- आशा पाराशरमास्टर दीनानाथ शास्त्री दबे कद मों पास आकर खड़े हो गये, अंदर की तरफ सरक आये पर्दे की फाँक से वे वासु को देख सकते थे। वासु ने शास्त्री जी का कुर्ता पायजामा अलमारी में रख दरवाजा बंद कर दिया और बाहर आ गया। यह पहला अवसर नहीं था, जब उन्होंने वासु की परीक्षा न ली हो। अलमारी खोलते ही सामने रखे रुपये किसी को भी आसानी से दिखाई पड़ जाते, कपड़े धोने को देते तो उसकी जेब में अँगूठी छोड़ देते। उन्हें प्रसन्नता थी कि हर बार वासु खरा उतरता था। उन्हें रमन की बात याद आ जाती, ‘दद्दा, आप सठिया गए हैं, क्या जरूरत है अब इस उम्र में एक छोटे बच्चे की जिम्मेदारी उठाने की ? मुझे पाल-पोसकर मन नहीं भरा क्या ? किसी दिन तुम्हें नुकसान पहुँचाकर सब कुछ लेकर रफूचक्कर हो जाएगा’ मन करता कि जवाब दें, ‘जरूरत तो इस उम्र में मुझे तुम्हारी थी बेटा, पर जब तुम्हें इतने वर्षों में मेरी चिन्ता नहीं हुई, तो अब भी निश्चित रहो।’ रमन नहीं जानता था कि वासु ने मास्टर दीनानाथ शास्त्री के निपट एकाकी जीवन का शून्य भर दिया है। उस नन्हे बालक ने उनमें फिर से जीवन का संचार कर दिया है।
वासु का मास्टर दीनानाथ ये कोई सम्बन्ध नहीं था, वह तो एक दिन घर के बाहर नीम के पेड़ तले बैठा, रोता हुआ मिल गया था। मास्टर जी अपनी साइकिल पेड़ के नीचे रख देते थे। उस दिन जब वे पोस्ट आफिस जाने के लिये साइकिल उठाने गये तो देखा एक छः सात साल का बच्चा जमीन पर बैठा सुबक रहा है। जल्दी में थे सो चले गये। परन्तु जब घन्टे भर बाद लौटने पर भी उसे वहीं रोता हुआ पाया तो वे उसके पास गये और पूछा- ‘क्या बात है बेटे, रो क्यों रहे हो? कहाँ रहते हो?’ वह बच्चा बिना कोई जवाब दिये रोता रहा। उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा तो वह हिचकियाँ लेकर रोने लगा। उस पर दया आ गई, उसे उठा कर अन्दर लाये, पानी पिलाया, उसने बताया कि उसके चाचा गाँव से उसे यहाँ साइकिल दिलाने लाये थे, यहाँ बिठा गये, पर अभी तक नहीं आये। मास्टर जी ने उसे समझाया कि हो सकता है, किसी काम में देर हो गई हो, और उसका मुँह धुलवा कर बिस्कुट खाने को दिये। दोपहर से रात हो गई, वह वहीं जमीन पर लुढ़क कर सो गया। अगला दिन, फिर उससे अगला दिन और दिन पर दिन बीत गये उसे लेने कोई नहीं आया उसने अपना नाम वासु बताया, और यह कि वह चाचा के घर रहता था, माँ-बाप के बारे में कुछ पता नहीं था। चाची बहुत मारती थी, खाने को कुछ नहीं देती थी। शास्त्री जी की अनुभवी बुद्धि में यह समझ आ गया कि चाचा अपने अनचाहे बोझ को साइकिल का प्रलोभन दे, पेड़ के नीचे उतार गया है। एक दो बार सोचा कि आस-पास के गांवों से उसके चाचा का पता करें, पर सोचा कि अगर मिल भी गया तो क्या भरोसा वह फिर उसे किसी और पेड़ के नीचे नहीं छोड़ेगा। फिर शास्त्री जी कई वर्षों से पत्नी के निधन के बाद इकलौते पुत्र के भी दूसरे शहर में बसने से जो एकाकी-नीरस जीवन जी रहे थे, उसमें उठी हलचल से प्रसन्न थे।
दस-ग्यारह वर्ष का था उनका इकलौता पुत्र रमन, जब उनकी पत्नी सावित्री का निधन हुआ था। एक माँ अपने बच्चे को कितने कष्ट सह कर पालती है, यह उन्हें अब पता चला था। रमन माँ को बहुत याद करता था। सवेरे उसे उठाने में बहुत परेशानी होती थी, दो तीन बार उसे प्यार से उठाते लेकिन फिर उनका धैर्य जवाब दे देता वह उसे बेदर्दी से खींच कर खड़ा कर देते। उसका रूदन स्कूल जाने तक बिना रूके जारी रहता।
‘माँ तो कभी गुस्सा नहीं करती थी, माँ तो ऐसे करती थी’ सुनकर कभी बहुत गुस्सा आता और कभी अपनी लाचारी पर खुद भी रो पड़ते। उनके इस व्यवहार से वह उनसे दूर होता चला गया। धीरे-धीरे वह अपने काम स्वयं करने लगा, और उसका दोस्तों का दायरा बढ़ता गया। घर उसके लिये केवल सोने का स्थान था। उसे अब पिता की आवश्यकता नहीं रही। कॉलेज शिक्षा पूरी कर उसने अपनी नौकरी का स्वयं प्रबन्ध कर लिया था। बस पिता को सूचनामात्र दे एक दिन उन्हें प्रणाम कर कलकत्ता जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। महीने-दो महीने में उसका संक्षिप्त सा पत्र मिल जाता था। उन्होंने अपना पितृधर्म निभाते हुए पुत्र के लिये समाज की कन्याओं की कुण्डलियाँ मंगा ली थी। वे अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहते थे। इससे पहले कि वे गुलाबी साफा पहन समधियों से गले मिलते, रमन के एक पत्र ने उनके-सपनों पर पानी फेर दिया- ‘दद्दा, आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं अपने बॉस की पुत्री से विवाह कर एक साथ तीन प्रमोशन पा गया हूँ। समय मिलने पर आपकी बहू को घर लाऊँगा।’ शास्त्री जी को समझ न आया कि किस बात पर प्रसन्न हों इकलौते पुत्र के विवाह की सूचना पर या उसके तीन प्रमोशन पाने पर! फिर एक लम्बी खामोशी छा गई। मास्टर जी के रिटायरमेंट पर सपत्नी पहुँचा। बिना आस्तीन का ब्लाउज, नायलॉन की नाभिदर्शना साड़ी पहने, कंधों तक केशगुच्छ झुलाती, सांवली, बंगाली पुत्रवधू ने बिना किसी आडम्बर के स्वयं ही गृहप्रवेश कर लिया। अगले दिन मँहगी कलाई घड़ी, रक्तचाप नापने की मशीन और मिट्टी के सकोरे में रसगुल्ले-संदेश पिता को दे कर मीठे स्वर में इसरार करने लगा- ‘दद्दा, आप अब यहाँ अकेले नहीं रहेंगे, मैं और सुगन्धा आप को लेने आये है।’ सुनकर मास्टर जी गद्गद हो गये। स्कूल के मित्र दिवाकर शर्मा को अपनी खुशी छुपाते हुए खबर दी। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, केवल होठों पर रहस्यमयी मुस्कान बिखेर दी, ऐसा लगा कि वह कुछ कठोर शब्द कह कर उनकी खुशी पर तुषारापात नहीं करना चाहते थे। दो दिन बाद पुत्र और पुत्रवधु के साथ कलकत्ता चले गये। पुत्र घरजमाई बन गया है, यह उसके श्वसुर की आलीशान अट्टालिका में उसे अपमानित होते देख समझ गये थे। कहावत सुनी थी कि घर जवाई तो द्वार पर बंधे कुत्ते समान होता है, दूसरों की नजर में प्रभावशाली लेकिन घर में मालिक के आदेशों की पालना करना। अगले दिन सुबह घुंघरूओं की आवाज से नींद खुली। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनकी पुत्रवधु सुगन्धा नृत्य सीखती है। जिस घर में भोर की पहली किरण रामायण की चौपाईयों के साथ प्रवेश करती थी और घर की औरतों को विवाह-शादी में भी नाचने गाने की अनुमति न थी, उस घर में सुगन्धा कैसे रहती, अच्छा हुआ पुत्र स्वयं यहाँ बस गया था। दोपहर के खाने में जहाजाकार संगमरमरी मेज पर रमन के श्वसुर बिनोय मुखर्जी से मुलाकात हुई। उस मेद बहुल, शख्सियत में कुछ पतला था तो वह उसकी तीखी नाक थी, जो दोनों ओर फूले हुए गालों को एक संकीर्ण रेखा से विभक्त कर रही थी। उन्होंने शास्त्री जी के सिर के बालों के बीच की चुटिया और माथे पर चंदन के त्रिपुण्ड को नजर अंदाज कर उनके सामने ही गोश्त की हड्डियाँ चंचोड़नी शुरू कर दीं तो वे बिना खाये “शिव शिव” का जाप करते उठ गये। वे अपने घर जाने को तड़पने लगे, जिस विशाल अट्टालिका में उनका पुत्र अपने धर्म आचरण का त्याग कर खुश था वहीं शास्त्री जी को अपने घर का-धुला, धूप अगरबत्ती से महकता आँगन प्रिय था। लेकिन रमन ने उन्हें जब बताया कि वह मकान बेचने के लिये एक दो एजेन्ट से बात कर आया है तो उनके पावों तले जमीन खिसक गई। अगली सुबह शास्त्री जी अपने झोले सहित ‘मुखर्जी विला’ में नहीं थे। घर पहुँचते ही उन्होंने घर के बाहर टंगी ‘घर बिकाऊ है’ की तख्ती उतार कर टुकड़े-टुकड़े कर डाली। उस दिन के बाद पिता-पुत्र के बीच एक खामोशी छा गई।
वासु के आने के बाद उनकी नीरस जिन्दगी में फिर से मधुरता, कोमलता आ गई थी। वर्षों बाद उनकी रसोई से सूजी के हलवे की खुशबू महकने लगी थी। हलवा शुरू से उनकी कमजोरी रहा है, पर अपने लिये वे कुछ भी नहीं करते थे। आँगन में छोटे-छोटे जूते चप्पल नजर आने लगे और पिछवाड़े कपड़े सुखाने की तार पर नन्ही कमीजें सूखने लगी थी। सारा दिन घर से ‘वास-वासु’ और ‘दद्दा’ की आवाजें सुनाई देती थीं, मानो वर्षों से सोया हुआ घर उठ गया है। शास्त्री जी ने उसे दद्दा कहना सिखाया था, इस सम्बोधन से वे रमन को महसूस करते थे। मास्टर जी ने उसे स्कूल में भर्ती करवा दिया, सवेरे उसे साइकिल पर बैठा, स्कूल छोड़ आते, दोपहर में फिर लेने जाते। अब सब्जी-फल लेने भी मण्डी जाना पड़ता था। वासु चाची की मार दुत्कार से मुक्ति और पिता सा लाड़-दुलार पा उसका कुम्हलाया चेहरा भर गया था। कुछ ही वर्षों में वासु ने घर का काम सीख लिया, अब वह सवेरे सबसे पहले उनकी साइकिल साफ करता, उठने से पहले पानी और अखबार उनके पास रखे मेज पर रख देता। फिर पूरे घर को बुहार कर मंदिर में पूजा की सामग्री सजा देता। साइकिल से उसे एक अजीब सा मोह था, शायद उसकी इसी कमजोरी को मोहरा बना चाचा-चाची ने उसे शहर जाने के लिये तैयार किया होगा, सबसे ज्यादा समय वह उसे साफ करने में लगाता था। शास्त्री जी ने उसे साइकिल सिखा दी, जिस दिन उसने उन्हें पीछे बिठाया, वे अभिभूत हो गये। अब कहीं जाना होता, पेंशन कार्यालय, पोस्ट आफिस, बिजली-पानी के दफ्तर सब जगह वासु साइकिल पर पीछे मास्टर दीनानाथ शास्त्री को बिठा ले जाता। एक दिन सड़क के उस पार से पुराने साथी दिवाकर शर्मा ने आवाज लगाई, शास्त्री जी ने देखकर वासु को रोकने के लिये कहा, उसे वहीं खड़ा कर स्वयं सड़क पार कर उस ओर जाने लगे, तभी सामने से तेज गति से एक मोटर साइकिल उनसे टकरा गई और वे सड़क पर चारों खाने चित्त गिर पड़े। हवा की तेजी से वासु उनके पास पहुँच गया। तब तक वे थोड़ा संभल गये, उन्हें छोड़ मोटरसाइकिल सवार, जो उससे डीलडौल मे सवाया था को कमीज के कौलर से पकड़ कर एक मुक्का रसीह कर दिया, ‘क्यों, दिन में भी दिखाई नहीं देता अन्धे हो क्या ?’ उसने दूसरा हाथ हवा में लहराया ही था कि उसने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘साले, बुढ्ढे को नजर नहीं आ रहा था कि मैं आ रहा हूँ, और तेरा यह क्या लगता है ?’ फिर तो “किसे बुढ्ढ़ा कहा ? किसे कहा ? हाँ दद्दा है वो मेरे, “फिर तो वह शास्त्री जी और दिवाकर जी के बस में बड़ी मुश्किल से आया। संध्या को दोनों एक दूसरे की चोट पर हल्दी-तेल लगा रहे थे। शास्त्री जी उसे कुछ रूपये-पैसे देते तो वह मना कर देता “सब कुछ तो तुम देते हो दद्दा” लाड़ से उनके कन्धे पर सर रख देता, पर फिर भी वे जबरदस्ती उसकी जेब में ठूँस देते, “अपने मन का कुछ खा लेना।” कभी मजाक में उसे पूछते, “क्यों वासु, चले तेरे चाचा को ढूँढने?”
“मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा”- उसकी आँखों में उदासी छा जाती।
एक दिन उन्होंने अपने मित्र दुर्गादत्त, जो कचहरी में वकालत कर रहे थे, से बात की, “यार दुर्गा, रमन की ओर से तो मैं निश्चित हूँ, घर जवाई बनने का इनाम उसे मिल गया, ‘मुखर्जी विला’ उसे मिल गया है। उसकी इस जर्जर मकान में कोई दिलचस्पी नहीं होगी, अगर मुझे कुछ हो गया, तो यह अभागा फिर से लावारिस हो जाएगा। ईश्वर ने इसे उस समय मेरे पास भेजा, जब मुझे सहारे की आवश्यकता थी, अतः यह मकान इसके नाम करना चाहता हूँ।’ वकील दुर्गादत्त ने थोड़ी ऊँच-नीच समझाई, फिर तीन दिन बाद का समय वसीयत करने के लिए नियत किया गया।
“क्या हो दद्दा, आज दोपहर तक सोते रहोगे?” सवेरे वासु पानी, और अखबार ले सिरहाने खड़ा था। उसने कोई हरकत न देख जल्दी से चीजें मेज पर रख उन्हें हिलाया, पर उन्होंने आँखें न खोलीं। घबरा गया पास वाले घर से हरि चाचा को बुला लाया। उन्होंने नब्ज टटोली, पलकें उलटकर देखीं, फिर सीने पर कान रखा, दो मिनट बाद सिर हिलाकर वासु की ओर देख कहा, “दद्दा चले गए रे तेरे, भगवान जी के पास”- वासु बिलख उठा। मुहल्ला इकट्ठा हो गया। रमन को इत्तला करी, पर कलकत्ते से आने में समय लगता इसलिए तय हुआ कि मुखाग्नि वासु देगा। वासु ने गम्भीरता ओढ़ सारे कर्मकाण्ड, जैसा वकील दुर्गादत्त और मास्टर दिवाकर शर्मा ने बताए कर दिए। तीसरे दिन गले में नया मंगलसूत्र झुलाती, विदेशी इत्र की खुश्बू उड़ाती पत्नी के साथ रमन आ गया। आते ही उसने सबसे पहले वासु को ढूँढा, जो घुटनों में मुँह छुपाए कोने में बैठा था। फिर सारे कमरों में घूम-घूमकर वासु का सामान एक झोले में भरा और उसका हाथ पकड़ घर के बाहर उसी पेड़ के नीचे छोड़ आया, जहाँ आठ वर्ष पहले उसका चाचा उसे छोड़ गया था।
“दद्दा”, मास्टर जी की साइकिल पकड़ बिलख उठा वासु।
“बहुत तमाशा मत कर यहाँ”- रमन ने पड़ोसियों की नजरों में उसके प्रति सहानुभूति देख कहा, जो घरों के दरवाजों को थोड़ा-थोड़ा खोलकर देख रहे थे। “दफा हो, यहाँ तेरा कोई नहीं है।” पर वह वहीं बैठा रहा।
जिस पुत्र ने पिता के दग्ध हृदय की शांति का कभी प्रयास नहीं किया, आज वही पुत्र उनकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ करवा रहा था। दर्जनों पंडित मेवा पूड़ी, खीर-पूरी का भोग लगा रहे थे, पर बाहर पेड़ के नीचे बैठे शास्त्री जी के उस सखा, सेवक और पुत्र को पूरी का टुकड़ा भी नसीब नहीं हुआ। अगले दिन घर का सब असबाब, जिसमें शास्त्री जी की प्रिय मेज कुर्सी, बर्तन, किताबें यहाँ तक कि मंदिर की पीतल की घंटी, जिसे वासु बजाता और वह आरती कर वातावरण पवित्र कर देते, उसे रमन हाथ में उठा उसके वजन का अनुमान लगा रहा था, कबाड़ी को देने के लिए आँगन में ढेर लगाया गया। कबाड़ी ने औने-पौने में सब सामान, जिसमें मास्टर दीनानाथ शास्त्री की छड़ी, छाता और पानी पीने का ताँबे का जग था, बड़ी निर्दयता से बोरी में भर लिया। इस उपक्रम में एक बार भी रमन को भावुक होते नहीं देखा, उसकी नजर में जो पिता की धरोहर होनी चाहिए, कबाड़ था। अब बारी थी शास्त्री जी की, साइकिल की रमन कबाड़ी के साथ पेड़ के नीचे आया।
“नहीं दूँगा यह, मेरे दद्दा की है” वासु ने साइकिल कसकर पकड़ ली।
‘ऐ लड़के’ रमन चिल्लाया, “और क्या-क्या ले गया है इस घर से? बड़ा आया दद्दा वाला।” उसने फिर खींचना चाहा, पर वासु की हिंसक नजरें देख थम गया-“अच्छा तो फिर निकाल इसके पैसे, मुफ्त में बहुत लूटा है मेरे दद्दा को”- वासु ने अपने थैले में से एक फटा हुआ बटुआ निकाला। उसमें कुछ मुचे-तुचे नोट निकाले कुछ सिक्के थे, जो शास्त्री जी उसे खाने के लिए देते थे। सब इकट्ठाकर जमीन पर रख दिये और साइकिल पकड़ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।
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