन समे के नाम जल्दी कर दी जाए । मंडल का हाथ तो पत्थर के नीचे दबा हुआ था । चढ़ाए तो असल धनहा जाय हाथ से । न चढ़ाए तो जगेसरी निकल जाय हाथ से। बहुत सोचकर मंडल ने दो एकड़ भर्री चढ़ा दी समेलाल के नाम पर इस तरह साँप भी मर गया और लाठी भी बच गई । जगेसरी भी बात जीत गई और समेलाल बेटवा बनकर रह गया धानगाँव में ।
मगर जल्दी ही जगेसरी जान गई कि मंडल ने भर्री देकर समेलाल को और उसे ठग लिया है। तब तक आठ माह बीत चुके थे । जगेसरी तो अटल धनहा थी । उसके पाँव भारी हो गए थे । मंडल के हमजोली ठिठोली करते कि भर्री देकर धनहा लाना तो कोई मंडल से सीखे । चोंगी पीते हुए रमेसर मंडल हमजालियों की चुटकियों का आनन्द लेते । दिन बीतने लगे इसी तरह । जगेसरी के दिन करीब थे ।
अचानक एक दिन ठीक धान मिंजाई के लिए मंडल दौरी में बछवा फाँद रहे थे कि नौकर ने आकर बताया-मंडलिन बुला रही है । जचकी का समय हो गया था । जगेसरी दूसरी बार माँ बन रही थी । वह जान गई थी कि अब दाई को बुला लाना जरूरी है । मंडल फाँदे बैलों को जाकर खोल आया । दौरी चलाना उसने स्थगित कर दिया । खलिहान में धान का पैरा बगरा हुआ था । उसकी चिन्ता मंडल को नहीं थी । यह तो माटी की पैदाइश थी । धनहा है तो धान तो होनाही है । लेकिन जगेसरी खुद धनहा बनकर आई है । मंडल ने सोचा जगेसरी पहली फसल देने जा रही है । उसकी चिंता जरूरी है । समेलाल तो दूसरे के जोते-बोने से हुआ था । इस बार मंडल ने जोतने-बोने का काम किया था । यही तो कमी थी पिछली बार । पहली मंडलिन ने तो उसे अबिजहा सिद्ध कर दिया था । रिश्ते की भाभियाँ उसे नपुंसक तक कह देती थी । लेकिन जगेसरी ने उसे उबार लिया ।
इसीलिए दौरी-फौरी को छोड़ मंडल ने दाई को बुलाया । तीन बरस के समेलाल को सुबह उठने पर पड़ोस की रामबाई ने बताया कि उसके बहन हुई है । समेलाल अपनी माँ के पास गया। माँ ने समेलाल के सिर पर हाथ फेरकर दुलार किया । मंडल ने लड़की के जनम पर गाँव-भर को चाह-पानी के लिए बुलाया । काँके पानी और तिल के लड्डू से सबका स्वागत किया ।
जगेसरी माह-भर में हरिया गई । देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह दो बच्चों की माँ है । दुहरी देह की जगेसरी मंडल के यहाँ आराम पाकर दिपदिपाने लगी । माह-दो-माह नहीं बल्कि चार माह बीत गए, मगर जगेसरी अब मंडल को अपनी खटिया के पास फटकने ही न दे । एक-दो बार मंडल ने कुछ हुज्जत करने का यत्न किया तो जगेसरी अगियाबैताल हो गई । रमेसर मंडल को कुछ सूझा नहीं । उसने हथियार डालते हुए डूबे स्वर में केवल इतना ही कहा, मंडलिन, क्या हो गया ? लड़की से तो मेरा कल्याण होगा नहीं । डिह में दिया बारता है बेटा । जब तुमने लड़की दे दिया तो एक बेटा भी दे दो । बस, और कुछ साध नहीं है । फिर हरू हुए भी तो चार माह हो गए ।
जगेसरी ने फुफकारते हुए जवाब दिया, पास आने की कोशिश करोगे तो बेटी-भर रह जाएगी तुम्हारे पास । जगेसरी के लिए क्या है । जैसे यहाँ आ गई, वैसे ही कहीं और चल देगी । जादा मत मस्तियाओं । चुपचाप भर-पेट भात खाओ और तान दुपट्टा लगाकर नींद-भर सोओ । छोड़ दो आस अब नागर जोतने की । अब इस खेत में दुबारा बीज नहीं बो सकते मंडल ।
रमेसर मंडल जगेसरी के इस जवाब से सन्न रह गए । मरता क्या न करता । दोनों जाँघ के बीच में हाथ चपककर सो गए । इसी तरह और माह-भर बीत गया।
मंडल को समझ में न आए कि बात क्या है । उसकी पहली बाई तो बिना बच्चा जने पाँच साल तक सुख देती रही। रमेसर तो काम-सुख की बात चलने पर अपने हमजोलियों से कहता भी था कि महीना में चार दिन उपास अऊ छब्बीस दिन कुवाँ म बाँस । हमजोली उसकी इस मस्ती-भरी टिप्पणी का खूब आनंद लेते । रतन नाई मुँह-लगा था । वह तो इस उक्ति का सरल अर्थ भी पूछ लेता । तब मंडल कहते, रतन, चार दिन उपास तो रहना ही पड़ता है । सनातम नियम है । औरत को शाप है इसलिए पास जा नहीं सकता मरद चार दिन। उसके बाद बचता है माह में छब्बीस दिन । तो फिर... उसके इस अर्थ पर खूब ठहाका लगता।
मगर इन दिनों रमेसर मंडल हँसना ही भूल गया था । रतन ने ही बाल काटते हुए पूछा, मंडल, एक बात पूछूँ ?
पूछ लो भई ।
कुछ गड़बड़ है मंडल ?
बहुत जादा जी ।
भउजी से झगड़ा हुआ है क्या ?’
भारी झगड़ा ।
कारण क्या है मंडल ?
संजोग नहीं जम रहा ।
यह जवाब सुनकर रतन बाल काटना छोड़कर हँसने लगा । मंडल नाराज हो गया । उसने कहा, बोकरा के जीव जाय, खवइया ल अलोना । रोने की बात में हँसता है रे नउवा !
रतन चुप हो गया । उसे लगा कि वाकई मंडल दु:खी है । कुछ देर चुप रहकर उसने फिर पूछा, मंडल, छिमा करते हुए बताओ कि क्या कुछ बीमारी आ गई ? गड़बड़ी क्या है, कुछ पता चला?
मंडल ने कहा, रतन, सब ठीक है । मगर भारी दु:ख है रे भाई। तुम्हारी भौजी पाटी तक नहीं छूने देती । बच्चा जनने के बाद क्या सालों-साल ऐसा ही होता है रतन? मैं तो पहली बार बाप बना हूँ भइया । तुम हो पाँच लड़कों के बाप, तुम्हीं बताओ ।
रतन उसकी बात से हो-होकर हँस पड़ा । तब तक वह बाल काट चुका था । रतन ने मंडल से कहा, मंडल, तुमने बहुत अच्छा सवाल सही समय में पूछा है । हमारे इलाके में इसी बात को लेकर एक जबरदस्त कहानी प्रचलित है। तुम कहो तो सुनाकर जाऊँ। रमेसर मंडल ने कहा, सुना दो । चाह दो कप और पी लेना। मंडल के पुचकारते ही रतन ने कहना शुरू कर दिया, मंडल,बात है बरसों पुरानी । एक बड़े गौटिया के पास पचास एकड़ धनहा जमीन थी और दस एकड़ भर्री । गौटिया था जवान। उसकी दो साल पहले शादी हुई थी । बच्चा भी होना ही था । बच्चा गौंटिया की तरह खूब मोटा-ताजा हुआ था । उसकी गौटनिन भी थी खूब गोरी नारी । मोठडांट छिहिल-छिहिन्ल करती थी । चलती थी तो दोनों कूल्हे उझेला मारते थे । भरे-पूरे अस्तन और केले के खम्भों की तरह....।
चुप बे । बता रहा है जैसे खम्भों को खुद छूकर देखा हो । इतना मत जमा, सोझ बता। इस बार बनावटी गुस्से से रमेसर मंडल ने रतन को डाँटा ।
रतन भी खिलाड़ी था । वह जान गया था कि मंडल को रस आ रहा है । नाई कोई बात कहे और श्रोता अपना आपा न खो बैठें तो धिक्कार है नउवा की जात पर, रतन ने सोचा । फिर बात बनाते हुए उसने कहा, मंडल, अब बाकी कहानी कल सुन लेना। रमेसर मंडल ने उसके हाथ से साजू छीनते हुए कहा, रतन भाई, छोड़ों नाटक, पियो चाह और सुनाओं पूरी कहानी।
रतन फँस चुका था मंडल के जाल में । उसे और मालिकों के यहाँ भी जाना था मगर रमेसर तो गले ही पड़ गया । सुनाए बिना जाने ही न दे । चाय सुड़कते और शरारती आँखें मटकाते हुए रतन ने बताना प्रारम्भ किया, मंडल, बात तइहा जमाने की है । एक था तुम्हारी तरह बड़ा दाऊ । खेत-खारवाला । दस नौकर लगते थे उसके । बड़ा हिसाब-किताब था । रोज रबड़ी खाता था । तोला-भर गाँजा रोज उड़ाता था । मगर था लंगोट का सच्चा । लंगोट का सच्चा यानी सिर्फ अपनी घरवाली से मतलब रखता था । अरे जो एक औरत से निभा ले, उसे योगी ही जानो मंडल ।
रतन की इस बात से रमेसर मंडल मुस्कुराने लगा। उसने उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, आगे चल रे रतन, गाली मत दे। तुलसीदास मत बन । गियान हमारे पास भी है ।
रतन उसकी बात समझते हुए आगे कहने लगा, तो मंडल, उसी बड़े दाऊ के घर हुआ लड़का । लड़का हुआ तो उछाह-मंगल हो गया । इसी तरह छह माह बीत गए । बच्चा होने के बाद दाऊ पलटकर गौटनिन की ओर देखबे न करे । गौटनिन तो पहले से और सुंदरा गई थी । छिहिल-छिहिल करती । लगता जैसे जग्ग ले दिया जैसी बर जाएगी । मगर गौटिया उसकी ओर देखते भी नहीं । एक दिन गौटनिन से रहा न गया तो उसने हाथ पकड़कर गौटिया से पूछ लिया, क्या बात है, अब परेम कम कैसे हो गया ? तन में अन्न-पानी भी पहले जैसा लगता है, तब भला नजदीक आने से क्यों डरते हो? सच-सच बताओ ।
गौंटिया ने गौंटनिन की बात सुनकर अपने दिल की बात कह दी । उसने कहा, एक ही बात से परेशान हूँ । जिस मारग से इतना बड़ा लड़का निकल आया, वहाँ अब मेरे पुरूषार्थ की भला कहाँ गुंजाइश है । गौटनिन को सहसा हँसी छूट गई उसकी बात सुनकर । मगर फिर उसने जोर नहीं दिया । दोनों अलग-अलग खाट पर सो गए चुपचाप ।
कुवार का महीना था । गौंटिया के नौकरों का मुखिया दसों नौकरों को लेकर भर्री जोतने निकल रहा था । गौंटिया भी नौकरों के साथ भर्री चल पड़ा । छँटवा बैल और बबूल से बने मजबूत हल । गौटिया ने सोचा कि आज ही दसों एकड़ की जुताई हो जाएगी ।
नौकर हल लेकर खेतों में उतर गए । चोंगी-माखुर खाने के बाद ही नौकर हल की मुठिया पर हाथ धरते थे । कुछ देरी जरूर होती थी मगर यह नियम था । चोंगी-माखुर के बाद दसों नौकरो ने एक के बाद एक अपने-अपने हलों से जुते बैलों को हाँकना शुरू किया । भर्री जमीन की मिट्टी काली और चिकनी तो होती ही है । माह-भर पहले इसकी जुताई एक बार हो भी चुकी थी । बीच में अकरसा पानी बरस गया था । जमीन कड़कड़ा रही थी, बैल सपाटे से बढ़ नहीं पाते थे। गौटिया ने नौकरों के मुखिया भुखऊ से कहा, भुखऊ, जुती जमीन में ऐसी पकड़ खाली भर्री में ही होती है जी। धनहा में तो बस पक-पक-पक-पक जोते जाओ । भर्री में ही बैलों का पुरुषारथ दिखता है । भुखऊ ने कहा, दाऊजी, जचकी के माह भर बाद जो हाल चमाचम नारी के तन का हो जाता है, सो हाल जुती भर्री का भी अकरस पानी पाकर हो जाता है । जोतने वाला दंदर जाता है । बड़ा पुरूषारथ लगता है मालिक । आप तो अब बच्चे के बाप बन गए हैं भर्री में हल खींचते बैलों के दु:ख को सही ढंग से जान गए होंगे ।
भुखऊ की बात सुनकर गौटिया सन्ना गया । वह फिर वहाँ ठहरा नहीं भर्री में । सीधे घर आकर रूका ।
क्यों रे नउवा ? क्यों आया वह घर ? रमेसर मंडल ने नाई को उकसाते हुए पूछा । नाई ने कहा, मंडल, दाऊ जानना चाहता था कि अकरस पानी खाए भर्री को जोतने में बैलों को कितना बल लगता है । वह थाह लगाना चाहता था । मंडल ने फिर पूछा, तो उसे थाह लगा कि नहीं रे ?
नाई ने कहा, सब मैं ही बताऊँ मंडल, कुछ तुम भी तो समझो। तुम भी तो बाप बन गए हो । भर्री में हल चलाकर देख भी तो सकते हो । बहुत रह लिए उपासे । मंडल अभी कुछ और कहता कि रतन नाई साजू उठाकर हँसता हुआ वहाँ से चल निकला ।
रमेसर मंडल को रतन नाई ने अपनी बात से झिंझोड़कर रख दिया । वह उठ खड़ा हुआ । हाथ में तुतारी लेकर निकल पड़ा खेतों की ओर । गाँव से लगा हुआ पहला चक मंडल का था । आठ एकड़ का एक ही चक । उसने तो दो एकड़ भर्री जमीन में भी खूब प्रयास किया कि जोत-बोकर उसे भी धनहा बना लिया जाए । खातू माटी से ऐसा हो भी जाता है, मगर उसकी भर्री जमीन और खराब थी । गोटर्रा जमीन थी। कांदी तक ठीक-से उस दो एकड़ जमीन में नहीं होती थी ।
मंडल अपने धान के भरे-पूरे खेतों में टहलता रहा । फिर अचानक उसे अपनी चटियल भर्री जमीन की याद हो आई । रमेसर उस तरफ चल निकला । बीच में छोटा-सा नाला था । बबूल और खम्हार के पेड़ों से भरा था रमेसर मंडल का चक। शिरीष और शीशम के भी दो-चार पेड़ थे । बेर का तो मेड़ों पर जंगल ही उग आया था । धनहा पार कर वह नाले में उतरा । कुंवार में नाले में पानी बहुत कम हो जाता है । मंडल नाले को बाँधकर उसमें मछली पकड़ने के लिए चोरिया भी फँसाकर रख देता है । वह चाक-चौबंद मंडल है । लाभ के किसी अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहता । चोरिया को उठाकर उसने देखा । कुछ डेमचुल, रूदुवा और कोतरी मछलियाँ फँसी थीं । मछलियों को देखकर वह आगे बढ़ गया । नाले को पार कर ज्योंही उपर चढ़ा तो अपनी भर्री में उसने किसी औरत जात को घूमते पाया । दोपहर का समय था । कहीं दूर-दूर तक कोई आदमी नहीं दिख रहा था । मंडल को लगा कि कोई टोनही या तुरेलिन तो नहीं है। वह डर-सा गया, मगर गौर से उसने देखा तो साड़ी जानी-पहचानी लगी । वह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा । पास गया तो देखा, उसकी बाई जगेसरी वहाँ टहल रही थी । मंडल को देखकर जगेसरी की आँखें लाल हो गई । मंडल ने फिर भी पुचकारते हुए पूछा, घर में छोटी-सी नोनी को किसके सहारे छोड़ आई जगेसरी ?
समे के सहारे! जगेसरी ने कहा । मंडल समझ गया कि जगेसरी नाराज है । उसने हिम्मत बटोरते हुए फिर पूछा, यहाँ भर्री में क्यों चली आई ?
जगेसरी ने आँखे तरेरते हुए कहा, तुम्हे शरम नहीं आई? मेरे बेटे को तुमने यह बंजर धरा दिया ? मंडल, धनहा खेत की तरह तुम्हारे घर आते ही जगेसरी ने बेटी जन दी । मेरी शर्त तो पूरी हो गई । तुम्हारा मान भी बढ़ गया; लेकिन तुम्हारा अंतस कितना काला है, यह पता लगा इस काली चटर्री माटी वाले खेतों को देखकर । मेरे बेटे के मुँह में पैरा गोंज दिया तुमने मंडल ।
रमेसर मंडल को लगा कि जगेसरी से ज्यादा उलझना ठीक नहीं है । कहीं चटकनिया ही न दे। उसने नम्र होते हुए कहा, समेलाल तो केवल तुम्हारा बेटा है जगेसरी, मेरा तो नहीं । भला यह तो सोचो, भर्री दे दिया, यही बहुत किया....। अभी वह कुछ और कहता कि जगेसरी अगियाबैताल हो गई । उसने कहा, मंडल, समे भी मेरा बेटा है और बेटी भी केवल मेरी है । मैंने जन्माया है । तुम साफ-साफ सुन लो । मैं अब तुम्हारे घर में एक दिन भी नहीं रह सकती। समे बेटा और अपनी बेटी को लेकर आज ही चली आऊँगी । बहुत जोत-बो लिये, मगर समझ नहीं सके कि औरत खेत नहीं है, मंडल ।
रमेसर मंडल को सहसा कुछ सुझा नहीं । उसने कहा, जगेसरी, तुम तो ऐसी खेत हो, जिसमें मैं बीज बो चुका हूँ ; इसलिए जाना है तो जाओ, लड़की तो मेरी है ।
व्यंग्यात्मक हँसी हँसते हुए जगेसरी ने कहा, मंडल,इस धोखे में मत रहना, बीज किसका है यह सिर्फ औरत ही जानती है ।
सम्पर्कः एल.आई.जी.-18, आमदी नगर, हुडको, भिलाई (छ.ग.) 490 009, मो. 98279-93494
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