शास्त्रीय संगीत के एक युग का अंत
गंगूबाई हंगल की गायकी की कई खास बेमिसाल बातों में से एक यह थी कि वे हर राग को धीरे- धीरे खोलती थी... बिल्कुल, जैसे सुबह की हर किरण पर एक-एक पंखूड़ी खुलती हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुप्रसिद्ध गायिका गंगूबाई हंगल का 21 जुलाई 2009 को 97 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया है। उन्होंने 50 साल से अधिक समय तक संगीत की सेवा की और इस दौरान भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई तक पहुंचाया। गंगूबाई ने अपनी कला के प्रदर्शन की शुरुआत किशोरावस्था में मुंबई में स्थानीय समारोहों और गणेश उत्सवों में गायकी से की थी। शास्त्रीय संगीत को बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले जिनमें पद्म भूषण, तानसेन पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रमुख हैं।
गंगूबाई हंगल का जन्म 5 मार्च, 1913 कर्नाटक के धारवाड़ जिले के शुक्रवारादापेते में देवदासी परंपरा वाले केवट परिवार में हुआ था। उनका संगीतमय जीवन लंबे संघर्ष की कहानी है। गंगूबाई का नाम गंगूबाई की क्यूं पड़ा इसके पीछे भी एक कहानी है। उनका वास्तविक नाम गान्धारी था पर उनके संगीत को जनता के सामने पहुंचाने का जिम्मा जिस कंपनी ने सबसे पहले लिया उसके अधिकारियों का मानना था कि उस ज़माने का श्रोता वर्ग सिर्फ नाचने गाने वाली बाइयों के ही रिकार्ड खरीदता है। इसीलिए उन्होंने गान्धारी हंगल जैसे प्यारे नाम को बदल कर चलताऊ गंगूबाई हंगल कर दिया।
गंगूबाई को बचपन में अक्सर जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ा और उन्होंने जब गायकी शुरू की तब उन्हें उन लोगों ने 'गानेवाली' कह कर पुकारा जो इसे एक अच्छे पेशे के रूप में नहीं देखते थे। अपनी आत्म कथा में वे लिखती हैं कि किस तरह लोग उन्हें गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे ...कैसे उन्होंने जातीय और लिंग बाधाओ को पार किया और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली।
गंगूबाई हंगल की गायकी की कई खास बेमिसाल बातों में से एक यह थी कि वे हर राग को धीरे- धीरे खोलती थी... बिल्कुल, जैसे सुबह की हर किरण पर एक-एक पंखूड़ी खुलती हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुप्रसिद्ध गायिका गंगूबाई हंगल का 21 जुलाई 2009 को 97 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया है। उन्होंने 50 साल से अधिक समय तक संगीत की सेवा की और इस दौरान भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई तक पहुंचाया। गंगूबाई ने अपनी कला के प्रदर्शन की शुरुआत किशोरावस्था में मुंबई में स्थानीय समारोहों और गणेश उत्सवों में गायकी से की थी। शास्त्रीय संगीत को बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले जिनमें पद्म भूषण, तानसेन पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रमुख हैं।
गंगूबाई हंगल का जन्म 5 मार्च, 1913 कर्नाटक के धारवाड़ जिले के शुक्रवारादापेते में देवदासी परंपरा वाले केवट परिवार में हुआ था। उनका संगीतमय जीवन लंबे संघर्ष की कहानी है। गंगूबाई का नाम गंगूबाई की क्यूं पड़ा इसके पीछे भी एक कहानी है। उनका वास्तविक नाम गान्धारी था पर उनके संगीत को जनता के सामने पहुंचाने का जिम्मा जिस कंपनी ने सबसे पहले लिया उसके अधिकारियों का मानना था कि उस ज़माने का श्रोता वर्ग सिर्फ नाचने गाने वाली बाइयों के ही रिकार्ड खरीदता है। इसीलिए उन्होंने गान्धारी हंगल जैसे प्यारे नाम को बदल कर चलताऊ गंगूबाई हंगल कर दिया।
गंगूबाई को बचपन में अक्सर जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ा और उन्होंने जब गायकी शुरू की तब उन्हें उन लोगों ने 'गानेवाली' कह कर पुकारा जो इसे एक अच्छे पेशे के रूप में नहीं देखते थे। अपनी आत्म कथा में वे लिखती हैं कि किस तरह लोग उन्हें गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे ...कैसे उन्होंने जातीय और लिंग बाधाओ को पार किया और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली।
उन्होंने स्वतंत्र भारत में खयाल गायिकी की पहचान बनाने में महती भूमिका निभाई। छोटी कद काठी की गंगूबाई की आवाज इतनी वजनदार और ठहरी हुई थी कि एक- एक स्वर और कान पर हाथ रखकर खींची गई तान आसमान को भेद देते थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत की नब्ज पकड़कर और किराना घराना की विरासत को बरकरार रखते हुए परंपरा की आवाज का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगूबाई हंगल ने लिंग और जातीय बाधाओं को पार कर व भूख से लगातार लड़ाई करते हुए भी उच्च स्तर का संगीत दिया। उनकी आत्मकथा मेरे जीवन का संगीत शीर्षक से प्रकाशित हुई है।
पुरानी पीढ़ी की एक नेतृत्वकर्ता गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परंपरा को बरकरार रखा। उनमें संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस वक्त दिखाई पड़ता था जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थी।
अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे।
गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षा के बारे में एक बार कहा था कि मेरे गुरूजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है, उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो, ताकि श्रोता राग की हर बारीकियों के महत्व को संजीदगी से समझ सके।
पुरानी पीढ़ी की एक नेतृत्वकर्ता गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परंपरा को बरकरार रखा। उनमें संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस वक्त दिखाई पड़ता था जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थी।
अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे।
गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षा के बारे में एक बार कहा था कि मेरे गुरूजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है, उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो, ताकि श्रोता राग की हर बारीकियों के महत्व को संजीदगी से समझ सके।
गंगूबाई की मां अंबाबाई कर्नाटक संगीत की ख्यातिलब्ध गायिका थीं। इन्होंने प्रारंभ में देसाई कृष्णाचार्य और दत्तोपंत से शास्त्रीय संगीत सीखा, इसके बाद इन्होंने सवाई गंधर्व से शिक्षा ली। संगीत के प्रति गंगूबाई का इतना लगाव था कि कंदगोल स्थित अपने गुरु के घर तक पहुंचने के लिए वह 30 किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से पूरी करती थी और इसके आगे पैदल ही जाती थी। यहां उन्होंने भारत रत्न से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली। किराना घराने की परंपरा को बरकार रखने वाली गंगूबाई इस घराने और इससे जुड़ी शैली की शुद्धता के साथ किसी तरह का समझौता किए जाने के पक्ष में नहीं थी।
गंगूबाई को भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पूरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों की गायकी के लिए सबसे अधिक वाहवाही मिली। उनके निधन के साथ संगीत जगत ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस युग को दूर जाते हुए देखा, जिसने शुद्धता के साथ अपना संबंध बनाया था। यह मान्यता है कि संगीत ईश्वर के साथ अंतरसंवाद है जो हर बाधा को पार कर जाती है।
उन्होंने एक बार कहा था कि मैं रागों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और इसे धीरे- धीरे खोलने की हिमायती हूं ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतजार करे। किराना घराना के ही जाने-माने गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते है, 'मुझे बहुत दुख है कि इतनी महान कलाकार गुजर गईं। वे बहुत पुरानी कलाकार थीं। उनकी गायकी का अंदाज बहुत बेहतरीन था। बहुत अलग.. सबसे खास बात तो ये कि उनके गाने का और प्रस्तुति का तरीका बहुत गंभीर था। गंभीर और मर्दाना आवाज में वो गाती थी। उनको सुनते हुए ऐसा लगता था कि कोई पुरूष गा रहा है। उन्होंने बड़ी तपस्या की और इस मुकाम पर पहुंचीं'। (उदंती फीचर्स)
गंगूबाई को भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पूरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों की गायकी के लिए सबसे अधिक वाहवाही मिली। उनके निधन के साथ संगीत जगत ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस युग को दूर जाते हुए देखा, जिसने शुद्धता के साथ अपना संबंध बनाया था। यह मान्यता है कि संगीत ईश्वर के साथ अंतरसंवाद है जो हर बाधा को पार कर जाती है।
उन्होंने एक बार कहा था कि मैं रागों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और इसे धीरे- धीरे खोलने की हिमायती हूं ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतजार करे। किराना घराना के ही जाने-माने गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते है, 'मुझे बहुत दुख है कि इतनी महान कलाकार गुजर गईं। वे बहुत पुरानी कलाकार थीं। उनकी गायकी का अंदाज बहुत बेहतरीन था। बहुत अलग.. सबसे खास बात तो ये कि उनके गाने का और प्रस्तुति का तरीका बहुत गंभीर था। गंभीर और मर्दाना आवाज में वो गाती थी। उनको सुनते हुए ऐसा लगता था कि कोई पुरूष गा रहा है। उन्होंने बड़ी तपस्या की और इस मुकाम पर पहुंचीं'। (उदंती फीचर्स)
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