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Feb 1, 2022

तीन लघुकथाएँ

 - हरभगवान चावला

1. पहाड़
      मैं पहाड़ से लौटने लगा तो पहाड़ ने मेरे साथ चलने की ज़िद पकड़ ली। मैंने लाख कहा मैदान में कुछ भी नहीं पहाड़ जैसा, तुम वहाँ रह कैसे पाओगे? उसने कहा- तुम हो न, रह लूँगा। घर आने के बाद कुछ दिन वो घर से बाहर नहीं निकला। एक दिन गया तो घंटे भर में लौट आया। बोला- कैसे लोग हैं तुम्हारे शहर में, पूरे शहर में एक भी दरख़्त नहीं और लोग हैं कि मज़े में हैं। कोई किसी से बात भी नहीं करता।
       मैंने ग़ौर किया कि उसकी साँवली हो गई देह पसीने  में नहा गई थी। मैंने कहा- तुमसे पहले कहा था कि मैदान में कुछ भी पहाड़ जैसा नहीं है, अब तुमने देख लिया न! लौट जाओ अपने घर।
      - तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊँगा।
वह मेरी किताबों के पास बैठा रहता एकदम चुपचाप। मैं उसकी कैफ़ियत पूछता तो वह मुस्कुरा देता, पर मैं महसूस कर रहा था कि उसके भीतर का जल सूख रहा है और पथरीलापन उसके चेहरे पर झलकने लगा है। किसी दिन यह निर्जीव पत्थर हो कर रह जायेगा। मैंने फ़ैसला किया कि इसे इसके घर छोड़ कर आऊँगा। एक दिन मैंने उससे कहा- चलो आज हम तुम्हारे घर चलेंगे।
    - तुम चल रहे हो न?
    - हाँ।
   - रास्ते में छोड़कर चले तो नहीं जाओगे?
    - नहीं।
        उसने लपककर मेरी उँगली पकड़ ली। हम दोनों चले जा रहे थे। बहुत गर्मी थी, पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद कोई झरना पैरों को भिगो जाता या फुहार तन को शीतल कर जाती। जब भी ऐसा होता, पहाड़ मेरे मुख की तरफ़ देखता और मेरी उँगली पर उसकी पकड़ और मज़बूत हो जाती।


2. हरसिंगार

   वे दोनों बहुत लम्बे अरसे के बाद मिल रहे थे। सुबह का वक्त था। दोनों हरसिंगार के फूलों का झड़ना देख रहे थे। लड़की ने अपनी हथेलियाँ फैला दीं और बर्फ़ के फाहों जैसे फूलों को हथेलियों पर गिरने दिया। फिर उसने अपना सिर ऊपर उठा दिया। फूल उसके चेहरे पर गिरते रहे- चमकती धूप में फुहारों की तरह। वह बहुत ख़ुश थी, क्योंकि भयावह लम्बी लड़ाई के बाद लड़का सही सलामत लौट आया
 था। लड़की ने कहा, "मैं हमेशा तुम्हें लेकर डरती रही और हमेशा तुम्हारी सलामती की दुआ करती रही। कितने ख़त लिखे मैंने तुम्हें।"
    "मैंने तुम्हारे हर ख़त का जवाब देने की कोशिश की, पर कभी-कभी ऐसा नहीं भी हो पाया। हर समय तुम मुझे याद आती रहीं।"
    "जानती हूँ। तुम्हें पता है, तुम्हारा हर ख़त मुझे ज़ुबानी याद है।"
     "और मुझे तुम्हारा।"
  "मैं तुमसे सपने में मिलती थी। आज भी लग रहा है कि सपना देख रही हूँ। मैं कभी इस सपने को टूटते नहीं देखना चाहती थी। मैं आज भी जागने से डरती हूँ।"
   "और मैं सोने से डरता हूँ। युद्ध में जो कुछ हुआ, मुझे डरावने सपने जैसा लगता है। बम फट रहे हैं, गोलियाँ चल रही हैं, मैं भाग रहा हूँ लाशों से टकराता। पेड़ों के पत्तों पर ख़ून जमा है। चीख़ें हैं, लोग मर रहे हैं बेगानी जगह लावारिस मौत। ओफ़्फ़, यह सब नहीं होना चाहिए। आदमी युद्ध के लिए पैदा नहीं हुआ। वह पैदा हुआ है शांति के साथ मेहनत करने के लिए, प्रेम के साथ जीने के लिए। जो कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा, अब अक्सर सपने में देखता हूँ। इसलिए डरते-डरते सोता हूँ कि कहीं ..."
      लड़की ने अपना हाथ लड़के के मुँह पर रख दिया। लड़के ने उस हाथ को कसकर पकड़ लिया। दोनों कुछ देर यूँ ही बैठे रहे- ख़ामोश और संजीदा। अचानक लड़का अपनी हथेलियों से हरसिंगार के फूलों को लड़की के पैरों के पास सरकाने लगा। लड़की के दोनों पाँव फूलों से ढक गये। मंत्रमुग्ध सी लड़की देखती रही, देखती रही और फिर उन फूलों को अंजुरी में भरकर लड़के के चेहरे पर उछाल दिया। आधे फूल लड़के की झोली में आ गिरे और आधे लड़की की झोली में।

3. मगरमच्छ 

पोता जब पढ़ने के लिए बाहर चला गया तो सतवंती के लिए घर का माहौल असह्य हो गया। अब तक वह पोते के मोह में सब सहती आई थी। उसने तय किया कि बस अब और नहीं। ज़मीन बेटे के नाम करवा उसने ख़ुद वृद्धाश्रम जाने की इच्छा जताई। उसे लगता था, यह बात सुनकर बेटा नाराज़ होगा और उसे वृद्धाश्रम जाने से रोकेगा, पर बेटे ने सिर्फ़ इतना कहा, "अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ठीक है।"
 सतवंती वृद्धाश्रम में थी। बेटा महीने, दो महीने में वहाँ जाकर माँ का हालचाल पूछ आता, लेकिन यह सिलसिला साल भर भी नहीं चला। अब तो बेटे को माँ को देखे सात साल होने को आए थे। कभी-कभी आश्रम से फ़ोन आता और थोड़ी देर बाद एक आदमी आकर कुछ रुपये उससे ले जाता। उस दिन भी आश्रम से फ़ोन था। प्रबंधक ने बताया, "आपकी माँ की मौत हो गई है सर! क्या आप उनके अन्तिम संस्कार के लिए उनकी पार्थिव देह लेने आ रहे हैं?"
  "ओह, इस समय मैं देश से बाहर हूँ। क्या आप अपने स्तर पर अन्तिम संस्कार की व्यवस्था कर सकते हैं?" उसने बहाना बनाते हुए एक पल भी नहीं लगाया।
 "अगर किसी वृद्ध के परिजन उपलब्ध नहीं हों तो हम अपने स्तर पर अन्तिम संस्कार करते ही हैं।" "बहुत-बहुत धन्यवाद आपका। आप अन्तिम संस्कार करवा दीजिए और अन्तिम संस्कार का वीडियो मुझे भिजवा दीजिए।"
  "जी ठीक है।"
  अब यह उच्च अधिकारी अपने पुराने शहर से दूर एक और शहर में पदस्थ है। वह अक्सर अपने अधीनस्थ अलग-अलग अधिकारियों के सामने अपने मोबाइल में माँ के अन्तिम संस्कार का वीडियो चलाता है और कहता है, "आज मैं जो भी हूँ, अपनी माँ की वजह से हूँ, पर कितना बदनसीब हूँ मैं कि विदेश में होने के चलते माँ को मुखाग्नि भी नहीं दे पाया।" यह कहते ही उसकी आँखों से आँसू निकल आते हैं। जब भी ऐसा होता है, वह किसी विशाल मगरमच्छ को अपने भीतर रेंगते हुए महसूस करता है।

लेखक के बारे में - जन्मतिथि: 20 नवम्बर, 1958, जन्मस्थान: गाँव बिज्जुवाली, जिला सिरसा (हरियाणा), शिक्षा: एम.ए. (हिंदी), एम.फिल.। सम्प्रति: राजकीय महिला महाविद्यालय, रतिया से बतौर प्राचार्य सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन।
लेखन: पाँच कविता संग्रह ‘कोई अच्छी खबर लिखना’, ‘कुंभ में छूटी औरतें’, ‘इसी आकाश में’, ‘जहाँ कोई सरहद न हो’, ‘इन्तज़ार की उम्र’, कहानी संग्रह ‘हमकूं मिल्या जियावनहारा’ व लघुकथा संग्रह ‘बीसवाँ कोड़ा’। इसके अलावा सारिका, हंस, कथादेश, जनसत्ता, वागर्थ, रेतपथ, अक्सर, जतन, कथासमय, दैनिक भास्कर, दैनिक ट्रिब्यून, हरिगंधा आदि में रचनाएँ प्रकाशित। कुछ साझा संकलनों में रचनाएँ छपी हैं। पुरस्कार/ सम्मान:  कहानी तथा लघुकथा के लिए कथादेश द्वारा पुरस्कृत, कविता संग्रह ‘कुंभ में छूटी औरतें’ को वर्ष 2011-12 के लिए तथा कविता संग्रह ‘इसी आकाश में’ को वर्ष 2016-17 के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। सम्पर्क- 406, सेक्टर-20, सिरसा-125055 ( हरियाणा)

1 comment:

Anima Das said...

तीनों कहानी अति सुंदर भावपूर्ण संदेश देती हुई... बहुत बधाई 🌹🙏🌹🌹