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Aug 20, 2009

चंद्रमा में इंसानी फतह के 40 बरस

- रमेश शर्मा
चंद्रमा, जिसको बुढिय़ा के बाले, स्वर्गलोक की सीढ़ी और न जाने किन- किन मिथकों के सहारे परिभाषित किया जाता था, वह अब इंसान के लिए 'चंदा मामा दूर के' नहीं रह गया है। चंद्र अभियान ने लोगों की सोच को परिष्कृत किया, वैज्ञानिक चेतना प्रखर हुई और अब दुनिया मंगल की तरफ बढ़ रही है।
समूची मानव सभ्यता को वैज्ञानिक चेतना के लिए यह सचमुच गौरवमय उपलब्धि है कि हम चांद पर पहुंचने की चालीसवीं वर्षगांठ पूरी कर रहे हैं। 20 जुलाई 1969 को अमरीका के तीन चंद्रयात्री 'अपोलो-1' नामक अंतरिक्षयान में बैठकर चंद्रमा के लिए रवाना हुए थे और कुल 3.88 लाख किलोमीटर का लंबा सफल चार दिनों में तय करके उनका चंद्रयान (ईगल) चंद्रमा में उतरा था।
ईगल के चंद्रतल पर उतरने का टीवी प्रसारण 66 देशों में किया गया था। चंद्रमा की धरती पर पहला कदम रखते हुए चंद्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग ने कहा था- यह इंसान का छोटा सा एक कदम है लेकिन 
समूची मानवजाति के लिए एक बड़ी छलांग है। सचमुच चंद्रमा को फतह करते हुए मानव सभ्यता ने एक बड़ी छलांग लगाकर चंद्रमा से जुड़ी कपोल कल्पनाओं और मिथकों की अनेक सदियों को बदल कर रख दिया था। दुनिया ने देख लिया था कि रात अंधेरे में सिर उठाकर देखने पर जो बड़ा सा दूधिया अंतरिक्ष पिंड नजर आता है वह कोई अजूबा नहीं है बल्कि जैसे हमारी पृथ्वी पर धूल, गड्ढे, पर्वत और लंबे खड्ड हैं वैसे ही चंद्रमा पर भी सब कुछ पृथ्वी सरीखा ही है। सिर्फ एक चीज जो वहां नहीं है वह है पृथ्वी सरीखा वातावरण और सबसे जरुरी ऑक्सीजन जो हमारे लिए प्राणवायु का काम करती है। चंद्रमा का गुरुत्व बल भी पृथ्वी के मुकाबले 1/5 है। अर्थात पृथ्वी की किसी चीज का वजन 50 किलो है तो चंद्रमा पर उसका वजन सिर्फ 10 किलो रह जाएगा। यही वजह है कि वहां के चंद्रयात्रा विचरण करते हुए अपने शरीर पर भारी- भरकम 'स्पेससूट' के बावजूद उड़ते हुए से लगते हैं।
जब 1960 के दशक में रूस और अमरीका के बीत शीतयुद्ध चला और दुनिया भर की बड़ी लड़ाइयां थमी हुई थी तब विज्ञान के जरिये सोच की दिशा बदलने के लिए दोनों मुल्कों ने अंतरिक्ष कार्यक्रम चलाए थे। एक किस्म की होड़ चली थी जिसमें बाजी अमरीका के हाथ लगी थी। तब छह अरब डॉलर खर्च करने चंद्रमा मिशन जारी रखने के लिए तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन को कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी। एक तर्क था कि इस फिजूलखर्ची को रोककर गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम हाथ में लिए जाने चाहिए मगर अमरीकी जनता की भारी रूचि और दुनिया में अपनी नाक सदैव ऊंची रखने की अमरीकी शासकों की सोच के चलते अपोलो मिशन सफलता से पूरे हुए। शुरुआत में ही अपोलो के चंद्रयात्री उड़ान भरते ही काल- कवलित हो गए। मिशन को ग्रहण लगा। जांच में सुधार के लिए 1700 सुझाव आए। इन पर अमल हुआ। विमान का ढांचा बदला गया। मिशन सफल हुआ।
भारत जैसे विकासशील मुल्क भी अब चंद्रमा फतह की दौड़ में शरीक हो चुके हैं। हमारा कोई चंद्रयात्री कभी चंद्रमा के टै्रंक्विलिटी बेस पर जाकर अपने हाथों से हमारा झंडा गाड़ेगा? इस बात पर फिलहाल शुभकामनाएं ही दी जा सकती है। अब यहां भी सवाल उठ रहे हैं कि इतना खर्च करने की 'इसरो' को क्या जरूरत है? ऐसी ही किरकिरी अमरीका के 'नासा' को भी झेलनी पड़ी थी। यह तो दुनिया का दस्तूर है। आविष्कार और निहित स्वार्थों का विरोध सतत साथ चलते है। 1909 में जहां महान अविष्कारक गैलीलियो ने दूरबीन का अविष्कार किया था तब उनको चर्च ने इस 'पाप' के लिए बाकायदा सजा दी थी। कहा गया था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा नहीं करती बल्कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता था। तब गैलीलियो को माफी मांगकर जीवन रक्षा करनी पड़ी थी मगर उनका शोध जारी रहा।
आज दुनिया जानती है कि कौन किसका चक्कर लगाता है। दरअसर रूढि़वाद, पोंगापंडित वाद और दकियानूसी सोच ही विज्ञान के कदमों में रोड़ा अटकाते रहे हैं और चंद्रमा को फतह करने की पहली वर्षगांठ पर यह उपलब्धि ही महत्वपूर्ण है कि चंद्रमा, जिसको बुढिय़ा के बाले, स्वर्गलोक की सीढ़ी और न जाने किन- किन मिथकों के सहारे परिभाषित किया जाता था, वह अब इंसान के लिए 'चंदा मामा दूर के' नहीं रह गया है। चंद्र अभियान ने लोगों की सोच को परिष्कृत किया, वैज्ञानिक चेतना प्रखर हुई और अब दुनिया मंगल की तरफ बढ़ रही है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को लोकर भी वैज्ञानिक नजरिया बहुमान्य हुआ है। विज्ञान के सार्थक इस्तेमाल ने चंद्रमा को हमारे और नजदीक ला दिया है।
Email- sharmarameshcg@gmail.com

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