चार रंग
डॉ.आशा पाण्डेय
1- टूट कर बिखरना
जब कुछ गिरकर
टूटता है तो कैसीझन्न- सी करती हुई एक चटक आवाज आती है। अगले ही पल वह वस्तु फर्श
पर बिखर जाती है; सब कुछ समाप्त हुए जैसा। फिर से जुड़ जाने या जोड़ देने की सम्भावना एकदम
कम। अगर बिखरे टुकड़ों को बीन कर जोड़
देने की कोशिश की भी जाये तो वे पहले जैसे मजबूत कहाँ रहेंगे ? कौन संभालेगा उस कमजोर वस्तु को ? उठाकर फेंक देना
ही ठीक लगता है। कुछ देर का अफ़सोस। वस्तु अगर कीमती है तो अफ़सोस। कुछ लम्बे समय
तक!
सोचती
हूँ, अगर वह वस्तु गिरकर चोट खाते हुए टूट भी जाती किंतु टूटी हुई दिखाई न
पड़ती, बिलकुल ठीक - ठाक, साबुत दिख
रही होती- फिर से उपयोग में लाई जा सकने के लायक, पहले जैसे
सेवा देने के लायक- तब क्या होता ? क्या तब भी किसी को उसके
गिरने या चोटिल होने का, चिटकने या टूट कर बिखर जाने का अफ़सोसहोता
! अपने उपयोग में आने वाली चीज कितनी बार आहत हो रही है , टूट
रही है- ये क्या सोचने की बात भी होती तब!
औरते भी
टूटती हैं, पल-पल टूटती हैं, पर किसी को टूटी हुई दिखाई नहीं
पड़ती हैं। फिर व्यर्थ क्यों उनकी चिंता की जाये? आखिर हैं
तो वे भी उपयोग में आने वाली वस्तु ही।
कितना अंतर है वस्तु और औरत में।
पर दोनों की नियति में ?
नियति में भी अंतर है।
वस्तुएँ
टूटी हुई दिखाई पड़ जाती हैं। थोड़ी देर तक तो लोगों का ध्यान खींचती हैं अपनी
ओर। किंतु औरत !!
यादें कितनी बेसब्र
होती हैं ! किवाड़ बंद कर-करके उन्हें भगाओ फिर भी धकियाती हुई सामने आ ही जाती
हैं। आज सुबह से मुझमें और यादों में यही
तो चल रहा है! मैं उन यादों से बचना चाहती हूँ
जो दिल में गहरे समाती हुई आँखे भिगो देतीं हैं। क्या करूँ ? सहना कठिन होता
है।...अब, जब न अम्मा हैं, न बाबूजी
हैं, न आजी हैं, ना ही दोनों बुआ जी
में से कोई है तो बचपन की हर याद रुलाने ही तो चली आती है। आज आजी ने नम्बर लगाया
है। स्नेहसिक्त किंतु तेज आवाज में पुकार लगाई हैं...असवा...
अब कैसे
न खोलूँ दरवाजा ? दरवाजा खुलते ही आजी आकर बैठ गई हैं
अपने हर रूप में... दबंग, साहसी, कर्मठ, क्रोधी, ममत्व से भरी
हुई , खुश। ... अक्षर ज्ञान नहीं था आजी को पर मेरी शादी में
उपहार स्वरूप ‘रामचरितमानस’
दी थी उन्होंने मुझे।
‘रामचरितमानस’ को उन्होंने घर के किसी सदस्य से नहीं मँगवाया
था, बल्कि गाँव के किसी व्यक्ति से मँगवाकर दी थीं वह
पुस्तक। ... उसे मैं पुस्तक क्यों कह रही हूँ ! पुस्तक नहीं , बल्कि गहरा संस्कार दी थी मुझे। कहीं मैं उनकी बातों को भूल न जाऊँ इसलिए
मानस की चौपाइयाँ पढ़-पढ़ कर दोहराती रहूँ
उनकी सीख को।
मानस के
साथ ही एक छोटा-सा आसामी पंखा, जो दो डंडियों के सहारे खुलकर गोलाकार बन
जाता था... अब सोचती हूँ... मानस के साथ पंखा क्यों दिया था आजी ने!! कुछ तो
प्रयोजन रहा होगा ये दोनों चीजे देने का !!
क्या ये कि- गृहस्थी की आँच में
तपकर हताश हो जाऊँ तो बाँच लूँ चौपाइयाँ और झल लूँ पंखा! ... कि पा जाऊँ सिर पर
आजी के हाथ की ठंडक! ... कि पा जाऊँ आजी के आँचल की छाँव और खड़ी हो जाऊँ नये सिरे
से आगे बढऩे के लिए!...कि जानती थी आजी- गृहस्थी में झुलसना ही पड़ता है और झुलसने
के बाद आजी के पंखे की बयारि नई ऊर्जा दे देगी ! ...अब कहाँ रहेंगी हर समय साथ आजी,
इसलिए निराश होने पर ताकत देंगीं उनकी दी हुई मानस की चौपाईयाँ और शीतल बयारि झलेगा उनका पंखा!!
गीत- संगीत की प्रेमी कभी नहीं थी आजी, किंतु जब अधिक
प्रसन्न होतीं और हम सबका आग्रह हो जाता तो बड़ी मधुर आवाज में दो गीत
सुनातीं... 1- पंखा
प्यारा ऐसी गरमी मा...2- खड़ी हूँ द्वार पर कब से तेरे पूजन
को शंकर जी...। ...भूल न जाऊँ इन गीतों को मैं। लिखकर रख लूँ इन्हें। ... ओह!
इन्हें लिखकर रख लूँगी, पर उनका मधुर
स्वर! गीतों के बोल लिख लेने से वे आजी के गीत होंगे क्या? ... कहाँ से लाऊँ अब आजी की आवाज!!
आज दोपहर फिर से
मेरी उस प्यारी सखी का फोन आ गया। ज़माने भर की कुंठा भरी है उसके मन में। जिन्दगी
दर्द सहते हुए बीत गई, पर दर्द सहने की आदत न पड़ी। अब तो अपने दर्द को कुंठा में बदल कर ज़माने
भर को कोसती रहती है। हमेशा हँसने, खिलखिलाने वाली मेरी वह
सखी विचारों के किस दलदल में धसती जा रही है!! ऐसी नकारात्मक सोच पहले तो नहीं थी
उसकी! विपरीत परिस्थितियाँ इंसान को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती हैं !
पति के साथ रहते हुए भी वह कभी उससे सामीप्य न
महसूस कर पाई, जैसे-तैसे निभ रही थी ज़िन्दगी, पर भगवान को ये भी मंजूर नहीं था, बुला लिया उसके
पति को। एक बेटा है, बची ज़िन्दगी का कोमल सहारा। पर जैसे-
जैसे बड़ा हो रहा है, बोलने और व्यवहार में पिता के कदमों पर
ही चल रहा है।
ज़माने
भर के लडक़ों के साथ लपेट कर वह अपने बेटे की बात करती है। इस प्रकार वह किस दु:ख
को हल्का करना चाहती है! क्या उसे पता नहीं है कि अन्य बिगड़े लडक़ों के साथ लपेटकर
कह देने से न तो वास्तविकता बदलती है और न ही मन हल्का होता है। पर खुलकर दु:ख को
कह देने से भी तो बात नहीं बनती!! अपनी औलाद से अधिक प्यारा कौन हो सकता है, औलाद की बुराई कोई
माँ कैसे कर सकती है भला!! और बुराई करने लायक उसके बेटे में है ही क्या? न आवारागर्दी, न कोई गलत आदत। वह तो बस माँ से ही
उलझा रहता है , माँ का विरोध ही उसका ध्येय बन गया है। एक भी
बात मानने को तैयार नहीं। जिसे वह अच्छा कहेगी उसे वह खऱाब कहेगा और जिसे वह खराब
कहेगी उसे वह अच्छा कहेगा। हमेशा बात काटने को तत्पर, और
भाषा ऐसी कि दिल के आर-पार हो जाए।
माँ के
प्रति ममत्व और आदर का भाव ही तो नहीं है उसमें और किसी माँ के कुंठा अथवा दु:ख
में डूब जाने के लिए क्या ये कम बड़ा कारण है ?
4- लड़कियाँ
आज,जबसे उस सामाजिक संस्था के आयोजन से
लौटी हूँ, मन उद्विग्न है। इस भाषा से सुधरेगा समाज! इस भाषा से होगी स्त्री-
पुरुषों की बराबरी!!
गर्व से
चमकती हुई नज़रों को सब ओर घुमाते हुए कहा था उन्होंने, ‘लड़कियाँ सजने में
कितना समय लेती हैं, इतना ही समय यदि वे अपने दिमाग को
इस्तेमाल करने में लगाएँ तो कुछ प्रगति कर ले जाएँ।’ और ये परमज्ञान वे माइक के सामने
खड़े होकर दे रहे थे!
मैं
बड़ी विनम्रता के साथ उनसे पूछना चाहती हूँ कि पुरुष कम सजते हैं क्या? गली-गली में
जेंट्सब्यूटीपार्लर यूँ ही तो नहीं खुले होंगे न? स्वयं को
आकर्षक बनाने के लिए पुरुष भी जितना कुछ कर सकते हैं, करते
हैं। टैटू,बालों के विचित्र प्रकार, बाली,
कपड़े, जूते, चश्मा सब
पर ध्यान रहता है पुरुषों का। इससे ज्यादा वो करेंगे भी क्या?
लड़कियाँ
सजती हैं तो घर बोलता है, आईना मुस्कराता है, खिड़कियाँ खिलखिलाती हैं।
लड़कियों के बूंदे, झुमके, चूडिय़ाँ,
ब्रेसलेट- सब चहकते हैं। जिस घर में लड़कियाँ होती हैं वहाँ
इन्द्रधनुषी रंग होता है। ख़ुशी होती है। लड़कियाँ बिना मिलावट का सोना हैं। उनका
दिल झरने- सा पवित्र है। लड़कियों से रहित घर कितना बेजान लगता है, कितना नीरस लगता है।
सजना-
संवरना लड़कियों का हक है। वे सजती हैं तो क्या हुआ, लडक़ों की तुलना में अच्छे अंक
भी तो लाती हैं। डाक्टर बनती हैं, इंजीनियर बनती हैं। आई. ए.
एस., आई. पी. एस., आई. एफ. एस.,
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति... क्या नहीं बनती
हैं लड़कियाँ!!
लड़कियाँ
माँ- बाप के आंगन में उतर कर धीरे से थपकी देने वाली गुनगुनी धूप हैं। पति के घर
में बहने वाली मंद-मंद प्रेम-बयारि हैं। लड़कियों में अपनी बेटी, बहन, पत्नी, माँ
का रूप देख लें तो समझ में आ जाये कि लड़कियाँ क्या हैं।
...काश ! हम ये कभी समझ
पायें।
सम्पर्क: 5, योगिराज शिल्प, स्पेशल आई .जी. बंगला के सामने, कैम्प,
अमरावती- 444602 (महाराष्ट्र), दूरभाष - 0721-2660396, मो.- 09422917252,
9112813033, Email-
shapandeyw}{@gmail.com
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