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Feb 1, 2022

उदंती. com, फरवरी 2022

वर्ष-14, अंक – 6

हर तरफ नव पल्लवन है, पुष्प हर्षित।

राग वासन्ती भ्रमर के साथ गुंजित।

स्वर्णमुख, स्वर्णिम धरा, रस से भरी है।

यह ॠतु क्यों आज कुछ पीताम्बरी है।

        -गिरीश पंकज


इस अंक में

अनकहीः शोर मत करो देवता तपस्या में लीन हैं - डॉ. रत्ना वर्मा

प्रकाश प्रदूषणः ज़रूरी है अँधेरा भी जीवन के लिए  - निर्देश निधि

आलेखः हिन्दू पाठ्यक्रम की सुखद शुरूआत - प्रमोद भार्गव

कविताः सरस्वती वंदना - श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल

आधुनिक बोध कथाएँ - 2  चोर चोर चोर  - सूरज प्रकाश

कविताः देश - मूल ओड़िआ रचना- श्री रक्षक नायक, अनुवाद -अनिमा दास

प्रकृतिः अफ्रीका के सबसे मशहूर पेड़ की उम्र – स्रोत फीचर्स

कविताः धूप, हवा, सूरज, और कोहरा - डॉ. सुधा गुप्ता

निबंधः वसंत आ गया है - हजारी प्रसाद द्विवेदी

संस्मरणः परछाइयाँ यादों की - सुदर्शन रत्नाकर

कविताः बसंत अकेले ना आना - डॉ. महिमा श्रीवास्तव

प्रेरकः धरती पर पैर धरो धीरे – निशांत

हाइकुः कोहरा पाला शीत   -  रमेश कुमार सोनी

कहानीः अनागत - आशा पाराशर

कविताः ज्ञानदायिनी माता मेरी नैया पार लगा दो - डॉ. कमलेन्द्रकुमार श्रीवास्तव

तीन लघुकथाएँ: 1. पहाड़, 2. हरसिंगार, 3. मगरमच्छ – हरभगवान चावला

व्यंग्यः चोरी होना कवि- प्रिया की कार का - यशवंत कोठारी

ग़ज़लः मेरा सूरज तो कभी ढलता नहीं  - धर्मेन्द्र गुप्त

जीवन दर्शनः पौराणिक की प्रासंगिकता - विजय जोशी

अनकही - शोर मत करो देवता तपस्या में लीन हैं

- डॉ. रत्ना वर्मा

आस्था मानव जीवन को सम्बल देती है। दुनिया में अलग अलग- अलग धर्म के लोगों की अपनी अलग- अलग आस्थाएँ  होती हैं। पिछले दिनों मनु की नगरी मनाली के नौ गाँव के लोगों की अनोखी आस्था ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। जहाँ मकर संक्रांति की सुबह से देव आदेश लागू हो गए। इस आदेश के अनुसार 42 दिन तक कूल्लू के गोशाल गाँव के साथ आस– पास के अन्य आठ गाँवों के मंदिरों में न पूजा होगी, न घंटियाँ बजेंगी। देवालय की घंटियाँ बाँध दी गई हैं और मंदिर के कपाट विधिपूर्वक बंद कर दिये गए हैं। वहाँ के लोगों की मान्यता है कि गाँव के आराध्य देव गौतम व्यास ऋषि और कंचन नाग देवता इन दिनों विधिपूर्वक स्वर्ग प्रवास के लिए चले गए हैं। इस दौरान देवता तपस्या में लीन रहेंगे, जिसके चलते मंदिर के प्रांगण सहित गाँव का माहौल शांत रहेगा। गाँव के लोग इन दिनों न तो टीवी चलाएँगे, न रेडियो सुनेंगे, यहाँ तक कि वे कुकर में खाना भी नहीं बनाएँगे। इस दौरान गाँव के आराध्यदेव पर मिट्टी छानकर मृदालेप की विधि पूरी की जाएगी। 42 दिन बाद मृदा लेप हटाई जाएगी और देव कार्यक्रम में देवता साल भर की भविष्यवाणी से अवगत करवाएँगे। मृदा लेप हटाने से भविष्यवाणी में यदि कुमकुम निकला तो घाटी वासी खुशी से झूम उठेंगे, जबकि कोयला व बाल निकलने पर उनकी दिक्कतें एक बार फिर बढ़ जाएगी। इन्हें आज के वैज्ञानिक युग में भले ही अंधविश्वास कहेंगे लेकिन घाटी के लोगों के लिए यह परंपरा का हिस्सा है।
आप सब अभी भूले नहीं होंगे जब दो साल पहले मार्च में कोरोना की वजह से पूरे देश ही नहीं दुनिया भर में लॉकडाउन लगाया गया था, तब चारो तरफ से यह खबर आ रही थी कि पर्यावरण शुद्ध हो गया है, आसमान नीला दिखाई दे रहा है। प्रदूषण की वजह से जो पर्वत और घाटियाँ नज़र नहीं आती थीं, वे दिखाई देने लगी थीं आदि- आदि। यही नहीं लोगों के सर्दी खाँसी और साँस की बीमारियों में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई थी। जाहिर है लॉकडाउन के कारण ये सब परिवर्तन नज़र आ रहा था, क्योंकि तब प्रदूषण में भारी कमी आई थी। विकास की गाड़ी तब अवश्य थोड़ी थम सी गई थी, पर प्रदूषण की आँधी थम गई थी। इस परिवर्तन को पूरी दुनिया ने महसूस किया था। और तब यहाँ तक कहा जाने लगा था कि यदि पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखना है तो देश में प्रति वर्ष एक माह का लॉकडाउन अनिवार्य कर देना चाहिए। ये तो हुई आज की दुनिया की बात आज जबकि हमारी पूरी दुनिया का पर्यावरण हद से ज्यादा इतना बिगड़ चुका है, हमने अपनी धरती को अपने ही हाथों इतना प्रदूषित कर दिया है कि इसके लिए लाख जतन करने के बाद भी हम पर्यावरण को सुधार नहीं पा रहे हैं । आप खुद सोचिए जब धरती इतनी प्रदूषित भी नहीं थी- हवा शुद्ध थी, चारों तरफ हरियाली थी, तब भी हमारे पूर्वजों को भविष्य की चिंता थी कि यदि हमने अपनी धरती को अपने आस- पास बहने वाली हवा को शुद्ध रखने का जतन नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियाँ शुद्ध हवा के लिए तरस जाएँगी।  
अस्था को बहुत लोग अंधविश्वास के रूप में देखते हैं परंतु आस्था मनुष्य में सकारात्मकता के भाव को दर्शाता है, आस्था ही व्यक्ति को आशावान बनाती है। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भले ही कुछ लोग आपकी आस्था का गलत फायदा उठाते हों, पर देखा जाए, तो आपका धर्म चाहे वह कोई भी हो, वह सदैव सद्भाव और जनकल्याण का संदेश ही देता है।  एक जागरूक व्यक्ति किसी भी बात पर तभी  विश्वास करता है, जब वह उसे अपने ज्ञान की कसौटी पर खरा पाता है।  यही कारण है कि आदिकाल से चली आ रही आस्था या परंपरा पर अमल करता है। पर कभी- कभी हमारी ये परंपराएँ रूढ़िवादी हो जाती हैं और अपने मूल उद्देश्य से भटककर अंधविश्वास में बदल जाती हैं। ऐसी परंपराएँ  समाज के एक वर्ग विशेष को खोखला करते चली जाती है, जो किसी भी समाज के लिए नुकसानदेह साबित होती हैं। 

अब मनाली के गोशाल गाँव के लोगों की आस्था की बात करें, तो पुराने समय में अवश्य शिखर पर्वतों पर ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान- ध्यान की साधना के लिए शांत वातावरण की तलाश की होगी और जब तक वे तपस्या में लीन रहते थे  तब तक लोगों से शोर न करने की बात कही गई होगी। धीरे-धीरे वहाँ के लोगों ने इस आस्था को अपने जीवन में अपना लिया और फिर यह परंपरा बन गई, जिसका पालन लोग आज तक करते आ रहे हैं। कितना सुखद है यह सोचना और महसूस करना कि 42 दिन के लिए ही सही वहाँ शोर प्रदूषण नहीं होता ( इस दौरान लोग वहाँ कुकर में खाना भी नहीं बनाएँगे क्योंकि सीटी बजने से शोर होगा)। काश ऐसी परंपरा हमारे देश के प्रत्येक शहर और गाँव में लागू हो जाए । हम प्रचार प्रसार के लिए चौक- चौराहों में बड़े- बड़े पोस्टर लगाते हैं, अपने प्रिय नेताओं के कटऑउट लगा कर उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हैं । क्या कभी ऐसा हो सकता है हमें वहाँ यह लिखा हुआ पढ़ने के लिए मिले कि हार्न मत बजाइये हमारे इष्ट देवता तपस्या में लीन हैं। 
हम सब जानते हैं कि धरती की शुद्धता और जीवन को बचाए रखने के लिए मानव ने समय- समय पर कई  नियम कायदे बनाए, जिनका प्रचलन आज भी जारी है। जैसे वृक्षों की पूजा, नदियों की पूजा, तालाब की पूजा, अन्न की पूजा । इस बात को आसानी से इंसान को  समझाने का सबसे अच्छा उपाय उसके प्रति आस्था को जगाना होता है । परंपराएँ हमारे सामाजिक जीवन का एक अमूल्य हिस्सा हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं। किसी भी परंपरा की शुरूआत समाज की खुशहाली के लिए प्रारंभ की जाती है।  अतः आवश्यकता एक ऐसी आस्था को फिर से जगाने की है, जो धरती की हवाओं में घुलते जा रहे जहर को लोगों की साँसों में घुलने बचा सके । यह सब तभी संभव है जब धरती का प्रत्येक इंसान अपनी जीवन शैली में बदलाव लाए ‘मैं’ का भाव हटाकर ‘हम’ की भावना को आत्मसात करें, बिल्कुल उन गोशाल के गाँव वासियों की तरह जो अपने तपस्या में लीन देवता के लिए 42 दिन तक मंदिर की घंटियाँ भी नहीं बजाते।  
हमें प्रचलित रूढ़ियों की वैज्ञानिकता पर शोध -कार्यों को बढ़ावा देना पड़ेगा, ताकि प्रचलित मान्यताओं को वैज्ञानिक निकष पर कसकर समझा सकें।  आज के समय में हमारे पास बहुत सारे संसाधन है , जिनसे हम प्रचलित मान्यताओं के सत्य को परखकर प्रमाणित कर सकते हैं।

प्रकाश प्रदूषण - ज़रूरी है अँधेरा भी जीवन के लिए

- निर्देश निधि

 मनुष्य ने प्रकाश के लिए कभी चाँद और सूरज की तरफ़ देखा होगा। कभी अँधेरी रात्रियों में वह जुगनू के नगण्य से प्रकाश के चमकने पर कौतूहल से भर उठा होगा। मनुष्य का मस्तिष्क दूसरे जानवरों की तरह नहीं था, इसीलिए वह प्रकृति प्रदत्त रास्तों से कुछ हटकर चलने को आतुर, व्याकुल हो उठा। धीरे-धीरे ही सही उसने अपने चार पैरों में से दो को हाथ बना लिया और दो को पैर ही रहने दिया और सब जीवों से अलग, वह अपना विकास करता गया। विकास के इसी क्रम में उसने संसार की एक महत्त्वपूर्ण खोज कर डाली और वह थी ‘आग’ । हालाँकि उसकी यह खोज सोची-समझी नहीं थी, आग तो उसे अचानक ही मिली थी। जल्दी ही वह जान गया होगा, आग के दूसरे कई प्रयोगों से साथ उससे प्रकाश का होना भी। परंतु वह यहाँ भी ठहरा नहीं रह सका।

प्रकाश की लम्बी छलाँग

मनुष्य सभ्यता के विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता गया और प्रकाश के लिए दूसरे बेहतर साधनों की खोज करता रहा। हालाँकि उसे सदियाँ लगीं;  पर एक दिन उसने बिजली से जलने वाले बल्ब का आविष्कार कर लिया। श्रेय गया एक महान् अमरीकी वैज्ञानिक और व्यवसायी थॉमस अल्वा एडिसन (1847-1931) को जब उन्होंने 1879 में बिजली से जलने वाले वैक्यूम बल्ब का आविष्कार कर दिखाया। प्रकाश के क्षेत्र में मनुष्य ने यह बड़ी छलांग भरी थी। रात को दिन बना लेने की अपनी क्षमता ने मनुष्य को फूलकर कुप्पा हो जाने का पूरा-पूरा अवसर दिया।

तब किसी के मस्तिष्क की इतनी क्षमता शायद न रही हो कि वह सोच पाता कि प्रकृति ने सारी व्यवस्थाएँ देखभाल कर की थीं। जीवन के लिए जितना ज़रूरी प्रकाश था, उतना ही ज़रूरी था गहन अंधकार भी। हमारे वेद-पुराणों में अति की वर्जना है परंतु मनुष्य ने नहीं माना और रात्रियों को भी अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से भर दिया।

मनुष्य ने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन उसकी रात को दिन बना लेने की अद्भुत क्षमता को कभी ‘प्रकाश प्रदूषण’ जैसे नकारात्मक नाम से भी पुकारा जाएगा। यदि हम किसी सुविधा की बात भी करें, तो वह भी एक सीमा के पार होने पर अपना हानिकारक रूप दिखाने लगती है। यही प्रकाश के साथ भी हुआ। रिहायशी इलाक़े तो दूर बिजली की चमचमाती रोशनी ने जंगलों की आँखें भी चौंधिया दीं।

प्रकाश प्रदूषण को फ़ोटो पॉल्यूशन के नाम से भी जाना जाता है।

प्रकाश प्रदूषण के कई रूप हो सकते हैं। कृत्रिम प्रकाश के अत्यधिक और अनुचित प्रयोग का जब प्रकृति और जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगे, तब यह प्रकाश, प्रदूषण बन जाता है। यह नकारात्मक प्रभाव कई तरीक़ों से आ सकता है। अब तो अन्य प्रदूषणों के साथ ही धरती पर प्रकाश प्रदूषण भी एक भीषण समस्या बनता जा रहा है। यह प्रदूषण नगरीकरण से उपजी समस्या का अप्रत्यक्ष परिणाम है। नगरीय जीवन में अब रात भी एक दूसरे प्रकार का दिन ही है। अमरीका के शिकागो में इंटरनेशनल डार्क स्काई असोसिएशन द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार मनुष्य के द्वारा रात्रि में किया गया कृत्रिम प्रकाश पक्षियों के लिए अत्यधिक घातक सिद्ध हो रहा है। शिकागो में लगभग 40, 000 तक मृत पक्षी पाए गए। अध्ययन के अनुसार ऊँची इमारतों की खिड़कियों में जलने वाली लाइटों के कारण रात्रि में उड़ने वाले पक्षी भ्रमित हो जाते हैं। लाइट जलने वाली खिड़कियों में उन्हें अपना मार्ग दिखाई देता है और वे तेज रफ़्तार में उड़ते हुए उनसे जा टकराते हैं, उस बलपूर्वक टकराने और गम्भीर रूप से घायल होने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। अक्तूबर 2020 में फ़िलाडेल्फ़िया में भी हज़ारों प्रवासी पक्षी ऊँची इमारतों की प्रकाश भरी खिड़कियों से टकराने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। भारत में आने वाले भी तमाम प्रवासी पक्षियों के लिए यह प्रदूषण बहुत हानिकारक है। पक्षियों का भ्रमित होना तो कृत्रिम प्रकाश के प्रयोग के आरम्भिक दिनों से ही आरम्भ हो गया होगा। 1884 में मिसिसिपी घाटी में यह देखा भी गया था, जब एक प्रवासी जल पक्षी पोर्जाना कैरोलीना की लाइट टावर से टकराने से मृत्यु हो गई थी। तब ही भविष्य द्रष्टा लोगों ने जान लिया था कि रात्रि में किया जाने वाला अत्यधिक प्रकाश धरती पर विचरते जीवों और उनके जीवन पर नकारात्मक असर भी डालेगा।

जिस स्थान पर मनुष्य का काम एक अकेली लाइट से चल सकता है, वहाँ भी वह कई-कई लाइट्स लगाकर चकाचौंध का वातावरण बना देता है, जिसके कारण जीवों की आँखें चौंधिया जाती हैं और वे भ्रमित होकर अपनी सामान्य जीवन- प्रक्रिया से भटक जाते हैं।

रात्रि में शहरों के आसमान पर जो लाइट का ग्लोब जैसा घेरा दिखाई देता है, उसे शहरी आकाशीय चमक या अर्बन स्काई ग्लो कहा जाता है। सड़कों पर लगी तेज लाइटों और वाहनों की चमचमाती हैड लाइटों या ऊँची अट्टालिकाओं में जलती तेज लाइटों के कारण नगर का आकाश सामान्य से अधिक चमकीला दिखाई देता है। आकाश पर प्रकाश का एक डोम जैसा बन जाता है और आकाश पर खिले हुए तारे दिखाई नहीं देते, आकाशगंगा भी दिखाई नहीं देतीं, जिसके कारण अंतरिक्ष सम्बन्धी, या खगोलीय खोज और शोध भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। अत्यधिक प्रकाश का परिणाम ग्लेयर के रूप में भी प्रकट होता है। ग्लेयर का अर्थ प्रकाश की चकाचौंध है। अत्यधिक चमक चीजों को देखने में बाधा बनती है। अपलाइट, खुले आकाश की दिशा में ऊपर को जलाई जाने वाली लाइट को अपलाइट कहा जाता है यह प्रकाश प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण होती है। अपलाइट रात में उड़ने वाले पक्षियों के लिए सबसे अधिक घातक होती है। क्लटर प्रकाश स्रोतों के समूह हैं। जब एक ही स्थान पर बहुत बड़ी संख्या में प्रकाश के बल्बों की व्यवस्था होती है तब वह प्राणियों को उनके सही मार्ग से भटका देने वाली होती है। कई स्थानों पर अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश दिन और रात का अंतर ही समाप्त कर देता-सा प्रतीत होता है उन स्थानों पर जीवों की आंतरिक प्रक्रियाओं की प्राकृतिक अवस्थाओं में उथल-पुथल मच जाती है और उनका अस्तित्व डगमगाने लगता है। प्रकाश का अतिचार जिसे अंग्रेज़ी में लाइट ट्रेसपास कहते हैं। जब हम ज़रूरत से अधिक प्रकाश का प्रयोग करते हैं, तब यह समस्या पैदा होती है। ज़रूरत से ज़्यादा प्रकाश का प्रयोग करना ही प्रकाश अतिचार का हिस्सा है।

अंधकार और प्रकाश का प्राकृतिक चक्र मनुष्य सहित अन्य जीवों की नींद को सामान्य रखता है। अत्यधिक क्रत्रिम प्रकाश मनुष्यों के मेलाटोनिन हार्मोन के स्राव में कमी लाता है, यह हार्मोन मनुष्य को नींद लाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब मेलाटोनिन हार्मोन का स्त्राव कम होता है तो मनुष्य के सोने-जागने की प्रक्रिया बाधित होती है। यह बाधित प्रक्रिया अनिद्रा की स्थिति पैदा करती है और अनिद्रा जीवों में प्रजनन की सामान्य प्रक्रिया को भी बाधित करती है। नींद पूरी ना आना या बेसमय आना मनुष्य की मानसिक कार्यक्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। कृत्रिम प्रकाश मनुष्य की सर्केडियन लय या बायोलॉजिकल क्लॉक को भी प्रभावित करता है, जिसके कारण मनुष्य को अवसाद, झुँझलाहट, बेचैनी, चिंता, चिड़चिड़ाहट और नींद का ना आना आदि समस्याएँ पैदा होती हैं। जिससे कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा और गेस्ट्रो एंटाइनल आदि रोगों का भय उत्पन्न होता है। अत्यधिक प्रकाश आँखों में भी तकलीफ़ पैदा करता है।

प्रकाश प्रदूषण मनुष्य के साथ-साथ पौधों और अन्य जीव जंतुओं पर भी अपना बुरा असर डालता है। यह पौधों के फ़ोटो पीरियड या दीप्तिकाल को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। फ़ोटो पीरियड वह अवस्था होती है, जब पौधा प्राकृतिक प्रकाश प्राप्त करके पुष्पन की प्रक्रिया पूरी करता है। जिसके लिए उसे दिन और रात्रि अर्थात् प्रकाश और अंधकार का संतुलन चाहिए। रात्रि का कृत्रिम प्रकाश पौधों के फ़ोटोपीरियड को प्रभावित करता है। यह रात्रि में खिलने वाले तमाम पौधों के परागण में भी बाधा बनता है। यह अनेक जीवों की जैविक क्रियाओं को प्रभावित करता है। पृथ्वी का हर जीव प्राकृतिक प्रकाश और अंधकार दोनों का अभ्यस्त है। उनकी बॉडी क्लॉक उसी के आधार पर कार्य करती है। इस प्राकृतिक व्यवस्था के चरमरा जाने से वे अपने जीवन की गुणवत्ता, मात्रा और अपने जीवन की अवधि तक सामान्य नहीं रख पाते।

दिन के समय शांत पड़े रहने वाले और सुबह-शाम या रात्रि में सक्रिय होने वाले जीवों की प्रजनन क्रिया में भी कृत्रिम और अत्यधिक प्रकाश बाधा उत्पन्न कर सकता है। यह प्रकाश कोरल की सामान्य प्रक्रियाओं को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। उभय चर जीव रात्रि के समय ही मेटिंग की प्रक्रिया करते हैं। अधिक समय तेज कृत्रिम प्रकाश में रहने के कारण वे समझ ही नहीं पाते कि रात्रि हो चुकी है, फलस्वरूप उनकी प्रजनन- क्रिया भी बाधित होती है। भारत के समुद्र तटों पर कुछ जीव, विशेषकर कछुए रात्रिकाल में ही प्रजनन क्रिया करते हैं। अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश उन्हें समुद्र तटों की ओर जाने से रोकता है जिसके कारण उनकी प्रजनन दर बहुत अधिक प्रभावित होती है। मछलियाँ भी इस रात्रिकालीन प्रकाश से बहुत प्रभावित होती हैं। यह डी आर डी ओ के तत्कालीन अध्यक्ष और भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री ए पी जे अब्दुल कलाम ने ओडीशा में स्थित व्हीलर आयलैंड पर अनुभव किया था कि समुद्र की ओर जाने वाले कछुए अपने निषेचन पीरियड में समुद्र की ओर ना जाकर भटक रहे हैं। अतः उन्होंने रात में व्हीलर आयलैंड के समुद्री किनारों पर फ़्लड लाइट बन्द रखने के आदेश जारी किए थे। फलस्वरूप कछुए अपनी सामान्य अवस्था में आने लगे। जब तक वे अध्यक्ष रहे इस आदेश का पालन हुआ; परंतु उनके पद परिवर्तन के साथ ही इस आदेश की अनदेखी की गई। परंतु हमें ध्यान रखना चाहिए कि पारिस्थितिकी तंत्र को दुरुस्त रखने के लिए सभी जीवों की प्रजनन क्रिया और उनके जीवन का सामान्य बना रहना अत्यधिक आवश्यक है। अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश कीड़ों की आबादी में कमी लाता है। कीड़े नहीं,  तो परागण नहीं, जिस पर दुनिया के खाद्य उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा निर्भर है।

प्रकृति ने नियम बनाया दिन-रात का, ताकि दिन में काम करने वाले जीव-जंतु, रात में काम करने वालों के काम में बाधा ना बने। जैसे बीटल गोबर या मानव अपशिष्ट को खाता है। वह अपशिष्ट को लुढ़काता हुआ अपने निर्धारित स्थान तक ले जाता है, ऐसा करके वह पर्यावरण को साफ़ रखता है। यह कार्य वह रात्रि में ही करता है और वह आकाशगंगा को देखकर अपने गंतव्य की दिशा निर्धारित करता है। कृत्रिम प्रकाश के कारण उसे आकाशगंगा दिखाई ही नहीं देती और वह अपने गंतव्य से भटक जाता है। प्रकृति का यह जमादार फ़ूड चेन को दुरुस्त बनाए रखता है। पारिस्थितिकी तंत्र को साधे रखता है। उसके जैसे जीवों के कार्य में बाधा पारिस्थितिकी को ख़ासी हानि पहुँचा सकती है। हमें याद रखना चाहिए कि गिद्ध के विनाश ने भी प्रकृति की सफ़ाई व्यवस्था को बहुत हानि पहुँचाई है। आकाशगंगाओं के तारे और चंद्रमा का प्रकाश पशुओं का भी मार्गदर्शन करते हैं;  परंतु अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से पशुओं की देखने की क्षमता भी प्रभावित हुई है। रॉयल कमीशन ऑफ़ एनवायरमेंटल पोल्यूशन की रिपोर्ट बताती है कि अनेक जीव प्राकृतिक प्रकाश के उतार-चढ़ाव से अपनी जीवन प्रक्रिया साधते हैं; परंतु अत्यधिक प्रकाश उनके हाइबारनेशन और प्रजनन जैसी क्रियाओं को बाधित करता है जिससे वे जीव विचलित होते हैं और प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है।

उपाय

अभी अधिकर मनुष्य अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश के ख़तरों से अनभिज्ञ हैं। सभी को जागरूक किया जाना चाहिए, ताकि वे समवेत प्रयास करें और बिजली की बचत या उसके कम से कम प्रयोग के लिए जागरूकता फैलाएँ। जिन स्थानों पर कृत्रिम प्रकाश पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है, उन स्थानों पर अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश का प्रयोग वर्जित किया जाना चाहिए। जैसा कि फ़्रांस ने किया भी है, उसने स्काई बीम को बैन कर दिया गया है। कई जगहों पर लाइट जलाने का समय निश्चित है। विशेष कर वन क्षेत्रों से गुजरने वाली सड़कों आदि पर प्रकाश की व्यवस्था को इस तरह किया जाना चाहिए, ताकि वह केवल आवश्यकता के स्थान पर ही फैले। तमाम स्थानों पर जहाँ कृत्रिम प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, मनुष्य को उन स्थानों पर प्रकाश फैलाने से बचना चाहिए। आसमान की ओर प्रकाश फेंकने वाले प्रकाश उपकरणों को बदलकर, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि प्रकाश आसमान की ओर ना जाकर धरती की ओर सिर्फ़ उन जगहों पर पड़े, जहाँ उसकी आवश्यकता हो। जिसके लिए हम लैम्प शेड्स की व्यवस्था कर सकते हैं। साथ ही तेज़ लाइट्स के स्थान पर हल्की लाइट्स की व्यवस्था कर सकते हैं।

अगर प्रकाश प्रदूषण कम किया गया तो कार्बन के उत्सर्जन में कमी आएगी और जैव-विविधता को होने वाली हानि पर भी प्रतिबंध लगेगा। संसार के कई स्थानों पर 80 प्रतिशत आबादी को घने अँधेरे वाला आसमान दिखाई ही नहीं देता। 1994 में लॉस एंजिलिस में भूकम्प के आने के कारण बिजली व्यवस्था ठप हुई, तब ना जाने कितने बरसों के बाद घुप्प अँधेरे के कारण आकाश दिखाई दिया। कम प्रकाश की आदत पड़ने पर, आँखें उसी प्रकाश में ठीक से देख पाने में सक्षम और अभ्यस्त हो जाएँगी।

वर्तमान में प्रकाश प्रदूषण की यह समस्या किन्हीं दो या चार देशों की नहीं है। यह तक़रीबन 80 देशों के द्वारा किए गए शोध पर आधारित है। प्रकाश प्रदूषण की समस्या सीरिया जैसे वार हिट देशों में नहीं है;  क्योंकि उन देशों में शत्रु के आक्रमण के भय से रात में सभी तरह के प्रकाश स्रोत बन्द कर दिए जाते हैं। भले ही अँधेरे को अज्ञानता से क्यों ना जोड़ा गया, हो परंतु धरती के तमाम जीवों और माइक्रो ऑर्गैनिज़्म के लिए अँधेरा भी आवश्यक है।

email- nirdesh. nidhi@gmail. com, फ़ोन-9358488084


आलेख - हिन्दू पाठ्यक्रम की सुखद शुरूआत

 - प्रमोद भार्गव

महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने जिस परिकल्पना के साथ बनारस के विश्व-विद्यालय से ‘हिंदू’ शब्द जोड़ा था, उस कल्पना ने अब साकार रूप ले लिया है। काशी हिंदू विश्व-विद्यालय (बीएचयू) के अस्तित्व के बाद पहली बार परास्नातक पाठ्यक्रम (एम ए) में हिंदू धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन की पढ़ाई भारत अध्ययन केंद्र के अंतर्गत शुरू हो गई है। इस हिंदू अध्ययन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में भारत और विदेश के कुल 46 छात्रों ने प्रवेश लिया है। ये कक्षाएँ 19 जनवरी 2022 से ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों की माध्यमों से शुरू कर दी गई हैं। इसकी शुरूआत करते हुए प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी ने कहा कि ‘हिंदू धर्म में अंतरर्निहित एकता के सूत्रों एवं उसकी आचार संहिता को ऋतु, व्रत्त और सत्य से जोड़कर इन्हें अद्यतन संदर्भों में पढ़ाया जाएगा। ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ सूत्र के अनुसार आज हमें ऐसे विद्वान् योद्धाओं के निर्माण की आवश्यकता है, जो सनातन धर्म और उसकी संपूर्ण ज्ञान परंपराओं का चारों दिशाओं में वैश्विक स्तर पर प्रचार व प्रसार करें।’ इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि व्यापार के बहाने 1757 में बंगाल की धरती से जिस ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की नींव पड़ी, उसने 1858 तक संपूर्ण भारत में जबरदस्त विरोध व विद्रोह के बावजूद पैर पसार लिए थे। नतीजतन कंपनी के शासक वाइसराय की पराधीनता ऐसे कानूनों द्वारा लाद दी गई, जिसने भारत के आम नागरिक का नियमन, जिस धर्म और आध्यत्म में अंतरर्निहित मान्यताओं के माध्यम से होता था, वे खंडित होती चली गई। भारतीयों पर अंग्रेजी कानून थोपकर यहाँ निवास करने वाले लोगों को असभ्य, अशिक्षित और बर्बर कहकर उन्हें दुनिया के सबसे दीन-हीन लोगों में शुमार कर दिया। दासता का ऐसा मायाजाल रचा कि आज भी भारत के अनेक अंग्रेजीदां वामपंथी बौद्धिक इस पाश्चात्य गुलामी के प्रति कृतज्ञ भाव बनाए हुए हैं। इस कृतज्ञता को हिंदू पाठ्यक्रम खंडित करने का काम करेगा।  

यहाँ गौरतलब है कि यदि भारतीयों में मानवीय आचरण का नियमन करने वाला कोई विधि-विधान नहीं था, तो फिर हजारों वर्शों से यह देश कैसे एक बृहद् राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रख सका ? जबकि इसी कालखंड में यूनान, रोम और मिस्त्र की सभ्यताएँ कानून होने के बावजूद नष्ट हो गईं। अतएव हम कह सकते हैं कि संपूर्ण भरतखंड में उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्यापक स्वीकार्यता थी, जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाती रही। ऋषि-मुनियों और तत्वचिंतकों द्वारा अस्तित्व में लाई गईं  वे मान्यताएँ और आस्थाएँ थीं, जो भारतीय नागरिकों को एक अलिखित आचार संहिता के जरिए अनुशासित करती थीं। आज भी भारतीय सबसे ज्यादा धर्म से ही चरित्रवान और अनुशासित बने हुए हैं। आज भी भारतीयों को सबसे ज्यादा जीवनी-शक्ति मिलती हैं, तो यह आस्थाओं से ही मिलती है। इन्हीं की वजह से भारतीय अन्य देशों के नागरिकों की तरह शोषक, स्वेच्छाचारी और आततायी नहीं बन पाया। वरना भारत ने मुगलों की क्रूरताएँ देखीं और अंग्रेजों की धूर्तता भी देखी। इन्होंने भारतीय संपदा को लूटा और अपने देश भेज दिया। अलबत्ता यह उसकी अंतरात्मा पर अधिकार जमाए बैठा वह आध्यात्मिक ज्ञान ही है, जो आम भारतीयों को करुणामयी और दयालु बनाए रखता है। गोया, हिंदू पाठ्यक्रम लोक-कल्याण की भावना को भारतीयों में और मजबूत करेगा।     

वैसे भी हिंदू दर्शन केवल स्वर्ग, नरक और मोक्ष का माध्यम न होकर एक ऐसा आदिकालिक सत्य है, जो अध्यात्म के बहाने विज्ञान के द्वार खोलता है। मानव मस्तिष्क और ब्रह्मांड में उपलब्ध तत्वों को परस्पर चुंबकीय प्रभाव से संबद्ध करता है। इसीलिए भीमराव अंबेडकर भी हिंदू धर्म को पूरी तरह नजरअंदाज करने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि इस दर्शन की उपयोगिता को व्यवहार के स्तर पर उतारकर प्रासंगिक बनाने की जरूरत है। परंतु तात्कालिक सत्ताधीश मार्क्सवादी धर्म की घुट्टी पिलाने के लिए तो सहमत हो गए और इसके उलट हिंदू आध्यात्मिक दर्शन को सुनियोजित ढंग से बहिष्कृत करने में लग गए। जबकि मार्क्सवाद स्वयं में एक दर्शन है और उसकी अपनी रूढ़िवादिताएँ हैं। इसीलिए जब डॉ. रामविलास शर्मा जैसे प्रखर मार्क्सवादी वेद, लुप्त सरस्वती नदी और सारस्वत सभ्यता की खोज करके उसे एक पुरातत्वीय-ऐतिहासिक तथ्यों के साथ स्थापित करने में जुटते हैं तो उनके तथ्यों और साक्ष्यों को देशभर में प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से खारिज करने का अभियान चला दिया जाता है, जबकि इतिहास लेखन की पद्धतियाँ कहती हैं कि नूतन तथ्य और साक्ष्य मिलने की पुष्टि होने पर प्रचलित मान्यता को बदलना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में हम बेवाकी से कह सकते हैं कि वामपंथी विचारधारा भी अंततः धर्मनिष्ठ, रूढ़िवादी और कट्टरता की पोशाक रही है।

सच पूछा जाए तो धर्म और अध्यात्म से जुड़े नए पाठ्यक्रमों का निर्धारण कोई नई बात नहीं है, जब मैं 1978 में जीवाजी विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य से एम ए कर रहा था, तब हमें भक्तिकालीन साहित्य के अंतर्गत विनय-पत्रिका, अयोध्याकांड (रामचरित मानस) पढ़ाए जाते थे और कहीं कोई विवाद नहीं था। व्यक्ति के जीवन को यदि कहीं कोई सबसे ज्यादा अनुशासित और नैतिक बनाए रखने का काम करता है तो वह धर्म में अंतरनिर्हित अध्यात्म ही है, क्योंकि इसमें ऐसे अनेक विषयों का समावेशन है, जो हमें समाज के साथ विज्ञान की ज्ञान प्रणालियों से जोड़ता है। अतएव रामायण और महाभारत पढ़ाया जाना रूढ़िवादी कट्टरता का बीजारोपण करना न होकर सनातन संस्कृति, धर्म और अध्यात्म को केंद्र में रखकर प्राचीन संस्कृत, हिंदी ग्रंथों से लेकर योग, दर्शन, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, खगोल, रसायन, पर्यावरण, धातु और सैन्य विज्ञान का ज्ञानार्जन करना है। यह ज्ञान मीमांसा हिंदू धर्म व अध्यात्म के वैशिष्ट्य और समाज, कुटुंब व परिवार को एक बनाए रखने का काम करेगी। इन पर कालांतर में शोध व अनुसंधान होंगे तो आने वाली युवा पीढ़ी अपनी प्राचीन ज्ञान आधारित विशिष्टता से परिचित व गौरवान्वित होगी और वामपंथी व पाश्चात्य दुराग्रह के चलते जो लोग स्वयं को हीनता बोध से जकड़ लेते हैं, वे शास्त्र सम्मत तुलनात्मक परिचर्चा के लिए आगे आएँगे। वैसे भी प्रबंधन के पाठ्यक्रम में भगवान कृष्ण का पाठ दो दशक से भी ज्यादा समय से पढ़ाया जा रहा है।  

 दरअसल इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे मूल ग्रंथों में जरूर जीवन दर्शन के अनेक ऐसे उपयोगी सूत्र है, जिन्होंने इतने हमले होने के तत्पश्चात भी उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखने की जिजीविषा दी। हम भलीभाँति जानते हैं कि जिन गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेज सत्रहवीं सदी में फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनीनाद आदि देशो में ले गए थे, वे कालांतर में इन देशों की स्वतंत्रता के बाद शासक भी बने। ये मजदूर अपने साथ केवल गीता और रामायण के गुटकों को धार्मिक-सांस्कृतिक थाथी के रूप में ले गए थे। इन्हीं के बूते इन्होंने अपना आत्मविश्वास बनाए रखा और इतिहास रचा। मानना होगा कि ये ग्रंथ गुलाम और दुष्कर जीवन को भी सार्थक बनाने में सहायक हैं; इसीलिए पुस्तकों को खास मित्र माना गया है। चूँकि अब देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रयासों से ऐसा सकारात्मक वातावरण निर्मित कर दिया गया है कि जो विश्वविद्यालय और उनके प्राध्यापक कल तक इन ग्रंथों के नाम का शिक्षा परिसरों उल्लेख होते ही नाक-भौं सिकोड़ लेते थे, वे आज आगे बढ़कर इनमें पढ़ाए जाने वाले विषयों के पाठ तैयार कर रहे हैं। 

बिहार में दरभंगा के शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय के औषधालय में चिकित्सकों ने नब्ज और जाँच रिपोर्ट की बजाय रोगी की कुंडली देखकर उपचार शुरू कर दिया है। इस पद्धति से उपचार करने वाला यह देश का पहला संस्थान है। यहाँ के प्राचार्य डॉ. दिनेश्वर प्रसाद का कहना है कि चिकित्सा ज्योतिष की प्राचीन शाखा है, जो शरीर के विभिन्न अंगों, रोगों एवं औषधियों के सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों से तथा बारह राशियों के प्रकृति से संबंध पर आधारित है। जड़ी-बूटियों और अन्य दवाओं को उनके ज्योतिषीय गुणों के आधार पर उपचार के लिए चुना जाता है। इस पद्धति में बीमार लोगों की जन्म-पत्रिका या हस्तरेखा की मदद से उपचार की सलाह दी जाती है। आयुर्वेद चिकित्सा के आवश्यक घटक दिनचर्या, ऋतुचर्या और पंचकर्म के सिद्धांत चिकित्सा ज्योतिष पर आधारित हैं। 

   गीता में सबसे प्रचलित एवं विवादित मान्यता, किसी भी जीव के शरीर में स्थित ‘आत्मा’ है। आत्मा रूपी कभी भी नष्ट नहीं होने वाले इस बीज-तत्व को विज्ञान-सम्मत समर्थन भी अब मिल रहा है। भारतीय दर्शन की यह भौतिकवादी व्याख्या ऑक्सफोर्ड वि वि के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक रोगर पेनरोज और एरीजोना विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ. स्टुअर्ट हामरॉफ के शोध-पत्रों ने की है। इनका मानना है कि मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर है। इसकी पृष्ठभूमि में आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम से संचालित होती है। इसका आशय मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नालिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से बनी हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म-स्रोत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। असल में आत्मा का निर्माण उन्हीं तंतुओं या तत्वों से हुआ है, जिनमें सक्रियता और समन्वय के पश्चात ब्रह्मांड अस्तित्व में आया था। अतएव भारतीय दर्शन में उल्लेख है कि आत्मा काल के जन्म से ही ब्रह्मांड में व्याप्त है। वैज्ञानिकों ने आत्मा के अस्तित्व से जुड़े सिद्धांत को ‘आर्वेक्स्ट्रेड ऑब्जेक्टिव रिएक्षन’ नाम दिया है। 

मस्तिष्क में डाइ-मिथाइल ट्रिप्टामाइन (डीएमटी) की खोज से भी पता चला है कि मानव मस्तिष्क के सूत्र अदृश्य रूप में ब्रह्मांड के चुबंकीय क्षेत्र से संबद्ध हैं। डीएमटी ही वह रसायन है, जिससे मनुष्य को अतीन्द्रिय बोध होता है। यही बोध मनुष्य को असंभव कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मानव मस्तिष्क और ब्रह्मांड के परस्पर जुड़े होने के कारण ही यह धारणा बनी है कि जिस तरह से ब्रह्मांड पृथ्वी, ग्रह और समय की उत्पत्ति भयंकर कोलाहल के फलस्वरूप हुई, उसी तरह मनुष्य का जन्म भी होता है। चूंकि भारतीय अध्यात्म मानता है कि अंततः मनुष्य ब्रह्मांड में विद्यमान उन पंच तत्वों से निर्मित हैं, जो वायुमंडल में हर समय गतिशील बने रहते हैं। इसी कारण मानव मस्तिष्क ब्रह्मांड के चुंबकीय क्षेत्र से जुड़ा होता है। इस सिलसिले में भारत के पहले सुपर कंप्युटर के ‘परम’ के निर्माता विजय भटकर का कहना है कि ‘सत्य को जानने के लिए कभी पश्चिमी शोधकर्ता स्मृति, शरीर और दिमाग पर निर्भर रहते थे, परंतु विज्ञान की नवीनतम ज्ञानधारा क्वांटम यांत्रिकी अर्थात अति सूक्ष्मता का विज्ञान आने के बाद उन्होंने ‘चेतना’ पर भी काम शुरू कर दिया है। दरअसल वे समझ गए हैं कि भारतीय भाववादी सिद्धांत को समझे बिना चेतना का आकलन संभव ही नहीं है। इसीलिए अब पाश्चात्य विज्ञान प्रकृति बनाम पदार्थ से आगे की सोचने लगा है। इसे ठीक से समझने के ‘नासा’ पाणिनी व्याकरण का अध्ययन कर रहा है।’ अतएव हिंदू पाठ्यक्रम व्यक्ति को सदाचरण से तो जोड़ेंगे ही, ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान के नए द्वार खोलने में भी मददगार होंगे। 

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

कविता- सरस्वती वंदना

 - श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल’

वीणापाणि नमन चरणों में, माँ स्वीकार करो ।
ज्ञान ज्योति के नव प्रकाश का, माँ विस्तार करो ।

आओ माँ इस हृदय- कमल पर, आसन लो मन पावन कर दो ।
झुलसा तन अज्ञान ऊष्णता, कृपा वृष्टि कर सावन कर दो ।

माँ मुझको दो शब्द सम्पदा, हृदय -ज्ञान की ज्योति जला दो ।
हृदय- सरोवर में भावों के, अनगिन कमल प्रसून खिला दो ।

जग में व्याप्त ईर्ष्या हिंसा, स्वार्थ विकार हरो ।
ज्ञान- ज्योति के नव प्रकाश का, माँ विस्तार करो ।।

माँ तेरा होना शुभ सूचक, ध्यान सदा फलदायक  ।
तेरी भक्ति सदा सुखकारी, मंगल की परिचायक ।

बहे भाव की नव निर्झरिणी,  कि शुभ विचार जगें ।
द्वेष, कपट, छल, दंभ, अमंगल, मन से दूर भगें ।

पद कमलों में शीश धरूँ माँ, पाणि पसार धरो ।
ज्ञान ज्योति के नव प्रकाश का, माँ विस्तार करो ।।

नवल भाव की जग कल्याणी, कविता सरस बहे ।
गीत, छंद, नवगीत, सवैया, नित-नित कण्ठ कहे ।

भाव बोध रस अलंकार मिल, शब्द शक्तियाँ शैली ।
रचें अनूठे छंद भावना, पनपे नहीं विषैली ।

माँ! तुम दो वरदान निरन्तर, बन उपहार झरो ।
ज्ञान ज्योति के नव प्रकाश का, माँ विस्तार करो ।

सम्प्रति-  व्याख्याता-हिन्दी, अशोक उ. मा., विद्यालय, लहार, जिला- भिण्ड (म०प्र०), मो०- 8839010923, komalsir17@gmail.com

आधुनिक बोध कथाएँ - 2 चोर चोर चोर

- सूरज प्रकाश

बहुत पहले की बात है। नई-नई नौकरी थी। वेतन मिला था। खुश होना लाजमी था। सब दोस्त फिल्म देखने निकले।

रास्ते में भीड़ में कोई जेबकतरा मेहरबान हुआ और जेब साफ। जब तक पता चलता, मेरा पर्स निकाला जा चुका था। हम सब ने शोर मचाया। तय था कि जेबकतरा अभी आसपास ही था;  लेकिन वहाँ आसपास जितने भी लोग थे, निर्विकार लग रहे थे। किसी पर भी शक करने की गुंजाइश नहीं लग रही थी। अलबत्ता, जब हमने बहुत शोर मचाया तो बीसियों सुझाव आने लगे कि पुलिस में जाओ या सब की तलाशी लो, ये करो और वो करो,  लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सका। चिंताएं कई थीं। कमरे का किराया, पूरे महीने का खर्च और घर भेजे जाने वाले पैसे।

भीड़ कुछ कम हुई, तो मलंग जैसा दिखता एक आदमी हमारे पास आया और बहुत ही गोपनीय तरीके से बताने लगा कि वह काला जादू जानता है और चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरे को हमारे सामने पेश कर सकता है। वह दावा करने लगा कि उसके काले जादू से कोई नहीं बच सकता। आओ मेरे साथ। तय था कि पुलिस से मदद मिलने वाली नहीं। हम उसके पीछे चल पड़े।

वह पास ही एक कोठरी में हमें ले गया। दस- बीस सवाल पूछे उसने और अपनी फीस की पहली किस्त माँगी - इक्यावन रुपये और ग्यारह अंडों की कीमत। बाकी भुगतान पर्स वापिस मिल जाने पर। हमने सोचा यह करके भी देख लिया जाए। पूरे महीने के वेतन की तुलना में सौदा महँगा नहीं लगा और दोस्तों ने उसकी सेवा की पहली किस्त चुकाई। उसने दिलासा दी कि चौबीस घंटे के भीतर जेबकतरा रोता गिड़गिड़ाता हमारे सामने होगा। हमारा पता उसने नोट कर लिया।

अगले दिन वह हमारे कमरे पर हाज़िर था। बताने लगा कि बस चोर का पता लगा लिया है और वह उसकी पॉवर के रेडियस में आ चुका है। बस अगले कुछ घंटे में वह गिड़गिड़ाते हुए खुद आएगा। इस बार इक्यावन रुपये और इक्कीस अंडों की कीमत ले गया।

किस्सा कोताह कि वह हर तीसरे चौथे दिन आता और कुछ न कुछ वसूल कर ले जाता। कभी कहता कि चोर आपके घर का पता तलाश कर रहा है और कभी कि बस चल चुका है। जब हमने देखा कि उसकी फीस हमारे खोये पर्स से भी आगे बढ़ने वाली है तो हमने हाथ खड़े कर दिये। ये सब भी तो चंदा करके दिया जा रहा था उसे।

उसने एक दिन की मोहलत और माँगी और इस बार मुर्गे की कीमत ले गया।

अगले दिन वह हड़बड़ाता हुआ आया। हमारे कमरे में ही धुनी रमाई और आँखें मूंदे कुछ मंत्र उछाले, कुछ चेतावनिइयाँ बरसईं और कुछ धमकियों का धुँआ किया।

अचानक उसने चिल्लाना शुरू कर दिया – चोर मेरे सामने है। वह आपका पर्स मारकर बहुत शर्मिंदा है। वह खुदकुशी करने जा रहा है। वह बस नदी तक पहुँचने वाला है। जल्दी बताइए क्या करूँ। एक मामूली पर्स के चक्कर में उसके बच्चे अनाथ हो जाएँगे। जल्दी बताएँ, वह बस छलांग मारने वाला है। कहिए तो उसे रोकूँ। मुझ पर हत्या का दोष लगेगा।

पाठकगण समझ सकते हैं कि हमने तरस खाकर जेबकतरे को खुदकुशी करने से रोका ही होगा और रहीम खाँ बंगाली को भी कुछ दे दिलाकर ही विदा किया होगा।

डिस्क्लेमर : यह एक सच्ची घटना है और इसकी तुलना उस देश से न की जाए, जहाँ आम आदमी, बैंक, जेबकतरे और बिचौलियों के बीच ये खेल अरसे से खेला जा रहा है। बेशक वहाँ जेबकतरा खुदकुशी करने के बजाए शर्म के मारे देश छोड़कर चला ही जाता है।

सम्पर्कः मो. नं. 9930991424 email- kathaakar@gmail.com

कविता- देश

 मूल ओड़िआ रचना- श्री रक्षक नायक

 अनुवाद -अनिमा दास


क्या है देश..???

क्या इसका कोई

है अस्तित्व.. कोई परिचय???

अंकित सीमारेखा?

जैसे कारागार- सा भाव लिये

जैसे धूल का है महाबंध...।

क्या है ज्ञात तुम्हें...?

किसने खींची यह रेखा...?

कौन है वह अमीन....???

 

नितांत, क्रीड़ाभूमि पर

अंकित रेखाएँ जैसी..

कैसे किया है उत्कीर्ण;

नख से अथवा

किसी तीर से

अथवा स्वयं के श्वास में

वाहित वायु से???

अथवा, जिसने की है

अंकित...रेखाएँ

हथेली में... वह

अथवा कोई अन्य शक्ति???

हमारे गणतंत्र का

क्या है गुणसूत्र?

 

कौन सा नक्षत्र है स्थिर

हमारे विस्तृत आकाश में?

कौन सा तत्त्व..

जोड़ रहा भूत एवं भविष्य को?

एक निश्चित अंतराल में..

कौन सी ध्वनि

होती परिवर्तित मंत्र में

एवं करती सुरभित

जन्म से मोक्ष पर्यंत...

मुहूर्त को करता अमूर्त...?

नहीं है तुम्हारे शब्दों में

अथवा भाव में, अथवा

नहीं होता परिभाषित

तुम्हारे भूय- दर्शन में

क्यूँ होता अवतरित

एक दिव्य पुरुष...!!!

 

जिन उक्तियों से तुम

कर रहे हो आकर्षित

किया है बलपूर्वक अधिकार

हमारे संवेदनशील विचारों पर

रचे हैं ... नारे , समूह

तूर्य तथा भेरी

एवं बांधा है जिस छल से,

उसका उत्स कहाँ है?

कहाँ है उसका इतिहास ???

 

कुछ ऐसे विचार

मन मस्तिष्क में हैं स्थित

राष्ट्रीय चिह्न... संकेत को

नहीं कर पाता चिह्नित...

इस कोलाहल में...

अतः करता हूँ प्रश्न मैं...

क्या है देश... कहाँ है देश???

 

मुझे कह सकते हो तुम मूर्ख

किंतु कदापि न कहना

देशद्रोही...

तुम्हारे विचार

कभी होते प्रतीत

पवन में भंवर से

अथवा कभी

उर्मियों के फेन से ।

 

हाँ.. आज मेरे विचार में

देश नामक कुछ भी नहीं

तुम्हारा देश

मेरे देश में नहीं है

किंतु मेरा देश

तुम्हारे देश में किया है

आत्मगोपन...

यह चिह्नित करना होगा

अति सरल...!!!

कभी तो

मुक्त हृदय.. मुक्त कंठ से

एक बार मुझसे करो प्रश्न,

क्या देश नामक

कुछ है???

 

प्रकृति - अफ्रीका के सबसे मशहूर पेड़ की उम्र

मुख्य रूप से अफ्रीका में पाए जाने वाले अफ्रीकी बाओबाब या गोरखचिंच वृक्ष पृथ्वी पर पाए जाने वाले विचित्र वृक्षों में से हैं। इनका तना बोतल या किसी मर्तबान की तरह होता है – अंदर से खोखला। अब वैज्ञानिकों ने जिम्बाब्वे के विक्टोरिया फॉल्स स्थित प्रसिद्ध बाओबाब वृक्ष बिग ट्री की उम्र पता कर ली है।

बिग ट्री ज़मीन के ऊपर लगभग 25 मीटर ऊंचा है। इसमें पाँच मुख्य तने, तीन युवा तने और एक जाली तना है, जो मिलकर इसे एक छल्ले जैसा आकार देते हैं। दरअसल, अन्य वृक्षों की तुलना में बाओबाब वृक्ष की उम्र पता करना थोड़ा पेचीदा काम है। सामान्यत: वृक्षों के वार्षिक वलयों की गिनती के आधार पर उनकी उम्र निर्धारित की जाती है। लेकिन बाओबाब के वृक्ष कुछ वर्ष तो कोई वलय नहीं बनाते और कुछ वर्ष एक से अधिक वलय बनाते हैं इसलिए सिर्फ वलय गिनकर इनकी उम्र पता नहीं लगती।

इसलिए शोधकर्ताओं ने रेडियोकार्बन डेटिंग विधि की ओर रुख किया। उन्होंने बिग ट्री से लिए गए नमूनों में कार्बन के दो समस्थानिकों का अनुपात पता किया। इनमें से एक समस्थानिक (कार्बन-14) अस्थिर होता है जबकि दूसरा (कार्बन-12) टिकाऊ होता है। विधि का आधार यह है कि वायुमंडल में जो कार्बन डाईऑक्साइड पाई जाती है उसमें कार्बन-14 का एक निश्चित अनुपात होता है। इसी कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण में करते हैं। इसलिए जब तक वे जीवित हैं उनमें कार्बन-14 का वही स्तर मिलता है। मृत हो जाने पर कार्बन-14 का एक निश्चित गति से विघटन होता रहता है, इसलिए उसका अनुपात कम होता जाता है। तो कार्बन-14 और कार्बन-12 के अनुपात से बताया जा सकता है कि कोई ऊतक कब मृत हो गया था। पाया गया कि बाओबाब के तने तीन अलग-अलग समय के हैं: 1000-1100 वर्ष, 600-700 वर्ष, और 200-250 वर्ष पुराने। डेंड्रोक्रोनोलॉजिया में शोधकर्ता ने बताया है कि प्राचीनतम तना लगभग 1150 साल पुराना है।

बाओबाब की यह उम्र पूर्व में बाओबाब के आकार के आधार निर्धारित की गई उम्र से अधिक है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस वृक्ष की अपेक्षाकृत धीमी वृद्धि का कारण इस क्षेत्र में लगातार आने वाले तूफान हैं।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि रेडियोकार्बन तकनीक का उपयोग जटिल वृद्धि वाले पेड़ों की उम्र पता करने के लिए किया जा सकता है। इस तरह के वृक्षों की उम्र निर्धारित करना इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि इससे पता चलता है कि इन्होंने अतीत में जलवायु परिवर्तन को किस तरह झेला है - हाल के वर्षों में संभवत: जलवायु परिवर्तन के चलते हर छह में से पाँच विशाल अफ्रीकी बाओबाब की मृत्यु हुई है। (स्रोत फीचर्स)

कविता - धूप, हवा, सूरज, और कोहरा

 - डॉ. सुधा गुप्ता

1-धूप

1

सुबह  बस

ज़रा-सा झाँक जाती

दोपहर आ

छत के पीढ़े बैठ,

गायब होती धूप ।

2

जाड़े की धूप

पुरानी सहेली-सी

गले मिलती

नेह-भरी ऊष्मा  दे

अँकवार भरती ।

3

झलक दिखा

रूपजाल में फँसा

नेह बो गई

मायाविनी थी धूप

छूमन्तर हो गई ।


2-हवाएँ

1

भागती आई

तीखी ठण्डी हवाएँ

सूचना लाई

शीत-सेना लेकर

पौष ने की चढ़ाई ।


3-सूरज

1

मेरे घर में

मनमौजी सूरज

देर से आता

झाँक, नमस्ते कर

तुरत भाग जाता ।

2

भोर होते ही

मचा है हड़कम्प

चुरा सूरज-

चोर हुआ फ़रार

छोड़ा नहीं सुराग।

3

सूरज-कृपा

कुएँ- से आँगन में

धूप का धब्बा

बला की शोखी लिये

उतरा, उड़ गया।




4- कोहरा

1

शीत –ॠतु का

पहला कोहरा लो

आ ही धमका

अन्धी हुई धरती

राह बाट है खोई ।


निबंध - वसंत आ गया है

 - हजारी प्रसाद द्विवेदी

(यह निबन्ध उस समय लिखा गया है जब द्विवेदी जी ‘शांति निकेतन’ में निवास करते थे।)

जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ, उसके आस-पास कुछ थोड़े-से पेड़ हैं। एक शिरीष हैं, जिस पर लंबी-लंबी सुखी छिमियाँ अभी लटकी हुई हैं। पत्ते कुछ झड़ गए हैं और कुछ झडऩे के रास्ते में हैं। जरा-सी हवा चली नहीं कि अस्थिमालिकावाले उन्मत्त कापालिक भौरव की भाँति खडख़ड़ाकर झूम उठते हैं। ‘कुसुम जन्म ततो नव पल्लवा:’ का कहीं नाम-गन्ध भी नहीं है। एक नीम है। जवान है, मगर कुछ अत्यन्त छोटी किसलयिकाओं के सिवा उमंग का कोई चिह्न उसमें भी नहीं है। फिर भी यह बुरा मालूम नहीं होता।

मसें भीगी हैं और आशा तो है ही। दो कृष्णचूड़ाएँ हैं। स्वर्गीय कविवर रवीन्द्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावली में यह आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कहना चाहिए। फूल तो इनमें कभी आए नहीं, पर वे अभी नादान हैं। भरे फाल्गुन में इस प्रकार खड़ी हैं मानों आषाढ़ ही हो। नील मसूण पत्तियाँ ओर सूच्यग्र शिखांत। दो-तीन अमरूद हैं, जो सूखे सावन भरे भादो कभी रंग नहीं बदलते—इस समय दो-चार श्वेद पुष्प इन पर विराजमान हैं; पर ऐसे फूल माघ में भी थे और जेठ में भी रहेंगे। जातीय पुष्पों का एक केदार है; पर इन पर ऐसी मुर्दनी छाई हुई है कि मुझे कवि- प्रसिद्धियों पर लिखे हुए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई है।

एक मित्र ने अस्थान में एक मल्लिका का गुल्म भी लगा रखा है, जो किसी प्रकार बस जी रहा है। दो करबीर और एक कोविदार के झाड़ भी उन्हीं मित्र की कृपा के फल हैं, पर वे बुरी तरह चुप हैं। कहाँ भी उल्लास नहीं, उमंग नहीं और उधर कवियों की दुनिया में हल्ला हो गया, प्रकृति रानी नया शृंगार कर रही है, और फिर जाने क्या-क्या। कवि के आश्रम में रहता हूँ। नितांत ठूँठ नहीं हूँ; पर भाग्य प्रसन्न न हो तो कोई क्या करे?

दो कांचनार वृक्ष इस हिन्दी भवन में हैं। एक ठीक मेरे दरवाजे पर और दूसरा मेरे पड़ोसी के। भाग्य की विडम्बना देखिए कि दोनों एक ही दिन के लगाए गए हैं। मेरा वाला ज्यादा स्वस्थ और सबल है। पड़ोसी वाला कमजोर, मरियल। परन्तु इसमें फूल नहीं आए। और वह कम्बख्त कन्धे पर से फूल पड़ा। मरियल-सा पेड़ है, पर क्या मजाल कि आप उसमें फूल के सिवा और कुछ देखें! पत्ते हैं नहीं और टहनियाँ फूलों से ढक गई हैं।

मैं रोज देखता हूँ कि हमारे वाले मियाँ कितने अग्रसर हुए?  कल तीन फूल निकले थे। उसमें दो तो एक संथाल बालिका तोड़कर ले गई। एक रह गया। मुझे कांचनार फूल की ललाई बहुत भाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन फूलों की पकौडिय़ाँ भी बन सकती हैं। पर दुर्भाग्य देखिए कि इतना स्वस्थ पेड़ ऐसा सुना पड़ा हुआ है और वह कमजोर, दुबला लहक उठा! कमजोर में भावुकता ज्यादा होती होगी!

पढ़ता-लिखता हूँ। यही पेशा है। सो दुनिया के बारे में पोथियों के सहारे ही थोड़ा-बहुत जानता हूँ। पढ़ा हूँ, हिन्दुस्तान के जवानों में कोई उमंग नहीं है, इत्यादि-इत्यादि। इधर देखता हूँ कि पेड़-पौधे और भी बुरे हैं। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसंत आ गया। पर इन कमबख्तों को खबर ही नहीं। कभी-कभी सोचता हूँ कि इनके पास तक सन्देश पहुँचाने का क्या कोई साधन नहीं हो सकता?

महुआ बदनाम है कि उसे सबके बाद वसंत का अनुभव होता है; पर जामुन कौन अच्छा है। वह तो और भी बाद में फूलता है। और कालिदास का लाडला यह कर्णिकार? आप जेठ में मौज में आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वसंत भागता-भागता चलता है। देश में नहीं, काल में। किसी का वसंत पन्द्रह दिन का है तो किसी का नौ महीने का। मौजी है अमरूद। बारह महीने इसका वसंत ही वसंत है। हिन्दी भवन के सामने गंधराज  पुष्पों की पाँत है। ये अजीब है, वर्षा में ये खिलते हैं लेकिन ऋतु विशेष के उतने कायल नहीं हैं। पानी पड़ गया तो आज भी फूल ले सकते हैं।

कवियों की दुनिया में जिसका कभी चर्चा नहीं हुई, ऐसी एक घास है- विष्णुकान्ता। हिन्दी भवन के आँगन में बहुत है। कैसा मनोहर नाम है! फूल और भी मनोहर होते हैं। जरा-सा तो आकार होता है, पर बलिहारी है उस नील में मेदुर रूप की। बादल की बात छोडि़ए, जरा-सी पुरवैया बह गई तो इसका उल्लास देखिए। बरसात के समय तो इतनी खिलती है कि मत पूछिए। मैं सोचता हूँ कि इस नाचीज लता को सन्देश कैसे पहुँचता है? थोड़ी दूर पर वह पलाश ऐसा फूला है कि ईर्ष्या होती है। मगर उसे किसने बताया कि वसंत आ गया है? मैं थोड़ा-थोड़ा समझता हूँ। वसंत आता नहीं, ले आया जाता है। जो चाहे और जब चाहे अपने पर ले आ सकता। वह मरियल कांचनार ले आया है। अपने मोटेराम तैयार कर रहे हैं, और मैं?

मुझे बुखार आ रहा है। यह भी नियति का मजाक ही है। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसन्त आ रहा है, और मेरे पास आया बुखार। अपने कांचनार की ओर देखता हूँ और सोचता हूँ, मेरी वजह से तो यह नहीं रुका है

संस्मरण - परछाइयाँ यादों की


- सुदर्शन रत्नाकर

 जब से आई हूँ चौथी मंज़िल से नीचे उतरी ही नहीं  । यह आज के जीवन की व्यस्तता ही तो है । महानगरों में तीस-चालीस मंज़िलों तक रहते रहते चौथी मंज़िल मुझे बौनी सी लगती है । थोड़े दिन की तो बात है, मुझे कौन सा यहाँ सदैव के लिए रहना है । इस जगह से मेरा लगाव बस इतना भर है कि यह मेरे माता-पिता की कर्मभूमि रही है और मेरा बचपन यहाँ बीता था, जिसे मैं भुला चुकी थी पर आज जैसे मैं फिर से पीछे लौट गई हूँ । चालीस वर्ष पीछे । हुआ ऐसे कि मुझे चौथी मंज़िल से नीचे उतरना पड़ा । कुछ देर रुकी तो मेरी दृष्टि ऊपर गई । देखा, पानी की टंकी की दीवार में पीपल का एक पेड़ उगा हुआ था, जो टंकी से ऊपर सिर उठा कर खड़ा था । शायद इससे पहले किसी ने देखा नहीं होगा, नहीं तो उखाड़ दिया जाता क्योंकि इसकी जड़ें दीवार के नीचे आकर इमारत में दरारें डाल देंगी और फिर एक दिन इसे खोखला कर देंगी । 

  कहते हैं पीपल का पेड़ घर में नहीं लगाना चाहिए । लगाना भी हो तो पीपल के साथ बरगद और तुलसी का पौधा भी साथ लगाना चाहिए । तीनों गुणकारी हैं और तीनों का अपना अपना महत्त्व है । पीपल ही ऐसा पेड़ है जो रात्रि के समय भी ऑक्सीजन छोड़ता है। तुलसी का पौधा औषधि का काम करता है और कई बीमारियों को दूर करता है । बरगद का विशालकाय पेड़ जिसकी जड़ें धरती से ऊपर पेड़ पर लटकती हैं जो उसके विशाल तने और शाखाओं को मज़बूती प्रदान करती हैं मानो एक बड़े परिवार को परम्पराओं और संस्कारों की सीख देता हो, कैसे हमने अपनी संस्कृति, परम्पराओं को जीवित रखना है ताकि हमारा अस्तित्व बना रहे । बचपन में इन तीनों पौधों को घर में फलते- फूलते देखा था । पीपल और बरगद का वह वट वृक्ष घर के पिछवाड़े में था जिसकी घनी, गहरी छाया में तपी दोपहरी में सारी महिलाएँ और बच्चे बैठते थे । कुछ महिलाएँ बतियातीं कुछ ऊँघती और कुछ हाथ का काम करतीं । बच्चे ऊधम मचाते खेलते रहते । 

    घर के आँगन में तुलसी चौरा था । पहले दादी भोर में उठ कर चौरा लीपतीं  । धूप-दीप चला कर पूजा करतीं थीं। दादी का उठना-बैठना मुश्किल हो गया तो यह काम माँ करने लगी । साथ में हम बच्चों को इनके गुणों के बारे में बताती रहती थीं । इन पेड़ -पौधों के अतिरिक्त पौधे भी थे । कुछ फलों के, कुछ फूलों के । पर इन पौधों से मन नहीं भरता था । वह तो अटका रहता था, घर से थोड़ी ही दूरी पर बहती पश्चिमी यमुना नहर के किनारे- किनारे बागों पर जिनमें तरह -तरह के फलों से लदे पेड़ थे । ऊँचे-ऊँचे पाम, बॉटल ग्रीन, हरसिंगार, मोर पंखी और भी न जाने कितनी तरह के पेड़ और फूलों के पौधे थे । उस बाग यानि लतीफ़ गार्डन में एक रेस्ट हाऊस भी था । किसी अंग्रेज ने अपने लिए यह बाग बनवाया था । जब वह आता था तो इसी बाग में रुकता था । इसलिए माली और केयर टेकर के अतिरिक्त किसी और को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी । देश स्वतंत्र हुआ तो यह बाग किसी ज़मींदार ने ठेके पर ले लिया । लेकिन उसने नियम वहीं अंग्रेजों वाले लगा रखे थे । उसके अंदर जाना वर्जित था । बाग के चारों ओर दीवार थी और उस पर कँटीली तारें लगाई हुई थीं लेकिन मन था कि उन पौधों को छूने के लिए, अपने हाथों से फल तोड़ कर खाने के लिए ललचाता रहता था । 

      लतीफ़ गार्डन के सामने एक और बाग भी था जिसमें बेर, आम, आडू के पेड़ थे जिसमें हम बेरोक टोक चले जाते थे क्योंकि वह  हमारे चाचा जी का बाग था । ख़ूब ऊधम मचाते और फल तोड़ कर खाते थे । माली भी मना नहीं करता था अपितु कभी कभी स्वयं फल तोड़ कर देता था । एक बाग तो हमारे घर के बिल्कुल पास था, सड़क पार करते ही । रेलवे फाटक के पास का बाग तो एकदम विचित्र था ।  इतने घने पेड़ों को बाहर से देख कर ही डर लगता था । अंदर जाने की तो सोच भी नहीं सकते थे । थोड़ा बड़े हुए तो स्कूल आते-जाते बाग के गेट पर बैठे विष्णु चाचा से माल्टा और चकोतरा ज़रूर ख़रीदते थे ।  चकोतरा आकार में  बड़ा, खट्टा-मीठा गुलाबी रंग का, खाने में बहुत स्वादिष्ट होता था । बचपन में ही वह फल खाया था । उसके बाद न वह बाग रहा और न ही वह फल फिर से दिखा । 

    जब तक प्रकृति आस-पास थी, लोगों का सम्पर्क उसके साथ था वह अपनी संस्कृति, परम्पराओं को निभाता था, जिसका सम्बंध उसकी सभ्यता , भौगोलिक परिस्थितियों के साथ था । माँ, दादी और पिताजी उन रीति-रिवाजों, परम्पराओं को जीवित रखे हुए थे जो उन्हें अपने पूर्वजों से मिली थीं । वे प्रकृति के विभिन्न उपादानों को देवी-देवताओं के रूप में पूजते थे । धरती, सूरज,चन्द्रमाँ, वर्षा, हवा, पेड़-पौधे, नदियाँ, पहाड़ । सभी तो पूजनीय हैं। 

     बचपन की बहुत सारी स्मृतियाँ उभर कर आ गयीं । उनमें से रामलीला एक थी । शहर में बड़े जोर- शोर से रामलीला हुआ करती थी । गली मोहल्ला के बच्चे इकट्ठा होकर बड़े बुजुर्गों के साथ रामलीला देखने जाते थे, न कोई भेदभाव था न कोई डर । रामलीला रात भर चलती थी और प्रभात बेला में जब लौट कर आते थे तो आँखों में नींद नहीं बहुत सारे सपने, रामायण की शिक्षाएँ लेकर आते थे । दशहरा -दीवाली के मेले की प्रतीक्षा तो कई दिन पहले ही शुरु हो जाती थी दशहरा शहर में एक ही जगह मनाया जाता था और वह भी हमारी कॉलोनी के पास बहुत बड़े मैदान में । पिताजी हम बहन भाई की उँगली पकड़ते और छोटे भाई को कंधे पर बैठा लेते । बड़े भैया साथ -साथ चलते । रावण के पुतले के एकदम पास खड़े होकर जलते देख कर उस समय बहुत आनन्द आता था । दीवाली बीत जाने के बाद भी कई दिन तक माहौल ख़ुशगवार रहता था । गुरुपर्व, लोहड़ी, वसंतोत्सव, संवत्सर, बैसाखी मेला जिन की स्मृतियाँ मानस पटल पर सदा के लिए अंकित हैं । 

   संवत्सर और बैसाखी के दिन पश्चिमी यमुना पर मेला लगता था । भोर में ही पिताजी के साथ मेले में जाते थे । नदी के ठंडे जल में स्नान करने के बाद नए कपड़े पहनने को मिलते थे फिर माँ द्वारा बनाया गया सूखे मेवों का हार पहनाया जाता था जिसमें पैसे भी पिरोये होते थे । जिसे पहने पहने हम मेवा खाते रहते थे ।  नये कपड़े और मेवों का हार केवल छोटे बच्चों को ही मिलता था, बड़ों के नहीं। हम बहुत खुश होते थे । वास्तव में वे कितने आनन्दमय दिन थे और कितना भोला बचपन था । 

       एक बार नहाते हुए मेरा हाथ छूट गया और मैं पानी की तेज़ धारा में बहने लगी । लगा, बस जीवन समाप्त । पर नहीं,मुझे तो जीना था भविष्य में बहुत कुछ देखने के लिए,समझने के लिए सो मुझे बचा लिया गया । बस उस दिन सोच लिया कि तैरना सीखूँगी। कोई स्वीमिंग पूल तो था नहीं जहाँ तैरना सीखा जा सकता था । सीधा नहर में सीखना आसान नहीं था । खेतों में सिंचाई के लिए एक नाला निकाला गया था या फिर तालाब जहाँ भैसें नहाती और पानी पीती थीं । वहाँ भी तैरना सीखना सम्भव नहीं था जबकि लड़के वहीं भैंस की पूँछ पकड़कर तैरना सीख लेते थे । शेष बची ट्यूबवेल की हौदी या फिर नाला । वहाँ भी अकेली तो जा नहीं सकती थी इसलिेए हर शरारत के साँझीदार अपने भाई को अपना गाइड बनाया जिसने स्वयं थोड़े दिन तालाब और फिर सीधे नहर में छलाँग लगा कर तैरना सीखा था । पुल के ऊपर से छलांग लगाकर वह पानी के नीचे दूर तक चला जाता और देखने वाले की साँस वहीं अटकी रहती । मैं तो डर के मारे चीखने ही लग जाती थी । वैसे बता दूँ मैंने गिल्ली -डंडा, कँचे और पतंग उड़ाना भी उसी से सीखा था यानि वह भाई कम, मित्र और इंस्टरक्टर अधिक था । 

      उन्हीं दिनों जब मैं तैरना सीख गई थी  हम दोनों के मन में एक योजना कौंध गई और फिर हम दोनों ने उसे क्रियान्वित भी किया । हुआ यूँ कि लतीफ़ गार्डन के भीतर जाकर देखने की इच्छा कम नहीं हुई थी अपितु और बढ़ गई थी । जैसे जैसे सुनते कि गार्डन में फलों और फूलों के नये पौधे लगाये गये हैं हमारी जिज्ञासा और भी तीव्र हो उठी । हमने भीतर जाने का समय दोपहर का चुना क्योंकि उस  समय ज्येष्ठ मास की गर्मी में माली अवश्य सो रहा होगा और हम बेरोकटोक घूम सकेंगे । 

    नहर से जो नाला निकाला गया था वह कुछ दूर तक तो नहर के साथ साथ चलता था और आगे जाकर पुल आ जाने के कारण उसकी दिशा बदल दी गई थी जो खेत और गार्डन के बीच में से होकर आता था । लेकिन रास्ते में सड़क आ जाने के कारण उस पर पुल बनाया गया था जो सड़क और गार्डन तक था आगे उस गार्डन में बहता हुआ दूसरी ओर निकल जाता था । हमने अंदर जाने के लिए पुल को माध्यम बनाया । बहाव की दिशा में होने के कारण हम आसानी से उसके नीचे से निकल जाएँगे  । पुल पानी से काफ़ी ऊँचा था लेकिन बीस फुट के उस रास्ते में गहरा अंधेरा था । मुझे डर लग रहा था लेकिन भाई के साहस दिखाने पर मुझमें भी साहस आ गया । हमने चारों ओर नज़र घुमायी कि कोई हमें देख तो नहीं रहा । रास्ता साफ देख कर हम पानी में उतर गए । आगे भाई तैर रहा था और पीछे मैं और फिर कुछ ही पलों में हम अपने सपनों के गार्डन में खड़े थे । हमारी आशा के अनुरूप माली आम के पेड़ की छाया में गहरी नींद में सो रहा था । उस समय पूरे बाग के हम मालिक थे । बस हमें देखना यह था कि शोर न हो ताकि माली जाग न जाये । 

      जितना हमने सोचा था, गार्डन उससे भी कीं अधिक सुंदर था। रेस्टहाऊस की सीढ़ियों से लेकर बरामदे तक क़रीने से पाम और मोरपंखी के छोटे-बड़े गमले रखे थे । गर्मी के मौसम में भी कई तरह के फूल साफ-सुथरी क्यारियों में लगे थे । अलग -अलग तरह के फलों के पेड़ तो थे ही अंगूर की बेलों पर लटके अँगूरों के गुच्छे लटके हुए थे । पपीता और केले के पौधे भी फलों से लदे पड़े थे । सेब, खुमानी, आलूबुखारा ये मैदानी भागों के फल नहीं पर यहाँ पेड़ों पर ये सब फल भी थे । चाहे थोड़े ही थे । पर हमारा मन तो कलमी आमों को देख कर ललचा रहा था जिन के नीचे माली सो रहा था । यह बचपन ही तो था जो तपी दोपहरी में घर से निकल कर छुपते-छुपाते हम गार्डन में घूम रहे थे । कभी हरी घास पर लोटते तो कभी किसी पेड़ पर चढ़ते । लेकिन यहाँ आकर कोई फल नहीं खाया और वह भी आम तो हमारा आना बेकार हो जाता । भाई आगे और मैं पीछे । दोनों पहुँच गये आम के पेड़ों के पास ।  नीचे तो कोई आम गिरा हुआ नहीं था इसलिए ऊपर चढ़कर तोड़ना तो ज़रूरी था । मैं नीचे खड़ी हुई ताकि भाई जो आम फेंके मैं उठा लूँ । अभी तीन ही आम नीचे आए थे और जब चौथा फेंका तो पता नहीं कैसे दूसरे पेड़ के नीचे सोए माली को जा लगा । वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ । उसे जगा देख मेरे पसीने छूटने लगे। मैं भाग खड़ी हुई । भाई कुछ समझा नहीं पर मुझे भागता  देख वह भी जल्दी से पेड़ से उतर कर भागने लगा । उधर माली जब तक स्थिति को समझता हम पौधों के झुरमुट में उसकी आँखों से ओझल हो गए पर बाहर जाना अभी शेष था । हम पुल के पास थे । पानी के बहाव के साथ जाते तो माली हमें अवश्य देख लेता इसलिए पुल के नीचे से विपरीत दिशा में यानि जिधर से आए थे उधर से जाना ही उचित लगा । बालमन था, गहरी सोच तो थी नहीं । हाथ में तीन आम लिए कूद गयी । अब भला हाथ चले तो कैसे चले । नया नया तैरना सीखा था । दो कदम आगे चलती तो चार कदम पीछे चली जाती । भाई आगे निकल गया और मैं पीछे रह गयी पर मैंने अपने हाथ से आम नहीं छोड़े । यह आज भी याद है, यह भी याद है कि उन तीन आमों के बँटवारे में हम दोनों में झगड़ा भी हो गया था। हम एक एक आम लेकर तीसरे आम को आधा- आधा लेने के लिए राज़ी हो गए थे। लेकिन भाई ने थोड़ा- थोड़ा चूसते हुए सारा आम खा लिया था । घर में आमों की कमी नहीं थी फिर भी मैं उस आम के लिए भाई से नाराज़ हो गई थी । 

     लेकिन वह तो ज़िंदगी से ही नाराज़ हो गया । बचपन के सुहाने दिन क्या बीते हमारी राहें ही अलग-अलग हो गईं  । बहन -भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए । एक साथ मिलना छुट्टियों में ही हो पाता था । विवाह के बाद तो देश ही छूट गया और उसके साथ ही बचपन की बातें, यादें खेल -तमाशे, परम्पराएँ सभी कुछ यहीं रह गया । भौतिक सुखों की लालसा के चक्रव्यूह में यौवनावस्था कब बीत गई, पता ही नहीं चला  इसी चक्कर में रिश्ते-नाते, सब अपने दूर होते गए और दूरियाँ ऐसी बढ़ी कि भावनाएँ ही मर गईं । -न प्रकृति से लगाव रहा न अपनों से । हमने जो बोया था, उसको ही तो काटना था । पैसों के  ढ़ेर पर खुशियों की बेलें नहीं उगाई जा सकतीं । चाँदी की चमक आँखों को चौंधिया सकती है, सपने दिखा सकती है, क्षितिज को छूने का अहसास दिला सकती है पर यह मृगतृष्णा सी ऐसी प्यास है कि बुझती ही नहीं । 

        जिन पेड़ों, बागों के दीवाने थे, वे सब तो अब कहीं भी नहीं हैं । जिस नहर के किनारे हर सुबह चार-पाँच बजे मोहल्ले के बच्चे मिल कर सैर करने के लिये जाते थे, उसकी दिशा बदल गई है । घर से बहुत दूर पक्की नहर बन गई है । बागों की जगह कॉलोनियाँ बन गई हैं । पेड़ों के स्थान पर कंकरीट  के जंगल उग आए हैं। न अब पीपल है न बरगद । आँगन ही नहीं तो तुलसी चौरा कहाँ से होगा । बालकनी के एक कोने में छोटे से गमले में लगा तुलसी का पौधा ज़रूर दिखाई दे जाता है। वह भी श्रद्धा के लिए नहीं, ज़रूरत के लिए । जगह ही नहीं तो पौधे उगेंगे कहाँ से । पर जिन पौधों को उगना होता है उनका बीज पक्षियों अथवा हवा द्वारा छत तक पहुँच ही जाता है । धूल मिट्टी पानी पाकर चौथी क्या चालीसवीं मंज़िल पर भी जीवन पा लेते हैं । उन्हें पनपने के लिये बहाना चाहिए । मनुष्य ही स्वार्थी हो गया है । प्यार, स्नेह, अपनत्व सब कुछ छोड़कर बंजर भूमि पर बीज उगाने में प्रयत्नरत है जो कभी भी अंकुरित नहीं  होंगे । इससे पहले कि बीज ही निष्क्रिय हो जाएँ, उगाने के लिए हमें पीछे तो लौटना होगा । 

सम्पर्कः ई-29,नेहरू ग्राँऊड , फ़रीदाबाद 121001, मो॰ 9811251135

कविता - बसंत अकेले ना आना

 - डॉ. महिमा श्रीवास्तव

बसंत इस बार

अकेले मत आना

हो सके तो फिर से

मेरा लड़कपन ले आना।


पुरानी, गेंदे के

पीले फूलों से भरी

साँझें ले लाना।


तितली, भौंरों की 

गुनगुन से भरी

झूलों को  पींगे

देखने वाला ले आना

विस्मृत कर गये जो

उन्हें चाय पर ले आना।

पीली कुर्ती वाली 

दर्पण में झांक स्वयं पर

विस्मित विमुग्ध होती

छवि लौटा लाना।


प्रिय को भेजी

नेह रची पाती

का उत्तर ले आना।


नहीं तो उनको

अपनी बयार पर सवार

ले करके आना।

ओ बसंत

इस बार अकेले

मत आना।

                  

प्रेरक- धरती पर पैर धरो धीरे

 - निशांत

(वसंत ऋतु में) “जरा धीरे चलो मेरे भाई, धरती मैया पेट से है” – उत्तर अमेरिकी की आदिवासी उक्ति

अपने लोक जीवन और पारंपरिक ज्ञान से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। पृथ्वी माता के प्रति सम्मान की अनेक कथाएँ भारतीय मानस में जीवित हैं। हजारों सालों तक भारत के आदिवासी सिर्फ इसलिए पिछड़े रह गए;  क्योंकि धरती माता के शरीर पर लोहे के हल और कुदाल चलाना उन्हें स्वीकार नहीं था। अपने मतलब भर की लकड़ी वे जंगल से लेते थे, जिसका उपयोग केवल जलावन के लिए होता था। अभी भी बहुतेरी आदिवासी संस्कृतियाँ अपने झोपड़ों में लकड़ी के दरवाजे-खिड़कियाँ नहीं लगातीं। कोई क्या चुरा के ले जाएगा?

आजकल कार्बन फुटप्रिंट की बहुत चर्चा होती है। इसका सम्बन्ध ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से है। इसके बारे में मैंने अभी विस्तार से नहीं पढ़ा है। बस इतना जानता हूँ कि आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़ में धरती को रौंदनेवाले पैर उसे स्थाई क्षति पहुँचा रहे हैं। जितना अधिक विकास, उतना अधिक कार्बन उत्सर्जन। जितना अधिक कार्बन उत्सर्जन, उतना ही बड़ा कार्बन फुटप्रिंट। अमेरिकियों और यूरोपियों के कार्बन फुटप्रिंट भारतीयों और अफ्रीकियों के कार्बन फुटप्रिंट की तुलना में न केवल कई गुने बड़े हैं;  बल्कि धरती को गहरे तक चोटिल करते हैं।

धरती की रक्षा करने का केवल एक ही उपाय है। उसपर कम भार डालो। उसे मत रौंदो।

पिछले सौ सालों में ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने और संचय करने की होड़ में हम बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं। हमारी संस्कृतियों ने हमें हमेशा यह सिखाया कि जितना हम पाते हैं, उससे ज्यादा लौटाने की हमारे ऊपर नैतिक जिम्मेदारी स्वतः बनती है। धरती को गहरे तक खोदकर उससे बहुमूल्य रत्न, धातुएँ, और अयस्क निकाले जा चुके हैं। नदियाँ नगरों के सीवेज और रसायनों से भरी हुई हैं। जंगलों से पेड़ और प्राणी नदारद हो रहे हैं। प्राकृतिक दृश्यों को मनमाफिक रूप दे दिया गया है। कहते हैं कि आज धरती से जितना लिया जा रहा है उसके लिए भविष्य में एक धरती कम पड़ेगी।

इन मसलों पर इतना कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है कि इससे किसी को अनभिज्ञता नहीं है। हमें समस्याओं की जानकारी है लेकिन प्रत्यक्ष उपायों को हम नज़रंदाज़ कर रहे हैं। कचरे को रिसाइकल करना, इलेक्ट्रिक कार खरीदना या साईकिल चलाना ज़रूरी लेकिन फैशनेबल विकल्प हैं। इनसे ज्यादा भी बहुत कुछ किया जा सकता है।

मितव्ययता और अपरिग्रह कुछ-कुछ एक जैसे सिद्धांत प्रतीत होते हैं। मितव्ययता याने अपने खर्चे कम करना। अपरिग्रह याने अपनी ज़रूरतें कम करना। मुझे अपरिग्रह का विचार भाता है। यह जैन दर्शन का एक रत्न है। देखिये भगवान् महावीर ने इस विषय पर क्या कहा है:-

“चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।

अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥”

अर्थात् जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता। और…

“जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई।

दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥”

ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।’ पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी! 

अपरिग्रह का अर्थ अभाव में जीने से नहीं है. इच्छाओं में कमी होने से उपभोग एवं उपयोग में भी कमी आती है। जिसके परिणामस्वरूप संसाधनों का दोहन और उनपर निर्भरता कम होती जाती है। इसका प्रभाव हमारे पर्यावरण और वातावरण पर भी पड़ता है। गाँव-देहात की हवा यूँ ही शुद्ध तो नहीं होती! वहाँ विकास के चरण नहीं पड़े तो विकास के दुष्परिणामों से भी वे दूर हैं।

अपरिग्रह या मिनिमलिज्म का दर्शन सरल और स्थाई है। रिसाइकलिंग का अपना महत्त्व है;  लेकिन अपरिग्रह का पालन करने पर उसकी ज़रुरत भी नहीं पड़ती. पर्यावरण या वातावरण को नुकसान पहुँचाए बिना भी बहुत से पदार्थों का निर्माण और उपयोग किया जा सकता है लेकिन समझदारी इसी में है कि ज़रूरतें ही कम कर दी जाए। ऐसा करने के बहुत से तरीके संभव हैं और उनमें से कुछेक पर यहाँ बिंदुवार चर्चा की जाएगी।

* सीमित खरीददारी – अधिक से अधिक उपभोग की लालसा के फलस्वरूप बहुतेरी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जिन्हें हम खरीदते हैं। कम खरीदने की आदत विकसित करना 

* अन्न का निरादर न करें – अमेरिका जैसे देश में लोगों को कम खाने की नसीहत दी जाती है, जो अपने देश में बेमानी है। इसके बावजूद हमारे यहाँ बड़े पैमाने पर अन्न की बर्बादी होती रहती है। सरकारी नीतियों के कारण होनेवाली बर्बादी की बहुत चर्चा होती है पर घरों और पार्टियों में बर्बाद किये जाने वाले अन्न की भी सीमा नहीं है। अन्न के उत्पादन में बहुत बड़ी मात्रा में संसाधनों और मानव श्रम की खपत होती है। मैं अक्सर ही रेस्टौरेंट्स और पार्टियों में लोगों को खाने से भरी हुई प्लेटें कचरे के डिब्बे में डालते देखता हूँ। यह बहुत दुखदायी है।

* शाकाहार अपनाएँ – अन्न उपजाने की तुलना में मांस के उत्पादन में ऊर्जा कई गुना अधिक प्रयुक्त होती है। शाकाहार अपनाने के अपने बहुत से आधार और फायदे हैं।

* पैकेजिंग कम करें – आजकल चीज़ों को लपेटने और पैक करने में अंधाधुंध सामग्री का उपयोग किया जाता है।  किसी भी सामान को खरीदने से पहले इसपर विचार करना तो संभव नहीं है;  लेकिन ऐसे प्रयास किए जा सकते हैं कि कंपनियों को हलकी पैकेजिंग के लिए प्रेरित किया जा सके. कंपनियों को पैकेजिंग वापस लेकर कुछ उपहार देने का विकल्प रखना चाहिए।


* गाड़ी कम – पैदल ज्यादा – साइकिल चलाए हुए आपको कितना समय हो गया? शायद आपके पास साइकिल न हो। मेरे पास भी नहीं है;  लेकिन मैं कभी-कभार यूँ ही किसी की साइकिल माँगकर ज़रा दूर तक चला लेता हूँ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट की दशा बेहतर हो, तो मैं उसे अपनाने में गुरेज़ न करूँ। पैदल खूब चलता हूँ। बाइक पूल या कार पूल भी अच्छी चीज़ है। सबसे बढ़िया तो है, घर में बैठना और मज़े से बच्चों के साथ खेलना, पढ़ना, टी वी देखना, ब्लॉग चैक करना।

* घर कितना भी बड़ा हो, उसमें बेतहाशा खरीदकर बाहरी हुई चीज़ें देखना नहीं सुहाता। जितनी ज्यादा चीज़ें, उतना ज्यादा कबाड़. व्यवस्थित रखने का खर्चा और भारी-भरकम बिल अलग से। छोटा घर – संसाधनों की कम बर्बादी। बिजली-पानी की कम खपत।

ये सब तो कुछ उदाहरण और उपाय हैं। असली चीज़ तो है मानसिकता और मनोवृत्ति में परिवर्तन लाना। सभी करें तो कितना अच्छा हो। जीवन की गुणवत्ता के पैमाने पर हमारा देश बहुतेरे विकसित देशों से पीछे है। कहा जाता है कि हमारे नागरिकों में सिविक सेन्स भी नहीं है और आदेशों का उल्लंघन करना हमारी फितरत है। कुछ बातें सही हैं पर दोष-दर्शन से क्या होगा। पहल तो सभी को करनी ही पड़ेगी। आखिर हमारे भविष्य का सवाल है।

इस आलेख की प्रेरणा  मिली थी जहाँ से मिली हैं उस पोस्ट में दिए गए कुछ बिन्दुओं को यहाँ पुनःप्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि वे सामयिक हैं और इस आलेख की प्रकृति के अनुरूप भी हैं।  

छोटे-छोटे कदम ही हमारी पृथ्वी माँ को बचा सकेंगे। यह हमारी जिम्मेवारी है कि यह काम सुचारु रूप से हो। क्योंकि किसी ने सच कहा है कि-

‘We have not inherited this planet from our parents. But have merely borrowed it from our children’

यह पृथ्वी हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है। यह हमारे पास वशंजों की धरोहर है।

यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम वशंजों की धरोहर, उन्हें ठीक प्रकार से उन्हें वापस दे सकें।  क्या आप जानना चाहते हैं कि आप इसमें किस तरह से सहयोग कर सकते हैं। बहुत कुछ – देखिए आप क्या कर सकते हैं:

1. आप समान ऐसे पैकेटों में खरीदिए जो फिर से प्रयोग हो सकें और उन्हें बार बार प्रयोग करें।

2. शॉपिंग पर अपना बैग ले जाएँ।

3. पेपर को बेकार न करें। दोनों तरफ प्रयोग करें।

4. हो सके तो, लिफाफों को फाड़कर, अन्दर की तरफ सादी जगह को, लिखने के लिये प्रयोग करें।

5. सारे बेकार कागजों को पुनर्चक्रण (recycling) के लिए इकट्ठा करें।

6. प्लास्टिक के पैकेटों का कम प्रयोग करें। सब्जी, फल या मांस को सुरक्षित रखने के लिये प्लास्टिक की जरूरत नहीं।

7. उन उत्पादनों को लें, जो हर बार पुनः फिर से भरने वाले पैकटों में मिलते हों। यदि आपकी प्रिय वस्तु ऐसे पैकेटों में न आती हो, तो कम्पनी को इस तरह के पैकेटों में बेचने के लिये लिखें।

8. खाने की वस्तुओं को हवा-बन्द बर्तनों में रखें। उन्हें चिपकती हुई प्लास्टिक में रखने की जरूरत नहीं।

9. पेट्रोल बचाएँ, प्रदूषण कम करें।

10. अपने सहयोगियों और पड़ोसियों के साथ कार पूल कर प्रयोग करने का प्रयत्न करें।

11. बिना बात बिजली का प्रयोग न करें – बत्ती की जरूरत न हो, तो बन्द कर दें।

12. पेड़ों, जंगलों के कटने को रोके। इनके कटने के खिलाफ लोगों को जागरूक करें।

13. पुनरावर्तित (recycled) वस्तुओं का प्रयोग करें।

14. ऐसे बिजली के उपकरण प्रयोग करें, जो कम बिजली खर्च करते हों। इस समय इस तरह के नये तकनीक पर बने बल्ब आ रहें हैं। उनका प्रयोग करें।

15. पर्यावरण-मित्रवत् उत्पादकों (environment friendly products) का प्रयोग करें।

आप इन पन्द्रह बिन्दुओं में से, कितने बिन्दुओं का पालन करते हैं। मैं इसमें सब तो नहीं, पर अधिकतर का पालन करता हूँ। (हिन्दी जे़न से)


हाइकु - कोहरा पाला शीत

   -  रमेश कुमार सोनी

1

खजूर पेड़ 

उदास खड़े रोते 

संगी ना साथी 

 2

बेर बुलाते 

काँटा पैर चुभाने 

जीभ चटोरी

 3

वट की छाँव 

देखा सबके गाँव 

बच्चों का झूला

 4

बाज़ की दृष्टि 

चूजे डैनों में छिपे 

माँ ही बचाती

 5

बड़ी मायावी  

बरगद की छाया 

डरती दूर्वा।

 6

पहाड़ी दिन 

धूप के बच्चे खेले 

फूल चुनते 

7

शीत मोहिनी 

धूप तापने आती 

ड्योढ़ी–अँगना

 8

धूप सेंकते 

सुख–दुःख की बातें  

गली–मोहल्ले

 9

धूप–कोहरा 

खेलें आँख मिचौली 

शीत की सखी 

 10

पूस ने जने 

कोहरा, पाला, शीत 

दाँतों के गीत

 11

जग सिकुड़ा 

झीलों में बर्फ जमी 

भूख गर्म है

 12

गाजर – मूली 

शीत का स्वाद चखें 

गोभी सेम में

 13

प्यार की गर्मी, 

बर्फ़बारी ना रोके 

युवा रोमांच

 14

धूप ले उड़े 

घोंघे–सीप के घर 

पोखर सूखे

 15

धूप हाँफती 

भोर से सीढ़ी चढ़े 

लाल से पीली

 16

शिकंजी पीने 

जेठ – बैशाख आते 

प्याऊ में खड़े.

सम्पर्कः कबीर नगर- रायपुर, छत्तीसगढ़ , 9424220209 / 7049355476


कहानी - अनागत

 - आशा पाराशर

मास्टर दीनानाथ शास्त्री दबे कद मों पास आकर खड़े हो गये, अंदर की तरफ सरक आये पर्दे की फाँक से वे वासु को देख सकते थे। वासु ने शास्त्री जी का कुर्ता पायजामा अलमारी में रख दरवाजा बंद कर दिया और बाहर आ गया। यह पहला अवसर नहीं था, जब उन्होंने वासु की परीक्षा न ली हो। अलमारी खोलते ही सामने रखे रुपये किसी को भी आसानी से दिखाई पड़ जाते, कपड़े धोने को देते तो उसकी जेब में अँगूठी छोड़ देते। उन्हें प्रसन्नता थी कि हर बार वासु खरा उतरता था। उन्हें रमन की बात याद आ जाती, ‘दद्दा, आप सठिया गए हैं, क्या जरूरत है अब इस उम्र में एक छोटे बच्चे की जिम्मेदारी उठाने की ? मुझे पाल-पोसकर मन नहीं भरा क्या ? किसी दिन तुम्हें नुकसान पहुँचाकर सब कुछ लेकर रफूचक्कर हो जाएगा’ मन करता कि जवाब दें, ‘जरूरत तो इस उम्र में मुझे तुम्हारी थी बेटा, पर जब तुम्हें इतने वर्षों में मेरी चिन्ता नहीं हुई, तो अब भी निश्चित रहो।’ रमन नहीं जानता था कि वासु ने मास्टर दीनानाथ शास्त्री के निपट एकाकी जीवन का शून्य भर दिया है। उस नन्हे बालक ने उनमें फिर से जीवन का संचार कर दिया है।

वासु का मास्टर दीनानाथ ये कोई सम्बन्ध नहीं था, वह तो एक दिन घर के बाहर नीम के पेड़ तले बैठा, रोता हुआ मिल गया था। मास्टर जी अपनी साइकिल पेड़ के नीचे रख देते थे। उस दिन जब वे पोस्ट आफिस जाने के लिये साइकिल उठाने गये तो देखा एक छः सात साल का बच्चा जमीन पर बैठा सुबक रहा है। जल्दी में थे सो चले गये। परन्तु जब घन्टे भर बाद लौटने पर भी उसे वहीं रोता हुआ पाया तो वे उसके पास गये और पूछा- ‘क्या बात है बेटे, रो क्यों रहे हो? कहाँ रहते हो?’ वह बच्चा बिना कोई जवाब दिये रोता रहा। उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा तो वह हिचकियाँ लेकर रोने लगा। उस पर दया आ गई, उसे उठा कर अन्दर लाये, पानी पिलाया, उसने बताया कि उसके चाचा गाँव से उसे यहाँ साइकिल दिलाने लाये थे, यहाँ बिठा गये, पर अभी तक नहीं आये। मास्टर जी ने उसे समझाया कि हो सकता है, किसी काम में देर हो गई हो, और उसका मुँह धुलवा कर बिस्कुट खाने को दिये। दोपहर से रात हो गई, वह वहीं जमीन पर लुढ़क कर सो गया। अगला दिन, फिर उससे अगला दिन और दिन पर दिन बीत गये उसे लेने कोई नहीं आया उसने अपना नाम वासु बताया, और यह कि वह चाचा के घर रहता था, माँ-बाप के बारे में कुछ पता नहीं था। चाची बहुत मारती थी, खाने को कुछ नहीं देती थी। शास्त्री जी की अनुभवी बुद्धि में यह समझ आ गया कि चाचा अपने अनचाहे बोझ को साइकिल का प्रलोभन दे, पेड़ के नीचे उतार गया है। एक दो बार सोचा कि आस-पास के गांवों से उसके चाचा का पता करें, पर सोचा कि अगर मिल भी गया तो क्या भरोसा वह फिर उसे किसी और पेड़ के नीचे नहीं छोड़ेगा। फिर शास्त्री जी कई वर्षों से पत्नी के निधन के बाद इकलौते पुत्र के भी दूसरे शहर में बसने से जो एकाकी-नीरस जीवन जी रहे थे, उसमें उठी हलचल से प्रसन्न थे।

दस-ग्यारह वर्ष का था उनका इकलौता पुत्र रमन, जब उनकी पत्नी सावित्री का निधन हुआ था। एक माँ अपने बच्चे को कितने कष्ट सह कर पालती है, यह उन्हें अब पता चला था। रमन माँ को बहुत याद करता था। सवेरे उसे उठाने में बहुत परेशानी होती थी, दो तीन बार उसे प्यार से उठाते लेकिन फिर उनका धैर्य जवाब दे देता वह उसे बेदर्दी से खींच कर खड़ा कर देते। उसका रूदन स्कूल जाने तक बिना रूके जारी रहता।

‘माँ तो कभी गुस्सा नहीं करती थी, माँ तो ऐसे करती थी’ सुनकर कभी बहुत गुस्सा आता और कभी अपनी लाचारी पर खुद भी रो पड़ते। उनके इस व्यवहार से वह उनसे दूर होता चला गया। धीरे-धीरे वह अपने काम स्वयं करने लगा, और उसका दोस्तों का दायरा बढ़ता गया। घर उसके लिये केवल सोने का स्थान था। उसे अब पिता की आवश्यकता नहीं रही। कॉलेज शिक्षा पूरी कर उसने अपनी नौकरी का स्वयं प्रबन्ध कर लिया था। बस पिता को सूचनामात्र दे एक दिन उन्हें प्रणाम कर कलकत्ता जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। महीने-दो महीने में उसका संक्षिप्त सा पत्र मिल जाता था। उन्होंने अपना पितृधर्म निभाते हुए पुत्र के लिये समाज की कन्याओं की कुण्डलियाँ मंगा ली थी। वे अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहते थे। इससे पहले कि वे गुलाबी साफा पहन समधियों से गले मिलते, रमन के एक पत्र ने उनके-सपनों पर पानी फेर दिया- ‘दद्दा, आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं अपने बॉस की पुत्री से विवाह कर एक साथ तीन प्रमोशन पा गया हूँ। समय मिलने पर आपकी बहू को घर लाऊँगा।’ शास्त्री जी को समझ न आया कि किस बात पर प्रसन्न हों इकलौते पुत्र के विवाह की सूचना पर या उसके तीन प्रमोशन पाने पर! फिर एक लम्बी खामोशी छा गई। मास्टर जी के रिटायरमेंट पर सपत्नी पहुँचा। बिना आस्तीन का ब्लाउज, नायलॉन की नाभिदर्शना साड़ी पहने, कंधों तक केशगुच्छ झुलाती, सांवली, बंगाली पुत्रवधू ने बिना किसी आडम्बर के स्वयं ही गृहप्रवेश कर लिया। अगले दिन मँहगी कलाई घड़ी, रक्तचाप नापने की मशीन और मिट्टी के सकोरे में रसगुल्ले-संदेश पिता को दे कर मीठे स्वर में इसरार करने लगा- ‘दद्दा, आप अब यहाँ अकेले नहीं रहेंगे, मैं और सुगन्धा आप को लेने आये है।’ सुनकर मास्टर जी गद्गद हो गये। स्कूल के मित्र दिवाकर शर्मा को अपनी खुशी छुपाते हुए खबर दी। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, केवल होठों पर रहस्यमयी मुस्कान बिखेर दी, ऐसा लगा कि वह कुछ कठोर शब्द कह कर उनकी खुशी पर तुषारापात नहीं करना चाहते थे। दो दिन बाद पुत्र और पुत्रवधु के साथ कलकत्ता चले गये। पुत्र घरजमाई बन गया है, यह उसके श्वसुर की आलीशान अट्टालिका में उसे अपमानित होते देख समझ गये थे। कहावत सुनी थी कि घर जवाई तो द्वार पर बंधे कुत्ते समान होता है, दूसरों की नजर में प्रभावशाली लेकिन घर में मालिक के आदेशों की पालना करना। अगले दिन सुबह घुंघरूओं की आवाज से नींद खुली। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनकी पुत्रवधु सुगन्धा नृत्य सीखती है। जिस घर में भोर की पहली किरण रामायण की चौपाईयों के साथ प्रवेश करती थी और घर की औरतों को विवाह-शादी में भी नाचने गाने की अनुमति न थी, उस घर में सुगन्धा कैसे रहती, अच्छा हुआ पुत्र स्वयं यहाँ बस गया था। दोपहर के खाने में जहाजाकार संगमरमरी मेज पर रमन के श्वसुर बिनोय मुखर्जी से मुलाकात हुई। उस मेद बहुल, शख्सियत में कुछ पतला था तो वह उसकी तीखी नाक थी, जो दोनों ओर फूले हुए गालों को एक संकीर्ण रेखा से विभक्त कर रही थी। उन्होंने शास्त्री जी के सिर के बालों के बीच की चुटिया और माथे पर चंदन के त्रिपुण्ड को नजर अंदाज कर उनके सामने ही गोश्त की हड्डियाँ चंचोड़नी शुरू कर दीं तो वे बिना खाये “शिव शिव” का जाप करते उठ गये। वे अपने घर जाने को तड़पने लगे, जिस विशाल अट्टालिका में उनका पुत्र अपने धर्म आचरण का त्याग कर खुश था वहीं शास्त्री जी को अपने घर का-धुला, धूप अगरबत्ती से महकता आँगन प्रिय था। लेकिन रमन ने उन्हें जब बताया कि वह मकान बेचने के लिये एक दो एजेन्ट से बात कर आया है तो उनके पावों तले जमीन खिसक गई। अगली सुबह शास्त्री जी अपने झोले सहित ‘मुखर्जी विला’ में नहीं थे। घर पहुँचते ही उन्होंने घर के बाहर टंगी ‘घर बिकाऊ है’ की तख्ती उतार कर टुकड़े-टुकड़े कर डाली। उस दिन के बाद पिता-पुत्र के बीच एक खामोशी छा गई।

वासु के आने के बाद उनकी नीरस जिन्दगी में फिर से मधुरता, कोमलता आ गई थी। वर्षों बाद उनकी रसोई से सूजी के हलवे की खुशबू महकने लगी थी। हलवा शुरू से उनकी कमजोरी रहा है, पर अपने लिये वे कुछ भी नहीं करते थे। आँगन में छोटे-छोटे जूते चप्पल नजर आने लगे और पिछवाड़े कपड़े सुखाने की तार पर नन्ही कमीजें सूखने लगी थी। सारा दिन घर से ‘वास-वासु’ और ‘दद्दा’ की आवाजें सुनाई देती थीं, मानो वर्षों से सोया हुआ घर उठ गया है। शास्त्री जी ने उसे दद्दा कहना सिखाया था, इस सम्बोधन से वे रमन को महसूस करते थे। मास्टर जी ने उसे स्कूल में भर्ती करवा दिया, सवेरे उसे साइकिल पर बैठा, स्कूल छोड़ आते, दोपहर में फिर लेने जाते। अब सब्जी-फल लेने भी मण्डी जाना पड़ता था। वासु चाची की मार दुत्कार से मुक्ति और पिता सा लाड़-दुलार पा उसका कुम्हलाया चेहरा भर गया था। कुछ ही वर्षों में वासु ने घर का काम सीख लिया, अब वह सवेरे सबसे पहले उनकी साइकिल साफ करता, उठने से पहले पानी और अखबार उनके पास रखे मेज पर रख देता। फिर पूरे घर को बुहार कर मंदिर में पूजा की सामग्री सजा देता। साइकिल से उसे एक अजीब सा मोह था, शायद उसकी इसी कमजोरी को मोहरा बना चाचा-चाची ने उसे शहर जाने के लिये तैयार किया होगा, सबसे ज्यादा समय वह उसे साफ करने में लगाता था। शास्त्री जी ने उसे साइकिल सिखा दी, जिस दिन उसने उन्हें पीछे बिठाया, वे अभिभूत हो गये। अब कहीं जाना होता, पेंशन कार्यालय, पोस्ट आफिस, बिजली-पानी के दफ्तर सब जगह वासु साइकिल पर पीछे मास्टर दीनानाथ शास्त्री को बिठा ले जाता। एक दिन सड़क के उस पार से पुराने साथी दिवाकर शर्मा ने आवाज लगाई, शास्त्री जी ने देखकर वासु को रोकने के लिये कहा, उसे वहीं खड़ा कर स्वयं सड़क पार कर उस ओर जाने लगे, तभी सामने से तेज गति से एक मोटर साइकिल उनसे टकरा गई और वे सड़क पर चारों खाने चित्त गिर पड़े। हवा की तेजी से वासु उनके पास पहुँच गया। तब तक वे थोड़ा संभल गये, उन्हें छोड़ मोटरसाइकिल सवार, जो उससे डीलडौल मे सवाया था को कमीज के कौलर से पकड़ कर एक मुक्का रसीह कर दिया, ‘क्यों, दिन में भी दिखाई नहीं देता अन्धे हो क्या ?’ उसने दूसरा हाथ हवा में लहराया ही था कि उसने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘साले, बुढ्ढे को नजर नहीं आ रहा था कि मैं आ रहा हूँ, और तेरा यह क्या लगता है ?’ फिर तो “किसे बुढ्ढ़ा कहा ? किसे कहा ? हाँ दद्दा है वो मेरे, “फिर तो वह शास्त्री जी और दिवाकर जी के बस में बड़ी मुश्किल से आया। संध्या को दोनों एक दूसरे की चोट पर हल्दी-तेल लगा रहे थे। शास्त्री जी उसे कुछ रूपये-पैसे देते तो वह मना कर देता “सब कुछ तो तुम देते हो दद्दा” लाड़ से उनके कन्धे पर सर रख देता, पर फिर भी वे जबरदस्ती उसकी जेब में ठूँस देते, “अपने मन का कुछ खा लेना।” कभी मजाक में उसे पूछते, “क्यों वासु, चले तेरे चाचा को ढूँढने?” 

“मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा”- उसकी आँखों में उदासी छा जाती।

एक दिन उन्होंने अपने मित्र दुर्गादत्त, जो कचहरी में वकालत कर रहे थे, से बात की, “यार दुर्गा, रमन की ओर से तो मैं निश्चित हूँ, घर जवाई बनने का इनाम उसे मिल गया, ‘मुखर्जी विला’ उसे मिल गया है। उसकी इस जर्जर मकान में कोई दिलचस्पी नहीं होगी, अगर मुझे कुछ हो गया, तो यह अभागा फिर से लावारिस हो जाएगा। ईश्वर ने इसे उस समय मेरे पास भेजा, जब मुझे सहारे की आवश्यकता थी, अतः यह मकान इसके नाम करना चाहता हूँ।’ वकील दुर्गादत्त ने थोड़ी ऊँच-नीच समझाई, फिर तीन दिन बाद का समय वसीयत करने के लिए नियत किया गया।

“क्या हो दद्दा, आज दोपहर तक सोते रहोगे?” सवेरे वासु पानी, और अखबार ले सिरहाने खड़ा था। उसने कोई हरकत न देख जल्दी से चीजें मेज पर रख उन्हें हिलाया, पर उन्होंने आँखें न खोलीं। घबरा गया पास वाले घर से हरि चाचा को बुला लाया। उन्होंने नब्ज टटोली, पलकें उलटकर देखीं, फिर सीने पर कान रखा, दो मिनट बाद सिर हिलाकर वासु की ओर देख कहा, “दद्दा चले गए रे तेरे, भगवान जी के पास”- वासु बिलख उठा। मुहल्ला इकट्ठा हो गया। रमन को इत्तला करी, पर कलकत्ते से आने में समय लगता इसलिए तय हुआ कि मुखाग्नि वासु देगा। वासु ने गम्भीरता ओढ़ सारे कर्मकाण्ड, जैसा वकील दुर्गादत्त और मास्टर दिवाकर शर्मा ने बताए कर दिए। तीसरे दिन गले में नया मंगलसूत्र झुलाती, विदेशी इत्र की खुश्बू उड़ाती पत्नी के साथ रमन आ गया। आते ही उसने सबसे पहले वासु को ढूँढा, जो घुटनों में मुँह छुपाए कोने में बैठा था। फिर सारे कमरों में घूम-घूमकर वासु का सामान एक झोले में भरा और उसका हाथ पकड़ घर के बाहर उसी पेड़ के नीचे छोड़ आया, जहाँ आठ वर्ष पहले उसका चाचा उसे छोड़ गया था। 

“दद्दा”,  मास्टर जी की साइकिल पकड़ बिलख उठा वासु। 

“बहुत तमाशा मत कर यहाँ”- रमन ने पड़ोसियों की नजरों में उसके प्रति सहानुभूति देख कहा, जो घरों के दरवाजों को थोड़ा-थोड़ा खोलकर देख रहे थे। “दफा हो, यहाँ तेरा कोई नहीं है।” पर वह वहीं बैठा रहा।

जिस पुत्र ने पिता के दग्ध हृदय की शांति का कभी प्रयास नहीं किया, आज वही पुत्र उनकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ करवा रहा था। दर्जनों पंडित मेवा पूड़ी,  खीर-पूरी का भोग लगा रहे थे, पर बाहर पेड़ के नीचे बैठे शास्त्री जी के उस सखा, सेवक और पुत्र को पूरी का टुकड़ा भी नसीब नहीं हुआ। अगले दिन घर का सब असबाब, जिसमें शास्त्री जी की प्रिय मेज कुर्सी, बर्तन, किताबें यहाँ तक कि मंदिर की पीतल की घंटी, जिसे वासु बजाता और वह आरती कर वातावरण पवित्र कर देते, उसे रमन हाथ में उठा उसके वजन का अनुमान लगा रहा था, कबाड़ी को देने के लिए आँगन में ढेर लगाया गया। कबाड़ी ने औने-पौने में सब सामान, जिसमें मास्टर दीनानाथ शास्त्री की छड़ी, छाता और पानी पीने का ताँबे का जग था, बड़ी निर्दयता से बोरी में भर लिया। इस उपक्रम में एक बार भी रमन को भावुक होते नहीं देखा, उसकी नजर में जो पिता की धरोहर होनी चाहिए, कबाड़ था। अब बारी थी शास्त्री जी की, साइकिल की रमन कबाड़ी के साथ पेड़ के नीचे आया।

“नहीं दूँगा यह, मेरे दद्दा की है” वासु ने साइकिल कसकर पकड़ ली। 

‘ऐ लड़के’ रमन चिल्लाया, “और क्या-क्या ले गया है इस घर से? बड़ा आया दद्दा वाला।” उसने फिर खींचना चाहा, पर वासु की हिंसक नजरें देख थम गया-“अच्छा तो फिर निकाल इसके पैसे, मुफ्त में बहुत लूटा है मेरे दद्दा को”- वासु ने अपने थैले में से एक फटा हुआ बटुआ निकाला। उसमें कुछ मुचे-तुचे नोट निकाले कुछ सिक्के थे, जो शास्त्री जी उसे खाने के लिए देते थे। सब इकट्ठाकर जमीन पर रख दिये और साइकिल पकड़ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।

सम्पर्कः जयपुर, मो. नं. 9414916598