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Nov 1, 2024

उदंती.com, नवम्बर- 2024

 वर्ष- 17, अंक- 4

शुभ दीपावली

आओ अँधकार मिटाने का हुनर सीखें हम

कि वजूद अपना बनाने का हुनर सीखें हम

रोशनी और बढ़े, और उजाला फैले

दीप से दीप जलाने का हुनर सीखें हम

- शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

इस अंक में

अनकहीः गाँव की बात... -डॉ.  रत्ना वर्मा

आदरांजलिः रतन टाटा - संवेदनशीलता का सफ़रनामा - विजय जोशी

पर्व- संस्कृतिः कैसे करें माँ लक्ष्मी की आराधना - रविन्द्र गिन्नौरे

कविताः अँधियार ढल कर ही रहेगा - गोपालदास ‘नीरज’

जीव जगतः हिमालय के रंग- बिरंगे मैगपाई - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

धरोहरः रहस्यमयी लेपाक्षी मन्दिर - अपर्णा विश्वनाथ

प्रेरकः सपने  सच  होंगे - निशांत

कहानीः आशंका - डॉ. परदेशीराम वर्मा

कविताः रातों रात बदल गई नीयत... - सुधा राजा

व्यंग्यः देखने का नया उपकरण - गिरीश पंकज

नवगीतः महानगर - रमेश गौतम

लघुकथाएँः 1. लौह-द्वार, 2. अपराधी, 3. असभ्य नगर  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 

संस्मरणः आह से वाह होने लगी ज़िंदगी - कृष्णा वर्मा

कविताः बनाये घर - डॉ. शैलजा सक्सेना

किताबेंः ...सम्यक मूल्यांकन ‘अपने अपने देवधर’ - डॉ. राघवेंद्र कुमार दुबे

वन्य जीवनः ...प्रकृति को अक्षुण्ण बनाए रखने की कला - सीताराम गुप्ता

लघुकथाः अनावरण, 2. तरकीब - उपमा शर्मा

कविताः तुम यहीं  कहीं हो  - शुभ्रा मिश्रा

पर्यावरणः ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने काष्ठ तिज़ोरियाँ

अनकहीः गाँव की बात...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

अक्सर शहर में रहने वालों को आपने कहते सुना होगा कि हम छुट्टियों में, दीवाली या अन्य तीज त्योहारों में अपने गाँव के घर जा रहे हैं। ‘अपने गाँव’ कहकर बताते हुए गर्व और खुशी का अनुभव होता है । सामने वाले को भी एक उत्सुकता रहती है। वे सोचते  हैं कि वाह कितना अच्छा लगता होगा न गाँव के अपने घर जाना। शहर की आपाधापी से दूर,  हरे- भरे खेत खलिहान,  कुएँ - बावड़ियाँ, न गाड़ियों का शोर- शराबा, न गंदगी ....। उनकी इसी सोच को देखते हुए आजकल ग्रामीण पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके माध्यम से वे ग्रामीण जीवन शैली की झलक को करीब से देख सकते हैं और गाँव की लोक संस्कृति, परंपरा, खान- पान को उनके बीच रहकर प्रत्यक्ष अनुभव कर पाते हैं। 

अब तो मिट्टी के छप्पर वाले घरों की जगह सिमेंट और ईंट वाले पक्के मकानों ने ले लिया है। गोबर से लिपे हुए घर- आँगन, अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। अतः पर्यटकों के लिए एक कृत्रिम गाँव और घर का वातावण निर्मित कर क्षेत्र विशेष के लोकनृत्य, लोकगीतों का आयोजन कर उन्हें गाँव के वातावरण में रहने का अहसास कराया जाता है। राजस्थान की पर्यटन- संस्कृति में इसका विकसित रूप दिखाई देता है। धीरे - धीरे अब अन्य प्रदेशों में भी ग्रामीण पर्यटन पनपने लगा है। यद्यपि यह सब पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बेहतर हो सकता है; पर प्रश्न यह है कि क्या सचमुच गाँव की तस्वीर इससे बदली जा सकती है?

मैं गाँव को लेकर अपना अनुभव साझा करूँ,  तो अपने जन्म से लेकर अब तक लगभग हर साल की दीवाली मेरी गाँव में ही मनती है। पिछले तीन- चार दशकों  में गाँव के  सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में  बहुत कुछ बदल गया है। गाँव की पगडंडियाँ, सड़कों में तब्दील हो गईं, आवागमन के साधन बढ़ने के साथ ही गाँव की शांति, सादगी, अपनापन सबमें बदलाव दिखाई देने लगा। एक समय था, जब लोग कम संसाधनों में भी खुश रहते थे। आपसी भाईचारा और सांस्कृतिक एकता की जो तस्वीर दिखाई देती थी, वह आज की भाग-दौड़ वाली व्यस्त जिंदगी और तथाकथित तरक्की की ऊचाँइयों में कहीं गुम हो गई है। गाँव की मिट्टी की वह सोंधी खुशबू भी अब बिगड़ते पर्यावरण के कारण प्रदूषित हो चुकी है। 

हमारे लोक- सांस्कृतिक पर्व- त्योहार, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता था,  से दूरी भी धीरे - धीरे बढ़ती जा रही है।  शिक्षा के प्रचार- प्रसार के बावजूद शराब और जुए जैसी बुरी आदतों के कारण नई पीढ़ी में भटकाव बढ़ते जा रहा है। विकास के सारे रास्ते खुले होने के बाद भी गाँव की वह खूबसूरत तस्वीर, जिसे हर बच्चा अपनी ड्राइंग की कॉपी में उकेरता है, अब वैसी नजर क्यों नहीं आती? 

क्या इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार नहीं है? शिक्षा का वही स्तर, जो हम शहर के स्कूल कॉलेज में देते हैं, गाँव में क्यों उपलब्ध नहीं करा पाते? यदि ऐसा होता, तो गाँव के लोग अपने बच्चों को गाँव से बाहर नहीं भेजते। एक बार बच्चा गाँव के बाहर निकला कि फिर वह वापस गाँव नहीं जाता। तो ऐसी उच्च शिक्षा का क्या मतलब, जो उसे अपनी जन्म- स्थली, अपनी धरती से दूर कर दे। 

गाँव जो अपने आपमें पहले आत्मनिर्भर होते थे - अनाज, कपड़ा और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति कुटीर उद्योगों के माध्यम से पूर्ण हो जाया करती थी; परंतु औद्योगीकरण और बाजारवाद ने सब कुछ खत्म कर दिया है। इससे ग्रामीण शिल्प और उद्योग तो समाप्त हुए ही हैं, बेरोजगारी भी बढ़ी है। युवा  रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, इस पलायन ने ग्रामीण अर्थ -व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। कृषि पर निर्भर ग्रामीण आधुनिक तकनीक के बावजूद वैसी तरक्की नहीं कर पा रहे हैं जैसे बाहरी प्रदे

जाहिर है हम गाँव के विकास की बात आजादी के बाद से ही करते चले जा रहे हैं; पर गाँव या तो अब धीरे- धीरे शहर में तब्दील होते जा रहे हैं या खाली होते जा रहे हैं। तरक्की सबको पसंद है; पर तरक्की ऐसी हो, जो सबको एक बेहतर जिंदगी दे, न कि उसे संग्रहालय की वस्तु बना दे। गाँव के मिट्टी की सोंधी खुशबू को बचाए रखना है, वहाँ की सादगी और अपनापन को बनाए रखना है, तो हमें गाँव की ओर लौटना होगा। गाँव को सँवारना होगा। तो आइए, इस दीवाली अपने- अपने गाँव को मिट्टी के दीयों से जगमग करने का प्रयास करें। 

सुधी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएँ। 

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अंत में उनके नाम का भी एक दिया जला लेते हैं, जिन्होंने हमारे देश को बहुत कुछ दिया है - जी हाँ मैं  मानवता को समर्पित आदरणीय सम्माननीय और संवेदनशील उदारमना रतन टाटा की बात कर रही हूँ। उदंती के इस अंक में आदरांजलि स्वरूप उनके वृहद योगदान को विजय जोशी जी ने कम शब्दों में बताने की कोशिश की है, यद्यपि देश को उन्होंने इतना कुछ दिया है कि उनके लिए कुछ पन्ने पर्याप्त नहीं हैं। उन्हें सादर नमन के साथ-

परवीन शाकिर के शब्दों में- 

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा, 
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा । 

आदरांजलिः रतन टाटा - संवेदनशीलता का सफ़रनामा

  - विजय जोशी , पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

उठ गए दुनिया से लेकिन एक दुनिया हो गए

बुलबुले पानी के थे फूटे तो दरिया हो गए

   सिद्धांतवादी एवं परोपकारी पारसी समुदाय के लिए मेरे मन में गहरी श्रद्धा है। आज से लगभग पन्द्रह दशक पूर्व जब ईरान से चलकर यह कौम भारत आई, तो नाव गुजरात के तट पर लगी और जब शरण हेतु संदेश भेजा, तो राजा ने इन्हें दूध से पूरा भरा गिलास भिजवा दिया, यानी कोई गुंजाइश नहीं। तब एक बुज़ुर्ग ने उसे चीनी मिलाकर लौटाया कि बगैर अतिरिक्त जगह के हम दूध में शकर की मिठास सदृश मिल-जुलकर रहेंगे।

   सबसे बड़ी बात तो यह है कि उस दौर में काठियावाड़ नरेश को दिए गए 3 वचनों पर वे आज भी कायम हैं :

पहला- धर्म परिवर्तन नहीं करेंगे। सो आज तक हर पारसी जन्मजात पारसी ही है परिवर्तित नहीं।

दूसरा- यहाँ की भाषा अंगीकार करेंगे। सो आज तक हर पारसी की मातृभाषा भी गुजराती ही है।

तीसरा- देश के योगदान के प्रति समर्पण। सो देख लीजिए जे.आर.डी. टाटा से लेकर रतन टाटा तक इस समुदाय का योगदान। हिन्दू- मुसलमान जब मंदिर- मस्जिद बना रहे थे, टाटा परिवार ने प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान, कैंसर चिकित्सा जैसे मानवता समर्पित प्रोजेक्ट को धरती पर उतारा।

उद्देश्य स्टेटमेंट :                   

   मानवता को समर्पित मूल्य इनकी आत्मा में रचे- बसे हैं, जन्मजात। इन्होंने अपनी कम्पनियों की इमारतों को व्यावसायिकता के बजाय मानवता आधारित मूल्यों की ठोस नींव पर खड़ा किया। टाटा ने अपने उद्देश्यों को दृष्टि में रख इस तरह उकेरते हुए स्थापित किया है

       टी. (T ) : विश्वास (Trust)

       ए. (A)  : मानसिकता (Attitude)

       टी. (T )  :  प्रतिभा (Talent)

       ए.  (A)    :  क्षमता (Aptitude)

     जे. आर. डी. टाटा ने जिन मूल्यों की आधारशिला रखी, रतन टाटा ने उसे उस इमारत का आकार दिया, जिसने मानवता को सुख, संतोष की छाया प्रदान की। देश एवं मानवीयता के प्रति योगदान के रतन टाटा के अनेकानेक उदाहरण हैं। सबका उल्लेख असंभव है, सो केवल कुछ के दिग्दर्शन का विनम्र प्रयास -

1. होटल ताज :

    26/11 के आतंकी आक्रमण का मुख्य केंद्र था होटल ताज, जिसमें अनेक विदेशी मेहमान विद्यमान थे। तब टाटा कर्मचारियों ने जान जोखिम में डालकर, जब तक आखिरी अतिथि को सुरक्षित बाहर नहीं निकाल लिया, तब तक एक ने भी खुद की सुरक्षा के लिए एक बार भी नहीं सोचा। ऐसे कठिनतम समय में ऐसी अनोखी अद्भुत कर्तव्यपरायणता की कोई दूसरी मिसाल नहीं, सो इसे हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में केस स्टडी के रूप में संगृहीत कर लिया। और जब इस विषय पर टाटा प्रबंधन से बात की गई तो पता चला :

-ताज समूह कर्मचारी चयन हेतु उन छोटे- छोटे शहरों एवं कस्बों पर ध्यान केंद्रित करता है, जहाँ पारंपरिक संस्कृति आज भी सुरक्षित है।

- चयन में टॉपर्स के बजाय उन छात्रों को वरीयता दी जाती है, जो अपने माता, पिता, गुरुओं का सम्मान करते हैं।

- चयन उपरांत हर एक को यह पाठ कंठस्थ करवाया जाता है कि वे टाटा कर्मचारी मात्र न होकर मैनेजमेंट के सामने मेहमानों के राजदूत हैं।

2. मेक इन इंडिया :

   रतन टाटा ने अपने जीवन में हर इंसान को जाति, भाषा, धर्म के परे जाकर मात्र इंसान समझा और सपने में भी कभी अपमानित नहीं किया। 

   1991 में अध्यक्ष बनते ही उन्होंने अपने सपने टाटा इंडिका कार को साकार किया, किंतु अपेक्षित बिक्री नहीं रही। 1999 में फोर्ड कंपनी के अध्यक्ष हेनरी फोर्ड ने कंपनी खरीदी में रुचि जाहिर करते हुए उन्हें डेट्राइट आमंत्रित करते हुए बैठक में अपमानित किया, तो रतन टाटा मीटिंग अधूरी छोड़कर तुरंत मुंबई रवाना हो गए, इस प्रण के साथ कि वे खुद की कार को ब्रांड स्थापित करेंगे।

   उनका प्रण परवान चढ़ा तथा स्थापित हो गया। इस बीच फोर्ड कंपनी दिवालिया हो गई तथा टाटा ने लैंड रोवर एवं जैगुआर खरीद लेने की पेशकश की। अपने प्रयोजन को अमली जामा पहनाने हेतु हेनरी फोर्ड भारत आए, तो सबको लगा अपने अपमान का बदला लेने हेतु यही उचित अवसर है। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। रतन टाटा ने उन्हें पूरा सम्मान देते हुए डील संपन्न की।

 यही जज़्बा और लगन तो चाहिए मेक- इन- इंडिया मिशन को सफलता के शिखर तक ले जाने के लिए।

3. संवेदनशीलता :

  साथियों के प्रति स्नेह, सदाशय, समर्पण के तो अनेक मर्मस्पर्शी प्रसंग हैं। टाटा मोटर के प्रमुख सुमंत मूलगाँवकर थे। प्रबंधन के उच्च अधिकारियों का लंच 5 सितारा होटल में हुआ करता था, जिसमें मूलगाँवकर सदा अनुपस्थित पाए जाते थे। एक दिन जब उनकी खोज की गई तो पता चला कि वे तो उन पलों में ढाबों में पहुँचकर वाहन चालकों से टाटा ट्रक की विशेषताओं एवं कमियों पर विमर्श किया करते थे तथा सुधार हेतु उनकी राय लिया करते थे। परिणाम स्पष्ट था: इन्हीं सुझावों के आधार पर जब सुधार हुआ, तो टाटा वाहन गाड़ी ड्राइवरों की पहली पसंद बन उभरे।

  अब  वह बात आती है, जो सबसे मार्मिक,  हृदयस्पर्शी एवं उपकार के प्रतिदान की है, जो विश्व स्तर पर संवेदनशीलता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और वह यह कि टाटा समूह ने तुरंत ही सुमंत मूलगांवकर (Sumant Moolagaonkar) के नाम के दो प्रथम अक्षर पर अपने ब्रांड का नाम किया सूमो (Sumo)

4. सेना के प्रति सम्मान :

   यह प्रसंग भारतीय सेना के एक उच्च अधिकारी ने साझा किया, जो गणतंत्र दिवस परेड हेतु टाटा समूह के दिल्ली स्थित होटल में ठहरे थे। शाम को उन्होंने अपनी ड्रेस की इस्तरी हेतु जब इच्छा जाहिर की, तो तुरत- फुरत एक व्यक्ति ने उपस्थित होकर पहले तो उन्हें सेल्यूट किया, फिर पैर छुए तथा ड्रेस लेते हुए सेल्फी के लिये गुज़ारिश की। रात 9 बजे उन्हें रिस्पेशन मेज से रात्रि- भोज हेतु आमंत्रित किया गया और जब वे वहाँ पहुँचे, तो विस्मित होकर रह गए। सारे स्टाफ ने करतल ध्वनि के साथ एक गुलदस्ते के साथ उनका स्वागत किया।

   अगले दिन तो अल्लसुबह उन्हें राष्ट्रपति भवन ले जाने के लिए बी.एम.डब्ल्यू. कार खड़ी थी। अंतिम दिवस भुगतान हेतु रिसेप्शन पर पहुँचे, तो पता चला कि वे होटल के विशिष्ट अतिथि हैं, सो कोई भुगतान नहीं। पूछने पर बताया गया: आप हमारे देश की रक्षा करते हैं, सो हमारे बेहद खास मेहमान हैं।

   फील्ड में वापिस लौटने पर उन्हें ताज में ठहरने हेतु धन्यवाद सहित एक मेल मिला, जिसमें लिखा था कि ताज समूह द्वारा देश सेवा में रत सैन्य कर्मियों हेतु उनके होटल में ठहरने पर व्यावसायिक नहीं; अपितु सामर्थ्य के अनुसार राशि ही ली जाती है। है कोई अन्य ऐसा उदाहरण!

5. टाइटन आई प्लस : 

   भारी वाहनों के मुख्य निर्माता होने के नाते टाटा ने यह पाया कि माल मंज़िल तक शीघ्रतापूर्वक पहुँचाने तथा काम की धुन में ड्राइवर समूह अपनी नेत्र- ज्योति की उपेक्षा करते हैं। सो टाटा समूह ने आगे बढ़कर उनके यात्रा मार्ग पर निःशुल्क नेत्र परीक्षण का तरीका ईजाद किया। ढाबों पर खाद्य सामग्री की सूची अलग - अलग प्रकार के अक्षर अनुपात द्वारा चश्मों की जरूरत एवं प्रदायगी हेतु। चश्मा निःशुल्क नेत्र ज्योति की रक्षा तथा सुरक्षा हेतु। यही है गांधी के शब्दों में समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के हित में उठाया गया कदम।

6. विमानन उद्योग : 

  हम सबको मालूम है कि भारतीय उड़ान सेवा का आगाज़ जे.आर.डी. टाटा  के सौजन्य से हुआ था। वे एक बेहद कुशल पायलट एवं भारत में वायु सेवा के जनक थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर ‘एयर इंडिया’ की स्थापना की गई, जो लचर सरकारी व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।

   अंततः रतन टाटा को ही आगे आना पड़ा, जिन्होंने इसे घाटे सहित खरीदा। अब यह धीरे - धीरे फिर से उभर रही है। यहाँ विशेष बात यह है कोई अन्य खासतौर पर पारिवारिक विरासत समर्पित राजनीतिज्ञ परिवार होता, तो इस एयर लाइन को परिवार के सदस्य का नाम देता, लेकिन टाटा ने ऐसा न करते हुए भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ‘एयर इंडिया’ नाम को पूरा सम्मान देते हुए बरकरार रखा है। कितना उदार दिल!

7. कोरोना काल :

     कोरोना मानवीय इतिहास की भीषणतम त्रासदी के साथ उपस्थित हुआ। साक्षात् यमराज मानव समूह के समक्ष ले जाने हेतु उपस्थित थे। सब घरों में दुबके। सड़कों पर सन्नाटा। कोई किसी का नहीं, सिर्फ डॉक्टर समूह के, जो निरंतर पूरे प्राणपण से जुटे थे सबको बचाने के लिए। काम, घर, विश्राम सब केवल अस्पताल। इस कठिनतम परिस्थिति में कैसे जिएँ!

   जानकर आश्चर्य होगा कि उन पलों में न केवल डॉक्टर समुदाय बल्कि साथी छात्र, पैरा मेडिकल स्टाफ के लिए भी मुंबई में टाटा प्रबंधन द्वारा होटल ताज से निःशुल्क गरमागरम भोजन- सामग्री की निरंतरता सुनिश्चित की गई।

8. दीन के दर्द का निवारण :

     टाटा स्टील के चेयरमैन रतन टाटा ने जमशेदपुर में कंपनी के कर्मचारियों की एक बैठक बुलाई थी। इस बैठक में एक कर्मचारी ने डरते - डरते एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मसला उठाया। उसने बताया कि कर्मचारियों के शौचालयों की स्थिति बहुत खराब और अस्वच्छ है, जबकि अधिकारियों के शौचालय हमेशा साफ - सुथरे रहते हैं।

चेयरमैन महोदय ने एक वरिष्ठ अधिकारी से पूछा : इस स्थिति को सुधारने में कितना समय लगेगा?

 अधिकारी ने जवाब दिया : इसके लिए एक महीना काफी होगा।

इस पर चेयरमैन ने कहा : मैं इसे एक दिन में कर देता हूँ। बढ़ई को बुलाओ।

अगले दिन बढ़ई आया, तो चेयरमैन ने उसे दोनों शौचालयों के ऊपर लगे बोर्ड हटाने और उनकी जगह बदलने को कहा। अधिकारियों के शौचालय पर ‘कर्मचारियों के लिए’ और कर्मचारियों के शौचालय पर ‘अधिकारियों के लिए’ का बोर्ड लगा दिया गया। साथ ही उन्होंने हर पंद्रह दिन में इन बोर्डों को बदलने का निर्देश दिया।

  और क्या हुआ? अगले तीन दिनों में दोनों शौचालय बेहद साफ हो गए!

  इससे हमें ये सीख मिलती है कि ‘नेतृत्व’ हमेशा पद से ऊपर होता है। समस्याओं को पहचानने के लिए तार्किक सोच और उन्हें हल करने के लिए रचनात्मक सोच की जरूरत होती है। यह प्रसंग बताता है कि कैसे रतन टाटा ने एक साधारण समस्या को एक रचनात्मक तरीके से हल किया। उन्होंने सिर्फ बोर्ड बदलकर लोगों की मानसिकता बदली और शौचालयों की स्वच्छता में सुधार किया। नेतृत्व का मतलब सिर्फ आदेश देना नहीं होता, बल्कि समस्याओं के मूल कारण को समझना और उन्हें रचनात्मक तरीके से हल करना होता है।

9. पशुओं से प्रेम :

  रतन टाटा का पशुओं से प्रेम भी अद्भुत था। इसीलिए वे डॉग लवर भी कहलाए। कुत्तों से तो उनका प्रेम इतना अधिक था कि होटल ताज के दरवाजे कुत्तों के लिए खोल दिये गए थे। 

 बात वर्ष 2018 की है।  उनके परोपकारी कार्यों की सुगंध पूरे संसार में पहुँच चुकी थी। तब ब्रिटेन के शाही परिवार की ओर से प्रिंस चार्ल्स ने उन्हें  “लाइफटाइम अचीवमेंट” अवार्ड से सम्मानित करने हेतु ब्रिटेन आमंत्रित किया। वे राजी भी हो गए। किंतु विदाई के पलों में उनके दो पालतू कुत्तों टैंगो एवं टीटो  में से एक बीमार पड़ गया तथा उनके साथ रहने के लिए टाटा ने समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया।

सब यह जानकर हैरान रह गए कि टाटा ने शाही सम्मान के बजाय एक कुत्ते को प्राथमिकता दी। अनेकों के आग्रह के बावजूद उन्होंने अपना मन नहीं बदला।

और जब प्रिंस चार्ल्स को कारण पता चला, तो उन्होंने टाटा की सराहना करते हुए कहा : वे एक अद्भुत व्यक्ति हैं। उनके आदर्शों के कारण ही आज टाटा समूह सफल और स्थापित है।

  उन्हींके मार्ग निर्देशन में जून, 2024 को मुंबई महालक्ष्मी में टाटा ट्रस्ट के लघु पशु चिकित्सा अस्पताल का उद्घाटन हुआ।

  है न आज की आपाधापी और लाभ- हानि युक्त इस दौर में दिल को गहराई तक छू जानेवाली विचित्र किंतु सत्य बात।

10. रतन टाटा के अंतिम संदेश : 

1. पहला यह कि दयालुता का कार्य उनके लिए करें जो आपके लिये कुछ भी नहीं कर सकते, लौटाना तो बहुत दूर की बात।

2. कोई भी सेवा कार्य प्रतिदान के आशा के बगैर करें।

3. अपने शब्द यानी वचन का सम्मान करें। अपनी बात से पलटें नहीं, चाहे कितनी भी कठिनाई हो। दिया गया वचन निभाना ही है।

 निष्कर्ष :  ये केवल कुछ ही उदाहरण हैं, रतन टाटा के देश के प्रति लगन, निष्ठा और समर्पण के। भावी इतिहास एक दिन अवश्य कहेगा कि इस धरती पर कभी रतन टाटा जैसे व्यक्तित्व भी पधारे थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश एवं मानवता को समर्पित कर दिया था। वस्तुत: वे व्यक्ति नहीं, विचार थे और विचार कभी मरा नहीं करते। चिता ने जो जलाया वह था उनका पार्थिव शरीर, पर जो अमर रहेगा, वह है उनका व्यक्तित्व एवं विचार।

मौत वो हो जिस पर जमाना करे अफसोस,

वरना तो इस दुनिया में आते हैं सभी जाने के लिए।

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

पर्व- संस्कृतिः कैसे करें माँ लक्ष्मी की आराधना

  - रविन्द्र गिन्नौरे

बदलते परिवेश में दीपावली पर्व की उत्सवधर्मिता प्रकृति बिखर गई। धर्म, संस्कृति, परम्परा को सँजोए  त्योहार की उल्लासमयी रौनक खास वर्ग तक सिमट गई है। ज्योति पर्व से सम्बद्ध सांस्कृतिक परम्पराएँ विलुप्त होती जा रही हैं। ग्राम्य धरोहर को सँजोने वाली परंपराएँ उपभोक्ता संस्कृति की भेंट चढ़ गई। उल्लासमयी दीपावली आधुनिकता के दौर में प्रदूषणकारी बन गया है। दीप पर्व में समाज का कला-कौशल जो जन अभिव्यक्ति को प्रश्रय देता रहा, वह भी तिरोहित हो चु्का है।

बाजार में खो गई परंपराएँ-

    राम के अयोध्या आगमन पर घर-घर उनके स्वागत में दीप जले। लक्ष्मी की पूजा-आराधना के लिए दीप जले। अनेक आख्यान ज्योति पर्व में जुड़ते गए, सभी में दीप ज्योति को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी अनेक परम्पराएँ दीप पर्व के साथ जुड़ी। हमारी सारी परम्पराएँ अभिजात्य उत्सवधर्मी बाजार में खो गईं। मिट्टी के दीपक बिकते नहीं, कुम्हार बेरोजगार हो गए। पर्व में निर्धन और धनिकों की खाई इतनी बढ़ गई कि रोशनी भवनों तक सिमट गई। निर्धन तो बेबस, लाचार बन गया। ग्रामीण उत्पाद वैश्वीकरण के दौर में बेकार साबित होते चले गए। दीपावली की रौनक साधन सम्पन्नों के बीच रच-बस गई है। मध्यम वर्ग तो महँगाई की मार से दोराहे में आ खड़ा हुआ है। फिर दीन-हीनों की कैसी दीपावली! कैसा उत्सव!

पाँच दिनों का उत्सवधर्मी पर्व अपने सिमटे रूप में सम्पन्न होता है। सहमे से लोग बस परम्पराओं का निर्वाह करते हैं।

पाँच दिनों का त्योहार-

      7 धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की जयंती है। एक और पौराणिक आख्यान है जहां यम और यमराज की कथा में दीप दान को महादान कहा गया। यह दीपदान का भी पर्व है। पौराणिक आख्यानों, परम्पराओं से हटकर धनतेरस धनपूजा का पर्व कहलाने लगा है। बाजार बढ़ गया। बही-खाता खरीदने का शुभ मुहूर्त के लिए खरीदारी करते हैं। सोने-चाँदी के बाजार सज उठते हैं। मध्यम वर्ग तो जरूरत के सामान खरीद कर संतोष कर लेता है। निर्धन तो हमेशा की तरह याचक बनकर रह जाता है। नरक चौदस महिलाओं के पुनर्जागरण, उनको सम्बल प्रदान करने का दिवस है। पौराणिक आख्यान में प्राग्ज्योतिषपुर के नरकासुर ने सोलह हजार युवतियों को कैद कर रखा था। नरकासुर की नारकीय यंत्रणा से त्रस्त युवतियों का उद्धार भगवान कृष्ण ने किया। तब से यह दिन युवतियों के लिए सौभाग्य की कामना व शृंगार का रहा। आज के बदलते माहौल में, बढ़ती महँगाई ने इसे विस्तृत कर दिया।

तमसो मा ज्योतिर्गमय-

      ज्योति पर्व दीपावली विजय, उत्सव, पूजा-अर्चना के साथ अमावस्या के निविड़ अंधकार को दूर कर , 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'  का उद्घोष करता है। इसी दिन महापुरुषों के निर्वाण दिवस पर दीप प्रज्ज्वलित कर उन्हें नमन करने की परम्परा जुड़ती चली गई है। ज्योति पर्व में दीपक अब नहीं जलते, घर रोशन होते हैं बल्बों, झालरों से। राम का अयोध्या आगमन और उनकी विजय, स्वागत के दीप नहीं सजते। गुरुनानक जी स्मृति में प्रकाश पर्व, दयानंद सरस्वती के निर्वाण की ज्योति को मानने वाले आधुनिक परिवेश के परम्परा वादी हो गए। गौतम बुद्ध ने अपने निर्वाण पर कहा था, 'अप्प दीपों भव' अर्थात् खुद दीपक बनो। महापुरुषों के वचनों को हमने विस्मृत कर दिया और अपनी परंपरा से हटकर आधुनिक बन बैठे।

प्रकृति को सहेजना भूले-

       दीपावली की रात अब आतिशबाजी, पटाखों को समर्पित हो गई। पटाकों के धमाकों के बीच हृदय विदारक घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। हर वर्ष ऐसे धमाकों में हजारों अपंग हो जाते हैं। पटाखों का बाजार बढ़ता जा रहा है, जिसे बनाने वाले हजारों अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। कानफोड़ धमाकों से, प्राकृतिक परिवेश भी छिन्न-भिन्न हो रहा है। इसकी किसी को कोई परवाह ही नहीं है। निरीह पशु-पक्षियों पर इसका कैसा असर होता है, यह बात कोई नहीं समझना चाहता क्योंकि पक्षियों का कलरव को सुनने के लिए अब कौन सुबह उठता है।

      लक्ष्मी पूजा के लिए लाई-बताशे की जगह मेवा मिष्ठान्नों की दुकानों में भीड़ लगती हैं। आम्र पत्तों की वंदनवार ने प्लास्टिक का जामा पहन लिया। मिट्टी के दीपों को महँगाई लील गई। कुम्हार के दिये अब कौन खरीदेगा। लक्ष्मी को प्रिय लगने वाले कमल अब दुर्लभ होने लगे, जिनको संजोने वाले तालाब तो कहीं-कहीं रह गए हैं। घर-घर बनते पकवानों की महक मिलावट में खो गई, तो कहीं महँगाई ने दूर कर दिया। धनदेवी लक्ष्मी माता की बाट जोहते रात्रि जागरण अब कठिन हो गया है।

लोक परंपराएँ हुईं विस्मृत-

       भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में उत्सव मनाने की अपनी-अपनी परम्परा रही है। फसल कटाई के बाद उत्सव प्रारंभ होते हैं। लोक नृत्य गीतों की शुरूआत दीप पर्व के साथ प्रारंभ होती है। छत्तीसगढ़ में ग्रामीण इलाकों की महिलाएँ सुआ नृत्य करती हैं। सुआ नृत्य की मनोहर छटा अब कहीं-कहीं दिखती है, वहीं उसके गीत व्यावसायिकता का जामा पहन बैठे हैं। यादव समाज का राउत नाच बिखर रहा है। नृत्य में गड़वा वाद्य उसके वादक कम हो चले हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले लोक नृत्य ऐसे ही खत्म हो चले हैं।

      गोवर्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव कृषि और ग्राम्य जीवन के लिए विशेष रहा है। श्रीकृष्ण ने इन्द्र पूजा की जगह वन-पर्वत को पूजने की परम्परा चलाई। वन, पहाड़ ही वर्षा को आकर्षित करते हैं। देवराज इन्द्र ने क्रोधवश मूसलाधार बारिश की, जिससे बचने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को ही उठा लिया। पर्वत के नीचे सभी को आश्रय मिला। इस की स्मृति में यह दिन वनश्री, पहाड़ को पूजने का दिन बन गया। जंगलों में पशुधन को ले जाकर अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है। अब गोवर्धन पर्वत की परंपरा पूजा तक सिमट गई है। पहाड़ तोड़े जा रहे हैं, जंगल काटे जा रहे हैं। देशी गाय को उन्नत नस्ल के नाम विकृत किया जा रहा है। अन्नकूट महोत्सव अब देवालयों तक सिमट कर रह गया है।

    ज्योतिपर्व दीपावली का उत्सवधर्मी पर्व पर वह उल्लास नजर नहीं आता। दीपों का उजास भी बेबस हो रहा है, हमारे मन के अँधकार को दूर करने में। प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन करने वाले लोग निमित्त मात्र रह गए हैं। दीपावली जिसमें हर वर्ग की भागीदारी रहती थी अब वह बिग बाज़ार की चकाचौंध में गुम हो चली है। आमजन का आर्थिक संबल जहां बिखर गया है तो ऐसे में वे कैसे करे मॉ की आराधना...!

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कविताः अँधियार ढल कर ही रहेगा

 -  गोपालदास ‘नीरज’


आँधियाँ चाहे उठाओ,

बिजलियाँ चाहे गिराओ,

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाए,

वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाए,

वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,

जो नया सूरज उगाए जब तड़पकर तिलमिलाए,

उग रही लौ को न टोको,

ज्योति के रथ को न रोको,

यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,

धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,

दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,

देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,

व्यर्थ है दीवार गढना,

लाख लाख किवाड़ जड़ना,


मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,

टोक दो तो आँधियों की बोलियों में बोलती है,

वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,

वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,

जाल चांदी का लपेटो,

खून का सौदा समेटो,

आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,

बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,

क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,

हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,

उस सुबह से सन्धि कर लो,

हर किरन की माँग भर लो,

है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।

जल गया है दीप तो अँधियार ढल कर ही रहेगा।


जीव जगतः हिमालय के रंग- बिरंगे मैगपाई

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दहियर या मैगपाई पक्षी कॉर्विडे (Corvidae) कुल के सदस्य हैं, जिसमें कौवा, नीलकण्ठ और रैवन आते हैं। आम तौर पर इस कुल के पक्षियों को कांव-कांव करने वाले और जिज्ञासु पक्षी के तौर पर देखा जाता है। दुनिया भर की लोककथाओं में अक्सर इन्हें शगुन-अपशगुन के साथ भी जोड़ा जाता है। जैसे कुछ युरोपीय संस्कृतियों में इन्हें चुड़ैलों का साथी माना जाता हैं। अंग्रेज़ी की एक तुकबंदी कहती है कि यदि एक अकेली मैगपाई दिखे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है: “One for sorrow, two for joy; three for a girl, four for a boy; Five for silver, six for gold; Seven for a secret never to be told,” (हिंदी में यह कुछ इस तरह होगी: “एक यानी दुख, दो यानी खुशी; तीन यानी लड़की, चार यानी लड़का; पाँच यानी चाँदी, छह यानी सोना; सात यानी किसी को न बताने वाला राज़।” )

लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि मैगपाई दिखने में आकर्षक होती हैं। और इसकी कुछ सबसे सजीली (रंग-बिरंगी) प्रजातियाँ हिमालय में पाई जाती हैं।


नीली मैगपाई की कुछ निकट सम्बंधी प्रजातियाँ कश्मीर से लेकर म्यांमार तक में दिखना आम हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई (Urocissa flavirostris, जिसे पीली चोंच वाली नीली मैगपाई भी कहते हैं) की आँखें शरारती लगती हैं, और यह समुद्रतल से 2000 से 3000 मीटर ऊँचे स्थलों पर मिलती है। इससे थोड़ी कम ऊँचाई पर हमें लाल चोंच वाली मैगपाई दिखाई देती हैं, और नीली मैगपाई निचले इलाकों पर पाई जाती है जहाँ बड़ी तादाद में इंसान रहते हैं।

ट्रेकिंग पथ

पीली और लाल चोंच वाली मैगपाई सबसे अधिक दिखाई देती हैं पश्चिमी सिक्किम के ट्रैकिंग पथ पर, जो समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊँचाई पर स्थित युकसोम कस्बे से शुरू होता है और लगभग 4700 मीटर की ऊँचाई पर गोचे ला दर्रे तक जाता है जहाँ से कंचनजंगा के शानदार नज़ारे दिखते हैं। इस ट्रेकिंग में आपका सफर थोड़ी ऊँचाई पर उष्णकटिबंधीय आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वन से शुरू होता है, उप-अल्पाइन जंगलों से गुज़रते हुए ऊंचाई पर आप वृक्षविहीन, जुनिपर झाड़ियों वाली जगह पर पहुँचते हैं। बीच में कहीं-कहीं ऐसे जंगल भी मिलते हैं जिनके घने आच्छादन से आप ढंके होते हैं, और जहाँ आपको पक्षियों की हैरतअंगेज़ विविधता और आबादी दिखती है।

सिक्किम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राणी शास्त्रियों द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चला है कि इस क्षेत्र में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं, और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई पर आप हर पाँच मिनट के अंतराल पर लगभग 60 अलग-अलग पक्षियों को देख या सुन सकते हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई की कूक अक्सर इन पक्षियों के कलरव के साथ सुनाई देती है। इस मैगपाई का शरीर लगभग कबूतर जितना बड़ा होता है, लेकिन इसकी पूंछ 45 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिससे इसकी कुल लंबाई 66 सेंटीमीटर हो जाती है। ज़मीन पर कीड़े-मकोड़ों-कृमियों की तलाश करते समय इसकी पूँछ ऊपर की ओर उठी रहती है; लेकिन पेड़ों से जामुन तोड़ते समय इसकी पूँछ नीचे की ओर झुक जाती है। इसकी उड़ान भी खास होती है: शुरुआत में थोड़े समय तक यह लगातार पंख फड़फड़ाती है, और फिर उसके बाद देर तक हवा में शांत तैरती रहती है।

फूलदार बुरुंश

सुनहरी चोंच वाली मैगपाई बुरूँश  वृक्ष पर उस जगह घोंसला बनाती है जहाँ शाखाएँ  दो में बंटती हैं। उसका घोंसला टहनियों पर जल्दबाज़ी में घास की मुलायम तह लगाकर बनाया गया लगता है। इन घोंसलों में मई-जून में तीन से छह अंडे दिए जाते हैं। चूज़ों का पालन-पोषण माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं। अच्छी बात है, जैसा कि तुकबंदी में कहा गया है – ‘दो यानी खुशी’।

नीली मैगपाई और लाल चोंच वाली मैगपाई दिखने में बहुत हद तक एक जैसी दिखती हैं, बस एक थोड़ी छोटी होती है। नीली मैगपाई जंगलवासी पक्षी नहीं है, और अक्सर गाँवों के आसपास पाई जाती हैं। मैगपाई की सभी प्रजातियाँ या तो अकेले फुदकते हुए, या जोड़े में, या शोरगुल मचाते हुए 8-10 के झुंड में देखी जा सकती हैं।

जैसे-जैसे इंसानों की जंगलों में मौजूदगी बढ़ रही है, इस बात की चिंता बढ़ रही है कि ये पक्षी इस दखल का कितना सामना कर पाएँगे। बुरूँश झाड़ी के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को ठहराने और उनकी सुविधाओं के लिए ग्रामीण अक्सर जलाऊ लकड़ी जैसे वन संसाधनों को दोहते हैं। आशा है कि कृषि की तरह पर्यटन भी एक वहनीय व्यापार करना सीखेगा। (स्रोत फीचर्स)

धरोहरः रहस्यमयी लेपाक्षी मन्दिर

  - अपर्णा विश्वनाथ 

भारत मन्दिरों का देश है। हर-एक मंदिर की अपनी एक कहानी है, मान्यताएँ हैं, और विशेषताएँ हैं। उत्तर से दक्षिण तक पूरब से पश्चिम तक भारत के चप्पे-चप्पे में शताब्दियों पुरानी अनगिनत मन्दिर अद्भुत, अनोखी और अविस्मरणीय किस्से-कहानियों को कहते आज भी अडिग अपनी जगह बने हुए हैं।

ऐसे ही अनगिनत कलात्मक मंदिरों की शृंखला में सोलहवीं शताब्दी में बना एक अद्भुत मंदिर लेपाक्षी मन्दिर भी है। यह आंध्र प्रदेश के श्री सत्य साई जिले के एक छोटे से गाँव में है। यह गाँव लेपाक्षी गाँव के नाम से ही जाना जाता है। हिन्दुपुर से लगभग 15  और बेंगलुरु से 120 किलोमीटर दूरी पर स्थित है यह लेपाक्षी मन्दिर है।

वैसे तो पूरा मन्दिर ही अपने आप में अनूठा है। मन्दिर के बेजोड़ संरचना और अद्भुत शिल्पकला को मंदिर के हर-एक पत्थर में देखा और महसूस किया जा सकता है। मन्दिर आश्चर्यचकित, अद्भुत नक्काशियों, मूर्तियों और भित्ति-चित्रों से पटा पड़ा है। इन स्तंभों पर भगवान शिव के 14 अवतारों - नटराज, हरिहर अर्धनारीश्वर,  गौरीप्रसाद, कल्याणसुंदर इत्यादि के भित्तिचित्र उनके विभिन्न रूपों का चित्रण किया गया है। 

साथ ही यहाँ  रहस्यमयी झूलता खम्भा (Hanging pillars) इस मन्दिर का विशेष आकर्षण बिन्दु है। इसके अलावा यहाँ देखने के लिए विशालकाय शिवलिंग व नंदी की विशाल मूर्ति हैं जो एक ही चट्टान को काटकर बनाई गयी हैं। श्रीराम जी के पदचिन्ह, बड़े पत्थरों से बना विशालकाय गणेश और हनुमान जी की मूर्ति की भी अपनी कहानी है।

लेपाक्षी मन्दिर का रहस्य 

अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर इसे अजीब और रहस्यमयी मंदिर कहा जाए तो। रहस्यमयी बात यह है कि इसका एक खंभा जमीन से कुछ सेंटीमीटर ऊपर हवा में लटका हुआ है और इसका रहस्य आज तक कोई नहीं सुलझा पाया है।

इसलिए इसे ‘हैंगिंग पिलर (झूलता हुआ स्तंभ) टेंपल’ के नाम से भी जाना जाता है। पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बिन्दु है यह रहस्यमयी तरीके से हवा में लटका हुआ खम्भा।

ब्रिटिश काल में भी ब्रिटिश इंजीनियरों ने इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश में लटकते हुए खम्भे पर हथौड़े से वार किया था। बाकी खम्भों में दरारें पड़ीं; लेकिन यह झूलता खम्भा जस-का-तस रहा। आखिरकार यह बात सामने आई कि मंदिर का सारा वजन इस एक खम्भे पर ही है। ब्रिटिश लटकते हुए खम्भे के रहस्यमयी संरचना के सामने घुटने टेक दिए और हारकर वापस चले गए।

अर्ध मण्डप या अंतराल मण्डप 

मण्डप का निर्माण पूरा नहीं हो पाने के कारण इसे अर्ध या अंतराल मण्डप कहा जाता है।

मान्यता है कि इसी जगह भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था और देवताओं ने यहाँ नृत्य किया था।  उन्हीं की याद में विजयनगर राजाओं ने एक नृत्य मंडप का निर्माण किया। इसमें नक्काशीदार कुल सत्तर  (70) खम्भे हैं, जिसमें 69 खम्भे जमीन से जुड़े हुए हैं और एक खंभा छत से तो जुड़ा हुआ है लेकिन जमीन से जुड़ाव नहीं है। इसके पीछे का रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया है। 

इस खम्बे को लेकर किए जा रहे दावे में कितनी सच्चाई है यह जानने के लिए अधिकतर पर्यटक इस खम्बे के नीचे से बहुत सारी वस्तुएँ जैसे कपड़े, कागज़ आदि को खम्भे के नीचे से डालकर इधर से उधर खींचते और निकालते हैं।

बदलते समय में लोगों में मान्यता पनपी कि कोई भी खंभे के इस पार से उस पार तक कोई कपड़ा ले जाए, तो उनकी इच्छाएँ पूरी हो जाती है।

लेपाक्षी का इतिहास 

कुछ किंवदंतियों के अनुसार इसका संबंध #रामायण में श्रीराम और जटायु से है। मान्यता है कि जब रावण और जटायु के युद्ध में, जटायु हार गए और घायल होकर राम- राम चिल्लाते हुए इसी जगह पर गिर पड़े थे। कुछ समय पश्चात् श्रीराम जटायु को खोजते हुए आते हैं; तब उनकी दृष्टि निश्चेष्ट जटायु पर पड़ती है। भगवान राम जटायु का सिर अपनी गोद में रखकर ले-पाक्षी, लेपाक्षी अर्थात् उठो पक्षी (तेलुगु में ले का अर्थ उठो होता है) बार-बार बोलते रहे । अंततः जटायु अंतिम साँस लेते हुए भगवान श्रीराम के गोद में अपने प्राण त्याग दिए।

भगवान राम ने उसी स्थान पर जटायु का अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया तब से उस स्थान का नाम लेपाक्षी पड़ गया और वहाँ निर्मित मन्दिर का नाम लेपाक्षी मन्दिर। यहाँ निर्मित तीन विशालकाय मन्दिर भगवान शिव, भगवान विष्‍णु और भगवान वीरभद्र को समर्पित  हैं।

इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी कुछेक मान्यताएँ हैं -

मान्यता है कि यह सतयुग के समयकाल का है। इसलिए लेपाक्षी मंदिर का इतिहास अति-प्राचीन है। मान्यता है कि महर्षि अगस्त्य ने शिवजी के वीरभद्र रूप को समर्पित कर इस मंदिर  का निर्माण करवाया था। शिवलिंग के पीछे सात मुहं वाला विशाल नाग भी हैं। यह भारत के सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है जिसे एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है। इस मंदिर को वीरभद्र मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में भगवान शिव वीरभद्र रूप में स्थित है। यह मन्दिर कुर्मासेलम की पहाडियों पर कछुए की आकार में बना बना हुआ है।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण 16वीं सदी में विरुपन्ना और विरन्ना नाम के दो भाइयों ने कराया था, जो विजयनगर के राजा के यहाँ काम करते थे। 

मान्यताएँ जो भी हो लेकिन यहाँ की शिल्पकला और अद्भुत नक्काशी पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

विश्वप्रसिद्ध विशालकाय नंदी

इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर  शिवजी की सवारी नंदी की एक विशाल मूर्ति है। यह विश्व में नंदी की सबसे विशाल मूर्ति है। लंबाई 27 फीट व ऊँचाई 15 फीट के आसपास है।

विश्वप्रसिद्ध विशालकाय नागलिंग 

 यह विश्व का सबसे बड़ा नागलिंग है। दुनिया भर से लोग इस अद्भुत व विशाल नागलिंग को देखने आते हैं। यह शिवलिंग एक पहाड़ पर स्थित है जिसे एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसे स्वयंभू शिवलिंग के नाम से भी जाना जाता है। शिवलिंग के पीछे सात मुहँ वाला विशाल शेषनाग भी विराजमान है जो इसे और ज्यादा अद्भुत और विशाल रूप देता है।

लेपाक्षी मंदिर पर साड़ियों के डिजाइन

लेपाक्षी मंदिर की एक और विशेषता यह हैं कि यहाँ की दीवारों के भित्तिचित्रों पर शिव के विभिन्न रुपों के अलावा उस समयकाल के कई प्रकार के साड़ियों के डिजाइन भी बने हुए हैं। जिन्हें भारत ही नहीं बल्कि् देश-विदेश के साड़ियों के जानकर देखने और इनका विश्लेषण करने के उद्देश्य से यहाँ आते हैं। 

आज लेपाक्षी साड़ियाँ और डिजाइन पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

हनुमान जी और भगवान गणेश की विशालकाय मूर्ति जो एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई है भी यहाँ आने वाले सैलानियों का ध्‍यान आकर्षित करती है।

प्रेरकः सपने सच होंगे

  - निशांत

कहीं किसी शहर में एक छोटा लड़का रहता था। उसके पिता एक अस्तबल में काम करते थे। लड़का रोजाना देखता था कि उसके पिता दिन-रात घोड़ों की सेवा में खटते रहते हैं जबकि घोड़ों के रैंच का मालिक आलीशान तरीके से ज़िंदगी बिताता है और खूब मान-सम्मान पाता है। यह सब देखकर लड़के ने यह सपना देखना शुरू कर दिया कि एक दिन उसका भी एक बहुत बड़ा रैंच होगा जिसमें सैंकड़ों बेहतरीन घोड़े पाले और प्रशिक्षित किए जाएँगे।
एक दिन लड़के के स्कूल में सभी विद्यार्थियों से यह निबंध लिखने के लिए कहा गया कि ‘वे बड़े होकर क्या बनना और करना चाहते हैं’। लड़के ने रात में जागकर बड़ी मेहनत करके खूब लबा निबंध लिखा , जिसमें उसने बताया कि वह बड़ा होकर घोड़ों के रैंच का मालिक बनेगा। उसने अपने सपने को पूरे विस्तार से लिखा और 200 एकड़ के रैंच की एक तस्वीर भी खींचीव जिसमें उसने सभी इमारतों, अस्तबलों, और रेसिंग ट्रैक की तस्वीर बनाई। उसने अपने लिए एक बहुत बड़े घर का खाका भी खींचा , जिसे वह अपने रैंच में बनाना चाहता था।
लड़के ने उस निबंध में अपना दिल खोलकर रख दिया और अगले दिन शिक्षक को वह निबंध थमा दिया। तीन दिन बाद सभी विद्यार्थियों को अपनी कापियाँ वापस मिल गईँ। लड़के के निबंध का परिणाम बड़े से लाल शब्द से ‘फेल’ लिखा हुआ था। लड़का अपनी कॉपी लेकर शिक्षक से मिलने गया। उसने पूछा – “आपने मुझे फेल क्यों किया?” 
 शिक्षक ने कहा – “तुम्हारा सपना मनगढ़ंत है और इसके साकार होने की कोई संभावना नहीं है। घोड़ों के रैंच का मालिक बनने के लिए बहुत पैसों की जरूरत होती है। तुम्हारे पिता तो खुद एक सईस हैं और तुम लोगों के पास कुछ भी नहीं है। बेहतर होता यदि तुम कोई छोटा-मोटा काम करने के बारे में लिखते। मैं तुम्हें एक मौका और दे सकता हूँ। तुम इस निबंध को दोबारा लिख दो और कोई वास्तविक लक्ष्य बना लो , तो मैं तुम्हारे ग्रेड पर दोबारा विचार कर सकता हूँ”।
वह लड़का घर चला गया और पूरी रात वह यह सब सोचकर सो न सका। बहुत विचार करने के बाद उसने शिक्षक को वही निबंध ज्यों-का-त्यों दे दिया और कहा– “आप अपने ‘फेल’ को कायम रखें और मैं अपने सपने को कायम रखूँगा”।
बीस साल बाद शिक्षक को एक घुड़दौड़ का एक अंतरराष्ट्रीय मुकाबला देखने का अवसर मिला। दौड़ ख़त्म हुई, तो एक व्यक्ति ने आकर शिक्षक को आदरपूर्वक अपना परिचय दिया। घुड़दौड़ की दुनिया में एक बड़ा नाम बन चुका यह व्यक्ति वही छोटा लड़का था, जिसने अपना सपना पूरा कर लिया था।
कहते हैं यह एक सच्ची कहानी है। होगी। न भी हो तो क्या! असल बात तो यह है कि हमें किसी को अपना सपना चुराने नहीं देना है और न ही किसी के सपने की अवहेलना करनी है। हमेशा अपने दिल की सुनना है, कहने वाले कुछ भी कहते रहें। खुली आँखों से जो सपने देखा करते हैं उनके सपने पूरे होते हैं।

कहानीः आशंका

  - डॉ. परदेशीराम वर्मा


नेवरिया ठेठवार के आने बाद पंचायत प्रारम्भ होती है । 

पागा बाँधे, हाथ में तेंदूसार की लाठी लिए, वजनी पनही की चर्र-चर्र आवाज पर झूमते नेवरिया को देखकर बच्चे सहम जाते हैं । 

आज भी नेवरिया का प्रतीक्षा है । सब आ गए हैं । लोग जानते हैं कि पंचायत तो प्रारम्भ होती है नेवरिया के खरखारने के बाद और नेवरिया बियारी करने के बाद पहले एक घंटा तेल लगवाते हैं, उसके बाद ही गुँड़ी के लिए निकलते हैं । जैसे नेवरिया का शरीर मजबूत है, वैसे ही बात भी मजबूती से करते हैं । पंचायत के बीच नेवरिया की बात कभी नहीं कटती। जहाँ नेवरिया की बात कमजोर होने लगती है,  वहाँ उसकी लाठी चलती है । नेवरिया के पाँच लड़के हैं जवान ताकतवर । सबके हाथ में चमत्कारी लाठी हमेशा रहती है । खास तेंदूसार की लाठी । तेंदूसार के लड़की भइया सेर-सेर घिव खाय रे ।

नेवरिया खखारते हुए पाँचों लड़कों के साथ आ गए । सब चुप हैं । पीपल के पत्ते अलबत्ता डोल रहे हैं । उसमें बैठे कौए मगर एकदम चुपचाप हैं, शायद नेवरिया का भय उन्हें भी खामोश किए हुए है।

बीच में नेवरिया बैठे हैं, उनके चारों ओंर उनके लड़के । लड़कों के हाथ में लाठी है । लाठी में सेर-सेर घी पीने की तृप्ति है और तृप्ति के बावजूद किसी के भी सिर जम जाने की बेताबी है ।

नेवरिया के हुक्म से पंचायत शुरू हो जाती है । पंचायत हमेशा उनके हुक्म से ही शुरू होती है और उनकी हुंकार से खत्म होती है । कातिक नाई बीड़ी लेकर बीच में उनके पास जाता है, कभी वे एक बीड़ी निकाल लेते हैं, कभी कातिक को झिड़क देते हैं कि बात कितनी जरूरी चल रही है और तुमको बस फुकुर-फुकुर की सूझी है। डाँटना नेवरिया का काम है और डाँट पर हँसना पंचों का । जहाँ तक कातिक नाऊ का सवाल है, वह तो अपनी पीठ पर जब तक धौल नहीं पा लेता, कृतार्थ ही नहीं होता ।

आज खास नेवरिया के लिए पंचायत बैठी है । नेवरिया के लिए नहीं बल्कि उसके मझले लड़के जरहू के खिलाफ । यह तो जरहू की लाठी में बँधी पीतल की चकाचौध का कमाल है कि लोग सात माह से चुप हैं वरना ऐसी गलती अगर दूसरे किसी ने की होती तो उसे बहुत पहले ही मार-मुसेट कर दंडित कर दिया होता । मगर बिल्ली के गले में किसी ने घंटी बाँधी होती तो हमारे गाँव मे भी जरहू को ठिकाने लगा दिया गया होता । समरथ को नहीं दोष गुँसाई... जिसकी लाठी उसकी भैंस ।

गलती तो भूरी ने की कि आज उसने पंचायत बुलवा ली । अब दिन भी आखिरी है। पानी में गोबर करोगे तो एक दिन तो उसे उफलना ही है ।

सबसे पहले पूछा गया कि भई, पंचायत किस कारण एकत्र की गई है । कुछ देर की निस्तब्धता के बाद भूरी ने रूँधे गले से कहा, ददा हो, मैंने बुलाया है और फफक-फफककर रोने लगी। गुँड़ी चढ़ाकर भूरी अपने को अपमानित महसूस कर रही थी । उस दिन को कोस रही थी जब वह नेवरिया के लड़के के टेन में गोबर बीनने चली गई थी । बँभरी पेड़ के घने जंगल में टेन हाँककर नेवरिया के बेटे जरहू ने चोंगी सुलगा लिया । भूरी भी गोबर बीनकर घर जाने के लिए लौटने लगी तभी उसने देखा कि जरहू उसे बड़े मनोयोग से देख रहा है । भूरी थी भी तो गोरी नारी । बड़े-बड़े स्वजातीय गोंड़ आए, रजगोंड़ आए, मगर भूरी ने इनका कर दिया । अपने ढाई साल के इकलौते बेटे सुकलू को देख-देखकर भूरी अघा जाती थी । कुटिया-पिसिया करके सुकलू को पोसती हुई अपने स्वर्गीय पति लीभू की याद में सब दुख झेल रही थी । वह भरी जवानी में विधवा हो गई और चुरपहिरी जात की होने के बावजूद उसने चूरी पहनने से इनकार कर दिया । लोग उसकी इसीलिए इज्जत करते थे । छोटी जाति की होकर भी इतनी चारित्रिक दृढ़ता । यह स्त्री गाँव वालों के लिए श्रद्धास्पद थी । लीभू को मरे तीन साल हो गए, मगर भूरी ने कहीं भी हाथ लाम नहीं किया ।

बंभरी बन में अकेली जानकर जरहू ने उसे रोक लिया । भूरी तो सोच भी नहीं सकती थी कि दिन-दहाड़े कोई आदमी वैसी अनीयत कर सकता है । मगर जरहू तब आदमी नहीं, राक्षस बन गया था । उसने भूरी का सब कुछ छीन लिया । रोती हुई भूरी ने तब उसे कहा कि दो दिन पहले ही मुड़ मिंजाई हुई है, कुछ हो गया तो गोड़िन के साथ ठेठवार की जाति भी बिगड़ जाएगी । तब मूँछ पर हाथ फेरते हुए जरहू ने कहा था कि देख, मैं सब ठीक कर लूँगा । गाँव में कौन है जो हमारे सामने सर उठाकर चले और मुँह खोले, कुछ हो गया तो मैं तुम्हें सँभाल लूँगा । हाँ, इसकी चरचा कहीं मत करना और आज से मैं मरद के बच्चे की तर तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ, कोलिहा की तरह नहीं कि रात का हुआ-हुआ और सुरूज के साथ लुड़धुंग-लुड़धुंग ।

और भूरी मान गई थी । मानना ही पड़ता । यह तो जरहू की भलमनसाहत थी कि उसने उसे आश्वासन भी दिया । चाहता तो वहीं नरवा में मारकर फेंक सकता था । मगर दिलवाला है जरहू, प्रेमी भी है, ऐसा भूरी ने उस दिन मान लिया था । आज उसी प्रेमी की परीक्षा है । रूँधे स्वर में भूरी ने अपने सात माह के पेट में पल रहे बच्चे के बाप का नाम लिया । नाम भी नहीं लिया, उसने कहा, नेवरिया ददा के मँझला बेटा के ताय ।

इतना सुनना था कि नेवरिया उठ खड़े हुए । आँखें लाल हो गई । उन्होंने ललकार कर कहा, जरहू तो है सिधवा लड़का, सच-सच बता, तूने कैसे फाँसा उस भकला को ।

भूरी भी जानती थी कि पंचायत से सब कुछ कहना जरूरी है । उसने निडर होकर सब बता दिया । उसने यह भी बताया कि जरहू ने उतरवाने के लिए उस पर दबाव डाला । न जाने क्या कुछ पिलाया भी । मगर ठेठवार का बींद है, नहीं उतरा । अब आप सब कर दो नियाव ।

नेवरिया ने डांटकर चुप कराना चाहा, मगर भूरी ने मुँहतोड़ जवाब दिया । हाथ पकड़ने के समय तो गरज रहा था तुम्हारा बेटा कि कोई बात नहीं है । मुड़ मींजे हो तो भी सँभाल लूँगा । अब सँभालता क्यों नहीं, मुड़गिड़ा बना बैठा है पंचायत में ।

भूरी की बात जरहू के अंतस् में बरछी की तरह जा लगी । उसका हाथ लाठी पर चला गया, होंठ फड़कने लगे । आँखे ललिया गईं। किन्तु पंचायत तो पंचायत है, उसे चुप रह जाना पड़ा । अंत में तय हुआ कि गाय की पूँछ पकड़कर भूरी को स्वीकार करना होगा कि बच्चा जरहू के हाथ का ही है । बछिया लाई गई । भूरी उठ खड़ी हुई । ऊपर आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे । भूरी ने सोचा कि धरती फट जाती तो वह उसमें सीता की तरह जा समाती । मगर धरती फटी नहीं । भूरी को परीक्षा के लिए तैयार होना पड़ा ।

चारों ओर खामोशी थी । भूरी उठी । उसने साधकर कदम बढ़ाया और ज्यों ही वह बछिया के पास पहुँची, नेवरिया खड़े हो गए । उन्होंने चिल्लाकर कहा अधरमिन का क्या भरोसा । छोटी जात की औरत का भरोसा भी हम क्यों करें । यह जरूर छू देगी बछिया की पूँछी । चलो उठो ! हमें नहीं देखना है यह अधर्म । लोग उठने लगे लेकिन कुछ लोगों ने विरोध किया और अंत में बात पंचायत पर छोड़ दी गई । बहुत दिनों के बाद नेवरिया की पगड़ी धूल-धूसरित होने जा रही थी । गाँव भर में हर व्यक्ति की छोटी-छोटी गलतियों के लिए पनही लेकर पंचायत में उठ जाने वाले नेवरिया आज स्वयं अपराधी बने बैठे थे । अब कुछ नौजवान लड़कों की भी अपनी टोली बनने लगी थी ।
नेवरिया सब देख रहे थे । अत: पंचायत की बात उन्हें माननी पड़ी । नेवरिया को अंदाज नहीं था कि भीतर-ही-भीतर गाँव में किस तरह बदलाव आ गया है ।

अंत में पंचों ने फैसला सुना दिया कि भूरी को पोसने की जिम्मेदारी नेवरिया के मझले बेटे जरहू की होगी ।


पंचायत खत्म हो गई । भूरी पंचों को आशीष दे रही थी । लोग भी प्रसन्न थे । धर्म की विजय हुई थी, पापी दंडित हुआ था । एक नई शुरूआत हो गई थी । भूरी अपने आने वाले बच्चे के भविष्य के प्रति आश्वस्त हो गई थी । जरहू के रूप में अब उसके बच्चों को बाप मिल गया था; लेकिन बात इतनी सीधी नहीं थी ।

कुम्हारी और गाँव के बीच एक खरखरा नरवा है । गाँव भर की बरदी वहीं जाती हैं । बरदी चराने वाले राउत लड़कों ने एक दिन गाँव में आकर बताया कि भूरी ने बँभरी पेड़ में लटककर फाँसी लगा ली है ।

गाँव भर के लोग गए । भूरी को बँभरी पेड़ से उतारा गया । सबने आश्चर्यचकित होकर देखा कि भूरी के गले में भेड़ी रूआँ की मजबूत डोरी थी जिसे नेवरिया को बड़े मनोयोग से ढेरा पर आँटते हुए, फिर हाथ से बँटते हुए लोगों ने देखा था। देखा था और सराहा था कि नेवरिया के लड़के तो भेंड़ी-रूआँ कतरने में ही माहिर हैं, किन्तु डोरी बुनना तो केवल नेवरिया को आता है।

यह तो नेवरिया की रस्सी का कमाल है कि भूरी जैसी दुहरी देह की औरत उससे झुल गई और रस्सी का कुछ नहीं बिगड़ा। भूरी की गरदन जरूर टूट गई । नेवरिया दु:खी है तो केवल इसीलिए कि लाख समझाने पर भी उसके लड़के डोरी बनाने की कला नहीं सीख पाए । नेवरिया आशंकित है कि उनके बाद डोरी के अभाव में न जाने लड़कों को किन मुसीबतों का सामना करने पड़े ।

सम्पर्कः एल.आई.जी.-18, आमदी नगर, हुडको, भिलाई (छ.ग.) 490 009फोनः 0788-2242217, मोबाइल 98, 279-93494

कविताः रातों रात बदल गई नीयत...

  -  सुधा राजा


पत्थर चाकू लेकर सोए, गाँव शहर से परे हुए

रात पहरुए बरगद रोए, अनहोनी से डरे हुए

 

कब्रिस्तान और श्मशानों, की सीमाएँ जूझ पड़ीं

कुछ घायल, बेहोश, तड़पते, और गिरे कुछ मरे हुए

 

फुलझड़ियाँ बोईं हाथों पर, बंदूकों की फसल हुई

जंगल में जो लाल कुञ्ज थे, आज खेत हैं चरे हुए

 

पत्थर देकर बाजवान, काँगड़ी शिकारे छीन लिये 

फिरन जले,  कुछ बदन छिले, कुछ फटे गले खुरदुरे हुए 

 

रातों- रात बदल गई नीयत, दोस्त, मुसाफिर, भाई की 

चीनी, चावल, नमक बाँटते, ऊँचे घर हैं  गिरे हुए 

 

 लहू टपकते मुँह से बातें, प्यार मुहब्बत उल्फ़त की 

आदमखोर इबादतगाहों में बच्चे  खरहरे हुए 

 

सीने पर बारूद दिलों  में नफ़रत लेकर फटते गए 

हूरों के ख्वाबों में सत्तर टुकड़े लाखों झरे हुए 

 

मिल-जुलकर भी रह सकते थे, वतन कभी समझा होता 

मगर तुम्हारी ज़िद दुनिया को है बेगाना किए हुए 

 

रेशम की थैली में केसर, चाँदी वाली थाली पर

रक्त सने पंजों में जकड़े, पशमीने थरथरे हुए 

 

काराकोरम के पहाड़ से नाथूला के दर्रे तक 

बलिदानों की फसल बोई तब, दिखे शिकारे तरे हुए 

 

बारीकी से नक्क़ाशी कर, बूढ़े नाबीने लिख गए

पढ़कर कुछ हैरान रहस्यों के साये  छरहरे हुए 

 

रात -रात भर समझाती नथ, पायल, साहिल धोखा है

ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया,जब -जब सावन हरे हुए

 

कुल मर्यादा रीत -रिवाजों को ठुकराकर चली गई 

टुकड़े- टुकड़े मिली नदी के, पार मुहब्बत धरे हुए 

 

हिलकी भरकर मिलन रो पड़ा, सूखी आँख विदाई थी

वचन प्रेम को  सूली देकर, चला कंठ दिल भरे  हुए

 

ज्यों- ज्यों दर्द खरोंचे मेरी ,कालकोठरी पागल- सा

मेरे गीत जले कुंदन से, ‘सुधा’ हरे और खरे हुए


व्यंग्यः देखने का नया उपकरण

  - गिरीश पंकज
सुना है, इन दिनों उन्होंने लोगों को देखने के अपने उपकरण बदल लिए हैं । पहले तो वे अपनी दोनों आँखों से ही देखा करते थे । बिल्कुल समदृष्टि के साथ, जब वे कुछ भी नहीं  थे। मगर  जब से पदासीन हुए हैं, मदासीन भी हो गए हैं। अब वे आँखों से नहीं, कानों से देखने लगे हैं। अगर मुँहलगे विश्वसनीय चमचे कुछ कहते हैं तो उनको फौरन यकीन हो जाता है कि ये सही कह रहे होंगे। आप समझ गए न कि मैं छदामीराम की बात कर रहा हूँ । बड़े नेता हैं। अरे, इनको तो आप भी अच्छी तरह जानते हैं ! आपके ही आसपास तो कहीं रहते हैं । जब से उनको बड़ीवाली कुरसी मिली है, तब से वे भाव-विभोर होकर आँखें बंद ही रखते हैं। कोई खास महानुभाव  दिखे तो बिछ-बिछ जाते हैं, मगर आम लोगों को ठीक से देखते ही नहीं। कभी-कभार देखा भी तो घूर कर। सामने वाला डर जाता है। उनसे लाभ पाने की लालसा में लोग उनके आगे-पीछे दाएँ-बाएँ ठीक उसी तरह मँडराते रहते हैं, जैसे मक्खियाँ।  उनके कानों में आकर जिसने भी किसी के बारे में कुछ कह दिया, तो वे उसको ही सच मान लेते हैं। इस तरह वे कान से सुनते भी हैं और देखते भी हैं।

छदामीराम के बारे में जब यह अफवाह मैंने सुनी तो मैं प्रत्यक्ष अनुभव के लिए उनके पास चला गया। मैंने देखा, वे अपनी कुरसी पर विराजमान होकर मोबाइल को लगातार देखे जा रहे हैं। उनके अगल-बगल खड़े लोग उनके दाएँ और बाएँ कान में कुछ-न-कुछ फुसफुसाते और वे सहमति में अपनी एक अदद मुंडी हिला देते। अचानक उनकी नजर मुझ पर पड़ी । कंधे पर खादी का झोला लटका हुआ था, हाथ में कलम थी, तो वे समझ गए कि यह कोई पत्रकार टाइप का जीव है। मुझे धन्य करने के भाव से वे फौरन मुस्कराए और पास बुलाकर बैठने का संकेत किया।  पूछा- “किस अखबार से हैं”, तो  मैंने ईमानदारी से बता दिया कि ' दैनिक खण्डन टाइम्स ' से हूँ, जो सप्ताह में एक बार छपता-ही-छपता है । लेकिन अखबार को लोग खोज-खोज कर पढ़ते हैं।  पिछले दिनों एक मंत्री के घोटाले की खबर हमने छापी थी, जिसे हजारों लोगों ने पढ़ा था।”

मेरी बात सुनकर वे विचलित हो गए और कहने लगे, “अरे, आप लोग घोटाले की भी खबर छापते ही क्यों हैं? ऐसा मत किया करें बंधु, हम जैसे नेताओं की तारीफ करनी चाहिए। ऐसा करने से आपको विज्ञापन मिलेंगे। किसी का ट्रांसफर-प्रमोशन करवाना हो, तो मदद ले सकेंगे। ऐसा करने से आपके घर लक्ष्मी का प्रवेश होता रहेगा ।”

उनकी बात सुनकर मैंने कहा, “बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप । अब से ऐसा बिल्कुल नहीं होगा । आपने मेरे ज्ञान के कपाट अचानक खोल दिए। बताइए, और क्या चल रहा है ?”

वे कहने लगे, “सब ठीक-ठाक है, बंधु; लेकिन मैं इन दोनों शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ। हमारे  खास समर्थक बता रहे थे कि कुछ लोग मुझे कुरसी से हटाने की कोशिश में लगे हुए हैं ।”

मैंने कहा- “आप सुनी-सुनाई बातों पर यकीन कर लेते हैं, यह ठीक बात नहीं। पहले पता तो कीजिए कि जिन लोगों के बारे में कहा जा रहा है, उसमें कितनी सच्चाई है।”

मेरी बात सुनकर वे बोले, “अरे! इतना समय कहाँ है कि जाकर सच्चाई पता करें और जिन्होंने मेरे खिलाफ कुछ कहा है, उनसे जाकर पूछूँ कि क्या तुमने मेरे बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा है। मैंने तो अपने कुछ खास रत्न पाल रखे हैं । बड़े विश्वसनीय। वे जो कहते हैं, उसे मैं आँख मूँदकर मान लेता हूँ। उनके भरोसे रहता हूँ।  अब आँखों से नहीं, कानों से देखता भी हूँ और सुनता भी हूँ।”

उनकी बात सुनकर मैंने कहा, “यहीं तो मार खा जाता है इंडिया। आपको किसी की बातों में नहीं आना चाहिए। आप बड़े नेता हैं। आपको बड़प्पन भी रखना चाहिए । ' 'कौवा कान ले गया' कहने पर कौवे के पीछे भागना ठीक नहीं। अगर आपको लंबे समय तक टिके रहना है तो कान से सुनने की बजाय आँखों से देखकर निर्णय लेना चाहिए वरना जैसा कि इतिहास है, सुनी-सुनाई बातों पर निर्णय लेने वाले बहुत जल्दी इतिहास बन जाते हैं।”

मेरी बात सुनकर वे भयंकर गंभीर हो गए और कहने लगे, “आपकी बात में दम है। इस पर मैं विचार करूँगा।”

बातचीत चली रही थी कि तभी एक बंदे ने उनके कान में कुछ फसफुसाया। फुसफुसाहट मेरे कानों तक भी पहुँच गई। वह कह रहा था, “भैयाजी! इस लेखक-पत्रकार से बचकर रहना। बहुत खतरनाक है। अंट-शंट लिखता है।”

इतना सुनना था कि छदमीराम के तेवर बदल गए। वे फौरन खड़े हुए और  रूखे स्वर में बोले, “नमस्ते। मुझे कहीं और निकलना है। फिर मिलेंगे।”

मैंने भी मुस्कराते हुए हाथ जोड़ लिया।

सम्पर्कः सेक़्टर -3, एचआईजी - 2/ 2 ,  दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल : 87709 69574

नवगीतः महानगर

  -   रमेश गौतम


गौरैया भी

एक घोंसला रखले

इतनी जगह छोड़ना

महानगर।


खड़े किए लोहे के पिंजरे

हत्या कर

हरियाली की,

इतने निर्मम हुए कि

गर्दन काटी

फिर खुशहाली की;


पहले प्यास बुझे

हिरनों की

तब अरण्य से नदी मोड़ना

महानगर।


माटी के आभूषण सारे

बेच रहे हैं सौदागर

गर्भवती

सरसों बेचारी

भटक  रही है अब दर–दर

गेहूँ–धान

कहीं बस जाएँ तो

खेतों की मेड़ तोड़ना

महानगर।


फसलों पर

बुलडोजर

डोले

सपने हुए हताहत सब

मूँग दले छाती पर

चढ़कर

बहुमंजिली इमारत अब

फुरसत मिले कभी तो

अपने पाप–पुण्य का

गणित जोड़ना

महानगर।


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की तीन लघुकथाएँ

1. लौह-द्वार  

रात का अन्तिम प्रहर। नगर के प्रवेश-द्वार पर थपथपाहट का स्वर उभरा। द्वारपाल अर्धनिद्रा से हड़ाबड़ाकर जागा। फिर जोर की थपथपाहट।

‘‘अबे कौन आ मरा इस समय!’’

‘‘मैं हूँ हुजूर, आम आदमी!’’

‘‘यह कौन -सा समय है फ़रियाद करने का’’-लौहद्वार को बाहर की ओर धकेलकर खोलते हुए द्वारपाल झुँझलाया।

‘‘हुजूर, सत्यप्रकाश को शन्तिप्रिय ने मार दिया।’’- आम आदमी भयभीत स्वर में बोला।

‘‘क्यों मार दिया। सत्यप्रकाश ने कुछ ग़लत किया होगा। जो मर गया, उसको भगवान भी जीवित नहीं कर सकता। यहाँ क्यों आए हो?”

“न्याय मंत्री जी को सूचित करना था, ताकि वे शान्तिप्रिय के पागलपन पर रोक लगा सकें।’’

‘‘वे अभी सो रहे होंगे। तुम्हें इतनी जल्दी नहीं आना था।’’

‘‘शान्तिप्रिय पर शैतान सवार हो गया है। वह भीड़ लेकर उसके परिवार तक को मारने पर तुला है। उसको न रोका गया, तो अनर्थ हो जाएगा।’’-आम आदमी गिड़गिड़ाया।

‘‘इसमें मंत्री जी क्या कर सकते हैं। इस तरह कोई सीधे माननीय मंत्री जी के पास आता है क्या? क्यों मार दिया? सत्यप्रकाश ने कुछ ग़लत किया होगा।’’ -द्वारपाल ने उपेक्षा से कहा।

‘‘धरती गोल है, इतना ही तो बोला था।’’

‘‘क्या ज़रूरत थी यह सब बोलने की। इस तरह के बयान से शान्ति भंग होती है।”

‘‘आप मंत्री महोदय को खबर कर दीजिए।’’

‘‘इस समय वे फ़रियाद नहीं सुनते।’’- द्वारपाल ने टोका।

‘‘विशेष परिस्थितियों में सुनते हैं, अभी हाल ही में भोर में उन्होंने फ़रियाद सुनी थी।’’

‘‘आप ठहरे आम आदमी। आपकी पहुँच आपके मुहल्ले में भी नहीं। अगर होती, तो यह हादसा नहीं होता। आपको कोई क्यों सुनेगा? आपकी पहुँच किसी ऊपरवाले तक है, जो मंत्री जी से आपकी सिफ़ारिश कर दे।’’

‘‘मेरी पहुँच किसी ऊपरवाले तक नहीं है। मंत्री जी स्वतः संज्ञान भी तो ले सकते हैं।’’

‘‘ठीक है, घर में जाकर बैठो। स्वतः संज्ञान लेने की प्रतीक्षा करो।’’

चीखते हुए लौह- द्वार को द्वारपाल ने बलपूर्वक बन्द कर दिया।

2. अपराधी


वह
हँसता-खिलखिलाता और दूसरों को हँसाता रहता था। जो भी उसके पास आता, दो पल की ख़ुशी समेट ले जाता।

एक दिन किसी ने कहा, “यह तो विदूषक है। अपने पास भीड़ जुटाने के लिए यह सब करता है।” 

उसने सुना, तो चुप्पी ओढ़ ली। हँसना-हँसाना बन्द कर दिया। उसकी भँवें तनी रहतीं। मुट्ठियाँ कसी रहतीं। होंठ भिंचे रहते।

उसकी गिनती कठोर और हृदयहीन व्यक्तियों में होने लगी थी। वह सोते समय कठोरता का मुखौटा उतारकर हैंगर पर टाँग देता। उसके चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान थिरक उठती। पलकें बन्द हो जातीं। कुछ ही पल में गहन निद्रा घेर लेती।

“इतना घमण्ड भला किस काम का”, लोग पीठ पीछे बोलने लगे। उड़ते-उड़ते उसके कानों तक भी यह बात पहुँच गई।

वह मुँह अँधेरे उठा और सैर के लिए निकला। उसने अपना वह मुखौटा गहरी खाई में फेंक दिया।

लौटते समय वह बहुत सुकून महसूस कर रहा था। उसे रास्ते में एक बहुत उदास व्यक्ति मिला। उससे रहा नहीं गया। वह उदास व्यक्ति के पास रुका और उसका माथा छुआ। ताप से जल रहे माथे पर जैसे किसी ने शीतल जल की गीली पट्टी रख दी हो।

देखते ही देखते उसका ताप गायब हो गया। उदास व्यक्ति फूल की तरह खिल उठा।

अगले दिन रास्ते में एक अश्रुपूरित चेहरा सामने से आता दिखाई दिया।

उससे रहा न गया। वह उस चेहरे के पास रुका। द्रवित होकर उसने अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछ दिया। उसके बहते खारे आँसू गायब हो गए। दिपदिपाते चेहरे पर भोर की मुस्कान फैल गई।

किसी ने कहा, “जिसका माथा छुआ और आँखे पोंछी, वह एक दुःखी बच्चा था।”

किसी ने कहा- “वह जीवन से निराश कोई युवा था।”

किसी ने कहा- “वह कोई स्त्री थी।”

दस और लोगों ने कहा- “वह सुंदर स्त्री थी।”

शाम होते-होते भीड़ ने कहा, एक लम्पट व्यक्ति ने सरेआम एक महिला को जबरन छू लिया।

अगले दिन उस व्यक्ति का असली चेहरा चौराहे पर दबा-कुचला हुआ पड़ा था। फिर भी उसके होंठों से मुस्कान झर रही थी।

पोंछे गए आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे। उसका माथा ज्वर से तप रहा था। लोग कह रहे थे, “उसने आत्महत्या की है।”

3. असभ्य नगर 

जंगली कबूतर जब बरगद की डाल छोड़कर शहर में निवास करने के लिए जाने लगा, तब उल्लू से नहीं रहा गया। उसने टोका– "जंगल छोड़कर क्यों जा रहे हो?"

"मैं बेरहम और बेवकूफ लोगों के बीच और नहीं रह सकता। तंग आ गया हूँ मैं सबसे।" कबूतर गुस्से से बोला।

"कहीं शेर, हिरन पर झपट रहा है, कहीं भेड़िया खरगोश के प्राण लेने पर तुला है। कितने क्रूर एवं असभ्य हैं सब! उल्लू को सारी दुनिया बेवकूफ मानती है।"

"शहर में भी तुम्हें इनकी कमी नहीं अखरेगी।" उल्लू हँसा। कबूतर सुनकर झुँझलाया और शहर की तरफ उड़ गया।

दो दिन बाद वही कबूतर उसी बरगद की डाल पर गर्दन झुकाए उदास बैठा था। उल्लू पास खिसक आया–"शहर में मन नहीं लगा क्या?"

लज्जित–सा होकर कबूतर बोला– "मेरा भ्रम टूट गया। शहर में आदमी को आदमी जब चाहता है, कत्ल कर देता है। रोज के अखबार हत्या, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी के समाचारों से भरे रहते हैं। आदमी तो जानवर से भी ज़्यादा जंगली और असभ्य है।"

उल्लू ने कबूतर को पुचकारा–"मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं। तभी तो ऋषि–मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे।"

संस्मरणः आह से वाह होने लगी ज़िंदगी

  - कृष्णा वर्मा

सुना था अलसुबह का सपना सच्चा होता है। इस बात का पूर्ण विश्वास तब हुआ जब एक भोर किसी अदृश्य की आवाज़ आई कि तुम्हारी बहू उम्मीद से है। सुनकर विश्वास नहीं हो रहा था । बस उस आवाज़ को सुनने के बाद मेरी नींद फुर्र हो गई। सुबह होने का इंतज़ार लम्बा लग रहा था। जैसे ही सुबह हुई, नित्य की तरह बहू चाय का प्याला लेकर आई। बहू पर अनजाने ही प्यार उमड़ रहा था और पूछ लिया, क्या कोई ख़ुशख़बरी है। वह हैरान- सी मेरा मुँह ताकती रही। उसके चेहरे पर भीनी- सी मुस्कान तैर आई । फिर ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना ही न था; क्योंकि पौत्र के आने के आठ साल बाद दोबारा ख़ुशी मिल रही थी। कुछ समय पश्चात् एक नन्ही- सी परी ने परिवार को पूर्ण कर घर में उजाले भर दिए। दिनोंदिन बढ़ती बिटिया के साथ-साथ मैं भी बड़ी हो रही थी। 

मैटरनिटी लीव समाप्त होते ही बहू अपने काम पर जाने लगी और गुड़िया पूरे समय मेरे ही साथ रहती। गोद से बड़ी हो गई, तो कंधे से सटकर बैठी खेलती रहती। ज़ुबान लगते ही अपनी तोतली भाषा में प्यारी-प्यारी बातों से मन मोहने लगी। दिन कब पर लगाकर उड़ जाता था, पता ही न चलता था। कभी वह मेरे साथ बॉल खेलती, कभी रंग-बिरंगे चित्रों वाली पुस्तकें पलटती, तो कभी ढेर सारे गुब्बारे फुलवाती, उनपर धागे बँधवाती और जहाँ तक उसके छोटे-छोटे हाथ पहुँचते, पंजों के बल उचकर  टेप लगवाकर दीवारों पर चिपका देती और खूब ख़ुश होती। वसंत की नई कोंपल- सी नाज़ुक मेरी गुड़िया जब से जीवन में आई, जीवन खिल उठा था। आँखों में नई चमक, त्वचा कांतिमान होने लगी और मरते स्वप्न पुन: जीवित हो चले। किसी संजीवनी पवन- सी जीवनदायिनी ने आकर मेरी उम्र को ही पछाड़ दिया। 

यही सब करते कराते उसके स्कूल जाने की उम्र हो गई। कब वह मेरा दायाँ हाथ बनती गई,  पता ही न चला। मुझे कोई भी काम करते देखकर अंग्रेज़ी में कहती है- "दादी मुझे भी करने दो।” मेरे समझाने पर कि तुम अभी पढ़ो- लिखो, बड़े होकर सीखना,  तो उदास सा होकर आँखें नम करती हुई कहती है- आप तो बूढ़ी हो रही हो। अगर आप कभी फ़ाइनल गुड बॉय कर गईं, तो मैं आप जैसी कैसे बनूँगी। मुझे तो दादी आप जैसा बनना है”- कहकर कसके गले लग जाती है। प्रतिदिन स्कूल से आने बाद किसी एक एक्टीविटी की क्लास के लिए जाती है। हिरनी- सी उछलती-कूदती कभी जिमनास्टिक तो कभी टाइकोंडो के जौहर दिखाती है। कभी पियानों पर धुन बजाकर लुभाती है, तो कभी आर्ट क्लास में सीखे आर्ट वर्क से  मन मोहती है। मेरे साथ खाना, मेरे साथ सोना और होमवर्क भी मेरे साथ बैठकर ही करती है। सोने से पहले स्कूल में घटित दिनभर के किस्से सुनाती है। कभी नए सीखे अंग्रेज़ी गाने सुनाती है। जब नींद घेरने लगती,  तो गुडनाइट बोलकर मेरा हाथ पकड़कर कहती है- ‘‘आप मेरी बैस्ट फ़्रैंड हैं।’’

जब कभी मेरी तबीयत ख़राब हो जाए, तो माँ की तरह मेरा माथा सहलाती है। और अंग्रेज़ी में सांत्वना भी देती है, ‘‘फ़िकर न करो दादी आप जल्दी ठीक हो जाओगे। मैं आपका लुक आफ़्टर करूँगी।’’

 मेरे बैड की साइड-टेबुल के दराज़ में रखी सभी दवाओं से परिचित है छोटी- सी प्यारी सी मेरी नर्स। सब जानती है किस तकलीफ़ में कौनसी गोली लेती हूँ मैं। बाक़ायदा दवाई और पानी देती है। अगर कंधे- गर्दन में दर्द है, तो छोटे-छोटे हाथों से मरहम मलती है, कंधे दबाती है, हीटिंग पैड लगाती है। फिर कुशल निर्देशिका की तरह लैपटॉप और सेलफ़ोन बंद करके मेज़ पर रख देती है और पलंग पर आँखें मूँदकर लेटने का आदेश देते हुए कम्बल ओढ़ाती है। यदि मुझे वॉशरूम जाना हो, तो मेरे उठते ही मुझे चप्पल पहनाती है। मेरा हाथ पकड़कर छोड़ने भी जाती है। मैं यह जानते हुए भी कि ख़ुद जा सकती हूँ; लेकिन उसके प्यार और अहसास का मान रखते हुए उसका हाथ थाम लेती हूँ। उस समय उसके प्यार- भरे नन्हे हाथ मुझे कितना मजबूत सहारा लगते हैं!

सात वर्ष की उम्र तथा औरों के प्रति इतना प्रेम और चिंता करते देखकर मेरा रोम-रोम उसके पल-पल सुखद जीवन की दुआएँ करता है। बेटों की माँ होने के कारण बेटियों के प्यार की इतनी गहराई का अहसास मुझे कभी हो ही नहीं पाया। पौत्री को पाने के बाद ही पता चला कि लोग क्यों कहते हैं कि बेटियाँ ईश्वर का अनोखा उपहार होती हैं! प्रेम का निर्झर, प्राणों से प्यारी है मुझे मेरी पौत्री नन्दिनी।

कविताः बनाये घर

 - डॉ. शैलजा सक्सेना 


उसने पहाड़ की सुन्दरता गाई,

भर गया उनकी भव्यता के भाव से

फिर बम लगा तोड़ा पहाड़ 

भरकर आत्मीय भाव से चूम लीं फ़सलें

फिर डाली बजरी, गर्म तारकोल 

बनाए अपने घर।


उसने परिवार को माना धुरी जीवन की,

संबंधों पर लिखे महाकाव्य

फिर कानूनी सम्मन भिजवाए भाइयों को


अब डर लगता है उसके प्यार से

अगली बार किसको अपनाएगा,

देखेगा नज़र भर,

फिर तोड़ेगा उसको ही अपने प्रहार से।

बनाए अपने घर।


उसने जंगल को निहारा,

भर गया उनके रहस्य-दर्शन भाव से

फिर काटा पेड़ों को 

बनाए  अपने घर।


उसने धरती को कहा ‘माँ’