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Feb 1, 2022

संस्मरण - परछाइयाँ यादों की


- सुदर्शन रत्नाकर

 जब से आई हूँ चौथी मंज़िल से नीचे उतरी ही नहीं  । यह आज के जीवन की व्यस्तता ही तो है । महानगरों में तीस-चालीस मंज़िलों तक रहते रहते चौथी मंज़िल मुझे बौनी सी लगती है । थोड़े दिन की तो बात है, मुझे कौन सा यहाँ सदैव के लिए रहना है । इस जगह से मेरा लगाव बस इतना भर है कि यह मेरे माता-पिता की कर्मभूमि रही है और मेरा बचपन यहाँ बीता था, जिसे मैं भुला चुकी थी पर आज जैसे मैं फिर से पीछे लौट गई हूँ । चालीस वर्ष पीछे । हुआ ऐसे कि मुझे चौथी मंज़िल से नीचे उतरना पड़ा । कुछ देर रुकी तो मेरी दृष्टि ऊपर गई । देखा, पानी की टंकी की दीवार में पीपल का एक पेड़ उगा हुआ था, जो टंकी से ऊपर सिर उठा कर खड़ा था । शायद इससे पहले किसी ने देखा नहीं होगा, नहीं तो उखाड़ दिया जाता क्योंकि इसकी जड़ें दीवार के नीचे आकर इमारत में दरारें डाल देंगी और फिर एक दिन इसे खोखला कर देंगी । 

  कहते हैं पीपल का पेड़ घर में नहीं लगाना चाहिए । लगाना भी हो तो पीपल के साथ बरगद और तुलसी का पौधा भी साथ लगाना चाहिए । तीनों गुणकारी हैं और तीनों का अपना अपना महत्त्व है । पीपल ही ऐसा पेड़ है जो रात्रि के समय भी ऑक्सीजन छोड़ता है। तुलसी का पौधा औषधि का काम करता है और कई बीमारियों को दूर करता है । बरगद का विशालकाय पेड़ जिसकी जड़ें धरती से ऊपर पेड़ पर लटकती हैं जो उसके विशाल तने और शाखाओं को मज़बूती प्रदान करती हैं मानो एक बड़े परिवार को परम्पराओं और संस्कारों की सीख देता हो, कैसे हमने अपनी संस्कृति, परम्पराओं को जीवित रखना है ताकि हमारा अस्तित्व बना रहे । बचपन में इन तीनों पौधों को घर में फलते- फूलते देखा था । पीपल और बरगद का वह वट वृक्ष घर के पिछवाड़े में था जिसकी घनी, गहरी छाया में तपी दोपहरी में सारी महिलाएँ और बच्चे बैठते थे । कुछ महिलाएँ बतियातीं कुछ ऊँघती और कुछ हाथ का काम करतीं । बच्चे ऊधम मचाते खेलते रहते । 

    घर के आँगन में तुलसी चौरा था । पहले दादी भोर में उठ कर चौरा लीपतीं  । धूप-दीप चला कर पूजा करतीं थीं। दादी का उठना-बैठना मुश्किल हो गया तो यह काम माँ करने लगी । साथ में हम बच्चों को इनके गुणों के बारे में बताती रहती थीं । इन पेड़ -पौधों के अतिरिक्त पौधे भी थे । कुछ फलों के, कुछ फूलों के । पर इन पौधों से मन नहीं भरता था । वह तो अटका रहता था, घर से थोड़ी ही दूरी पर बहती पश्चिमी यमुना नहर के किनारे- किनारे बागों पर जिनमें तरह -तरह के फलों से लदे पेड़ थे । ऊँचे-ऊँचे पाम, बॉटल ग्रीन, हरसिंगार, मोर पंखी और भी न जाने कितनी तरह के पेड़ और फूलों के पौधे थे । उस बाग यानि लतीफ़ गार्डन में एक रेस्ट हाऊस भी था । किसी अंग्रेज ने अपने लिए यह बाग बनवाया था । जब वह आता था तो इसी बाग में रुकता था । इसलिए माली और केयर टेकर के अतिरिक्त किसी और को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी । देश स्वतंत्र हुआ तो यह बाग किसी ज़मींदार ने ठेके पर ले लिया । लेकिन उसने नियम वहीं अंग्रेजों वाले लगा रखे थे । उसके अंदर जाना वर्जित था । बाग के चारों ओर दीवार थी और उस पर कँटीली तारें लगाई हुई थीं लेकिन मन था कि उन पौधों को छूने के लिए, अपने हाथों से फल तोड़ कर खाने के लिए ललचाता रहता था । 

      लतीफ़ गार्डन के सामने एक और बाग भी था जिसमें बेर, आम, आडू के पेड़ थे जिसमें हम बेरोक टोक चले जाते थे क्योंकि वह  हमारे चाचा जी का बाग था । ख़ूब ऊधम मचाते और फल तोड़ कर खाते थे । माली भी मना नहीं करता था अपितु कभी कभी स्वयं फल तोड़ कर देता था । एक बाग तो हमारे घर के बिल्कुल पास था, सड़क पार करते ही । रेलवे फाटक के पास का बाग तो एकदम विचित्र था ।  इतने घने पेड़ों को बाहर से देख कर ही डर लगता था । अंदर जाने की तो सोच भी नहीं सकते थे । थोड़ा बड़े हुए तो स्कूल आते-जाते बाग के गेट पर बैठे विष्णु चाचा से माल्टा और चकोतरा ज़रूर ख़रीदते थे ।  चकोतरा आकार में  बड़ा, खट्टा-मीठा गुलाबी रंग का, खाने में बहुत स्वादिष्ट होता था । बचपन में ही वह फल खाया था । उसके बाद न वह बाग रहा और न ही वह फल फिर से दिखा । 

    जब तक प्रकृति आस-पास थी, लोगों का सम्पर्क उसके साथ था वह अपनी संस्कृति, परम्पराओं को निभाता था, जिसका सम्बंध उसकी सभ्यता , भौगोलिक परिस्थितियों के साथ था । माँ, दादी और पिताजी उन रीति-रिवाजों, परम्पराओं को जीवित रखे हुए थे जो उन्हें अपने पूर्वजों से मिली थीं । वे प्रकृति के विभिन्न उपादानों को देवी-देवताओं के रूप में पूजते थे । धरती, सूरज,चन्द्रमाँ, वर्षा, हवा, पेड़-पौधे, नदियाँ, पहाड़ । सभी तो पूजनीय हैं। 

     बचपन की बहुत सारी स्मृतियाँ उभर कर आ गयीं । उनमें से रामलीला एक थी । शहर में बड़े जोर- शोर से रामलीला हुआ करती थी । गली मोहल्ला के बच्चे इकट्ठा होकर बड़े बुजुर्गों के साथ रामलीला देखने जाते थे, न कोई भेदभाव था न कोई डर । रामलीला रात भर चलती थी और प्रभात बेला में जब लौट कर आते थे तो आँखों में नींद नहीं बहुत सारे सपने, रामायण की शिक्षाएँ लेकर आते थे । दशहरा -दीवाली के मेले की प्रतीक्षा तो कई दिन पहले ही शुरु हो जाती थी दशहरा शहर में एक ही जगह मनाया जाता था और वह भी हमारी कॉलोनी के पास बहुत बड़े मैदान में । पिताजी हम बहन भाई की उँगली पकड़ते और छोटे भाई को कंधे पर बैठा लेते । बड़े भैया साथ -साथ चलते । रावण के पुतले के एकदम पास खड़े होकर जलते देख कर उस समय बहुत आनन्द आता था । दीवाली बीत जाने के बाद भी कई दिन तक माहौल ख़ुशगवार रहता था । गुरुपर्व, लोहड़ी, वसंतोत्सव, संवत्सर, बैसाखी मेला जिन की स्मृतियाँ मानस पटल पर सदा के लिए अंकित हैं । 

   संवत्सर और बैसाखी के दिन पश्चिमी यमुना पर मेला लगता था । भोर में ही पिताजी के साथ मेले में जाते थे । नदी के ठंडे जल में स्नान करने के बाद नए कपड़े पहनने को मिलते थे फिर माँ द्वारा बनाया गया सूखे मेवों का हार पहनाया जाता था जिसमें पैसे भी पिरोये होते थे । जिसे पहने पहने हम मेवा खाते रहते थे ।  नये कपड़े और मेवों का हार केवल छोटे बच्चों को ही मिलता था, बड़ों के नहीं। हम बहुत खुश होते थे । वास्तव में वे कितने आनन्दमय दिन थे और कितना भोला बचपन था । 

       एक बार नहाते हुए मेरा हाथ छूट गया और मैं पानी की तेज़ धारा में बहने लगी । लगा, बस जीवन समाप्त । पर नहीं,मुझे तो जीना था भविष्य में बहुत कुछ देखने के लिए,समझने के लिए सो मुझे बचा लिया गया । बस उस दिन सोच लिया कि तैरना सीखूँगी। कोई स्वीमिंग पूल तो था नहीं जहाँ तैरना सीखा जा सकता था । सीधा नहर में सीखना आसान नहीं था । खेतों में सिंचाई के लिए एक नाला निकाला गया था या फिर तालाब जहाँ भैसें नहाती और पानी पीती थीं । वहाँ भी तैरना सीखना सम्भव नहीं था जबकि लड़के वहीं भैंस की पूँछ पकड़कर तैरना सीख लेते थे । शेष बची ट्यूबवेल की हौदी या फिर नाला । वहाँ भी अकेली तो जा नहीं सकती थी इसलिेए हर शरारत के साँझीदार अपने भाई को अपना गाइड बनाया जिसने स्वयं थोड़े दिन तालाब और फिर सीधे नहर में छलाँग लगा कर तैरना सीखा था । पुल के ऊपर से छलांग लगाकर वह पानी के नीचे दूर तक चला जाता और देखने वाले की साँस वहीं अटकी रहती । मैं तो डर के मारे चीखने ही लग जाती थी । वैसे बता दूँ मैंने गिल्ली -डंडा, कँचे और पतंग उड़ाना भी उसी से सीखा था यानि वह भाई कम, मित्र और इंस्टरक्टर अधिक था । 

      उन्हीं दिनों जब मैं तैरना सीख गई थी  हम दोनों के मन में एक योजना कौंध गई और फिर हम दोनों ने उसे क्रियान्वित भी किया । हुआ यूँ कि लतीफ़ गार्डन के भीतर जाकर देखने की इच्छा कम नहीं हुई थी अपितु और बढ़ गई थी । जैसे जैसे सुनते कि गार्डन में फलों और फूलों के नये पौधे लगाये गये हैं हमारी जिज्ञासा और भी तीव्र हो उठी । हमने भीतर जाने का समय दोपहर का चुना क्योंकि उस  समय ज्येष्ठ मास की गर्मी में माली अवश्य सो रहा होगा और हम बेरोकटोक घूम सकेंगे । 

    नहर से जो नाला निकाला गया था वह कुछ दूर तक तो नहर के साथ साथ चलता था और आगे जाकर पुल आ जाने के कारण उसकी दिशा बदल दी गई थी जो खेत और गार्डन के बीच में से होकर आता था । लेकिन रास्ते में सड़क आ जाने के कारण उस पर पुल बनाया गया था जो सड़क और गार्डन तक था आगे उस गार्डन में बहता हुआ दूसरी ओर निकल जाता था । हमने अंदर जाने के लिए पुल को माध्यम बनाया । बहाव की दिशा में होने के कारण हम आसानी से उसके नीचे से निकल जाएँगे  । पुल पानी से काफ़ी ऊँचा था लेकिन बीस फुट के उस रास्ते में गहरा अंधेरा था । मुझे डर लग रहा था लेकिन भाई के साहस दिखाने पर मुझमें भी साहस आ गया । हमने चारों ओर नज़र घुमायी कि कोई हमें देख तो नहीं रहा । रास्ता साफ देख कर हम पानी में उतर गए । आगे भाई तैर रहा था और पीछे मैं और फिर कुछ ही पलों में हम अपने सपनों के गार्डन में खड़े थे । हमारी आशा के अनुरूप माली आम के पेड़ की छाया में गहरी नींद में सो रहा था । उस समय पूरे बाग के हम मालिक थे । बस हमें देखना यह था कि शोर न हो ताकि माली जाग न जाये । 

      जितना हमने सोचा था, गार्डन उससे भी कीं अधिक सुंदर था। रेस्टहाऊस की सीढ़ियों से लेकर बरामदे तक क़रीने से पाम और मोरपंखी के छोटे-बड़े गमले रखे थे । गर्मी के मौसम में भी कई तरह के फूल साफ-सुथरी क्यारियों में लगे थे । अलग -अलग तरह के फलों के पेड़ तो थे ही अंगूर की बेलों पर लटके अँगूरों के गुच्छे लटके हुए थे । पपीता और केले के पौधे भी फलों से लदे पड़े थे । सेब, खुमानी, आलूबुखारा ये मैदानी भागों के फल नहीं पर यहाँ पेड़ों पर ये सब फल भी थे । चाहे थोड़े ही थे । पर हमारा मन तो कलमी आमों को देख कर ललचा रहा था जिन के नीचे माली सो रहा था । यह बचपन ही तो था जो तपी दोपहरी में घर से निकल कर छुपते-छुपाते हम गार्डन में घूम रहे थे । कभी हरी घास पर लोटते तो कभी किसी पेड़ पर चढ़ते । लेकिन यहाँ आकर कोई फल नहीं खाया और वह भी आम तो हमारा आना बेकार हो जाता । भाई आगे और मैं पीछे । दोनों पहुँच गये आम के पेड़ों के पास ।  नीचे तो कोई आम गिरा हुआ नहीं था इसलिए ऊपर चढ़कर तोड़ना तो ज़रूरी था । मैं नीचे खड़ी हुई ताकि भाई जो आम फेंके मैं उठा लूँ । अभी तीन ही आम नीचे आए थे और जब चौथा फेंका तो पता नहीं कैसे दूसरे पेड़ के नीचे सोए माली को जा लगा । वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ । उसे जगा देख मेरे पसीने छूटने लगे। मैं भाग खड़ी हुई । भाई कुछ समझा नहीं पर मुझे भागता  देख वह भी जल्दी से पेड़ से उतर कर भागने लगा । उधर माली जब तक स्थिति को समझता हम पौधों के झुरमुट में उसकी आँखों से ओझल हो गए पर बाहर जाना अभी शेष था । हम पुल के पास थे । पानी के बहाव के साथ जाते तो माली हमें अवश्य देख लेता इसलिए पुल के नीचे से विपरीत दिशा में यानि जिधर से आए थे उधर से जाना ही उचित लगा । बालमन था, गहरी सोच तो थी नहीं । हाथ में तीन आम लिए कूद गयी । अब भला हाथ चले तो कैसे चले । नया नया तैरना सीखा था । दो कदम आगे चलती तो चार कदम पीछे चली जाती । भाई आगे निकल गया और मैं पीछे रह गयी पर मैंने अपने हाथ से आम नहीं छोड़े । यह आज भी याद है, यह भी याद है कि उन तीन आमों के बँटवारे में हम दोनों में झगड़ा भी हो गया था। हम एक एक आम लेकर तीसरे आम को आधा- आधा लेने के लिए राज़ी हो गए थे। लेकिन भाई ने थोड़ा- थोड़ा चूसते हुए सारा आम खा लिया था । घर में आमों की कमी नहीं थी फिर भी मैं उस आम के लिए भाई से नाराज़ हो गई थी । 

     लेकिन वह तो ज़िंदगी से ही नाराज़ हो गया । बचपन के सुहाने दिन क्या बीते हमारी राहें ही अलग-अलग हो गईं  । बहन -भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए । एक साथ मिलना छुट्टियों में ही हो पाता था । विवाह के बाद तो देश ही छूट गया और उसके साथ ही बचपन की बातें, यादें खेल -तमाशे, परम्पराएँ सभी कुछ यहीं रह गया । भौतिक सुखों की लालसा के चक्रव्यूह में यौवनावस्था कब बीत गई, पता ही नहीं चला  इसी चक्कर में रिश्ते-नाते, सब अपने दूर होते गए और दूरियाँ ऐसी बढ़ी कि भावनाएँ ही मर गईं । -न प्रकृति से लगाव रहा न अपनों से । हमने जो बोया था, उसको ही तो काटना था । पैसों के  ढ़ेर पर खुशियों की बेलें नहीं उगाई जा सकतीं । चाँदी की चमक आँखों को चौंधिया सकती है, सपने दिखा सकती है, क्षितिज को छूने का अहसास दिला सकती है पर यह मृगतृष्णा सी ऐसी प्यास है कि बुझती ही नहीं । 

        जिन पेड़ों, बागों के दीवाने थे, वे सब तो अब कहीं भी नहीं हैं । जिस नहर के किनारे हर सुबह चार-पाँच बजे मोहल्ले के बच्चे मिल कर सैर करने के लिये जाते थे, उसकी दिशा बदल गई है । घर से बहुत दूर पक्की नहर बन गई है । बागों की जगह कॉलोनियाँ बन गई हैं । पेड़ों के स्थान पर कंकरीट  के जंगल उग आए हैं। न अब पीपल है न बरगद । आँगन ही नहीं तो तुलसी चौरा कहाँ से होगा । बालकनी के एक कोने में छोटे से गमले में लगा तुलसी का पौधा ज़रूर दिखाई दे जाता है। वह भी श्रद्धा के लिए नहीं, ज़रूरत के लिए । जगह ही नहीं तो पौधे उगेंगे कहाँ से । पर जिन पौधों को उगना होता है उनका बीज पक्षियों अथवा हवा द्वारा छत तक पहुँच ही जाता है । धूल मिट्टी पानी पाकर चौथी क्या चालीसवीं मंज़िल पर भी जीवन पा लेते हैं । उन्हें पनपने के लिये बहाना चाहिए । मनुष्य ही स्वार्थी हो गया है । प्यार, स्नेह, अपनत्व सब कुछ छोड़कर बंजर भूमि पर बीज उगाने में प्रयत्नरत है जो कभी भी अंकुरित नहीं  होंगे । इससे पहले कि बीज ही निष्क्रिय हो जाएँ, उगाने के लिए हमें पीछे तो लौटना होगा । 

सम्पर्कः ई-29,नेहरू ग्राँऊड , फ़रीदाबाद 121001, मो॰ 9811251135

3 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

स्मृतियों को सहेजे,प्रेरक ललित निबंध।सुदर्शन रत्नाकर जी को बधाई।

सहज साहित्य said...

यादों की गहन नदी में डुबकी लगाने का माधुर्य मन को आह्लादित करता है।

Krishna said...

सुखद स्मृतियों को समेटे हुए बहुत सुंदर संस्मरण...हार्दिक बधाई।