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Aug 21, 2009

उदंती.com, अगस्त 2009

उदंती.com 
वर्ष 2, अंक 1, अगस्त 2009

जो हानि हो चुकी है उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है।                        -शेक्सपीयर

अनकही:  शिक्षा प्रणाली के कायाकल्प पर बहस
यात्रा-संस्मरण/बार नवापारा: जहां जानवर भी सौर ... - सूरज प्रकाश
छत्तीसगढ़-कुष्ठ/हम जीती हुई बाजी क्यों हार गए - डा. परदेशीराम वर्मा
प्रकृति-पक्षी/खूबसूरत आंखों वाला मोर - बालसुब्रमण्यम
लोकतंत्र-अधिकार/ जानने की जंग का पहला पड़ाव ...- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
यादें/चलें बचपन के गांव में - भारती परिमल
कविता/  पीपल का पेड़ और मैं हरि जोशी
संगीत/श्रद्धांजलि:  गंगू बाई हंगल...- उदंती फीचर्स
विज्ञान-सफलता/चंद्रमा में इंसानी फतह ...- रमेश शर्मा
लोकपर्व-भोजली/अहो देवी गंगा ...- प्रो. अश्विनी केशरवानी 
लघु कथाएं/ रचना गौड़ 'भारती'
कहानी/ आधार - मुंशी प्रेमचन्द
21वीं सदी के व्यंग्यकार/सावन तो फिर भी परेशान करता है जी - आलोक पुराणिक
किताबें : कथा यूके सम्मान

Aug 20, 2009

शिक्षा प्रणाली के कायाकल्प पर बहस

शिक्षा प्रणाली के कायाकल्प पर बहस
- रत्ना वर्मा
जून के अंतिम सप्ताह में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी इरादों की घोषणा की है। जहां उन्होंने दसवी कक्षा (हाई स्कूल) की बोर्ड परीक्षा को वैकल्पिक बनाने, बारहवीं कक्षा ( इंटरमीडियेट) की परीक्षा को एक केन्द्रीय बोर्ड से करवाने तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान अनेक नियामक संस्थाओं के स्थान पर सिर्फ एक स्वतंत्र नियामक संस्था की आवश्यकता तथा गरीब छात्रों द्वारा शिक्षा हेतु लिए जाने वाले ऋणों पर ब्याज सरकार द्वारा भुगतान किे जाने जैसे अनेक सुधारों की घोषणा की है। इसके साथ ही उन्होंने परीक्षा परिणामों में अंको के स्थान पर श्रेणी ए, बी, सी इत्यादि देने की बात की है।
स्वतंत्रता के बाद यह पहली बार है कि किसी केन्द्रीय मंत्री ने शिक्षा प्रणाली के आमूल- चूल कायकल्प करने का निश्चय प्रगट किया है। प्रसन्नता की बात है कि श्री कपिल सिब्बल की इस पहल को प्रधानमंत्री का भी समर्थन है। इस घोषणा का देश के करोड़ों छात्र- छात्राओं और उनके अभिभावकों द्वारा वैसे ही हर्ष और उल्लास से स्वागत किया गया जैसा कि वर्षों से सूखे से त्रस्त क्षेत्र में रिमझिम वर्षा होने पर होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि जनता शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन की अपेक्षा कई दशकों से कर रही थी।  इससे पहले आज तक सिर्फ केन्द्रीय शिक्षा मंत्री बनने पर श्री एमसी छागला ने केन्द्रीय स्कूलों की स्थापना करके केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों के बच्चों के लिए पूरे देश में समान पाठ्यक्रम से अच्छे स्तर की स्कूली शिक्षा का प्रावधान किया गया था। उसके बाद से शिक्षा मंत्री शिक्षा के क्षेत्र को सिर्फ राजनीति का अखाड़ा बनाकर पाठ्यपुस्तकों से अपने संकीर्ण नजरिये के अनुरुप छेेड़- छाड़, प्रबंधन और तकनीकी उच्च संस्थाओं में दखलंदाजी, तुगलकी फरमानों से कालेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की अनुमति देने जैसे विस्मयकारी खेल खेलते रहे। मरणासन्न शिक्षा प्रणली में अत्यंत संदिग्ध किस्म के कालेज और विश्वविद्यालय कुकुरमुत्तों की तरह प्रगट होने लगे और शिक्षा जगत भी भ्रष्टाचार के काले रंग में रंग गया। इस परिप्रेक्ष्य में श्री कपिल सिब्बल के विचार शिक्षा की काली कोठरी में आशा की किरण की तरह चमके हैं।
हम श्री सिब्बल के इरादों का स्वागत करते हुए उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहेंगे कि उन्होंने अपनी घोषणा में प्रारंभिक (प्राइमरी) स्कूलों का नाम तक नहीं लिया है।  कक्षा 1 से 5 तक की प्राथमिक शिक्षा किसी भी मनुष्य की शिक्षा की बुनियाद होती है अतएव शिक्षाविद इसे शिक्षा प्रणाली में सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। सभी विकसित देश जैसे अमरीका, इंग्लैन्ड और योरप के अन्य देश अपने शिक्षा बजट में प्राथमिक शिक्षा को सर्वोच्च स्थान देते हैं और कक्षा 1 से 12 तक की शिक्षा को सभी शैक्षणिक आवश्यकताओं से युक्त स्कूलों के माध्यम से सभी बच्चों को मुफ्त देने की जिम्मेदारी उठाते हैं। इन स्कूलों में बच्चों को पुस्तकों कापी, कलम पेन्सिल भी मुफ्त दी जाती है। परिणाम है कि यह देश इतने समृद्ध और शक्तिशाली हैं। 
शिक्षाविदों के अनुसार उचित प्रारंभिक शिक्षा के लिए स्कूल में उचित संसाधन होना अनिवार्य है। संसाधनों से अभिप्राय है स्कूल भवन, फर्नीचर, पीने का पानी, शौचालय, क्रीड़ांगन इत्यादि। इस मामले में देश के ग्रामीण क्षेत्र में अधिकांश स्कूलों की हालत शर्मनाक है। उनमें यह अनिवार्य संसाधन कल्पना से भी परे हैं। इतना ही नहीं पीने का पानी, शौचालय क्रीड़ांगन और पुस्तकालय तो अधिकांश शहरों के प्राइमरी स्कूलों में भी नहीं हैं। स्वाभाविक ही है कि ऐसी दुव्र्यवस्था के चलते बड़ी संख्या में बच्चे शिक्षा से विमुख हो जाते हैं। इन स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों के भी अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन होने की वजह यही है। श्री सिब्बल को याद रखना चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा तो शिक्षारुपी गंगा की गंगोत्री है अतएव शिक्षा सुधारों में प्राथमिक शिक्षा को सुव्यवस्थित करने को उन्हें अपने कार्यक्रम में सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।
मंत्री महोदय ने अपने कार्यक्रम में शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले कदाचारों की रोकथाम के लिए वर्तमान संसद के प्रथम 100 दिनों के अदर एक कानून बनाने के निर्णय की घोषणा की है। यह स्वागतेय कदम है, जिसकी बहुत जरुरत है। रैगिंग जैसे अपराधों, शिक्षा संस्थानों के प्रशासकों द्वारा भ्रामक प्रचार द्वारा छात्रों और अभिभावकों को आकर्षित करना, कैपिटेशन फीस लेना इत्यादि बहुत ही गंभीर अपराध हैं जिनकी रोकथाम के लिए कानून की आवश्यकता बहुत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। सर्वोच्च न्यायालय ऐसा कानून बनाने की आवश्यकता पर वर्षों से जोर देता रहा है। देर आये दुरुस्त आये।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षा जैसी व्यापक प्रणाली में सुधार एक जटिल प्रक्रिया है जो रातों- रात नहीं हो सकती। वास्तव में बहुत कठिन है डगर पनघट की। प्रांतीय सरकारों और राजनैतिक दलों से विरोध के स्वर उठने भी लगे हैं। श्री सिब्बल ने स्वयं ही यह कहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में सुधार प्रांतीय सरकारों तथा शिक्षाविदों से विस्तृत विचार विमर्ष तथा उनके सार्थक सहयोग से ही संभव हो पायेगा। यही उचित भी है। विविध भाषाओं और संस्कृतियों से भरपूर हमारे जैसे देश में विकासोन्मुखी योजनायें और कार्यक्रम तभी कारगर हो सकते हैं जबकि उन पर संवैधानिक दिशा निर्देशों के अनुरुप उनसे संबधित समूहों में गहन मनन- चिन्तन से उत्प्रेरित विचार- विमर्ष के बाद उन्हें अंतिम रुप दिया जाए।
वास्तव में श्री सिब्बल ने शिक्षा जैसे समाज के सबसे महत्वपूर्ण विषय पर हम सभी को व्यापक राष्ट्रीय बहस का सुअवसर प्रदान किया है। व्यापक जनहित के मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस स्वस्थ और सुचारु जनतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। दुर्भाग्यवश पिछले कुछ दशकों में और तो और संसद जिसका मुख्य उद्देश्य ही जनहित के मुद्दों पर बहस करना होता है, से ही बहस की संस्कृति लुप्त हो गई है। संयोग से नव निर्वाचित लोकसभा में शोर- शराबे से संसद की कार्रवाई को बाधित करने वाले बाहुबली सांसदों की संख्या में काफी कमी आई है। अतएव आशा है कि शिक्षा सुधार जैसे राष्ट्रीय मुद्दे पर संसद में विस्तृत बहस होगी।
इस परिप्रेक्ष्य में यह भी आवश्यक है कि इस विषय पर छात्र, अभिभावक, शिक्षाविद और बुद्धिजीवी भी इस बहस को पुनीत कर्तव्य मानते हुए इसमें भाग लें।  समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और टेलीविजन का भी कर्तव्य है कि इस बहस को अपने पृष्ठों और कार्यक्रमों में वांछित स्थान और प्रोत्साहन दें। हमें विश्वास है कि इस प्रक्रिया से शिक्षा प्रणाली के कायाकल्प के लिए ऐसे सुझाव आऐंगे जिनसे प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतम स्तर तक की शिक्षा का ऐसा रुप दिया जा सकेगा जिससे देश के सभी बच्चों, युवकों और युवतियों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा सुलभ हो सकेगी।
शिक्षा सुधार संबंधी बहस के इस पुनीत अभियान में अपना विनम्र योगदान करने के उद्देश्य से हम इस मुद्दे पर सुचिंतित लेख आमंत्रित करते हैं। अच्छे सुझावों को हम अपने पृष्ठों पर स्थान देंगे।

बार नवापारा

जहां जानवर भी सौर ऊर्जा से पीते हैं पानी
घने जंगलों में से रात की यात्रा का रोमांच ही कुछ और था। मौसम बेहद अनुकूल। वहीं टूरिस्ट लॉज के आंगन में कुछ लोग आग जलाये जंगल में मंगल का सा आभास देते गाना बजाना कर रहे थे।
- सूरज प्रकाश
आनंद हर्षुल और मनोज रूपड़ा के निमंत्रण पर जनवरी 2009 में एक साहित्यिक कार्यक्रम कथा विमर्श में पहली बार रायपुर जाना हुआ। लम्बी ट्रेन यात्रा के हौवे और सर्दी के मौसम के डर ने कई दिन तक आसमंजस में बनाये रखा कि जाऊं या न जाऊं, लेकिन कुछ नये पुराने रचनाकारों से मिलने और कुछ नयी जगह देखने की चाहत ने आखिर फ्लाइट टिकट के लिए प्रेरित किया। पुणे से नागपुर की फ्लाइट और नागपुर से रायपुर सुबह की ट्रेन। नागपुर में मनोज के घर पर रात गुजारने के बाद मनोज, मैं, बसंत त्रिपाठी और राकेश मिश्र पांच घंटे की सुखद ट्रेन यात्रा के बाद जब तब रायपुर पहुंचते, कार्यक्रम शुरू हो चुका था। दुर्घटना के बाद मैं पहली बार इतनी लम्बी ट्रेन यात्रा कर रहा था लेकिन सीट कन्फर्म होने और डिब्बे में ज्यादा भीड़ न होने के कारण ज्यादा तकलीफ नहीं हुई। हम चारों साहित्य और साहित्यकारों के आस- पास ही बात करते रहे, हंसते रहे और यात्रा का आनंद लेते रहे। रास्ते में दुर्ग से मनोज के अनुरोध पर उसके बचपन के दोस्त हेमंत भी हमसे आ मिला। बेचारे को दो दिन की यात्रा के लायक कपड़े और सामान जुटाने का मौका भी न मिला। ट्रेन आ पहुंची और हेमंत टिकट की लाइन में खड़ा था। मनोज ने उसे बिना टिकट ही बुला लिया।
कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तो मंच पर काशी नाथ सिंह जी अपना वक्तव्य दे रहे थे। मुझे देखते ही अपना वक्तव्य बीच में रोक कर मेरा स्वागत किया और सबको मेरे आगमन की सूचना दे डाली। अच्छा भी लगा कि मंच से इतना बड़ा रचनाकार मुझे देखते ही अपना भाषण बीच में रोक कर इस तरह से आत्मीयता से मेरा नाम ले कर मुझे मान दे रहा है और साथ ही अपने आप पर अफसोस भी हुआ कि इतने बरस के लेखन के बाद भी मैं क्यों नहीं साहित्यिक भाषण कला विकसित कर पाया। किसी भी साहित्यिक मंच से अव्वल तो बोला ही नहीं और बोला भी तो बोदा ही बोला। न बोलता तो अच्छा होता। यहां भी यही हुआ। देवेन्द्र संचालन कर रहे थे। पांच-सात वक्ता बोल चुके थे कि वे मेरे पास आये और कहने लगे कि अगला वक्ता मैं हूं। अब फिर वही संकट। बोलूं क्या और बोलूं कैसे। एक बार फिर लीद कर गया। हां, यह कह कर एक हंगामा जरूर खड़ा कर दिया। बार बार स्नोवा बार्नो को ले कर जो हाय तौबा मचायी जा रही थी, उस पर अपनी फुलझड़ी छोड़ दी कि जो लेखक स्नोवा के नाम से लिख रहा था, अब जल्द ही उस नाम से आखिरी कहानी लिख कर इस किस्से को यहीं विराम दे देगा। तुरंत खुसर-पुसर शुरू हो गयी और जब सब लंच के लिए निकले तो सबकी जुबान पर यही सवाल था कि मेरी बात में क्या सच्चाई है। सुबूत घंटे भर में मिल गया। तब तक उस छद्म लेखक तक बात पहुंच चुकी थी और मेरे मोबाइल पर एक संदेश चमक रहा था- snowa ka jo photo chhapta hai voh kisi tourist ladki ka nahee, lekhika ka hee hai. dost, voh meri jaan hai, dunia se kah do, jabaan sambhaal ke! अब मुझसे ये न पूछा जाये कि ये संदेश किसने भेजा और कैसे भेजा। लेकिन जिसने भी पढ़ा ये संदेश, उसे विश्वास ही हुआ कि जो कुछ मैं कह रहा था, आधारहीन नहीं था।
रात को जन नाट्य मंच की ओर से दिल्ली से आयी टीम की ओर से औरंगजेब नाटक था। अच्छा था नाटक लेकिन वही प्रोफेशनलिज्म के संकट। राजधानी के सबसे प्रमुख और सबसे ज्यादा इस्तेमाल किये जाने वाले थियेटर में साउंड सिस्टम इतना खराब था कि मजबूरन पीछे बैठे दर्शक नाटक अधबीच छोड़ कर बाहर निकल गये। दूसरे, इस समय हमारे तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों पर सबसे बड़ा हमला करने वाले यंत्र मोबाइल ने बीच-बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना जारी रखा। बेशक इसके लिए संयोजक महोदय पहले अनुरोध कर चुके थे कि जिस किसी को भी मोबाइल पर जरूरी बातें करनी हों, कर लें, हम बेशक नाटक दस मिनट देर से शुरू कर देंगे। मजा तो तब आया जब औरंगजेब के बेहद महत्वपूर्ण संवादों को ओवरलैप करते हुए मेरी सीट से दो सीट परे बैठे व्यक्ति का मोबाइल बजा और मेरे पड़ोसी ने जम कर उसकी लानत मलामत कर दी कि मोबाइल को कैसे साइलेंस मोड पर रखना है, सीख कर आओ लेकिन दो मिनट भी नहीं बीते थे कि उसी सज्जन के मोबाइल ने बेहद खराब रुचि की रिंग टोन में पूरे हॉल और पूरे मंच का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। अब उसकी हालत देखने लायक थी। कुल मिला कर ढाई घंटे के नाटक में दस मोबाइल तो बजे ही। (मंच आयोजकों, नाटककारों और सभा सम्मेलनों के आयोजकों को मेरी सलाह है कि वे आयोजन स्थल पर पानी से भरी एक बाल्टी रखें और जिसका भी मोबाइल इस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराये, उसे पानी में डुबकी लगाकर गंगा स्नान करा दिया करें। देर सबेर सब तक ये संदेश पहुंचेगा।)
रात आयोजकों की ओर से तरल- गरल का आयोजन था। वहां पहले पहुंच चुके कुछ रचनाकार अपने अपने राम और अपने-अपने जाम नामक कार्यक्रम में लगे हुए थे। काशीनाथ जी ने एक बार फिर अपने पास बुलाया और बेहद आत्मीयता से बात करने लगे। बताने लगे कि वे मेरे अनुवादों के कितने बड़े मुरीद हैं। चार्ली के अनुवाद को उन्होंने बहुत बड़ा काम माना। कहने लगे कि बेशक तुमसे कम मुलाकातें हैं लेकिन जितनी भी हैं, यादगार हैं। मैंने संकोशवश उनसे कहा कि मैं जो भी कर पाया अपनी जगह पर है लेकिन साहित्यिक मंचों से अपनी बात कहने का सलीका अभी भी नहीं सीख पाया हूं। बेशक अपने कॉलेज में राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम करता हूं और अरसे से पढ़ा भी रहा हूं। इस पर उन्होंने दिलासा दी कि तुम इस बात की परवाह मत करो क्योंकि तुम्हारे लिखे शब्द ज्यादा मायने रखते हैं, कहे हुए शब्दों की कोई उम्र नहीं होती। इस बात की बहुत ज्यादा परवाह मत करो। उनकी बात से मेरा हौसला बढ़ा। अगले दिन उन्हें भेंट स्वरूप चार्ली चैप्लिन की सभी फिल्मों की डीवीडी और अपने उपन्यास देस बिराना की ऑडियो सीडी दी तो वे बहुत खुश हुए।
डेढ़ दिन के कथा विमर्श के लिए और उससे पहले दस दिन के नाटक विमर्श के लिए और कविता विमर्श के लिए आनंद हर्षुल और उसके दोस्तों ने सचमुच बहुत मेहनत की थी। कुछ ही दिन पहले उनका भयंकर एक्सीडेंट हो चुका था और डॉक्टरी सलाह के अनुसार उन्हें बिस्तर पर होना चाहिये था लेकिन वे हाथ पर प्लस्तर लगाये न केवल सबकी तरफ व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे रहे थे, सारी व्यवस्थाओं पर भी लगातार निगाह रखे हुए थे।
आनंद हर्षुल की कोशिशों से ही ये हो पाया था कि मैं, मनोज और हेमंत दूसरी ही शाम को बारनवापारा अभयारण्य की यात्रा के लिए
निकल रहे थे। आनंद भी हमारे साथ निकलना चाहते थे लेकिन अगले दिन सबकी विदाई हो जाने के बाद। हममें इतना धैर्य नहीं था कि अगले दिन तक रुक पाते क्योंकि हम जानते थे कि सबके विदा होते न होते दो बज जायेंगे और इस तरह से चौबीस घंटे की इंतजार का कोई मतलब नहीं रहेगा।
हम तीनों निकले। चार बजे के आसपास। यात्रा बेशक 200 किमी से भी कम की थी लेकिन रास्ते के ढाबों पर रुकते रुकाते और नाश्ता करते और रात के लिए डिनर पैक कराते हम रात साढ़े नौ बजे ही बारनवापारा पहुंच पाये। घने जंगलों में से रात की यात्रा का रोमांच ही कुछ और था। मौसम बेहद अनुकूल। वहीं टूरिस्ट लॉज के आंगन में कुछ लोग आग जलाये जंगल में मंगल का सा आभास देते गाना बजाना कर रहे थे। पता चला कि हमारे लिए जो कॉटेज बुक था, किसी और को दिया जा चुका है। हेमंत ने यही कहा कि जो भी खाली है इस समय वही दे दो।
बेहद शानदार व्यवस्था। दो बड़े बड़े वातानूकूलित कमरे, दोनों के लिए अलग किचन, सामान रखने की जगह और दोनों कमरों के बीच में शानदार ड्राइंगरूम। बहुत आधुनिक होते हुए भी लोककलाओं की ओर झुकाव लिये हुए। बाहर कुछ टैंट भी नजर आये। किराया बेहद कम। तीन या चार सौ रुपये प्रति कमरा प्रति दिन। इतने में तो महानगर में दो व्यक्ति ढंग से एक वक्त का खाना भी नहीं खा सकते।
तय हुआ कि सवेरे साढ़े पांच बजे जंगल के लिए निकलेंगे। गाइड वहीं मिल जायेगा। बिस्तर पर लेटते ही अतीत के पन्ने खुलने लगे। कितने तो बरसों के बाद ये हो रहा था कि मैं इस तरह से जंगल में रात गुजार रहा था। बचपन में मसूरी के पहाड़। हमारा घर एक पहाड़ी पर अकेला घर हुआ करता था। फिर 1986 से 1994 के बीच की गयी हिमाचल के पहाड़ों और जंगलों में की गयी ट्रैकिंग के दिन खूब याद आये।
ये भी कई बरसों के बाद हो रहा था कि हम तीनों के मोबाइल बंद थे। नेटवर्क के दायरे से परे। काश, हर बरस कुछ दिन के लिए ये हो जाया करे कि हम हर मोबाइल के दायरे बाहर रहा करें। हमारे जीवन में मोबाइल के कारण अनिवार्य रूप से घुस आये झूठ बोलना और दूसरे मोबाइलीय दंद- फंद करना कुछ तो कम होगा।
सवेरे पांच बजे ही नींद खुल गयी। रात का वादा पूरा करते हुए बेयरा चाय ले आया। अभी खूब घना अंधेरा था जंगल की उस चुंगी पर जहां से हम शेरों, जंगली भैंसों, हिरणों और भालुओं के गांव उनसे मिलने जा रहे थे। 255 वर्ग किमी का घना, किफायत से रखा और संवारा गया अरण्य। गाइड की तेज निगाह दोनों तरफ टोह लेती हुई कि कोई जानवर नजर आये तो हमें दिखाये। दो एक जंगली भैंसे, एकाध सूअर और दो एक हिरण जरूर नजर आये लेकिन सारे के सारे बायीं तरफ। गाइड उसी तरफ बैठा था। गाइड इतना डरपोक था कि एक मिनट के लिए भी हमें गाड़ी से नीचे उतरने नहीं दिया।
चार घंटे की यात्रा जो खूब अंधेरे में शुरू हुई थी, और अब पूरी तरह दिन निकल आने पर खत्म होने को थी, अचानक ऐसे मोड़ पर आ गयी थी कि हम तीनों घबरा गये। गाइड के पेट में भयंकर दर्द शुरू हुआ। वह काफी देर तक टालता रहा लेकिन बहुत जोर देने पर उसने बताया कि टूरिस्ट गांव के पास ही डॉक्टर है। तभी उसे उल्टियां होनी शुरू हो गयीं। गाड़ी तेजी से उसकी बतायी दिशा की तरफ मोड़ी गयी। संयोग से डॉक्टर मिल भी गया और उसके पास इंजेक्शन भी था।
अब हमने ध्यान से पूरा इलाका देखा। किसी भी साधारण गांव की तरह गांव। वही चाय और भजिया की दुकानें। एकाध परचून की दुकान, उसी में एसटीडी फोन। नाई, ढाबा और सब्जी के ढेर लगाये एक बुढिय़ा, एकाध साइकल की दुकान। हमने गरमा गरम पकौड़ों का नाश्ता किया और चाय पी। तभी मैंने देखा कि सभी दुकानों के आगे मेज पर प्लास्टिक के एक लीटर और दो लीटर के जारों में कुछ रंगीन द्रव नजर आ रहा है। पूछा तो पता चला कि इनमें बिक्री के लिए पेट्रोल रखा है जो कुछ अतिरिक्त दाम पर जरूरतमंदों को बेचा जाता है। वजह ये है कि सबसे निकट का पैट्रोल पंप यहां से कम से कम 30 किमी दूर है और गांव में बहुत सारी मोटरसाइकलें तो हैं ही, कई बार संकट के समय गाड़ी वालों की भी बहुत मदद हो जाती है इस तरह से। मान गये उस्ताद। शून्य में से रोजगार के अवसर तलाशना तो कोई गांव वालों से सीखे। कुल जनसंख्या 1500, हाईस्कूल तक की पढ़ाई की सुविधा। रोजगार सिर्फ खेती, गाइड का काम, जंगल की चौकीदारी या टूरिस्ट गांव की नौकरी।
उस समय भी और बाद में भी मैंने देखा कि स्कूल की यूनिफार्म पहने बहुत सारे लड़के दुकानों में भी और टूरिस्ट विलेज की कैंटीन में भी काम कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि कैंटीन में काम करने के पचास रुपये मिल जाते हैं और कई बार खाना भी। जिस ढाबे पर हमने मुर्गा बनाने का और खाना तैयार करने का आर्डर दिया था, वहां पर भी एक लड़का स्कूली यूनिफार्म पहने गरमा गरम रोटियां ला रहा था।
ये भी एक अलिखित व्यवस्था थी ढाबों की कि जो भी बच्चा आसपास नजर आ जाये, बुला लो उसे। दस बीस रुपये और खाने में सौदा महंगा नहीं। ड्राइवर सहित हम चार लोग थे। पूरा मुर्गा, शानदार तरीके से पकाया गया, सलाद और भरपूर रोटियां और चावल। कुल बिल 250। मुंबई में ये सोचा भी नहीं जा सकता।
दिन में एक बार फिर हम जंगल की तरफ निकले। अब तक गाइड महोदय भी ठीक हो गये थे और बचा खुचा मुर्गा खा कर एक बार फिर जंगल के लिए तैयार थे। इस बार जंगल नया चेहरा ले कर हमारे सामने था। अलग रंग, अलग खुशबू और अलग मूड में वहां के वासी पशु पक्षी। तभी मनोज ने ड्राइवर से कहा कि मैं तुम्हारी गाड़ी में पीछे बैठे-बैठे बोर हो गया हूं। जरा बैठने दो स्टीयरिंग पर। ड्राइवर ने अपनी टैन सीटर गाड़ी की चाबी तो दे दी लेकिन लगातार सहमा सा बैठा रहा। मनोज ने जंगल की ड्राइविंग का खूब आनंद लिया। अब ड्राइवर को सहमाने की मेरी बारी थी। मैंने भी जंगल की कच्ची पगडंडियों पर दस किमी गाड़ी चलायी ही होगी। इतनी बड़ी गाड़ी पहली बार चलायी।
किस्मत के हम धनी रहे इस बार। भालू मिला। ढेर सारे जंगली भैंसे मिले। इतने नजदीक कि हम पर हमला करें तो हम भाग भी न पायें। बहुत सारे हिरण? मिले। जंगली सूअर मिले। रंगीन पक्षी मिले। मोर तो बार-बार मिले। जब हम वापिस टूरिस्ट गांव आये तो एक और आश्चर्य हमारी राह देख रहा था। हमें दिन में बताया गया था कि पूरा टूरिस्ट गांव सोलर एनर्जी से चलता है। यहां तक कि कमरों के एसी भी और बेहद कलात्मक रूप से बनाये गये ओपन एयर थियेटर में रोजाना दिखायी जाने वाली फिल्में भी। गांव में लाइट नहीं है ये बात हमने रात में ही देख ली थी। लेकिन हम ये देख कर हैरान थे कि लगभग सभी दुकानों पर छोटी छोटी ट्यूब लाइटें जल रही थीं। पास जा कर देखने पर पता चला कि एक मोटर साइकिल हर दुकान में खड़ी है और उसकी बैटरी से सीधे पाजिटिव और नेगेटिव जोड़ कर रोजाना कम से कम तीन घंटे की लाइट का इंतजाम कर लिया जाता था। ये बात उस गांव की है जहां? सिर्फ हाइस्कूल था। पैट्रोल पंप तीस किमी दूर था और रोजगार के नाम पर कोई ढंग का काम नहीं था। मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली, अहमदाबाद जैसे महानगरों में अपनी जिंदगी के लगभग पैंतीस बरस गुजार देने के बाद भी मैंने किसी भी जगह इस तरह का आविष्कार नहीं ही देखा है। हम हत्प्रभ थे। 
उसी रात जब हम ओपन एयर थियेटर में नरेश बेदी की तथा एक और निर्देशक की बार नवापारा पर बनायी फिल्में देख रहे थे तो हमने पूरे जंगल का सम्पूर्ण रूप में साक्षात्कार किया। जो कुछ अब तक नहीं देख पाये थे, हब हमारे सामने था। जंगल अपना भरपूर सौंदर्य क्लोज एंगल से हमें दिखा रहा था। एक और सच से रू ब रू हुए हम कि पूरे जंगल में जानवरों के पानी पीने के लिए कुल 177 कुंड हैं। झरने, नदी, नाले और पानी के दूसरे प्राकृतिक स्रोत अलग। तो इन कुंडों और तालाबों में पानी की निर्बाध आपूर्ति के लिए भी सौर ऊर्जा का सहारा लिया गया है। हर तालाब को एक ट्यूब वैल से जोड़ दिया गया है और ट्यूब वैल को सोलर पैनल से। जैसे ही पैनल को अपेक्षित मात्रा में गर्मी मिलती है, वह पानी को तालाब की तरफ भेजना शुरू कर देता है। फिल्मों से हमें ये भी पता चला कि किसी भी प्रतिकूल मौसम में भी किसी भी जानवर को पानी पीने दो किमी से दूर नहीं जाना पड़ता। हम मुस्कराये। कितनी बड़ी ऐय्याशी है। हमारे देश के अमूमन सभी इलाकों में औरतों को पानी भरने के लिए अभी भी कई कई किलोमीटर जाना पड़ता है और यहां......।
अगले दिन सवेरे-सवेरे हम एक बार फिर जंगल में थे। इस बार हमने गाइड बदल लिया था। हालांकि वहां का नियम ये था कि जो गाइड एक बार आपसे जुड़ जाये, आपके वापिस लौटने तक आपने साथ बना रहता है। हम कुछ रोमांच चाहते थे, बेशक दस पचास कदम ही सही, जंगल को पैदल नाप कर वहां की हवा को पूरी तरह से अपने भीतर उतारना चाहते थे। और ये सब हमें हमारा पुराना गाइड करने नहीं दे रहा था। नये गाइड ने हमें भरपूर मौके दिये टहलने के, जंगल के कुछ और सच जानने के और कुछेक जानवरों की तलाश में झाडिय़ों में झांकने के। नये गाइड की जानकारी भी ज्यादा थी।
वापसी यात्रा थोड़ी थकान भरी हो गयी। हम सोच रहे थे कि दो बजे तक रायपुर पहुंच जायेंगे। बेशक नागपुर की गाड़ी शाम 6 बज कर बीस मिनट की थी, लेकिन हम सारी कोशिशों के बावजूद पांच पचास पर ही रायपुर स्टेशन पहुंच पाये।  कुल मिला कर ये दिन खूब थकान दे गया। इतनी थकान की आदत भी नहीं रही है इन दिनों। पहले पांच घंटे जंगल में घूमे, फिर पांच घंटे की रायपुर तक की यात्रा और फिर रायपुर से नागपुर की साढ़े पांच घंटे की ट्रेन यात्रा। बस, एक अच्छी बात ये हुई कि नागपुर में ट्रेन अपने वक्त से कम से कम चालीस मिनट पहले पहुंच गयी।

हम जीती हुई बाजी क्यों हार गए

- डा. परदेशीराम वर्मा
देशभर से कुष्ठ की बिदाई हो रही है मगर हमारा छत्तीसगढ़  देशभर में सर्वाधिक कुष्ठ प्रभावित राज्य के रूप में चिन्हित है। 2005 में देश ने कुष्ठ उन्मूलन का लक्ष्य तकनीकी तौर पर पा लिया। दस हजार की जनसंख्या में एक से कम कुष्ठ रोगी होने की स्थिति बनी इसीलिए राष्ट्र को कुष्ठ मुक्त होने का दर्जा मिला। यह कुष्ठ विरोधी गतिविधियों पर नजर रखने वाले वैश्विक संस्थाओं से प्राप्त सर्टिफिकेट है। उत्र्तीण देश का यह उदास हमारा प्रांत छत्तीसगढ़ इस मामले में अनुत्र्तीण है। छत्तीसगढ़  के अतिरिक्त उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, बंगाल एवं दिल्ली भी कुष्ठ प्रभावित राज्यों में आते हैं मगर छत्तीसगढ़  का नंबर अव्वल है। शराब पीने में अव्वल प्रान्त छत्तीसगढ़  कुष्ठ से संत्रस्त लोगों की दृष्टि से भी अव्वल है।
राज्य में महासमुंद, रायगढ़, कोरबा, रायपुर, बिलासपुर, कवर्धा, जांजगीर और धमतरी सर्वाधिक कुष्ठ प्रभावित जिले हैं। छत्तीसगढ़  में वर्तमान में 2.34 प्रतिशत लोग प्रति दस हजार की जनसंख्या में उपचाररत हैं। कांकेर, कोरिया, जशपुर, दंतेवाड़ा, सरगुजा जिलों में कुष्ठ रोग से मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। दुर्ग और राजनांदगांव जिले में 'डेनलप' के सहयोग से अभूतपूर्व प्रेरक कार्यक्रम हुए। दुर्ग एवं राजनांदगांव में हुए कुष्ठ विरोधी काम की सराहना देशभर में हुई। 150 लोगों की प्रेरणा के लिए साइकिल यात्रा भी यहां निकली। रमेश साहू ने इसका नेतृत्व किया था। अण्डा, अरजुन्दा, डौंडी लोहारा, बालोद, राजहरा, गुरूर, पाटन, कुम्हारी, बेमेतरा, धमधा होते हुए यह प्रेरणा रैली दुर्ग पहुंची थी। लांयस क्लब, मिडटाउन महिला मंडल, जिला साक्षरता समिति से लेकर तमाम  सेवाभावी लोगों ने इस अभियान के लिए काम किया।
इस अभियान में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पंथी नर्तक स्व.देवदास बंजारे ने अपने दल के साथ खूब काम किया था। वे गुरु वंदना का चर्चित गीत आरुगफूल को इसी अभियान के दौरान गाते हुए गांव-गांव पहुंचे। पद्मभूषण तीजनबाई, संगीत नाटक अकादमी से अभी-अभी बिसमिल्ला खां सम्मान प्राप्त रितु वर्मा, स्व. झाडूराम देवांगन, दीपक चंद्राकर, विभाष उपाध्याय, निशा वर्मा एवं प्रख्यात निर्देशक रामहृदय तिवारी ने इस अभियान में खूब काम किया। एक महत्वपूर्ण पुस्तक की निकली 'संवेदना के धरातल'  जिसका विमोचन तत्कालीन महामहिम राज्यपाल ने दुर्ग में किया। अपने सम्मान के अवसर पर तत्कालीन कलेक्टर बसंत प्रताप सिंह ने राष्ट्रपति दिनकर की सटीक काव्य पंक्तियों को प्रस्तुत कर तटस्थ लोगों को आगाह किया ...
'समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध,
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।'
प्रेरणा का व्यापक कार्यक्रम मध्यप्रदेश सरकार की शासकीय मशीनरी ने किया। पता नहीं क्यों छत्तीसगढ़  सरकार इस मामले में उदासीन है। अब डेनमार्क का सहयोग भी नहीं रहा। लेकिन छत्तीसगढ़  में साधन की कमी नहीं है। संकल्प शक्ति की कमी के कारण ही जीती सी बाजी हार में बदल रही है।
आइये, प्रेरणा, प्रचार-प्रसार और जागृति के आशाप्रद दिनों की कुछ यादें इस संदर्भ में ताजी कर लें। जिससे ज्ञात हो कि किस तरह कार्यकर्ताओं ने संवेदना के धरातल को स्पर्श किया। उन्होंने गीत, संगीत, नाटक, लोककथा, पंडवानी, भरथरी, चनैनी, ढोला मारू और नाचा आदि विधाओं को कुष्ठ उन्मूलन से जोड़ा। सर्वाधिक प्रभावी विधा नाटक और नुक्कड़ नाटकों का गांव-गांव, गली-गली उपयोग हुआ।
लगभग पचास नए नाटक दुर्ग जिले में ही लिखे गये। जनहित के किसी अभियान के लिए नाटक लिखने का किसी एक जिले के रचनाकारों के नाम यह रिकार्ड आज भी बरकरार है। नाटक लिखने के पहले लेखकों कुष्ठ रोग के विशेषज्ञ डाक्टरों ने पूरी तरह जानकारी और सूचना से समृद्ध किया। लगातार वर्कशाप हुए तब लेखक भी भ्रांति से मुक्त हुआ और भ्रांतियों के खिलाफ रचनात्मक जेहाद में शामिल हो सका।
भ्रांत धारणाओं के कारण आज से पचीस तीस वर्ष पूर्व कुष्ठ को भगवान दण्ड या ईश्वरीय प्रकोप माना जाता था। पाप से कुष्ठ को जोड़ा जाता था। नाटकों के माध्यम से बताया गया कि कुष्ठ एक कीड़े से या कीट से होता है। जिसका इलाज सम्भव है। इस संदर्भ में रिसाली थियेटर के नाटक कुष्ठ कीट वध का उल्लेख किया जाता है। डीपी देशमुख के निर्देशन में सर्वाधिक प्रदर्शन इस नाटक के हुए। नाटकों में पात्रों के संवादों के माध्यम से कुष्ठ के लक्षणों को बखूबी चर्चा होती। जैसे यही कि नसों में कड़ापन, चपड़ी पर सुन्नता, लाल चकत्ता, चेहरे पर चिकनाहट कुष्ठ के लक्षण हैं। यह बताया जाता। हाथों की ऊंगलियों में पकड़ का कमजोर होना। उंगलियों को मुडऩे-मोडऩे में असुविधा आदि की चर्चा चर्चित नाटक 'मितान' में हुई। इस नाटक को टेलीफिल्म के रूप में इलेक्ट्रानिक माध्यम में भी खूब स्वीकृति मिली। नाटक में महेश वर्मा, आर.डी.राव और शैलजा चंद्राकर ने पात्रों को सजीव किया। हाथ से साबुन के फिसल पडऩे को साबुन की चिकनाहट से जोड़कर बहाना बनाने वाले नायक को नायिका ने बताया कि यह सामान्य रोग है। कुष्ठ में ऐसा होता है। हिम्मत से जांच के बाद खुलकर दवा लेने से रोग पूर्णत: ठीक हो जाता है।
नाटकों के बेहद प्रभावी प्रदर्शनों के कारण ही मेरे गांव लिमतरा का समेलाल भीतर से इतना बलवान हुआ कि तत्कालीन कलेक्टर श्री बसंत प्रताप सिंह के आतिथ्य में आयोजित जनसभा में उसने कहा कि हां मुझे कुष्ठ है और मैं दवा खाता हूं, जिससे मुझे इस रोग से लगभग पूर्णतया मुक्ति मिल गई है। गांव के लोग इस साहसिक वक्तव्य से ठगे से रह गये। कहां तो रोग को लोग छुपाते- दबाते घुट- घुट कर जी रहे थे और कहां समेलाल ने सार्वजनिक मंच से यह बता दिया कि कुष्ठ भी साधारण अन्य रोग की तरह एक बीमारी है। इसका औषधि से पूर्ण इलाज होता है।
भ्रांति और जड़ता अगर किसी रोग के आड़े आता था तो वह था कुष्ठ रोग। अन्य रोगों का रोगी शरीर पर पीड़ा झेलता है। कुष्ठ रोग का रोगी मन पर चोट, तन और मन पर एक प्रहार झेलता है। ऐसे मायावी रोग की जड़ता से नाटकों ने लडऩे का जज्बा पैदा किया। लोग जागे। उन्हें पता चला कि कुष्ठ भी एक सामान्य रोग है। लेकिन धीरे-धीरे परिवर्तन  हुआ और गांव-गांव में निर्धारित तिथि को लोग कुष्ठ की दवा लेने एकत्र होने लगे। दुर्ग जिले की समाज सेविका गनेसिया बाई देशमुख ने अपने ही गांव में कुष्ठ रोगियों के उपचार के लिए कार्यशाला संयोजित किया। लोग खुलकर कार्यशाला में आये। गलित अंगों वाले जीर्ण रोगियों के घावों को अपने हाथों से साफ कर गनेसिया बाई ने बताया कि यह रोग स्पर्श से नहीं फैलता है।
दुर्ग जिला साक्षरता समिति के तत्कालीन सचिव डी.एन.शर्मा द्वारा निर्मित साक्षरता सेना के समर्पित कार्यकर्ता और प्रेरक सेवाभावी व्यक्ति की कुष्ठ उन्मूलन के कार्यक्रम में सहभागी बने। प्रेरणा प्रचार प्रमुख भगवानलाल शर्मा एवं जिला कुष्ठ अधिकारी डा. एस.एल गुप्ता ने समन्वय का काम भी सम्हाला। दुर्ग जिले के एक और अधिकारी श्री बी.एल.तिवारी आज छत्तीसगढ़ में मार्कफेड के संचालक हैं। कवियों, साहित्यकारों और चिंतकों को उन्होंने अपने करिश्माई व्यक्तित्व एवं वक्तव्य से इस अभियान का हिस्सा बनाया।
श्री प्रहलाद सिंह तोमर, श्री पुखराज मारू, बाद में कलेक्टर एवं कुष्ठ साक्षरता समिति के अध्यक्ष बने। एक ठोस बुनियाद श्री विवेक ढांढ के कार्यकाल में ऐसी बनी कि उस पर ही साक्षरता एवं कुष्ठ उन्मूलन का मजबूत ढांचा खड़ा होता चला गया। दुर्ग के तत्कालीन कलेक्टर श्री विवेक ढांढ का वह जुझारू तेवर जिन्होंने देखा है वे जागरण के उन सुनहरे दिनों को याद कर आज आह भरते हैं।
लेकिन इन सबके बाद भी कुष्ठ उन्मूलन का लगभग जीता हुआ युद्ध शीत युद्ध में तब्दील हो गया है। सुरसा के मुंह की तरह ब्याधि का संसार सिमट ही नहीं रहा। जबकि इस रोग की बिदाई भी बड़ी माता आदि की तरह हो जानी थी। कुष्ठ उन्मूलन में लगी फौज के सिपाही अभी भी उसी जोश और जज्बे से लबरेज हैं मगर शासकीय संकल्पों का अभाव और सुविधा की कमी के कारण वे मोर्चा फतह नहीं कर पा रहे।
लोकमंचीय प्रस्तुतियां तथा नाटक जनजागरण तो करते हैं। मगर शासन को जगाने में ये सक्षम नहीं हो पाते। हालांकि वेणु गोपाल ने यह लिखा है ...
 'हिलाने से
बच्चा सोता है,
राजा जागता है।'
स्वयंसेवी संस्थाओं की आकांक्षाओं के अनुरूप कलाकारों के हरावल दस्तों को पुन: मैदान में उतरना होगा। नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। जड़ता से लड़ता लोकमंच
आज भी पूर्णत: कारगर हो सकता है। सिर्फ संकल्पित होने की आवश्यकता है।
  संपर्क : एल.आई.जी 18, आमदी नगर, भिलाई (छ. ग.)

खूबसूरत आँखों वाला मोर

बादलों के गरजने की आवाज सुनकर तो वह पागलों की तरह जोर-जोर से पुकारता है। आसमान पर बादल छाए रहने पर मोर नाचता है। मोर का नाचना बड़ा चित्ताकर्षक होता है। उसकी पूंछ पर नीले-सुनहरे रंग के चंद्राकार निशान होते हैं। नाचते समय परों के मेहराब पर ये निशान बड़े मनमोहक लगते हैं।
- बालसुब्रमण्यम
 लगभग सभी लोगों ने मोर को कभी न कभी देखा होगा। मोर यानी खूबसूरत आंखों वाला सुंदर नीला-हरा भारतीय पक्षी। मोर भारत का मूल निवासी है। भारत ने 1963 में इस आकर्षक पक्षी को राष्ट्रीय पक्षी के रूप में गौरवान्वित किया और उसके शिकार पर रोक लगा दी।
मोर बड़े आकार का पक्षी है। इसलिए वह उड़ता कम है और चलता या दौड़ता अधिक। कुछ-कुछ डरपोक स्वभाव का यह पक्षी सर्वभक्षी है और फल, फूल, अनाज, बीज, घास, पत्ती, कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों को खाता है। वह सांपों का बड़ा दुश्मन है। कहावत भी है कि जहां मोर की आवाज सुनाई पड़ती है, वहां नाग नहीं जाता। किसानों का वह अच्छा मित्र है। मोर आसानी से पालतू बन जाता है।
मोर को गरमी और प्यास बहुत सताती है। इसलिए नदी के किनारे के क्षेत्रों में रहना उसे अच्छा लगता है। बर्फीले स्थानों में रहना उसे पसंद नहीं है। भारत में मोर हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और खासकर चित्रकूट और वृंदावन में पाया जाता है। तमिलनाडु में कार्तिकेय भगवान के मंदिरों में मोर रहते हैं क्योंकि कार्तिकेय भगवान का वह वाहन है। वह संसार के अन्य देशों में भी पाया जाता है जैसे बर्मा, पाकिस्तान, वियतनाम तथा अफ्रीका के अनेक देश। वियतनाम में पाए जाने वाले मोर की गर्दन काली होती है।
भगवान ने मोर को सुंदरता और आकर्षण दिया है लेकिन आवाज में मिठास नहीं रखी। वह सुबह-सुबह बड़ी जोर से अपनी कर्कश आवाज में बोलना शुरू करता है। बादलों के गरजने की आवाज सुनकर तो वह पागलों की तरह जोर-जोर से पुकारता है। आसमान पर बादल छाए रहने पर मोर नाचता है। मोर का नाचना बड़ा चित्ताकर्षक होता है। उसकी पूंछ पर नीले-सुनहरे रंग के चंद्राकार निशान होते हैं। नाचते समय परों के मेहराब पर ये निशान बड़े मनमोहक लगते हैं। प्रकृति ने मोर के पर जितने आकर्षक बनाए हैं, उसके पैर उतने ही बदसूरत। कहा जाता है कि नाचते समय अपना पांव दिख जाने पर मोर नाचना बंद कर देता है। मोर की आंखें तेजस्वी होती हैं। मोर को तैरना नहीं आता।
इतिहास में मोर को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मौर्य वंश का नाम उसी पर पड़ा बताया जाता है। मौर्य सम्राटों की रसोई में रोज दो मोर पकाए जाते थे। इस परंपरा को अहिंसाप्रिय अशोक ने बंद करवा दिया। मौर्यों के सिक्कों पर भी मोर के चिह्न अंकित हैं। विद्यादात्री मां सरस्वती को भी यह पक्षी अति प्रिय है। भगवान कृष्ण के मुकुट पर मोर के पर सदा लगे रहने के कारण उन्हें मोरमुकुटधारी कहा जाता है।
पशु-पक्षियों में मादा की अपेक्षा नर बहुधा अधिक सुंदर होते हैं। मोर के साथ भी यही बात है। आकर्षक रंग, लंबी पूंछ, माथे पर राजमुकुट सी बड़ी कलगी आदि सारी व्यवस्थाएं नरों तक सीमित हैं। मोरनी में सुंदरता के अभाव का एक जबरदस्त प्राकृतिक कारण है। खूबसूरती और आकर्षण के अभाव में वह आसानी से नहीं दिखती है। इस तरह अंडा सेते समय वह दुश्मन की नजर से बची रहती है।
मोर पेड़ों की डालियों पर खड़े-खड़े सोते हैं। मोरनी साल में एक बार जनवरी से अक्टूबर के बीच अंडे देती है। अंडों का रंग सफेद होता है। उनकी संख्या एक बार में चार से आठ तक होती है। अंडा सेने की जिम्मेदारी अकेले मोरनी को पूरी करनी पड़ती है। पालतू मोर के अंडों को सेने का काम मुर्गियों से भी कराया जाता है। बचपन में नर और मादा मोर की अलग-अलग पहचान नहीं हो सकती। एक साल का होने पर नर की पूंछ लंबी होने लगती है। बच्चों के कुछ बड़े होने पर उनके सिर पर कलगी आती है।
मोर का दवा के रूप में भी उपयोग किया जाता है। मोर के मरने के उपरांत मोर तेल तैयार किया जाता है। मोर के परों को जलाकर प्राप्त की गई भस्म को शहद के साथ खाने से खांसी बंद हो जाती है। दुनिया के सुंदर पक्षियों में मोर का अपना एक अलग स्थान है। सुंदरता केवल परों या रंगों की ही नहीं होती। मोर के आचरण और व्यक्तित्व में भी सुंदरता पाई जाती है।

सूचना का अधिकार

- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का हक है कि सरकार अपने अधिकार का किस तरह इस्तेमाल कर रही है जहां अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं होगा वहां लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। लोकतंत्र में सूचना के अधिकार का अपना विशिष्ट महत्व है, क्योंकि इससे सरकार और जनता के बीच सीधा रिश्ता तय होगा इस अधिकार के पास हो जाने से यह भी सुनिश्चित होगा कि जबावदेही किसके प्रति कैसी होनी चाहिये। वास्तव में देखा जाये तो इस कानून से लोकतंत्र की असली पहचान की भूमिका भी तय होगी। हमारे यहां सूचना के अधिकार की लड़ाई जमीनी है। यानी सूचना पाने की जद्दोजहद गरीब लोगों के बीच से निकला हुआ मसला है। वास्तव में देखा जाये तो यह कानून जीने के हक से भी जुड़ा है क्योंकि भ्रष्टाचार ने आम लोगों का हक मार दिया है।
वर्तमान की बात करें तो भारत में नौकरशाही संस्कृति की वजह से गोपनीयता की चादर फैली हुई है। ये कुलीन लोग जनता से दूरी बनाये हुए हैं और एक कृत्रिम आवरण ने सच्चाई पर पर्दा डाल रखा है। सरकारी गोपनीयता कानून 1923 का हवाला देकर अब भी औपनिवेशिक काल के कानून को वैधानिक बनाए रखा गया है और देखा जाए तो यही गोपनीयता कानून सूचना के अधिकार के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा था। (आज के करीब 84 वर्ष पहले 1923 में बना सरकारी गोपनीयता कानून यानी ऑफिसियल सीक्रटस एक्ट की धाराएं पांच और छह) वास्तव में देखा जाए तो इस कानून के बनाने की कहानी अंग्रेजी सरकार ने 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम के बाद से ही शुरू कर दी थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद पहली बार 1889 में यह कानून बना था। बाद में 1904 में इसे और सख्त बना दिया गया। इस कानून की धारा 1.5 और 6 के प्रावधानों का फायदा उठाकर ही अभी तक सरकारी अधिकारी सूचनाओं को गोपनीय बनाये रखते थे परन्तु संसद के दोनों सदनों ने सूचना के अधिकार सम्बन्धी विधेयक (11.12 मई 2005) को धारा 15.और 6 गोपनीयता कानून 1923) संशोधित कर दिया गया है।
 यहां प्रश्न उठते हैं कि इस सूचना के अधिकार से क्या भ्रष्टाचार में अंकुश लग जाएगा? क्या अब निर्वाचित जन प्रतिनिधि की जनता के प्रति जबावदेही बढ़ेगी? क्या सरकारी अधिकारियों की मनमानी
रूकेगी? क्या नीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी और अंतत क्या हमारा लोकतंत्र पहले के मुकाबले ज्यादा पारदर्शी हो सकेगा? निश्चित रूप से यह सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सूचना के अधिकार के साथ कुछ खतरे हो सकते हैं? और सरकार के लिए यह दुधारी तलवार भी है किन्तु सरकार ने इसके दुरूपयोग रोकने के लिए, पुख्ता इंतजाम भी किए हैं। सुरक्षा मामलों की जानकारी और खुफिया एजेंसियों को इसके दायरे से बाहर रखकर एक संतुलन कायम करने की कोशिश की गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना में ताकत होती है और आज लगभग हर स्तर का अधिकारी सूचनाएं छिपाकर मननमानी करता है। गलत तरह से पैसा कमाता है। साथ ही अधिकारों पर कब्जा जमाता है और शक्तियों का दुरूपयोग करता है। अत: सूचना के अधिकार का मुख्य उद्देश्य सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार पर नकेल डालकर कार्य कुशलता को बेहतर करना है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि 'इससे देश में लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी और गवर्नेंस में सुधार आएगा। (संसद में सूचना के अधिकार विधेयक पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के वक्तव्य का मुख्य अंश 11ए 12 मई 2005)12 अक्टूबर सन् 2005 ई. से लागू
 सूचना का अधिकार लगभग बारह वर्षों से आन्दोलन का रूप अख्तियार कर रहा था। यहां इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि सूचना के अधिकार के लिए भारत में जिस तरह से आन्दोलन चलाए गए, वैसा दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में दिखाई नहीं पड़ता। इस आन्दोलन को अरूणा राय और उनके साथियों ने अपने संघर्ष को 'जीने और जानने की जंग' कहा था। (सहारा समय- जानने की जंग का पहला पड़ाव 4 जून 2005 पृ. 22.23)। सूचना के अधिकार के तहत हालांकि दंड का प्रावधान रखा गया है परन्तु इस पर अमल होगा यह सभी कुछ तब तक मात्र एक स्वप्न की तरह है जब तक यह कानून केवल कुछ नियमों उपनियमों के रूप में कुछ पृष्ठों की शक्ल के रूप में ही सीमित रहेगा। यह अधिकार जहां एक ओर नागरिकों और सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करेगा वहीं इस विधेयक में कुछ ऐसे चोर दरवाजे नौकरशाहों और सरकारी अफसरों के बीच पनप सकते हैं जिन्हें स्पष्ट करना कठिन हो सकता है। 'मसलन, विधेयक में ऐसे करीब दर्जनों क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है जिन क्षेत्रों की सूचनाएं कोई नागरिक नहीं मांग सकता। जैसे वे सूचनाएं जिनके सार्वजनिक होने से भारत की प्रभुता, अखण्डता, सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों और विदेशों से सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। अब सवाल उठता है कि इसका निर्धारण कैसे होगा कि अमुख सूचना देश की एकता-अखण्डता..... के लिए गोपनीय रखी जाएगी? स्पष्ट है सरकारी अधिकारी ही इसे निर्धारित करेंगे और एक बार फिर हमारा लोकतंत्र ठगा जायेगा क्योंकि प्रतिबंध क्षेत्र में आने वाली सूची, दूसरे क्षेत्रों न्यायालयीय मामले, संसद और विधान मंडलों के विदेशी अधिकार से जुड़ी चीजें, मंत्रिमंडल की बैठकों के दस्तावेज-जैसे अनेक मुद्दे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएं हर हाल मे गोपनीय रखी जाएगी। बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि सूचनाओं से वंचित रखने वाले अधिकारी के विरूद्ध अपील की प्रक्रिया भी थोड़ी जटिल है निचली से ऊपरी अदालत ने न्याय मांगने के लिए मुकदमों का सिलसिला कहीं ऐसा न कर दे कि व्यक्ति मुकदमों के बोझ से दब जाये और इन मामलों में ही हमारी अदालतें उलझ जाएं।
सबसे महत्वपूर्ण बात आज यह है कि हम 21वीं सदी में प्रवेश कर गये हैं और भूमण्डलीकरण में बाजार एवं पैसा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन कर रहा है और ऐसे में निजी क्षेत्र का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता है। निजी कम्पनियों फर्मों और उद्यमों की भूमिका लगातार बढ़ रही है तब हर क्षेत्र का जबाव देह बनाना और उसमें पारदर्शिता लाने की अहमियत और ज्यादा हो जाती है। शायद यह काम सेबी के नियमों और तमाम कम्पनी कानूनों के जरिये संभव नहीं है। अगर संभव होता है तो आये दिन घोटाले और हवालाकांड न होते। इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि 'हमारे देश में एक छोटी सी जानकारी न देने की लापरवाही के चलते भोपाल गैस त्रासदी हुई थी। अगर एंडरसन की कम्पनी में भोपाल की बस्तियों में रहने वाले लोगों को उस जहरीली गैस से बचने के उपायों की समुचित जानकारी मुहैया करा दी होती तो हजारों लोग मौत के मुंह में जाने से बच गये होते। निजी क्षेत्र को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखना भी सरकार की नीति एवं नियति को स्पष्ट नहीं करता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से सूचना के अधिकार का दावा-
वर्तमान में करीब तीस से अधिक देशों को सूचना का अधिकार प्राप्त है लेकिन सूचना का अधिकार देने वाला पहला देश स्वीडन है। स्वीडन के नागरिकों को यह अधिकार 1766 में मिल गया था। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसकी शुरूआत पहले प्रेस आयोग 1952 से हुई। सरकार ने इस आयोग से कहा कि वह प्रेस की आजादी सम्बन्धी जरूरी प्रावधानों पर सुझाव दे। आयोग ने कहा कि पारदर्शिता जरूरी है न कि सूचना का अधिकार। इसी दौरान सरकारी गोपनीयता कानून 1967 में संशोधत सम्बन्धी प्रस्ताव आये। प्रस्ताव खारिज कर दिया गया और कानून को सख्त बना दिया गया। सत्ता परिवर्तन के बाद जनता पार्टी ने सन् 1977 में अपने घोषणापत्र में सूचना का अधिकार प्रदान करने का वायदा किया वायदे पर अमल करते हुये कैबिनेट सचिव की अगुवाई में एक टास्क फोर्स गठित किया गया। परन्तु इसमें भी कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला। इसी समय दूसरा प्रेस आयोग 1978 में बना। इसकी कुछ सिफारिशें ही बन सकीं जो सरकार को मान्य नहीं हो सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1981- 82 और सन् 1986 ई. में कुछ फैसले सुनाए। इसके तहत आम आदमी को सूचना
का अधिकार दिए जाने की बात कही गई। सन् 1989 ई. में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सूचना का अधिकार कानून बनाने के लिए पहली बार सार्थक प्रयास करने की शुरूआत की। सक्षम अधिकारियों की एक टीम स्कैंडिनेवीयाई देशों में भेजी गयी ताकि वहां मौजूद सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानूनों का गहन अध्ययन दिया जा सके। परन्तु इस यात्रा का भी कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकला। सन् 1990 में न्यायाधीश सरकारिया की अध्यक्षता में 1990 में प्रेस परिषद ने कुछ सिफारिशें की परन्तु सरकार की उदासीनता से इसमें सफलता नहीं मिली। सन् 1996 ई. के लोकसभा के चुनाव में लगभग सभी पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्रों में कानून बनाने का वायदा किया और सन् 1997 ई. में दो विधेयक भी लाये गये। एक विधेयक एच.डी. शौरी का था और दूसरा न्यायाधीश सावंत के नेतृत्व में गठित टास्क फोर्स का, लेकिन दोनों विधेयकों पर गौर नहीं फरमाया गया। इसके बाद देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें आईं। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी बनी। कानून भी पास हुआ लेकिन यूपीए सरकार को उसमें खामियां दिखीं और उसने दोबारा विधेयक का मसौदा तैयार कराया। इस मसौदे का प्रतिफल संसद के दोनों सदनों में करीब 60 वर्ष बाद ही सही हमारी सरकार ने 11-12 मई 2005 को विधेयक पास कराया और 12 अक्टूबर 2005 से यह तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान सहित कई राज्यों में कानून के रूप में कार्य कर रहा है।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और हमारी कोशिश होनी चाहिये कि हम सकारात्मक पहलू की ओर अधिक ध्यान दें। वर्तमान में हर तरफ तकनीक का जोर है। जिस समाज के पास जितनी ज्यादा सूचनायें होंगी, सरकार भी सामुदायिक जरूरतों को लेकर उतनी ही ज्यादा सकारात्मक और स्पष्ट नजरिया रखेगी। निसंदेह सरकारी सूचना राष्ट्रीय स्रोत होती है। कोई सरकार या सरकारी अधिकारी अपने लाभ के लिये सूचनाएं तैयार नहीं करते। सूचनाएं या जानकारियां अधिकारियों के अपने कर्तव्यों के निर्वहन के काम आती हैं। इसी के जरिये संस्थाएं जनता के हित में अपनी सेवाएं देती हैं। इस तरह सरकार और अधिकारीगण जनता की सूचना देने वाले न्यासी होते हैं। संसदीय लोकतंत्र में सूचनाएं सरकार के जरिए संसद और सांसदों के पास पहुंचती हैं। इसके बाद उन्हें जनता तक पहुंचाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों के जरिये सूचनाएं हासिल कर सकती है।  

सूचना के अधिकार की लड़ाई
जन्म मध्य राजस्थान- व्यावर शहर (चांग गेट)
राजनीतिक सभा, आंदोलन, हड़ताल, जलापूर्ति- 13 अक्टूबर 2005 सूचना का अधिकार अधिनियम- सर्वप्रथम मांग व्यावर वासियों ने की। जनप्रतिक्रिया- 'न्यूनतम मजदूरी की मांग' - अप्रैल 1996 में आंदोलन प्रारंभ
स्वशासन की दिशा में पहला कदम -
1996 में स्थानीय स्वशासी निकायों के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराने के लिए पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया जाए। खर्चे सम्बन्धी बिल और शासन के समस्त क्षेत्रों को सूचना का अधिकार देने हेतु अधिनियम की मांग।
क्रियान्वयन
* राजस्थान का कानून पहला कानून दंड का प्रावधान नहीं है।
* दोषी अधिकारियों के खिलाफ लोक सेवा आचरण विनियम के तहत कार्यवाही।
* सूचना के प्रयोक्ता को पारदर्शिता तथा जबावदेही का समान मानक अपनाने के लिए बाध्य करता है। आंदोलन तथा सूचना का अधिकार -महाराष्ट्र में अन्ना हजारे द्वारा राज्य स्तरीय सर्वोत्तम अधिनियम पारित हुआ। 'परिवर्तन' नामक संस्था 'मधु भादुड़ी' ने दिल्ली जलबोर्ड द्वारा संशोधन से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए आवेदन किया है।
सूचना का अधिकार अधिनियम- 2005 न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती -
1991 के बाद चलाए गए आंदोलन 'नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फोर्मेशन' का श्रेय - श्रीमती अरूणाराय।
भ्रष्टाचार निवारण हेतु गठित संस्था 'परिवर्तन' के अध्यक्ष 'अरविंद केजरीवाल' को रेमन मैगसेसे पुरस्कार, 2006 ।

चलें बचपन के गांव में

- भारती परिमल
बचपन की गलियां तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक्त मिलता, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता।
आओ चलें बचपन के गांव में, यादों की छांव में... कलकल करती लहरों से खेलें, कच्ची अमियां और बेर से रिश्ता जोड़े। रेत के घरोंदे बनाकर उसे अपनी कल्पनाओं से सजाएं। कड़ी धूप में फिर चुपके से निकल जाएं घर से बाहर और साथियों के संग लुकाछिपी का खेल खेलें। सावन की पहली फुहार में भीगते हुए माटी की सौंधी महक सांसों में भर लें। ठंड की ठिठुरन, गरमी की चुभन और भादों का भीगापन सब कुछ फिर ले आएं चुराकर और जी लें हर उस बीते पल को, जो केवल हमारी यादों में समाया हुआ है।
वो सुबह-सुबह मंदिर की घंटियों और अजान की आवाज के साथ खुलती नींद और दूसरे ही क्षण ठंडी बयार के संग आता आलस का झोंका, जो गठरी बन बिस्तर में दुबकने को विवश कर देता, वो झोंका अब भी याद आता है। मां की आवाज के साथ.. खिड़की के परदों के सरकने से झांकती सूरज की पहली रश्मियों के साथ.. दरवाजे के नीचे से आते अखबार की सरसराहट के साथ.. चिडिय़ों की चीं चीं के साथ.. दादी के सुरीले भजन के साथ.. दादा के हुक्के की गुडग़ुड़ के साथ.. सजग हुए कानों को दोनों हाथों से दबाए फिर से आंखे नींद से रिश्ता जोड़ लेती थी। आंखों और नींद का यह रिश्ता आज भी भोर की बेला में गहरा हो जाता है। इसी गहराई में डूबने आओ एक बार फिर चलें बचपन के गांव में। बरगद की जटाओं को पकड़े हवाओं से बातें करना.. कच्चे अमरुद के लिए पक्की दोस्ती को कट्टी में बदलना.. टूटी हुई चूडिय़ों को सहेज कर रखना.. बागों में तितलियां और पतंगे पकडऩा.. गुड्डे-गुडिय़ा के ब्याह करवाना.. पल में रूठ कर क्षण में मान जाना.. बारिश की बूंदों को पलकों पे सजाना.. पेड़ों से झांकती धूप को हथेलियों में भरने की ख्वाहिश करना.. बादल के संग उड़कर परियों के देश जाने का मन करना.. तारों में बैठ कर चांद को छूने की चाहत रखना.. बचपन कल्पना के इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से सजा होता है। सारी चिंताओं और प्रश्नों से दूर ये केवल हंसना जानता है, खिलखिलाना जानता है, अठखेलियां करना और झूमना जानता है। तभी तो जीवन की आपाधापी में हारा और थका मन जब-जब उदास होता है, यही कहता है- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.. बीते हुए दिन की कल्पना मात्र से ही आंखों के आगे बचपन के दृश्य सजीव होने लगते हैं। बचपन एक मीठी याद सा हमारे आसपास मंडराने लगता है। एकांत में हमारी आंखों की कोर में आंसू बनकर समा जाता है, तो कभी मुस्कान बन कर होठों पर छा जाता है। कभी ये बचपन चंचलता का लिबास पहने हमें वर्तमान में भी बालक सा चंचल बना देता है, तो कभी सागर की गहराइयों सा गंभीर ये जीवन क्षण भर के लिए इसकी एक बूंद में ही समा जाने को व्याकुल हो जाता है।
एक बार किसी विद्वान से किसी महापुरुष ने पूछा कि यदि तुम्हें ईश्वर वरदान मांगने के लिए कहे, तो तुम क्या मांगोगे? विद्वान ने तपाक से कहा- अपना बचपन।
निश्चित ही ईश्वर सब-कुछ दे सकता है, लेकिन किसी का बचपन नहीं लौटा सकता। सच है, बचपन ऐसी सम्पत्ति है, जो एक बार ही मिलती है, लेकिन इंसान उसे जीवन भर खर्च करता रहता है। बड़ी से बड़ी बातें करते हुए अचानक वह अपने बचपन में लौट जाएगा और यही कहेगा कि हम बचपन में ऐसा करते थे। यहां हम का आशय उसके अहम् से कतई नहीं है, हम का आशय वे और उसके सारे दोस्त, जो हर कौम, हर वर्ग के थे। कोई भेदभाव नहीं था, उनके बीच। सब एक साथ एक होकर रहते और मस्ती करते।
हम सभी का बचपन बिंदास होता है। बचपन की यादें इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़ती, वह कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाए, बचपन सदैव उसके आगे-आगे चलता रहता है। बचपन की शिक्षा भी पूरे जीवन भर साथ रहती है। बचपन का प्यार हो या फिर नफरत, इंसान कभी नहीं भूलता। बचपन की गलियां तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक्त मिलता, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता। बचपन में किसी के द्वारा किया गया अहसान एक न भूलने वाला अध्याय होता है। वक्त आने पर वह उसे चुकाने के लिए तत्पर रहता है। कई शहरों के भूगोल को अच्छी तरह से समझने वाला व्यक्ति उन शहरों में भी अपने बचपन की गलियों को अपने से अलग नहीं कर पाता।
बचपन चाहे सम्पन्नता का हो या विपन्नता का। दोनों ही स्थितियों में वह बराबर साथ रहता है। याद करें कम से कम रुपयों में पिकनिक का मजा और अधिक से अधिक खर्च करने के बाद भी और खर्च करने की चाहत। हर किसी के बचपन में मां, पिता, भाई, बहन, दोस्त एक खलनायक की तरह होतें ही हैं, उस समय उसकी सारी हिदायतें हमें दादागीरी की तरह लगती। उसे अनसुना करना हम अपना कत्र्तव्य समझते। पर उम्र के साथ-साथ वे सारी हिदायतें गीता के किसी श्लोक से कम नहीं होती, जिसका पालन करना हम अपना कत्र्तव्य समझते हैं।
आखिर ऐसा क्या है बचपन में, जो हमें बार-बार अपने पास बुलाता है? बचपन जीवन के वे निष्पाप क्षण होते हैं, जिसमें हमारे संस्कार पलते-बढ़ते हैं। बचपन कच्ची मिट्टी का वह पात्र होता है, जो उस समय अपना आकार ग्रहण करता होता है। बचपन उस इबारत का नाम है, जो उस समय धुंधली होती है, पर समय के साथ-साथ वह साफ होती जाती है।
बचपन के गांव में हमारा लकड़पन, हमारी शरारतें, हमारी उमंगें, हमारा जोश, हमारा उत्साह, हमारी नादानी, हमारी चंचलता, हमारा प्यार सब कुछ रहता है, जो समय के साथ वहीं छूट जाता है, हम चाहकर भी उसे अपने साथ ला नहीं सकते। जहां हमारा बचपन होता है, वहीं हमारी यादों का घरौंदा होता है, यादों के इस छोटे से घरौंदे में हमारा व्यक्तित्व ही समाया हुआ होता है। इसी घरौंदे का एक-एक तिनका जीवन की कठिनाइयों में हमारे सामने होता है। दूसरों के लिए वे भले ही तिनके हों, पर जब हम डूबने लगते हैं, तब यही हमें उबारने का एक माध्यम होते हैं। सच ही कहा गया है जिसने अपना बचपन भुला दिया दुनिया उसे भूल गई। इसीलिए विद्वान कह गए हैं कि यदि आप चाहते हैं कि दुनिया आपको न भूले, तो अपने बचपन को याद रखें, दुनिया अपने आप ही आपको याद रखेगी।

पीपल का पेड़ और मैं

- हरि जोशी 
मैं हूं और मेरे सामने पीपल का पेड़ है,
पतझर कल ही गई है,
एक- एक पत्ता जो सूख चुका था,
उड़ गया हवा में,
 अब निर्वस्त्र रह गया, दुबला, दरिद्र पेड़।

कल जो पत्ता कृशकाय था,
हवा के छोटे- छोटे थपेड़े भी सह न सका,
अन्तत: उखड़ गया जड़ से।

आज से सहस्त्रों पान, स्निग्ध और भोले भाले
नई हवा के प्रवाह में,
सुख ही नहीं देंगे, ये नवजात शिशु समूह
हिल हिल कर नहीं, हाथ हिलाकर,
 वसंत का स्वागत करने वाले हैं।

नवजात पत्तों की शिराओं में भी बहता है धवल दुग्ध,
जो मात्र स्फूर्ति ही नहीं,
जीवन भर, लडऩे की जिजीविषा भी देता है।

जो पत्ता वृद्ध था, कड़ा हुआ, फिर उखड़ा,
आंधी के प्रथम प्रहार ने निर्वासित कर दिया।
वह अपने शिशुपन में, लचीला था,
 हरा भरा उत्साह से भरपूर बहुत।

पत्ता चाहे हरा पीला या सूखा था,
वृक्ष से जब तक जुड़ा था, संरक्षित सुरक्षित था
टूटते ही हो गया अनाथ,
खाने लगा दर दर की ठोकरें।

मुझे ज्ञात है एक वर्ष पूर्व ही
प्रथम जन्मदिन था उसका,
इस वर्ष हो गई उसकी मृत्यु,
एक वर्ष का जीवन पूरा कर,
 छोड़ गया सारा संसार,
आ जाएगा नया पत्ता उसकी जगह,
किन्तु उसका अता पता अब किसी को नहीं।

कैसी भी तुरुप चाल चले,
उसका अवसान होना है,
पत्ते और मनुष्य में उम्र का ही भेद है,
अन्यथा नियति वही,
लाल होना, हरा- भरा होना,
पीला पड़ जाना, फिर उड़ जाना।

पीपल की पूजा होती, क्योंकि वह छांह देता,
फसलों, बच्चों को, सुख देता लहलहाने का।

मनुष्य लहलहाने का नहीं,
 लहूलुहान करने का अनुभव देता,
सिर्फ एक वर्ष नहीं, पूरे सौ वर्ष तक,
हां उसके बाद पत्ता तो उसका भी कटता है।
कौन उसके साथ में भटकता है।
नदी
उसे मात्र नदी न कहो,
वह अलौकिक ही नहीं संपूर्ण साध्वी भी है,
पारदर्शी, अतल गहराई युक्त, उदार हृदय वाली।
निरन्तर प्रवाहमान, उमंग में छलछलाती,
करूणामयी तुरही, सांस्कृतिक दुंदुभि।
गजबदनी प्राणियों के लिए ही नहीं,
चीटियों, भ्रमरों के लिए भी,
आशीर्वाद का स्नेह छलकाती बढ़ती ही जाती वह।
आशा की किरण,और विश्वास की  यह देवी
किनारे पर खड़े शिशु वृक्षों को,
जलपान, पयपान कराती चलती।

भविष्य के छायादार, फलदार वृक्ष यही होंगे,
पूर्णतया आशान्वित रहती
अपने साम्राज्य की सतर्क महारानी,
सबके लिए सिंचन कर, जीवन में हर्ष लाती है।

छाया के तले हरी दूर्वा पर झपकी लें,
पदन्यासी विश्राम करेंं।
तनिक भेदभाव नहीं, धर्म का या पंथ का,
स्नान करें, चाहें स्तुतिगान करें।

स्थायी आमंत्रण, निर्मल स्वच्छ, होने का,
प्रत्येक मां बच्चे का ज्यों  व्यक्तित्व संवारती,
भीतर और बाहर से, निष्कलुष हो जाने का
आज, इसी क्षण उसी सूत्र को बताएगी,
भले वह कल कल कहे।

गंगू बाई हंगल

शास्त्रीय संगीत के एक युग का अंत
गंगूबाई हंगल की गायकी की कई खास बेमिसाल बातों में से एक यह थी कि वे हर राग को धीरे- धीरे खोलती थी... बिल्कुल, जैसे सुबह की हर किरण पर एक-एक पंखूड़ी खुलती हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुप्रसिद्ध गायिका गंगूबाई हंगल का 21 जुलाई 2009 को  97 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया है। उन्होंने 50 साल से अधिक समय तक संगीत की सेवा की और इस दौरान भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई तक पहुंचाया।  गंगूबाई ने अपनी कला के प्रदर्शन की शुरुआत किशोरावस्था में मुंबई में स्थानीय समारोहों और गणेश उत्सवों में गायकी से की थी। शास्त्रीय संगीत को बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले जिनमें पद्म भूषण, तानसेन पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रमुख हैं।
गंगूबाई हंगल का जन्म 5 मार्च, 1913 कर्नाटक के धारवाड़ जिले के शुक्रवारादापेते में देवदासी परंपरा वाले केवट परिवार में हुआ था। उनका संगीतमय जीवन लंबे संघर्ष की कहानी है। गंगूबाई का नाम गंगूबाई की क्यूं पड़ा इसके पीछे भी एक कहानी है। उनका वास्तविक नाम गान्धारी था पर उनके संगीत को जनता के सामने पहुंचाने का जिम्मा जिस कंपनी ने सबसे पहले लिया उसके अधिकारियों का मानना था कि उस ज़माने का श्रोता वर्ग सिर्फ नाचने गाने वाली बाइयों के ही रिकार्ड खरीदता है। इसीलिए उन्होंने गान्धारी हंगल जैसे प्यारे नाम को बदल कर चलताऊ गंगूबाई हंगल कर दिया।
गंगूबाई को बचपन में अक्सर जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ा और उन्होंने जब गायकी शुरू की तब उन्हें उन लोगों ने 'गानेवाली' कह कर पुकारा जो इसे एक अच्छे पेशे के रूप में नहीं देखते थे। अपनी आत्म कथा में वे लिखती हैं कि किस तरह लोग उन्हें गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे ...कैसे उन्होंने जातीय और लिंग बाधाओ को पार किया और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली।
उन्होंने स्वतंत्र भारत में खयाल गायिकी की पहचान बनाने में महती भूमिका निभाई। छोटी कद काठी की गंगूबाई की आवाज इतनी वजनदार और ठहरी हुई थी कि एक- एक स्वर और कान पर हाथ रखकर खींची गई तान आसमान को भेद देते थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत की नब्ज पकड़कर और किराना घराना की विरासत को बरकरार रखते हुए परंपरा की आवाज का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगूबाई हंगल ने लिंग और जातीय बाधाओं को पार कर व भूख से लगातार लड़ाई करते हुए भी उच्च स्तर का संगीत दिया। उनकी आत्मकथा मेरे जीवन का संगीत शीर्षक से प्रकाशित हुई है।
पुरानी पीढ़ी की एक नेतृत्वकर्ता गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परंपरा को बरकरार रखा। उनमें संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस वक्त दिखाई पड़ता था जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थी।
अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे।
गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षा के बारे में एक बार कहा था कि मेरे गुरूजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है, उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो, ताकि श्रोता राग की हर बारीकियों के महत्व को संजीदगी से समझ सके।
गंगूबाई की मां अंबाबाई कर्नाटक संगीत की ख्यातिलब्ध गायिका थीं। इन्होंने प्रारंभ में देसाई कृष्णाचार्य और दत्तोपंत से शास्त्रीय संगीत सीखा, इसके बाद इन्होंने सवाई गंधर्व से शिक्षा ली। संगीत के प्रति गंगूबाई का इतना लगाव था कि कंदगोल स्थित अपने गुरु के घर तक पहुंचने के लिए वह 30 किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से पूरी करती थी और इसके आगे पैदल ही जाती थी। यहां उन्होंने भारत रत्न से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली। किराना घराने की परंपरा को बरकार रखने वाली गंगूबाई इस घराने और इससे जुड़ी शैली की शुद्धता के साथ किसी तरह का समझौता किए जाने के पक्ष में नहीं थी।
गंगूबाई को भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पूरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों की गायकी के लिए सबसे अधिक वाहवाही मिली। उनके निधन के साथ संगीत जगत ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस युग को दूर जाते हुए देखा, जिसने शुद्धता के साथ अपना संबंध बनाया था। यह मान्यता है कि संगीत ईश्वर के साथ अंतरसंवाद है जो हर बाधा को पार कर जाती है।
उन्होंने एक बार कहा था कि मैं रागों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और इसे धीरे- धीरे खोलने की हिमायती हूं ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतजार करे। किराना घराना के ही जाने-माने गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते है, 'मुझे बहुत दुख है कि इतनी महान कलाकार गुजर गईं। वे बहुत पुरानी कलाकार थीं। उनकी गायकी का अंदाज बहुत बेहतरीन था। बहुत अलग.. सबसे खास बात तो ये कि उनके गाने का और प्रस्तुति का तरीका बहुत गंभीर था। गंभीर और मर्दाना आवाज में वो गाती थी। उनको सुनते हुए ऐसा लगता था कि कोई पुरूष गा रहा है। उन्होंने बड़ी तपस्या की और इस मुकाम पर पहुंचीं'। (उदंती फीचर्स)

चंद्रमा में इंसानी फतह के 40 बरस

- रमेश शर्मा
चंद्रमा, जिसको बुढिय़ा के बाले, स्वर्गलोक की सीढ़ी और न जाने किन- किन मिथकों के सहारे परिभाषित किया जाता था, वह अब इंसान के लिए 'चंदा मामा दूर के' नहीं रह गया है। चंद्र अभियान ने लोगों की सोच को परिष्कृत किया, वैज्ञानिक चेतना प्रखर हुई और अब दुनिया मंगल की तरफ बढ़ रही है।
समूची मानव सभ्यता को वैज्ञानिक चेतना के लिए यह सचमुच गौरवमय उपलब्धि है कि हम चांद पर पहुंचने की चालीसवीं वर्षगांठ पूरी कर रहे हैं। 20 जुलाई 1969 को अमरीका के तीन चंद्रयात्री 'अपोलो-1' नामक अंतरिक्षयान में बैठकर चंद्रमा के लिए रवाना हुए थे और कुल 3.88 लाख किलोमीटर का लंबा सफल चार दिनों में तय करके उनका चंद्रयान (ईगल) चंद्रमा में उतरा था।
ईगल के चंद्रतल पर उतरने का टीवी प्रसारण 66 देशों में किया गया था। चंद्रमा की धरती पर पहला कदम रखते हुए चंद्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था- यह इंसान का छोटा सा एक कदम है लेकिन 
समूची मानवजाति के लिए एक बड़ी छलांग है। सचमुच चंद्रमा को फतह करते हुए मानव सभ्यता ने एक बड़ी छलांग लगाकर चंद्रमा से जुड़ी कपोल कल्पनाओं और मिथकों की अनेक सदियों को बदल कर रख दिया था। दुनिया ने देख लिया था कि रात अंधेरे में सिर उठाकर देखने पर जो बड़ा सा दूधिया अंतरिक्ष पिंड नजर आता है वह कोई अजूबा नहीं है बल्कि जैसे हमारी पृथ्वी पर धूल, गड्ढे, पर्वत और लंबे खड्ड हैं वैसे ही चंद्रमा पर भी सब कुछ पृथ्वी सरीखा ही है। सिर्फ एक चीज जो वहां नहीं है वह है पृथ्वी सरीखा वातावरण और सबसे जरुरी ऑक्सीजन जो हमारे लिए प्राणवायु का काम करती है। चंद्रमा का गुरुत्व बल भी पृथ्वी के मुकाबले 1/5 है। अर्थात पृथ्वी की किसी चीज का वजन 50 किलो है तो चंद्रमा पर उसका वजन सिर्फ 10 किलो रह जाएगा। यही वजह है कि वहां के चंद्रयात्रा विचरण करते हुए अपने शरीर पर भारी- भरकम 'स्पेससूट' के बावजूद उड़ते हुए से लगते हैं।
जब 1960 के दशक में रूस और अमरीका के बीत शीतयुद्ध चला और दुनिया भर की बड़ी लड़ाइयां थमी हुई थी तब विज्ञान के जरिये सोच की दिशा बदलने के लिए दोनों मुल्कों ने अंतरिक्ष कार्यक्रम चलाए थे। एक किस्म की होड़ चली थी जिसमें बाजी अमरीका के हाथ लगी थी। तब छह अरब डॉलर खर्च करने चंद्रमा मिशन जारी रखने के लिए तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन को कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी। एक तर्क था कि इस फिजूलखर्ची को रोककर गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम हाथ में लिए जाने चाहिए मगर अमरीकी जनता की भारी रूचि और दुनिया में अपनी नाक सदैव ऊंची रखने की अमरीकी शासकों की सोच के चलते अपोलो मिशन सफलता से पूरे हुए। शुरुआत में ही अपोलो के चंद्रयात्री उड़ान भरते ही काल- कवलित हो गए। मिशन को ग्रहण लगा। जांच में सुधार के लिए 1700 सुझाव आए। इन पर अमल हुआ। विमान का ढांचा बदला गया। मिशन सफल हुआ।
भारत जैसे विकासशील मुल्क भी अब चंद्रमा फतह की दौड़ में शरीक हो चुके हैं। हमारा कोई चंद्रयात्री कभी चंद्रमा के टै्रंक्विलिटी बेस पर जाकर अपने हाथों से हमारा झंडा गाड़ेगा? इस बात पर फिलहाल शुभकामनाएं ही दी जा सकती है। अब यहां भी सवाल उठ रहे हैं कि इतना खर्च करने की 'इसरो' को क्या जरूरत है? ऐसी ही किरकिरी अमरीका के 'नासा' को भी झेलनी पड़ी थी। यह तो दुनिया का दस्तूर है। आविष्कार और निहित स्वार्थों का विरोध सतत साथ चलते है। 1909 में जहां महान अविष्कारक गैलीलियो ने दूरबीन का अविष्कार किया था तब उनको चर्च ने इस 'पाप' के लिए बाकायदा सजा दी थी। कहा गया था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा नहीं करती बल्कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता था। तब गैलीलियो को माफी मांगकर जीवन रक्षा करनी पड़ी थी मगर उनका शोध जारी रहा।
आज दुनिया जानती है कि कौन किसका चक्कर लगाता है। दरअसर रूढि़वाद, पोंगापंडित वाद और दकियानूसी सोच ही विज्ञान के कदमों में रोड़ा अटकाते रहे हैं और चंद्रमा को फतह करने की पहली वर्षगांठ पर यह उपलब्धि ही महत्वपूर्ण है कि चंद्रमा, जिसको बुढिय़ा के बाले, स्वर्गलोक की सीढ़ी और न जाने किन- किन मिथकों के सहारे परिभाषित किया जाता था, वह अब इंसान के लिए 'चंदा मामा दूर के' नहीं रह गया है। चंद्र अभियान ने लोगों की सोच को परिष्कृत किया, वैज्ञानिक चेतना प्रखर हुई और अब दुनिया मंगल की तरफ बढ़ रही है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को लोकर भी वैज्ञानिक नजरिया बहुमान्य हुआ है। विज्ञान के सार्थक इस्तेमाल ने चंद्रमा को हमारे और नजदीक ला दिया है।
Email- sharmarameshcg@gmail.com

भोजली

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा
 - प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला भोजली का त्योहार मित्रता का वह पर्व है जिसे जीवन भर निभाने का संकल्प लिया जाता है। अपनी लहलहाती फसल को देखकर किसान एक ओर जहां प्रकृति के प्रति कृतज्ञयता ज्ञापन करता हैं तो दूसरी ओर गांव की बालाएं इस हरियाली को देखकर गीत गाती हैं, उसकी सेवा करती हैं।
श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान में चारों ओर हरियाली बिखेरने लगती है तब कृषक अपने खेतों में बीज बोने के पश्चात् गांव के चौपाल में आल्हा के गीत गाने में मगन हो जाते हैं। इस समय अनेक लोक पर्वो का आगमन होता है और लोग उसे खुशी- खुशी मनाने में व्यस्त हो जाते हैं। इन्हीं त्योहारों में भोजली भी एक है। कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना करते हुए भोजली त्योहार मनाती हैं। अपने अपने घरों में वे टोकनी में मिट्टी भरकर भोजली उगाती हैं।  जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे खेतों में फसल दिन दूनी रात चौगुनी हो जाये... कहते हुए जैसे वे भविष्यवाणी करती हैं कि इस बार फसल लहलहायेगी। और वे सुरीले स्वर में गा उठती हैं - 
अहो देवी गंगा ! देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा,
हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा।
अर्थात् हमारे प्रदेश में कभी सूखा न पड़े। वे आगे कहती हैं-
आई गईस पूरा, बोहाइ गइस कचरा।
हमरो भोजली दाई के, सोन सोन के अचरा।।
 गंगा माई के आगमन से उनकी भोजली देवी का आंचल स्वर्ण रूपी हो गया। अर्थात् खेत में फसल तैयार हो रही है और धान के खेतों में लहलहाते हुए पीले-पीले बाली आंखों के सामने नाचने लगती है। कृषक बालाएं कल्पना करने लगती हैं-
आई गईस पूरा, बोहाइ गइस मलगी।
हमरो भोजली दाई के सोन सोन के कलगी।।
यहां पर धान के पके हुए गुच्छों से युक्त फसल की तुलना स्वर्ण की कलगी से की गई है। उनकी कल्पना सौष्ठव की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। फसल पकने के बाद क्या होता है देखिये उसकी एक बानगी -
कुटी डारेन धाने, छरी डारेन भूसा।
लइके लइके हवन भोजली झनि होहा गुस्सा।।
अर्थात् खेत से धान लाकर कूट लिए, इससे हरहर चांवल और भूसा अलग अलग कर लिए हैं। चंूकि यह नन्ही-नन्ही बालिकाओं के द्वारा किया गया है, अत: संभव है कुछ भूल हो गई हो? इसलिए नम्रता पूर्वक वे क्षमा मांग रही हैं। 'झनि होहा गुस्सा' (गुस्सा मत होना) और यह भी कि बांस के कोठे में रखा हुआ अनाज कैसा है इसके बारे में वे कहती हैं-
बांसे के टोढ़ी मा धरि पारेन चांउर,
महर महर करे भोजली के राउर।
समस्त फसलों के राजा धान को बालिका ने बांस के कोठे में रख दिया है जिसके कारण उनकी सुंदर महक चारों ओर फैल रही है। छत्तीसगढ़ में कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित होता है अत: यदि फसल अच्छी हो जाये तो वर्ष भर आनंद ही आनंद होगा अन्यथा दुख के सिवाय उनको कुछ नहीं मिलेगा। फिर धान केवल वस्तु मात्र तो नहीं है, वह तो उनके जीवन में देवी के रूप में भी है। इसीलिए तो भोजली देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है -
सोने के कलसा, गंगा जल पानी,
हमरों भोजली दाई के पैया पखारी।
सोने के दिया कपूर के बाती,
हमरो
भोजली दाई
के उतारी 
आरती।।
अर्थात सोने के कलश और गंगा के जल से ही कृषक बाला उनके पांव पखारेंगी। जब जल कलश सोने का है तो आरती उतारने का दीपक भी सोने का होंना चाहिए। कल्पना और भाव की उत्कृष्टता पग पग पर छलछला रही है... देखिये उनका भाव -
जल बिन मछरी, पवन बिन धान,
सेवा बिन भोजली के तरथते प्रान।
जब भोली देवी की सेवा-अर्चना की है तो वरदान भी चाहिये लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने भाई और भतीजों के लिए, देखिये एक बानगी -
गंगा गोसाई गजब झनि करिहा,
भइया अऊ भतीजा ला अमर देके जइहा।
भारतीय संस्कृति का निचोड़ मानों यह कृषक बाला है,    
भाई के प्रति सहज, स्वाभाविक, त्यागमय अनुराग की प्रत्यक्ष मूर्ति! 'देवी गंगा देवी गंगाÓ की टेक मानों वह कल्याणमयी पुकार हो जो जन-जन, ग्राम ग्राम को नित 'लहर तुरंगाÓ से ओतप्रोत कर दे। सब ओर अच्छी वर्षा हो, फसल अच्छी हो और चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली हो...!
छत्तीसगढ़ में भोजली का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन संध्या 4 बजे भोजली लेकर गांव की बालिकाएं गांव के चौपाल में इकट्ठा होती हैं और बाजे गाजे के साथ वे भोजली लेकर जुलूस की शक्ल में पूरे गांव में घूमती हैं।
वे गांव का भ्रमण करते हुए गांव के गौंटिया/ मालगुजार के घर जाते हैं जहां उसकी आरती उतारी जाती है फिर भोजली का जुलूस नदी अथवा तालाब में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। नदी अथवा तालाब के घाट को पानी से भिगोकर धोया जाता है  फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है और तब उसका जल में विसर्जन किया जाता है। इस अवसर पर ग्रामीण बालाएं नये-नये परिधान धारण कर भोजली को हाथ  अथवा सिर में टोकनी में रख कर लाती हैं। वे मधुर कंठ से भोजली गीत गाते हुए आगे बढ़ती हैं। भोजली की बालियों को मंदिरों में चढ़ाया जाता है।
 इस दिन की खास बात यह है कि वे अपनी समवयस्क बालाओं के कान में भोजली की बाली (खोंचकर) लगाकर 'भोजली' अथवा 'गींया' (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा है। जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम वे जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते और उन्हें भोजली अथवा गींया संबोधित करके पुकारते हं। माता-पिता भी उन्हें अपने बच्चों से बढ़कर मानते हैं। उन्हें हर पर्व और त्योहार में आमंत्रित कर सम्मान देते हैं।
मित्रता के इस महत्व के अलावा वे घर और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लेती हैं तथा अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करती हैं। भोजली, छत्तीसगढ़ में मैत्री का ऐसा सुंदर और पारंपरिक त्योहार है, जिसे आज के युवाओं द्वारा मनाए जाने वाले फ्रेंडशिप डे के मुकाबले कई सौ गुना बेहतर कहा जा सकता है। भोजली बदकर की गई दोस्ती मरते दम तक नहीं टूटती जबकि फ्रेंडशिप डे मात्र एक दिन के लिए मौज- मस्ती करने वाली दिखावे की दोस्ती होती है।
संपर्क- प्रो. अश्विनी केशरवानी, राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671(छग)

तीन लघुकथाएँ

1. आधुनिकता
- रचना गौड़ 'भारती'
  गांव में भी अब पढ़ी-लिखी बहुओं का आगमन होने लगा है। गांव के लोग शहरी लोगों से अपने आपको ज्यादा एडवांस यानि आधुनिक समझतें हैं। ऐसे ही किशोरीलाल जी के घर का माहौल था। नौकरी पर आते जाते सारे परिवार के सदस्य उनके आगे पीछे रहते कोई उनके जूते लाता कोई उनका गिलास, कोई दौड़कर गरमागरम चाय की प्याली।
बेटे की शादी के बाद नौकरी करती बहू घर में आई। सास की आशाएं, ननदों की उम्मीदें और पति धर्म का कत्र्तव्य सभी कुछ जुड़ा था उसके साथ। लिहाजा दफ्तर जाने से पूर्व सारे घर का काम करके जाती और लौटकर थकीहारी जैसे ही घर में घुसती उसके कानों में आवाज पड़ती 'आ गई बहू जल्दी करो खाना बनाने का समय होने वाला है।' परम्पराओं के वृक्ष के पत्ते मात्र ही आधुनिकता की हवा हिला पाई है जड़ें तो जहां की तहां ही हैं। 
2. समाज सुधार
शहर का जाना माना रईस था, जो कभी कबाड़ी हुआ करता था। प्रॉपर्टी खरीद फरोख्त ने उसे शायद 
यह ऊंचाई दिखाई थी। शहर के हर कोने में बनी जाने कितनी बिल्डिंग का मालिक। समाज सेवक के रूप में पूजा जाने वाला बशेशर प्रसाद पैसा दानखाते में पानी की तरह बहाता। गरीब अविवाहित लड़कियों के धन देकर विवाह कराता। ताश की महफिलों में उठना बैठना उसकी दिनचर्या में शामिल था। महफिल से तभी उठता जब गड्डियों का भार उसके हाथों में होता। एक हाथ से पैसा लेता दूसरे हाथ से गरीब लड़कियों के परिवारों पर खर्च करता। उसका रवैया सामान्य जन की समझ से बाहर था। एक दिन श्यामा की मां को उसके बारे में पता चला और वो उससे मिलने उसके घर गईं। बशेशर प्रसाद उस समय अपने बैडरूम में था, उसे भी वहीं बुला लिया। श्यामा की मां की नजर दो नवयुवतियों पर पड़ी जो उसके बैड के पास बैठी थीं ये देख उसकी उदारता से वह गद्गद् हो उठीं कि गरीबों का कितना ख्याल रखता है बशेशर प्रसाद। अपने आराम के समय में भी दुखियों का दुख दर्द सुन रहा है। खैर! श्यामा की मां बोलीं-'नमस्ते साहब! मैं एक गरीब दुखिया हूं मेरी जवान व खूबसूरत बेटी हाथ पीले करने लायक हो गई है आप थोड़ी सहायता करते तो हम पर उपकार होता।
बशेशर-'उपकार कैसा? यह तो मेरा धर्म है कल से उसे यहां दो घण्टे के लिए भेज देना। मैं देखूंगा जो बन पड़ेगा करूंगा।
श्यामा की मां घर लौट आयी घर आकर खुशी खुशी श्यामा को अगले दिन बशेशर प्रसाद के घर खुद छोडऩे गई। बशेशर प्रसाद के पी.ए. ने उसका नाम नोटबुक में लिखा और उसे बशेशर के बेडरूम में ले गया। मां देखती रह गई कमरे का दरवाजा बन्द हो गया। बशेशर के समाज सुधार कार्य में एक और पुण्य कार्य जुड़ गया, तो क्या हुआ? शबरी भी तो झूठे बेर राम जी को खिलाती थी।
3. कुर्सी का नशा 
आज रमेश के दिल को गहरी ठेस लगी थी। ऑफिस के जरूरी कागजात की फाइल जिस सेक्शन में पास होनी थी वहां के ऑफिसर वीरेन्द्र राठौड़ ने उसे असंतुष्ट कर देने वाला जवाब दिया। रमेश खिन्न हो, अपने केबिन में बड़बड़ाने लगा-'पता नहीं लोगों को कुर्सी का इतना नशा होता है कि इंसान की परेशानी और जरूरत को भी नहीं समझते। उनके लिए तो साधारण सी बात है, मगर मेरी तो रातों की नींद पर बनी है। खैर! देर- सबेर रमेश का काम हो गया और कुछ समयान्तराल पश्चात् प्रमोशन के बाद वह भी सीनियर ऑफिसर की गिनती में आने लगा।
अचानक फोन बजा-'हैलो! रमेश जी, पहचाना मुझे, आपका पुराना पड़ोसी अंकुर जैन बोल रहा हूं। यार! मेरा काम जल्दी करवा दो, फाइल आपके पास अटकी पड़ी है।'
रमेश ने जवाब दिया-'अरे भई! यहां काम के लिए हर व्यक्ति पहचान लेकर आ जाता है। हमारी परेशानी तो कोई समझता नहीं, सारा दिन लोगों को डील करते-करते दिमाग पक जाता है। आप समय का इंतजार करें अभी मैं व्यस्त हूं। फोन कट गया। माहौल खामोश था। परिस्थितियां वहीं थीं बस कुर्सी के आगे-पीछे के लोग परिवर्तित हो गए थे और कुर्सी का नशा ज्यों का त्यों बरकरार था।

आधार

प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां,  3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।  जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। देखा जाए तो भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं। प्रेमचंद के पात्र सारे के सारे वो हैं जो कुचले, पिसे और दुख का बोझ सहते हुए हैं। 

आधार
- मुंशी प्रेमचन्द
 सारे गांव में मथुरा का सा गठीला जवान न था। कोई बीस बरस की उमर थी। मसें भीग रही थी। गउएं चराता, दूध पीता, कसरत करता, कुश्ती लड़ता था और सारे दिन बांसुरी बजाता हाट में विचरता था। ब्याह हो गया था, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई हल की खेती थी, कई छोटे-बड़े भाई थे। वे सब मिलजुलकर खेती-बारी करते थे। मथुरा पर सारे गांव को गर्व था, जब उसे जांघिये-लंगोटे, नाल या मुग्दर के लिए रूपये-पैसे की जरूरत पड़ती तो तुरन्त दे दिये जाते थे। सारे घर की यही अभिलाषा थी कि मथुरा पहलवान हो जाय और अखाड़े में अपने सवाये को पछाड़े। इस लाड़-प्यार से मथुरा जरा टर्रा हो गया था। गायें किसी के खेत में पड़ी है और आप अखाडें में दंड लगा रहा है। कोई उलाहना देता तो उसकी त्योरियां बदल जाती। गरज कर कहता, जो मन में आये कर लो, मथुरा तो अखाड़ा छोड़कर हांकने न जायेंगे! पर उसका डील-डौल देखकर किसी को उससे उलझने की हिम्मत न पड़ती । लोग गम खा जाते
गर्मियों के दिन थे, ताल-तलैया सूखी पड़ी थी। जोरों की लू चलने लगी थी। गांव में कहीं से एक सांड आ निकला और गउओं के साथ हो लिया। सारे दिन गउओं के साथ रहता, रात को बस्ती में घुस आता और खूंटों से बंधे बैलों को सींगों से मारता। कभी-किसी की गीली दीवार को सींगो से खोद डालता, घर का कूड़ा सींगों से उड़ाता। कई किसानों ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे दिन सींचते-सींचते मरते थे। यह सांड रात को उन हरे-भरे खेतों में पहुंच जाता और खेत का खेत तबाह कर देता। लोग उसे डंडों से मारते, गांव के बाहर भगा आते, लेकिन जरा देर में गायों में पहुंच जाता। किसी की अक्ल काम न करती थी कि इस संकट को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर गांव के बीच में था, इसलिए उसके खेतों को सांड से कोई हानि न पहुंचती थी। गांव में उपद्रव मचा हुआ था और मथुरा को जरा भी चिन्ता न थी।
आखिर जब धैर्य का अंतिम बंधन टूट गया तो एक दिन लोगों ने जाकर मथुरा को घेरा और बोले—भाई, कहो तो गांव में रहें, कहो तो निकल जाएं। जब खेती ही न बचेगी तो रहकर क्या करेगें? तुम्हारी गायों के पीछे हमारा सत्यानाश हुआ जाता है, और तुम अपने रंग में मस्त हो। अगर भगवान ने तुम्हें बल दिया है तो इससे दूसरों की रक्षा करनी चाहिए, यह नहीं कि सबको पीस कर पी जाओ। सांड तुम्हारी गायों के कारण आता है और उसे भगाना तुम्हारा काम है, लेकिन तुम कानों में तेल डाले बैठे हो, मानो तुमसे कुछ मतलब ही नहीं।
मथुरा को उनकी दशा पर दया आयी। बलवान मनुष्य प्राय: दयालु होता है। बोला—
अच्छा जाओ, हम आज सांड को भगा देंगे।
एक आदमी ने कहा—दूर तक भगाना, नहीं तो फिर लौट आयेगा।
मथुरा ने कंधे पर लाठी रखते हुए उत्तर दिया— अब लौटकर न आयेगा।
चिलचिलाती दोपहरी थी। मथुरा सांड को भगाये लिए जाता था। दोंनों पसीने से तर थे। सांड बार-बार गांव की ओर घूमने की चेष्टा करता, लेकिन मथुरा उसका इरादा ताड़कर दूर ही से उसकी राह छेंक लेता। सांड क्रोध से उन्मत्त होकर कभी-कभी पीछे मुड़कर मथुरा पर तोड़ करना चाहता लेकिन उस समय मथुरा सामना बचाकर बगल से ताबड़-तोड़ इतनी लाठियां जमाता कि सांड को फिर भागना पड़ता कभी दोनों अरहर के खेतो में दौड़ते, कभी झाडिय़ों में । अरहर की खूटियों से मथुरा के पांव लहू-लुहान हो रहे थे, झाडिय़ों में धोती फट गई थी, पर उसे इस समय सांड का पीछा करने के सिवा और कोई सुध न थी। गांव पर गांव आते थे और निकल जाते थे। मथुरा ने निश्चय कर लिया कि इसे नदी पार भगाये बिना दम न लूंगा। उसका कंठ सूख गया था और आंखें लाल हो गयी थी, रोम-रोम से चिनगारियां सी निकल रही थी, दम उखड़ गया था, लेकिन वह एक क्षण के लिए भी दम न लेता था। दो ढाई घंटों के बाद जाकर नदी आयी। यहीं हार-जीत का फैसला होने वाला था, यहीं से दोनों खिलाडिय़ों को अपने दांव-पेंच के जौहर दिखाने थे। सांड सोचता था, अगर नदी में उतर गया तो यह मार ही डालेगा, एक बार जान लड़ा कर लौटने की कोशिश करनी चाहिए। मथुरा सोचता था, अगर वह लौट पड़ा तो इतनी मेहनत व्यर्थ हो जाएगी और गांव के लोग मेरी हंसी उड़ायेगें। दोनों अपने-अपने घात में थे। सांड ने बहुत चाहा कि तेज दौड़कर आगे निकल जाऊं और वहां से पीछे को फिरूं, पर मथुरा ने उसे मुडऩे का मौका न दिया। उसकी जान इस वक्त सुई की नोक पर थी, एक हाथ भी चूका और प्राण भी गए, जरा पैर फिसला और फिर उठना नसीब न होगा। आखिर मनुष्य ने पशु पर विजय पायी और सांड को नदी में घुसने के सिवाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे नदी में पैठ गया और इतने डंडे लगाये कि उसकी लाठी टूट गयी।
अब मथुरा को जोरो से प्यास लगी। उसने नदी में मुंह लगा दिया और इस तरह हौंक-हौंक कर पीने लगा मानों सारी नदी पी जाएगा। उसे अपने जीवन में कभी पानी इतना अच्छा न लगा था और न कभी उसने इतना पानी पीया था। मालूम नहीं, पांच सेर पी गया या दस सेर लेकिन पानी गरम था, प्यास न बुझी, जरा देर में फिर नदी में मुंह लगा दिया और इतना पानी पीया कि पेट में सांस लेने की जगह भी न रही। तब गीली धोती कंधे पर डालकर घर की ओर चल दिया।
लेकिन दस की पांच पग चला होगा कि पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। उसने सोचा, दौड़ कर पानी पीने से ऐसा दर्द अक्सर हो जाता है, जरा देर में दूर हो जाएगा। लेकिन दर्द बढऩे लगा और मथुरा का आगे जाना कठिन हो गया। वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया और दर्द से बैचेन होकर जमीन पर लोटने लगा। कभी पेट को दबाता, कभी खड़ा हो जाता कभी बैठ जाता, पर दर्द बढ़ता ही जाता था। अन्त में उसने जोर-जोर से कराहना और रोना शुरू किया, पर वहां कौन बैठा था जो, उसकी खबर लेता। दूर तक कोई गांव नहीं, न आदमी न आदमजात। बेचारा दोपहरी के सन्नाटे में तड़प-तड़प कर मर गया। हम कड़े से कड़ा घाव सह सकते है लेकिन जरा सा-भी व्यतिक्रम नहीं सह सकते। वही देव का सा जवान जो कोसो तक सांड को भगाता चला आया था, तत्वों के विरोध का एक वार भी न सह सका। कौन जानता था कि यह दौड़ उसके लिए मौत की दौड़ होगी! कौन जानता था कि मौत ही सांड का रूप धरकर उसे यों नचा रही है। कौन जानता था कि जल जिसके बिना उसके प्राण ओठों पर आ रहे थे, उसके लिए विष का काम करेगा।
संध्या समय उसके घरवाले उसे ढूंढते हुए आये। देखा तो वह अनंत विश्राम में मग्न था।
एक महीना गुजर गया। गांव वाले अपने काम-धंधे में लगे। घरवालों ने रो-धो कर सब्र किया; पर अभागिनी विधवा के आंसू कैसे पुंछते। वह हरदम रोती रहती। आंखे चाहे बन्द भी हो जाती, पर हृदय नित्य रोता रहता था। इस घर में अब कैसे निर्वाह होगा? किस आधार पर जिऊंगी? अपने लिए जीना या तो महात्माओं को आता है या लम्पटों ही को। अनूपा को यह कला क्या मालूम? उसके लिए तो जीवन का एक आधार चाहिए था, जिसे वह अपना सर्वस्व समझे, जिसके लिए वह जिये, जिस पर वह घमंड करे। घरवालों को यह गवारा न था कि वह कोई दूसरा घर करे। इसमें बदनामी थी। इसके सिवाय ऐसी सुशील, घर के कामों में कुशल, लेन-देन के मामलो में इतनी चतुर और रंग रूप की ऐसी सराहनीय स्त्री का किसी दूसरे के घर पड़ जाना ही उन्हें असह्य था। उधर अनूपा के मैकेवाले एक जगह बातचीत पक्की कर रहे थे। जब सब बातें तय हो गयी, तो एक दिन अनूपा का भाई उसे विदा कराने आ पहुंचा ।
अब तो घर में खलबली मची। इधर कहा गया, हम विदा न करेंगे। भाई ने कहा, हम बिना विदा कराये मानेंगे नहीं। गांव के आदमी जमा हो गये, पंचायत होने लगी। यह निश्चय हुआ कि अनूपा पर छोड़ दिया जाय, जी चाहे रहे। यहां वालो को विश्वास था कि अनूपा इतनी जल्द दूसरा घर करने को राजी न होगी, दो-चार बार ऐसा कह भी चुकी थी। लेकिन उस वक्त जो पूछा गया तो वह जाने को तैयार थी। आखिर उसकी विदाई का सामान होने लगा। डोली आ गई। गांव-भर की स्त्रिया उसे देखने आयीं। अनूपा उठ कर अपनी सांस के पैरो में गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली—अम्मा, कहा-सुना माफ करना। जी में तो था कि इसी घर में पड़ी रहूं, पर भगवान को मंजूर नहीं है।
यह कहते- कहते उसकी जबान बन्द हो गई।
सास करूणा से विहृवल हो उठी। बोली—बेटी, जहां जाओ वहां सुखी रहो। हमारे भाग्य ही फूट गये नहीं तो क्यों तुम्हें इस घर से जाना पड़ता। भगवान का दिया और सब कुछ है, पर उन्होंने जो नहीं दिया उसमें अपना क्या बस, बस आज तुम्हारा देवर सयाना होता तो बिगड़ी बात बन जाती। तुम्हारे मन में बैठे तो इसी को अपना समझो, पालो-पोसो बड़ा हो जायेगा तो सगाई कर दूंगी।
यह कहकर उसने अपने सबसे छोटे लड़के वासुदेव से पूछा—क्यों रे! भौजाई से शादी करेगा?
वासुदेव की उम्र पांच साल से अधिक न थी। अबकी उसका ब्याह होने वाला था। बातचीत हो चुकी थी। बोला— तब तो दूसरे के घर न जायगी न?
मां— नहीं, जब तेरे साथ ब्याह हो जायगी तो क्यों जायगी?
वासुदेव- तब मैं करूंगा।
मां—अच्छा,उससे पूछ, तुझसे ब्याह करेगी।
वासुदेव अनूप की गोद में जा बैठा और शरमाता हुआ बोला— हम से ब्याह करोगी?
यह कह कर वह हंसने लगा, लेकिन अनूप की आंखें डबडबा गयीं, वासुदेव को छाती से लगाते हुए बोली.. अम्मा, दिल से कहती हो?
सास— भगवान जानते हैं!
अनूपा— आज यह मेरे हो गये?
सास— हां सारा गांव देख रहा है ।
अनूपा— तो भैया से कहला भेजो, घर जायें, मैं उनके साथ न जाऊंगी।
अनूपा को जीवन के लिए आधार की जरूरत थी। वह आधार मिल गया। सेवा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। सेवा ही उसके जीवन का आधार है।
अनूपा ने वासुदेव का लालन-पोषण शुरू किया। उबटन और तेल लगाती, दूध-रोटी मल-मल के खिलाती। आप तालाब नहाने जाती तो उसे भी नहलाती। खेत में जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थोड़े ही दिनों में उससे हिल-मिल गया कि एक क्षण भी उसे न छोड़ता। मां को भूल गया। कुछ खाने को जी चाहता तो अनूपा से मांगता, खेल में मार खाता तो रोता हुआ अनूपा के पास आता। अनूपा ही उसे सुलाती, अनूपा ही जगाती, बीमार हो तो अनूपा ही गोद में लेकर बदलू वैध के घर जाती, और दवायें पिलाती।
गांव के स्त्री-पुरूष उसकी यह प्रेम तपस्या देखते और दांतों उंगली दबाते। पहले बिरले ही किसी को उस पर विश्वास था। लोग समझते थे, साल-दो-साल में इसका जी ऊब जाएगा और किसी तरफ का रास्ता लेगी, इस दुधमुंहे बालक के नाम कब तक बैठी रहेगी, लेकिन यह सारी आशंकाएं निमूर्ल निकली। अनूपा को किसी ने अपने व्रत से विचलित होते न देखा। जिस हृदय में सेवा का स्रोत बह रहा हो— स्वाधीन सेवा का— उसमें वासनाओं के लिए कहां स्थान? वासना का वार निर्मम, आशाहीन, आधारहीन प्राणियों पर ही होता है चोर की अंधेरे में ही चलती है, उजाले में नहीं।
वासुदेव को भी कसरत का शौक था। उसकी शक्ल सूरत मथुरा से मिलती-जुलती थी, डील-डौल भी वैसा ही था। उसने फिर अखाड़ा जगाया। और उसकी बांसुरी की तानें फिर खेतों में गूंजने लगीं।
इस भांति 13 बरस गुजर गये। वासुदेव और अनूपा में सगाई की तैयारी होने लगी।
लेकिन अब अनूपा वह अनूपा न थी, जिसने 14 वर्ष पहले वासुदेव को पति भाव से देखा था, अब उस भाव का स्थान मातृभाव ने लिया था। इधर कुछ दिनों से वह एक गहरे सोच में डूबी रहती थी। सगाई के दिन ज्यों- ज्यों निकट आते थे, उसका दिल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बड़े परिवर्तन की कल्पना ही से उसका कलेजा दहक उठता था। जिसे बालक की भांति पाला- पोसा, उसे पति बनाते हुए, लज्जा से उसका मुख लाल हो जाता था।
द्वार पर नगाड़ा बज रहा था। बिरादरी के लोग जमा थे। घर में गाना हो रहा था! आज सगाई की तिथि थी।
सहसा अनूपा ने जा कर सास से कहा— अम्मां मैं तो लाज के मारे मरी जा रही हूं।
सास ने भौंचक्की हो कर पूछा—क्यों बेटी, क्या है ?
अनूपा— मैं सगाई न करूंगी।
सास— कैसी बात करती है बेटी ? सारी तैयारी हो गयी। लोग सुनेंगे तो क्या कहेगें ?
अनूपा— जो चाहे कहें, जिनके नाम पर 14 वर्ष बैठी रही उसी के नाम पर अब भी बैठी रहूंगी। मैंने समझा था मरद के बिना औरत से रहा न जाता होगा। मेरी तो भगवान ने इज्जत आबरू निबाह दी। जब नयी उम्र के दिन कट गये तो अब कौन चिन्ता है! वासुदेव की सगाई कोई लड़की खोजकर कर दो। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब उसके बाल-बच्चों को पालूंगी।