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Oct 25, 2017

उदंती.com अक्टूबर-2017

उदंती.com अक्टूबर-2017

जलाओ दिये,
पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर,
कहीं रह न जाए
   -गोपाल दास नीरज

Oct 24, 2017

प्रेरक

जीवन को बेहतर बनाने वाली कुछ बातें      
खुद को ही एक चपत लगाइए
 स्मोकिंग मत कीजिए। स्मोकिंग करना ही चाहते हों ,तो कहीं से ढेर सारे कैंसरकारक पदार्थ जुटाकर उन्हें चिलम में भरकर उनका धुँआ अपने फेफड़ों में खींच लीजिए और बची हुई राख को चाय-कॉफ़ी में घोलकर पी जाइए।
मैं मजाक कर रहा था।
कुछ मत कीजिए।
हो सके तो खाद्य पदार्थों को उस रूप में ग्रहण करने का प्रयास करें, जिस रूप में वे प्रकृति में उत्पन्न होते हैं।
पेड़ में डाल से लगा कोई सेब या संतरा वैसा ही दिखता है ,जैसा फलों की दुकान में मिलने वाला सेब या संतरा होता है।
फ़्लेवर और प्रिज़रवेटिव वाला दूध-दही मत लीजिए। प्राकृतिक रूप में मिलने या बनने वाला दूध-दही उपयोग में लीजिए।
आलू और भुट्टे के चिप्स दिखने में प्राकृतिक नहीं लगते। उन्हें मत खाइए। ऐसी कोई चीज मत खाइए, जो नाइट्रोजन भरे हुए उस पॉलीपैक में मिलती है ,जो भीतर से चांदी जैसा दिखता है। यह सब खान-पान बस स्वाद का मजा देगा, लेकिन सेहत बिगाड़ेगा।
एक्सरसाइज़, व्यायाम और योग वगैरह महत्त्वपूर्ण गतिविधियाँ हैं ,लेकिन इन्हें पागलों की तरह करने में कोई तुक नहीं है। मैं ऐसे बहुत से वयोवृद्ध स्वस्थ व्यक्तियों को जानता हूँ जो कभी जिम में नहीं गए;  
लेकिन वे खूब चलते-फिरते थे। अपनी जवानी में वे बाज़ार से झोले भर-भर कर सामान लाते थे। घर से थोड़ा दूर किसी काम से पैदल चलकर जाने में उन्होंने कभी आलस नहीं किया।
लेकिन मैंने ऐसे भी कई लोग देखे जिन्होंने कभी कोई एक्सरसाइज़ नहीं की। उनके अंतिम दिन बड़े बुरे बीते।
अपना वजन कम रखिए लेकिन इसे लेकर कोई तनाव नहीं पालिए। यदि आपका वजन वांछित से 50 किलो अधिक है तो मानकर चलिए कि यह आपके लंबे जीवन की कामना के आड़े आएगा। इतना अधिक वजन आपको डायबिटीज़, हृदय रोग, कैंसर की चपेट में ले सकता है।
अधिक वज़न का मतलब है बुरी खबर। वांछित से 5 या 10 किलो अधिक वज़न भी इनके खतरों को थोड़ा बढ़ा देता है। आपका वजन अपनी ऊँचाई के अनुपात में होना चाहिए।
लेकिन यदि 10 किलो अतिरिक्त वज़न घटाने के प्रयासों से आपको तनाव हो रहा हो ,तो बेहतर है कि आप मोटे ही बने रहें। तनाव भी आपके लिए बुरी खबर है। असल में आपको अपने प्रति ईमानदार बने रहना है। यदि बात अतिरिक्त 5 या 10 किलो वजन की ही है ,तो टेंशनमत लीजिए। लाइफस्टाइल में छोटे-छोटे वे बदलाव करें ,जो आप बिना किसी टेंशन के झेल सकते हों।
तनाव की बात से याद आया- तनाव कम करें। ये बहुत कठिन काम है। मेरे लिए भी बहुत कठिन है। मैं बहुत काम करता हूँ। घर का भी, दफ़्तर का भी, बाहर का भी। घर है, पत्नी है, बच्चे हैं, दो-दो गाडिय़ाँ हैं, ब्लॉग है, बॉस है। खुद को डी-स्ट्रेस करना बहुत कठिन है। लेकिन आप चाहें तो कर सकते हैं।
ध्यान करें, योग करें, गाना गाएँ, कोई वाद्ययंत्र बजाना सीखें, पहाड़ी चढ़ें, घास पर लुढक़ें। जिसमें आपको आनंद आए वह काम करें। किसी हीरोइन से भी दिल लगा लें, लेकिन हेरोइन से दूर रहें।
दिल लगाने से याद आया-  किसी से प्यार करें। डूबकर प्यार करें। आँकड़े बताते हैं कि किसी से प्यार करने वाले और हैप्पिलीमैरिड लोग अकेले रहने वालों की तुलना में अधिक जीते हैं और अधिक स्वस्थ होते हैं।
जब आपको लगे कि आपके मन में कोई नकारात्मक विचार आ रहा हो , तो कुछ भी ऐसा करें जिससे वह रुक जाए। खुद को ही एक चपत लगाइए। कोई पॉज़िटिव बात इतनी जोर से चिल्लाकर कहें कि आसपास के लोग अच्छे से सुन सकें। पॉज़िटिवमाइंडसेट में वापस आने के लिए जो कर सकते हों करें।
जो कुछ भी आप करते हों उसपर मनन करते रहें लेकिन सोच-विचार में अति भी न करें। बड़े-बड़े मोटिवेशनल गुरु की बातों में आकर अपने जीवन को सरल-सहज करने पर पिल न पड़ें;लेकिन अपनी ज़रूरतें कम रखें। हजार मील की यात्रा भी एक कदम रखने से शुरु होती है। अपने जीवन में बड़े बदलाव करने के लिए हड़बड़ी न करें।
ज़िन्दगी में सब कुछ जुटा लेने की होड़ में न पड़ें। मोह में न पड़ें। खुद को निर्लिप्त बनाने का प्रयास करें। कठिन है। इसे समझाने के लिए एक दूसरी ही पोस्ट लिखनी पड़ेगी। गीता पढ़ें। कुछ-कुछ समझ में आ जाएगा।अ
लेकिन इस संसार में रूचि बराबर लेते रहें। इससे मुँह न मोड़ें। यह मान लें कि ये दुनिया एक जंगल है और आप एक दुस्साहसी व्यक्ति की तरह इसका अन्वेषण कर रहे हैं।
छोटी-छोटी अनूठी नित-नवेली बातों को रस लेकर घटित होते देखें। नई चीजें ट्राइ करते रहें। खतरे मोल न लें लेकिन कभी-कभार अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलें।
बीती ताहि बिसार दें। आगे की सुध लें।
आप अतीत को नहीं बदल सकते। इसके बारे में तभी सोचें जब इससे कोई सबक मिलता हो। आपका वर्तमान ही आपके भविष्य का सृजन करेगा। वह काम करें जो आपको अच्छाई की ओर ले जाए, आपके जीवन को बेहतर दिशा दे।
इस क्षण में जिएँ। (हिन्दी ज़ेन से)

कितने अँधेरे और कब तक?

कितने अँधेरे 
और
कब तक?
 - रत्ना वर्मा


 हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने मन की बात कार्यक्रम में दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि देशवासी दीवाली का दीया जलाकर गरीबी, निरक्षरता और अंधविश्वास के अंधकार को दूर करने का संकल्प लें।
बात बिल्कुल सच्ची है। यदि प्रत्येक देशवासी मिट्टी का एक-एक दिया जलाकर और पटाखे न फोड़ऩे का संकल्प लेते हुए उजालों का यह पर्व मनाएँ, तो देश भर में जलाए जाने वाले पटाखों के धुएँ से होने वाले प्रदूषण से तो मुक्ति मिलेगी ही, साथ ही रोशनी के नाम पर घर-घर जलाए जाने वाले बिजली की जगमगाती झालर वाले लट्टुओं पर जो बिजली खर्च होती है, उसमें भी बचत होगी; लेकिन इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में ऐसा होता कहाँ है?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा लोगों की सेहत और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए दिल्ली-एनसीआर में दिवाली के मौके पर पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद पटाखा कारोबारियों ने नए-नए तरीके ईजाद कर लिये हैं। उन्होंने सामान बेचने की बजाय गिफ्ट करने का तरीका ढूँढ निकाला है। इसके अलावा वे ऑनलाइन पटाखा बेचने व घर पहुँच सेवा की तैयारी में हैं, जबकि दिल्ली के बाद मुम्बई हाई कोर्ट ने भी रिहायसी इलाकों में पटाखा बेचने पर सख्त पाबंदी लगा दी है।  इस संदर्भ में न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.के. सिकरी जी ने भी कहा है कि हमें कम से कम एक दिवाली पर पटाखे मुक्त त्योहार के रूप में मनाकर देखना चाहिए।
अब तो पटाखों के बाद इलेक्ट्रॉनिक रोशनी पर भी प्रतिबंध लगाने की याचिका दायर करनी पड़ेगी। आजकल तो लोगों में अपने घर को रंग- बिरंगे लट्टुओं से सजाने की जैसी प्रतिस्पर्धा-सी चल पड़ी है। मानों वे कह रहे हों कि देखों मेरे घर की रोशनी तुम्हारे घर से ज्यादा और सुन्दर है। पिछले दिनों चायनीज़बल्बों के कारण लोगों के आँखों की रोशनी कम हो जाने की शिकायतें और अन्धेपन की घटनाओं के बाद चायनीज़ बल्बों पर प्रतिबंध लगाने की बात उठी थी।  ऐसे में दीवाली के अवसर पर जगमगाने वाली छोटे छोटे बल्बों की ये झालरें आँखों के लिए कितनी सुरक्षित हैं यह भी जानना होगा।
दरअसल आज हमारे पर्व- त्योहार और परम्पराएँ अब मेल-मिलाप और पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने वाले नहीं ;बल्कि दिखावा और बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाले अवसर बन गए हैं। अखबारों, टीवी, और मोबाइल में विज्ञापन ही विज्ञापन भरे होते हैं। जहाँ देखो वहाँ छूट। ये त्योहार अब हमारी सांस्कृतिक खुशियों का उत्सव न होकर खरीदी-बिक्री और लेन-देन का अवसर बन गए है।
उजालों का संदेश देने दीपावली का यह पर्व प्रति वर्ष आता है। हम अपने- अपने घरों की साफ- सफाई कर पूरे घर की गंदगी को बाहर करते हैं।  पर क्या हम अपने मन के भीतर और अपने आस-पास की गंदगी और अँधियारे को दूर कर उजाला फैला पाते हैं? क्या जीवन में चारो तरफ छाए बाहरी अँधेरे को दीये की रोशनी से भगाने का प्रयास करते हैं? क्या इन दीयों और लट्टुओं की रोशनी हमारे आस- पास छाए गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, और आतंकवाद जैसे राक्षस की काली छाया को जरा भी मिटा पाई है?
ऐसे भयानक वातारवण में मुझे अपने बचपन की दीपावली याद आती है। गाँव के वे घर, जिनकी मिट्टी की दीवारों को छुही में नील डालकर सुन्दर पुताई की जाती थी और दरवाजे के दोनों ओर सुन्दर रंगीन फूल-पत्तियों से चित्रकारी होती थी। गाँव में अधिकतर घर तब खपरैल वाले होते थे। कुम्हार खपरैल बनाता था, उससे हर साल घरों के खपरैल की मरम्मत हो जाती थी। दीपावली के समय यही कुम्हार दीये बनाकर रखता था। तब लट्टुओं की रोशनी तो कल्पना में भी नहीं थी। पूरा घर-आँगन ही नहीं पूरा गाँव, गाँव की गलियाँ और चौबारे,सब दीयों की रोशनी से झिलमिलाते थे। इस समय किसान की फसल खेतों में लहलहाती रहती है और कीटों का प्रकोप भी उन्हें झेलना पड़ता है; लेकिन फसल को चौपट करने वाले ये माहू कीट हजारों की तादाद में जगमगाते तेल के दियों की रोशनी से आकर्षित होकर मर जाते हैं। यानी इनपर कीटनाशकछिड़कने की आवश्यकता ही नहीं होती।
इसी प्रकार आज उदाहरण दिया जा रहा है कि विदेशों की तर्ज़ पर खुले मैदान में गाँव शहर से कुछ दूर मैदानी इलाके में जाकर आतिशबाजी की जाए... तो ऐसा कहने वालों पर हँसी आती है कि इसमें विदेशों की बात क्यों आ रही है। यह तो हमारे भारत की अपनी परम्परा रही है। लक्ष्मी पूजा के दिन हम शाम को सपरिवार लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं, और फिर परिवार और गाँव के बड़े- बुज़ुर्गों से आशीर्वाद लेने जाते हैं। दूसरे दिन गोवर्धन पूजा पर दिन में गाय की पूजा कर उन्हें खिचड़ी खिलाते हैं फिर गोधूलि वेला में पूरा गाँव एक जगह इकट्ठा हो जाता, तब सारे बच्चे मिलकर पटाखे फोड़ते और आतिशबाजी का आनंद लेते हुए गोधन का इंतजार करते हैं। यह परम्परा तो आज भी गाँवों में जारी है। शहरवासी जरूर यह सब नहीं जानते, और यही वजह है कि उन्हें अपने अपने घरों के सामने आतिशबाजी करनी पड़ती है।
इस त्योहार की यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि लक्ष्मी के आगमन के बहाने लोगों ने अनेक बुराइयों को अपना लिया है। अपनी समृद्ध परम्परा और संस्कृति का उपहास उड़ाते लोग शराब और जुएमें डूब जाते हैं। जितनी चादर उतना पाँव पसारने के बजाये दिखावे में जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं ,जो स्वयं और उनके परिवार के लिए भविष्य में अनेक परेशानियों का कारण बनता है।
ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि अपने भीतर फैले अँधेरे को दूर करते हुए अधिक धुआँ छोड़ऩेवाले तथा भयंकर शोर करने वाले पटाखे फोडऩे की घातक परम्परा को समाप्त करके खुशियाँ मनाने के अन्य तरीके तलाशे जाएँ। हम सबका यह नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है कि देश में फैली विभिन्न कुरीतियों से दूर रहते हुए गरीबी, अज्ञानता, निरक्षरता जैसे मन के अंधकार को दूर कर इस महान पर्व के उजियारे को युग-युगांतर तक फैलाते चलें।                              

अनैतिकता पर नैतिकता की विजय का पर्व

तमसो मा ज्योर्तिगमय
अनैतिकता पर नैतिकता
की विजय का पर्व
-डॉ. कविता भट्ट
प्रकाश का पर्व ‘दीपावली’ अर्थात् ‘दीपकों की पंक्ति’ पुनः-पुनः एक वर्ष के अन्तराल पर  उपस्थित होता है। इस पर्व को मनाने के मूल में उपस्थित यों तो अनेक मान्यताएँ हैं; किन्तु मुख्य मान्यता यह है कि ‘अनैतिक गतिविधियों के प्रतिनिधि रावण’ पर ‘नैतिकता के प्रतिनिधि राम’ अपनी विजयोपरान्त जब स्वदेश अर्थात् अवधपुरी लौटे तो उनके स्वागत में दीपकों की पंक्तियों अर्थात् ज्योतिमालाओं से सभी मार्गों और घर-चौबारों को सजा दिया गया था। यद्यपि उस रात आमावस्या थी; किन्तु अवधनगरी के नागरिकों ने अनैतिकता पर नैतिकता की विजय की प्रतिस्थापनास्वरूप उस काली रात को पंक्तिबद्ध ‘दीपकों’ या ‘ज्योतिपुंजों’ द्वारा प्रकाशोत्सव में परिवर्तित कर दिया। प्राकृतिक पकवान-मिष्ठान्न आदि वितरण एवं नृत्य-गायन आदि के साथ हर्षोल्लास मनाया गया।  ऐसा माना जाता है कि यह परम्परा तब से अभी तक निर्बाध रूप से गतिशील है। वस्तुतः यह पर्व मात्र एक बाह्य या सामाजिक अंधानुकरण नहीं; अपितु इसके मूल में गहन नैतिक संदेश है; किन्तु आज हम इस संदेश को भूलकर मात्र बाह्य प्रकाश के संसाधन एकत्र करने में व्यस्त हैं- अब किंचित् ही दीपक दिखते हैं; दीपक और मिष्ठान्नों का स्थान ले लिया अधिकाधिक मुनाफे का पर्याय मिलावटी मिठाइयाँ, लड़ियाँ-बल्ब-हेलोजेन लाइट्स-आतिशबाजी आदि न जाने क्या-क्या। जितने अधिक ये संसाधन होंगे- स्टेटस उतना ही बड़ा; जबकि ये सभी पर्यावरण को अथाह हानि पहुँचाते हैं।  साथ ही स्टेटस के संसाधनों को जुटाने हेतु जो अनैतिक गतिविधियाँ हम अपनाते हैं; वे वैयक्तिक एवं सामाजिक अहित के मूल कारण हैं। हम बाहरी जगमग में खो गए; जबकि आन्तरिक रूप से हम अनैतिकता के गहन अंधकार में भटक चुके हैं। दीपावली का अभिप्राय बाह्य प्रकाश के संसाधन कदापि नहीं; इसका प्रयोजन तो आत्म-प्रकाश है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मूल में वेद एवं उपनिषद् साहित्य के संदेश हैं और साररूप में ये जीवन की कला एवं विज्ञान दोनों ही हैं। ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतंगमय।।’ अर्थात् ‘हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो; अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व’ की ओर ले चलो जैसे आध्यात्मिक एवं नैतिक संदेशों से भारतीय वाङ्मय भरे पड़े हैं। इस सभ्यता ने हमेशा ही नैतिकता को जीवन का मूल आधार माना; किन्तु प्रश्न यह भी है कि वर्तमान परिदृश्य में भारतीय सभ्यता क्या अपने इन मूल मन्त्रों से भटक चुकी है? या भौतिक मोहपाश के कीच में आकंठ निमग्न हो चुकी है। यह प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है; क्योंकि विगत कुछ वर्षों से संसार के मानचित्र पर भारतवर्ष भ्रष्टाचार के पहाडस्वरूप खड़ा है। यह कोई मिथ्या नहीं; स्वयंसिद्ध है; यद्यपि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर नई-नई सरकारें बन जाती हैं; तथापि प्रश्न वैसे ही खड़ा है कि क्या बिना आत्मविश्लेषण के भ्रष्टाचार या अनैतिकता का उन्मूलन सम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं अनैतिक गतिविधियों का विश्लेषण करता है; किन्तु स्वयं को उस विश्लेषण से विलग रखकर। 
प्रश्न यह है कि भारतीय संस्कृति के आत्मस्वरूप ये पर्व क्या मात्र चार्वाक् दर्शन के अनुगमन का प्रतीक बन गए हैंकिन्तु पारम्परिक रूप से भारतीय संस्कृति के मूल में उपस्थित इन पर्वों के नैतिक प्रतीकीकरण से हमने अन्धकार पर कितनी विजय प्राप्त की? यह अत्यंत जटिल प्रश्न है। आइए विश्लेषण करते हैं; इन प्रश्नों के मूल में उपस्थित कारणों एवं उनके सार्वभौमिक निवारण का।
ध्यातव्य है कि विश्लेषणात्मक दृष्टि से ‘दीपावली’ देहगत अन्धकार को आत्मज्ञान के प्रकाश से दूर करने का एक रूपक है। ‘दीपक’  या ‘ज्योतिपुंज’ प्रतीक है- सार्वभौमिक हितों हेतु वैयक्तिक हितों के बलिदान का। यह प्रतीक है- स्थूल या भौतिक परिधियों का उच्छेदन करते हुए चैतन्य के विविध स्तरों को पार करते हुए आत्मचैतन्य के परमचैतन्य में सम्मिलन का।माटी का दीपक मात्र ज्योतिपुंज नहीं होताज्योतिपुंज में तीन संघटक होते हैं- रूई की बाती, तेल एवं माटी का दीपक। दार्शनिक विश्लेषण के अनुसार मानव के व्यक्तित्व की तुलना भी दीपक से की गई है। जिस प्रकार ये तीनों मिलकर ज्योतिपुंज को तैयार करते हैं; उसी प्रकार मानव व्यक्तित्व में त्रिगुण अर्थात् सत्त्व, रजस् एवं तमस् की परिकल्पना आयुर्वेद के साथ ही उपनिषदों, सांख्य, योग तथा गीता आदि दर्शनशाखाओं में की गई है। सत्त्वगुण परोपकार, ज्ञान, प्रकाश, विवेक, नैतिकता, यथोचित निर्णय, सकारात्मकता, शान्ति तथा सद्गुणों का प्रतिनिधि है। रजस् गुण क्रियाशीलता, साहस के साथ ही स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ तथा मोह आदि का प्रतिनिधि है। तमस् गुण अविवेक या अज्ञान, अन्धकार, आलस्य तथा निद्रा आदि का प्रतिनिधि है। इन गुणों का परस्पर विरोध चलता रहता है और जब व्यक्ति पर जो गुण प्रभावी होता है; उसी की परिणति दैनिक क्रिया-कलाप में होती है। यदि तमस् प्रभावी हो तो अविवेक एवं आलस्य से युक्त होकर व्यक्ति नकारात्मक गतिविधियों का स्वामी होता है। यदि उसके साथ ही रजस् की अधिकता इस अज्ञान के साथ मिलकर व्यक्ति को अहंकारी एवं निरंकुश बना देती है। वह अपने व्यक्तित्व में उपस्थित आत्मतत्त्व को भूलकर मात्र सांसारिक एवं भौतिक सुख-सम्पन्नता हेतु समस्त अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है। इन दोनों ही गुणों का अस्तित्व तो रहेगा ही और रहना भी चाहिए क्योंकि व्यक्ति को आजीवन क्रियाशील रखने हेतु रजस् आवश्यक है। साथ ही जब कार्य करते-करते व्यक्ति थक जाए, तो उसे मनोशारीरिक विश्राम चाहिए। इसके लिए तमस् का अस्तित्व आवश्यक है। इन दोनों गुणों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता; किन्तु व्यक्तित्व पर इनका अतिप्रभाव एक अस्वस्थ, अनैतिक एवं असंतुलित व्यक्तित्व हेतु उत्तरदायी है। अतः इन गुणों के यथोचित नियमन हेतु व्यक्तित्व को सत्त्व गुण की अधिकता द्वारा निर्देशन मिलना आवश्यक है। तभी व्यक्तित्व स्वस्थ, नैतिक एवं संतुलित होगा। जितना सत्त्व अधिक होगा; व्यक्ति उतना ही आत्मतत्त्व के निकट होगा और उतना ही अधिक नैतिक होगा।    
सत्त्व का रंग श्वेत, रजस् का रंग लाल एवं तमस् का रंग काला माना गया है। अब थोड़ा दीपावली की दीपज्योति के रंग पर ध्यान देना चाहिए और इस सन्दर्भ में त्रिगुणों को समझना चाहिए। ज्योति को ध्यान से देखने पर इसमें प्रकाश की तीन परतें दृष्टिगोचर होती हैं। सबसे भीतर काली, उसके बाहर लाल एवं सबसे बाहर या ऊपर शुभ्र वर्ण ,जो अपने चारों ओर व्याप्त कालिमायुक्त अन्धकार को अपने वर्ण में रंजित कर प्रकाश का स्फुरण करता है। इसकी तुलना यदि व्यक्तित्व में उपस्थित त्रिगुणों से करें तो यह समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व को प्रकाशमान बनाये रखने हेतु सत्त्व को प्रभावी करने के उपक्रम आवश्यक हैं।
त्रिगुण सिद्धान्त के साथ ही व्यक्तित्व की एक और विवेचना जो उपनिषद् साहित्य में प्राप्त होती है; उसे समझना भी यहाँ प्रासंगिक है। भारतीय दर्शन की अधिकतर शाखाओं द्वारा भी जिसे यथारूप स्वीकृति दी गई है; वह है- व्यक्तित्व की पंचकोशीय अवधारणा। व्यक्तित्व की पांच स्तर माने गये है; जो आत्मतत्त्व या चैतन्य के ऊपर प्याज की परतों की भाँति एक दूसरे को आवृत्त किए हुए हैं; इन्हें पंचकोश कहा जाता है। हमारे व्यक्तित्व में आत्मतत्त्व सबसे भीतर चैतन्यस्वरूप है जो ब्रह्मांडीय या सार्वभौम चेतना या परमचेतना का ही एक अंश है। ऐसा माना गया है कि इसके सबसे निकट आनन्दमय स्तर या कोश एक परत के रूप में है। साथ ही आनन्दमय के बाहर विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोश भीतर से बाहर की ओर क्रमशः एक दूसरे के ऊपर हैं। जो सबसे बाहरी है और हमें दिखाई देता है; वह स्थूल शरीर है। समस्त अंग-प्रत्यंग-ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ आदि इसी का भाग हैं और आत्मचैतन्य के अभाव में यह स्थूल शरीर नितान्त जड़ हैं। अतः इस पर तमस् गुण प्रभावी है। जैसे-जैसे व्यक्तित्व का आन्तरिक कोशों की यात्रा करते हैं; वैसे-वैसे तमस् का प्रभाव न्यून होने लगता है। अन्नमय का नियमन प्राणमय तथा प्राणमय का नियमन मनोमय कोश करता है। प्राणमय एवं मनोमय कोशों में रजस् गुण का आधिक्य होता है। ये विज्ञानमय कोश द्वारा नियन्त्रित होते हैं। विज्ञानमय तक आते-आते रजस् एवं तमस् का प्रभाव कम होने लगता है तथा सत्त्व का प्रभाव बढ़ने लगता है। विज्ञानमय को आनन्दमय कोश अनुशासित करता है; जो नितान्त सात्त्विक होता है। आनन्दमय कोश आत्मप्रकाश से युक्त एवं सत्त्वगुण से युक्त होने के कारण व्यक्ति को सकारात्मक एवं विवेकी बनाता है। इसके भीतर आत्मतत्त्व या विशुद्ध चैतन्य है; जो निर्गुण है। इस प्रकार आत्मतत्त्व किसी भी गुण के प्रभाव में न होने  के कारण तटस्थ द्रष्टा है। यह सांसारिक गतिविधियों को एक दर्शक की भाँति देखता है। यह व्यक्ति को उचित-अनुचित तथा नैतिक-अनैतिक आदि प्रतिलोमों में भेद का दिग्दर्शन करवाता है; किन्तु इन्द्रिय-सुख में लिप्त व्यक्ति को इस द्रष्टा के निर्देश को नहीं मानकर अपने मन एवं शरीर की सुनता है। शरीर तमस् गुण प्रधान एवं इन्द्रिय-सुखों का कारक है। मन रजस् से युक्त होने के कारण अति चंचल है। अतः ये दोनों ही सत्त्व पर प्रभाव जमाकर नैतिक दृष्टिकोण को प्रस्फुटित नहीं होने देते। व्यक्ति को स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताएँ अपने वश में कर लेती हैं। 
    इन्द्रिय-सुख अर्थात् आँख, जीभ, त्वचा, नाक तथा कान को अनुकूल संवेदनाओं क्रमशः सुखद रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा शब्द का मोहपाश बाँधे रखता है। यह बन्धन इतना जटिल है कि मनुष्य इसके लिए असीम अनैतिक कर्म करता है। समस्त अनियमितताओं एवं भ्रष्टाचार का मूल यह इन्द्रिय-सुख ही है। हम सर्दी में गर्म से गर्म कपड़े तथा वातानुकूलित कक्षों का प्रयोग करना चाहते हैं। गर्मी में अधिक से अधिक वातानुकूलन प्रयोग करते हैं। यह मात्र एक उदाहरण है; ऐसे ही अन्यान्य सुख हम चाहते हैं। परिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन-सम्पदा-भौतिक संसाधनों) को जमा करते हैं; ताकि सदैव सुखद इन्द्रियों संवेदनों से युक्त रह सकें। उस सुख के अतिरिक्त हम कुछ भी सोचने-समझने की स्थिति में नहीं रहते; क्योंकि तमस् का अन्धकार इतना अधिक प्रभावी होता है कि सत्त्व का प्रकाश असहाय स्थिति में होता है। आधुनिक परिदृश्य में यही हुआ- स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताओं ने व्यक्ति को अपने वश में कर लिया। स्वार्थ से अधिक सोचने एवं समझने की स्थिति में वह है ही नहीं।
 श्री अरविंद व्यावहारिक स्तर पर चेतना की चार अवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। चेतना की पहली अवस्था, तामसिक, दूसरी राजसिक, तीसरी सात्त्विक एवं अन्तिम या चौथी निर्गुण है। तामसिक एवं राजसिक अवस्था में व्यक्ति इन्द्रिय-सुख एवं आज में विचरण करता है, यह अज्ञान, अंधकार, काम, क्रोध तथा मोह आदि से युक्त है। ध्यातव्य है कि यह तमस् के प्रभाव में होते हुए भी आंशिक रूप से सत्त्व का प्रकाश पड़ते ही ज्ञान की खोज में समर्थ है। यह आन्तरिक ज्ञान-दीप्ति तथा अज्ञानमय मन के आत्मिक चेतना द्वारा रूपान्तर से ही सम्भव है।  यह ज्ञान की व्यावहारिक अवस्थाएँ हैं; किन्तु आत्मचैतन्य या आत्मज्ञान की अवस्था इन सबसे अधिक व्यापक है। वह आत्मचैतन्य के सर्वाधिक निकट आनन्दमय कोश में अवस्थित होती है। जब सत्त्वगुण प्रभावी होता है इसकी प्राप्ति तभी सम्भव है। जब तक सांसारिक क्रिया-कलापों में निमग्न हैं; तब तक ज्ञान की इसी अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। आत्मचेतना के परमचेतना में सम्मिलन हेतु इससे भी उच्चतम अवस्था अपेक्षित है। वह तो नैतिकता-अनैतिकता की सीमाओं से परे निर्गुण एवं निर्विकार अवस्था है। वह आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में विवेच्य है; किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सात्त्विक ज्ञान की अवस्था तक पहुँच सकें तो वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान सम्भव है।
जब यह ज्ञान हो जाता है; तो व्यक्ति स्वयं ही ‘ज्योतिपुंज’ बन जाता है; बाहर अन्धेरा है या प्रकाश; उससे वह प्रभावित नहीं होता। ये सकारात्मक प्रवृत्तियाँ ही राम जैसे विराट व्यक्तित्व को जन्म देती हैं। इतिहास साक्षी है कि राम ने युद्ध यदि मात्र सीता को शारीरिक रूप से प्राप्त करने हेतु किया होता तो वे एक धोबी के कहने पर उसे त्यागते नहीं। अतएव राम एक सन्देश है; वैयक्तिक हितों का सामाजिक हितों के लिए त्याग; और उसी सन्देश हेतु ‘ज्योतिपुंज’ से प्रकाशित ‘दीपावली’ मनायी जाती है। इसके लिए आवश्यकता है; व्यक्तिगत स्वार्थ की परिधियों को तोड़ते हुए तमस् एवं रजस् आधीन हुई अपनी वैयक्तिक चेतना को स्वतन्त्र एवं उन्मुक्त करने की। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति में नकारात्मकता अर्थात् रावण ही निवास करेगा। यदि राम बनना है तो अधिकारभाव को छोड़कर मात्र कर्त्तव्यभाव से कर्म करना। तभी सत्त्व प्रभावी होगा और हमारा व्यक्तित्व ज्योतिपुंज के समान बन सकेगा; जो मानवता को अनन्तकाल तक प्रकाशित करता रहेगा।
       लोकतन्त्र का सिद्धान्त है- समाज के सर्वाधिक उपेक्षित नागरिक की समस्या को भी गम्भीरता से सुनना और उसका समाधान करना। ‘राम’ ने राजतन्त्र में लोकतन्त्र का सिद्धान्त अपनाया और आज लोकतन्त्र में भी राजतन्त्र अपनाया जाता है। इसी की परिणति भ्रष्टाचार में होती है। ‘राम’ का स्वागत उनके विराट व्यक्तित्व के कारण की गयी और ज्योतिपुंज के रूप में उनके सद्गुणों का प्रतीकीकरण किया गया। जो स्वयं प्रज्ज्वलित होकर तथा ताप सहकर दूसरों के लिए प्रकाश प्रसारित करे। आइए- इस दीप-पर्व पर संकल्प लें कि हम सभी ऐसा ही दीपक बनकार ज्योतिपुंज रूपी राम बनें। ताकि हमारा अस्तित्व सुखद हो दुःखद नहीं; आइए प्रार्थना करें-
तमसो मा ज्योतिर्गमय।।’
सम्प्रतिः राष्ट्रीय महासचिवउन्मेष,हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर (गढ़वाल)उत्तराखण्ड

सोशल मीडिया और हम

     सोशल मीडिया और हम  
              - श्याम बाबू शर्मा
सोशल मीडिया से आज कौन अपरिचित होगा? आज सोशल मीडिया, संवाद का वह सशक्त माध्यम बन गया है, जिससे हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे उन लोगों से संवाद एवं विचार-विमर्श कर सकते हैं, जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए हमें एक ऐसा साधन मिला है, जिससे हम न केवल अपने विचारों को दुनिया के समक्ष रख सकते हैं, बल्कि दूसरे के विचारों के साथ-साथ दुनिया भर की तमाम गतिविधियों से भी अवगत होते हैं। सोशल मीडिया सामान्य सम्पर्क या संवाद ही नहीं, बल्कि हमारे कैरियर को तराशने एवं नौकरी तलाशने या लेखन- प्रसार में भी पूरी सहायता उपलब्ध कराता है।
एक वह भी ज़माना था, जब हम कबूतरों के जरिए सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे, फिर कबूतरों का स्थान पत्रवाहकों ने ले लिया और क्रमश: डाकियों के ज़रिये पत्र भेजकर सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। पत्र को भेजने और उसका उत्तर प्राप्त करने में हमें महीनों लग जाते थे ; लेकिन आज..., आज सूचना क्रांति ने हमें सात समुंदर पार बैठे लोगों से भी सीधे बात करने की सुविधा उपलब्ध करा दी है। हम अपने घर-परिवार, हित-मित्रों के हाल-चाल से उन्हें तत्काल अवगत करा सकते हैं। इसे यदि एक वाक्य में कहा जाए तो आज पूरी दुनिया विश्वग्राममें परिवर्तित हो चुकी है और इसका पूरा श्रेय सूचना- क्रांति को जाता है। इसी सूचना -क्रांति से सोशल मीडिया का जन्म हुआ है।
पिछले दो दशकों में हम देखें तो इंटरनेट आधरितसोशल मीडिया ने हमारी जीवन-शैली को बदलकर रख दिया है। हमारी जरूरतें, हमारी कार्य प्रणालियाँ, हमारी रुचियाँ-अभिरुचियाँ और यहाँ तक कि हमारे सामाजिक मेल-मिलाप, वैवाहिक सम्बन्धों का सूत्रधार भी किसी हद तक सोशल मीडिया ही है। सोशलनेटवर्किंग या सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने को रचने में इसकी भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। इसके जरिये हम घर बैठे दुनिया भर के अनजान और अपरिचित लोगों से सामाजिक, राजनीतिक एवं आंतरिक सम्बन्ध बना रहे हैं। ऐसे लोगों से हमारी गहरी छन रही है, अंतरंग संवाद हो रहे हैं, जिनसे हमारी वास्तविक जीवन में कभी मुलाकात ही नहीं हुई है। इतना ही नहीं, हम इसके माध्यम से अपने स्कूल-कॉलेज के उन पुराने दोस्तों को भी खोज निकाल रहे हैं, जिनके साथ हम कभी पढ़े-लिखे, बड़े हुए और फिर वे धीरे-धीरे कर्त्तव्य दायित्व के बोझ तले दुनिया की भीड़ में कहीं खो गए।
दरअसल, इंटरनेट पर आधरित सम्बन्ध-सूत्रों की यह अवधरणा यानी सोशल मीडिया को संवाद- मंच के तौर पर माना जा सकता है, जहाँ हम जैसे तमाम ऐसे लोग, जिन्होंने वास्तविक रूप से अभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं, परन्तु एक-दूसरे से बखूबी परिचित हो चले हैं। आपसी सुख-दुख, पढ़ाई-लिखाई, मौज-मस्ती, काम-धंधे की बातों के साथ-साथ सपनों की बातें भी हममें होती हैं।
दुनियाभर में लगभग 200सोशलनेटवर्किंगसाइटें हैं जिनमें फेसबुक, ट्वीटर, आरकुट, माईस्पेस, लिंक्डइन, फ्लिकर, इंस्टाग्राम (फोटो, वीडियोशेयरिंगसाइट) सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुनिया भर में करीब 1 अरब 28 करोड़ फेसबुक प्रयोक्ता हैं। वहीं, इंस्टाग्राम के 15 करोड़, लिंक्डइन के 20 करोड़, माईस्पेस के 3 करोड़ और ट्वीटर के 9 करोड़ प्रयोक्ता हैं। कहा जाए तो सोशल मीडिया के क्षेत्र में फेसबुक सबसे अग्रणी है।


सोशलनेटवर्किंगसाइट युवाओं की जिन्दगी का एक मुख्य अंग बन गया है। अगर सही मायने में देखा जाए तो आज का दौर युवाशक्ति का दौर है। इसके माध्यम से वे अपनी बात सशक्त तरीके से देश और दुनिया के हर कोने तक पहुँचा सकते हैं। कहा जाता है कि भारत युवाओं का देश है। भारत में इस समय 65प्रतिशत के करीब युवा हैं जो किसी और देश में नहीं हैं और इन युवाओं को जोड़ऩे का काम सोशल मीडिया कर रहा है। युवाओं में सोशलनेटवर्किंगसाइट का क्रेज दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण आज सोशलनेटवर्किंग दुनिया भर में इंटरनेट पर होने वाली नंबर वन गतिविधि बन गया है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार भारत के शहरी इलाकों में प्रत्येक चार में से तीन व्यक्ति सोशल मीडिया का किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हैं। अब तो भारत के गाँवों में भी सोशल मीडिया का क्रेजदिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
एक वह भी ज़माना हमने देखा है, जब लेखन कार्य के क्षेत्र में कुछ गिने-चुने लोगों का ही वर्चस्व था, परन्तु सोशल मीडिया ने आज आम जन-सामान्य को भी लेखन कार्य से जोड़ दिया है। आज पत्रकारिता करने के लिए इसकी औपचारिक डिग्री की आवश्यकता नहीं रह गई है। सोशल मीडिया पर आज प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र पत्रकार हो गया है। वह अपने आस-पास घटित घटनाओं पर अपने स्वतंत्र विचार रखने के लिए इस मंच का भरपूर उपयोग कर रहा है। हम पर सोशल मीडिया का प्रभाव बहुत ही गहरा हुआ है। अब हम ज्यादा सोचने-समझने और सपने देखने लगे हैं और उन सपनों को सोशल मीडिया के जरिए पूरा करने का प्रयास करते हैं। सोशल मीडिया जहाँ एक तरफ हमारे सपनों को एक नई दिशा दे रहा है, वहीं दूसरी ओर उन्हें साकार करने के लिए माध्यम भी उपलब्ध करा रहा है। ब्लॉगिंग के जरिए जहाँ हम अपनी समझ, ज्ञान और भड़ास निकालने का काम कर रहे हैं, लिंक्डइन पर प्रोफेसनल्स से जुडक़र हम अपने कैरियर को नई ऊँचाई दे रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया साइट के जरिए दुनिया भर में अपने समान मानसिकता वालों को जोडक़र सामाजिक सरोकार-दायित्व को पूरी तन्मयता से पूरा करने में संलग्न हैं।
अब सोशल मीडिया के रूप में आम आदमी को ऐसा टूल मिल गया है जिसके जरिये वह अपनी बात एक बड़ी आबादी तक सुगमतापूर्वक पहुँचा सकता है। इसे सोशल मीडिया की लोकप्रियता ही कहा जाए कि आज आम आदमी से लेकर खास आदमी भी इससे जुड़ा हुआ है। हमने देखा है कि कभी कम्प्यूटर का भारी विरोध करने वाले वामपंथी नेताओं को भी पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान फेसबुक पर आना पड़ा था। एक वरिष्ठ माकपा नेता का कहना है कि लोगों से संवाद करने के लिए सोशल मीडिया एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। उनका कहना है, सोशल मीडिया आज बहुत ही जरूरी माध्यम हो गया है। इसके जरिये एक बड़ी आबादी से अपने विचार साझा किए जा सकते हैं। पिछले एक दशक में इस माध्यम का काफी विस्तार हुआ है। हालांकि वे मानते हैं कि राजनीति और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जनता से सीधे सम्पर्क साधना चाहिए, न कि परोक्ष माध्यम के जरिये। उन्होंने कहा, सोशल मीडिया के जरिये लोगों से सम्पर्क तो हो सकता है;लेकिन उनकी समस्याओं के बारे में पता नहीं चल सकता है।
एक बात तो तय है कि जो वरदान है, वही अति होने पर अभिशाप भी बन जाता है। आपको याद होगा, जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तो लगभग प्रत्येक विद्यार्थी को  हिन्दी  में हो या अंग्रेजी में, एक निबंध तो अवश्य ही तैयार करना होता था कि विज्ञान वरदान है या अभिशाप। यह निबंध परीक्षा में अवश्य ही पूछा जाता रहा है। निबंध का उपसंहार लिखते समय हम अपनी बात यह कहकर समाप्त करते थे, कि विज्ञान हमारे जीवन में तभी तक बहुत ही उपयोगी है, जब तक कि उसका सही इस्तेमाल किया जाए। जहाँ इसकी अति हुई वहीं से विनाश होना संभाव्य हो जाता है। यही बात सोशल मीडिया के ऊपर भी लागू होती है। यदि सोशल मीडिया का इस्तेमाल सकारात्मक रूप में किया जाए तो यह उपयोगी है और यदि इसका इस्तेमाल नकारात्मक रूप में किया जाए तो यह विनाशी और प्रलयंकारी होने में क्षण भर नहीं लगाता।
 कई सर्वेक्षणों में भी यह बात सामने आ रही है कि सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव लोगों के जीवन को बरबाद कर रहा है, कई ऐसी खबरें भी आईं हैं कि फेसबुक के कारण बहुत सारे लोगों के वैवाहिक संबंधों में दरार आ रही है। दुनिया भर में आए इन बदलावों में सोशल मीडिया खासकर ट्विटर और फेसबुक ने अहम भूमिका निभाई है। फेसबुक के संस्थापक मार्कजुकरबर्गफेसबुक के अपने खास फीचर और उपयोगकर्ताओं की संख्या के लिए पहले ही बहुत मशहूर हैं, लेकिन अब दुनिया के इतिहास में बड़ा बदलाव लाने के लिए उनका नाम याद किया जाएगा। एक ऐसा व्यक्ति जिसने दुनिया भर के कई मुल्कों में बगैर किसी घातक हथियार के जनक्रांति की बयार बहा दी। इस बयार में कई मुल्कों में सत्ता पर लंबे समय से कब्जा जमाए हुए लोग हाशिए पर चले गए। इन क्रांतियों में जनता ने अभिव्यक्ति को आवाज देने के लिए फेसबुक का सहारा लिया। आने वाले सालों में जब क्रांतियों का इतिहास खंगाला जाएगा तो उसमें साइबर युग नाम का एक नया अध्याय अवश्य जुड़ा होगा।
गौरतलब है कि सोशल मीडिया के ये प्लेटफार्म न सिर्फ व्यक्तिगत जानकारियों के लिए ही प्रयोग में लाए जाते हैं बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मामलों में भी इनका प्रयोग हो रहा है। आपने देखा होगा कि सशक्त लोकपाल बिल की मांग कई दशकों से चली आ रही थी, लेकिन अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिस तरह से भारत में इसकी मांग ने जोर पकड़ी और उसमें लोगों का जन-समर्थन मिला, वह तो चौंकाने वाला ही था। इंटरनेट पर यह आंदोलन बहुत ही तेजी से फैला। यू-ट्यूब पर अन्ना के इस अहिंसक संघर्ष को लाखों लोगों ने देखा। ट्विटर की दुनिया में भी इस क्रांति का तहलका मचा हुआ था। भारी संख्या में खासो-आम और आम आदमी के ट्वीट इस आंदोलन के समर्थन में आ रहे थे। सोशल मीडिया के माध्यम से ही अन्ना के इस आंदोलन को पूरी दुनिया में फैले भारतीयों और विदेशियों का समर्थन मिला।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में देश की राजधानी दिल्ली में हुए निर्भया कांडमें कैसे लोग दोषियों को सजा दिलाने के लिए एकजुट होकर उठ खड़े हुए थे। इसका पूरा प्रभाव पूरे देश में देखने को मिला था और यह सोशल मीडिया का ही कमाल था।
16वीं लोकसभा चुनाव के दौरान भी हमने देखा कि किस तरह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने सोशल मीडिया का उपयोग किया, परन्तु जिस तरह नरेन्द्र मोदी जी की अगुआई में भाजपा ने सोशल मीडिया का उपयोग किया और जिस तरह भाजपा के खाते में बम्पर जीत आई, वह विस्मयकारी थी। मोदी जी ने फेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब के जरिए जिस तरह लोकप्रियता हासिल की, वह एक नया इतिहास बना। लोग उनके फेसबुक पर पोस्ट की गई बातों और तस्वीरों को पोस्ट करते, प्रतिक्रिया देते और उनकी लोकप्रियता में चार चांद लगाते।  पीएम मोदी जी यह जानते हैं कि यदि लोगों से जुडऩा है ,तो सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम हो सकता है। इसी कारण वे आज भारत के नागरिकों एवं अप्रवासी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं।
नकारात्मक एवं सकारात्मक सोच के लोग इसी समाज में रहते हैं। हमें सोशल मीडिया का इस्तेमाल किस सोच के साथ एवं कैसे करना है, यह हमें ही तय करना है। परन्तु इतना जरूर याद रखें कि सोशल मीडिया को इस्तेमाल करते वक्त हम सबको थोड़ी सावधनियाँ जरूर बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो जाए कि अति हो, क्योंकि अति सर्वत्र वर्जयेत।
सम्प्रति: वरिष्ठ अनुवादक, राजभाषा विभाग/मुख्यालय, पूर्वोत्तर रेलवे, गोरखपुर,
 मो.०९७९४८४०६७४ 
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