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Nov 27, 2010

उदंती.com, नवम्बर 2010


उदंती.com,
वर्ष 3, अंक  3, नवम्बर 2010
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जो दीपक को अपने पीछे रखते हैं वे अपने मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं।
- रवींद्रनाथ टैगोर
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मार्गदर्शी दीपकों की दिव्य ज्योति

मार्गदर्शी दीपकों की दिव्य ज्योति
-डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले कुछ महीनों से देश पर भ्रष्टाचार के घोटालों के काले घने बादल छाये थे। देश का आम नागरिक दिन प्रति दिन खुलते इन हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों जैसे जी-2 टेलीकाम घोटाला, कामनवेल्थ गेम्स घोटाला, मुम्बई की आदर्श सोसायटी घोटाला इत्यादि से घोर अवसाद में डूब गया था। ऐसे में स्वाभाविक था कि भ्रष्ट सरकारों की अंतरराष्ट्रीय लिस्ट में हमारे देश का नाम और नीचे गिरकर 87वें स्थान पर आ गया। भ्रष्टाचार की इस अमावस्या के बीच अचानक हमारे समाज से मानवता की उत्कृष्टता के दो दीप जगमगा उठे और उनके प्रकाश से मन के अवसाद का अंधियारा दीपावली के अनुरूप छंट गया और आशा एवं विश्वास की किरणें फूट पड़ीं।
मानवता की पहली मार्गदर्शी दीप है महाराष्ट्र के करजत तहसील की एक साहसी महिला जिसने अपने रिश्वतखोर पति की पोल खोलकर एक मिसाल कायम की है। उसका भ्रष्ट पति गणेश विष्णु कमांकर जो इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टैक्नालॉजी में पढ़ाता था और कालेज के छात्रों से पैसे लेकर अपने घर पर ही परीक्षा कॉपियां लिखवाने का धंधा चलाता था। गणेश और अपर्णा की शादी इसी वर्ष 14 जुलाई को हुई थी। शादी के कुछ दिन बाद ही अपर्णा को उस समय झटका लगा जब गणेश घर पर नोटों की गड्डियां लेकर आने लगा। अपर्णा के पूछने पर उसने बताने से इंकार कर दिया। लेकिन एक दिन अपर्णा को अपने सवालों का जवाब तब मिल गया जब कुछ छात्र उसके घर पहुंचे और परीक्षा की खाली कॉपियां भरने लगे। अपर्णा ने गणेश को समझाने की कोशिश भी कि वह यह सब छोड़ दे और कहा कि उसका जितना भी वेतन है वह उससे ही घर का खर्च चला लेगी। लेकिन गणेश नहीं माना।
इस तरह एक दिन जब वह 2 लाख रुपए लेकर घर पहुंचा तो अपर्णा का धैर्य जवाब दे गया। उसने अपने पति को सबक सिखाने की ठान ली। अपर्णा ने घर में वे पैसे रखने से मना कर दिया और चेतावनी दी कि वह अपना रास्ता बदल ले। इस पर गणेश ने अपर्णा को पीटा और उसे घर से निकाल दिया। इस मार- पीट से अपर्णा का गर्भपात भी हो गया। घर से निकलने से पहले अपर्णा ने कुछ खाली परीक्षा कॉपियां, मुंबई यूनिवर्सिटी की सप्लीमैंट कापियां, दो कॉलेजों की परीक्षा सील तथा परीक्षा से संबंधित कुछ अन्य दस्तावेज अपने साथ रख लिए और कल्याण पुलिस के पास सभी दस्तावेज लेकर पहुंच गई। अपर्णा की इस शिकायत पर पुलिस ने 24 वर्षीय टीचर गणेश विष्णु कमांकर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया।
मानवता के दूसरे जगमगाते दीप एक ऐसे माता- पिता हंै जिन्होंने शैतान बने अपने जिगर के टुकड़े के खिलाफ अदालत में गवाही दी और उनकी इस गवाही के आधार पर पत्नीहंता उनके पुत्र को दस साल कैद की सजा मिली।
उत्तर प्रदेश के जिला रामपुर शहर कोतवाली क्षेत्र के मुहल्ला खारी कुआं, धोबियों वाली गली में रहने वाला अच्छन खां नशे का आदी था। वह अक्सर पत्नी फहमीदा से मारपीट करता था। 31 दिसंबर 2008 को दोपहर 12 बजे अच्छन ने अपनी पत्नी को बेरहमी से पीटा। उसके पैर पकड़कर घसीटते हुए पहले छत पर ले गया और घसीटते हुए ही नीचे लाया। अच्छन के पिता बच्छन और मां हमीदन ने बहू को बचाने की कोशिश की तो उसने मां- बाप को भी पीटा। अच्छन ने अपनी मां और पिता के सामने ही जूतों समेत पत्नी के सीने पर चढ़कर पहले पिटाई की और बाद में गला दबाकर उसकी हत्या कर डाली। घटना की रिपोर्ट उसके पिता बच्छन खां ने ही दर्ज कराई।
बेहद गरीब बच्छन खां और उनकी पत्नी हमीदन 70 की उम्र पार कर चुके हैं। माता- पिता ने बिगड़ैल बेटे अच्छन की शादी फहमीदा से यह सोच कर की थी कि वह सुधर जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कातिल बेटे को सजा दिलाकर बूढ़े मां- बाप बोले कि वे अदालत में झूठ बोलकर बेटे को बचा तो लेते पर एक दिन परवरदिगार के पास सभी को जाना है, वहां अपनी बेटी जैसी बहू फहमीदा को क्या जवाब देते? इसलिए अदालत में सिर्फ वही बोला, जो आंखों से देखा और सच था। उन्हें अपनी एकमात्र संतान को सजा होने का कोई मलाल नहीं है उसे फांसी भी हो जाती तो भी गम नहीं था।
वर्तमान परिस्थितियों में वास्तविकता तो ये है कि ये दोनों ही घटनाएं हमारी युवा पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हैं। अतएव इन दोनों वृत्तांतों को स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबों में स्थान दिया जाना चाहिए। ये ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें हमारे बालक- बालिकाओं को पढ़ाया जाना चाहिए जिनसेे सबक लेकर वे भारत के लिए आदर्श नागरिक बनें। देश के लिए अच्छा काम करने वालों को पुरस्कार और मेडल देकर उनके कार्यों को सराहा जाता है, लेकिन ऊपर मानवीय चरित्र के जो दो उदाहण दिए गए हैं उन्हें हासिएं पर रख दिया जाता है। जबकि वास्तव में पद्मश्री इत्यादि जो तमाम अलंकरण बांटे जाते हैं उनमें सर्वोच्च अलंकरण पाने के असली हकदार अपर्णा, हमीदन और बच्छन जैसे लोग ही हैं ।
भ्रष्टाचारियों ने तो देश का दीवाला निकाल दिया जबकि इन तीन आम नागरिकों ने हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को दीपावली के प्रकाश में जगमगा दिया। अत: आइए रोशनी के इस त्यौहार पर इन दोनों घटनाओं से प्रेरणा लेते हुए हम भी कोशिश करें कि मरती जा रही मानवीयता के इस दौर में समाज और देश में फैल रहे भ्रष्टाचार, अपराध और कुरीतियों के विरूद्ध आवाज उठाएं और सबके दिलों को रोशन करें।

उदंती के सुधी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं।


समय की जरूरत है छत्तीसगढ़ रेजीमेंट

समय की जरूरत है
 छत्तीसगढ़ रेजीमेंट
- डॉ. परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ़ के बेहद लोकप्रिय कलाकार हैं शिवकुमार दीपक वे प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म से लेकर आज तक की फिल्मों में अपना महत्व बनाए हुए हैं। वे मंच पर छत्तीसगढ़ रेजीमेंट के जनरल का एकाभिनय करते हैं। छत्तीसगढ़ के दर्द को हल्के-फुल्के अंदाज में व्यक्त करते हुए वे छत्तीसगढ़ रेजीमेंट की कमी को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करते हैं।
अव्वल और विश्वसनीय छत्तीसगढ़ के नाम पर सेना का कोई रेजीमेंट नहीं है। जाट रेजीमेंट, आसाम राइफल, सिक्ख रेजीमेंट, बिहार, बंगाल, राजस्थान, डोगरा इस तरह सब के नाम पर रेजीमेंट्स हैं। मैं स्वयं 1966 से 1969 तक आसाम राइफल्स में राइफलमैन आपरेटर रेडियो एंड लाइन के पद पर काम कर चुका हूं। किसी प्रदेश या समुदाय के नाम पर गठित सेना से संबंधित लोगों का गर्वित होना स्वाभाविक है। उसी तरह उसके अभाव में हतोत्साहित होना भी स्वाभाविक है। अभी हाल ही में रायपुर पुलिस परेड ग्राउंड में सेना का सम्बलकारी प्रदर्शन हुआ। इससे प्रदेश और देश का मनोबल ऊपर उठता है। यह संदेश जाता है कि हम शक्तिशाली हैं। देश हर स्थिति, आपदा, संकट से निपटने में सक्षम है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व के इन सात वर्षों में कई यादगार और इतिहास में सदा के लिए अमिट छाप छोडऩे वाली उपलब्धियां छत्तीसगढ़ के नाम दर्ज हुई हंै।
उन्होंने 23.10.10 को अपने उद्बोधन में छत्तीसगढ़ की चिरसंचित अभिलाषा को स्पष्ट करते हुए कहा कि सेना बनाए छत्तीसगढ़ रेजीमेंट। उनके उद्बोधन का यह ऐसा अंश है जिससे उनकी अध्ययन प्रियता और छत्तीसगढ़ के यश के लिए निरंतर प्रयास परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ रेजीमेंट क्यों हो, यह चिंता डॉ. खूबचंद बघेल अपने नाटक 'जनरैल सिंह' में व्यक्त कर हम सबको आंदोलित करते रहे हैं। यह नाटक खूब लोकप्रिय हुआ।
संत कवि पवन दीवान की पंक्तियां हैं ...
छत्तीसगढ़ में सब कुछ है, पर एक कमी है स्वाभिमान की, मुझसे सही नहीं जाती है, ऐसी चुप्पी वर्तमान की।
संत कवि पवन दीवान, डॉ. खूबचंद बघेल छत्तीसगढ़ भातृसंघ के स्वतंत्र एवं विशिष्ट चिंतक थे।
छत्तीसगढ़ रेजीमेंट के निर्माण की चिंता
छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान की चिंता ही है।
अंग्रेजों ने लड़ाका जातियों और दबंग प्रदेशों के नाम पर रेजीमेंटों का निर्माण किया। छत्तीसगढ़ एक शांत और अल्प संतोषी प्रदेश है। लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य के विकास का एक दशक पूरा हो रहा है। ऐसे अवसर पर निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ रेजीमेंट के गठन की दिशा में विचार देकर मुख्यमंत्री जी ने महत्वपूर्ण कार्य किया है।
डॉ. खूबचंद बघेल ने 1967 के अपने भाषण में कहा है कि एक बात निश्चित है कि ऐसे मौके पर हमारे कदम विपरीत दिशा में पड़े तो इसका अनुचित लाभ शोषक और विघटनकारी वर्ग उठाएगा।
लेखक स्वयं 1966 से 1969 तक आसाम राइफल्स में राइफलमैन आपरेटर रेडियो एंड लाइन के पद पर काम कर चुके हैं। उनकी यह तस्वीर उसी समय की है।
आज विघटनकारी वर्ग अपना चेहरा बदलकर पूरी योजना के साथ काम कर रहा है। पंजाब में लोगों ने विघटनकारियों का बुना हुआ जाल समाप्त किया। आसाम, मिजोहिल, नागालैंड में शांति की बहाली हुई। इन प्रांतों ने अंधकार भरा दौर तो देखा मगर धीरे- धीरे वे अंधकार के सुरंग से रोशनी के जनपथ की ओर बढ़ गए। संयोग देखिए कि इन राज्यों के नाम पर रेजीमेंट भी हैं। सिक्ख और पंजाब दोनों ही नाम से रेजीमेंट हैं। राजपुताना, जाट, महार इत्यादि समुदायों के नाम पर भी रेजीमेंट हैं। छत्तीसगढ़ रेजीमेंट नहीं है, इस व्यथा को न केवल डॉ. बघेल ने व्यक्त किया बल्कि लगातार अन्य लोगों ने भी इस दर्द को अपने- अपने माध्यम से अभिव्यक्त किया।
छत्तीसगढ़ के बेहद लोकप्रिय कलाकार हैं शिवकुमार दीपक वे प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म से लेकर आज तक की फिल्मों में अपना महत्व बनाए हुए हैं। वे मंच पर छत्तीसगढ़ रेजीमेंट के जनरल का एकाभिनय करते हैं। छत्तीसगढ़ के दर्द को हल्के-फुल्के अंदाज में व्यक्त करते हुए वे छत्तीसगढ़ रेजीमेंट की कमी को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करते हैं।
प्रदेश अब तमाम उपलब्धियों के लिए चिन्हित हो रहा है। समृद्ध भाषा छत्तीसगढ़ी का अपना गौरवशाली स्थान है। छत्तीसगढ़ के कलमकार, साहित्यकार, चिकित्सक, सामजसेवी उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रीय सम्मान से लगातार नवाजे जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के जवान पुलिस में भर्ती होकर संकट के इस दौर में अपना पराक्रम दिखाकर सिद्ध कर रहे हैंं कि अगर उनके प्रदेश के नाम पर भी सेना हो तो वह भी गौरवशाली रेजीमेंट के रूप में स्थापित होगा। प्रदेश के नाम पर रेजीमेंट बनने से अंचल के लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। राष्ट्रीय एकता की मिसाल भी ऐसे रेजीमेंट पेश करते हैं। हर रेजीमेंट में दूसरे प्रांतों के जवान भी होते हैं मगर प्रांत विशेष के जवानों के लिए उसे अधिक अनुकूल पाया जाता है। अफसर तो प्राय: दूसरे प्रांत और जाति के ही पाये जाते हैं। प्रांत या जाति के नाम पर बने रेजीमेंट संस्कृति, खानपान, जीवन के भिन्न- भिन्न रंगों को भी व्यक्त करते हैं।
देश को आजाद हुए बासठ वर्ष हो गए। इस बासठ वर्षों में कई ताकतवार रेजीमेंटों का विकास हुआ। खुद आसाम राइफल्स, नागा बटालियन जैसे जाने कितने रेजीमेंट्स आजादी के बाद बने।
नागा लोगों की जाबांजी से छत्तीसगढ़ खूब परीचित है। उसी तरह छत्तीसगढ़ रेजीमेंट बनने का अवसर अब आ गया है। दस वर्षों में पाई गई गौरवशाली उपलब्धियों में एक यह उपलब्धि भी आगे चलकर जुड़ जाय, वह वक्त का तकाजा भी है और भावनात्मक जरूरत भी।
पता- एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494

बूंदें संजोकर बुझाई प्यास

बूंदें संजोकर बुझाई प्यास
- भारत डोगरा
राजस्थान में पेयजल के अभाव से त्रस्त लगभग 600 स्कूलों में परंपरागत टैंकों के निर्माण का सराहनीय कार्य भी केन्द्र ने किया है। अजमेर जिले के टिकावड़ा गांव में बच्चे प्यास से त्रस्त रहते थे तो पढ़ाई में ध्यान कैसे लगाते? केंद्र ने स्कूल की छत के पानी के भूमिगत स्टोरेज के लिए साफ टैंकों का निर्माण किया।
राजस्थान प्राय: सूखे से त्रस्त रहता है, पर इस वर्ष राज्य के अनेक क्षेत्रों में अच्छी वर्षा हुई है। सवाल यह है कि क्या वर्षा की इन अमूल्य बूंदों को सूखे समय के लिए बचाने का पर्याप्त प्रयास हो रहा है? राजस्थान की एक संस्था सामाजिक कार्य व अनुसंधान केन्द्र वर्षा जल के संरक्षण का भरपूर प्रयास कर रही है। अजमेर जिले के सलोरा- किशनगढ़ ब्लॉक व आसपास के कुछ क्षेत्रों में इस संस्था ने बूंद- बूंद पानी बचाने का काम अनेक गांवों व स्कूलों में किया है।
संस्था ने जल- संरक्षण कार्य की शुरुआत अपने गांव स्थित कैंपस से ही की है। परिसर में जगह- जगह गड्ढे खोदकर जल रोकने का काम किया गया व पहाडिय़ों पर हरियाली भी पनपाई गई। इसके चलते पहाड़ पर ही काफी पानी रुक जाता है। जो पानी परिसर की ओर बहता है उसे कुएं में एकत्र किया जाता है। सिंचाई में पानी की बचत के लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग होता है। सभी भवनों की छत पर गिरने वाले वर्षा जल को पाइप के माध्यम से टैंकों में एकत्र किया जाता है।
इन जल- संरक्षण संग्रहण प्रयासों का परिणाम यह है कि गर्मी के दिनों में जब पास के गांव के हैंडपंप सूख जाते हैं, यहां के हैंडपंप में पानी आता रहता है। यह एक उदाहरण बन गया है। अनेक गांवों में संस्था के सहयोग से वर्षा के जल को उपयोग में लाने के लिए कुओं की ओर मोडऩे का कार्य किया गया है जिससे भूजल ऊपर उठे और सूखे कुओं व हैंडपंप में फिर से पानी आने लगे।
कदमपुरा गांव में इस कार्य से लोगों को बहुत राहत मिली। खारे व फ्लोराइड युक्त पानी के कारण गांव के लोगों को 3 कि.मी. दूर से 300-400 रुपए प्रति टैंकर की दर से पानी मंगवाना पड़ता था। जल संरक्षण के बाद पानी खरीदने की यह मजबूरी बहुत कम हो गई है। इस प्रयास के अन्तर्गत एक नाडी (छोटा तालाब) बनवाई गई व उसके बाद एक छोटा कुआं भी। नाडी में वर्षा का जल एकत्र किया गया व कुएं ने बेहतर व शीघ्र रीचार्ज की भूमिका निभाई। पशु तो सीधे नाडी से ही पानी पी लेते हैं, पर एक प्रमुख लाभ यह हुआ कि मीठे पानी के एक कुएं में भी फिर से पानी आ गया।
पहले दलित परिवारों के पानी लेने पर कुछ रोक थी, पर संस्था का सिद्धांत तो पूरी समानता का है। अत: उनकी सहायता प्राप्त योजना में ऐसी कोई रोक- टोक सहन नहीं की जाती है। इससे सबसे गरीब परिवार तक लाभान्वित होते हैं। फलौदा गांव में जहां पाइप से पानी पहुंचाने में संस्था ने सहायता की, वहां भी दलित व निर्धन परिवारों की जरूरतों का विशेष ध्यान रखा गया।
कोटडी जैसे गांव में जहां खारे पानी की समस्या बहुत विकट है, वहां सामाजिक कार्य व अनुसंधान केन्द्र व सहयोगी संस्था मंथन ने रिवर्स ऑस्मोसिस संयंत्र लगाया है। इस संयंत्र में प्रति मिनट 10 लीटर मीठा पानी प्राप्त किया जा सकता है। मीठा पानी पीने के काम आता है व शेष पानी का उपयोग बर्तन धोने आदि कामों में हो जाता है।
राजस्थान में पेयजल के अभाव से त्रस्त लगभग 600 स्कूलों में परंपरागत टैंकों के निर्माण का सराहनीय कार्य भी केन्द्र ने किया है। अजमेर जिले के टिकावड़ा गांव में बच्चे प्यास से त्रस्त रहते थे तो पढ़ाई में ध्यान कैसे लगाते? केंद्र ने स्कूल की छत के पानी के भूमिगत स्टोरेज के लिए साफ टैंकों का निर्माण किया। पाइप के जरिए बारिश के पानी को यहां तक पहुंचाया जाता है। शुरू में जो मिट्टी भरा पानी आता है, उसे बाहर कर दिया जाता है। फिर जो साफ पानी आता है उसे फिल्टर लगी इनलेट के माध्यम से टैंकों में स्टोर किया जाता है। टैंक के ऊपर हैंडपंप लगा है। फरवरी- मार्च में जब इनमें जल समाप्त होने लगता है तो टैंकर मंगवा कर इन्हें भरवा लिया जाता है। पानी उपलब्ध होने पर छात्राओं व महिला अध्यापिकाओं के लिए शौचालय बनवाना भी संभव हो पाया।
अजमेर- नागौर जिलों की सीमा के पास प्रवासी मजदूरों के बच्चों का एक स्कूल भी हमने देखा जो बिना भवन के ही चल रहा है। जब स्कूल की बिल्डिंग ही नहीं है तो छत से पानी एकत्र कैसे हो? इस स्थिति में धरती पर जल ग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट तैयार कर वर्षा के पानी के स्टोरेज की व्यवस्था की गई है। खारे पानी का क्षेत्र होने के कारण यह इन बच्चों के लिए विशेष तौर पर उपयोगी है। टैंक का उपयोग कई बार बच्चे चबूतरे के तौर पर भी कर लेते हैं या सर्दी में यहां छोटी सी क्लास भी लग सकती है। टैंक पर एक ब्लैक बोर्ड भी लगा दिया गया है। केंद्र ने अन्य सार्वजनिक स्थलों व प्रशिक्षण केंद्रों में भी जल- संग्रहण का उपयोगी कार्य किया है। पहले सलोरा- किशनगढ़ ब्लॉक के आसपास केंद्रित यह काम अब बाड़मेर, राजसमंद, सीकर जिलों के अलावा पश्चिम बंगाल व सिक्किम में भी फैल गया है। अब तक वर्षा जल संग्रहण के 4 करोड़ लीटर क्षमता के टैंक बने हैं। लगभग 60 करोड़ लीटर पानी संग्रहण क्षमता के तालाब- नाडी बनाए गए हैं। लगभग 50 कुओं में छतों से पाइप द्वारा वर्षा का पानी पहुंचाया जाता है। यह पूरा कार्य गांव समुदाय के सहयोग से होता है व कमजोर वर्गों, दलितों व महिलाओं को जोडऩे का विशेष प्रयास किया जाता है।
गांवों में जल व सफाई की योजना तथा वैज्ञानिक ढंग से जानकारी इकट्ठे करने का प्रयास नीरजल परियोजना के माध्यम से हो रहा है। ग्रामीण युवाओं को जल की गुणवत्ता की जांच के लिए प्रश्ििक्षत किया गया है और वे अपनी यह जिम्मेदारी भलीभांति निभा रहे हैं।
सबसे अधिक चर्चा में कोरसीना वर्षा जल संग्रहण बांध का कार्य रहा है। यह वर्षा जल संग्रहण के एक परंपरागत स्थान पर बनाया गया जहां सैकड़ों वर्ष पहले किया गया निर्माण टूट चुका था और अवशेष ही बचे थे। यह स्थान सांभर झील के पास है जहां खारे पानी से नमक बनाया जाता है। जयपुर के दूधू ब्लॉक के ये गांववासी खारेपन की समस्या से त्रस्त रहे हैं। यह पानी अब झील के खारे पानी में मिलने के स्थान पर गांव में बचा कर रखा जाएगा। इस पानी को बहुत से पशु पी सकेंगे व लगभग 20 गांवों में पानी रीचार्ज होगा जिससे कई हैंडपंप, कुएं नया जीवन प्राप्त करेंगे जिससे लगभग एक लाख लोगों की पेयजल स्थिति बेहतर होगी। जल- संग्रहण व संरक्षण कार्यों से अनेक गांवों में पेयजल समस्या हल होगी और पानी की कमी के चलते पलायन को मजबूर बहुत से गांववासी चैन से अपने ही गांव में रह सकेंगे।
वनीकरण व वृक्षारोपण के प्रयासों से भी यहां जल संरक्षण के कार्य में बहुत सहायता मिली है। आज से करीब 20 साल पहले, अजमेर के सिलोरा ब्लॉक के टिकावड़ा गांव में 127 बीघा जमीन बेकार- बंजर पड़ी थी। हरियाली के नाम पर यहां नीम का सिर्फ एक पेड़ था। आज यहां नीम, शीशम, बबूल, कीकर, खेजड़ी और अन्य प्रजातियों के करीब 40 हजार पेड़- पौधे लहलहा रहे हैं। दो दशक में यह बदलाव हुआ कैसे?
करीब बीस साल पहले केंद्रीय परती भूमि विकास बोर्ड ने इस जमीन को हरा- भरा बनाने की जिम्मेदारी सामाजिक कार्य व अनुसंधान केंद्र को सौंपी। इसने गांववासियों के सहयोग से यहां सिंचाई के लिए कुआं बनाया। इसमें पानी इकट्ठा करने के लिए जगह- जगह कंटूर बंधों की श्रृंखला बनाई गई, एनीकट बनाए गए। बारिश के पानी को रोककर एक- एक बूंद का उपयोग हरियाली बढ़ाने के लिए किया गया। गांववासियों को ही पौधों की नर्सरी तैयार करने का काम दिया गया। हर पौधे को पनपाने के लिए मेहनत की गई। जड़ के पास मटका गाड़कर उसमें छेद करके धागा लटकाकर बूंद- बूंद पानी पौधों को पिलाया गया।
पशु चराने का सवाल सामने आया तो गांववालों से कहा गया कि कुछ जमीन को चराई के लिए खोला जाएगा तो कुछ जगह मनाही होगी। सब काम गांववासियों के सहयोग- सहमति से हुआ। इसलिए सबने निर्णय का पालन किया। पहले गाय- बैल और भैंसों को चराई की इजाजत मिली। जब पेड़ कुछ बड़े हो गए तो बकरी चराने की इजाजत मिल गई। अब तो गांववासी चारे की पत्ती के अलावा सब्जी और गोंद भी यहां से मुफ्त प्राप्त करते हैं।
केंद्र को ऐसी ही सफलता नालू व बांसीसीदरी गांवों में भी मिली। नालू में तो अब घास- चारे आदि की बिक्री से पंचायत को एक लाख रुपए की सालाना आय होती है। (स्रोत फीचर्स)

रायपुर में छत्तीसगढ़ी लोकधुन गाने वाला घंटाघर

रायपुर में छत्तीसगढ़ी लोकधुन गाने वाला घंटाघर
- तेजपाल सिंह हंसपाल
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की नगर घड़ी इसलिए अनोखी है क्योंकि यह सिर्फ घंटा बजाकर समय नहीं बताती बल्कि हर घंटे छत्तीसगढ़ की एक लोकप्रिय लोकधुन बजाकर समय बताती है।
रायपुर की यह नगरघड़ी पूरे भारत की ऐसी पहली संरचना है जिसमें हर घंटे बजने वाली छत्तीसगढ़ी धुनों के कारण इसे लिमका बुक आफ रिकार्ड्स 2009 तथा इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड्स 2009 में शामिल किया गया है। हाल ही में इस नगरघड़ी के धुन की अवधि को बढ़ा कर एक मिनट कर दिया गया है। पहले नगरघड़ी में बजने वाली लोकधुनों की अवधि 25 से 32 सेकेण्ड हुआ करती थी। लिमका बुक के बीसवें संस्करण के मानव कथा अध्याय में नगरघड़ी को 'गाता हुआ घंटाघर' तथा अंग्रेजी संस्करण में 'सिंगिंग क्लॉक टॉवर' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। नगरघड़ी में 24 घंटे में 24 छत्तीसगढ़ी धुन बजने का यह एक ऐसा रिकार्ड है जो कभी नहीं टूट सकता।
दरअसल रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष एस.एस. बजाज और मुख्य कार्यपालन अधिकारी अमित कटारिया ने महसूस किया कि नगरघड़ी में बजने वाली लोकधुन की अवधि काफी कम है इसलिए नगरघड़ी की स्थापना करने वाली केरल की कंपनी को धुनों की अवधि बढ़ाने को कहा गया। चूंकि नगरघड़ी में लगने वाली इन्टीग्रेटेड चिप भारत में उपलब्ध नहीं थी इसलिए कंपनी ने इसे ताईवान से मंगाया और काफी समय तक धुनों के संयोजन और उसकी गुणवत्ता पर शोध कर तैयार किया।
19 दिसंबर 1995 को रायपुर के कलेक्टोरेट कार्यालय के सामने 50 फुट ऊंचे स्तंभ पर नगरघड़ी की स्थापना की गई थी। छह फुट व्यास वाले घड़ी के डायल के पीछे मैकेनिकल पद्धति से चलने वाली घड़ी में हर घंटा पूरा होने के बाद इसके बुर्ज में लगे पीतल के घंटे की आवाज गूंजती थी। इसमें दिन में एक बार चाबी भी भरनी पड़ती थी। मैकेनिकल घड़ी में बार- बार तकनीकी खराबी आने के कारण 26 जनवरी 2008 को रायपुर विकास प्राधिकरण ने एक नई इलेक्ट्रॉनिक घड़ी लगाई जो सेटेलाईट से संकेत प्राप्त कर जी.पी.एस. (ग्लोबल पोजीशिनिंग सिस्टम) प्रणाली से सही समय बताती है। रायपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष श्री श्याम बैस ने तत्समय छत्तीसगढ़ की लोकधुनों को लोकप्रिय बनाने के लिए नगरघड़ी में हर घंटे बजने वाले घंटे की आवाज के पहले छत्तीसगढ़ की लोकधुनों को संयोजित करने का निर्णय लिया था ताकि इससे आम आदमी भी लोकधुनों से परिचित हो सके।
समय के मनोभावों के अनुरुप इन धुनों का चयन प्रदेश के लोक कलाकारों के विशेषज्ञ समिति के द्वारा किया गया था जिसमें लोक संगीत को पुरोधा माने जाने वाले श्री खुमानलाल साव, लोक गायिका श्रीमती ममता चन्द्राकर, छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्देशक श्री मोहन सुन्दरानी, लोक कला के ज्ञाता श्री शिव कुमार तिवारी और लोक कलाकार श्री राकेश तिवारी ने किया है। समिति की अनुशंसा के फलस्वरुप श्री राकेश तिवारी ने विशेष रुप से लोकधुनें तैयार की। सुबह चार बजे से हर घंटे के बाद लगभग 30 सेकेण्ड की यह धुनें नगरघड़ी में बजती हुई छत्तीसगढ़ की लोकधुनों से आम आदमी का परिचय कराती है।
26 जनवरी 2008 को नई घड़ी लगने के बाद से नगरघड़ी में हर दिन हर घंटे के बाद एक छत्तीसगढ़ी लोकधुन बजती है। चौबीस घंटे चौबीस धुनों में शामिल है- जसगीत, रामधुनी, भोजली, पंथी नाचा, ददरिया, देवार, करमा, भड़ौनी, सुआ गीत, भरथरी, डंडा नृत्य, फाग गीत , चंदैनी, पंडवानी, राऊत नाचा, गौरा, परब, आलहा, नाचा, कमार, सरहुल, बांसगीत, ढ़ोलामारू और सोहर गीत। अब जब भी आप इस नगरघड़ी के पास से गुजरें तो हर घंटे बजने वाली छत्तीसगढ़ी लोकधुन सुनकर उसका आनंद उठाएं।

दिव्या जैन:

उनके सपने पूरे होने से पहले ही टूट जाते हैं !
- मधु अरोड़ा

मैं पहली बार जब एक लड़की के पास गई। बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती।
दिव्या जैन पत्रकार हैं और उन्होंने 1986 से 2005 तक स्वतंत्र लेखन कार्य किया है। मुंबई एवं मुंबई से बाहर अखबारों एवं पत्रिकाओं में उनके काफी महत्वपूर्ण विषयों पर 300 से अधिक लेख छप चुके हैं। उन्होंने 1981-90 के दौरान सामाजिक समस्याओं पर तीन ऑडियो विजुअल भी बनाएं। पिछले 15 सालों से वे महिलाओं की पत्रिका 'अंतरंग संगिनी' का संपादन व प्रकाशन कर रही हैं? जनसत्ता सबरंग में उन्होंने एक साल तक देह व्यापार करने वाली महिलाओं के जीवन पर आधारित कॉलम 'बदनाम जिंदगियां' लिखा है। प्रस्तुत है इन्हीं दो विषयों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ बातचीत के अंश-
यह कैसे हुआ कि आपने पत्रकारिता या लेखन के लिए रूपजीवियों का क्षेत्र चुना?
- समाजशास्त्र में एम.ए. होने से मेरा सामाजिक समस्याओं से सरोकार रहा। ये समस्याएं लगातार मेरे दिमाग को मथती रहती थीं कि वेश्याएं क्या होती हैं? इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। पत्रकारिता करते करते ब्लिट्स के लिये देवदासी पर लेख लिखना था, सो मैटर जमा किया। पीएचओ कर्नाटक जाते हैं देवदासी प्रथा रोकने के लिये। मैं अपने लेख के लिये डॉ. गिलाडा के पास फोटो लेने गई। बातचीत के दौरान जब उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो उन्होंने मेरे सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा। उनके ऑफर पर मैं सप्ताह में दो बार जाने के लिये तैयार हो गई। डॉ. गिलाडा मीडिया में काफी रहे उन्होंने धीरे-धीरे मुझसे पूछा कि क्या मैं महिलाओं के लिये पत्रिका निकाल सकती हूं। हम दोनों ने तय किया कि for and by रूप से लिखा जाये। हमने सखी- सहेली पत्रिका शुरु की। इसे हम उन लोगों को पढ़कर सुनाते थे ताकि उन्हें पता चले कि उनके बारे में क्या लिखा है?
इन महिलाओं से संवाद के बाद आपके अनुभव कैसे रहे?
- मैं पहली बार जब एक लड़की के पास गई। बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती। मैंने उसके साथ उसका दुख बांटा। उसने पूछा कि आप दोबारा कब आयेंगी? इस तरह उनसे संबंध बना और वे मुझे दीदी कहने लगीं। इसी तरह एक पढ़ी- लिखी लड़की के पिताजी की कैंसर से मौत होने के बाद सौतेली मां ने उसे बेच दिया और अंतत: वह इस धंधे में आ गई। देखो न। हमारा इमोशन हमें बहुत परेशान कर देता है। मुझे लगा कि इस सामाजिक समस्या को इम्तेहान के लिये पढ़ा था, पर जब इनसे रुबरु हुई तो मुझे अपने सारे सवालों का उत्तर मिल गया।
जब आप इनसे मिलने जाती थीं, तो इन लड़कियों का रुख कैसा रहता था?
- उनका रुख अच्छा रहता था। मैं वहां निजी रुप से नहीं बल्कि संस्था के जरिये जाती थी। रैपो संस्था के सदस्यों द्वारा बनाया हुआ था। मैं भावनात्मक रुप से जुड़ी, अलग बात है। मैं अकेली जाती तो शायद मुश्किल होती। सामाजिक कार्यकर्ता सफेद कोट पहनते थे। मुझे एक पल के लिये लगा कि मैं भी सफेद कोट पहनूं पर मुझे न किसी ने ऐसा कहा और मैंने भी इस विचार को मन से निकाल दिया। इस तरह के कार्य से जुडऩे के लिये खुद को तैयार करना बहुत बड़ी बात थी। कई संस्थाएं कोशिश करती हैं कि इन महिलाओं के बच्चों को कोई गोद ले ले तो उनकी जिंदगी बदल जाये। दरअसल सामाजिक कार्यकर्ता भी उनके साथ इस तरह संवेदनशील थे कि यदि हम यह न रखें तो काम कैसे करें? हमने जिन महिलाओं को ताई बनाया वे हमारी सामाजिक कार्यकर्ता बन गई हैं। प्रेरणा संस्था इनके बच्चों के लिये काम करती हैं।
कभी पुरुष सामाजिक कार्यकर्ताओं का ईमान डिगता है?
- हां, कभी- कभार ऐसा हो जाता है। भावनाओं पर इन्सान का काबू नहीं रह पाता। लेकिन यह सोचना होगा कि क्या वे ऐसे संबंध को निभा पायेंगे? ये तो पुरुष को सोचना होगा कि जिस दलदल से निकालकर महिला को सामाजिक कार्यकर्ता बनाया है, उसे पुन: उसी दलदल में धक्का न दिया जाये।
उनका जीवन और उनकी समस्याएं और समाधान हम घरेलू औरतों से किस प्रकार भिन्न है?
- वे भी समाज का तबका ही हैं। भावना के तौर पर हममें और उनमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन उनका शोषण कैसे होता है और हम किस तरह तुलना करते हैं, यह जुदा बात है। जहां तक सोच के फर्क की बात है तो फिल्म अभिनेत्री किसी भी तरह के पोज देती है, जरुरत पडऩे पर किसी भी हद तक चली जाती है। मॉडल के अनुसार यदि अच्छा शरीर है तो दिखाने में क्या हर्•ा है? भावनात्मक स्तर पर उनके भी सपने हैं, पर ये बात दीगर है कि उनके सपने पूरे होने के पहले ही टूट जाते हैं। इन्हें तो मजबूरन इस व्यवसाय में डाला गया है। पर हीरोइन के साथ तो यह दिक्कत नहीं है, पर वे भी बदन दिखाने के लिये लाखों रुपये लेती हैं। पैमाना तो पैसा कमाना ही है न! इन्हें हम सभ्य समाज में जोड़ देते हैं। लेकिन इनके लिये तो निकलने का रास्ता ही नहीं है।
आप इस बात को कहां तक मानती हैं कि औरत औरत की दुश्मन है?
- बिल्कुल गलत है यह बात। दलाल के साथ महिला होती हैं जो भगाकर लाई लड़की को कनविन्स करती हैं। ऐसे ही दहेज के मामले में भी औरत औरत की दुश्मन है, गलत है। इसमें भी पुरुष का हाथ है। अन्यथा सास या ननद की क्या म•ााल जो बहू को जला दे। कहीं न कहीं उसमें देवर, ससुर या तथाकथित पति की मंशा रहती है।
आप महिलाओं के दोयम जीवन के लिये किसको दोषी ठहराती हैं?
- समाज को। मूल रुप से हमेशा से पुरूष प्रधान समाज रहा है। उसने स्त्री को यही दर्•ाा दिया है जहां लड़की पैदा होती है वहां यही माना जाता है कि वंश पुरूष चलाता है। इस सोच के साथ ही स्त्री को जीना है। दोयम जीवन के लिये औरत नहीं बल्कि पुरुष ही जिम्मेदार है। पंजाब हरियाणा में असंतुलन है तो शादी के लिये लड़कियां आयेंगी कहां से? कई समाजों में स्वीकृति है पर कितने प्रतिशत?
आपके नजरिये से इन परिस्थितियों से कैसे उबरा जा सकता है?
- यह तो मानसिकता बदलने वाली बात है। यह काम कौन करेगा? अब आप देखिये, लड़के माता- पिता के दबाव में आकर शादी तो कर लेते हैं पर खुद में बदलाव नहीं ला पाते। इस प्रकार लड़की पर शादी के लिये माता- पिता का दबाव। फिर शादी के बाद पुत्र प्राप्ति की इच्छा का बलवती होना। मुझे लगता है कि बच्चों के पालन पोषण में ही भेद रेखा खींच दी जाती है। लड़की को लड़की होने का एहसास बचपन से ही करा दिया जाता है। Do’s और Donts का दौर शुरु हो जाता है। इस एहसास के साथ लड़की जब बड़ी होती है तो कई सवाल उसके मन में आते हैं। इन सवालों के जवाब बहुत कम मां- बाप समझा पाते हैं। अधिकतर लड़कियां समझौता कर लेती हैं। नींव तो भेद भाव की है, लेकिन एक बात है परिवर्तन पुरूष मानसिकता में लाना ही होगा। महिलाओं में परिवर्तन आ रहे हैं।
आपकी पत्रिका अंतरंग संगिनी प्रेरणास्रोत है ?
- प्रेरणा तो नहीं, शुरुआत कहेंगे। पहले मैं बनाती थी। 1989 के बाद यह काम छोड़ दिया। मैंने 1994 में यह पत्रिका शुरु की। इसके लिये 1993 से चिंतन- मनन चल रहा था। इस समय मेरे मन में विचार आता था कि महिलाओं पर लेख कम आते हैं, आते भी हैं तो संपादक काट देते हैं। वे बलात्कार के मुद्दे को न्यूज के रुप में चटखारे लेकर छापते हैं। तब राहुलदेव, विश्वनाथजी से बातचीत की। उन्होंने कहा कि पत्रिका निकालो, पर निकलते रहना चाहिये यह बहुत जरुरी है। इस तरह मित्रों के सहयोग से, विचार- विमर्श से 1994 से यह पत्रिका शुरु हुई। धीरे- धीरे यह तय हो गया कि एक गंभीर मुद्दे पर यह पत्रिका आधारित रहेगी। If and buts को ध्यान में रखते हुए कोशिश जारी रही। संघर्ष बयान नहीं किया जा सकता। सच कहूं तो बंद करना शुरु करने से ज्यादा कठिन है। अब तो पत्रिका बंद करने का अर्थ है खुद को शून्य करना। कुछ लोगों के अनुसार पत्रिका में यदाकदा कहानी कविता डालकर कमर्शियल बनाओ पर मैं इससे सहमत नहीं हूं। कविताओं कहानियों के लिये कई पत्रिकाएं हैं। निर्णायकों के अनुसार संगिनी एक मुद्दे को लेकर चलती है।
आपको सावित्री फुले सम्मान मिला, इससे कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी का अहसास हुआ?
- जब तक अकेले कार्य करती रही, कार्य बंद करने के लिये स्वतंत्र थी। सुधाजी के साथ मेरी काफी शेयरिंग है। सम्मान प्राप्त करने के बाद दायित्व और बोध बढ़ जाता है। लोगों ने इतना उत्साहित किया है कि इसे जारी रखना है। संगठन से जुड़ी महिलाएं हैं, उनका सहयोग है। कभी- कभी हालात से हार जाती हूं पर उत्साह बढ़ाने के लिये काम करने लगती हूं। ज्यादा लोगों तक पत्रिका पहुंचानी है तो बंद कैसे कर सकती हूं।
अपने इतर लेखन के विषय में कुछ कहेंगी?
- देखिये, मेरे अलग- अलग काम मेरी रुचि के हैं। मैंने जो ज़िन्दगी 15 सालों में जी है, उससे मुझमें एक •ाज्बा पैदा हुआ है। मेरे जीवन का लक्ष्य संगिनी है। इसके बिना मेरा जीवन शून्य है। देह व्यापार की महिलाओं के लिये जरुर कुछ करना चाहूंगी भविष्य में। घर की जिम्मेदारियों की वजह से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही। लेखन के लिये संवेदनशील होना बहुत जरुरी है। अब यदि मैं उन महिलाओं से संवेदना के स्तर पर न मिलूं तो उनके मन की बात नहीं निकाल सकती। उनके साथ वैसा ही होना पड़ता है। मैं कुछ अलग काम करना पसंद करती हूं। मैं प्रयास संस्था से बहुत प्रभावित हूं।
प्रयास संस्था under trial and women के लिये कार्य करती है। जो लड़कियां रिमांड होम से आती हैं, उन्हें यहां प्रशिक्षित किया जाता है। मैं इसे ज्यादा सही मानती हूं। बजाय कि लड़कियों को उठाकर लाना और आतंक फैलाना। मैं मानती हूं कि काम हम भले ही धीरे-धीरे करें पर तरीके से करें। उनका पुनर्वसन इस प्रकार करें कि उन्हें वापस लौटना न पड़े। यह जो काम हो रहा है उसमें वे मुख्य धारा में आ जाती हैं ताकि दूसरी महिलाओं के सामने उदाहरण रख सकें।
पता - एच1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड
पूर्व मुंबई- 400097 मोबाइल- 0983395921
ईमेल- shagunji435@gmail.com

परिचय: दिव्या जैन
जन्म- 5.11.1950 मुंबई में। शिक्षा- मुंबई विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए, सेंट जेवियर्स इंस्टिट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन्स के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम में 1979 से 1984 तक संबद्ध। फोटोग्राफी में विशेष रुचि। यूनिसेफ, एसएनडीटी महिला विद्यापीठ तथा यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के सौजन्य से दहेज प्रथा, झोपड़पट्टी के लोगों पर तथा सड़क के बच्चों पर तैयार ऑडियो विजुअल बेहद सराहे गये। पिछले उन्नीस साल से अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में लेखन जारी।
महिला विषयों में गहरी रुचि। महिलाओं की त्रैमासिक पत्रिका 'अंतरंग संगिनी' का तेरह साल से लगातार प्रकाशन, संपादन। समाजसेवा के क्षेत्र में, खासकर महिला जीवन से जुड़े मुद्दों को लेकर सक्रिय। सम्मान- * पत्रकारिता के लिए 1996 में सवेरा भाषा जनसंचार अकादमी की ओर से पुरस्कृत । * सन 2000 में युथ ऑर्गनाइजेशन फॉर यूनिटी की ओर से 'हव्वा की बेटी' पुस्तक के लिये सम्मान। * राजभाषा हिन्दी के विकास हेतु प्रयासरत स्वैच्छिक संस्था महावीर सेवा संस्थान प्रतापगढ़ (उ. प्र.) की ओर से 1999 में हिंदी सेवा को दृष्टिगत रखते हुए 'साहित्य शिरोमणि' की सम्मानोपाधि। * रमणिका फाउन्डेशन ट्रस्ट की ओर से- 12 दिसम्बर, 2003 में स्त्री विमर्श पत्रकारिता, सावित्रीबाई फुले सम्मान।
पता - संपादक, अंतरंग संगिनी, फ्लैट नं.2, दूसरा माला, बी- गोविंद निवास, सरोजनी रोड, विले पार्ले (प.), मुंबई- 400056. फोन- 26143617, मो.9892508118

ओबामा की भारत यात्रा सुलगते सवाल

- रमेश प्रताप सिंह

देश की कांग्रेस सरकार ओबामा को लगातार हीरो बनाने की कोशिश में लगी हुई है। जबकि राष्ट्रीय हितों पर हमारे प्रधानमंत्री किस हद तक ओबामा को अपने पक्ष में ले सकते हैं यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बराक हुसैन ओबामा सपत्नीक भारत के दौरे पर आए। हमारे प्रधानमंत्री ने प्रोटोकाल को दरकिनार करते हुए उनका स्वागत किया। वहीं एक दिन पूर्व उन्होंने मुंबई में ताज होटल में शहीदों को श्रध्दांजलि तो दी, मगर आतंकवाद के घर पाकिस्तान का जिक्र तक नहीं किया। वैसे भी अगर देखा जाए तो उनकी यह यात्रा पूर्णत: व्यवसायिक एवं निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका की हमेशा से भारत के साथ दोहरी नीति रही है। यही नहीं पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद को जानते हुए भी लगातार उसकी सहायता करना, भला यह कहां की भलमनसाहत है।
यह वही अमेरिका है जिसने सुपरकंप्यूटर और तेजस के इंजनों की आपूर्ति हमें नहीं की थी। और तो और रूस द्वारा दिए जाने वाले क्रायजेनिक इंजनों की आपूर्ति पर रोक लगाने के लिए इसी महाशक्ति ने जोर लगाया था।
अब भारत के बढ़ते बाजार को भुनाने की कोशिश करने पुन: यहां आए। राष्ट्रपति अपने देश की लॉकहीड मार्टिन कंपनी जो एफ-16 और एफ-18-35 जैसे लड़ाकू जहाजों को बनाती है, उसके लिए बाजार ढूंढने आए हैं। हां अपनी इस यात्रा में मंदी के दौर से गुजर रही बोइंग कंपनी को भी उबारने की उनकी कोशिश थी जिसमें वे मुंबई में उस वक्त कामयाब हो गए जब जेट एअरवेज ने 72 बोइंग विमानों के मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिया।
ओबामा की इस यात्रा ने कुछ सवालों को जन्म दिया है, ओबामा ने अपने भाषण में कहीं भी एंडरसन एवं लश्कर के आतंकी हेडली के प्रत्यापर्ण का जिक्र नहीं किया क्यों? उनकी 10 अरब डॉलर की डील से भारत को क्या मिलेगा? उनकी इस यात्रा से अमेरिका में 50 हजार नौकरियां पैदा होंगी, ऐसे में भारत में कितने बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा? अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को चरणबद्ध ढंग से हटाया जाएगा। इससे भारतीय हितों का क्या होगा? अमेरिकी कृषि में निवेश करने को तैयार हैं, तो इससे हमारे देश में खेती किसानी करने वालों का क्या होगा? हमारे देश की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा खेती किसानी करता है। यानि अब उनकी नजर हमारी खेती की जमीनों पर भी है? इससे साफ जाहिर होता है कि ओबामा भारतीय कृषि पर डाका डालना चाहते हैं। वहीं आउटसोर्सिंग पर अमेरिका का रुख आज भी स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा भारत को सुरक्षापरिषद में अस्थाई सदस्यता एवं अमेरिकी वित्तीय सलाहकार परिषद की तीन साल की सदस्यता देकर वे उन भारतीयों की सद्भावना बटोरना चाहते हैं, जिनके कारण उनकी पार्टी को चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा। उनकी इस यात्रा का लब्बोलुआब भारत के 15.1 अरब डॉलर के रक्षा बजट पर है। वे 126 बहुद्देशीय लड़ाकू विमानों का सौदा हथियाने आए हैं। अब वे इसमें कितने कामयाब होंगे यह तो समय ही बताएगा।
देश की कांग्रेस सरकार ओबामा को लगातार हीरो बनाने की कोशिश में लगी हुई है। जबकि राष्ट्रीय हितों पर हमारे प्रधानमंत्री किस हद तक ओबामा को अपने पक्ष में ले सकते हैं यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। अलबत्ता भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले कई दशकों से ही उसकी भारतीय नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसे में उसमें बदलाव की उम्मीद रखना बचकानी होगी। इस यात्रा से देश की एक अरब जनता का क्या भला होगा? इसी का जवाब खोजना शेष है। अंत में सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि-
अंधेरा है या तेरे शहर में उजाला है,
हमारे जख्म पे क्या फर्क पडऩे वाला है।।
पता- प्रांतीय प्रमुख, दैनिक आज की जनधारा, शंकर नगर, रायपुर (छ.ग.) मोबाइल : 8103037656

तो तैयार हो जाइए अंतरिक्ष की सैर के लिए

तो तैयार हो जाइए अंतरिक्ष की सैर के लिए
अंतरिक्ष में जाने का ख्वाब देखने वाले रईस यात्रियों का सपना अब साकार होने के और करीब आ गया है। 2012 से वर्जिन गैलैक्टिक स्पेस टूरिज्म की फ्लाइट शुरू करेगा। इसके लिए नया रनवे बनकर तैयार हो गया है।
अगर वर्जिन एट्लैंटिक पृथ्वी की हवाओं पर सैर कराने के लिए है तो वर्जिन गैलैक्टिक का वादा है कि 2012 से वह लोगों को अतंरिक्ष तक घुमा लाएगा। कंपनी के मालिक रिचर्ड ब्रैंसन ने अमेरिका के न्यू मेक्सिको में नए रनवे का उद्घाटन किया। ब्रैंसन ने कहा, 'यह स्पेस एज का दूसरा दौर है और हमें गर्व है कि हम कहानी के इस मोड़ पर अपना योगदान दे रहे हैं। यहां से शायद हर रोज अंतरिक्ष के लिए फ्लाइटें रवाना होंगी। यही नहीं, वैज्ञानिक, एक्सप्लोरर हमारे ग्रह के आगे और नए विकल्प तलाशेंगे।' मौके पर मौजूद नील आर्मस्ट्रॉन्ग के साथ चांद पर कदम रखने वाले एड्विन 'बज' एल्ड्रिन ने इस बात को लेकर खुशी जताई की आम लोग अंतरिक्ष जा सकेंगे।
खिड़की से देखेंगे पृथ्वी को 2012 के अंतरिक्ष टूरिस्ट, स्पेसशिप-2 या वीएसएस एंटरप्राइज पर सवार होंगे। इसमें छह यात्रियों के लिए जगह है, इसकी टेस्टिंग इस साल मार्च में संपन्न हुई है। यह स्पेसशिप करीब 18 मीटर लंबी है। शून्य गुरुत्व का आभास करते अंतरिक्ष यात्री आराम से इसके कैबिन में तैर सकेंगे।
उड़ान भर रहा स्पेसशिप का 'मदर शिप' वाइट नाइट- 2 या ईव, स्पेसशिप को 50 हजार फीट की ऊंचाई तक ले जाएगा और उसे वहां छोड़ देगा। स्पेसशिप- 2 अपना रॉकेट फायर करेगा और रॉकेट के दम पर अंतरिक्ष पहुंच जाएगा। बाहर पहुंचकर स्पेसशिप में बैठे यात्री पृथ्वी को विमान की गोलाकार खिड़कियों यानी पोर्टहोल से देख सकेंगे। वे अपने सीट- बेल्ट उतार कर आराम से शिप में तैर भी सकेंगे। ब्रैंसन ने कहा है कि इस वक्त स्पेसशिप को सबऑर्बिटल ही रखा गया है, यानी स्पेसशिप को इस तरह लांच किया जाएगा कि वह पृथ्वी के चारों तरफ एक पूरा चक्कर न काट सके। कुछ समय बाद पृथ्वी के चक्कर काटने वाले शिप्स भी बनाए जा सकेंगे।
अंतरिक्ष में बनेगा होटल
2005 से ही गैलैक्टिक ने यात्रा के लिए बुकिंग शुरू कर दी थी। एक टिकट का दाम है लगभग दो लाख डॉलर यानी करीब 80 लाख रुपए। लेकिन इस भाव पर भी 380 से ज्यादा लोग अंतरिक्ष की यात्रा करने को तैयार हैं। अंतरिक्ष का अनुभव रखने वाले महानुभावों के अलावा 2012 में जा रहे कुछ यात्री भी रनवे के उद्घाटन पर मौजूद थे। रूस के इगोर कुत्सेंको ने कहा कि यह उनका सपना है और वे अपने माता- पिता के साथ स्पेस का मजा लेंगे। उन्होंने अपने और अपने परिवारवालों के लिए एक लाख पचास हजार की राशि पहले से जमा कर दी है।
ब्रैंसन अपने यात्रियों को अंतरिक्ष की सैर करवाने के लिए बहुत उत्सुक हैं। लेकिन उनका कहना है कि 2012 तक की समय सीमा के बावजूद सुरक्षा पर पूरी तरह ध्यान दिया जाएगा। इस सिलसिले में अगले बारह महीनों में कई टेस्ट किए जाएंगे जिससे 2012 का सफर पूरी तरह सुरक्षित हो। ब्रैंसन उम्मीद करते हैं कि वह एक दिन अंतरिक्ष में अपना होटल खोल सकेंगे। ब्रैंसन 2012 में अपने माता पिता को भी अंतरिक्ष की सैर कराना चाहते हैं। उनके मुताबिक करीब 90 साल के उनके माता पिता जन्नत की सैर से पहले अंतरिक्ष की सैर करना चाहते हैं, और उनके पास वक्त कम है।
मात्र दो घंटे में अमेरिका से रूस
अगर अंतरिक्ष जाने के लिए महंगी टिकट आम आदमी को खटकती है, तो इसमें कोई चिंता वाली बात नहीं है। पृथ्वी पर रहकर भी तेज रफ्तार के मजे लिए जा सकते हैं। वर्जिन एक ऐसे तकनीक पर काम कर रहा है जिससे कुछ सालों में पृथ्वी पर ही एक जगह से दूसरे जगह तक और कम समय में पहुंचा जा सके। न्यू मेक्सिको के गवर्नर रिचर्डसन ने कहा कि आगामी दस साल में एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप की यात्रा महज 1-2 घंटों में तय की जा सकेगी। जैसे रूस से लेकर अमेरिका का ट्रिप महज 2 घंटों में। अभी सीधी फ्लाइट को भी अमेरिका से मॉस्को आने में नौ घंटे लगते हैं।

इस बार

इस बार
- बालकवि बैरागी
प्रेम का कोई पर्याय
या विकल्प होता
तो धरती पर कोई प्रेमी
बेचैन होकर
इस तरह नहीं रोता।
चुन लेता वह कोई विकल्प
अपना लेता दूसरा पर्याय
पर हाय!
वैसा हुआ नहीं।

जब भी आप प्रेम करेंगे
किसी देह या किसी शरीर से
तब फिर आप
प्रेम को बना लेंगे सापेक्ष
चाहेंगे कि उधर से भी
वैसा ही हो
जैसा कि हो रहा है इधर से।
और फिर
सब कुछ हो जाता है
सशर्त-
काटो पहाड़
पार करो उफनता दरिया
कच्चे मटकों के सहारे
खेलो अपनी जान पर
याने कि आठों पहर चढ़े रहो
किसी मचान पर।
कहते रहो कि-
'मैंने या उसने किया नहीं है
यह तो बस हो गया है
क्योंकि यह किया नहीं जाता
हो जाता है
इसमें करने वाले का
सब कुछ खो जाता है'।।

पर जब यह नहीं होता
जिस्मानी
किसी देह या शरीर से
तो फिर पूछ देखो किसी
मीरा या कबीर से
किसी रूहानी संत या फकीर से
वे कहेंगे-
'प्रेम गली अति सांकरी
या में दो न समायÓ
या
'ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पण्डत होय'
ऐसे में बदल जाता है
सारा व्याकरण
उलट जाते हैं सारे समीकरण
मार्ग हो जाता है एकांगी
फिर मार्ग- मार्ग नहीं
पंथ हो जाता है
वासना का वीरेन्द्र
संसारी संत हो जाता है।
बे मौसम
चटक जाता है चम्पा
महक पड़ता है मोगरा
खिलखिला पड़ती है चमेली
जयवंती हो जाती है जुही
पलकें खुल जाती है पारिजात की
कल्पवृक्ष की कोटरों से
झर पड़ता है कोई झरना
सार्थक हो जाती है सांसें
मन में मचल जाता है
एक नया मनोज
और गाने लगता है
अब क्या डरना और क्या मरना?
आयु की मटकी में से
टपक कर बिखरने लगता है
मन का माखन
अपने आप लुटने लगता है
आत्मा का अनुराग।।
इस एकांगी- अनंत पंथ पर
चलकर देखो- मचल कर देखो
एकाध बार ऐसी पहल कर देखो
अभी बहुत उम्र बाकी है
जरा सरल हो जाओ
सार्थक के साथ- साथ
सफल हो जाओ
बनालो खुद को एक द्वीप
जरा सजल हो जाओ
प्रेमी बनकर पछाड़ खाने से
बेहतर है
बस प्रेमल हो जाओ।।

बहुत आसान है प्रेमी होना
पर प्रेमल होना बहुत कठिन है
आसान नहीं है
अनजान वीराने में
वनफूल की तरह खिलना
और अनिश्चित जीवन
के अंधेरे में
आत्मदीप होकर जलना
कोई छोटा अवदान नहीं है।।

प्रेमी एक का होता है
'सिर्फ' होता है 'केवल' होता है
पर प्रेमल
हर अंधे आकाश में
करोड़ों सूरज- लाखों चांद
और हजारों झिलमिल
नये नक्षत्र बोता है।।

दीपावलियों पर
पूजा- पाठ, ताश- जुआ
न जाने क्या- क्या करते हो
अब के थोड़ा खुद के भीतर भी
उतर के देखो
करने जैसा एक काम ये भी है
इस बार ऐसा भी कर के देखो
काली कलूटी अमावस भी
पूजा की थाली हो जाएगी
दीवाली सचमुच दीवाली हो जाएगी
जिन्दगी एक हाथ से
बजने वाली ताली हो जाएगी।।

पता: धापू धाम, 169 डॉ. पुखराज वर्मा मार्ग,
नीमच (मप्र) 458 441
मोबाइल: 9425106136

डिजाइनर कपड़ों के युग में कोसा कारीगरी

डिजाइनर कपड़ों के युग में कोसा कारीगरी
- नीलाम्बर प्रसाद देवांगन

छत्तीसगढ़ में कोसा से बने कपड़े का हर साल लगभग 400 से 500 करोड़ का व्यवसाय होता है। राज्य में उत्पादित हो रहे कोसे की खरीदी यदि प्रदेश में ही की जाए तो राजस्व में वृद्धि होने के साथ ही लोगों को कोसा का सही दाम भी मिलेगा।
कोसा से बने वस्त्रों का नाम सुनते ही हर किसी के आंखों की चमक बढ़ जाती है। दरअसल कोसा हमारी परंपरा से जुड़ा हुआ नाम है। ऐसे में कोसा कारीगरी युक्त वस्त्र बाजारों की शोभा बन रहे हैं। आज सबसे ज्यादा किस्में, सबसे ज्यादा डिजाइन, सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धा किसी उद्यम में है तो वह वस्त्र उद्योग में ही है। हर मौसम में हमारा पहनावा बदल जाते है, समुन्दर की लहरों की तरह फैशन आते हंै और चले जाते हैं। यह सिलसिला चलता ही रहता है और चलता ही रहेगा।
हमारे देश में कुटीर उद्योग के रूप में हाथकरघा वस्त्र उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कृषि के बाद सबसे ज्यादा लोगों के रोजगार का सृजन इसी उद्योग के माध्यम से होता है। किन्तु वैश्वीकरण के युग में यक्ष प्रश्न यह है कि आज गलाकाट प्रतिस्पर्धा एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चकाचौंध में हाथकरघा वस्त्र उद्योग को कैसे जीवित रखा जाए। पर खुशी की बात है कि हाथकरघा वस्त्र उद्योग ने कठिनाइयों के दौर से गुजरते हुए भी अपने आप को जीवित रखा है।
हमारे देश में कुटीर उद्योग को संरक्षित कर जीवित रखने रखने का मतलब, देशवासियों को संरक्षित कर जीवित रखना है। हम अपने देश के 100 अरब से भी ज्यादा आबादी को बड़े- बड़े उद्योगों के माध्यम से रोजगार देकर उनका भरण पोषण नहीं कर सकते इसलिए लघु एवं कुटीर उद्योग ही एक ऐसा उद्यम है जिसके माध्यम से हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार दे सकेंगे और भरण पोषण कर सकेंगे। अत: लघु एवं कुटीर उद्योगों को पर्याप्त संरक्षण एवं सहायता दिया जाना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा देश में बेरोजगारी एवं भूखमरी का भयावह संकट पैदा हो जाएगा।
लघु एवं कुटीर उद्योगों को पर्याप्त संरक्षण एवं वित्तीय सहायता देकर ही इस क्षेत्र के उद्यमियों को उन्नत तकनीकी प्रशिक्षण, उन्नत उपकरण द्वारा उत्पादित वस्त्रों के माध्यम से सीधे उपभोक्ताओं से जोडऩा होगा, ताकि उद्यमियों को ज्यादा से ज्यादा लाभ मिल सके। वैसे किसी भी उत्पाद के लिए मार्केटिंग की व्यवस्था सुनिश्चित करना अति आवश्यक होता है। उद्योग में सबसे ज्यादा समस्या मार्केटिंग की होती है यदि छत्तीसगढ़ के कोसा उद्योग की मार्केटिंग की बात करें तो यहां ज्यादा समस्या नहीं है। यहां का कोसा उत्पाद ऐसा है जो हाथों हाथ बिकता है। छत्तीसगढ़ के कोसा वस्त्र देशी और विदेशी बाजार में भी विख्यात है यही वजह है कि कोसा वस्त्रों की मांग अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
समय के साथ कोसा कपड़ों के डिजाइन में परिवर्तन होने लगा है। कोसा कपड़े में भी सिंथेटिक कपड़ों के समान रंगीन, कसीदाकारी युक्त उडिय़ा बार्डर और ब्लीच्ड कपड़ों का आकर्षण लोगों को कोसा कपड़ों की ओर खींचने लगा है। मौसम कोई भी हो हर मौसम के अनुकूल कोसा का निर्माण हो रहा है इसमें कोसा सूटिंग- शर्टिंग, धोती- कुर्ता, सलवार- सूट और साडिय़ों का विशाल कलेक्शन बाजार में उपलब्ध है। आज कोसा कपड़ा न केवल पूजा- पाठ के समय पहनने वाला कपड़ा माना जाता है वरन अनेक अवसरों, आयोजनों में पहनने का कपड़ा बन गया है। इन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचकर आर्थिक सम्पन्नता हासिल की जा रही है। आज देश के सभी बड़े शहरों दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कलकत्ता, बेंगलोर, हैदराबाद, सिकंदराबाद, अहमदाबाद, नागपुर, जबलपुर, इंदौर, भोपाल, विशाखापट्टनम, जयपुर, नेपाल आदि में कोसे का व्यवसाय फैला हुआ है। अत: यह कहा जा सकता है कि हाथकरघा वस्त्र उद्योग का भविष्य उज्जवल है।
छत्तीसगढ़ में कोसा से बने कपड़े का हर साल लगभग 400 से 500 करोड़ का व्यवसाय होता है। राज्य में उत्पादित हो रहे कोसे की खरीदी यदि प्रदेश में ही की जाए तो राजस्व में वृद्धि होने के साथ ही लोगों को कोसा का सही दाम भी मिलेगा। इससे उत्साहित होकर कोसा उत्पादक किसान और अधिक मेहनत करेंगे। विभागीय सूत्रों के अनुसार देश में सत्रह हजार लूम हैं जिनमें बुनकर काम करते हैं। इन बुनकरों को प्रतिवर्ष कुल दस करोड़ कोसे की जरूरत होती है, लेकिन उन्हें सिर्फ ढाई करोड़ कोसा ही उपलब्ध हो पाता है। 75 प्रतिशत कोसा धागा यहां के बुनकरों को बाहर से खरीदना पड़ता है। राज्य के छह जिलों वाले बुनकरों को प्रतिवर्ष 18-20 करोड़ का धागा खरीदना पड़ता है। इन बुनकरों को यदि पूरा कोसा यहीं उपलब्ध हो जाए तो उन्हें अपना व्यवसाय करने में आसानी होगी। भले ही उन्हें कोसे से धागा बनाने में समय थोड़ा ज्यादा लगेगा, लेकिन उन्हें काम करने में सुविधा होगा।
विदेशों में भी कोसे के कपड़ों की मांग
खराब कोसे का भी उपयोग- जिस कोसे में छेद हो जाता है उससे पतले और रेशमी धागे नहीं बनते, बल्कि थोड़े मोटे धागे बनते हैं। ऐसे कोसे का उपयोग भी विदेशों में किया जाता है। विदेशों में इससे बनी चादरों को घर की दीवारों पर लगाते हैं। साथ ही उसका उपयोग जमीन पर बिछाने के लिए मेट की तरह भी करते हैं। कोसा वस्त्रों को बनाने के लिए मशीन ज्यादा उपयोगी नहीं है, क्योंकि कोसे का धागा मशीन के झटके नहीं सह पाता।
टसर की मांग- प्योर कोसे से बने कपड़ों की मांग देश के भीतर ही होती है, लेकिन मिक्स कोसे के कपड़ों की विदेशों में सबसे ज्यादा मांग है। इसमें कोसा के धागे में रंगीन और कुछ अन्य धागे मिलाकर बनाया जाता है जो दिखने में काफी आकर्षक और रंगीन होता है।
पता- संचालक, योगिता हैंडलूम, कपड़ा मार्केट, पंडरी, रायपुर (छ.ग.)

एक ही परिवार के तीन सदस्य राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित

एक ही परिवार के तीन सदस्य 
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित
किसी भी व्यक्ति के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिलना कई पीढिय़ों को सम्मानित करने वाला सम्मान होता है। और जब एक ही परिवार की दो पीढिय़ां लगातार देश के इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजी जा चुकी हों तो फिर कहना ही क्या। छत्तीसगढ़ राज्य के लिए यह बहुत गौरव की बात है कि जांजगीर जिले के चंद्रपुर ग्राम के बुनकर परिवार के तीन- तीन सदस्यों को कोसा कपड़े में कलाकारी करने और उसकी रंगाई में वनस्पति का उपयोग करने के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार दिया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस परिवार की दोनों पीढिय़ां आज भी अपनी इस परंपरागत कला की सेवा कर रही हैं।
पहली बार यह राष्ट्रीय पुरस्कार परिवार के मुखिया सुखराम देवांगन को इंद्रधनुषी साड़ी बनाने के लिए सन् 1988 में प्रदान किया गया था। इसके बाद उनके बड़े बेटे नीलांबर प्रसाद देवांगन को 1992 में कोसा सिल्क साड़ी में विशेष कलाकारी करने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अगले ही वर्ष 1993 में कोसा मयूरी साड़ी बनाने के लिए परिवार के ही छोटे बेटे पूरनलाल देवांगन को भी राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया गया। ऐसे सम्मान पाले वाले परिवार पर भला किसे गर्व नहीं होगा।
पिता घासीदास से विरासत में मिली कला को सुखराम ने आगे बढ़ाया तो उनके पुत्र नीलाम्बर और पूरन भी पीछे नहीं रहे उन्होंने भी अपने दादा व पिता से मिली इस परंपरागत कला में कुछ और नया करते हुए इस कला में अपने हुनर की छाप छोड़ी। दोनों मिलकर कोसा कपड़े पर आज भी नए- नए प्रयोग कर रहे हैं और प्रदेश का नाम रोशन कर सफलता की ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वास्तव में छत्तीसगढ़ को इस परिवार पर गर्व है।
नीलाम्बर और पूरन ने मिलकर कोसा सिल्क साड़ी पर बस्तर के जीवन को जीवंत करने वाली कारीगरी की। नीलाम्बर का मानना है कि उनका झुकाव परंपरागत कलाओं की ओर पहले से ही था। इस दिशा में कार्य करते हुए ही उन्होंने एक नया प्रयोग करने की ठानी और कोंडागांव के लौह शिल्प की कला को साडिय़ों पर जीवंत कर दिखाया।
छत्तीसगढ़ में इस तरह का यह पहला और अनूठा प्रयास था। उनके इस प्रयास को पूरे देश में सराहा गया। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारे प्रदेश के एक परिवार ने भारतीय शिल्पकला की प्राचीन परंपराओं को जागृत रखा। श्रेष्ठ शिल्पी के लिए नीलाम्बर देवांगन को यह राष्ट्रीय पुरस्कार 12 दिसंबर 2005 को दिल्ली में राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा दिया गया। वितरण समारोह में इस विधा में पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम उम्र के युवा थे। (उदंती फीचर्स)

जड़ी- बूटी

अब नहीं कहना पड़ेगा चीनी कम है
लैटिन अमेरिकी देश पराग्वे में पाई जाने वाली स्टेविया नामक जड़ी- बूटी जिसे चीनी के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है अब भारत आ रही है। इसकी विशेषता यह है कि यह चीनी से भी अधिक मीठी है और इसे अपने घर की छोटी सी बगिया में भी उगाया जा सकता है।
स्टेविया बायोटेक प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक सौरव अग्रवाल के अनुसार 'यदि आपने स्टेविया को चख लिया है, तो आपको इसकी मिठास का अंदाजा होगा। स्टेविया की पत्तियों से निकाला गया सफेद रंग का पाउडर चीनी से लगभग 200 से 300 गुना अधिक मीठा होता है।'
पर आप डरिए नहीं अधिक मीठी होने का मतलब अधिक नुकसानदायक नहीं बल्कि यह शून्य कैलोरी स्वीटनर है और इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं है। इसे हर जगह चीनी के बदले इस्तेमाल किया जा सकता है। पराग्वे में स्टेविया को सदियों से स्वीटनर और स्वादवर्धक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
खुशी की बात है कि कंपनी स्टेविया की खेती को बढ़ावा देने हेतु भारतीय कृषि मंत्रालय से संबंधित विभिन्न विभागों से संपर्क किया है।
स्टेविया डॉट नेट के अनुसार, 'स्टेविया का एक सफल उत्पादक बनने के लिए आपको कोई दक्षिण अमेरिकी किसान होना जरूरी नहीं है। हालांकि, इस वनस्पति का मूल स्थान दक्षिण अमेरिका होने के कारण यह कुछ मामले में बाहरी लग सकती है, लेकिन यह साबित हो चुका है कि इसे किसी भी जलवायु में उगाया जा सकता है।'
इन सब बातों से जाहिर है कि हमारे देश की जलवायु इस वनस्पति की खेती के लिए उपयुक्त है। फिर भी कुछ टेस्ट तो करने ही होंगे। स्टेविया की व्यावसायिक खेती के लिए तापमान, मिट्टी की किस्म, पानी की किस्म व उसकी उपलब्धता और अच्छी गुणवत्ता वाली अधिकतम उत्पादन देने वाली स्टेविया जैसे कारक को सुनिश्चित कर लेना जरूरी होता है।
अभी तो सिर्फ बातचीत शुरु की गई है लेकिन यदि इसकी खेती करना भारत में संभव हो पाया तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में चीनी की महंगाई से त्रस्त जनता को राहत मिलेगी।

महिला खेल

महिला खिलाडिय़ों का यौन शोषण
- तृप्ति नाथ
भारतीय महिला खिलाडिय़ों द्वारा यौनिक दुव्र्यवहार झेलने की तकलीफ अभी भी असंबोधित है और आमतौर पर जितना बताया जाता है यह उससे कहीं अधिक फैली हुई है।

भारतीय खेल सभी गलत कारणों से सुर्खियों में रहा है। जैसे राष्ट्र मंडल खेलों से जुड़े कुकर्म मीडिया में आने शुरु हुए, अग्रणी भारतीय महिला खिलाडिय़ों द्वारा यौनिक उत्पीडऩ और दुव्र्यवहार की बात सामने आई। महिला हॉकी से जुड़े कुकर्म अचानक सामने आ गए। भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य, रंजीता ने कड़वाहट के साथ मुख्य कोच, एम.के. कौशिक के खिलाफ शिकायत की। चार पृष्ठों के पत्र में रंजीता ने कौशिक पर यौनिक और अपमानजनक टिप्पणियों का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि कौशिक ने उनसे कहा कि वो बहुत खूबसूरत हैं और उसके दरवाजे उनके लिए हमेशा खुले हैं और वो कभी भी उनके कमरे में आ सकती है। रंजीता की किस्मत अच्छी थी उसे साथियों ने उसका साथ दिया बल्कि हाल ही में मध्य प्रदेश भोपाल में राष्ट्रीय प्रशिक्षण शिविर में उपस्थित सभी 31 महिला हॉकी खिलाडिय़ों ने कौशिक के व्यवहार पर नाराजगी व्यक्त की। फिर मानो ऐसे दुव्र्यवहार की व्यापक प्रकृति को जताने के लिए सिडनी ओलम्पिक कांस्य पदक विजेता कर्णम मालेश्वरी जो इत्तफाक से ओलम्पिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला हैं ने भारतीय खेल प्राधिकरण के भारोत्तोलक कोच, रमेश मल्होत्रा पर जूनियर भारोत्तोलकों को यौनिक रूप से उत्पीडि़त करने का आरोप लगाया।
कुछ कार्यवाही तो हुई। जहां भारतीय भारोत्तोलन संघ ने मल्होत्रा को निलंबित कर दिया, भारत हॉकी पैनल ने रंजीता की शिकायत की जांच के बाद कौशिक को प्रत्यक्षत: दोषी पाया और निलंबित कर दिया। अपनी छवि को बचाने और खिलाडिय़ों का विश्वास दोबारा हासिल करने के लिए, भारत के संघ खेल मंत्रालय ने भारतीय पुरुष हॉकी टीम के पूर्व खिलाड़ी, संदीप सोमेश को महिला हॉकी का कोच बनाया। भारतीय खेल प्राधिकरण ने भी महिला टीम की पूर्व कप्तान, प्रीतम रानी सिवाच और पूर्व खिलाड़ी, संदीप कौर- जिन्होंने विश्व कप और एशियाई खेलों में खेला था उन्हें अतिरिक्त कोच के रूप में नियुक्त किया। दोबारा बनी टीम में अब मधु यादव जो टीम मैनेजर थीं उनके स्थान पर महिला हॉकी के लिए पूर्व सरकारी निरीक्षण रूपा सैनी हैं।
परंतु बदलाव कमोबेश केवल प्रबंधकीय स्तर पर हैं। महिला समाजकर्मी और खेल कॉमेन्टेटरों का मानना है कि भारतीय महिला खिलाडिय़ों द्वारा यौनिक दुव्र्यवहार झेलने की तकलीफ अभी भी असंबोधित है और आमतौर पर जितना बताया जाता है यह उससे कहीं अधिक फैली हुई है। दिल्ली स्थित वरिष्ठ खेल पत्रकार एम.एस. उन्नीकृष्णन के अनुसार व्यक्तिगत और टीम खेल, दोनों में कास्टिंग काउच एक वास्तविकता है। आंध्रप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन की महिला क्रिकेट खिलाडिय़ों द्वारा की गई शिकायत की ओर ध्यान खींचते हुए उन्नीकृष्णन कहते हैं, 'मैंने दूर के और आदिवासी इलाकों में कोच और अधिकारियों द्वारा महिला खिलाडिय़ों सी शोषण के बहुत से मामलों के बारे में सुना है। पिछले साल ही, एक महिला गोल रक्षक द्वारा दुव्र्यवहार कीशिकायत के बाद, महिला हॉकी टीम के गोल रक्षक कोच, एडवर्ड एलोसिअस को हटा दिया गया था। तैराकी और टेनिस जैसे खेल यौनिक शोषण की न सामने आने वाली कहानियों से भरा पड़ा है। बास्केटबॉल, वॉलीबॉल, एथलेटिक्स और भारोत्तोलन का यौन कुकर्मों में अपना अलग योगदान है। महिला क्रिकेट में भी यौन शोषण बेतहाशा फैला हुआ है।' कुछ महीनों पहले, दो महिला क्रिकेट खिलाडिय़ों ने आंध्र प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव, वी. चामुण्डेश्वर पर उन्हें तंग करने का इल्जाम लगाया था।
भारत के महानतम एथलीट माने जाने वाले मिल्खा सिंह ऐसे दोषी पाए जाने वाले कोचों को कालीसूची में दर्ज करने के पक्ष में हैं। 'कोच एक गुरू होता है। ऐसे गलत काम निंदनीय हैं और देश में सभी कोचों के नाम को गंदा करते हैं। मैंने इसी तरह के केस एथलेटिक्स में भी सुने हैं। ऐसे परिदृश्य में क्या मां-बाप अपनी बेटियों को कोचिंग के लिए भेजेंगें? यदि महिला हॉकी खिलाडिय़ों द्वारा लगाए गए आरोप सही हैं तो सरकार और भारतीय महिला हॉकी संघ को इन आरोपियों को छोडऩा नहीं चाहिए।' स्वयं एक महिला खिलाड़ी और 1982 एशियाड के दौरान भारतीय महिला हॉकी संघ की पूर्व सचिव उनकी पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह कहती हैं, 'खेलों में यौनिक उत्पीडऩ उतना ही सच है जितना कि प्रदर्शन बेहतर करने के लिए निषेध दवाएं लेना!'
दुर्भाग्य से इतने वर्षों में परिदृश्य बदला नहीं है। पूर्व अंतरराष्ट्रीय वालीबॉल खिलाड़ी और भीम पुरस्कार विजेता, डॉ. जगमती सांगवान कहती हैं 'भारतीय महिला खिलाड़ी कम से कम पिछले 3 दशकों से यौनिक उत्पीडऩ का सामना कर रही हैं। बल्कि, भारतीय महिला खिलाडिय़ों की दुर्दशा का जिक्र 'खेलों में महिलाओं की भागीदारी- हरियाणा के विशेष संदर्भ के साथ अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी एक केस स्टडी' शीर्षक से उनकी डॉक्टोरल थीसिस में था'। सांगवान, जो आज महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के शारीरिक शिक्षा विभाग में सह-प्रोफेसर हैं, उन दिनों को याद करती हैं जब 1974 से 1986 तक वे एक सक्रिय खिलाड़ी थीं। उन्होंने अक्सर कोचों को महिला खिलाडिय़ों पर बिना मतलब भद्दी टिप्पणियां देते हुए देखा। वो बताती हैं 'वे कामुकतापूर्ण थे और उनके इशारे अश्लील थे। लेकिन उस समय की महिला खिलाडिय़ों ने व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए इसे चुपचाप झेला।' सांगवान, जो अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (एडवा) की रोहतक स्थित सहायक सचिव हैं, हाल ही में संघ खेल मंत्री एम.एस. गिल से महिला खेलों में बदलाव लाने की आवश्यकता पर जोर देने के लिए मिलने गईं।
एडवा उन संस्थाओं में से है, जिनका मानना है कि यौनिक उत्पीडऩ और विशेषकर महिला खिलाडिय़ों के शोषण जैसे व्यापक मुद्दों पर बहुत देर से और बहुत कम काम किया गया। एडवा चाहती है कि सरकार कौशिक के खिलाफ न केवल आपराधिक कार्यवाही करे, उनके द्वारा गिल को दिए गए ज्ञापन में उन्होंने जेंडर संवेदशील खेल नीति और सभी क्षेत्रों में यौनिक उत्पीडऩ शिकायत समितियों के गठन की मांग भी की है। एडवा की कानूनी कनवीनर कीर्ति सिंह ने देखा है, 'खेल के क्षेत्र में इतने व्यापक यौनिक उत्पीडऩ प्रचलन के बावजूद, खेल निकायों के पास ऐसे मामलों से निपटने के लिए शिकायत समितियां नहीं हैं। यह सर्वोच्च न्यायालय के कार्यस्थल पर यौनिक उत्पीडऩ रोकथाम पर मार्गदर्शक सिद्धांतों का पालन न करने के बराबर है।'
उन्नीकृष्णन का तर्क है कि दण्ड अपराध की गंभीरता पर निर्भर होना चाहिए। वे कहते हैं, 'वैसे भी, कोई भी कोच या अधिकारी जिसके नाम पर यौनिक उत्पीडऩ का आरोप है, वो आसानी से बच नहीं सकता। वो कोचिंग का काम तभी कर सकता है जब उसे सारे आरोपों से बरी कर दिया जाए।'
महिला समाजकर्मी महिलाओं के लिए चयन समितियों, खेल समुदायों और संघों में भी 33 प्रतिशत आरक्षण चाहती हैं। उनका मानना है कि जब तब खेल मंत्रालय महिलाओं को चयन समितियों और खेलों की निर्णय समितियों में शामिल करने के लिए अग्रसक्रिय उपाय नहीं करेगा, तब तक यौनिक शोषण चलता रहेगा। एडवा का विचार है कि यौनिक उत्पीडऩ से उदाहरण योग्य तरीके और वांछित तत्परता से निपटने के लिए उचित कानून बनाने का समय आ गया है। संघ खेल मंत्री जेंडर संवेदनशील नीति की मांग को स्वीकार करते हैं परंतु महिला संस्थाओं, जानी-मानी महिला खिलाडिय़ों (वर्तमान और भूतपूर्व) और राष्ट्रीय महिला आयोग के साथ परामर्श करना चाहेगें। उन्होंने एडवा से सभी राज्य सरकारों को खेल निकायों में यौनिक उत्पीडऩ विरोधी समितियां स्थापित करने के लिए सरकुलर भेजने का वादा भी किया है।
दण्ड से छुटकारे की संस्कृति रातों- रात नहीं बदलने वाली। चुनौती है मुद्दे पर फोकस बनाए रखना और सुनिश्चित करना कि सरकार और खेल प्रशासन दोनों संस्थागत बदलाव लाएं ताकि महिला एथलीट कामुकतापूर्ण कोचों और उदासीन प्रशासन से निपटने के बजाय अपने खेल कौशल पर ध्यान केंद्रित कर सकें। (विमेन्स फीचर सर्विस)

जहर की जड़ें

जहर की जड़ें
- डॉ. बलराम अग्रवाल
दफ्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।
'अरे-अरे-अरे, किसने मारा हमारी बेटी को?' उसे प्यार करते हुए मैंने पूछा।
'डैडी.....हमें स्कूटर चाहिए।' सुबकते हुए वह बोली।
'लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने हैं!' इस पर उसकी हिचकियां बंध गई, बोली, 'मेरी गुडिय़ा को बचा लो डैडी।'
'बात क्या है?' मैंने दुलारपूर्वक पूछा।
'पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुडिय़ा की शादी करके हमसे गुडिय़ा छीन ली।' डॉली ने जोरों से सुबकते हुए बताया, 'अब कहती है- दहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूंगी गुडिय़ा को।.....गुडिय़ा को बचा लो डैडी....हमें स्कूटर दिला दो...।'
डॉली की सुबकियां धीरे- धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।
निर्मल खूबसूरती
लड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नजरों को नजरअंदाज करने की। कभी वह दाएं देखने लगती, कभी बाएं। लेकिन जैसे ही उसकी नजर सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी छात्र थे। कुछ ग्रुप में तो कुछ अकेले। सब के सब आपस की बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वही था जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ आया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
'ए मिस्टर!' वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत ताकता रहा।
'जिंदगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या?' उसके ढीठपन पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
'घर में मां- बहन है कि नहीं।' लड़की फिर भभकी।
'सब हैं, लेकिन आप गलत समझ रही हैं।' इस बार वह अचकाचाकर बोला, 'मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।Ó
'अच्छा' लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
'आप समझ नहीं पाएंगी मेरी बात।' वह आगे बोला।
'यानी कि मैं मूर्ख हूं।'
'मैं खूबसूरती को देख रहा था।' उसके सवाल पर वह साफ- साफ बोला, 'मैंने वहां बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा- जो अब वहां नहीं है।'
'अब वो यहां है।' उसकी धृष्टता पर लड़की जोरों से फुंकारी, 'बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो।'
'मैं शादी शुदा हूं, और एक बच्चे का बाप भी।' वह बोला, 'लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। न ही वह किसी एक चीज या एक मनुष्य तक सीमित है। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल खूबसूरती का सजीव झरना थी- अब नहीं है।'
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गई।
'नहीं हूं तो न सही। तुमसे क्या?' वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने के इंतजार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और 'बदतमीज कहीं का' कहकर पैर पटकती हुई वहां से चली गई।
पता : एम -70 , नवीन शाहदरा , दिल्ली -110032, मोबाइल-09968094431