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Nov 27, 2010

ओबामा की भारत यात्रा सुलगते सवाल

- रमेश प्रताप सिंह

देश की कांग्रेस सरकार ओबामा को लगातार हीरो बनाने की कोशिश में लगी हुई है। जबकि राष्ट्रीय हितों पर हमारे प्रधानमंत्री किस हद तक ओबामा को अपने पक्ष में ले सकते हैं यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बराक हुसैन ओबामा सपत्नीक भारत के दौरे पर आए। हमारे प्रधानमंत्री ने प्रोटोकाल को दरकिनार करते हुए उनका स्वागत किया। वहीं एक दिन पूर्व उन्होंने मुंबई में ताज होटल में शहीदों को श्रध्दांजलि तो दी, मगर आतंकवाद के घर पाकिस्तान का जिक्र तक नहीं किया। वैसे भी अगर देखा जाए तो उनकी यह यात्रा पूर्णत: व्यवसायिक एवं निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका की हमेशा से भारत के साथ दोहरी नीति रही है। यही नहीं पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद को जानते हुए भी लगातार उसकी सहायता करना, भला यह कहां की भलमनसाहत है।
यह वही अमेरिका है जिसने सुपरकंप्यूटर और तेजस के इंजनों की आपूर्ति हमें नहीं की थी। और तो और रूस द्वारा दिए जाने वाले क्रायजेनिक इंजनों की आपूर्ति पर रोक लगाने के लिए इसी महाशक्ति ने जोर लगाया था।
अब भारत के बढ़ते बाजार को भुनाने की कोशिश करने पुन: यहां आए। राष्ट्रपति अपने देश की लॉकहीड मार्टिन कंपनी जो एफ-16 और एफ-18-35 जैसे लड़ाकू जहाजों को बनाती है, उसके लिए बाजार ढूंढने आए हैं। हां अपनी इस यात्रा में मंदी के दौर से गुजर रही बोइंग कंपनी को भी उबारने की उनकी कोशिश थी जिसमें वे मुंबई में उस वक्त कामयाब हो गए जब जेट एअरवेज ने 72 बोइंग विमानों के मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिया।
ओबामा की इस यात्रा ने कुछ सवालों को जन्म दिया है, ओबामा ने अपने भाषण में कहीं भी एंडरसन एवं लश्कर के आतंकी हेडली के प्रत्यापर्ण का जिक्र नहीं किया क्यों? उनकी 10 अरब डॉलर की डील से भारत को क्या मिलेगा? उनकी इस यात्रा से अमेरिका में 50 हजार नौकरियां पैदा होंगी, ऐसे में भारत में कितने बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा? अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को चरणबद्ध ढंग से हटाया जाएगा। इससे भारतीय हितों का क्या होगा? अमेरिकी कृषि में निवेश करने को तैयार हैं, तो इससे हमारे देश में खेती किसानी करने वालों का क्या होगा? हमारे देश की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा खेती किसानी करता है। यानि अब उनकी नजर हमारी खेती की जमीनों पर भी है? इससे साफ जाहिर होता है कि ओबामा भारतीय कृषि पर डाका डालना चाहते हैं। वहीं आउटसोर्सिंग पर अमेरिका का रुख आज भी स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा भारत को सुरक्षापरिषद में अस्थाई सदस्यता एवं अमेरिकी वित्तीय सलाहकार परिषद की तीन साल की सदस्यता देकर वे उन भारतीयों की सद्भावना बटोरना चाहते हैं, जिनके कारण उनकी पार्टी को चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा। उनकी इस यात्रा का लब्बोलुआब भारत के 15.1 अरब डॉलर के रक्षा बजट पर है। वे 126 बहुद्देशीय लड़ाकू विमानों का सौदा हथियाने आए हैं। अब वे इसमें कितने कामयाब होंगे यह तो समय ही बताएगा।
देश की कांग्रेस सरकार ओबामा को लगातार हीरो बनाने की कोशिश में लगी हुई है। जबकि राष्ट्रीय हितों पर हमारे प्रधानमंत्री किस हद तक ओबामा को अपने पक्ष में ले सकते हैं यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। अलबत्ता भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले कई दशकों से ही उसकी भारतीय नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसे में उसमें बदलाव की उम्मीद रखना बचकानी होगी। इस यात्रा से देश की एक अरब जनता का क्या भला होगा? इसी का जवाब खोजना शेष है। अंत में सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि-
अंधेरा है या तेरे शहर में उजाला है,
हमारे जख्म पे क्या फर्क पडऩे वाला है।।
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