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Jan 31, 2012

उदंती.com-जनवरी 2012


मासिक पत्रिका वर्ष2, अंक 5, जनवरी 2012निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।
इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है।
- सुभाष चंद्र बोस

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अनकही: हताशा की काली छाया तले - डॉ. रत्ना वर्मा
नया साल: अभी भी देर नहीं हुई है
खुश रहें और आशावादी बने: सुभाष चंद्र बोस
साहित्य: मैं तुलसीदास की रामायण माँगता हूं - यशवंत कोठारी
सहकारिता: जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक के सौ साल
पर्यावरण: विलासिता की राह छोडऩी होगी
सिनेमा: पार्श्वगायन के जन्मदाता पुतुल दा - पंकज मल्लिक
लोक- संगीत: आदिम लोक जीवन की अनुगूंज - संजीव तिवारी
अनूप रंजन: सांस्कृतिक परंपरा को समर्पित...
सेहत: लोग पत्थर मिट्टी क्यों खाते हैं?- डॉ. एस. जोशी
मुद्दा: ध्वस्त न्याय प्रणाली - राम अवतार सचान
मिसाल: 94 की उम्र में भी फुल टाइम जॉब
जयंती: अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को... - प्रो. अश्विनी केशरवानी
हाइकु: बर्फीला मौसम - डॉ. सुधा गुप्ता
कविता: पल दर पल - अशोक सिंघई
हर सवाल में - डॉ. अजय पाठक

व्यंग्य: अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी! - प्रेम जनमेजय
लघुकथाएं: 1.कमीज 2. अपने अपने सन्दर्भ - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
पहल: सूरज प्रकाश ने अपना खजाना ऐसे बांटा...
पिछले दिनों
वाह भई वाह

रंग बिरंगी दुनिया
शोध: जूते कितने फायदेमंद
ग़ज़ल: बांसुरी की तान, लम्बी कतार - चांद शेरी
बूंद- बूंद से बना समंदर

बर्फीला मौसम

- डॉ. सुधा गुप्ता
1
दिन चढ़ा है
शीत -डरा सूरज
सोया पड़ा है
2
झाँका सूरज
दुबक रज़ाई में
फिर सो गया
3
हरे थे खेत
पोशाक बदल के
हो गए श्वेत
4
ब$र्फीली भोर
पाले ने नहलाया
पेड़ काँपते
5
दानी सूरज
सुबह से बाँटता
शॉल- दोशाले
6
पौष की भोर
कोहरा थानेदार
सूर्य $फरार
7
राजा तुषार
उजाड़े घर-बार
पेड़-पौधों के
8
ब$र्फ का ताज
पहने, निंदियारी
वनस्पतियाँ
9
बर्फ -तकिया
कोहरे की चादर
सोई है घाटी
10
'सोती सुन्दरी'
हिम-चादर ताने
अलकनन्दा
11
श्वेत कफन
ओढ़ाके धरती को
हँसे हेमन्त
12
धुँआ छोड़ता
सुरमई सूट धारे
हेमन्त आया
13
बड़े शैतान
हेमन्त के दो बच्चे -
कोहरा, धुंध
14
खूब सताता
धरती को तुषार
खुद भी रोता
15
माघ बेचारा
कोहरे की गठरी
उठाए फिरे
16
गठरी फटी
बिखरे हैं बताशे
आसमान से
संपर्क: 120-B / 2 साकेत मेरठ-250003
फोन- 0121-2654749

हताशा की काली छाया तले

आने वाले कल का स्वागत हम कुछ सपने देखते हुए करते हैं कि वह आज से बेहतर होगा। लेकिन देश समाज और समूचे जगत के हालात को देखते हुए यदि भविष्य की कल्पना करें तो आसार कुछ अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। वर्तमान परिदृश्य जब अंधकारमय दिखाई दे तो आगत में भी रोशनी की किरण धुंधली ही नजर आती है। सबसे बड़े लोकतंत्र के इस देश में न शासन से न तंत्र से यह उम्मीद जगती नजर आ रही है कि वह हमारे लिए कुछ बेहतर करेगा या कर सकता है।
पिछले पूरे एक साल पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा के तले पिसते हमारे देश की झोली में सिर्फ निराशा और हताशा की काली छाया ही नजर आती है। ऐसे में भला किस मुंह से कहें कि आइए नए साल का स्वागत मुस्कुरा कर करें।
इन निरूत्साहित कर देने वाले परिदृश्यों के बावजूद भारत माता के प्रति अटूट श्रद्धा और सम्मान के कारण हमारा मन बार- बार यह कहता है कि 2012 के इस वर्ष में भारतीय मनीषा कुछ ऐसा कर दिखाएगी जिससे आने वाला समय सुखदायी और मंगलमय होगा और यह तभी संभव होगा जब देश का हर एक व्यक्ति अपने मन में दृढ़ निश्चय करके चलेगा कि वह स्वयं के साथ और अपने देश के साथ ईमानदारी के साथ व्यवहार करेगा। ऐसा वही मनुष्य कर सकता है जिन्हें अपनी धरती माता से प्यार है।
अब इस प्यार को व्यक्त करने का समय आ गया है क्योंकि वर्तमान परिदृश्य बद- से- बदतर होती जा रही है। इससे बुरा और भी कुछ हो सकता है अब यह कल्पना से परे है। तो आइए हम सब मिलकर कुछ ऐसा कर जाएं ताकि आने वाली पीढ़ी हमें गर्व से याद कर सके।
भ्रष्टाचार और घोटालों के प्रदूषण से घिरे इस देश में उम्मीद की किरण तभी नजर आएगी जब प्राथमिकता के आधार पर हम सबके लिए शिक्षा के समुचित साधन उपलब्ध करा पाएंगे। किसी भी देश व समाज की सुख, समृद्धि और सफलता बेहतर शिक्षा से ही लाई जा सकती है। भारत में शिक्षा के गिरते स्तर के गवाह हैं हमारे वे अध्ययन जो समय- समय पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा किए जाते हैं।
सफलता और विकास के लिए दूसरी जरूरी बात लोगों का बेहतर स्वास्थ्य है और यह बगैर स्वच्छ पर्यावरण के संभव नहीं है। पिछले कुछ दशकों से मानव ने अपनी धरती माता का जिस बेदर्दी से दोहन किया है उसके दुष्परिणाम दुनिया भर में नजर आ रहे हैं। प्रकृति अपने साथ लगातार किए जा रहे बलात्कार का बदला कहीं सूनामी, कहीं भूंकप कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा और अब भारत सहित एशिया में पड़ रही भयानक ठंड के रूप में साल दर साल लेती चली आ रही है। यदि धरती के प्रति अपने मानव जीवन के होने का कर्ज उतारना है तो प्रत्येक मानव को प्रकृति के प्रति वफादारी निभाना होगा इसके लिए क्यों न देश के हर बच्चे के नाम आज से ही एक- एक वृक्ष लगाते चलें जाएं।
कहा जा रहा है कि आने वाली सदी में न तेल न पेट्रोल बल्कि पानी के लिए लड़ाईयां लड़ीं जाएंगी। जब मालूम है तो क्यों न अभी से पानी बचाने की दिशा में वर्षा जल के साथ नदी, तालाब और पोखरों की स्वच्छता का काम शुरू कर दें। जीवनदायी नदी गंगा मैया आखिर कब तक अपने बच्चों की प्यास बुझा पायेगी जबकि हम लगातार उसकी कल- कल बहती जल धारा में रूकावट तो डाल ही रहे हैं साथ ही त्वरित फायदे के लिए प्रदूषण रूपी विष से उसकी पवित्रता को नष्ट करते चले जा रहे हैं।
इन सबके साथ उम्मीद की एक सुनहरी किरण के रूप में हमें अन्ना हजारे जरूर नजर आते हैं। उनके कारण 2011 के साल को जन- अंदोलन वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। अन्ना हजारे ने देश की बदहाली से हताश जनता के दिलों को जयप्रकाश नारायण के बाद आंदोलित और उद्वेलित किया है। उन्होंने जन लोकपाल बिल पास करवाने के लिए पूरे देश को झंझकोर दिया है, लेकिन राजनीतिक उठापटक के चलते जनता की आवाज बने अन्ना की जीत अभी कोसो दूर ही नजर आ रही है। आज देश में जो कुछ हो रहा हैं वहां उनकी यह कोशिश उम्मीद की एक किरण मात्र है, इससे एकदम से जादू की तरह किसी क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। अत: जरूरी है कि सबके दिलों में जलती अन्ना की इस जागरूकता ज्योति को निरंतर जला कर रखा जाए।
सभी सुधी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएँ।
-डॉ. रत्ना वर्मा

प्रेरक

अभी भी देर नहीं हुई है

नया साल लोगों में एक अजीब सी उर्जा भर देता है। बहुत कुछ अच्छा करने की चाह में जिस बात की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता वह यह है कि अपनी जिंदगी में कुछ नया जोडऩे या शामिल करने के लिए हम कुछ जगह बनाने की बजाय उसे नयी चीजों से लाद देते हैं।
नए साल की शुरुआत अपनी ऊर्जा का नवीनीकरण करने और कुछ पुरानी ख्वाहिशों और संकल्पों को पूरा करने का बढिय़ा मौका है । नया साल जिंदगी को बुहारने- चमकाने का बेहतरीन बहाना है। यह जिंदगी की किताब का कोरा साफ पन्ना या चैप्टर है जिस पर अगले 12 महीने, या 52 सप्ताह, या 365 दिनों में बहुत कुछ लिखा जाना है। ऐसे में, जबकि हर शख्स ने अपने लिए कम या ज्यादा कुछ सोचा हो, या न भी सोचा हो, मैं यह बताने जा रहा हूँ कि मैंने अपने लिए क्या सोचा है-
* मैं अपने पिछले साल का आकलन करूंगा। मैंने कहाँ- कहाँ गलतियाँ की और उनसे मैंने कुछ सीखा भी या नहीं। मैंने क्या खोया, क्या पाया।
* अपने शेड्यूल को मैं यथासंभव सहज बनाऊंगा। इसके लिए मुझे दूसरों को 'ना' कहना सीखना ही पड़ेगा।
* पुरानी और आधी- अधूरी योजनाओं को समेट लूँगा और लोगों से अनिच्छुक होते हुए भी वादे नहीं करूंगा। इस तरह मेरे कामकाज का माहौल कुछ सिलसिलेवार और सहज हो जाएगा।
* अपने स्वास्थ्य और खानपान में बदलाव लाने के लिए नियत किये गए पुरानी योजनाओं का पुनरावलोकन करूंगा ताकि मुझे कुछ नयी चीजें आजमाने का मौका मिले।
* अपने इनबॉक्स को खंगालूँगा। यदि मैंने किसी ईमेल का जवाब हाल में नहीं दिया है तो शायद जवाब देना गैरजरूरी होगा। इस मेल को आर्काइव करके दूसरी मेल्स पर तवज्जोह दूंगा ताकि इनबॉक्स कुछ व्यवस्थित हो जाए। ऐसा ही कुछ सोशल नेट्वर्किंग के साथ करना भी ठीक रहेगा। दस जगह अपनी मौजूदगी बनाए रखने की बजाय एक- दो जगह नियमित रहना ही सही रहेगा।
* कम्प्यूटर की फाइलें भी व्यवस्थित करूंगा। जिन फाइलों को मैंने बहुत लंबे अरसे से नहीं छुआ है उन्हें डिलीट करने के बारे में सोचूंगा। यदि डिलीट करना सही न हो तो उन्हें किसी पोर्टेबल हार्ड ड्राइव या क्लाउड में सहेज दूंगा।
* कागज के उपयोग में कटौती करूंगा। धीरे- धीरे सब कुछ डिजिटल होता जा रहा है। डाक- सामग्री को प्राप्ति के समय ही सहेजने या ठिकाने लगाने के बारे में तय कर लूँगा अन्यथा वह टेबल पर कई दिनों तक धूल खाती रहेंगी।
* अनावश्यक चीजों से छुटकारा पाऊंगा। कमरे के जो कोने अस्त- व्यस्त लगेंगे उन्हें देर किये बिना जमा दूंगा। जिन चीजों की मुझे जरुरत नहीं है उन्हें किसी को दे दूंगा।
* अपनी आलमारी, दराजें, और फ्रिज को बेकार की चीजें से नहीं भरूँगा। पुराने कपड़े, कबाड़, और जंक फूड (यदि हो तो) ...सब निकाल बाहर करूंगा।
* रोजमर्रा के काम नियत समय पर ही निबटा दूंगा। बिलों को अंतिम तिथि से पहले ही चुका दूंगा। जिन कामों को लंबे समय से टालता आ रहा हूँ उन्हें वरीयता के अनुसार पूरा कर दूंगा।
* अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाऊंगा। अपनी आय और बचत पर नजर बनाए रखूंगा। क्रेडिट/ डेबिट कार्ड का उपयोग कम से कम करूंगा।
* उन छोटी- छोटी बातों का हमेशा ध्यान रखूंगा जिन्हें नजरांदाज करने पर बाद में बड़ी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं।
इन सबको करने और साधने में बड़ी मेहनत और दृढ़- संकल्प लगेगा। कुछ चीजें बारंबार करने पर भी ध्यान से उतर जाएंगीं। अंतत: यदि मैं इनमें से आधी बातें भी अमल में ला सका तो यह साल मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा और मैं अधिकाधिक सक्रिय और रचनात्मक बनूँगा।
ईमानदारी से कहूं तो मैं यह सभी चीजें साल भर करता ही रहता हूँ, लेकिन नए साल की शुरुआत के साथ इन्हें दोहराने के कई फायदे हैं। सफा- कोरा स्लेट की तरह लगभग पूरा साल आने वाली घटनाओं का रास्ता जोह रहा है। ऐसे में खुद से किये कुछ वादे- इरादे ताजिंदगी काम आयेंगे।
लियो बबौटा की यह पोस्ट साल की शुरुआत में ही आ जानी चाहिए थी लेकिन अभी कौन सी देर हो गयी है!
(www.hindizen.com से )

17 अगस्त 1945:


नेताजी सुभाष चंद बोस  का वह ऐतिहासिक भाषण
खुश रहें और आशावादी बने
भाइयों और बहनों। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महान अध्याय अब काफी निकट है। पूर्वी एशिया में रह रहे भारत की संतानों को इस अध्याय में एक स्थायी जगह मिलने वाली है।
देश की आजादी के लिए आपने तन- मन- धन से जो योगदान दिया है, वह देशभक्ति और भाईचारे का एक बेमिसाल उदाहरण है। मेरे संगठन के आह्वान पर आपने जो उदारता और उत्साह दिखाया है उसे मैं कभी नहीं भुला सकता। बारहों महीने वसंत की भाँति अपने लाडलों को 'आजाद हिन्द फौज' और 'झाँसी रानी रेजीमेंट' में शामिल होने के लिए भेजा। आपने 'आजाद हिंद फौज' की तत्कालीन सरकार को युद्ध के लिए उदारतापूर्वक धन और जन दान दिए। संक्षेप में कहा जाए तो आपने एक सच्ची संतान की तरह भारत माँ के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन किया है। आपके योगदान और बलिदानों का तत्काल कोई परिणाम न मिलने के कारण मैं आपसे कहीं ज्यादा क्षुब्ध हूँ।
ये सारी चीजें कभी भी बेकार नहीं जाएँगी, क्योंकि इसने भारत माता की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है, जो विश्व के कोने- कोने में रह रहे भारतीयों के लिए एक प्रेरणा स्रोत होगा। आने वाली पीढिय़ाँ आपको दुआएँ देंगी और भारत की आजादी के लिए आपके बलिदानों की गाथा गर्व के साथ सुनाई जाएंगी और यही आपकी सबसे बड़ी सफलता होगी। इस ऐतिहासिक अवसर पर मैं आप लोगों से कुछ कहना चाहता हूँ- 'अपनी तत्कालीन हार पर निराश न हों। खुश रहें और आशावादी बने। साथ ही कभी भी भारत से अपना विश्वास मत खोना। धरती पर ऐसी कोई ताकत नहीं, जो भारत को बाँध सके। भारत आजाद होगा, जल्द ही होगा।'
जय हिन्द!

महात्मा गाँधी का भाषण


मैं तुलसीदास की रामायण माँगता हूँ
हमारा साहित्य इस समय ऐसा है कि उसमें से जनता एकाध वस्तु भी ग्रहण नहीं कर सकती। उसमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिससे वह एक युग, एक वर्ष अथवा एक सप्ताह तक भी टिक सके।
आइए, अब हम इस विषय पर विचार करें कि जन- समाज को शिक्षित करने के लिए कैसा साहित्य लिखा जाना चाहिए। कवि श्री ने आज हमारे सम्मुख इस विषय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने कलकत्ते का उदाहरण देकर चतुराई से काम लिया। उन्होंने देखा कि जैसा कलकत्ता है, अहमदाबाद भी वैसा ही है। उन्होंने यदि शब्द प्रहार किया है, तो वह हमारे हित में ही है। एडनी स्मिथ व्यंग्योक्ति की कला में बहुत निपुण था। वह हमारे शब्द का प्रयोग करके प्रहार की तीव्रता को कम कर देता था। कवि श्री ने 'हम' शब्द का प्रयोग अपने नगर के लोगों के लिए किया है, फिर भी हमें तो यही समझना चाहिए कि वह हमारे लिए किया गया है। कलकत्ते का चित्रण करते हुए कवि श्री कहते है कि गंगा तट के किनारे- किनारे बड़ी- बड़ी इमारतें बना दी गई हैं और इससे आंखों को अच्छा लग सकने वाला प्राकृतिक दृश्य आंखों को खटकने वाली चीज बन गई है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे स्थान पर हमारा मन प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत हो जाए, किंतु होता यह है कि जब वह कलकत्ते का विचार करते हैं, तो उनकी आंखों से आँसू बहने लगते हैं। मेरे जैसे मजदूर के विचार में तो हमारा काम प्रभु को पहचानना है। प्रभु की अवज्ञा करके हम धन की पूजा करने लगे हैं, स्वार्थ साधन में निरत हो गए हैं। मैं साहित्य रसिकों से पूछता हूँ कि आपकी कृति के सहारे मैं शीघ्र ही प्रभु के पास पहुंच सकता हूँ या नहीं ? यदि वे मुझे इसका उत्तर हां में दें, तो मैं उनकी कृति से बंध जाऊंगा। यदि मैं किसी साहित्यकार की रचना से उकता जाता हूँ, तो इसमें मेरी बुद्धि का दोष नहीं है, दोष उसकी कला का है। शक्तिवान साहित्यकार को अपनी कला को कम- से- कम इतना विकसित तो करना ही चाहिए कि पाठक उसे पढऩे में लीन हो जाए।
मुझे खेद है कि हमारे साहित्य में यह बात बहुत कम दिखाई देती है। हमारा साहित्य इस समय ऐसा है कि उसमें से जनता एकाध वस्तु भी ग्रहण नहीं कर सकती। उसमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिससे वह एक युग, एक वर्ष अथवा एक सप्ताह तक भी टिक सके।
अब हम यह देखें कि अनादिकाल से हमारे पास जो गं्रथ चले आ रहे है, उनमें कितना साहित्य है ? हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों से हमें जितना संतोष मिलता है, आधुनिक साहित्य से उतना नहीं मिलता। इस साहित्य के मामूली- से- अनुवाद में भी जो रस आ सकता है, वह आज के साहित्य में नहीं आ पाता। यदि कोई कहे कि आधुनिक साहित्य में बहुत कुछ है, तो हम इसे स्वीकार कर सकते हैं, किंतु इस बहुत कुछ को खोज निकालने में मनुष्य थक जाता है। तुलसीदास और कबीर जैसा साहित्य हमें किसने दिया है ?
जा विधि भावे ता विधि रहिए।
जैसे तैसे हरि को लहिए।।
ऐसी बात तो आजकल हमें दिखाई ही नहीं देती। आज के युग में हमें जो कुछ प्राप्त हुआ, वह अब कहाँ हो सकता है? बीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद मैं भारत आया और मैंने देखा कि हम डरे- डरे जीवन बिता रहे हैं। भयभीत होकर जीने वाला अपने भावों को निर्भयता से प्रकट ही नहीं कर सकता। यदि किसी दबाव में पड़कर हम लिखते है, तो उसमें से कवित्य की धारा नहीं फूटती और उसकी लहरों पर सत्य तिरता हुआ नहीं आ पाता। समाचार पत्रों के संबंध में भी यह बात लागू होती है। जहाँ सिर पर प्रेस अधिनियम झूल रहा हो, वहाँ संपादक बिना पशोपेश के नहीं लिख सकता। साहित्य रसिकों के सिर पर भी प्रेस अधिनियम झूल रहा है और इसलिए एक पंक्ति भी मुक्त भाव से नहीं लिखी जाती और इसी कारण सत्य को जिस तरह से प्रस्तुत करना चाहिए, वह उस तरह नहीं किया जाता।
हिन्दुस्तान में इस समय संक्रातिकाल है। करोड़ों व्यक्तियों को अनुभूति हो रही है कि हमारे यहां बड़े- बड़े परिवर्तन होने वाले हैं। हमारी दरिद्रावस्था मिट जाएगी और समृद्धि तथा वैभव का युग आएगा। हमें अब सत्ययुग की झांकी मिलेगी। मैं स्थान- स्थान पर ऐसे उद्गार सुनता हूं। कितने ही लोग यह समझ रहे है कि अब हिन्दुस्तान के इतिहास का एक नवीन पृष्ठ खुलने जा रहा है। यदि हिन्दुस्तान के इतिहास का नवीन पृष्ठ खुलने वाला है, तो हमें उस पर क्या लिखा हुआ मिलेगा? यदि हमें सुधार लिखे मिले, तब तो यह गले में पट्टा डालने के समान होगा और जैसे हम आज बैल को हांक जाते हैं, वैसे ही हांके जाएँगे। इसी तरह साहित्य की सेवा करने वालों से मैं तो यही मागूँगा कि वे हमें ईश्वर से मिलाएँ, सत्य के दर्शन कराएँ। हमारे साहित्य सेवकों को यह बात सिद्ध कर देनी चाहिए कि हिन्दुस्तानी पापी नहीं है, वह धोखाधड़ी करने वाला देश नहीं है।
पोप- 'इलियड' के रचियता- ने दक्षिण प्रांत की जो सेवा की है, वैसी सेवा किसी मद्रासी ने भी की है। मैं तो प्रेम रंग में डूबा हुआ हँू और प्रत्येक मनुष्य का हृदय चुरा लेना चाहता हूँ दक्षिण प्रांत के भाइयों का हृदय चुराने के लिए मुझे उनकी भाषा सीखनी पड़ी। रेबरेंड पोप ने जो रचनाएँ दी हैं, उनमें से इस समय तो मैं कुछ उद्घृत नहीं कर सकता, लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि तमिल में लिख गई वे रचनाएँ, जिन्हें खेत में पानी देता हुआ किसान भी दुहरा सकता है, अलौकिक है। सूर्योदय के पहले ही खेत में पानी देना प्रारंभ कर दिया जाता है। बाजरा, गेहँू, आदि सब पर ओस के मोती बिखरे हुए होते है। पेड़ों के पत्तों पर से झरता हुआ पानी मोती के समान लगता है। ये व्यक्ति, खेत में पानी देने वाले ये किसान, उस समय कुछ ऐसा ही गाते हैं। मैं जब कोचरब में रहता था, तब खेत में पानी देने वाले किसानों को देखता और उनकी बातें सुनता, लेकिन उनके मुँह से तो अश्लील शब्द ही निकलते थे। इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर मैं यहीं बैठे हुए श्री नरसिंहराव तथा अध्यक्ष महोदय से पाना चाहता हूँ। साहित्य परिषद से मैं कहूँगा कि खेतों में पानी देने वाले इन किसानों के मुँह से अपशब्दों का निकलना हटाएँ, नहीं तो हमारी अवनति की जिम्मेदारी साहित्य परिषद के सिर पर होगी। साहित्य के सेवकों से मैं पूछना चाहँूगा कि जनता का अधिकांश भाग कैसा है और आप उसके लिए क्या लिखेंगे?
साहित्य परिषद से भी यही कहूँगा कि परिषद में जो कमियां है उन्हें वह हटाएं। लुई के मन में पुस्तक लिखने का विचार आया तो उसने अपने बच्चों के लिए पुस्तकें लिखीं। उसके बच्चों ने तो उनका लाभ उठाया ही, आज के हमारे स्त्री- पुरुष तथा बालक भी उनसे लाभ उठा रहे हैं। मैं अपने साहित्य लेखकों से ऐसा ही साहित्य चाहता हूँ। मैं उनसे बाण भट्ट की 'कादम्बरी' नहीं, 'तुलसीदास की रामायण' माँगता हूँ। 'कादम्बरी' हमेशा रहेगी अथवा नहीं, इसके विषय में मुझे शंका है, लेकिन तुलसीदास का दिया हुआ साहित्य तो स्थायी है। फिलहाल साहित्य हमें रोटी, घी और दूध ही दे, बाद में हम उसमें बादाम, पिस्ते मिलाकर 'कादम्बरी' जैसा कुछ लिखेंगे।
गुजरात की निरीह जनता, माधुर्य से ओतप्रोत जनता, जिसकी सज्जनता का पार नहीं है, जो अत्यधिक भोली है और जिसे ईश्वर में अखंड विश्वास है, उस जनता की उन्नति तभी होगी, जब साहित्य सेवक किसानों, मजदूरों तथा ऐसे ही अन्य लोगों के लिए काव्य रचना करेंगे, उनके लिए लिखेंगे।
(गुजरात साहित्य परिषद में गांधी जी द्वारा दिया गया भाषण जो हरिजन के 4.4.1920 के अंक में प्रकाशित हुआ)
प्रस्तुति : यशवंत कोठारी
संपर्क- 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी, बाहर, जयपुर- 302002,
फोन- 0141-2670596, Email: ykkothari3@gmail.com

किसानों के हितैशी जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक के सौ साल


1904 के पहले देश के किसानों को साहूकारों तथा जमींदारों पर ऋणों के लिए निर्भर रहना पड़ता था क्योंकि लगातार दुर्भीक्ष के कारण ऋण लेना उनकी मजबूरी थी। छत्तीसगढ़ के किसानों की स्थिति इससे अलग नहीं थी इसी बीच पुराने रायपुर जिले के स्व. वामन बलीराम लाखे किसानों के हमदर्द के रूप में आए, वे किसानों के दुखदर्द के समझते थे, वे स्वयं पलारी जनपद के अंतर्गत कोसमंदी ग्राम के किसान थे उनके द्वारा स्थापित जिला सहकारी बैंक 2 जनवरी 2012 अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
विश्व में सहकारिता आंदोलन का इतिहास देखें तो पता चलता है कि सहकारिता आंदोलन का पर्दापण अलग- अलग देशों में अलग- अलग कारणों से हुआ है जैसे यूरोप के देशों में उपभोक्ता व्यवसाय के कारण स्वीडन, नार्वे और डेनमार्क डेयरी डेवलपमेंट के नाम से तो कुछ एशियाई देशों में सहकारी खेती के नाम पर सहकारिता आंदोलन का प्रार्दुभाव हुआ। ठीक इसी प्रकार भारत में यह आंदोलन साख के नाम पर आया। 1904 के पहले देश के किसानों को साहूकारों तथा जमींदारों पर ऋणों के लिए निर्भर रहना पड़ता था क्योंकि लगातार दुर्भीक्ष के कारण ऋण लेना उनकी मजबूरी थी। छत्तीसगढ़ के किसानों की स्थिति इससे अलग नहीं थी इसी बीच पुराने रायपुर जिले के स्व. वामन बलीराम लाखे किसानों के हमदर्द के रूप में आए, वे किसानों के दुखदर्द को समझते थे, वे स्वयं पलारी जनपद के अंतर्गत कोसमंदी ग्राम के किसान थे उनके द्वारा स्थापित जिला सहकारी बैंक 2 जनवरी 2012 अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यह मध्यप्रदेश के जमाने से लेकर नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य में सबसे बड़ा सहकारी बैंक यहां तक कि छत्तीसगढ़ राज्य सहकारी बैंक से भी बड़े बैंक के रूप में उभरा है। आज इस बैंक की गणना देश के गिने- चुने जिला सहकारी बैंकों में हो रही है।
अतीत के झरोखों से
रायपुर जिला जो आज पांच जिलों (रायपुर, धमतरी, महासमुंद, बलौदाबाजार और गरियाबंद) में विभक्त है, का सहकारी आंदोलन, सहकारिता के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखता हैं। इसके भू- भाग में पहले सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं थे। एक मात्र माड़मसिल्ली बांध से सिंचाई होती थी। इसी प्रकार रुद्री से भी कुछ स्थानों में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो पाता था। जिले के बहुत बड़े भू- भाग की फसल, पानी से वंचित रह जाती थी, परिणामस्वरूप पानी के अभाव तथा मानसून की अनिश्चितता के कारण यहां प्रत्येक वर्ष अकाल की स्थिति बनी रहती थी जिसके चलते किसानों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। साहूकार बहुत ही ऊंची दर पर उन्हें साख उपलब्ध कराते थे इस कारण कई बार किसानों को अपनी जमीन से हाथ भी धोना पड़ता था।
सन् 1912 के अक्टूबर माह की एक शाम राय बहादुर बंशीलाल अबीरचंद की सदर बाजार रायपुर स्थित दुकान में रोज की तरह राय साहब जे एन सरकार, राय साहब नथमल, वामन बलीराम लाखे, रतनचंद बागड़ी तथा बाबूराम दानी बैठे थे। श्री लाखे उसी दिन अपने गांव कोसमंदी से लौटे थे। उपस्थित लोगों ने श्री लाखे जी से खेती के संबंध में पूछा तो श्री लाखे जी ने कहा कि कृषकों की स्थिति ईश्वर ही सुधार सकता है। कृषकों का कोई संगठन नहीं है, उनकी आर्थिक क्षमता समाप्त हो चुकी है, ब्रिटिश शासन लूटखसोट में पूंजीपतियों और जमींदारों के साथ हैं और जनता मूकदर्शक बनी हुई है। बस बैठक का दौर कृषकों की समस्याओं की ओर मुड़ गया। श्री लाखे जी के इस कथन पर राय साहब जे एन सरकार ने कहा कि यदि यहां एक सहकारी बैंक की स्थापना हो जाए तो कृषकों को उचित ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जा सकता है। इस विषय को लेकर उनकी बैठकों में यह विषय केंद्र बिन्दु बन गया। इस तरह एक सहकारी बैंक की स्थापना के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी मिलकर धन संग्रह पर विचार करने लगे। अंत में यही निर्णय लिया गया कि पहले एक सहकारी बैंक का पंजीयन कराया जाए।
बैंक पंजीयन की पहल
बैंक के इतिहास में 12 दिसंबर 1912 स्वर्णिम दिवस था जिस दिन रायपुर को-आपरेटिव सेंट्रल बैंक के नाम से पंजीयन के लिए पंजीयक सहकारी संस्थाएं सी.पी.एंड बरार को डिप्टी कमीशनर रायपुर के माध्यम से आवेदन पत्र जबलपुर प्रेषित किया गया जिसे स्वीकार करते हुए दिनांक 2 जनवरी 1913 को पंजीयक द्वारा पंजीयन क्रमांक 01 प्रदान किया गया।
पंजीयन में अगुवाई
जिनकी अगुवाई में पंजीयन की कार्यवाही हुई और जिन्होंने आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर किए वे इस प्रकार है राय साहब, जे एन सरकार, युसूफ खान, राय साहब सेठ नथमल, राय बहादुर बंशीलाल अबीरचंद, रतनचंद बागड़ी, फाम जी. डी. पोचा, रामदास दानी, सुंदर दास दम्मानी, आर बैरामजी, वामन बलीराम लाखे, रामगोपाल, राय साहब ठक्कर बार एट ला, गिरधारी लाल पुरोहित, बाबूराम दानी, रामरतन तिवारी और बद्रीप्रसाद।
विभूतियों का सानिध्य
उपरोक्त विभूतियों के अतिरिक्त जिन महानुभावों ने किसी न किसी रूप से चाहे अध्यक्ष अथवा उपाध्यक्ष की हैसियत से अथवा अवैतनिक सचिव या संचालक के रूप से बैंक के संचालन एवं विकास में सहयोग दिया है वे हैं पंडित रविशंकर शुक्ल, महंत लक्ष्मीनारायण दास, आर एन मोकासदार, कृष्णकुमार चौबे, पी.एम. देवस्थले, गोविन्दलाल गुप्ता, राजेन्द्र कुमार चौबे, मुन्नालाल शुक्ल, बृजलाल वर्मा, सुरेन्द्र दास, सोमप्रकाश गिरी, शिवाजी राव क्रिदत्त, बृजलाल शर्मा, राखी साहू, कवल सिंह, पुरुषोत्तम लाल कौशिक, रामलाल चंद्राकर, विशनलाल चंद्राकर, मोहनलाल चौधरी, महेन्द्र बहादुर सिंह, राधेश्याम शर्मा, सत्यनारायण शर्मा एवं मोहम्मद अकबर। वर्तमान में योगेश चंद्राकर एवं उनके संचालक मंडल के नेतृत्व में बैंक का संचालन हो रहा है।
कार्यशील पूंजी
बैंक के पंजीयन के पश्चात इसकी कार्यशील पूंजी में अभिवृद्धि की ओर ध्यान दिया जाने लगा। प्रारंभ में रुपए 43735 की कार्यशील पूंजी थी। शनै: शनै: उसमें वृद्धि होती गई। जनप्रतिनिधियों का समय- समय पर मार्गदर्शन और कर्मचारियों तथा अधिकारियों की कठोर मेहनत से स्व. लाखेजी का रोपा हुआ पौधा एक विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है, फलस्वरूप आज इसकी कार्यशील पूंजी लगभग 17 अरब के जादुई आंकड़ों को छूने लगी है।
सदस्यता एवं ऋण वितरण
बैंक के अंतर्गत जिन उद्देश्यों को लेकर सहकारिता आंदोलन का प्रार्दुभाव हुआ उसको ध्यान में रखकर गांव- गांव आंदोलन का विस्तार होने लगा। ग्राम स्तर पर सहकारी साख समितियां गठित की जाने लगी और उन्हीं संस्थाओं के माध्यम से कृषकों को साख उपलब्ध किए जाने लगा। सहकारी समिति के संगठन का कार्य 4 मई 1913 के पश्चात ही प्रारंभ हुआ। प्रथम वर्ष 72 लाख सहकारी संस्थानों का गठन हुआ जिसके 1019 कृषक सदस्यों को रुपए 27013 का ऋण वितरण किया गया। धीरे- धीरे प्रतिवर्ष साख सहकारी संस्थाओं की संख्या बढ़ती गई। सन् 1920 में इसकी संख्या 289, 1935 में 359, 1940 में 527 और 1971 में 953 हो गई। इसी बीच सहकारी संस्थाओं को आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाने के उद्देश्य से राज्य शासन द्वारा इन सहकारी संस्थाओं को पुर्नगठित किया गया फलस्वरूप सहकारी संस्थाओं की संख्या 340 हो गई। बैंक के कार्य क्षेत्र में सभी पांचों जिले के राजस्व ग्राम 3986 आते हैं जिसके 612651 कृषक तथा अकृषक सदस्य हैं। 30 नवम्बर 2011 की स्थिति में रुपए 627.65 करोड़ का ऋण वितरण किया गया है।
लाभांश वितरण
यह बैंक प्रारंभ से ही अनुभवी लोगों के मार्गदर्शन में रहा है इसलिए प्रतिवर्ष यह लाभ की स्थिति में रहा है तथा अपनी सदस्य संस्थाओं को लाभांश का वितरण किया है। सन् 1914 में इस बैंक ने 5.50 प्रतिशत लाभांश का वितरण किया था। लाभांश की दर प्राप्त शुद्ध लाभ के आधार पर घटते- बढ़ते रहा है किन्तु प्रतिवर्ष लाभांश की घोषणा होती रही है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली
पूरे देश में उचित मूल्य पर उपभोक्ताओं को सहकारिता के माध्यम से खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है। छत्तीसगढ़ की सार्वजनिक वितरण प्रणाली की चर्चा सारे देश में है। कई राज्य की सरकारों ने इसे खूब सराहा है तथा यहां के सिस्टम को अनुकरणीय बताया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सफल संचालन में इस बैंक का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वर्ष 2011-12 के लिए इस कार्य के लिए 1382 उचित मूल्य की दुकानों के लिए 340 सहकारी संस्थाओं को 7.53 करोड़ की साख सीमा भी स्वीकृत की गई है।
राज्य शासन के साथ सहयोग
चाहे कृषकों को तीन प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराने की बात हो अथवा छात्रों को छात्रवृत्ति वितरण करने की बात हो अथवा मनरेगा योजना के क्रियान्वयन की बात हो बैंक का सहयोग शासन के साथ सदा रहा है साथ ही छत्तीसगढ़ शासन का कुशल मार्गदर्शन एवं नेतृत्व इस बैंक को मिलता रहा है।
समर्थन मूल्य पर धान खरीदी
इस क्षेत्र की मुख्य फसल धान है। कृषकों को धान का लाभकारी मूल्य मिले, कोई बिचौलिया उसका शोषण न कर सके इस उद्देश्य को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा किसानों के धान का दाना- दाना समर्थन मूल्य के अंतर्गत विगत वर्षों से खरीदा जा रहा है। बैंक द्वारा पूरी निष्ठा, लगन और मेहनत से इस कार्य को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। इसके लिए 506 धान खरीदी केंद्रों के माध्यम से विगत वर्ष 19.62 लाख मेट्रिक टन धान खरीदा गया है जो कि राज्य की कुल धान उपार्जन का 40 प्रतिशत है।
छत्तीसगढ़ राज्य पुरस्कार
सहकारिता के क्षेत्र में अत्यंत सुखद अवसर उस समय आया जब वर्ष 2009 में राज्योत्सव के अवसर पर छत्तीसगढ़ के महामहिम राज्यपाल द्वारा राज्य के यशस्वी मुख्यमंत्री की उपस्थिति में ठाकुर प्यारेलाल सम्मान (सहकारिता सम्मान) इस बैंक को प्राप्त हुआ। नि:संदेह यह बैंक इस सम्मान का हकदार था।
2 जनवरी 2012 को शताब्दी वर्ष में इस बैंक का मंगल प्रवेश प्रदेश की सहकारिता क्षेत्र के गौरव की बात है। सम्पूर्ण भारत के जिला सहकारी बैंकों में इसका सातवां स्थान है। नि:संदेह यह बैंक आने वाले वर्षों में पूरे देश में सहकारिता के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाएगा।

गाँधी जी का संदेशः विलासिता की राह छोडऩी होगी

पिछले दो दशकों के दौरान यह तो स्पष्ट हो गया है कि जलवायु बदलाव का संकट अत्यंत गंभीर है परंतु इसे रोकने की असरदार कार्यवाही अभी नहीं हो सकी है। हाल में उपलब्ध हुए आंकड़े यही इंगित करते हैं कि दुनिया ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को समय पर निर्धारित मात्रा में कम करने के लक्ष्यों से अभी बहुत दूर है।
यह एक अजीब स्थिति है कि किसी समस्या की गंभीरता को तो उच्चतम स्तर पर स्वीकार कर लिया जाए, पर उससे जूझने के उपाय फिर भी पीछे रह जाएं। धनी देशों, विकासशील देशों व अन्य गुटों के बीच चल रहे अंतहीन विवादों के बीच कहीं यह न हो कि धरती को बचाने के सबसे बुनियादी कार्य में ही बहुत देर हो जाए। यदि समाधान की ओर पूरी निष्ठा से बढऩा है तो कुछ बुनियादी मुद्दों पर सहमति बनानी ही होगी। पहली बात तो यह है कि जलवायु बदलाव का संकट इतना बढ़ चुका है कि अब ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में धनी व विकासशील सभी देशों को अधिकतम संभव योगदान देना होगा।
दूसरी महत्वपूर्ण सहमति यह हो जानी चाहिए कि इस क्षेत्र में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धनी व औद्योगिक देशों की है। उन्हें उत्सर्जन के अधिक बड़े लक्ष्य स्वीकार करने होंगे व साथ ही विश्व स्तर पर इस संकट के समाधान के लिए अधिक धन भी उपलब्ध करवाना होगा। आखिर यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इस सकंट को इतना गंभीर बनाने में सबसे बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी इन्हीं धनी देशों की ही है जबकि इन देशों में विश्व की मात्र 20 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। पर दुख की बात है कि ये देश इस जिम्मेदारी से पीछे हटते रहे हैं और अब जिस तरह के आर्थिक संकट से वे स्वयं गुजर रहे हैं उसमें उनके द्वारा यह जिम्मेदारी संभालने की संभावना और कम हो गई है। तो फिर आगे का रास्ता कहां है?
यह सादगी और समता की राह अपनाने में है जो महात्मा गांधी का एक मूल संदेश रहा है। विश्व स्तर पर तथा विशेषकर धनी देशों में सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर यह संदेश फैलाना होगा कि सादगी के सिद्धांत को अपनाकर व अंतहीन विलासिता की राह को छोड़कर ही पर्यावरण की रक्षा में बुनियादी सफलता मिल सकती है। यदि इसके साथ सामाजिक समरसता और सेवा भावना का प्रसार हो तो समाज में विलासिता कम करते हुए भी खुशहाली बढ़ सकती हैं और बढ़ती संख्या में लोग इस प्रयास से जुड़ सकते हैं। जहां एक ओर सबसे गरीब और अभावग्रस्त लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर सबसे धनी देशों व वर्गों की विलासिता में कमी लाना भी आवश्यक है। इसी तरह खतरनाक हथियारों के उत्पादन में भी भारी कटौती करना जरूरी है। विलासिता और अंतहीन उपभोग पर अंकुश लगाने से वे तनाव भी अपने आप कम होंगे जो युद्ध व अधिक हथियार उत्पादन की ओर ले जाते हैं।
विश्व स्तर पर बहुत बुनियादी फैसले करने होंगे जो हमें सादगी और समता की ओर ले जाएं क्योंकि सादगी और समता के सिद्धांत अपनाकर ही धरती के पर्यावरण की रक्षा करने के साथ- साथ गरीबी और अभाव भी दूर किए जा सकते हैं। (स्रोत)
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हिमयुग की आहट को पहचानिए
भारत में मार्च के महीने से गर्मी शुरू हो जाती है लेकिन मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक इस साल पूरे मार्च तापमान सामान्य से कम रहने वाला है। मौसम में आ रहे बदलाव से इस साल मार्च में भी सर्दी रहेगी। इस साल देश में बर्फबारी ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है। कश्मीर, हिमाचल या फिर उत्तराखंड के मैदानी इलाके, सभी जगह बर्फ ऐसी पड़ी कि लोग हैरान रह गए।
ठंड से सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं ठिठुर रहा दक्षिण में भी ऐसी सर्दी पड़ी जैसी पिछले 100 साल में नहीं पड़ी। कर्नाटक में पारा 5 डिग्री के नीचे चला गया। सभी जगहों पर पारा सामान्य से काफी नीचे है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या ला नीना फैक्टर इस बर्फबारी का संकेत है? यह बड़ा बदलाव कहीं हिमयुग की आहट तो नहीं ?

पार्श्वगायन के जन्मदाता पुतुल दा

- पंकज मल्लिक (संगीत निर्देशक)
पुतुल दा की बातों से मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा था। सहसा मुझे लगा कि मैं एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बन रहा था। ऐसी घटना जो भारतीय सिनेमा में क्रांति ला देगी। तब मैं एक मूक दर्शक था और बिना किसी पूर्व निर्धारित योजना के बजाए संयोगवश ही मैं इसमें मुख्य भूमिका निभा रहा था। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पार्श्वगायन केवल नितिन बोस का ही आविष्कार था।
नितिन बोस, जिन्हें सब लोग प्यार से पुतुल दा कहते थे, न्यू थियेटर्स के कैमरा विभाग का काम देख रहे थे। बाद में धीरे- धीरे उन्होंने पूरी फिल्म का काम देखना शुरु कर दिया। उनकी उन्नति से, उन्हें मिल रही मान्यता से मैं खुश था। हम लोग एक ही इलाके में रहते थे। मैं मानिक टोला के पास चलता बागान में था और वे पुराने माडर्न इंस्टीट्यूट, जो अब एमहस्र्ट स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है, के उत्तर में रहते थे। स्टूडियो जाते समय पुतुल दा मुझे भी अपने साथ ले लेते थे और इस तरह हम एक ही कार में सफर किया करते थे। हमारे बीच संबंध प्रगाढ़ होते गए।
'भाग्यचक्र' पुतुल दा की दूसरी (बांग्ला) फिल्म थी। इसे हिन्दी में 'धूपछांव' के नाम से बनाया गया। जहां तक मुझे याद आता है यह सन् 1935 की बात है। इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में थे पहाड़ी सान्याल और उमा शशि देवी। भाग्यचक्र के निर्देशन के रूप में उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। वे सुबह जरा जल्दी स्टूडियो पहुंचते थे।
एक दिन की बात है, पुतुल दा हमेशा की तरह मेरे घर आए। उस समय मैं स्नानघर में था। मेरे पड़ोस के घर में एक अंग्रेजी फिल्म का रेकार्ड बज रहा था। जहां तक मुझे याद है, उसके बोल थे- come with me when moon beams...
रेकार्ड के साथ- साथ: मैंने भी सुर में सुर मिला कर गाना शुरु कर दिया। मैं गाने में इतना तन्मय था कि पुतुल दा की आवाज ही नहीं सुनाई पड़ी। वे मुझे पुकार रहे थे - पंकज, ओ पंकज, आखिरकार मेरे पिताजी को आकर मुझे टोकना पड़ा। मैं तुरंत बाहर आया। सामने गंभीर मुद्रा बनाए पुतुल दा खड़े थे। मुझे लगा पुतुल दा को कोई गंभीर बात परेशान किए हुए है। पर मैंने कुछ न कहा और पीछे बैठ गया। पुतुल दा ड्राइवर की सीट पर जा बैठे। उनकी बगल में उनके भाई मुकुल दा थे।
चुप्पी जो भारी पड़ी- कार चल पड़ी, सबकी चुप्पी मुझे भारी पड़ रही थी। मैंने क्षमा याचना के स्वरों में कहा पुतुल दा, मुझे माफ कर दीजिए। मैं उस अंगे्रजी गाने में खो गया था, नहीं तो मैं आपकी पुकार का जवाब अवश्य देता।
पुतुल दा ने कोई जवाब न दिया। बस अपनी सिगरेट पीते रहे। मैंने फिर एक बार उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की पर फिर असफल रहा।
चौरंगी पर लाइट हाउस के पास एक सिग्नल पर कार रूकी तो पुतुल दा उससे नीचे उतर पड़े। उन्होंने अपने भाई मुकुल दा को निर्देश दिया कि वे कार लेकर म्यूजियम में उनकी प्रतीक्षा करें। थोड़ी देर बाद वे वहां पहुंचे। उनके बगल में एक पार्सल दबा हुआ था। स्वभाव के विपरीत पुतुल दा आज बहुत गंभीर थे। मैं सोच नहीं पा रहा था कि मैंने ऐसा क्या किया जो वे इतने नाराज हैं।
हम सब टालीगंज, फिर स्टूडियो पहुंचे। कार रुकते ही पुतुल दा उतरे और तेजी से चल पड़े। अपने कमरे में जाने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।
वह नया आइडिया- कुछ देर बाद सहसा पुतुल दा ने मुझे बुलवाया। मैंने फिर सुबह की घटना के लिए क्षमा मांगने की कोशिश की पर पुतुल दा ने मुझे चुप रहने का निर्देश दिया। पुतुल दा किसी नए आइडिया पर सोच विचार में मग्न थे और मैं उसमें विघ्न डाल रहा था, इसलिए उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा था। मुझे चुप रहने का निर्देश देकर ग्रामोफोन पर रेकार्ड चढ़ा दिया। यह क्या। यह तो वही प्रेमगीत था जिसे मैंने सुबह सुना था। मैं आश्चर्य में डूब गया। पुतुल दा ने मुझे भी साथ- साथ गाने के लिए कहा। केवल उन्हें खुश करने के लिए मैंने गाना शुरु कर दिया। मैंने देखा, वे मुझे ध्यान से देख रहे हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। और उसके बाद जो घटा, वह तो पागलपन की सीमा ही थी। पुतुल दा कुरसी से लपक कर उठे और मेरा हाथ पकड़ कर कमरे में यहां वहां नृत्य करने लगे। नाचते- नाचते उन्होंने कहा- पंकज, मैंने उसे पा लिया। यह भाग्य की बात थी कि मैंने सुबह तुम्हें इस रेकोर्ड के गीत के साथ गाते हुए सुना। एक गंभीर समस्या का अन्तत: हल हो गया।
पुतुल दा की बातों से मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा था। सहसा मुझे लगा कि मैं एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बन रहा था। ऐसी घटना जो भारतीय सिनेमा में क्रांति ला देगी। तब मैं एक मूक दर्शक था और बिना किसी पूर्व निर्धारित योजना के बजाए संयोगवश ही मैं इसमें मुख्य भूमिका निभा रहा था। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पार्श्वगायन केवल नितिन बोस का ही आविष्कार था। अब अभिनय के साथ- साथ गायन में भी प्रवीण अभिनेता- अभिनेत्रियों का जमाना खत्म हो गया था. अब अभिनेता अभिनेत्रियों को बस बोल के अनुसार ओंठ हिलाने थे। पर मैं यहां बताना चाहूंगा कि उन दिनों यह कोई आसान काम नहीं था। जहां तक मुझे याद है, पुतुल दा की फिल्म भाग्यचक्र में ही सर्वप्रथम पार्श्वगायन का प्रयोग हुआ। इससे फिल्म निर्माण के संबंध में नई- नई धारण का जन्म हुआ। न्यू थियेटर्स की चारदीवारी के भीतर उनका परीक्षण भी किया गया।
भारतीय सिनेमा की प्रथम पार्श्व गायिकाएं- 1931 में भारतीय सिनेमा में ध्वनि का प्रयोग शुरु हुआ था। चार वर्ष बाद पार्श्वगायन के प्रयोग ने भारतीय सिनेमा में क्रांति ला दी। प्रारंभ में संगीत- निर्देशकों को ऐसे अभिनय- प्रवीण कलाकारों से गीत गवाने पड़ते थे जो गाना नहीं जानते थे, जैसे मोतीलाल, अशोक कुमार, देविका रानी, माया बनर्जी आदि। दूसरी ओर गायन में प्रवीण ऐसे कलाकारों से अभिनय कराना पड़ता था जो इस कला में विशेष दक्षता नहीं रखते थे। जैसे कुंदनलाल सहगल, नूरजहां, शांता आप्टे, के.सी.डे, खुर्शीद, उमा शशि आदि।
सन् 1935 में पार्श्वगायन की सफलता ने सिनेमा- निर्माण में नए- नए प्रयासों को जन्म दिया। धूपछांव (बंगला चित्र भाग्यचक्र का हिन्दी संस्करण) में सर्वप्रथम पार्श्वगायन की कला का उपयोग किया गया। निर्देशक थे नितिन बोस और संगीत निर्देशक थे पंकज मलिक। नर्तकियों के एक नृत्य गान को अपना स्वर देने वाली प्रथम पार्श्व गायिकाएं थीं- सुप्रभा सरकार, पुरुल घोष और उमा शशि। बाद में बाम्बे टाकीज की फिल्म अछूत कन्या (सन् 1936) में सरस्वती देवी ने और सागर मुवीटोन महागीत (सन् 1938) में अनिल विश्वास ने इस तकनीक का प्रयोग किया। (लिस्नर्स बुलेटिन से साभार)

लोक-संगीत


बस्तर बैंडः आदिम लोक जीवन की अनुगूंज
- संजीव तिवारी
आदिवासी संस्कृति की संपूर्ण झलक दिखाने वाले बस्तर बैंड की जिस अनोखी प्रस्तुति को दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन के दौरान टीवी पर पूरी दुनिया ने देखा है वह छत्तीसगढ़ के रंगकर्मी एवं लोककलाकार अनूप रंजन पांडेय के संयोजन, निर्देशन और परिकल्पना की ही प्रस्तुति थी। उनके इस बैंड को दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में चुनिंदा प्रस्तुतियों में रखा गया था। जिसमें बस्तर के लोक संगीत और विलुप्त वाद्यों के साथ 40 से ज्यादा कलाकारों ने लगभग डेढ़ घंटे की बेहतर प्रस्तुति दे कर एक अलग पहचान स्थापित करते हुए बस्तर की लोक कला को विश्व रंगमंच तक पंहुचाने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
इससे पहले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा कर्नाटक के शहर मैसूर में स्थित देश के प्रख्यात प्रेक्षागृह एवं आर्ट गैलरी जगमोहन पैलेस में आयोजित इंटरनेशनल इंडीजिनस फेस्टिवल में छत्तीसगढ़ के इस पारंपरिक जनजातीय नृत्यों की श्रृंखला बस्तर बैंड को प्रस्तुत किया गया तो देश- विदेश से आये कला प्रेमी भाव विभोर हो उठे। जगमोहन पैलेस में बस्तर बैंड के कलाकारों ने लगातार दो दिनों तक ऐसा समां बांधा कि रंगायन एवं निरंतर फाउंडेशन जैसे प्रसिद्ध कला केन्द्र ने उन्हें पुन: प्रस्तुति के लिए बुलाया। उनकी इस प्रस्तुति की शिखर सम्मान प्राप्त बेलगूर मंडावी ने भी जमकर सराहना की। तीन साल पहले सिक्किम के जोरथांग माघी मेले में पहली बार किसी बड़े मंच पर जब बस्तर बैंड को मौका मिला था तब किसी ने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इसके कलाकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धाक जमा लेंगे।
बस्तर बैंड मूलत: बस्तर के आदिम जनजातियों की सांगीतिक प्रस्तुति है जिसमें आदिम जनजातियों के संगीत व गीतों के ऐसे नाद की प्रधानता है जो वेद की ध्वनि 'चैटिंग' का आभास कराता है। इस नाद में गाथा, आलाप, गान और नृत्य भी है, जिसमें बस्तर आदिवासियों के आदि देव लिंगों के 18 वाद्य सहित लगभग 40 से ज्यादा परंपरागत वाद्य शामिल हैं। बैंड समूह के प्रत्येक कलाकार तीन से चार वाद्य एक साथ बजाने में पारंगत हैं। तार से बने वाद्य, फूंक कर मुंह से बजाने वाले वाद्य और हाथ व लकड़ी की थाप से बजने वाले ढोल वाद्यों और मौखिक ध्वनियों से इनके कलाकार मिला- जुला जादुई प्रभाव पैदा करते हैं। उनकी इस प्रस्तुति में ऐसा आभास होता है मानों हम हजारों वर्ष पीछे आदिम युग में आ गए हों। बस्तर के आदिम जनजाति घोटूल, मूरिया और दंडामी माडिय़ा दोनों की परंपराओं में विभिन्नताएं हैं, उनके वाद्य- यंत्र भी भिन्न हैं। बस्तर बैंड ने दोनों के आदिम जीवन के रंगों को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की है।
अनूप का यह बस्तर बैंड उपरोक्त जनजातियों के अतिरिक्त बस्तर की अन्य जनजातियों की परंपरा एवं संस्कृति के परिधान, संस्कार, अनुष्ठान, आदिवासी देवताओं की गाथा आदि की मिली- जुली संगीतमय अभिव्यक्ति है। कुल मिलाकर बस्तर के लोक एवं पारंपरिक जीवन का सांगीतिक स्वर है बस्तर बैंड, जिसमें सदियों से चली आ रही आदिम संस्कृति एवं संगीत की अनुगूंज है।
बस्तर में आदिवासी लिंगो देव को अपना संगीत गुरू मानते हैं। मान्यता यह भी है कि लिंगो देव ने ही इन वाद्यों की रचना की थी। 'लिंगो पाटा' या लिंगो पेन यानी लिंगो देव के गीत या गाथा में उनके द्वारा बजाए जाने वाले विभिन्न वाद्यों का वर्णन मिलता है। यद्यपि वर्णन में प्रयुक्त कुछेक वाद्य लगभग विलुप्त हो चुके हैं, बावजूद इसके बस्तर बैण्ड की परिकल्पना को साकार करने वाले अनूप के प्रयासों से विलुप्तप्राय इन वाद्यों को सहेजकर उन्हें पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है।
देखा जाए तो अनूप ने प्रकृति की उस आवाज को सम्हालने की कमान उठा ली है जो आतंक मचाते आधुनिक संगीत और विकास के परिणाम स्वरूप बिगडऩे वाले सामाजिक असंतुलन की भेंट चढ़ गया। वर्तमान परिस्थिति में बिखर रहे सामाजिक ताने बाने को भाषा, बोली सहित असली जातीय सुगंध की रक्षा करने वाली कम्युनिटी फीलिंग जागृत करने में ऐसे सांगीतिक प्रस्तुति की अह्म भूमिका है।
बस्तर बैण्ड में कोइतोर या कोया समाज जिसमें मुरिया, दण्डामी माडिय़ा, धुरवा, दोरला, मुण्डा, माहरा, गदबा, भतरा, लोहरा, परजा, मिरगिन, हलबा आदि के साथ कोया समाज के पारंपरिक एवं संस्कारों में प्रयुक्त वाद्य संगीत के साथ सामूहिक आलाप- गान को प्रस्तुत किया जा रहा है। बस्तर बैण्ड के वाद्यों में माडिया ढोल, तिरडुड़ी, अकुम, तोड़ी, तोरम, मोहिर, देव मोहिर, नंगूरा, तुड़बुड़ी, कुण्डीडड़, धुरवा ढोल, डण्डार ढोल, गोती बाजा, मुण्डा बाजा, नरपराय, गुटापराय, मांदरी, मिरगीन ढोल, हुलकी मांदरी, कच टेहण्डोर, पक टेहण्डोर, उजीर, सुलुड, बांस, चरहे, पेन ढोल, ढुसीर, कीकीड, चरहे, टुडरा, कोन्डोंडका, हिरनांग, झींटी, चिटकुल, किरकीचा, डन्डार, धनकुल बाजा, तुपकी, सियाडी बाजा, वेद्दुर, गोगा ढोल आदि प्रमुख हैं जो संगत स्वर थाप, लय, सुर में उन्मुक्त हैं।
इस बैंड में बस्तर के लगभग सभी समुदाय के प्रतिनिधि कलाकार हैं। कलाकारों के इस दल में माया लक्ष्मी सोरी, इडमें ताती, बुधराम सोरी, विनोद सोरी, कोसादेवा, रूपसाय सलाम, कज्जु राम, चंदेर सलाम, दसरू कोर्राम, संताय दुग्गा, जुगो सलाम, नीलूराम बघेल, श्रीनाथ नाग, कमल सिंग बघेल, समारू राम नाग, रामलाल कश्यप, विक्रम यादव, सुकीबाई बघेल, रंगबती बघेल, बाबूलाल बघेल, लच्छू राम, लखेश्वर खुदराम, बाबूलाल राजा मुरिया, सहादुर नाग, फागुराम, पुरषोत्तम चन्द्राकर तथा स्वयं अनूप रंजन आदि शामिल हैं।
सवाल यह उठता है कि आखिर इस बैंड को सामने लाने की परिकल्पना अनूप के मन में कैसे और कब आई? पूछने पर उन्होंने बताया कि- 'मैं चाहता था कि बस्तर की विलुप्त हो रही अलग- अलग बोलियों और प्रथाओं की संगीतमय कला को इस बैंड के माध्यम से एक मंच पर लाया जाए।' अनूप कहते हैं कि- मैं स्वयं नहीं जानता कि विलुप्त होते आदिवासी वाद्य यंत्रों के संग्रहण के जुनून ने कब बस्तर बैंड की शक्ल अख्तियार कर ली।' इस खर्चीले, श्रम एवं समय साध्य उपक्रम की शुरुआत करीब 10 साल पहले हुई थी, लेकिन 2004 के आसपास बैंड ने आकार लिया। किसी बड़े मंच पर तीन साल पहले ही उसकी पहली प्रस्तुति हुई थी। अनूप अपने इस कार्य को लेकर कभी ढिंढोरा नहीं पीटते वे बड़ी सहजता से कहते हैं कि वे इन कलाकारों से आज भी निरंतर कुछ नया सीख रहे हैं।

अनूप रंजन पांडेय : सांस्कृतिक परंपरा को समर्पित कलाकार


छत्तीसगढ़ के आदिम लोक परंपराओं को हृदय में बसाये हुए अनूप रंजन नें छत्तीसगढ़ के अनेक लोक नाट्य विधाओं पर कार्य करते हुए धुर गांवों में दबी छिपी इन विधाओं का प्रदर्शन नागर नाट्य मंचों पर किया है।
रंगमंच और अभिनय अनूप पांडेय के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। जन्मजात प्रतिभा से युक्त अनूप ने विद्यार्थी जीवन में ही छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य 'नाचा' में जीवंत अभिनय कर अपनी योग्यता से स्थानीय कला जगत को परीचित करा दिया था। इन प्रदर्शनों से इन्हें सराहना मिलने लगी था। लगातार मिलते प्रोत्साहन नें उन्हें इस क्षेत्र में और बेहतर कार्य करने हेतु प्रेरित किया और इस तरह अनुप छुटपुट नाट्य प्रदर्शनों में सक्रिय होते चले गए। अनूप की प्रतिभा में निखार एवं प्रदर्शनकला में उत्कृष्टता प्रसिद्ध रंककर्मी हबीब तनवीर के 'नया थियेटर' से जुडऩे पर आई। इसके बाद लगातार प्रसिद्धि व लोकप्रिय नाटकों की सफल प्रस्तुति का निरंतर दौर चल पड़ा। देश के लगभग सभी मुख्य मंचों और आयोजनों के साथ- साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी अभिनय क्षमता का परचम फहराते हुए 'जिन लाहौर नई देख्या मुद्राराक्षस, वेणीसंहारम, मिड समर नाईटस् ड्रीम, चरणदास चोर, आगरा बाजार, देख रहे हैं नैन, ससुराल, राजरक्त, हिरमा की अमर कहानी, सड़क, मृग्छकटिकम' जैसे नाटकों में अनूप का अभिनय जिस तरह से जीवंत हुआ है वह अविस्मरणीय है। अनूप द्वारा अभिनीत भूमिकाओं को दर्शकों के साथ- साथ नाटय सुधियों, निर्देशकों और समीक्षकों द्वारा लगातार सराहना मिलती रही है।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अनूप रंजन पांडेय नाटकों में अभिनय के अलावा निर्देशन, संयोजन, संगीत, गाथा और नाट्य तथा लोक की सांस्कृतिक परम्परा में अच्छी पकड़ रखते हैं। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में उनका जन्म हुआ है। प्रारंभिक शिक्षा के साथ वाणिज्य और सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर की उपाधि भी उन्होंने बिलासपुर से ही प्राप्त की है। रायपुर से पत्रकारिता में स्नातक, भोपाल से पी.जी.डिप्लोमा, तथा इंदिरा कला एवं संगीत विद्यालय खैरागढ़ से लोक संगीत में डिप्लोमा प्राप्त किया है। बाद में अनूप रंजन साक्षरता के यज्ञ में राज्य संसाधन केन्द्र, भोपाल से जुड़े और लगभग 50 से अधिक नवपाठक साहित्य का संपादन किया जिसमें हिन्दी के अलावा गोंड़ी, भतरी, हल्बी, दोरली एवं छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित सामग्री उल्लेखनीय है। अपने क्षेत्र में देश की सर्वोच्च संस्था- संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली के लिए वे छत्तीसगढ़़ राज्य के नामित प्रतिनिधि हैं।
छत्तीसगढ़ के प्रति गहरा लगाव एवं नाटक के संगीत पक्ष और वाद्यों की गहरी समझ रखने वाले अनूप ने छत्तीसगढ़़ के गांव- गांव घूमकर पारम्परिक लोकवाद्यों का अध्ययन और संग्रह किया है। उनका यह संग्रह छत्तीसगढ़ का पहला ऐसा संग्रह है जिसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल द्वारा भिलाई में आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला- सह- प्रदर्शनी 'चिन्हारी' में रेखांकित किया गया। इस आयोजन में उनके द्वारा संग्रहित वाद्ययंत्रों की प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसके माध्यम से पहली बार छत्तीसगढ़़ की समृद्ध लोक सांगीतिक परम्परा और वाद्यों से विशेषज्ञों और आम जन का परिचय हुआ। अनूप ने बड़े श्रम से लुप्तप्राय वाद्ययंत्रों का संग्रह किया है। इतना ही नहीं उन्होंने अपना यह संग्रह स्वेच्छा से छत्तीसगढ़़ के संस्कृति विभाग के संग्रहालय को प्रदर्शन के लिए स्थायी रूप से दे दिया है ताकि यहां आने वाली जनता छत्तीसगढ़ की संस्कृतिक परंपरा से जुड़े इन वाद्ययंत्रों का जीवंत स्वरूप देख सके।
छत्तीसगढ़ के आदिम लोक परंपराओं को हृदय में बसाये हुए अनूप रंजन ने छत्तीसगढ़ के अनेक लोक नाट्य विधाओं पर कार्य करते हुए धुर गांवों में दबी छिपी इन विधाओं का प्रदर्शन नागर नाट्य मंचों पर किया है। छत्तीसगढ़़ की एक विशिष्ट और लुप्तप्राय नाट्य विधा 'तारे- नारे' को पुनर्जीवित करने का बीड़ा भी अनूप ने उठाया है। इसके विकास में वे लगातार संघर्षशील हैं। 'तारे- नारे या 'घोड़ा नाच' नाट्य विधा छत्तीसगढ़़ की विशिष्ट निजता और पारम्परिकता से सम्पन्न है, जिसका कथ्य 'आल्हा गाथा पर आधारित है। अनूप ने लुप्तप्राय इस नाट्य विधा का संयोजन तथा निर्देशन किया है जिसका प्रदर्शन पूर्व में छत्तीसगढ़़ राज्योत्सवों में किया गया था। 'तारे- नारे के संरक्षण संवर्धन और प्रदर्शन के प्रति उनकी निष्ठा और कार्य से प्रभावित होकर दक्षिण मध्य सांस्कृतिक केन्द्र नागपुर ने अनूप का नाम भारत सरकार के 'गुरू शिष्य परंपरा योजना के तहत गुरू के रूप में सम्मानित किया है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में बिसरते समस्त पारंपरिक नृत्यों को एकाकार कर उसे मूल रूप में भव्य रंगमंच में प्रस्तुत करने की योजना पर उनका कार्य अभी चल रहा है। बस्तर के सभी पारंपरिक नृत्यों को जोड़कर अनूप ने 'बस्तर बैंड' की स्थापना की है। 'बस्तर बैंड' बस्तर के सांस्कृतिक पहलुओं का जीवंत चित्रण है जिसमें मूल वाद्ययंत्रों के साथ घोटुल व जगार का परिदृश्य है, तो धनकुल की गूंज के साथ करमा की थिरकन है। अनूप ने अपने बेहतर निर्देशन व अभिनय कला से इसे सींचा है एवं अनुभवों से कसा है ।
इन कार्यों के अतिरिक्त अनूप रंजन अभिनय, रंगमंच और संगीत की महत्वपूर्ण कार्यशालाओं में लगातार शिरकत करते रहे हैं। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय संग्रहालय भोपाल, संस्कृति विभाग रायपुर, संगीत नाटक अकादमी दिल्ली, संस्कृति विभाग सिक्किम आदि के कार्यक्रमों एवं कार्यशालाओं में भी निरंतर उनकी भागीदारी रही है। एसोसिएशन ऑफ इंडियन युनिवर्सिटी दिल्ली तथा नेहरू युवा केन्द्र (खेल एवं युवा मंत्रालय) भारत सरकार के युवा उत्सव आयोजन में विशेषज्ञ एवं जूरी सदस्य के रूप में भी उन्होंनें युवाओं को प्रोत्साहित किया है व विभिन्न संस्थाओं- बालरंग, बिलासा कला मंच, चित्रोत्पला लोककला परिषद, चिन्हारी, जन शिक्षा एवं संस्कृति समिति, अभिव्यक्ति भोपाल आदि से सम्बद्ध रह कर नाट्य कला गतिविधियों में सतत् संलग्न हैं। उन्हें अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। अनूप रंजन का मानना हैं कि कला जगत में जो थोड़ी बहुत उपलब्धि उन्होंने आज हासिल की है उसमें हबीब तनवीर जी का अह्म योगदान है। आज वे जो कुछ भी हैं वह हबीब जी के कारण ही हैं।
संपर्क- संजीव तिवारी, ए 40, खण्डेलवाल कालोनी दुर्ग 491001 मो। 09926615707, Email: tiwari.sanjeeva@gmail.com

लोग पत्थर मिट्टी क्यों खाते हैं?


यदि पाइका व्यवहार पोषण संबंधी किसी कमी को दूर करने के लिए उभरता है तो व्यक्ति को वे चीजें खाना चाहिए जो पोषण की उक्त कमी को दूर कर दे। मगर लौह की कमी वाले व्यक्तियों द्वारा चॉक खाने की कोई तुक समझ नहीं आती।
यह कई बार देखने में आता है कि लोग मिट्टी, चॉक, दीवार का प्लास्टर, इरेसर, कोयला, माचिस की तीलियां वगैरह पता नहीं क्या- क्या खाते हैं। (वैसे कुछ विशिष्ट लोग घूस, चारा, स्पेक्ट्रम वगैरह भी खाते हैं, मगर यहां उन अति- अखाद्य चीजों के भक्षण की बात नहीं कर रहे हैं।) यह बार- बार पूछा जाता है कि ये लोग इस तरह की अखाद्य चीजें क्यों खाते हैं। इस सवाल के तरह- तरह के जवाब मिलते हैं। चिकित्सा विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में अखाद्य भक्षण की इस आदत को एक नाम भी दे दिया गया है- पाइका कहते हैं कि पाइका शब्द मैगपाई पक्षी के लैटिन नाम से बना है - मैगपाई के बारे में माना जाता है कि वह हर कुछ खाता रहता है।
सबसे पहले तो चिकित्सा विज्ञान ने पाइका की एक परिभाषा स्थापित की है - अखाद्य वस्तुओं का भक्षण ऐसी उम्र में हो जो ऐसे व्यवहार के लिए उपयुक्त उम्र नहीं है। ऐसा माना जाता है कि करीब डेढ़- दो साल तक के बच्चे तो जो भी चीज सामने दिखे उसे मुंह में डालते रहते हैं। यह उनके विकास का एक अंग माना जाता है। अत: डेढ़- दो साल की उम्र तक तो यह व्यवहार पाइका की श्रेणी में नहीं आता। परिभाषा में दूसरी शर्त है कि ऐसा व्यवहार मतलब ऐसी ऊटपटांग चीजों का भक्षण एकाध बार करने से पाइका का मामला नहीं बनता। ऐसा व्यवहार कम से कम एक माह तक जारी रहे, तभी पाइका की बात की जा सकती है। अर्थात पाइका एक माह से अधिक समय तक नियमित रूप से अखाद्य वस्तुओं के भक्षण को कहते हैं, बशर्ते कि वह डेढ़- दो साल से अधिक की उम्र में देखा जाए।
यह देखने से पहले कि पाइका के कारणों बारे में किस तरह के सिद्धांत रहे हैं, यह देखा जाए कि यह व्यवहार कितना आम है। ऐसा लगता है कि करीब 25 प्रतिशत लोगों में पाइका पाया जाता है। एक अध्ययन में पता चला है कि आम धारणा के विपरीत, स्त्री- पुरुषों दोनों में यह बराबर मात्रा में देखा जाता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि यह व्यवहार कुछ संस्कृतियों में ज्यादा पाया जाता है। जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि वहां अफ्रीकी-अमरीकी लोगों में पाइका का प्रचलन काफी ज्यादा है। इसी प्रकार से कुछ देशों में भी यह अन्य की बनिस्बत ज्यादा देखने में आता है। पाइका बच्चों में (6 वर्ष से छोटे) ज्यादा पाया जाता है और कुछ अवलोकन बताते हैं कि गर्भवती महिलाओं में भी पाइका प्रवृत्ति ज्यादा होती है। कम से कम एक अध्ययन में पाइका का संबंध मनोवैज्ञानिक कारणों से देखा गया है। कुछ चिकित्सकों का विचार है कि यह ऑटिज़्म जैसे कुछ मनोरोगों के साथ जुड़ा होता है। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इसका संबंध गरीबी से भी है, जब अत्यंत गरीब लोग भूख के एहसास को कम करने के लिए मिट्टी वगैरह का सहारा लेते हैं।
इन्हीं अवलोकनों के आधार पर पाइका प्रवृत्ति के कारणों पर भी कुछ धारणाएं बनाई गई हैं। जैसे एक मान्यता यह है कि लोग 'अखाद्य' चीजें तब खाते हैं जब उनके शरीर में किसी पोषक तत्व की कमी हो जाती है। जैसे कहा जाता है कि लौह, जिंक, कैल्शियम की कमी की स्थिति में व्यक्ति मिट्टी, चॉक वगैरह की ओर आकर्षित होते हैं। मगर इस बात को मानने में कई दिक्कतें हैं। सबसे पहली दिक्कत तो यह है कि ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिसके आधार पर पोषण में कमी और पाइका का संबंध स्थापित किया जा सके। दूसरी दिक्कत यह है कि यदि पाइका व्यवहार पोषण संबंधी किसी कमी को दूर करने के लिए उभरता है तो व्यक्ति को वे चीजें खाना चाहिए जो पोषण की उक्त कमी को दूर कर दे। मगर लौह की कमी वाले व्यक्तियों द्वारा चॉक खाने की कोई तुक समझ नहीं आती।
कुछ चिकित्सकों का मत है कि पाइका का सम्बंध मनोरोगों से है- ऐसे लोग खाद्य- अखाद्य के बीच भेद नहीं कर पाते, इसलिए कोई भी चीज मुंह में डाल लेते हैं (जैसा कि छोटे बच्चे करते हैं)। मगर अवलोकन इस धारणा का स्पष्ट खंडन करते हैं। देखा गया है कि मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति 'कोई भी चीज' मुंह में नहीं डाल लेते, बल्कि वे किसी खास चीज की तलाश करते हैं। मतलब वे बगैर सोचे समझे चीजें मुंह में नहीं डाल रहे हैं, बल्कि वे जानते हैं कि वे क्या खाना चाहते हैं।
एक धारणा यह भी है कि कुछ संस्कृतियों में इस तरह के व्यवहार को मान्यता मिली हुई है, खासतौर से महिलाओं के संदर्भ में। जैसे बताते हैं कि यूगांडा में गर्भावस्था के समय खाने के लिए खास किस्म की मिट्टी बाजार में मिलती है। कहते हैं कि बांग्लादेश में खास मिट्टी की टिकिया पकाकर खाने में इस्तेमाल की जाती हैं। जैसे बांग्लादेश की स्त्रीरोग विशेषज्ञ शामसुनर हिना ने बताया है कि उनकी गर्भवती मरीज नियमित रूप से मिट्टी खाती हैं। एक मरीज ने तो बताया कि वह रोजाना आधा किलो तक मिट्टी खाती है। यह खास तौर से सिलहट क्षेत्र में देखा गया है। अच्छी तरह तैयार की गई मिट्टी की टिकिया बाजार में 120 टका प्रति किलो के भाव से बिकती है। वैसे डॉक्टर हिना का ख्याल है प्राय: गरीब लोग रोजाना एक- दो टिकिया खा लेते हैं। बताते हैं कि मिट्टी खाने से गर्भावस्था में होने वाली मितली से छुटकारा मिलता है, दस्त रोके जा सकते हैं और भूख बढ़ती है। कई अन्य देशों से भी ऐसी रिपोट्र्स मिलती हैं। मगर इनमें से अधिकांश का अध्ययन पोषण वगैरह की दृष्टि से नहीं किया गया है। सिर्फ एक मामले में इसका अध्ययन हुआ है और वह भी इन्सानों में नहीं, चिम्पैंजियों के संदर्भ में।
यह देखा गया है कि यूगांडा के किबले राष्ट्रीय उद्यान के चिम्पैंजी मिट्टी ढूंढ- ढूंढकर खाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि यह मिट्टी उनके भोजन के एक प्रमुख घटक के मलेरिया-रोधी गुणों को बढ़ा देती है। वे आम तौर पर ट्रिचिलिया रुबेसेन्स नामक पौधे की पत्तियां खाते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि किबले के आस- पास बसे लोग इसी मिट्टी का उपयोग दस्त के इलाज में भी करते हैं। इस मिट्टी में काओलिनाइट खनिज काफी मात्रा में होता है और यह आधुनिक चिकित्सा में भी दस्त के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है।
खैर, ये विभिन्न सिद्धांत या धारणाएं जो भी हों, मगर एक बात तो स्पष्ट है- शायद कोई नहीं जानता कि पाइका का कारण क्या है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश मामलों में पाइका हानिरहित होता है। व्यक्ति यदि थोड़ा- बहुत चॉक या रबर का टुकड़ा खा ले तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हां, मिट्टी खाना कभी-कभी हानिकारक हो सकता है क्योंकि कई बार जो मिट्टी खाई जा रही है वह संक्रमण पैदा कर सकती है। इसके अलावा पाइका तब भी खतरनाक हो सकता है जब बच्चे रंग- बिरंगे खिलौने या दरवाजों का पेंट खुरचकर खा लेते हैं। इनमें हानिकारक पदार्थ मिले हो सकते हैं। लेकिन इस वजह से पाइका को रोग कहना उचित नहीं होगा।
वास्तव में यदि कोई व्यक्ति अखाद्य वस्तुएं खा रहा/ रही है तो चिंता इस बात की करनी चाहिए कि वह वस्तु क्या है, इस बात की चिंता करना बेकार है कि वह वस्तु खाद्य है या अखाद्य। जैसे यदि किसी व्यक्ति ने लोहे के टुकड़े खा लिए हैं तो यह देखना जरूरी होगा कि ये टुकड़े उसके पेट में जाकर कितना व कैसा नुकसान कर सकते हैं। इसी तरह का नुकसान खाद्य वस्तुएं भी कर सकती हैं। यदि व्यक्ति ने फफूंद-संक्रमित लड्डू भी खाए हैं, तो भी चिंता की बात होगी।
कहने का मतलब यह है कि पाइका अपने आप में कोई रोग नहीं लगता, जैसी कि चिकित्सा साहित्य के एक हिस्से बताया जा रहा है। पाइका के संभावित परिणामों पर विचार करने की जरूरत लगती है। वैसे कुछ चिकित्सकों ने यही विचार व्यक्त किया है। उनका मत है कि यदि किसी व्यक्ति को पाइका के लिए उनके पास लाया जाता है, तो वे दो ही चीजों पर विचार करते हैं: पहली कि वह पाइका के रूप में क्या खा रहा/ रही है, और वह चीज हानिकारक तो नहीं है और दूसरी कि कहीं उस व्यक्ति के पोषण में कोई कमी तो नजर नहीं आती। अक्सर देखा गया है कि जीवन की सामान्य चीजों को रोग बनाकर पेश किया जाता है और फिर उनका इलाज ढूंढकर पेश करने के प्रयास होते हैं। पाइका उसी तरह की बात लगती है। (स्रोत फीचर्स)

ध्वस्त न्याय प्रणाली


- राम अवतार सचान
भारतीय लोकतंत्र में आम आदमी का विश्वास सभी व्यवस्थाओं से उठ जाने के बावजूद न्याय व्यवस्था में उसका विश्वास कहीं न कहीं कायम था। परन्तु पिछले कुछ समय से न्याय के क्षेत्र में घुस आए भ्रष्टाचार से आम भारतीय नागरिक को बेहद निराशा हुई है। उसके पास एक मात्र न्याय प्रणाली ही बची थी जहाँ से वह न्याय पाने की उम्मीद रखता था। आज जिसके पास पैसा नही है न्याय पा ही नहीं सकता और ऊपर के न्यायालयों में वह जा नहीं सकता क्योंकि वहां एक- एक पेशी की फीस पचास हजार से लेकर पाँच- पाँच लाख तक तय है। आम भारतीय वह तो दे नहीं सकता, ऐसे में वह न्याय की गुहार कहां करे?
भारतीय लोकतंत्र से मेरा तात्पर्य कानून के उस प्रशासन से है जिसमें नागरिकों को उचित एवं त्वरित न्याय मिलना चाहिए। लेकिन विडम्बना यह है कि विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद यहां कानून की प्रक्रिया बेहद ढीली और गैर- जिम्मेदाराना है। यही वजह है कि संविधान में उल्लिखित समता सिद्धांत मात्र कागजों की शोभा मात्र बनकर रह गया है, जहां पर धनी और प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए कानून का मतलब अलग होता है तथा गरीब और असहाय के लिए अलग। उदाहरण स्वरूप हसन अली पर पचासों करोड़ कर का बकाया होते हुए भी उसकी गिरफ्तारी नहीं की जाती लेकिन एक किसान को फसली ऋण की अदायगी न किए जाने पर तुरंत रिकवरी जारी कर जेल में डाल दिया जाता है। इसे भला कैसे न्यायसंगत कहा जाएगा। एक किसान के लिए फसलों को उगाने से लेकर बिक्री करने तक बीसों कारक काम करते हैं जो किसान के बस में नहीं होते जैसे खाद, बीज, मानसून, बाजार भाव तथा सरकार द्वारा मूल्य निर्धारण आदि।
इसका मुख्य कारण है हमारे देश में न्याय की धीमी प्रक्रिया क्योंकि यहां जितने जजों की आवश्यकता है उसकी तुलना में उपलब्ध संख्या बहुत कम है। परिणामस्वरूप आज हमारी न्यायपालिका की यह व्यवस्था ब्रिटिश समय के पुराने कानूनों के बोझ तले दबकर लडख़ड़ा गई है। उस समय यह कानून एक बाहरी शासक द्वारा अपने फायदों के लिए बनाया गया था जिसमें अब पूर्ण संशोधन की जरूरत है।
न्याय प्रक्रिया की धीमी चाल की वजह से आज विभिन्न अदालतों में लगभग तीन करोड़ से अधिक मामले विगत कई वर्षों से लंबित पड़े हैं। न्याय और न्याय प्रक्रिया का इससे बड़ा मखौल और क्या हो सकता है कि इसे लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति तक ने चिंता जाहिर की है।
न्याय में देरी की दूसरी मुख्य वजह- न्यायपालिका में उच्च पदों पर बैठे जजों की जवाबदेही न होना है। नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी लोकतंत्र के तमाम प्रमुख स्तंभों पर केंद्रित है लेकिन ये सभी स्तंभ आज नकारा, भ्रष्ट और निहित स्वार्थों में लिप्त हो चुके हंै। विधायिका तो अपने स्वार्थ के लिए सबसे आगे है चाहे वेतन का मामला हो या अन्य कोई।
इन सबके चलते कानूनी प्रतिक्रिया आज इतनी जटिल कर दी गई है कि शीघ्र न्याय होने ही नहीं दिया जाता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- सत्र के दौरान होने वाला अपराध, न्यायाधीश की उपस्थिति में सब घटता है लेकिन अपराधी को सजा नहीं होती है क्योंकि न्याय करने वाला असहाय होता है कि वह आखिर सजा किसे और क्यों दे क्योंकि अपराध की प्रथम सूचना ही दर्ज नहीं हुई होती है। इसके विपरीत अन्य देशों में तुरंत न्यायिक क्रिया होती है जिसकी वजह से वहां पर 95 प्रतिशत अपराधी को सजा मिलती है। लेकिन भारत में ठीक इसके उल्टा होता है यहां पर 95 प्रतिशत को सजा नहीं हो पाती है। इसलिए यहां अपराधी अपराध दर अपराध करते चले जाता है और उसका कद दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है। यहां तक कि वह स्यवं कानून बनाने लग जाता है। इस तरह अपराधी को समाज में मान्यता मिल जाती है और यही अपराधी समाज के माननीय बन बैठते हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है वर्तमान में ऐसे जनप्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या।
ऐसी परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए बेहतर है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यह समझें कि शिथिल न्याय प्रक्रिया को सुधार कर उसे जिम्मेदार कैसे बनाएं, ताकि सड़ती जा रही व्यवस्था का उपचार हो, साथ ही योजनाओं तथा परियोजनाओं का क्रियान्वन करने वाले लोगों की जवाबदेही तय की सके।
हमारा अभिप्राय उच्च पदों पर बैठे ऐसे राजनयिकों और उन जिम्मेदार व्यक्तियों से है जो कानून बनाने, संशोधन करने और उसका क्रियान्वन समूल निष्ठा के साथ लागू करने की स्थिति में हंै। वे जब जनता व देश के साथ जवाबदेही का रवैया अपनाएंगे तभी लोकतंत्र, जनता और देश का कल्याण सुनिश्चित होगा अन्यथा आज अदालत से कुछ भी नहीं मिलता, केवल मिलती है तारीख पर तारीख, जहां पर गवाह खरीदे और बेचे जाते हैं और वह भी नहीं होता तो मार दिए जाते हैं।
न्याय शीघ्र न होने की वजह से ऐसे लोगों की लम्बी कतार खड़ी हो गई है जो देश और समाज के लिए घातक है।
संपर्क- 13/1 बलरामपुर हाउस, मम्फोर्डगंज इलाहाबाद (उ.प्र.) 211002, मो. 09628216646

रंग बिरंगी दुनिया

94 की उम्र में भी फुल टाइम जॉब
एडा होस्टलर ब्रिटेन की सबसे बुजुर्ग कामकाजी महिला हैं। वे आज भी 94 साल की उम्र में फुल टाइम काम कर रही हैं। परदादी बन चुकीं एडा की पिछले साल कूल्हे की हड्डी टूट गई थी। फिर भी उन्होंने सप्ताह में 45 घंटे काम करना जारी रखा। उनके इस हौसले से सभी परिवार वाले और उनके दोस्त हैरान हैं।
एडा पोर्ट्समाउथ स्थित एक स्टोरीटाइम नर्सरी में एडमिनिस्ट्रेटर हैं। यह नर्सरी उनकी 63 वर्षीया बेटी जैनेट ने 19 साल पहले शुरू की थी। वे हफ्ते में पांच दिन सुबह आठ से शाम छह बजे तक काम करती हैं और फिलहाल उनका रिटायर होने का कोई इरादा नहीं है।
सप्ताहांत में होने वाली छुट्टियों से उन्हें झुंझलाहट होती है, क्योंकि उन्हें रोजाना काम की आदत पड़ चुकी है।
एडा ने कभी सोचा नहीं था कि वे इतनी उम्र तक काम कर सकेंगी। वे अपने दिमाग को सक्रिय और युवा महसूस करने के लिए सभी जतन करती हैं। फिर भी अपनी इस सफलता का श्रेय वे बच्चों को देती हैं। उन्हें बच्चों से बेहद प्यार है और उनका साथ उन्हें अच्छा लगता है।
एडा का जन्म इटली के नेपल्स में हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी पीटर होस्टलर से मुलाकात हुई और 1945 में 26 वर्ष की उम्र में उन्होंने शादी की थी।


छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय

अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को...
- प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ की भूमि को गौरवान्वित करने वाले महापुरूष बालपुर के प्रतिष्ठित पाण्डेय कुल के जगमगाते नक्षत्र पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय थे। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1948 में मेरठ अधिवेशन में साहित्य वाचस्पति से सम्मानित किया गया था। वे इस सम्मान से विभूषित होने वाले छत्तीसगढ़ के पहले व्यक्ति थे।
छत्तीसगढ़ जैसे वनांचल के किसी ग्रामीण कवि को साहित्य का सर्वोच्च सम्मान साहित्य वाचस्पति दिया जाये तो उसकी ख्याति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बात तब की है जब इस सम्मान के हकदार गिने चुने लोग थे। छत्तीसगढ़ की भूमि को गौरवान्वित करने वाले महापुरूष बालपुर के प्रतिष्ठित पाण्डेय कुल के जगमगाते नक्षत्र पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय थे। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1948 में मेरठ अधिवेशन में साहित्य वाचस्पति से सम्मानित किया गया था। वे इस सम्मान से विभूषित होने वाले छत्तीसगढ़ के पहले व्यक्ति थे। इस सम्मान को पाने वाले व्यक्तियों को पाण्डेय जी ने इस प्रकार रेखांकित किया है-
गर्व गुजरात को है जिनकी सुयोग्यता का,
मुंशीजी कन्हैयालाल भारत के प्यारे हैं।
विश्वभारती है गुरूदेव का प्रसिद्ध जहाँ,
उस बंगभूमि के सुनीति जी दुलारे हैं।
ब्रज माधुरी के सुधा सिंधु के सुधाकर में,
विदित वियोगी हरि कवि उजियारे हैं।
मंडित साहित्य वाचस्पति पदवी से हुए,
लोचन प्रसाद भला कौन सुनवारे हैं।
बाद में इस अलंकरण से छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकार विभूषित किये गये। पं. शुकलाल पाण्डेय की एक कविता देखिये-
यही हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवर
उत्तर राम चरित्र ग्रंथ है जिसका सुन्दर
वोपदेव से यही हुए हैं वैयाकरणी
है जिसका व्याकरण देवभाषा निधितरणी
नागर्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान से
कोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से ।
छत्तीसगढ़ की माटी को हम प्रणाम करते हैं जिन्होंने ऐसे महान सपूतों को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़ वंदना की एक बानगी पाण्डेय जी से-
जयति जय जय छत्तीसगढ़ देस, जनम भूमि, सुखर सुख खान।
जयति जय महानदी परसिद्ध, सोना- हीरा के जहाँ खदान।।
जहाँ के मोरध्वज महाराज, दान दे राखिन जुग जुग नाम।
कृष्ण जी जहाँ विप्र के रूप, धरे देखिन श्री मनिपुर धाम।।
जहाँ है राजीवलोचन तीरथ, अउ, सबरीनारायण के क्षेत्र ।
अमरकंटक के दरसन जहाँ, पवित्तर होथे मन अउ नेत्र ।।
जहाँ हे ऋषभतीर्थ द्विजभूमि, महाभारत के दिन ले ख्यात् ।
आज ले जग जाहिर ऐ अमिट, जहाँ के गाउ दान के बात ।।
मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। प्राचीन काल में महानदी का तटवर्ती क्षेेेत्र बालपुर, राजिम और शिवरीनारायण सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ थे। उस काल के केंद्र बिंदु थे- शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह जिन्होंने छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को केवल समेटा ही नहीं बल्कि उन्हें एक दिशा भी दी है। उस काल की रचनाधर्मिता पर पाण्डेय जी के अनुज पंडित मुकुटधर पाण्डेय के विचार दृष्टव्य है- 'मुझे स्मरण होता है कि भाई साहब ने जब लिखना शुरू किया तब छत्तीसगढ़ में हिन्दी लिखने वालों की संख्या उंगली में गिनने लायक थीं। जिनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पाण्डेय, परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पाण्डेय, शिवरीनारायण के ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. मालिक राम भोगहा, हीराराम त्रिपाठी, धमतरी के कृष्णा नयनार, कवि बिसाहूराम आदि प्रमुख थे। छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखने वाले काव्योपाध्याय हीरालाल दिवंगत हो चुके थे। राजिम के पं. सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दानलीला नहीं लिखी गई थी। माधवराव सप्रे का पेंड्रा से निकलने वाला 'छत्तीसगढ़ मित्र' नामक मासिक पत्र बंद हो चुका था, वे नागपुर से 'हिन्द केसरी' नामक साप्ताहिक पत्र निकालने लगे थे। भाई साहब सप्रेजी को गुरूवत मानते थे। मालिक राम भोगहा से हमारे ज्येष्ठ भ्राता पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय की मित्रता थी और वे नाव की सवारी से बालपुर आया करते थे। वे ठा. जगमोहन सिंह के शिष्य थे। उनकी भाषा अनुप्रासालंकारी होती थी। भाई साहब उन्हें अग्रज तुल्य मानते थे। प्रारंभ में भाई साहब की लेखन शैली उनसे प्रभावित थी, उनका गद्य भी अनुप्रास से अलंकृत रहता था।'
मैं कवि कैसा हुआ शीर्षक से लिखे लेख के प्रारंभ में लोचन प्रसाद जी लिखते हैं- 'एक दिन शाम को मैं काम से आकर आराम से अपने धाम में बैठकर मन रूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता फिरता तथा मौज से हौज में गोता लगाता था कि मेरी कृपना की दृष्टि में एकाएक कवि की छवि चमक उठी। यही उनकी लेखनी के प्रेरणास्रोत थे। हालांकि उन्होंने लेखन की शुरूवात काव्य से की मगर बाद में वे इतिहास और पुरातत्व में भी लिखने लगे।'
उनकी पहली रचना सन् 1904 में बालकृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित हुई। फिर उनकी रचनाएँ सन् 1920 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रहीं। इस बीच उनकी लगभग 48 पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित की गईं। उनका प्रथम काव्य संग्रह प्रवासी सन् 1907 में राजपूत एंग्लो इंडियन प्रेस आगरा से प्रकाशित हुई। यह पाण्डेय कुल से प्रकाशित होने वाला पहला काव्य संग्रह था। इसके पूर्व 1906 में उनका पहला हिन्दी उपन्यास 'दो मित्र' लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित हो चुका था। इसी प्रकार खड़ी बोली में लिखी गई लघु कविताओं का संग्रह नीति कविता 1909 में मड़वाड़ी प्रेस नागपुर से प्रकाशित हुआ। नागरी प्रचारणी सभा बनारस ने इसे उत्तम प्रकाशित उपयोगी पुस्तक निरूपित किया। सन् 1910 में पांडेय जी ने ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवियों की रचनाओं का संकलन-संपादन करके कविता कुसुम माला शीर्षक से प्रकाशित कराया। इससे उन्हें साहित्यिक प्रतिष्ठा मिली और उनकी गणना द्विवेदी युग के शीर्षस्थ रचनाकारों में होने लगी। तब वे 24-25 वर्ष के नवयुवक थे। फिर उनकी भक्ति उपहार, भक्ति पुष्पांजलि और बाल विनोद जैसी शिक्षाप्रद रचनाएँं छपीं। फिर आया उनके रचनाकाल का उत्कर्ष। सन् 1914 में माधव मंजरी, मेवाड गाथा, चरित माला और 1915 में पुष्पांजलि, पद्य पुष्पांजलि जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुई।
20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के 'डेजर्टेड विलेज' का उजाड़ गाँव के नाम से अनुवाद किया था, उसी तर्ज में पाण्डेय जी ने भी ट्रेव्हलर की शैली में प्रवासी लिखा है। जो अनुवाद नहीं बल्कि मौलिक रचना है। इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन की झांकी देखने को मिलती है। कविता कुसुम माला में ब्रज भाषा में पाण्डेय जी की कविताएँ संग्रहित हैं।
हिन्दी नाटक के विकास में पाण्डेय जी का अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने प्रेम प्रशंसा या गृहस्थ दशा दर्पण, साहित्य सेवा, छात्र दुर्दशा, ग्राम विवाह, विधान और उन्नति कहाँ से होगी आदि नाटकों की रचना की है। उन्होंने सन् 1905 में कलिकाल नामक नाटक लिखकर छत्तीसगढ़ी भाषा में नाट्य लेखन की शुरूवात की। आचार्य रामेश्वर शुक्ल अंचल ने पाण्डे जी की गणना हिन्दी के मूर्धन्य निबंधकरों में की है। लेकिन आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने पाण्डेय जी को स्वच्छदंतावादी काव्य के पुरोधा मानते हुए लिखा है- 'लोचन प्रसाद पाण्डेय के काव्य में संस्कृत छंद और भाषा का अधिक स्पष्ट निदर्शन है। उनके काव्य में पौराणिकता की छाप भी है।Ó इसमें संदेह नहीं कि उनकी कविता पर उडिय़ा और बांगला भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी सारी रचनाएँ उपदेशोन्मुखी है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कविता कलाप में पं. लोचन प्रसाद जी की रचनाओं को स्थान दिया है और श्री नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पाण्डेय, रामचरित उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त और कामता प्रसाद गुरू को कवि श्रेष्ठ घोषित किया है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, उडिय़ा, बांग्ला, पाली, संस्कृत आदि अनेक भाषाओं का ज्ञान था। इन भाषाओं में उन्होंने रचनाएँ लिखीं हैं। उनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर बामुण्डा, उडि़सा के नरेश द्वारा उन्हें काव्य विनोद की उपाधि सन् 1912 में प्रदान किया गया। प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोंदिया में उन्हें रजत मंजूषा की उपाधि और मान पत्र प्रदान किया गया। पं. शुकलाल पाण्डेय छत्तीसगढ़ गौरव में उनके बारे में लिखते हैं -
यही पुरातत्वज्ञ- सुकवि तम मोचन लोचन
राघवेन्द्र से बसे यहीं इतिहास विलोचन।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय जी का जन्म जांजगीर- चांपा जिलान्तर्गत महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के सुपरिचित पाण्डेय कुल में पौष शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1943 तद्नुसार 4 जनवरी सन् 1887 को पं. चिंतामणी पांडेय के चतुर्थ पुत्र रत्न के रूप में हुआ। वे आठ भाई सर्वश्री पुरूषोत्तम प्रसाद, पदमलोचन, चन्द्रशेखर, लोचन प्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा चार बहन चंदन कुमारी, यज्ञ कुमारी, सूर्य कुमारी और आनंद कुमारी थीं। उनकी माता देवहुति ममता की प्रतिमूर्ति थी। पितामह पंडित शालिगराम पांडेय धार्मिक अभिरूचि और साहित्य प्रेमी थे। उनके निजी संग्रह में अनेक धर्मिक और साहित्यिक पुस्तकें थी। आगे चलकर साहित्यिक पौत्रों ने प्रपितामही श्रीमती पार्वती देवी की स्मृति में पार्वती पुस्तकालय का रूप दिया। वे ऐसे धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में वे पले-बढ़े। प्रारंभिक शिक्षा बालपुर के निजी पाठशाला में हुई। सन् 1902 में मिडिल स्कूल संबलपुर से पास किये और सन् 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इंटर की परीक्षा पास करके बनारस गये जहाँ अनेक साहित्य मनीषियों से संपर्क हुआ। अपने जीवन काल में अनेक जगहों का भ्रमण किया। साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों, कांग्रेस अधिवेशन, इतिहास- पुरातत्व खोजी अभियान में सदा तत्पर रहें। उनके खोज के कारण अनेक गढ़, शिलालेख, ताम्रपत्र, गुफा प्रकाश में आ सके। सन् 1923 में उन्होंने छत्तीसगढ़ गौरव प्रचारक मंडली बनायी जो बाद में महाकौशल इतिहास परिषद कहलाया। उनका साहित्य, इतिहास और पुरातत्व में समान अधिकार था। 8 नवम्बर सन् 1959 को उनका निधन हो गया। उन्हें हमारा शत् शत् नमन...
कमला के संपादक पं. जीवानन्द शर्मा के शब्दों में -
लोचन पथ में आय, भयो सुलोचन प्राण धम
अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को।
संपर्क- राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
मो.9425223212, Email: ashwinikesharwani@gmail.com

पल दर पल

- अशोक सिंघई
वास्तव में समय और क्या है
हमारी सदी में
एक फिसलन, एक थिरकन
संभावनाओं को जनमता
एक ठहरा बाँझपन
अशान्त शान्ति और प्रकाशित अँधेरे का
सर्द, गर्म ठण्डापन
स्मृतियों की ऑक्सीजन पर जी रहा है प्यार
जहाँ- तहाँ सिर्फ गुस्सा ही गुस्सा जीता है
सब कुछ तोड़- मरोड़ देना चाहता है
यहाँ तक कि अपने-आप को भी
स्वयं का सामना
सबसे कठिन होता है
इसे कौन नहीं जानता
सब कुछ लगने लगता है व्यर्थ
सब कुछ बचने लगता है अव्यक्त
न कोई कहता है कुछ
और न ही कोई चाहता है सुनना कुछ
दरअसल चल नहीं रही है जिन्दगी
सरक रही है हाथों से
फिसल रही है राहों से
खिसक रही है जिन्दगी
पल दर पल हर साल
टकराता है एक मोड़ जैसा
साल दर साल
एक और नया साल
संपर्क: सिंघई विला, सड़क-20, सेक्टर-५, भिलाई (छत्तीसगढ़) 490 006,
Email: ashoksinghai@ymail.com

हर सवाल में

- डॉ. अजय पाठक
स्वप्न आपके
फलीभूत हों, नये साल में!
देश- द्वार पर समृद्घि सूरज बरसाये
संध्या, सुख- सपनों का मंगल गीत सुनाये
अक्षत- रोली,
दीपक- चंदन लिये थाल में!
कल्पतरू पर नयी कोंपले, उगे निरंतर
सिरजे धरा मनोरथ के फल होकर उर्वर
फूल खिलें हो
तरूवर के हर एक डाल में!
बच्चों के अधरों पर हरदम हो मुस्कानें
नये क्षितिज की ओर निरंतर भरें उड़ाने
उलझे मत सब,
दुर्मतियों के चपल चाल में!
आतंकों से मुक्त धरा हो और गगन हो
नदियां हो परिपूर्ण, प्रदूषण मुक्त पवन हो
समरसता का हल
निहित हो हर सवाल में!
संपर्क: संपादक- नये पाठक, एल- 3, विनोबानगर, बिलासपुर (छ।ग.)
Email: kavi_ajaypathak@yahoo.co.in

अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी!



- प्रेम जनमेजय
मुझ निष्काम को मेरी पत्नी कामी बनने को प्रेरित कर भ्रष्टाचार की राह पर स्वयं धकेल रह थी। मुझे धिक्कार है कि मैं जीवनभर, चार क्या एक भी फल देने वाला भ्रष्टाचार न कर सका।
पत्नी ने मुझसे कहा- 'सुनो अब और नहीं सहा जाता। या तो आप मुझे तलाक दे दो या फिर अपने को सुधार लो।'
सफेद बाल प्राप्त अवस्था पति से कोई पत्नी ऐसा कहती है तो लगता है कि पति ने चाहे सफेद बालों को काला नहीं किया पर उसके श्याम मुख पर कालिख लगने वाली है। उसकी प्रतिष्ठा का सिंहासन डोलने लगता है। नारी- विमर्श, यौन-उत्पीडऩ आदि के चारो ओर नारे लग रहे हों और कानून आंखों पर पट्टी बांध न्याय कर रहा हो तो पति के सामने स्वयं को सुधारने का ही विकल्प बचता है।
मैंनें भी इसी विकल्प को स्वीकार करते हुए कहा- 'हे देवी मैं स्वयं को ही सुधारूंगा , पर ये तो कहें कि आपने काली का उग्र रूप धारण कर मेरे मुख पर तलाक रूपी कालिमा लगाने का क्यों सोचा है? मैंनें तो कुछ भी ऐसा करना छोड़ दिया है जो आपसे सहा नहीं जाता। मैं तो निरीह, नपुंसक जीव-सा अपना समय काट रहा हूं...'
'यही तो सहा नहीं जाता है। मोहल्ले के अन्य पुरुष जब निरंतर अपने पराक्रम से अपनी पत्नियों को प्रसन्न रख रहे हों, उनपर नित्य प्रति काले धन की वर्षा कर उसका मोहल्ले में सम्मान बढ़ा रहें हों, उसकी क्रय- शक्ति की जी डी पी में वृद्धि कर रहे हों तो आप ही कहें आप जैसे निरीह भ्रष्टाचारविहीन मास्टर के संग रहते -रहते कभी तो विद्रोह का स्वर उभरेगा। यह जीवन तो अकारथ गया, अगला जीवन तो सुधर जाए। इसके लिए मैं किसी सुयोग्य का दामन थाम कुछ भ्रष्टाचार का सुकर्म कर अपने अगले जन्म के लिए कुछ संचित करना चाहती हूं। ऐसे में या तो आप कुछ कर लें पतिदेव अन्यथा... '
'मुझे 3 माह का समय दें देवी, मैं योग्य पति बनकर दिखाता हूं।'
मुझ निष्काम को मेरी पत्नी कामी बनने को प्रेरित कर भ्रष्टाचार की राह पर स्वयं धकेल रह थी। मुझे धिक्कार है कि मैं जीवनभर, चार क्या एक भी फल देने वाला भ्रष्टाचार न कर सका। मैंने कॉलेज में मास्टर की नौकरी करते हुए फ्रेंच लीव मारने जैसा जो तनिक- सा भ्रष्टाचार किया है उसने पत्नी की श्रीवृद्धि में कोई वृद्धि नहीं की है। हिंदी जैसे विषय में कोई ट्यूशन नहीं रखता और न ही कोई कोचिंग सेंटर वाला घास डालता है अत: मैंने अपने काम से ही काम रखा है। मास्टर की नौकरी किसी गरीब के झोपड़े-सा ऐसा स्थल है जहां भ्रष्टाचार का वसंत कभी भी झांकता तक नहीं है।
पर मित्रों चुनौती एक बड़ी चीज होती है और पुरुष के पौरुष को जब चुनौती मिलती है तो पत्थर में कमल खिल जाते हैं । ये दीगर बात है कि कमल दूसरे को मिलते हैं और पत्थर दीवाने के हिस्से में आते हैं। पर यहां तो चुनौती कम धमकी अधिक थी और जस की तस धरी हुई चदरिया में तलाक का दाग लगने का खतरा था।
मैंने भ्रष्टाचार की राह पर चलने की ठान ली। अगले दिन मैंने अपने एक विद्यार्थी को ब्लैकमेल करने के इरादे से कहा- 'देखो तुम्हारी एटेंडेंस कम हैं, इस बार परीक्षा में नहीं बैठ पाओगे, मुझसे अकेले में मिलना।'
'अरे सर जी मैं आपको तकलीफ न दूंगा, यूनियन का प्रेजीडेंट सब करवा देगा उसी से मिल लूंगा।'
मैंने दूसरे को पकड़ा और कुछ बेशर्मी से कहा - 'तुम कुछ पढ़ लिख नहीं रहे हो। इस बार फेल हो जाओगे। पास होना चाहते हो तो मुझसे अकेले में मिल लो।'
स्टुडेंट जी अधिक बेशर्मी से बोले- 'सर जी आप तो केवल हिंदी में पास करवाओगे, इक्जामिनेशन वाले शर्मा जी तो सबमें पास करवा देंगे। मैं उनसे ही मिल लूंगा।'
मित्रों जैसे- जैसे 3 माह की अवधि समाप्त हो रही है देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के संग मेरी आंखों का अंधेरा भी बढ़ रहा है।
अब मेरे सामने एक ही विकल्प बचा है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों के दल में शामिल हो जाऊं नारे लगाऊं और हो सकता है वहां मुझे भ्रष्ट करने वाले कोई संकटमोचक भ्रष्टाचार शिरोमणी मिल जाए जो अपनी शरण में ले ले और बुढ़ापे में मुझे तलाक से बचा ले।
संपर्क: संपादक: 'व्यंग्य यात्रा' , 73- साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110 063
मो.- 09811154440, Email: prem_janmejai@yahoo.com

दो लघुकथाएँ

कमीज़- रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रूपए पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रूपए थे। अब सिर्फ दस रूपए बचे हैं?
पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, 'पर्स में से एक सौ पचास रूपए तुमने लिए हैं?'
'नहीं, मैंने नहीं लिए।'
'फिर?'
'मैं क्या जानूँ किसने लिए हैं।'
'घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?'
'हो सकता है किसी बच्चे ने लिए हों।'
'क्या तुमसे नहीं पूछा?'
'पूछता तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।' हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन-चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार मांगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा मांगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं!
'नीतेश कहां गया?'
'अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।'
'हो सकता है का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं', वह झुंझलाया।
'आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए तो जरूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं', पत्नी ठण्डेपन से बोली।
इतने में नीतेश आ पहुंचा। हाथ में एक पैकेट थामे ।
'क्या है पैकेट में?' हरीश ने रूखेपन से पूछा । वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
'पर्स में से डेढ़ सौ रुपए तुमने लिये?'
'मैंने...लिये', वह सिर झुकाए बोला।
'किसी से पूछा?' हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।
'नहीं', वह रूआंसा सा होकर बोला।
'क्यों? क्यों नहीं पूछा', हरीश चीखा।
'....।'
'चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का', उसने दाँत पीसे।
नीलेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया-पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूं। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।'
'फि...फिर...भी...पूछ लेते ही', हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहां गुम हो गई थी। उसने पैकेट को सीने से सटा लिया।

अपने अपने सन्दर्भ

इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहां मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झांकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप-सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले- 'जानते हो, यह कैसा दर्द है?' मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले- 'यह दर्दे- दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।'
मैं मुस्करा दिया।
धीरे- धीरे उनका दर्द बढऩे लगा।
'मैं आपको घर तक पहुंचा देता हूं।' मोड़ पर पहुंचकर मैंने आग्रह किया- 'आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।'
'तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊंगा। मेरे साथ तुम कहां तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।' वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी- 'लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?'
'
मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।' वे हंसे उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईजी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर में कहा- 'रात- रात भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं- मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।'
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया- 'उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी-सी सांसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी-' कहते- कहते हठात् दो आंसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
संपर्क: फ्लैट न-76,(दिल्ली सरकार) रोहिणी सैक्टर -11 , नई दिल्ली-110085 मो. 09313727493 Email: rdkamboj@gmail.com

सूरज जी ने अपना खजाना ऐसे बांटा...

जाने माने कथाकार सूरज प्रकाश ने पिछले दिनों किताबों के अपने अमूल्य खजाने को बाँट दिया! उन्होंने अपनी इन किताबों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए फेसबुक और ब्लाग को माध्यम बनाया था। अफसोस हम नहीं पंहुच पाए लेकिन उदंती के पाठकों के लिए उनका वह पत्र हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं ताकि सबको पता चल सके कि उन्होंने बरसों से संजोयी 4 हजार किताबों को अपने घर से कैसे विदा किया। हममें से कई हैं जो यह सोचते ही रह जाते हैं कि अपनी असंख्य किताबों का क्या करें? सूरज जी की यह पहल हमारे लिए नए वर्ष का संकल्प हो सकता है। विश्वास है इस पहल से लोगों को एक राह मिलेगी और पढऩे वालों को किताबों का खजाना। - संपादक
सूरज जी से आप संपर्क कर सकते हैं- mail@surajprakash.com, मो.९९३०९९१४२४, तथा उनके रचना संसार को जानने के लिए देखें- www.surajprakash.com

मित्रो 
मैंने मन बना लिया है कि अपने जीवन की सबसे बड़ी, अमूल्य और प्रिय पूंजी अपनी किताबों को अपने घर से विदा कर दूं। वे जहां भी जायें, नये पाठकों के बीच प्यार, ज्ञान और अनुभव का खजाना उसी तरह से खुले हाथों बांटती चलें जिस तरह से वे मुझे और मेरे बच्चों को बरसों से समृद्ध करती रही हैं। उन किताबों ने मेरे घर पर अपना काम पूरा कर लिया है बेशक ये कचोट रहेगी कि दोबारा मन होने पर उन्हें नहीं पढ़ पाऊंगा लेकिन ये तसल्ली भी है कि उनकी जगह पर नयी किताबों का भी नम्बर आ पायेगा जो पढ़े जाने की कब से राह तक रही हैं।
लाखों रुपये की कीमत दे कर कहां- कहां से जुटायी, लायी, मंगायी और एकाध बार चुरायी गयी मेरी लगभग 4000 किताबों में से हरेक के साथ अलग कहानी जुड़ी हुई है। अब सब मेरी स्मृतियों का हिस्सा बन जायेंगी। कहानी, उपन्यास, जीवनियां, आत्मकथाएं, बच्चों की किताबें, अमूल्य शब्दकोष, एनसाइक्लोपीडिया, भेंट में मिली किताबें, यूं ही आ गयी किताबें, रेफरेंस बुक्स सब कुछ तो है इनमें।
ये किताबें पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्तक प्रेमियों तक पहुंचें, ऐसी मेरी कामना है।
24 और 25 दिसम्बर 2011 को दिन में मुंबई और आस पास के मित्र मेरे घर एच 1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड पूर्व आ कर अपनी पसंद की किताबें चुन सकते हैं। बाहर के पुस्तकालयों, वाचनालयों, जरूरतमंद विद्यार्थियों, घनघोर पाठकों और पुस्तक प्रेमियों को किताबें मंगाने की व्यवस्था खुद करनी होगी या डाक खर्च वहन करना होगा।
मेरे प्रिय कथाकार रवीन्द्र कालिया जी ने एक बार कहा था कि अच्छी किताबें पतुरिया की तरह होती हैं जो अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं और एक पाठक से दूसरे पाठक के घर भटकती फिरती हैं और खराब किताबें आपके घर के कोने में सजी संवरी अपने पहले पाठक के इंतजार में ही दम तोड़ देती हैं।
कामना है कि मेरी किताबें पतुरिया की तरह खूब लम्बा जीवन और खूब सारे पाठक पायें।
आमीन
- सूरज
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सोशल नेटवर्किंग का कमाल
मप्र में लंबे समय से पिछड़ेपन का शिकार बने रहे बुंदेलखंड क्षेत्र के छतरपुर जिले के बक्स्वाहा कस्बे के निवासी संतोष पाठक ने बताया कि फेसबुक पर उनकी मुलाकात सूरज प्रकाश से हुई। जिसमें उन्होंने लिखा था कि वे अपनी किताबों को साहित्य प्रेमियों के बीच मुफ्त बांटना चाहते हैं।
पाठक ने बक्सवाहा कस्बे के पिछड़ेपन का हवाला देते हुए सूरज प्रकाश से निवेदन किया कि कुछ किताबें उन्हें भी भिजवा दें क्योंकि उनके गांव में भी साहित्य में रुचि रखने वालों की कमी नहीं है, लेकिन गांव में न तो अच्छा साहित्य उपलब्ध हो पाता है न ही लोगों में उसे खरीदने की सामथ्र्य होती है। पाठक की बातों से प्रभावित होकर सूरज प्रकाश ने तकरीबन 300 किताबें डाक के जरिए बक्स्वाहा भिजवा दी।
किताबों का पार्सल मिलने से गांव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। ग्रामीण राजेश खरे का कहना है कि लोगों कभी सोचा भी नही था कि दुनिया में कोई शख्स मौजूद हो सकता है, जो उनके जैसे गांवों में रहने वाले साहित्य प्रेमी की कद्र करेगा। मगर स्वप्न सी लगने वाली यह सोच फेसबुक की वजह से अब हकीकत बन गई है। बक्स्वाहा में अब वाचनालय खुल गया है।